शनिवार, 29 सितंबर 2007

वृध्दाश्रमों में कैद होती झुर्रियाँ

एक अक्टूबर को वृध्द दिवस
डा. महेश परिमल
'माँ तुम इस माटी से कितना अच्छा चूल्हा बनाती हो कि लोग तो उसे मुझसे माँग ही लेते हैं.' बहू के ये प्यार भरे वाक्य सास को सदैव ही और भी अधिक काम करने के लिए प्रेरित करते. वह और अधिक मेहनत से बहू के लिए चूल्हा कनाती. गाँव से आई सास को यह शायद पता ही नहीं था कि शहरी बहू उसे किस तरह से बेवकूफ बना रही है. क्योंकि बहू से लोग चूल्हा तो ले जाते थे, पर उसके दाम भी चुकाते थे. ये बात सास को नहीं मालूम थी. इस तरह से बहू अनेक तरह से अपनी सास का शोषण करती और सास को इसकी भनक तक नहीं लगती.
ये है हमारे बुंजुर्गों की स्थिति! ये वही बुंजुर्ग हैं, जो आज कहीं-कहीं खून के ऑंसू रो रहे हैं. बचपन में यही संतान माँ के बिस्तर को गीला करती थी, आज उनकी ऑंखों को गीला करती हैं. वैसे वृध्दाश्रमों में भी यह पीढ़ी कोई अधिक सुखी नहीं है. सर्वेक्षण रिपोर्ट चाहे कुछ भी कहे, पर सच तो यह है कि वहाँ भी केवल धन का ही खेल है. कौन कितना मालदार है, या फिर किसकी कितनी रकम बैंक में जमा है. इसी आधार पर उनसे व्यवहार होता है. बुंजुर्ग अब हमारे लिए 'अनवांटेड' हो गए हैं. उन्हें हमारी जरूरत हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है. बार-बार हमें टोकते रहते हैं, वे हमें अच्छे नहीं लगते. हम स्वतंत्रता चाहते हैं, इसलिए हमने उन्हें अपनी मंर्जी से जीने के लिए छोड़ दिया. अब वे वहाँ खुश रहें और हम अपने में खुश रहें, बस......
ये विचार हैं आज के इस कंप्यूटर युग के एक युवा के. उन्हें याद नहीं है कि उसके माता-पिता ने उसे किस तरह पाला-पोसा. याद नहीं, ऐसी बात नहीं, बल्कि याद रखना ही नहीं चाहते. उनका मानना है कि उन्होंने हम पर एहसान नहीं किया, बल्कि अपनेर् कत्तव्य का पालन ही किया है. सभी माता-पिता अपने बच्चों का पढ़ाते-लिखाते हैं. उन्होंने कुछ अलग नहीं किया. ये हैं रफ-टफ दुनिया के युवा विचार. कुछ वर्ष बाद जब इन्हीं युवाओं पर परिवार की जिम्मेदारी आएगी, तब ये क्या सचमुच सोच पाएँगे कि हमारे माता-पिता ने हमें किस तरह बड़ा किया?
बड़े भाई के असामयिक निधन का दु:खद समाचार मिला, हृदय द्रवित हो उठा. मैं उनसे 14 घंटे दूर था. इसलिए उनकी अंत्येष्टि में शामिल नहीं हो पाया. अब मुश्किल यह थी कि निधन की सूचना पाने के बाद मुझे क्या करना चाहिए? घर में हम केवल चार प्राणी, कोई बुजुर्ग नहीं. वे होते तो हम शायद उनसे कुछ पूछ लेते, आखिर वे ही तो होते हैं हमारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के जानकार. ऐसे में सहसा वह झुर्रीदार चेहरा हमारे सामने होता है, जिसकी गोद में हमारा बचपन बीता, जिनकी झिड़की हमें उस समय भले ही बुरी लगी हो, पर आज गीता के उपदेश से कम नहीं लगती. उनकी चपत ने हमें भले ही रुलाया हो, पर आज अकेलेपन में वही प्यार भरी हलकी चपत हमें फिर रुलाती है.
'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा खंडित हो चुकी है. एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोड़ना चाहते हैं. पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं. इसकी वजह भी हम हैं. हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते. इससे उस पोपले मुँह के अहम् को चोट पहुँचती है. उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता. भविष्य में जब कभी हमारा आज्ञाकारी पुत्र हमारी परवाह न करते हुए प्रेम विवाह कर लेता है और अपनी दुल्हन के साथ हमारे सामने होता है, हमसे आशीर्वाद की माँग करता है. तब हमें लगता है कि हमारे बुजुर्ग भी हमारे कारण इसी अंतर्वेदना की मनोदशा से गुजरे हैं. तब हमने उन्हें अनदेखा किया था.
संभव है अपने बुजुर्ग की उस मनोदशा को आपके पुत्र ने समझा हो और आपको उनकी पीड़ा का आभास कराने के लिए ही उसने यह कदम उठाया हो. ऐसा क्यों होता है कि जब बुजुर्ग हमारे सामने होते हैं, तब ऑंखों में खटकते हैं. वे जब भी हमारे सामने होते हैं, अपनी बुराइयों के साथ ही दिखाई देते हैं. बात-बात मेंं हमें टोकने वाले, हमें डाँटने वाले और परंपराओं का कड़ाई से पालन करते हुए दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने वाले बुजुर्ग हमें बुरे क्यों लगते हैं? आखिर वही बुजुर्ग चुपचाप अपनी गठरी समेटकर अनंत यात्रा में चले जाते हैं, तब हमें लगता है कि हम अकेले हो गए हैं. अब वह छाया हमारे सर पर नहीं रही, जो हमें ठंडक देती थी, दुलार देती थी, प्यार भरी झिड़की देती थी.
यही समय होता है पीढ़ियों के द्वंद्व का. एक पीढी हमारे लिए छोड़ जाती है जीने की अपार संभावनाएँ, अपने पराक्रम से हमारे बुजुर्गों ने हमें जीवन की हरियाली दी, हमने उन्हें दिए कांक्रीट के जंगल. उन्होंने दिया अपनापन और हमने दिया बेगानापन. वे हमारी शरारतों पर हँसते-हँसाते रहे, हम उनकी इच्छाओं को अनदेखा करते रहे. वे सभी को एक साथ देखना चाहते थे, हमने अपनी अलग दुनिया बना ली. वे जोड़ना चाहते थे, हमारी श्रध्दा तोड़ने में रही. घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना. साल में एक बार अचार या बड़ी का बनना, या फिर बच्चों के लिए रोज ही प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनना, बात-बात में ठेठ गँवई बोली के मुहावरों का प्रयोग या फिर लोकगीतों की हल्की गूँज. यह न हो तो भी कभी-कभी गाँव का इलाज तो चल ही जाता है. पर अब यह सब कहाँ?
अब यह बात अलग है कि स्वयं बुजुर्गों ने भी कई रुढ़िवादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नातिन या पोते की बाइक पर पीछे निश्ंचित होकर बैठ जाते हैं. यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा. पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं. पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह ंगलत है. पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है. कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का काँधा नहीं होता. बुजुर्ग या तो संसार छोड़ चुके होते हैं या गाँव में एकाकी जीवन बिताना प्रारंभ कर देते हैं.
आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. उनके पास अनुभवों का भंडार है, उनके दिन, रातों के कार्बन लगी एक जैसी प्रतियों से छपते रहते हैं. कही कोई अंतर नहीं. वे अपने समय की तुलाना आज के समय के साथ करना चाहते हैं, उनके ंफर्क को रेखांकित करना चाहते हैं, पर किससे करें? उनके अंधिकांश मित्र छिटक चुके होते हैं. यदि आप किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उसे अपनी बात कहने का अवसर दें और उसकी अभिव्यक्ति का आनंद महसूस करें, तो आप पाएँगे कि आपने बिना कुछ खर्च किए परोपकार कर दिया है. फिर शायद उन्हें कराहने की जरूरत नहीं पड़े और न बिना बात बड़बड़ाने की. दिन में आपने जिस बुंजुर्ग की बात ध्यान से सुनी हो, उसे रात में चैन की नींद लेते हुए देखें, तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपका छोटा-सा बच्चा नींद में मुस्करा रहा हो.
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं. उनके पोपले मुँह से आशीर्वाद के शब्द को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएँ हैं. दादी माँ का केवल 'बेटा' कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं. यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दे, तो समझो हम निहाल हो गए. लेकिन वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात का परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं. हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं. इसके बाद भी इन बुजुर्गाें के मुँह से आशीर्वाद स्वरूप यही निकलता है कि जैसा तुमने हमारे साथ किया, ईश्वर करे तुम्हारा पुत्र तुम्हारे साथ वैसा न करे. देखा..... झुर्रीदार चेहरे की दरियादिली?
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

आज के झूलाघर, कल के वृद्धाश्रम

डॉ. महेश परिमल
शीर्षक आपको निश्चित ही चौंका सकता है, किंतु यह आज के बदलते समाज की एक कड़वी सच्चाई है। इस सच्चाई से कोई मुकर नहीं सकता। आज जिन हाथों को थामकर मासूम झूलाघर में पहुँचाए जा रहे हैं, वही मासूम हाथ युवावस्था की देहरी पार करते ही उन काँपते हाथों को वृद्धाश्रम पहुँचाएँगे, इसमें कोई दो मत नहीं। यह खयाल तब आया, जब एक अखबार में पढ़ा कि शहर के एक वृध्दाश्रम में अगले दस वर्षों तक किसी भी बुजुर्ग को नहीं लिया जाएगा। वहाँ की सारी सीटें बुक हो चुकी हैं। यह एक दहला देने वाली खबर है, जो आज के बदलते समाज को एक करारा चाँटा है, पर इसकी भयावहता को आखिर कौन समझेगा?
एक पिता की ऑंखों में अपने बढ़ते बच्चे को देखकर कौन-सा सपना पलता है, कभी इसे उसके चेहरे पर देखने की कोशिश की है आपने? जब एक पिता अपने मासूम और लाडले को ऊँगली थामकर चलना सिखाता है, तो दिल की गहराइयों में कहीं एक आवाज उठती है, एक सपना पलता है कि आज तेरी ऊँगली पकड़कर मैं तुझे चलना सीखा रहा हूँ, और कल जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ, तो ऐ मेरे लाडले तू भी इसी तरह मेरा हाथ थामे मुझे सहारा देना। लेकिन बहुत ही कम ऐसे भाग्यशाली होते होंगे, जिनका ये सपना सच होता होगा।
यह समाज की सच्चाई है कि झुर्रीदार चेहरा हमेशा हाशिए पर होता है। तट का पानी हमेशा बेकार होता है और जीवन की साँझ का मुसाफिर हमेशा भुला दिया जाता है। जिस तरह डूबते सूरज को कोई नमन नहीं करता, उसी तरह अनुभव की गठरी बने बुजुर्ग को भी कोई महत्व नहीं देता। वह केवल घर के एक कोने पर रखी हुई जर्जर मेज की तरह उपेक्षित ही रहता है, जिस पर कभी कबाड़ी की नजर भी जाती है, तो तिरस्कार के भाव से, इसके साथ ही उसे कम से कम पैसे में खरीद लेने की चाहत होती है।
बुजुर्गों पर हमेशा यह आरोप लगाया जाता है कि वे समय के साथ नहीं चलते, सदैव अपने मन की करना और कराना चाहते हैं। उन्होंने जो कुछ भी सीखा, उसे अपने बच्चों पर लादना चाहते हैं। उनके मन का कुछ न होने पर वे बड़बड़ाते रहते हैं। उनका यह स्वभाव आज के युवाओं को बिलकुल नहीं भाता। कहते हैं कि बुढ़ापे के साथ बचपन भी आ जाता है। बच्चों को एक बार सँभाला भी जा सकता है, पर बुजुर्गों को सँभालना बहुत मुश्किल होता है। ये सारे आरोप अपनी जगह पर सही हो सकते हैं। पर इसे ही यदि स्वयं को उनके स्थान पर रखकर सोचा जाए, तो कई आरोप अपने आप ही धराशायी हो जाते हैं। रही बात नई पीढ़ी के साथ कदमताल करने की, तो कौन कहता है कि ये नई पीढ़ी के साथ कदमताल नहीं करना चाहते। क्या कभी किसी सास या बुजुर्ग महिला को अपनी बेटी या बहू के साथ स्कूटी पर पीछे बैठकर मंदिर जाते या शापिंग करने जाते नहीं देखा गया है? यही नजारा सुबह किसी पार्क में भी देखा जा सकता है, जहाँ बुजुर्ग दौड़ लगाते हुए देखे जा सकते हैं, या फिर किसी नवजवान को कसरत के सही तरीके बताते हुए देखे जा सकते हैं। अरे भाई अधिक दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है, शादी-समारोह में किसी बुजुर्ग को रीति-रिवाजोें के बारे में विस्तार से बताते हुए भी तो अक्सर देखा गया है।
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, यदि समाज या घर में आयोजित धार्मिक कार्यक्रम में कुछ गलत हो रहा है, तो इसे बताने के लिए इन बुजुर्गों के अलावा कोन है, जो हमें सही बताएगा? शादी के ऐन मौके पर जब वर या वधू पक्ष के गोत्र बताने की बात आती है, तो घर के सबसे बुजुर्ग की ही खोज होती है। आज की युवा पीढ़ी भले ही इसे अनदेखा करती हो, पर यह भी एक सच है, जो बुजुर्गों के माध्यम से सही साबित होता है। घर में यदि कंप्यूटर है, तो अपने पोते के साथ गेम खेलते हुए कई बुजुर्ग भी मिल जाएँगे, या फिर आज के फैशन पर युवा बेटी से बात करती हुई कई बुजुर्ग महिलाएँ भी मिल जाएँगी। यदि आज के बुजुर्ग यह सब कर रहे हैं, तो फिर उन पर यह आरोप तो बिलकुल ही बेबुनियाद है कि वे आज की पीढ़ी के साथ कदमताल नहीं करते।
बुजुर्ग हमारे साथ बोलना, बतियाना चाहते हैं, वे अपनी कहना चाहते हैं और दूसरों की सुनना भी चाहते हैं। पर हमारे पास उनकी सुनने का समय नहीं है, इसीलिए हम उनकी सुनने के बजाए अपनी सुनाना चाहते हैं। याद करो, अपनेपन से भरा कोई पल आपने अपने घर के बुजुर्ग को कब दिया है? शायद आपको याद ही नहीं होगा। क्योंकि अरसा बीत गया, इस बात को। इसे ही दूसरी दृष्टि से देखा जाए कि ऐसा कौन-सा पल है, जिसे घर के बुजुर्ग ने आपसे बाँटना नहीं चाहा? बुजुर्ग तो हमें देना चाहते हैं, पर हम ही हैं कि उनसे कुछ भी लेना नहीं चाहते। हमारा तो एक ही सिध्दांत हैं कि बुजुर्ग यदि घर पर हैं, तो शांत रहें, या फिर बच्चों और घर की सही देखभाल करें। इससे अधिक हमें कुछ भी नहीं चाहिए।
आज के बुजुर्ग केवल स?जी लाने, बच्चों को स्कूल लाने-ले जाने, गेहूँ पिसवाने, बिजली या टेलीफोन का बिल जमा करवाने के लिए नहीं हैं, उनसे कभी कहानियों का पिटारा खोलने को कहकर तो देखें, फिर देखो, किस तरह से निकलती हैं, उनके पिटारे से शिक्षाप्रद और रहस्यमयी कहानियाँ। कभी सुनी हैं उनके पोपले मुँह से मीठी लोरियाँ? हाथ चाट जाए, ऐसे अचार की रेसीपी आखिर किसके पास मिलेगी? और तो और घर में कभी किसी को कोई छोटी-सी बीमारी हुई, और उसका घरेलू उपचार बताने के लिए किसे ढूँढ़ा जाएगा भला? घर में अचानक फोन आता है कि गाँव में रहने वाले ताऊ या फिर कोई सगे-संबंधी की मौत हो गई हे, तो ऐसे मेें घर में क्या-क्या करना चाहिए, यह कौन बताएगा? अपने घर की परंपरा किसी पड़ोसी से तो नहीं पूछी जा सकती। उसे तो हमारे घर के बुजुर्ग ही बता पाएँगे।
आज यह धरोहर हमसे दूर होती जा रही है। सरकार तो किसी भी पुरानी इमारत को हेरीटेज बनाकर उसे नवजीवन दे देती है। लोग आते हैं और बुजुर्गों के उस पराक्रम की महिमा गाते हैं। पर घर के ऑंगन में ठकठक की गूँजती आवाज जो हमारे कानों को बेधती है, आज वह आवाज वृध्दाश्रमों में कैद होने लगी है। झुर्रियों के बीच अटकी हुई उनके ऑंसुओं की गर्म बूँदें हमारी भावनाओं को जगाने में विफल साबित हो रही हैं, हमारी उपेक्षित दृष्टि में उनके लिए कोई दयाभाव नहीं है । यह शुरुआत है एक अंधकार की, जहाँ खो जाएँगे हम भी एक दिन ......
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

अपनेपन को तरसते अपनापन लुटाने वाले

डॉ. महेश परिमल
एक षानदार भवन और उस भवन में बने कई छोटे-छोटे कमरे और उन कमरों में से एक कमरे के अहाते में बैठा एक बूढ़ा, बेबस, झुर्रीदार चेहरा लिए एक गमगीन व्यक्तित्व। जो गुनगुना रहा है-
एक ये दिन जब अपनों ने भी नाता तोड़ लिया...
और एक वो दिन जब पेड़ की षाखें बोझ हमारा सहती थीं... मुझको यकीं है सच कहती थीं, जो भी अम्मी कहती थीं....
गीत की ये पंक्तियाँ यूं ही होंठ नहीं गुनगुनाते और फिर बुढ़ापे में तो जब मन सारी मोह-माया से दूर ईष्वर के करीब जाता है, तो इस स्थिति में तो कदापि नहीं। फिर भला लरजते होठों पर इस गीत ने अपना अधिकार क्यों जमाया? केवल इसलिए कि इस गीत में एक सच्चाई है, जो उस बूढ़े का अनुभव बनकर कभी उसकी ऑंखों से बहती है, तो कभी गीत बन कर होठों से गुनगुनाती है।
कहते हैं कि हमारे देष में जितने झूलाघर हैं, उतने ही वृध्दाश्रम भी हैं। जबकि विदेषों में जितने झूलाघर हैं, उससे भी कहीं अधिक वृध्दाश्रम हैं। यदि हम ऐसे ही अपनेर् कत्तव्यों से विमुख होते रहें, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देष की स्थिति भी विदेष जैसी हो जाएगी। हाँ, ये संख्या उस स्थिति में अवष्य घट सकती है, जब अनाथाश्रम से गोद लिए जाने वाले अनाथ बच्चों की तरह वृध्दाश्रम से लाचार और बेबस माँ-बाप को भी गोद लिया जाए!
आज माता-पिता युवा पीढ़ी के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। पिज्जा और बर्गर की षौकीन जवानी बूढ़े स्वाद से नाता तोड़ रही है। बरगद की वह घनी छाँव जो कभी जीवन की कड़ी धूप में आधार बनी थीं, वो ही छाँव अब उन्हें अंधकार का आभास दिलाने लगी हैं, इसलिए पहले तो उन्होंने लापरवाहीपूर्ण व्यवहार कर उनकी षाखों को काटने का प्रयास किया और जब इससे काम न बना तो जड़ को काट कर उनसे नाता ही तोड़ लिया।
एक डॉक्टर बेटे के पास दिन में 20-22 मरीज देखने का तो समय है, किंतु घर में बीमार पड़े पिता को देखने का समय नहीं है। इसलिए उसने उन्हें एक प्राईवेट हॉस्पीटल में दूसरे डॉक्टर और नर्स की देखरेख में रख दिया है।
नारी उत्थान केन्द्र की अध्यक्षा के पास दिन में कई संस्थाओं से जुड़ने का समय होता है, महिला विकास पर भाषण देने का समय होता है, वृध्दाश्रम जाकर निराश्रित बुजुर्गो को षॉल या कपड़े बाँटने का समय होता है, किंतु घर आकर घर के स्टोर रूम में एक टूटी चारपाई पर पड़ी विधवा सास के हालचाल पूछने का समय नहीं होता।
किटी पार्टी में विविध विषयों पर चर्चा करती महिलाओं के पास रमी खेलने या वन मिनट षो खेलने का समय होता है, झुग्गी-बस्तियों में जाकर वहाँ के निरक्षर लोगों को साक्षर बनाने का, उन्हें जागरूक करने का समय होता है, किंतु घर में दो घड़ी बैठकर बूढ़े माता-पिता के साथ दो मीठे बोल बोलने का समय नहीं होता।
ये मात्र वे उदाहरण हैं, जो आज हर तीसरे घर मेें देखने को मिल जाएँगे, किंतु अब जिस घटना के बारे में लिखने जा रहा हूँ, वह चौंकाने वाली है- ऑंध्र प्रदेष के एक गाँव की घटना है। 75 वर्षीय एक वृध्दा, नाम है पद्मावती। जिसने अपना पेट काटकर बड़ी कठिनाइयों के साथ अपने बच्चों को बड़ा किया, उन्हें पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया। सभी संतान आर्थिक रूप से सुखी और संपन्न। ढलती उम्र में पद्मा अम्मा को केन्सर ने आ घेरा। बेटे उन्हें विषाखापट्टनम के एक बड़े अस्पताल में ले आए। वहाँ उनका इलाज षुरू हुआ। इलाज में कोई कमी नहीं रखी गई, किंतु हालात में अधिक बदलाव नहीं आया। आखिर डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि अम्मा अधिक समय तक नहीं जी पाएँगी। बस दुआ की जरूरत है और कुछ दवाएँ हैं, जो स्थिति यथावत रखने के लिए देना जरूरी है। इसलिए घर ले जाओ और जितनी सेवा कर सकते हो करो और उनका अंतिम समय संभाल लो।
घटना में नया मोड़ अब आया। पद्मावती के एक बेटे ने डॉक्टर से अनुरोध किया कि हॉस्पीटल से घर तक का रास्ता काफी लम्बा है। अत: आप इन्हें नींद का ईंजेक्षन दे दें, ताकि ले जाते समय रास्ते में कोई परेषानी न हो। डॉक्टर ने भी मरीज की हालत देखते हुए उन्हें नींद का ईंजेक्षन दे दिया। उसके बाद दूसरा बेटा कहीं से मृत्यु का एक फर्जी सर्टिफिकेट ले आया। फिर बेहोषी की हालत में पद्मा अम्मा को वे लोग सीधे ष्मषान ले गए। ष्मषान के स्टाफ को बेटों की राजनीति पता नहीं थी। उन्होंने चिता तैयार की और 'मृत देह' को चिता पर रखा। ठीक उसी समय ईष्वर की इच्छा से अम्मा की बेहोषी टूटी और उन्होंने ऑंखें खोली। चिता पर लकड़ी जमाने वाला व्यक्ति चीख उठा- अम्मा जिंदा है, उतारो, इन्हें चिता से नीचे उतारो... किंतु स्वार्थी बेटे अम्मा को वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। तब ष्मषान के कर्मचारियों ने इसकी सूचना पुलिस को दी, पुलिस ने तुरंत कार्रवाई करते हुए पद्मावति के स्वजनों को गिरफ्तार कर लिया। इस संबंध में विषाखापटनम के पुलिस कमिष्नर वी.एस.के कौमुदी ने बताया कि पुलिस ने परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए आवष्यक कदम उठाए, तो आज स्थिति यह है कि पद्मावति अपने बड़े पुत्र श्रीनिवासन के साथ रह रही हैं। अब श्रीनिवास अपनी माँ की देखभाल अच्छे से कर रहा है, इसकी निगरानी भी पुलिस ही कर रही है। सोच लो, आज झुर्रीदार चेहरे और लरजते होठों की हमारे समाज में क्या स्थिति हो गई है। एक माँ अपने ही पुत्र के साथ किस तरह से रह रही है, इसकी जानकारी भी पुलिस को रखनी पड़ रही है।
हमारे समाज में दिनों-दिन इस तरह की घटनाएँ बढ़ रही हैं। कई संतान तो इतनी आधुनिक हो गई हैं कि विधवा माँ को तीर्थ यात्रा कराने के बहाने कुछ धार्मिक स्थानों में ले जाती हैं, वहाँ एक मंदिर में बिठाकर प्रसाद लेने के बहाने पुत्र वहाँ से चम्पत हो जाता है। हमारे देष के तमाम संत अपनी वाणी में यही कहते हैं कि माता-पिता की सेवा करो। उनका यही तर्क होता है कि जब आप कुत्ते-बिल्ली पर अपना प्यार जता सकते हैं, तो अपने माता-पिता पर क्यों नहीं? अपने बूढ़े माता-पिता को बोझ समझने वाली यह पीढ़ी यह क्यों भूल जाती है कि उनके बच्चे यदि उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करेंगे, तो उनका क्या होगा? मुझे तो विष्वास है कि इस छोटी सी पीढ़ी को अपने माता-पिता की कमी कभी नहीं खलेगी, उन्हें यदि अपने माता-पिता न मिले, तो वे निष्चित ही वृध्दाश्रम से माता-पिता गोद ले लेंगे। इस मासूम पीढ़ी में ऐसा करने की हिम्मत है, क्योंकि इस तरह की खबरें भी आना षुरू हो गई हैं।
दक्षिण भारत जहाँ साक्षरता अधिक है, वहीं का एक और किस्सा है। इस बार हमारे सामने पर्वत अम्मा है, जो एक अस्पताल में इलाज करवा रही थी। उनकी हालत काफी खराब हो गई, जबान ने साथ देने से इंकार कर दिया, तो पुत्रों ने अपनी माँ को अस्पताल से सीधे ष्मषान पहुँचा दिया, वहाँ उन्होंने कर्मचारियों को एक हजार रुपए देते हुए कहा कि ये माताराम जब परलोक सिधार जाएँ, तो उनका क्रियाकर्म कर देना। यह सुनकर वहाँ के कर्मचारी हतप्रभ रह गए। उन्होंने इसकी जानकारी पुलिस को दी। पुलिस के आने के पहले ही पुत्र वहाँ से भाग गए थे। तब पुलिस के संरक्षण में ही कर्मचारियों ने उस बूढ़ी अम्मा का ध्यान रखा। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया। बूढ़ी ऑंखों और लाचार जबान से वह अपने बेटों को याद करते हुए उसने दस दिन के बाद दम तोड़ दिया। उसकी अंत्येष्टि भी पुलिस ने की। बेटों ने आखिर तक अपनी माँ की सुध नहीं ली। अब पुलिस उन कपूतों को ढूँढ़ रही है।
आज की युवा पीढ़ी रिष्तों को एक सीढ़ी समझकर आगे बढ़ती है, इसमें उन कांधों का सहारा लेती है, जिन पर चढ़कर उन्होंने अपनी मंजिल को देखा था। आज वे लरजते हाथ, बूढ़ी ऑंखें, झुर्रीदार चेहरा, खल्वाट सर जाने क्या कहना चाहते हैं, पर उस ओर देखने की फुरसत नहीं है। घर के एक कोने में दुबकी एक गठरी न जाने कब, किस वक्त एक लम्बे सफर पर निकल जाए, उसके पहले युवाओं सोचो, आखिर इनकी गलती क्या है? यही ना कि उन्होंने आपको इतना बड़ा बना दिया कि ये बौने नजर आने लगे हैं। इन्होंने अपनी ऊँगली इसलिए दी थी कि कल आप उनका हाथ थाम सकें। आज वे हाथ इतने मजबूत अषक्त हो गए हैं कि केवल संतानों का ही हाथ पकड़ पाते हैं। वृध्दाश्रमों की पहचान बनने वाले ये झुर्रीदार चेहरे आज हाषिए पर हो गए हैं। यही हाल रहा तो ये आने वाली पीढ़ी इन्हें भी किसी कोने में गठरी बनने के लिए विवष कर देगी। तब क्या होगा, सोचा है आज की पीढ़ी ने?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 26 सितंबर 2007

कागा के बहाने बुजुर्गों की बात....

डॉ. महेश परिमल
कौवे वे भी काले, हमें क्या किसी को भी फूटी ऑंख नहीं सुहाते. क्योंकि हम अब भी उसे अपशकुन के रूप में स्वीकारते हैं. वह पर्यावरण का सच्चा साथी भी हो सकता है, यह हमारी कल्पना के बाहर है. पर अब वही काला कौवा हमसे लगातार दूर होता जा रहा है, और यह मंजर हम सभी अपनी ऑंखों से देख रहे हैं. पहले उसे किसी सूचना का संवाहक माना जाता था, याने वह एक कासिद बनकर हमारे बीच रहता था, पर अब वह कासिद नहीं, बल्कि हमारे आसपास नष्ट होते पर्यावरण के रक्षक के रूप में मौजूद है. हमारी ऑंखें भले ही उसे इस रूप में न स्वीकार करती हों, पर यह सच है कि पर्यावरण का यह सच्चा प्रहरी अब हमारी ऑंखों से दूर होता जा रहा है. अब उसकी भूमिका कासिद की नहीं रही. जमाना बहुत तेजी से भाग रहा है, इंटरनेट के इस युग में भला पारंपरिक रूप से सूचना देने के इस वाहक का क्या काम? पर कभी आपने इस काले और काने कौवे को अपने मित्र के रूप में देखने की छोटी-सी कोशिश भी की? निश्चित ही नहीं की होगी, पर जब श्राध्द पक्ष में घर में माँ कहेगी, छत पर जाओ, इस खीर-पूड़ी को अपने पुरखों को दे आओ. तब लगेगा कि सचमुच ये काला कौवा तो हमारे पुरखों के रूप में हमारी मुंडेर पर रोज ही बैठता है, और हम हैं कि इसे भगााने में कोई संकोच नहीं करते. यही होता है, पीढ़ियों का अंतर. आज की पीढ़ी को यह भले ही नागवार गुजरे, पर यह सच है कि यह पीढ़ी भी एक न एक दिन काले और काने कौवे की कर्कश आवाज में पुरखों की पीड़ा को समझेगी.
काले कौवे को भारतीय समाज में कभी-भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया. उसे सदैव अपशकुन से जोड़ा गया. पर जैसे घूरे के दिन भी फिरते हैं, वेसे ही वर्ष में मात्र 15 दिनों के लिए कौवे के दिन फिर जाते हैं. उन दिनों हर कोई लालायित रहता है, उसे अपने सामर्थ्यनुसार भोग लगाने के लिए. इन दिनों उसे खूब ढृँढ़ा जाता है. छत पर खड़े होकर हम अपने पुरखों को याद करते हुए उसे उन्हीं की आवाज में पुकारते हैं. वह आता है, फिर चला जाता है. हमारे हाथ पर खीर-पूड़ी की थाली वैसी ही रह जाती है. ऑंखें भर आती हैं, हम सोचते हैं, क्यों नाराज हैं, हमसे हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, माँ-पिताजी? क्यों नही आ रहे हैं हमारे पास....
तब हम समझ लेते हैं उनकी नारांजगी का कारण. खीर-पूड़ी की थाली हमें याद दिला देती है, उन सूखी रोटियों की, जो हम अक्सर ही उनकी थाली में देखते थे. उनके भोजन में कभी खीर-पूड़ी रखी गई हो, हमें याद नहीं आता. जब तक उनके स्नेह और ममत्व की छाँव हमारे साथ थी, उनके पोपले मुँह से हमारे लिए आशीर्वाद ही निकलता. वे हमें टोकते, हम बुरा मान जाते, फिर तो उनके मनाने के ढंग भी बड़े प्यारे होते. हम मान भी जाते. उनकी गोद में घंटों खेलते, कभी-कभी परेशान भी करते, तो वे हमें डाँटते भी. कभी चपत भी लगाते. हम उनके बारे में न जाने क्या-क्या सोच लेते.
आज वही सोच हमारी ऑंखें गीली कर रही हैं. सहसा हाथ गाल पर चला जाता है, उन्होंने हमें यहीं मारा था ना, पर उसके बाद तो वह ंगलती हमने नहीं दोहराई. इसीलिए आज ये ऑंसू हमारे साथ हैं. अब तो वह सब-कुछ याद आ रहा है, उन्हें कैसी-कैसी झिड़कियाँ मिलती थी. मकान अपने नाम करने के लिए उनकी खूब खातिरदारी भी की गई थी. वे तो इस खातिरदारी से इतने गद्गद् हो गए थे कि भूल ही गए उन सभी कष्ट भरे दिनों को. ंजरा भी देर नहीं की उन्होंने रजिस्ट्री पर हस्ताक्षर करने में. कुछ दिन तक सब ठीक रहा. बाद में उनके झिड़कियों वाले दिन लौट आए. हमने महसूस किया, उनकी गृहस्थी ही अलग बसा दी गई. घर का एक कोना उनके लिए सुरक्षित हो गया. न किसी से बातचीत, न ही किसी से प्यार-मोहब्बतब्बत. अपने ही घर में बेगाने हो गए थे वे.
कैसे पीड़ादायी क्षण थे उनके. थकी साँसें, जर्जर शरीर, दुर्गंधयुक्त कपड़े-बिस्तर, खून से सना कंफ, बलगम या फिर थूक. ऐसे भी जी लेते हैं लोग. वे जीते रहे, अंतिम साँसों तक. मुझे याद है, उन्होंने एक बार मुझे अपने पास बुलाया था, प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा था- बेटा, मुझे भूख लगी है, माँ से कहकर एक रोटी ला दे. मैं दौड़ा था, एक रोटी लाने. उस समय मैं दौड़ में पिछड़ गया. मुझे देर हो गई, कुछ क्षण पहले ही माँ ने बासी रोटियाँ कुत्ते को डाली थी. खून के ऑंसू कैसे पीते हैं लोग, इसे उस समय नहीं,पर आज महसूस कर रहा हूँ.
आज वे नहीं हैं, विडम्बना देखो, जो एक सूखी बासी रोटी देने में सक्षम नहीं हो पाया था, उसे ही कहा गया है कि दादा को खीर-पूड़ी दे दो. वे कौवे के रूप में हमारी मुँडेर पर आएँगे. मरने के बाद उन्हें खीर-पूड़ी का भोग! किस समाज में जी रहे हैं हम? चलती साँसों का अपमान और थकी थमी साँसों का सम्मान. अगर यही समय का सच है, तो एक और सच यह भी स्वीकारने के लिए तैयार हो जाएँ हम सब, वह यह कि अब हमारी मुँडेर पर कभी नहीं बैठ पाएंगे कागा, न ही किसी के आने की सूचना दे पाएँगे. फिर क्या करेंगे हम?
पॉलीथीन, खेतों में कीटनाशक, प्रदूषित पर्यावरण, प्रदूषण, घटते वन-बढ़ते कांक्रीट के जंगल. ये सब मिलकर कागा को शहर से दूर भगा रहे हैं. इन्हें ही हम सब वर्ष के 350 दिन याद नहीं करते, मात्र 15 दिनों तक इन्हें अपने पूर्वजों के नाम पर याद रखते हैं. इन्हें भगाने के सारे उपक्रम हमारे द्वारा ही सम्पन्न होते हैं. पर्यावरण सुधार की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया हमने. केवल एक पखवाड़े तक इन्हें खीर-पूड़ी से नवाजने में संकोच नहीं करते. ऐसे में हमसे क्यों न रूठें कागा......
इन कागाओं को हम केवल उन्हीं के उसी रूप में न देखें. अपनी संस्कृति में झाँककर इन्हें केवल 15 दिन नहीं, बल्कि वर्ष भर स्मरण करें. यदि हम उनमें अपने पुरखों को देखना चाहते हैं, तो हमें उनका भी ध्यान रखना होगा. यह जान लें कि कागा में पूर्वज हैं, तो कागा नहीं, हमारे पूर्वज ही हमसे रूठने लगे हैं. यह पूर्वजों का पराक्रम ही था कि उन्होंने हमे वनों से आच्छादित संसार दिया. उन्हीं के वैभव ने हमें जीना सिखाया. आज हम भावी पीढ़ी को क्या देकर जा रहे हैं, कांक्रीट के ज्रंगल, प्रदूषित पर्यावरण, उजाड़ मैदान, प्रदूषित वायु और जल? इसके अलावा इंसानियत को खत्म करने का इरादा रखने वाले हैवानों को?
अब भी वक्त है. हम नहीं चेते, तो प्रकृति ही हमसे रूठ जाएगी. वह खूब जानती है,अपना संतुलन कैसे रखा जाता है. फिर इसके प्रकोप से हमें कोई नहीं बचा सकता. प्राकृतिक विपदाओं का सिलसिला चलता रहेगा. पूर्वजों ने अच्छे कार्य किए, तो कौवे भी अपना कर्त्तव्य समझकर पर्यावरण की रक्षा करते रहे. पूर्वज गए, कौवे हमसे दूर हुए और हम इन दोनों से दूर हो गए. अभी भी थोड़ा सा समय है हमारे पास. बुंजुर्ग नाम की जो दौलत हमारे पास है, उसे हम न खोएँ. उनसे सलाह लें, उनका मार्गदर्शन लें, उन्हें आगे बढ़ने का मौका दें. फिर देखो, कागा ही नहीं, पंछियों का कलरव हमारे ऑंगन होगा, हम चहकेेंगे, सब चहकेंगे. मुँडेर पर बैठकर कागा कहेगा- काँव-काँव....
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 25 सितंबर 2007

प्रेम पत्र से एसएमएस तक...

भारती परिमल
प्रेम पत्र! वही प्रेम पत्र जो शकुन्तला ने कदम्ब के पत्तों पर नाखून से लिखकर दुष्यंत को दिया. वाटिका में कंगन में पड़ रही परछाई में सीता ने पढ़ा और एकांत में बाँसुरी की मीठी तान में राधा ने सुना. वही प्रेम पत्र या प्रेम संदेश, जो कैस ने रेगिस्तान की गर्म रेत पर ऊँगलियों की पोरों से लैला को लिखा. पानी की डूबती-उतराती लहरों के साथ सोहनी ने महिवाल को दिया. खेत की हरी-हरी लहलहाती फसलों को पार करते रांझा ने हीर तक पहुँचाया. उसी प्रेम पत्र ने समय के साथ एसएमएस का विकृत रूप धारण कर लिया है. यह एसएमएस आज युवाओं में एक टाइम पास रोग की तरह फैलता जा रहा है.
जानते हैं इस धरती पर सबसे पहला प्रेम पत्र आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व रुक्मिणी ने कृष्ण को लिखा था. मुरली मनोहर को लिखे गए इस प्रेमपत्र में उन्होंने कुछ इस तरह से अपनी भावनाएँ व्यक्त की थी- 'हे भुवनसुंदर, हे पुरुष श्रेष्ठ, कुल, शील, रूप, विद्या, वय, धन एवं प्रभाव से केवल अपने ही जैसे निरुपम और मनुष्य लोक को आनंद प्रदान करने वाले मेरे आराध्य, ऐसी कौन सी कुलवान, गुणशाली और धैर्यशाली कन्या होगी, जो आपको विवाह के समय पति रूप में स्वीकारेगी नहीं? आप विदर्भ देश में पधारें एवं मैं पार्वती मंदिर में आऊँ, तब मेरे साथ पाणिग्रहण करें.'
आज इक्कीसवीं सदी में जीने वाले मेरेलिना, स्वेतलाना, चार्मी, कशिश, पायल, वरुण, वेदांत सभी अपने प्रेम संदेश मोबाइल फोन द्वारा भेजते हैं. नए जमाने की इस युवा पीढी ने एक कदम आगे बढ़कर मोबाइल डेटिंग की सुनहरी सभ्यता विकसित की है. अपने बॉयफ्रेंड या गर्लफे्रंड को दरिया किनारे या रेस्तरां अथवा सिनेमा हॉल में मिलने के लिए बुलाने में ये मोबाइल का भरपूर उपयोग करते हैं. ये पीढ़ी एसएमएस और मीस कॉल्स की सुविधा का भरपूर लाभ उठा रही है.
आज से लगभग 25-30 वर्ष पूर्व टेलीफोन केवल उच्चवर्ग में और अधिकारियों के घरों में ही देखे जाते थे, किंतु आज हालत यह है कि ये सभी की जरुरतों को पूरा करने वाला एक आवश्यक साधन बन गया है. यहाँ तक तो बात ठीक है, किंतु पिछले 5-10 वर्षों से मोबाइल फोन आज के कान्वेंट कल्चर में पलते-बढ़ते युवाओं के हाथों का खिलौना बन गया है. फैशन का यह रंग उन्हें डेटिंग और चेटिंग की एक अनोखी और वायवीय दुनिया में ले जाता है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज पूरे देश में चार करोड़ मोबाइलधारी हैं. इसमें से बड़े पैमाने पर 20 से 30 वर्ष के युवा हैं. अब तो हाईस्कूल के लड़के-लड़कियों के हाथों में भी मोबाइल देखने को मिल जाता है. जरा कल्पना करके देखिए, दो-ढाई हजार का मोबाइल फोन जब कच्ची उम्र के बच्चों के हाथों में आएगा, तो उसका उपयोग कैसा और कितना शर्मनाक होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है.
बरसों पहले एक फिल्म आई थी- सरस्वतीचंद्र. इसमें नायिका नूतन अपने प्रेम को पत्र द्वारा व्यक्त करती है और गीत के माध्यम से कहती है- फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है. इंदीवर ने इस गीत में बहुत ही कोमल और हृदयस्पर्शी शद्वों के द्वारा मन के भावों को व्यक्त किया है. इसमें कहीं भी अश्लीलता नहीं है. इस गीत के माध्यम से अपने भावी पति के लिए निर्मल और निश्छल प्रेम का आकाश खुलता है और इसमें दोनों की प्रणय संवेदनाएँ पंख पसारती हैं. किंतु आज के मोबाइल एसएमएस में क्या ये पवित्रता देखी जा सकती है? आज के मोबाइल संदेश में द्विअर्थी, और ओछापन लिए हुए होते हैं, जो दिल को छूना तो बहुत दूर की बात हैं, होठों को भी नहीं छू पाते. एक झटके में ही अश्लीलता की पहचान और संस्कारों की धाियाँ उड़ा देते हैं.
यहाँ रुक्मिणी के प्रेमपत्र को लेकर आज का कोई युवा यह दलील जरूर कर सकता है कि जब रुक्मिणी ने आज से तीन हजार वर्ष पूर्व अपने प्रियतम को प्रेमपत्र लिखा था, तो हम इक्कीसवीं सदीं के युवा क्या अपने प्रिय पात्र को प्रेमपत्र के रूप में मोबाइल पर एसएमएस या इंटरनेट पर ई-मेल नहीं कर सकते? क्या इस दौड़ती-भागती जिंदगी में प्रेम के शॉट-कट के रूप में शॉर्ट-मेसेज को एक-दूसरे तक पहुँचा नहीं सकते? हाँ, उनका कहना शत-प्रतिशत सही है, किंतु रुक्मिणी के द्वारा भेजे गये प्रेमपत्र में एक मर्यादा थी, संस्कारों का गुलाबी चुनरिया थी, जो उसने अपने माथे पर ओढ़ रखी थी और फिर रुक्मिणी ने किसी अमीर, सुविधा संपन्न युवा राजकुमार को पत्र नहीं लिखा था, न ही किसी स्कूल या कॉलेज में अपने सहपाठी को पत्र लिखा था. उन्होंने तो शिशुपाल के विवाह प्रस्ताव को ठुकराने के लिए और अपने भविष्य को अंधकार के गर्त में जाने से रोकने के लिए एक ऐसे पूर्ण पुरुष को पत्र लिखा था, जो अधर्म का नाश कर सत्य की विजय के लिए प्रतिज्ञाबद्ध था. नर राक्षस के चंगुल से अपने आपको छुड़ाने के लिए अलौकिक व्यक्तित्व से सहायता माँगना, और उस सहायता के द्वारा अपने निर्मल, निश्छल, पवित्र प्रेम को व्यक्त करना कदापि गलत नहीं है और इसीलिए कहीं-कहीं संस्कारी परिवारों की कन्याएँ आज भी सुबह के समय पूजा में रुक्मिणी पत्र का पाठ करती हैं और देवकीनंदन जैसा पति पाने की कामना करती है. रुक्मिणी पत्र की यह पवित्रता आज भी इसे अमर प्रेमपत्र के रूप में पहचान देती है.
दूसरी ओर आज के युवा प्रेम को मात्र शरीर की भूख और टाईमपास मानकर कपड़ों की तरह मित्र बदलने मेें कोई परहेज नहीं करते. आज मोबाइल उनकी शाद्विक वासना को पूरा करने का एक सशक्त माध्यम बना हुआ है. मजे की बात तो यह है कि उनके यह मोबाइल संदेश अंग्रेजी भाषा के अर्थो की धाियाँ उड़ा रहे हैं. उनके संदेशों में अंग्रेजी के यू, वी, आर आदि-आदि शद्व किस प्रकार अक्षरों के रूप में उभर कर भाषा को द्विअर्थी बना देते हैं, यह तो उनके बोलचाल में भी झलकने लगा है.
मुंबई की एक टेलिकॉम कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर इस बात को स्वीकार करते हैं कि आज की पीढ़ी नए-नए मित्र बनाने में विश्वास करती है, कपड़ों की तरह मित्रों को चुनाव करना और उन्हें उसी तरह बदलने में उन्हें किसी प्रकार का पछतावा नहीं होता. मोबाइल नाम का यह इलेक्ट्रॉनिक खिलौना उनके लिए मनोरंजन का अच्छा साधन बन गया है. कितनी ही मोबाइल सर्विस तो केवल मोबाइल डेटिंग के लिए एक खास नंबर भी उपलव्ध कराती हैं. जन्मदिन, रोंज-डे, वेलेन्टाइन-डे आदि युवा उत्सवों पर तो इनकी सर्विस काफी लुभावनी हो जाती है.
एक मोबाइल कंपनी ने ऐसी जानकारी दी कि 2005 के वेलेंटाइन डे पर मोबाइल डेटिंग के संदेशों में 30 प्रतिशत की वृद्धि हो गई थी. उसमें भी अधिकांश संदेश 20 से 22 वर्ष के युवाओं के थे. सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि मोबाइल की यह हवा अब सुदूर गाँवों में भी बहने लगी है. उत्तर प्रदेश के गाँवों में 10 हजार 500, बिहार और झारखंड मेें 8 हजार 596 और दिल्ली और मुम्बई के आसपास ग्रामीण क्षेत्रों से दस हजार एसएमएस प्रेषित किए गए थे.
एक मनोवैज्ञानिक ने अपने सर्वेक्षण के बाद बताया कि भारत के गाँवों में अब रुढ़ीवादिता की जंजीरें दरकने लगी हैं. फिल्मों और इंटरनेट ने ग्रामीणों को भी शहरी संस्कृति से परिचित करा दिया है. अब गाँवों के युवा भी अपने मोबाइल से अपनी प्रेयसी को एसएमएस करने लगे हैं. यही नहीं इस माध्यम से वे अपने प्रियजनों को एक खास स्थान पर बुलाने भी लगे हैं. इससे यह कहा जा सकता है कि गाँव की अल्हड़ गोरी ने पनघट की पगडंडियों को छोड़कर अब रेस्तरां का रुख कर लिया है. गाँवों का अल्प विकास, अल्प शिक्षण और बेकारी के कारण इन युवाओं के संदेशों में अश्लीलता देखने को मिल सकती है.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मोबाइल आज एक जरुरत की चीज कम फैशन की वस्तु बनकर रह गया है. इसमें कहीं भी भारतीय सभ्यता दिखाई नहीं देती. टूटती मर्यादाओं के बीच आज का युवा इसे केवल अपनी कामवासना की पूर्ति का साधन बनाने से भी नहीं चूक रहा है. मोबाइल का यह रोग अब सात समुंदर पार भी जाने लगा है. आज के युवा बिना एक-दूसरे को देखे, महीनों तक रोज ही इसी एसएमएस से बात करते हैं. इनके लिए अब चेहरा भी कोई मायने नहीं रखता. इन्हें इंतजार रहता है केवल उस अदृश्य प्रेयसी या प्रेमी के मोबाइल संदेश का. किसी युवा के पास यदि आधे घंटे के भीतर कोई संदेश नहीं आया, तो उसे चिंता होने लगती है, कहीं उसका मोबाइल खराब तो नहीं हो गया. उस समय उसकी परेशानी देखते ही बनती है. एसएमएस को लेकर मित्रों के बीच प्रतिस्पर्धा भी होती है. अब तो एक दिन में सौ एसएमएस मिलना मामूली बात है. इस तरह से यह कहा जा सकता है कि अपने प्रेम के इजहार का यह अब तक का सबसे विकृत रूप सामने आया है. हम कितने भी आगे बढ़ जाएँ, पर आज जो यह प्रगति देखने को मिल रही है, वह यही बताती है कि आज का युवा मोबाइल के चक्रव्यूह में बुरी तरह से फँस गया है, इसके लिए दोषी वे विदेशी कंपनियाँ हैं, जो इन्हें आकाशीय सपने दिखा-दिखाकर भरमा रही हैं.
भारती परिमल

सोमवार, 24 सितंबर 2007

कहाँ गया इंसानी चेहरे का नूर....

डा. महेश परिमल
हाल ही में कुछ घटनाओं ने चौंका दिया. हमारे देश में स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या घटने के बजाए बढ़ने लगी. बापू के अंतिम श?द 'हे राम' नहीं थे. शांति से किस तरह आत्महत्या करें. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक के घर छापा. मुम्बई की लोकल ट्रेनों में कामसूत्र पर सबक. ये क्या हो रहा है, हमारे आसपास? हम कहाँ जा रहे हैं? क्या हो गया है हमारी नैतिकता को? नारी का सबसे विकृत रूप आज हम टीवी के माध्यम से देख रहे हैं. क्या आज की नारी सचमुच ऐसी ही हैं, जैसा उन्हें दिखाया जा रहा है?
हमें आज भी याद है, जब हम छोटे थे और टॉकीज में कोई फिल्म देखने जाते थे, तो पर्दे पर किसी महान नेता की तस्वीर आते ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था. सिनेमा के अंत में राष्ट्रगान अवश्य बजता था और लोग दो मिनट खड़े होने में जरा भी संकोच नहीं करते थे. उन दिनों में एक फिल्म बनी थी- 'विद्या' उस फिल्म में नायक-नायिका जब एक दूसरे से मिलते थे, तो 'नमस्ते' कहने के बजाए 'जयहिंद' कहते थे. देशप्रेम की यह अभिव्यक्ति मन में जोश भर देती थी. आज आजादी के 58 वर्ष बाद अखबार में कांशीराम, मायावती, लालूप्रसाद, राबड़ीदेवी की तस्वीरें देखते हैं, तब एक प्रकार का मन घृणा से भर उठता है. नेहरू, मौलाना आंजाद, सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे महान नेताओं का स्थान आज कुर्सी प्रिय, स?ाा लोलुप और भ्रष्ट लोगों ने ले लिया है. आजादी की आधी सदी की शायद यह सबसे बड़ी उपल?धि है. शाला में पढ़ने जाते थे, तब सुभाषचंद्र बोस, गांधीजी आदि नेताओं के चित्र उत्साह के साथ ?लेक बोर्ड पर बनाते थे या कक्षा की दीवारों पर लगाते थे. आज यदि किसी नेता का चित्र शाला या कॉलेज की दीवारों पर लगाने को कहा जाए, तो वर्तमान के किस नेता की तस्वीर लगाएँगे, यह सवाल कोई विराम नहीं पाता. दुनिया गांधी को पूजती थी और पूजती रहेगी, पर हम केवल बीते हुए कल के साथ इन नेताओं की यादों को लेकर आखिर कब तक अपने आप को धोखा देते रहेंगे?
सुधीजनों को याद होगा कि स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे की हत्या उस समय हो गई थी, जब वे रात को सिनेमा देखकर फुटपाथ से चलते हुए अपने घर आ रहे थे. कितनी सादगी के साथ रहते हैं ये विदेशी नेता. क्या किसी भारतीय नेता की कल्पना इस तरह सेकी जा सकती है कि वह एक आम आदमी बनकर सड़कों पर चले? आज तो साधारण सा विधायक भी महँगी कार से नीचे नहीं उतरता. फिर मंत्रियों की बात तो पूछो ही मत. आज के नेताओं को देखकर लगता है कि भारत एक गरीब देश है? आज संसद की कार्रवाई पर एक मिनट मेें लाखों रुपए खर्च होते हैं. देश की जनता का पैसा वहाँ पानी की तरह बह रहा है, पर कोई देखने सुनने वाला नहीं है. आज संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले लोग बड़ी तादाद में हो गए हैं. आज के सांसद महीने में एक लाख रुपए से अधिक वेतन और भ?ाा लेने के बाद भी यह कहते हैं कि हम तो बंधुआ मजदूर जैसे हैं. हमारे वेतन में अभी 400 गुना की बढ़ो?ारी होनी चाहिए. हमारे देश के राज्यपाल, मुख्यमंत्रियों और जाति और धर्म के नाम पर बड़े नेता बनने वाले लोग विशेष विमान में ही उड़ रहे हैं. इसके बाद भी देश की जनता को राष्ट्रभक्ति सिखाने से बाज नहीं आते. बिहार की कानून-व्यवस्था सुधारने के लिए अब तो केंद्र ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं. उ?ारप्रदेश की मुख्यमंत्री बनते ही मायावती ने करोड़ों की मिल्कियत खड़ी कर ली. लोग उन्हें गरीबों की नेता कहते हैं. हर नेता पद पर रहते हुए सात पीढ़ियों का इंतजाम कर ही लेता है.
हमारे देश की लोकशाही सबसे अधिक मुलायम और लचीली है. यहाँ गंभीर से गंभीर मामले पर फँसे अपराधी धन की बदौलत आसानी से कानून के चंगुल से छूट जाते हैं. कानून तो हैं, पर वे सभी गरीबों और निराश्रित लोगों के लिए ही होते हैं. एक कर्मचारी को यदि आयकर देने में ंजरा सी देर हो जाती है, तो आयकर विभाग उसे नोटिस भेज देता है. पर ऊँचे लोग आयकर अधिकारियों के घर पर ही बैठकर सौदेबाजी कर लेते हैं, तब उन्हें कुछ नहीं होता. यदि आप अभिनेता, उद्योगपति, डाक्टर, वकील, व्यापारी या किसान हैं, तो आयकर में माफी दी जा सकती है. पर हर महीने 5-7 हजार रुपए कमाने वाले कर्मचारी हैं, तो हर महीने आयकर भरना ही होगा. इसमें यदि थोड़ी सी भी लेतलाली होती है, तो यही विभाग नोटिस देकर पूरी रकम ?याज सहित वसूल कर लेता है. फिल्मी अभिनेताओं पर कितना आयकर बकाया है, इसकी जानकारी सरकार संसद में देकर निश्चिंत हो जाती है. यदि किसी ने धन का बहुत बड़ा घोटाला किया हो, तब भी वह बेखौफ होकर किसी व्यावसायिक संस्था में जाकर अर्थतंत्र पर भाषण कर सकता है. जर्मनी में पिछले दिनों एक नामी टेनिस खिलाड़ी ने कम आयकर का भुगतान किया था, तब उसे उसके पिता समेत जेल की हवा खानी पड़ी थी. लेकिन भारत देश में नियम को तोड़ना, कर चोरी करना बहादुरी मानी जाती है.
आज हर बड़े आदमी का कोई न कोई धार्मिक गुरु है. इस देश के बड़े वैज्ञानिक को भले ही कोई भी न जानता हो, पर ढोंगी साधु बाबाओं की सभा में लाखों लोग उमड़ पड़ते हैं. प्रार?धवाद की एक बड़ी लहर आज हमारे देश में उठ रही है. लोगों ने काम करना छोड़ दिया है. मंत्र-तंत्र, चमत्कार, मनौती, ताबीज, गंडे आदि का बोलबाला है. धार्मिक मठों के पास करोड़ों की संप?ाि इकट्ठी हो गई है. सरकार को विदेशों से कर्ज लेना पड़ रहा है.
आज इस देश में विश्व की सबसे महँगी बिजली, सबसे महँगा पेट्रोल मिल रहा है. बिजली की आपूर्ति जब-तब बंद होते रहती है. ट्रेनों और बसों में बेकाबू भीड़ होने लगी है. रास्ते गदंगी से अटे पड़े हैं, टे्रने नियमित नहीं चल पा रही हैं. शालाओं में प्रवेश नहीं मिल रहा है. देश की आधी आबादी अनपढ़ है, शेष शिक्षित वर्ग इन अनपढ़ों को लूटने में लगा है. थोड़े से निजी स्वार्थ के कारण यदि किसी व्यक्ति या देश का करोड़ों का नुकसान हो रहा है, तो चलेगा, पर स्वयं की जेब भरनी चाहिए. आजादी के बाद देश की हालत केवल फाइलों में ही अच्छी हुई है. पर आज आम आदमी की हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है. उसके चेहरे का तेज कहीं खो गया है. वह पहले भी गरीब था, आज भी गरीब है. युवा आज दिग्भ्रमित हैं और वृध्द बीते जमाने को याद कर केवल ऑंसू बहा रहे हैं. ये ही बुंजर्ग साँस भरकर हमसे ही पूछते हैं कि क्या इन्हीं दिनों के लिए आजादी मिली थी? एक छोटे से देश के कुल बजट जितनी रकम हमारे देश के नेता अकेले ही हजम कर लेते हैं. फिर भी उन्हें कुछ नहीं होता. आजादी के तुरंत बाद स्थिति यह थी कि भ्रष्टाचारियों को लोग घृणा की दृष्टि से देखते थे, भ्रष्टाचार का खुलासा होने के बाद भ्रष्टाचारी को शर्म महसूस होती थी, लेकिन आज खुलेआम सांसद रिश्वत ले रहे हैं, पुलिस खुलेआम नजराना वसूल करती है, किसी को किसी का भय नहीं है. सरकार लाचार है और न्यायतंत्र कछुआ चाल से चल रहा है. हजारों लोगों की मौत का कारण बनने वाला खुलेआम घूम रहा है. खैरनार जैसे अधिकारी को अपनी नौकरी खोनी पड़ती है. ऐसे में कैसे चल पाएगा हमारा देश?
सवाल यह उठता है कि क्या हमारी चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि अब हमें कोई फर्क नहीं पड़ता? मानव का लगातार पतन हो रहा है. नैतिकता का नामो-निशान नहीं है. फैशन के नाम पर शरीर की नुमाइश हो रही है. बच्चों का बचपन ही बिकने लगा है. युवा तो आज चेटिंग रुम में भ्रमित हो रहे हैं. युवतियों की बात ही न पूछो, वे तो सरपट भागे जा रही हैं. उन्हें पता ही नहीं है कि वे क्या करने जा रही हैं. अब संतानों की फरमाइश इतनी अधिक हो गई है कि उसके लिए पालकों को अतिरिक्त आय का साधन ढँढ़ना पड़ रहा है. यह साधन भले ही न्यायसंगत न हो, पर इसे कोई टोकने वाला नहीं है. बरबाद होती इस पीढ़ी को सही दिशा देने वाला भी कोई नहीं है. आखिर कहाँ आ गए हैं हम सब?
डा. महेश परिमल

शनिवार, 22 सितंबर 2007

सड़कों पर बिखरा पशु-धन

डा. महेश परिमल
सड़कों पर दौड़ते 'हत्यारे' रोज ही कई अकाल मौतों का कारण बनते हैं। इनके पहियों के नीचे कई साँसें रोज उखड़ती हैं। मानवीय रिश्तों की एक कड़ी को रौंदकर ये पूरी श्रृंखला ही तोड़ देते हैं, लेकिन सड़कों पर पसरे पशुओं के कारण होने वाली मौतों को हम कैसे अनदेखा कर सकते हैं। क्या पशुओं का दोहन करके उन्हें आवारा या लावारिस छोड़ने वाला पशु-मालिक अपराधी नहीं है? उसे भी अपराधी मानना ही होगा जो मूक, निरीह और हमारे लिए पूज्य पशुओं को सड़कों पर पसरने के लिए विवश करता है।
कुछ दिन पहले ही दिल्ली जाना हुआ। रास्ते में ट्रेन में एक महिला ने बातचीत के दौरान बताया भारतीय सड़के इतनी खराब है कि यहाँ लोगों को 'सड़कवीर' कहना ही उचित होगा। इतनी खराब सड़कों पर भी वे अपने और अपने वाहन को जिस तरह से बचा ले जाते हैं यह सोचकर आश्चर्य होता है। उस महिला ने बताया कि कुछ दिन पहले ही वह कार से एयरपोर्ट पहुँची। उनके एक परिचित पहली बार भारत आ रहे थे। यहाँ उन्हें एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेना था। नियत समय पर उनका प्लेन पहुँचा। उन्हें लेकर वे अपने घर की ओर चलीं। 'हम एयरपोर्ट से बाहर मुख्य मार्ग पर पहुँचे, तो सड़क के बीचों-बीच एक गाय को बैठा देख वे अपनी जगह से उछल पड़े। अनायास ही उनके मुँह से निकला- ओह! काउ ऑन द रोड।' महिला ने बताया, महाशय यह भारत है, यहाँ केवल काउ ऑन द रोड ही नहीं, बल्कि बफैलो, बुल, ऑक्स, बल्कि कभी-कभी तो शराब पीकर धु?ा पड़ा हुआ आदमी भी ऑन द रोड होता है। उस विदेशी सान ने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारत जैसे विकासशील देश में ऐसे दृश्य भी देखने को मिलेंगे।
सड़क के बीचों-बीच जानवरों का होना, हमें आश्चर्य में नहीं डालता। हमारे लिए यह आम दृश्य है। हम उनके किनारे से गाड़ी निकाल ले जाते हैं। कभी-कभी असावधानीवश यदि टकरा गए, तो घायल हो जाते हैं, वाहन क्षतिग्रस्त होता है, वह अलग बात है, लेकिन मजाल है, उस जानवर या जानवर के मालिक पर कोई कार्रवाई कर दे। पशु हमारे देश में पूज्य हैं, क्यों न पूजें, वे हमारे खेती के आवश्यक अंग हैं, पर साहब हमें यह बताइए- शहरों में कैसी खेती? फिर ये पशु सड़क पर कितनी दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं, यह जानने की कोशिश कभी हुई? ये पूज्य हैं, पर इन्हीं पूजनीय पशुओं ने कितनी माँगे सूनी कीं, कितनी कलाई सूनी कीं, कितनों की कोख उजाड़ी, कितने परिवारों के चिराब बुझाए, कितने हाथों में बैसाखियाँ थमाईं, यह जानते हैं आप? शायद नहीं।
चलो मान लिया- पशु हमारे देश में पूज्य हैं, पर क्या हम उस गो-पालक को भी पूजें, जिसने पशुओं को आवारा छोड़ दिया? वह तो विशुध्द अपराधी है। उसे सजा क्यों नहीं मिलती? क्या वह सजा का हकदार नहीं? क्या हम थोड़े से चैतन्य होकर दुर्घटनाओं का कारण बनने वाले उन पशु-पालकों को ढूँढ़ नहीं सकते, उन सबको पशुओं की तरह उसी स्थान पर सड़क के बीचों-बीच बैठने को विवश नहीं कर सकते? जरा उन पीड़ितों की तरफ नजर घुमाइए, जिनका सहारा ही टूट गया, जिनकी जिंदगी की डोर ही टूट गई, किसी के हाथ-पाँव टूट गए, किसी ने ऑंखें खो दीं, किसी ने स्मरण शक्ति खो दी, कोई कोमा में है। यह सब दुर्घटनावश हुआ। यह सच है, पर सड़कों के बीचों-बीच जानवरों का पसरे रहना आज सभी शहरों का एक कड़वा सच बन गया है। कोई दंडविधान यहाँ काम नहीं आता। सारे दंड विधान दुर्घटना के बाद लागू होते हैं।
सड़के नगरीय व्यवस्था की जान हैं। सड़कें विकास की मापदंड हैं। सड़कें शहर का आईना हैं। साफ-सुथरी सड़कें शहर के लोगों का चरित्र बताती हैं। दूसरी ओर खराब, उबड-ख़ाबड़ सड़कें, गंदगी से भरी सड़कें नगरपालिका, नगर-निगम की नाकामयाबी का नमूना हैं। पर इससे हमारा दोष कम नहीं हो जाता। कम से कम एक सड़क को सही-सलामत रखने में हमारी क्या भूमिका रही। गङ्ढे पार करते समय 'अपश?द' निकालना हमारी आदत में शुमार हो गया है। आज हम इसी के आदी हो गए हैं। अच्छी सड़क हमें रास नहीं आती। बहुत तेजी से पार कर लेते हैं, हम अच्छी सड़क को , उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात।
कुछ विभाग ऐसे हैं, जो केवल सड़के खोदना जानते हैं। इन्हें नई सड़क बनने का इंतजार रहता है। सड़क बनी नहीं कि खोदना शुरू। एक विभाग ने खुदाई शुरू की, कुछ हुआ, तभी दूसरे विभाग को ख्याल आया, वह भी लग जाता है खुदाई में। बहुत से विभाग ऐसे हैं, जो सड़कें खोदने में विश्वास रखते हैं, सड़कें पाटने का कोई विभाग है, यह कोई नहीं जानता। खुदी हुई सड़कों को पार करना कितना मुश्किल होता है, यह केवल पार करने वाले ही समझते हैं। काले शीशी चढ़ी कारों, अच्छे शॉकअप वाले वाहनों पर सवार होकर मंत्रियों, अधिकारियों को इससे कोई मतलब नहीं। यह हमारी बदकिस्मती है कि चुनाव के पहले हमारे साथ संघर्ष करने वाला नेता आम नागरिक होता है और चुनाव जीतने के तुरंत बाद वी.आई.पी. हो जाता है। लोकतंत्र का यह गणित आम आदमी की समझ से एकदम बाहर है, जबकि इस लोकतंत्र की धुरी में वही आम आदमी है।
बात सड़कों पर पसरे पशुओं की हो रही थी। ये वे पशु हैं, जो यातायात के तमाम नियमों की रोज धज्जियाँ उड़ाते हैं। वे नगरपालिका, नगर-निगमों को चुनौती देते हैं। 'कर लो, हम पर कार्रवाई, देखते हैं क्या बिगाड़ लेंगे आप हमारा।' कांजी हाऊस का डर न इन पशुओं को है न पशु-पालकों को। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कांजी हाऊस में पशुओं को एक या दो सप्ताह तक रखा जाए इसी बीच यदि पशु-पालक आ जाए, तो उसे भारी जुर्माने और हिदायतों के बाद पशु सौंपा जाए। शेष पशुओं को शासन हस्तगत कर ले, उनके पालने की अलग व्यवस्था की जाए। उनके गोबर से खाद, गैस और बिजली के छोटे-छोटे प्लांट तैयार किए जाए। गो-मूत्र दवाओं के लिए भेजा जाए और दूध को बेचकर लाभ कमाया जाए। इस दिशा में एक ईमानदार सोच को सकारात्मक रूप से लागू किया जाए, तो इसमें कोई दो मत नहीं कि कुछ लोगों को रोजगार मिलेगा, दवाओं के लिए भरपूर गो-मूत्र मिलेगा। खाद व खाना पकाने की गैस भी उपयोगी सिध्द होगी। दूसरी ओर सड़कों पर आवारा पशुओं का जमावड़ा खत्म होगा। सड़कों का ही नहीं, जिंदगी का रास्ता भी आसान होगा।
कुछ भी करें, पर पशु-मालिक को केन्द्र में अवश्य रखें। एक व्यक्ति या परिवार यदि उसके पशु से दुर्घटनाग्रस्त होता है, तो उसका पूरा मुआवजा पशु-मालिक से वसूला जाए, ताकि दूसरों को सबक मिले। हमारी संस्कृति है, पशुओं की पूजा करना। लेकिन हम आवारा पशुओं के मालिकों की पूजा नहीं कर सकते। वे अपराधी हैं। नगर-पालिका, नगर-निगमों में आवारा पशु-मालिकों के खिलाफ कानून बनाए जाएँ, तो बेहतर होगा। शासन को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा। इन पशुओं से वोट नहीं मिलने वाला, क्या इसीलिए इन्हें आवारा, लावारिस घूमने दिया जाए, लोगों की भले ही जान जाती रहे। वैसे भी शहरों की कई सड़कें ऐसी हैं, जिन्हें सड़क कहने में शर्म आती है। उबड़-खाबड़ सड़कों, रोज की आपाधापी, बढ़ता प्रदूषण, उखड़ती साँसों के बीच यदि हमारे बलगम का रंग काला हो जाए, तो आश्चर्य नहीं। उस पर रास्तों पर पसरे पशु ये हमें विकलांग बना रहे हैं, हमें बेसहारा कर रहे हैं, हमारी रोटी छिन रहे हैं और शान से यातायात नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। इन दुर्घटनाओं में यदि कोई पशु घायल हो जाए, तो उसकी हालत दयनीय हो जाती है। हमें तब भी उन पर दया आती। क्या हमारी यह नियति है कि हम कुछ नहीं कर सकते। आइए संकल्प लें- आवारा पशु को रास्ते से किनारे कर दें, पर पशु-मालिक पर बिल्कुल रहम न करें। वह अपराधी है, उसे पुलिस के हवाले करें, नगरनिगम को विश्वास में लें, कानून बनाने में सहायक बनें, तभी हम एक नया भारत न सही, एक अच्छे शहर में नई बुनियाद तो रख ही सकते हैं।
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

हाशिए पर झुर्रियाँ

डा. महेश परिमल
वृद्धाश्रम के उद्धाटन अवसर पर एक विचारक को बुलाया गया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि मेरी यह दिली इच्छा है कि यह आश्रम जितनी जल्दी संभव हो, बंद हो जाए. उनके यह विचार सुनकर लोग हतप्रभ रह गए. लोगों ने उनकी आलोचना की और भला-बुरा कहा. पर लोग उस विचारक की दूरदर्शिता को भूल गए. विचारक का मानना था कि आज जिस कदर शहरीकरण हो रहा है, लोग अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं और उन्हें वृद्धाश्रमों में रखने लगे हैं, इसलिए जब ये आश्रम ही नहीं रहेंगे, तो क्या होगा. वे चाहते थे कि ऐसी नौबत ही न आए, कि लोग अपने माता-पिता को इन आश्रमों में छोड़ें. उस विचारक की दूरदर्श्ािता को किसी ने नहीं समझा और उन्हें बेइात होकर वहाँ से जाना पड़ा.
ये था आज के समाज का एक कड़वा सच! कुछ और भी ऐसे सच हैं, जो हमें सहज ही स्वीकार्य नहीं होंगे, पर हमें उसे स्वीकारना ही होगा, क्योंकि यह सच अनपढ़ और अशिक्षितों का सच नहीं है, बल्कि ऊँची सोसायटी पर जाने वाले उन रईसजादों का सच है, जिन पर समाज को गर्व है. विदेश में रह रहे पुत्र को अपने माता-पिता की याद उस वक्त आई, जब उसकी पत्नी गर्भवती हुई, वह आया और उन्हें लिवा ले गया. माता-पिता भी सहज भाव से चले गए, वे अपने पुत्र की कुटिल चाल को समझ नहीं पाए और यह सोचकर चले गए कि विदेश में रहकर भी हमारा बेटा अपने देश को नहीं भूला. चलो इसी बहाने उसे हमारी सेवा का अवसर मिलेगा. वहाँ जाकर पुत्र ने अपने माता-पिता के अनुभवों का खूब लाभ उठाया और हजारों डॉलर बचा लिए. साल दो साल बाद बूढे पिता की तबियत खराब रहने लगी. हो भी क्यों न? भला अपनी माटी से दूर रहकर कोई सुखी रह पाया है? पिता की अस्वस्थता बेटे को नागवार गुजरने लगी. उसका गणित गड़बड़ाने लगा, उसे समझ में आ गया कि यदि ऐसा ही चलता रहा, तो जितना बचाया है, वह तो इनकी बीमारी में ही लग जाएगा. अंत में एक दिन बेटे ने पिता से कह ही दिया- पिताजी अब आप अपने देश वापस लौट जाओ और मरना भी हो, तो वहीं मरो. क्योंकि यहाँ मरोगे, तो मेरे हजारों डॉलर निकल जाएँगे. इतने में पूरा गाँव तीन-चार दिन तक खाना खा सकता है. अतएव आप अपनी माटी में ही जाकर अपने जीवन के अंतिम दिन गुजारें, लेकिन बच्चा जब तक कुछ बड़ा नहीं हो जाता, माँ यहीं रहेगी. आप ही सोचो- क्या बीती होगी, उस झुर्रीदार चेहरे पर?
एक और चेहरा इसी समाज का. बेटी विदेश से आई और अपने माता-पिता को ले गई. दोनों बूढ़े खुश हो गए. उन्हें विदेश जाने का मौका मिल रहा है. वहाँ जाकर बेटी ने अपने माता-पिता की खूब सेवा की. पर होनी को कुछ और ही मंजूर था. बेटी की ऑंख किसी गोरे से लड़ गई और उसने उसके साथ शादी कर ली. इधर दामाद भी भला कहाँ चूकते, समय आने पर उसने भी एक गोरी कन्या से शादी कर ली. अब बूढ़े माता-पिता कहाँ जाएँ? पति के कहने पर बेटी ने उन्हें निकाल दिया. उधर दामाद ने भी अपने घर पर नहीं रहने दिया. जब बेटी ने ही निकाल दिया, तो दामाद पर कैसा भरोसा? बूढे माता-पिता की हालत खराब, जाएँ तो कहाँ जाएँ? देश लौटने तक को धन नहीं था. इतनी रकम आखिर कौन देता. एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर उन दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया. उन्हें अपनी माटी भी नसीब नहीं हो पाई.
ये सच है उस पीढ़ी का, जिसे हम हाईटेक पीढ़ी कहते हैं. जिनका मोबाइल अंगूठे से काम करता है और कंप्यूटर पर ऊँगलियाँ दौड़ती हैं. इन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं है, आज का झुर्रीदार चेहरा. उसे तो यह पीढ़ी एक बोझ ही समझती है. वह शायद यह भूल जाती है कि यदि उन्होंने भी इसे बोझ ही समझा होता, तो क्या होता? आज यह झुर्रियाँ भले ही हाशिए पर हों, पर इसने कभी भी अपने माता-पिता को कभी बोझ नहीं माना. आज्ञाकारी पुत्र की तरह उनकी हर माँग को पूरा करने की जी-तोड़ कोशिश की. इन्होंने अपनी ऑंखों से देखा था अपने पालकों को किस तरह भूखे रहकर उन्होंने अपने बच्चों को पाला था, अपना कर्त्तव्य समझकर. ंगरीबी में पाला, पर गरीबी क्या होती है, इसका अहसास भी नहीं होने दिया.
'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा खंडित हो चुकी है. एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोड़ना चाहते हैं. पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं. इसकी वजह भी हम हैं. हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते. इससे उस पोपले मुँह के अहम् को चोट पहुँचती है. उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता. भविष्य में जब कभी हमारा आज्ञाकारी पुत्र हमारी परवाह न करते हुए प्रेम विवाह कर लेता है और अपनी दुल्हन के साथ हमारे सामने होता है, हमसे आशीर्वाद की माँग करता है. तब हमें लगता है कि हमारे बुजुर्ग भी हमारे कारण इसी अंतर्वेदना की मनोदशा से गुजरे हैं. तब हमने उन्हें अनदेखा किया था.
संभव है अपने बुजुर्ग की उस मनोदशा को आपके पुत्र ने समझा हो और आपको उनकी पीड़ा का आभास कराने के लिए ही उसने यह कदम उठाया हो. ऐसा क्यों होता है कि जब बुजुर्ग हमारे सामने होते हैं, तब ऑंखों में खटकते हैं. वे जब भी हमारे सामने होते हैं, अपनी बुराइयों के साथ ही दिखाई देते हैं. बात-बात मेंं हमें टोकने वाले, हमें डाँटने वाले और परंपराओं का कड़ाई से पालन करते हुए दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने वाले बुजुर्ग हमें बुरे क्यों लगते हैं? आखिर वही बुजुर्ग चुपचाप अपनी गठरी समेटकर अनंत यात्रा में चले जाते हैं, तब हमें लगता है कि हम अकेले हो गए हैं. अब वह छाया हमारे सर पर नहीं रही, जो हमें ठंडक देती थी, दुलार देती थी, प्यार भरी झिड़की देती थी.
यही समय होता है पीढ़ियों के द्वंद्व का. एक पीढी हमारे लिए छोड़ जाती है जीने की अपार संभावनाएँ, अपने पराक्रम से हमारे बुजुर्गों ने हमें जीवन की हरियाली दी, हमने उन्हें दिए कांक्रीट के जंगल. उन्होंने दिया अपनापन और हमने दिया बेगानापन. वे हमारी शरारतों पर हँसते-हँसाते रहे, हम उनकी इच्छाओं को अनदेखा करते रहे. वे सभी को एक साथ देखना चाहते थे, हमने अपनी अलग दुनिया बना ली. वे जोड़ना चाहते थे, हमारी श्रध्दा तोड़ने में रही. घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना. साल में एक बार अचार या बड़ी का बनना, या फिर बच्चों के लिए रोज ही प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनना, बात-बात में ठेठ गँवई बोली के मुहावरों का प्रयोग या फिर लोकगीतों की हल्की गूँज. यह न हो तो भी कभी-कभी गाँव का इलाज तो चल ही जाता है. पर अब यह सब कहाँ?
अब यह बात अलग है कि स्वयं बुजुर्गों ने भी कई रुढ़िवादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नातिन या पोते की बाइक पर पीछे निश्ंचित होकर बैठ जाते हैं. यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा. पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं. पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह ंगलत है. पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है. कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का काँधा नहीं होता. बुजुर्ग या तो संसार छोड़ चुके होते हैं या गाँव में एकाकी जीवन बिताना प्रारंभ कर देते हैं.
आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. उनके पास अनुभवों का भंडार है, उनके दिन, रातों के कार्बन लगी एक जैसी प्रतियों से छपते रहते हैं. कही कोई अंतर नहीं. वे अपने समय की तुलना आज के समय के साथ करना चाहते हैं, उनके ंफर्क को रेखांकित करना चाहते हैं, पर किससे करें? उनके अंधिकांश मित्र छिटक चुके होते हैं. यदि आप किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उसे अपनी बात कहने का अवसर दें और उसकी अभिव्यक्ति का आनंद महसूस करें, तो आप पाएँगे कि आपने बिना कुछ खर्च किए परोपकार कर दिया है. फिर शायद उन्हें कराहने की जरूरत नहीं पड़े और न बिना बात बड़बड़ाने की. दिन में आपने जिस बुंजुर्ग की बात ध्यान से सुनी हो, उसे रात में चैन की नींद लेते हुए देखें, तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपका छोटा-सा बच्चा नींद में मुस्करा रहा हो.
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं. उनके पोपले मुँह से आशीर्वाद के शद्वों को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएँ हैं. दादी माँ का केवल 'बेटा' कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं. यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दे, तो समझो हम निहाल हो गए. लेकिन वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात का परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं. हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं. इसके बाद भी इन बुजुर्गाें के मुँह से आशीर्वाद स्वरूप यही निकलता है कि जैसा तुमने हमारे साथ किया, ईश्वर करे तुम्हारा पुत्र तुम्हारे साथ वैसा न करे. देखी..... झुर्रीदार चेहरे की दरियादिली?
डा. महेश परिमल,

बुधवार, 19 सितंबर 2007

शोर के गुलाम हो गए हैं हम सब

डा. महेश परिमल
गणेश चतुर्थी, जगह-जगह संकट निवारक देवता गणेश जी की मूर्ति की स्थापना, चंदा, गली-गली के बच्चों-बड़ों में उत्साह. देर रात तक झाँकियों का प्रदर्शन, तेज ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग, फूहड़ गाने, छेड़छाड़, अपराध और भी न जाने क्या-क्या? कुल मिलाकर यही लगता है कि ये कहाँ आ गए हम, शोर की दुनिया में. जहाँ कोई किसी का नहीं, सब शोर के गुलाम हैं. हम सभी के कानों में शोर इतना रच-बस चुका है कि बिजली गुल हो जाने पर सभी ओर छाई शांति हमें खलने लगती है. वह शांति हमें बर्दाश्त नहीं हो पाती. ये क्या हो गया है हमें कि हम अपने भीतर की आवांज सुन नहीं पा रहे हैं. खुशी में शोर, ंगम में शोर, याने शांति हमें चाहिए ही नहीं. सचमुच हम सब शोर के ंगुलाम हो गए हैं.
उस दिन सड़क पर एक साधारण-सी घटना घटी. एक युवक मोटरसाइकिल पर चला जा रहा था. उसके पीछे एक ट्रक जा रहा था. अचानक ट्रक का हार्न इतनी तेजी से चीखा कि युवक कुछ विचलित हो गया. उसके बाद ट्रक का हार्न कुछ अधिक देर तक चीखता रहा. अब बारी उस युवक की थी. उसने तेजी से आगे बढ़कर अपनी बाइक सड़क के बीचो-बीच आड़ी खड़ी कर दी, ट्रक रुक गया. युवक ड्राइवर के पास पहुँचा और लगातार उसे मारने लगा. लोग यह देखकर हैरान थे कि आखिर हो क्या रहा है. ड्राइवर मार खा रहा था और पूछ रहा था कि आखिर उससे गलती क्या हुई है. कुछ देर बाद युवक का गुस्सा शांत हुआ. लोगों ने उससे पूछा कि आखिर बात क्या है. तब उस युवक ने बताया कि ड्राइवर लगातार 'प्रेशर हार्न' बजा रहा था, हार्न का यह शोर मुझसे सहन नहीं होता. यह मेरी कमजोरी है कि इस हार्न के बजने से मैं अपना आपा खो बैठता हूँ. इस दौरान मुझसे खून भी हो सकता है. अब ड्राइवर को समझ में आया कि उससे क्या गलती हुई है.
वह युवक तो पुलिस के हत्थे चढ़ गया, पर हम सभी के सामने एक ंजिंदा सवाल छोड़ गया. उसने क्या ंगलत किया. यह सच है कि किसी को भी सड़क पर इस तरह से अचानक मारना नहीं चाहिए. पर वह युवक क्या करे, वह तो अपने-आपे में नहीं था. वह तो शोर से नफरत करता था और वही शोर उसके कानों पर बार-बार पड़ रहा था. यह शोर बड़ा भयानक रोग की तरह हमारे भीतर पाँव पसार रहा है. इसकी तकलीफ को हम अभी नहीं समझ रहे हैं, पर निकट भविष्य में यह हमारे सर चढ़कर बोलेगा, इसमें कोई शक नहीं.
कुछ दिनों पहले ही शहर से बहुत दूर एक गाँव में जाने का अवसर मिला. खेतों, पगडंडियों, झाड़-झंखाड़ के बीच गुजरते हुए बहुत अच्छा लगा. स्वच्छ पानी के तालाब में नहाना, ऐसा लगा मानो बरसों की शहरी थकान उतर गई हो. भोजन भी अपेक्षाकृत अधिक लिया. नींद तो इतनी गहरी आई कि पूछो ही मत, पर एक बात विशेष रूप से देखने में आई कि खेतों पर काम करते हुए दो कोनों पर खड़े मजदूरों में आपस में वार्तालाप हो जाता था और उन दोनों के बीच खड़े होकर मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ता था. मैंने देखा कि वे मजदूर परस्पर बातचीत कर हँस भी लेते थे. उनकी बोली से अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद भी आखिर मुझे उनकी बातचीत समझ में क्यों नहीं आती थी?
आज जब मैं इस पर गंभीरता से विचार कर रहा हूँ तो पाता हंँ कि मेरे कानों को तो शहरी ध्वनि प्रदूषण का रोग लग गया है. शहरों में कल-कारखानों, वाहनों, मंदिरों, पटाखों, बैंडबाजों का शोर इतना व्यापक है कि सामान्य ध्वनि तो सुनाई ही नहीं देती. उन मजदूरों के कानों में ध्वनि संवेदना अधिक सक्रिय है, क्योंकि वहां शोर नहीं है. आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के ऑंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
उत्सवों में अधिक से अधिक शोर करना फैशन हो गया है. रोज सुबह मंदिरों में आरती के लिए लाउडस्पीकर का सहारा लिया जाता है. आरती के वक्त मंदिरों में कभी जाकर देखें तो पता चलेगा कि मात्र चार लोग ही विभिन्न वाद्ययंत्रों के माध्यम से लाउडस्पीकर का सहारा लेकर अधिक से अधिक शोर करते हैं. इस दौरान वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि जो आरती मन को शांति पहुँचाती है, वही लाउडस्पीकर से निकलकर किस तरह से दूसरों को अशांत कर रही है. बहुत सुरीली लगती है न लता मंगेशकर की आवांज, कभी उनके किसी गीत को साउंड सिस्टम में पूरी तीव्रता के साथ सुनो तब समझ में आ जाएगा कि अधिक तेज आवांज किस तरह से सुरीले स्वर को कर्कश बना देती है?
आज पर्यावरण पर तो बहुत ध्यान दिया जा रहा है, जल और वायु के प्रदूषण पर सारा विश्व चिंतित है, पर ध्वनि प्रदूषण की ओर कोई इशारा भी नहीं करता. इसके लिये हमें ही प्रयास करना होगा. शुरुआत हम खुद से करें तो बेहतर होगा. तेज स्वर में न बोलें. अपने रेडियो, टेप, टी.वी. की आवांज धीमी रखें. उत्सवों में तेज स्वर से दूर रहें. अपने उत्सव में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग ही न करें. अपनी गाड़ियों में कर्कश ध्वनि वाले हार्न न लगाएँ, लोगों को ध्वनि प्रदूषण के खतरों एवं दुष्प्रभावों से अवगत कराएँं. अपनी तरफ से हम इतना ही करें तभी हमें शांति मिल सकती है. हमारे आसपास कितना शोर है यह जानने के लिए एक मिनट तक दोनों कानों में अपनी ऊँगलियाँ डाल लें, देखो कितनी शांति मिलती है? बाहरी शोर पर काबू पाना हमारे बस की बात नहीं, पर कुछ प्रयास तो हमारी ओर से हो ही सकते हैं. नहीं तो इन शोर प्रेमियों को कौन बताए कि आपका बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो उसके पीछे यह शोर तो नहीं? बच्चे के जन्म की खुशियाँ लाउडस्पीकर के माध्यम से बाँटने वाले कभी खुद ही अपने ही बच्चे की आवांज सुनने से तरस जाएँगे, क्योंकि यह शोर आपको बहरा बना देगा.
बच्चों को कमजोर बना सकता है्र यह शोर
शोर आपके बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर भी बना सकता है. सावधान हो जाएँ, यदि आप किसी हवाई अड्डे के नजदीक रहते हैं. जर्मन विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक शोध में ये चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं. शोर्धकत्ताओं का कहना है कि शोर भरे माहौल की घुटन से बच्चों के मस्तिष्क की क्षमता का क्षरण होने लगता है. ऐसे बच्चे जो किसी व्यस्त हवाई अड्डे के आसपास रहते हैं, उन्हें किसी पाठ को याद रखने में सामान्य बच्चों से अधिक कठिनाइयाँ होती है. इसी तरह कंठस्थ करने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसी स्थिति लंबे समय तक भी बनी रह सकती है.
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

ड्राइंग रुम में बैठा घर का दुश्मन

डा. महेश परिमल
अपनी युवा होती बिटिया से एक दिन माँ ने कहा- बेटा अब वक्त आ गया है कि तुझसे सेक्स के बारे में कुछ बात की जाए. तब बिटिया का जवाब था- पूछो माँ, जो कुछ भी पूछना हो, शरमाना मत, मैं सब-कुछ बताऊँगी. सोचो उस समय माँ पर क्या गुजरी होगी? इसी तरह एक और घटना है. पहली कक्षा में पढ़ने वाली नन्हीं छात्रा ने बताया कि आज उनकी क्लास में एक लड़के ने एक लड़की की पप्पी लेते हुए आई लव यू कहा.
ये दोनों घटनाएँ आज के बदलते हुए समाज की एक ऐसी तस्वीर है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. न तो उस बिटिया ने वह ज्ञान अपने साथियों से पाया, न ही पुस्तकों से और न ही किसी और से. उस नन्हे लड़के की हरकत थी, लेकिन उसे भी ये सब सीखने के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ा. ये ज्ञान उन्हें आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा से प्राप्त हुआ. शायद आप मेरी बात नहीं समझे. आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा याने हमारे ही घर में शान से बैठा हमारा टीवी. और उस में लगने वाला केबल. बस यही दुश्मन आज हमारे घर के भीतर घुसकर हम सबके मस्तिष्क पर हमला कर रहा है और हम हैं कि इसे बिलकुल न समझते हुए खुश हैं कि हमारा बच्चा ज्ञानवान बन रहा है.
टीवी का हमारे संस्कार से गहरा नाता है. टीवी आज जो कुछ हमें परोस रहा है, वह हमारी ंजिंदगी में बिलकुल भी नहीं होता. क्योंकि उसकी दुनिया अमीरों की दुनिया होती है. टीवी पर गरीबों की कहानी कभी नहीं आती. वह तो अमीरों का ही पोषक है. गरीबों की दास्तान सुनने के लिए हमारे पास ंजरा भी वक्त नहीं है. लेकिन एक लखपति करोड़पति कैसे बन जाता है, यह हमारे लिए प्रेरणा का विषय होता है. हम भी उसी की तरह पल भर में करोड़पति होना चाहते हैं. टीवी हमें यह सिखाता है कि कैसे बिना परिश्रम के तमाम कायदे-कानून को बला-ए-ताक पर रखकर करोड़पति बना जा सकता है. सारे काले धंधे हमें टीवी पर ही देखने को मिलते हैें. हम उसी से सीख रहे हैं. फिर हमारी संतानों का क्या? वे भी तो वही सब देख रहे हैं, जो हम देख रहे हैं. उनका अपना संसार है. जब वे टीवी पर कई तरह की हत्याएँ, चालबाजी, पैंतरेबाजी देखते हैं, तो वैसा ही करने का उनका भी मन करता है. कभी-कभी वे ऐसा कर भी लेते हैें, तब बड़ा मजा आता है, धीरे-धीरे ऐसा करना उनकी आदत में शुमार हो जाता है.
हम शायद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आज टीवी के धारावाहिकों में जानबूझकर वही दिखाया जा रहा है, जो विज्ञापन मीडिया चाहता है. विज्ञापन मीडिया याने धारावाहिकों को प्रायोजित करने वाला एक बड़ा समुदाय. इसे यह अच्छी तरह से मालूम है कि आज के मनुष्य पर उसके ड्राइंग रुम पर ही हमला बोला जा सकता है, तभी वह उससे प्रभावित हो सकता है. टीवी पर आज वह नहीं दिखाया जा रहा है, जो समाज में हो रहा है, बल्कि वही दिखाया जा रहा है, जो भविष्य में समाज में होना है. आप देख ही रहे हैं, समाज में आज वही हो रहा है, जिसे टीवी दिखाता रहा है.
ये आज के समाज की सच्चाई है कि हम अपने दुश्मन को नहीं पहचान पा रहे हैं. इस टीवी ने आज हमें अपना गुलाम बना लिया है. वैसे तो गुलामी कभी किसी को पसंद नहीं है, लेकिन टीवी की इस गुलामी को हमने आज सहजता से स्वीकार कर लिया है. आज हालत यह हो गई है कि जब तक हम सास-बहू के किस्से को दिन भर में एक दो बार नहीं देख लेते या अपनों के बीच चर्चा नहीं कर लेते, हमें अच्छा ही नहीं लगता. हम बड़े ही गर्व से कहते हैं कि देखो तो पायल ने कितना बड़ा पैंतरा खेला. वह तो लगता है वीरानी परिवार को खत्म करके ही रहेगी.
कभी सोचा है इस टीवी ने आज नारी की हालत कैसी कर दी है. आज टीवी पर तो नारी नारी के रूप में न होकर एक डायन के रूप में नजर आती है. हम और आप आज हजार पाँच सौ रुपए के लिए तनाव में आ जतो हैं. लेकिन टीवी की ये आधुनिक नारियाँ लाखों-करोडाें का ही व्यापार करती हैं. इन लोगों के सामने इनका दुश्मन दिखाई देता है, लेकिन हमें तो हमारा ही दुश्मन दिखाई नहीं दे रहा है.
टीवी ने आज इंसान की परिभाषा ही बदल कर रख दी है. ऐसे में कैसे स्थापित हो संस्कारवान समाज. जब हम ही संस्कारवान नहीं हैं, तो अपने बच्चों से यह कैसे अपेक्षा करें कि वे संस्कारवान बनें? आज हमारे ही घर में आने वाले हमारे माता-पिता को हम अपना कजिन बताते नहीं शरमाते. अब तो उन्हें घर के कुछ ही विशेष कार्यक्रमों में ही बुलाया जाता है. डिलीवरी के समय, किसी की बीमारी के समय या फिर ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में जिसमे माता-पिता की उपस्थिति अत्यावश्यक हो. आज हमारे ही नजरों में हमारे माता-पिता का महत्व कुछ भी नहीं रह गया है.
हमने ऐसा क्यों किया? क्योंकि हम आज जो कुछ भी कर रहे हैं, वही टीवी पर देख रहे हैं. टीवी पर आने वाला धारावाहिक हमें कई मामलों में अच्छा इसीलिए लगता है कि हम उसमें अपनी परम्पराओं को टूटता हुआ देखते हैं. आज घर में माता-पिता की उपस्थिति हमें खलती है, हमारे एकांत को तोड़ती है. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इन सबके पीछे हमारे ड्राइंग रुम में सजा हमारा टीवी ही है.
टीवी को यदि हमें अपना दोस्त समझना है, तो पहले यह देख लें कि हमें टीवी पर आने वाला ऐसा कौन सा धारावाहिक देखना है, जिसमें संस्कारों को मजबूत होना दिखाया जाता हो. पसीने से कमाए धन के बारे में बताया जाता हो. अपने से बड़ों का आदर करना बताया जाता हो. हमारे भीतर के सोए पड़े इंसान को जगाने का काम करता हो. हमारे बच्चों को यह बताए कि बिना मेहनत के मिलने वाला धन हमारे लिए मिट्टी है. मेहनत से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है, यही नहीं हमें हमेशा दूसरों की सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए, ऐसे संस्कार देने का काम यदि टीवी करे, तो निश्चित ही वह हमारा दोस्त है. अन्यथा उससे बड़ा हमारा कोई शत्रु नहीं.
अंत में एक बात यही कहना चाहूँगा कि टीवी जब तक हमारा है, वह हमारा दोस्त है, हमारा साथी है, पर जिस दिन हम टीवी के हो गए, वह हमारा दुश्मन बन जाता है. वह हम पर रांज करता जाता है और हम कुछ नहीं कर पाते. यदि हम आज टीवी के सचमुच गुलाम हो गए हैं, तो वह समय दूर नहीं, जब आपका बच्चा आपसे गालियों से बात करेगा और आप कुछ नहीं कर पाएँगे. आप को इसके लिए तैयार रहना होगा.
? डा. महेश परिमल, 403, भवानी परिसर, इंद्रपुरी भेल, भोपाल. 462022.

ड्राइंग रुम में बैठा घर का दुश्मन
? डा. महेश परिमल
अपनी युवा होती बिटिया से एक दिन माँ ने कहा- बेटा अब वक्त आ गया है कि तुझसे सेक्स के बारे में कुछ बात की जाए. तब बिटिया का जवाब था- पूछो माँ, जो कुछ भी पूछना हो, शरमाना मत, मैं सब-कुछ बताऊँगी. सोचो उस समय माँ पर क्या गुजरी होगी? इसी तरह एक और घटना है. पहली कक्षा में पढ़ने वाली नन्हीं छात्रा ने बताया कि आज उनकी क्लास में एक लड़के ने एक लड़की की पप्पी लेते हुए आई लव यू कहा.
ये दोनों घटनाएँ आज के बदलते हुए समाज की एक ऐसी तस्वीर है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. न तो उस बिटिया ने वह ज्ञान अपने साथियों से पाया, न ही पुस्तकों से और न ही किसी और से. उस नन्हे लड़के की हरकत थी, लेकिन उसे भी ये सब सीखने के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ा. ये ज्ञान उन्हें आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा से प्राप्त हुआ. शायद आप मेरी बात नहीं समझे. आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा याने हमारे ही घर में शान से बैठा हमारा टीवी. और उस में लगने वाला केबल. बस यही दुश्मन आज हमारे घर के भीतर घुसकर हम सबके मस्तिष्क पर हमला कर रहा है और हम हैं कि इसे बिलकुल न समझते हुए खुश हैं कि हमारा बच्चा ज्ञानवान बन रहा है.
टीवी का हमारे संस्कार से गहरा नाता है. टीवी आज जो कुछ हमें परोस रहा है, वह हमारी ंजिंदगी में बिलकुल भी नहीं होता. क्योंकि उसकी दुनिया अमीरों की दुनिया होती है. टीवी पर गरीबों की कहानी कभी नहीं आती. वह तो अमीरों का ही पोषक है. गरीबों की दास्तान सुनने के लिए हमारे पास ंजरा भी वक्त नहीं है. लेकिन एक लखपति करोड़पति कैसे बन जाता है, यह हमारे लिए प्रेरणा का विषय होता है. हम भी उसी की तरह पल भर में करोड़पति होना चाहते हैं. टीवी हमें यह सिखाता है कि कैसे बिना परिश्रम के तमाम कायदे-कानून को बला-ए-ताक पर रखकर करोड़पति बना जा सकता है. सारे काले धंधे हमें टीवी पर ही देखने को मिलते हैें. हम उसी से सीख रहे हैं. फिर हमारी संतानों का क्या? वे भी तो वही सब देख रहे हैं, जो हम देख रहे हैं. उनका अपना संसार है. जब वे टीवी पर कई तरह की हत्याएँ, चालबाजी, पैंतरेबाजी देखते हैं, तो वैसा ही करने का उनका भी मन करता है. कभी-कभी वे ऐसा कर भी लेते हैें, तब बड़ा मजा आता है, धीरे-धीरे ऐसा करना उनकी आदत में शुमार हो जाता है.
हम शायद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आज टीवी के धारावाहिकों में जानबूझकर वही दिखाया जा रहा है, जो विज्ञापन मीडिया चाहता है. विज्ञापन मीडिया याने धारावाहिकों को प्रायोजित करने वाला एक बड़ा समुदाय. इसे यह अच्छी तरह से मालूम है कि आज के मनुष्य पर उसके ड्राइंग रुम पर ही हमला बोला जा सकता है, तभी वह उससे प्रभावित हो सकता है. टीवी पर आज वह नहीं दिखाया जा रहा है, जो समाज में हो रहा है, बल्कि वही दिखाया जा रहा है, जो भविष्य में समाज में होना है. आप देख ही रहे हैं, समाज में आज वही हो रहा है, जिसे टीवी दिखाता रहा है.
ये आज के समाज की सच्चाई है कि हम अपने दुश्मन को नहीं पहचान पा रहे हैं. इस टीवी ने आज हमें अपना गुलाम बना लिया है. वैसे तो गुलामी कभी किसी को पसंद नहीं है, लेकिन टीवी की इस गुलामी को हमने आज सहजता से स्वीकार कर लिया है. आज हालत यह हो गई है कि जब तक हम सास-बहू के किस्से को दिन भर में एक दो बार नहीं देख लेते या अपनों के बीच चर्चा नहीं कर लेते, हमें अच्छा ही नहीं लगता. हम बड़े ही गर्व से कहते हैं कि देखो तो पायल ने कितना बड़ा पैंतरा खेला. वह तो लगता है वीरानी परिवार को खत्म करके ही रहेगी.
कभी सोचा है इस टीवी ने आज नारी की हालत कैसी कर दी है. आज टीवी पर तो नारी नारी के रूप में न होकर एक डायन के रूप में नजर आती है. हम और आप आज हजार पाँच सौ रुपए के लिए तनाव में आ जतो हैं. लेकिन टीवी की ये आधुनिक नारियाँ लाखों-करोडाें का ही व्यापार करती हैं. इन लोगों के सामने इनका दुश्मन दिखाई देता है, लेकिन हमें तो हमारा ही दुश्मन दिखाई नहीं दे रहा है.
टीवी ने आज इंसान की परिभाषा ही बदल कर रख दी है. ऐसे में कैसे स्थापित हो संस्कारवान समाज. जब हम ही संस्कारवान नहीं हैं, तो अपने बच्चों से यह कैसे अपेक्षा करें कि वे संस्कारवान बनें? आज हमारे ही घर में आने वाले हमारे माता-पिता को हम अपना कजिन बताते नहीं शरमाते. अब तो उन्हें घर के कुछ ही विशेष कार्यक्रमों में ही बुलाया जाता है. डिलीवरी के समय, किसी की बीमारी के समय या फिर ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में जिसमे माता-पिता की उपस्थिति अत्यावश्यक हो. आज हमारे ही नजरों में हमारे माता-पिता का महत्व कुछ भी नहीं रह गया है.
हमने ऐसा क्यों किया? क्योंकि हम आज जो कुछ भी कर रहे हैं, वही टीवी पर देख रहे हैं. टीवी पर आने वाला धारावाहिक हमें कई मामलों में अच्छा इसीलिए लगता है कि हम उसमें अपनी परम्पराओं को टूटता हुआ देखते हैं. आज घर में माता-पिता की उपस्थिति हमें खलती है, हमारे एकांत को तोड़ती है. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इन सबके पीछे हमारे ड्राइंग रुम में सजा हमारा टीवी ही है.
टीवी को यदि हमें अपना दोस्त समझना है, तो पहले यह देख लें कि हमें टीवी पर आने वाला ऐसा कौन सा धारावाहिक देखना है, जिसमें संस्कारों को मजबूत होना दिखाया जाता हो. पसीने से कमाए धन के बारे में बताया जाता हो. अपने से बड़ों का आदर करना बताया जाता हो. हमारे भीतर के सोए पड़े इंसान को जगाने का काम करता हो. हमारे बच्चों को यह बताए कि बिना मेहनत के मिलने वाला धन हमारे लिए मिट्टी है. मेहनत से ही सच्चा सुख प्राप्त होता है, यही नहीं हमें हमेशा दूसरों की सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए, ऐसे संस्कार देने का काम यदि टीवी करे, तो निश्चित ही वह हमारा दोस्त है. अन्यथा उससे बड़ा हमारा कोई शत्रु नहीं.
अंत में एक बात यही कहना चाहूँगा कि टीवी जब तक हमारा है, वह हमारा दोस्त है, हमारा साथी है, पर जिस दिन हम टीवी के हो गए, वह हमारा दुश्मन बन जाता है. वह हम पर रांज करता जाता है और हम कुछ नहीं कर पाते. यदि हम आज टीवी के सचमुच गुलाम हो गए हैं, तो वह समय दूर नहीं, जब आपका बच्चा आपसे गालियों से बात करेगा और आप कुछ नहीं कर पाएँगे. आप को इसके लिए तैयार रहना होगा.
डा. महेश परिम

शनिवार, 15 सितंबर 2007

खिलखिलाती प्रकृति का अट्टहास

डॉ महेश परिमल
फल-कल करती नदियॉ झर-झर बहते झरने सनन्-सनन् सन् करती हवाएॅ और लहर लहर लहराती सागर की लहरें ऐसे में भला किसका मन मयूर न होगा? बादलों के पंख दिल पर ऊग आएॅगे और उड़ते-उड़ते ये जा पहॅुचेगा प्रकृति की गोद में, जहॉ हरीतिमा की चादर ओढ़े, इंद्रधनुषी आभा को अपने सिर का ताज बनाए इस सृष्टि ने श्रृंगार किया है। कितनी अद्भुत कल्पना! कितनी सुखद और मन को आल्हादित करने वाली कल्पना!एक सुरभित और सुंदरतम कल्पना! क्या ऐसा होता है? हॉ ऐसा ही होता है! नहीं, नहीं यू कहें कि ऐसा ही होता था।सावन के आते ही रिमझिम फुहारों की मस्ती में, भीगी माटी के सौंधोपन में, कोयल की कुहू-कुहू में और अमराई में झूलते आम के कच्चे झुमकों में ये कल्पना साकार हो उठती थी।चारों ओर सावन की बौछारों के साथ जवानी झूमउठती थी, बुढ़ापा गा उठता था और बचपन कागज की कश्ती के साथ तैर जाता था।वर्षा की बूंदों के बीच अधारों पर मुस्कान खिल जाती थी।ऑखों में चमक और चेहरे पर दमक छा जाती थी। तब हॉ, तभी मन का मयूर नृत्य करता था और एक कल्पना साकार हो उठती थी।इस तरह हर कोई वर्षा का स्वागत करने को आतुर रहता था। आज स्व रामनारायण उपाध्याय जी बरबस याद आते हैं, उन्हाेंने कहा है सितारों की कील की चुभन से जब आसमान का दिल भर आता है,तो उसे वर्षा कहते हैं। किसान की जर्जर ऑखे टकटकी लगाए आसमान की ओर देखती रहती है। जैसे ही बादलों का शोर सुनाई देता है, उसके बूढ़े शरीर में जोश भर जाता है, कमजोर ऑखों में चमक आ जाती है। शरीर से भले ही तैयार न हो पर मन से पूरे जोश के साथ वह वर्षा के स्वागत के लिए तैयार हो जाता है। फिर वह अपने हल, बैल को लेकर निकल जाता है अंधोरे में ही, धारती की छाती से लहलहाती फसल लेने का संकल्प लेकर। पहले जब सावन आता था, तो प्रकृति खिलखिलाती थी। उसकी गोद में कई सुखद कल्पनाएॅ जन्म लेती थी, किंतु आज हालात ये हैं कि जब सावन आता है, तो उसका रूप इतना भयानक होता है कि यूॅ लगता है मानों प्रकृति खिलखिलाने के बजाए अट्टहास कर रही हो।अब तो सावन हमें डराने लगा है, न जाने कब किस हालत में वह हमारे घर आ जाए और हम सब बाहर निकल जाएॅ? अब तो सावन ही नहीं, बल्कि आषाढ़ भी अपने को कमतर नहीं मानता। सावन तो बाद में, पर आषाढ़ तो पहले ही अपनी रंगत दिखाने लगा है। आज सावन के आते ही मन एक अनजाने भय के साथ सिहर उठता है। प्रतीक्षा की घड़ी में भी मन के किसी कोने में सावन के न आने की भी आशा रहती है।पिछले कई बरस से सावन जब भी आया है हमारे ऑगन में, तब से वह ऑगन भी अधामरा हो गया है।आखिर ऐसा क्यों करने लगा है सावन हम सबसे।हमने ऐसा क्या किया है कि वह हमें डराने लगा है।
हम तो ठहरे ग्रामीण, हमें तो वह सदैव भला ही लगता रहा है, हमने कभी उसे दुतकारा नहीं, उसकी अगवानी में हमने सदैव ही अपनी सूखी ऑखें बिछाई हैं।उसकी पूजा करने में कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी।उसे तो
दुतकारा है शहरियों ने, जहॉ कांक्रीट का जंगल है।उनके दिल भी कांक्रीट की तरह हो गए हैं।वहीं तो होती है,उससे छेड़खानी।कहते है पानी अपना रास्ता खुद बनाता है, पर पानी के बनाए हुए रास्ते को ही जब डामर की
सड़क में तब्दील कर दिया जाए, तो भला किसे अच्छा लगेगा।पानी के रास्ते में मानव आ रहा है।क्या पानी उसे छोड़ेगा? आज धरती की छाती में हजारों छेद हो गए हैं।रोज ही नए-नए छेद हो रहे हैं। धरती से पानी दूर और दूर होता जा रहा है।धारती सूखने लगी है। प्रकृति रुठने लगी है।बहुत ही गहरा नाता है इन दोनों में। दोनों ने ही
मानव जाति के साथ दोस्ती निभाई है। मानव ने ही अपने स्वार्थ के लिए ससे छेड़छाड़ शुरू कर दी है।इसमें शहरी मानव ने ही कई खतरनाक कदम उठाए हैं।पानी रोकने के तमाम पुराने रास्तों को छोड़कर लगातार नए रास्ते बनाए जा रहे हैं। उसके स्वभाव को ही बदलने की साजिश चल रही है।भला पानी अपना स्वभाव बदल सकता है? पानी में तो वह ताकत है कि वह लोगों के चेहरे का पानी ही उतार दे।वह चाहे तो लोगों को
पानी-पानी कर दे।पर वह ऐसा करना नहीं चाहता। पर प्रकृति भला कहॉ मानने वाली। उसका स्वभाव पानी जैसा नहीं है, वह तो वहीं करेगी, जो उसे करना है। अब तक उसने मानव जाति का खूब साथ दिया, पर जब
यही मानव जाति उसके साथ अनाचार करने लगी, तब उसने भी अपना द्र रूप दिखाना शुरू कर दिया।पहले वह मचलती थी,अब बिफरने लगी। उसका बिफरना हमें डराने लगा है।अब वह हर मौसम में अपना रंग दिखाने लगी है।उसके लिए अब नतो सावन की फुहारों का कोई अर्थ है और न ही बासंती बयार का।अब उसके लिए हर मौसम अपनी मनमानी का मौसम है। गर्मी में खूबतपाने वाली प्रकृति बारिश में कई जिंदगियों को डूबो देती है। किटकिटाती ठंड में आखिरी सफर तय करवाती प्रकृति उफ नती हवाओं के साथ कई जिंदगियों को मौत के आगोश में ले जाती है। यही है प्रकृति का नया रूप।वह जानती है कि उसके इस रूप को हम सहन नहीं कर पा रहे हैं, फिर भी इसी रूप में सामने आना उसकी विवशता है और यह हमारी ही देन है। आज राम नारायण उपाध्याय जी बरबस याद आते हैं, उन्हाने कहा है सितारों की कील की चुभन से जब आसमान का दिल भर आता है, तो उसे वर्षा कहते हैं। आज प्रकृति की छाती पर इतनी अधिक इंसानी कीलें चुभा दी गई हैं कि वह आर्तनाद करने लगी है।उसका यही आर्तनाद हमारे सामने विभिन्न रूपों में सामने आने लगा है। इसके पहले कि यह आर्तनाद अपना रौद्र रूप दिखाए, हमें सचेत हो जाना चाहिए। नहीं तो हो सकता है हमारी करतूतों की सजा हमारी पीढ़ी को भोगनी पडे।

डॉ महेश परिमल

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

हम सभी सुन रहे हैं, हिंदी की सिसकियाँ

डॉ. महेश परिमल'
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है' आज यह सूत्र वाक्य बेमानी सा लगने लगा है. मन के किसी कोने से अंग्रेजी के प्रति प्रेम भाव जागता है और हिंदी अधिकारी, हिंदी के प्राध्यापक और हिंदी के प्रति सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लेने वाले भी अपने बच्चों को कान्वेंटी शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज देते हैं. इसके पीछे उनकी मूल भावना यही होती है कि बच्चा अंग्रेजी जान लेगा, तो उसका भविष्य भले ही सुखद न हो, पर दु:खद भी न हो. इस भावना के पीछे यही भाव है कि अंग्रेजियत हिंदी पर हावी होती जा रही है. हिंदी के ज्ञानी सच कहें, तो घास ही छिल रहे हैं. अंग्रेजी का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाला भी आज अफसर बन बैठा है. हिंदी की दुर्दशा से हर कोई वाकिफ है. साल में एक दिन मिल ही जाता है, चिंता करने के लिए. पर इसके लिए दोषी तो हम स्वयं हैं, क्योंकि अभी तक हिंदी को वह सम्मान ही नहीं दिया, जिसके वह लायक है. हिंदी राजनीति की शिकार हो गई, हिंदी समिति की सिफारिशें सिसक रहीं हैं, आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, और हमारे नेताओं और अफसरों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. नेता तो अब इससे वोट नहीं बटोर सकते. शालाओं में हिंदी बोलने वाले को संजा मिलती है. पाठ्यक्रम में राम, रहीम, सीता की जगह जॉन, रॉबर्ट, मेरी, जूली ने ले ली है. दक्षिण के लोग भले ही हिंदी का विरोध करें, लेकिन वे आज भी हिंदी फिल्में चाव से देखते हैं और उसके गाने गुनगुनाते हैं. हम हिंदी जानने वाले ही हिंदी को निकृष्ट भाषा मानते हैं. इसके प्रति पहले हम समर्पित हों, तभी दूसरों को उपदेश दे सकते हैं.

रोम्यारोलां ने कहीं कहा है कि कोई भी चीज यदि अच्छी-खासी चल रही हो, उसमें थोड़ी-सी राजनीति डाल दो, निश्चय ही उस चीज का बंटाढार हो जाएगा. उनकी यह बात आज शत-प्रतिशत सच साबित हो रही है. हमारे जीवन का आज ऐसा कोई भी अंग नहीं है, जिसमें राजनीति न हो. राजनीति के इस दुराग्रह के शिकार केवल हमारी संसद ही नहीं हो रही है, बल्कि शिक्षा, खेल, धर्म में भी इसका पदार्पण हो गया है और यह उसे घुन की तरह खाए जा रही है.

आज हम यदि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी को लेकर देखें, तो यही लगेगा कि जब से इसमें राजनीति का प्रवेश हुआ है, यह केवल गरीबों की भाषा बनकर रह गई है. जिस तरह आजादी के पूर्व आज एक-दो लाख अंगरेजों ने दो सौ वर्षों तक 34 करोड़ भारतवासियों पर राज किया. आज देश की पूरी आबादी मात्र चार प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले लोग पूरे 96 प्रतिशत हिंदी जानने वालों को चला रहे हैं. क्या, यह अच्छी स्थिति है? आज हिंदी अपने ही घर में अजनबी हो गई है. एक विदेशी भाषा उस पर हावी होती जा रही है और तो और हमारी संसद का सारा कामकाज भी अंग्रेजी में हो रहा है.

आज के हालात को देखते हुए हम सगर्व नहीं कह सकते कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है. इस दिशा में एक हल्की-सी रोशनी दिखाई दी थी 12 मई, 1994 को, जब संघ लोक सेवा आयोग के कार्यालय के बाहर विशाल धरना कार्यक्रम हुआ. यह कार्यक्रम भारतीय भाषाओं की लड़ाई के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. साठ के दशक में हुए 'अंगरेजी हटाओ' आंदोलन के बाद यह सबसे बड़ी गतिविधि थी. साठ के दशक के आंदोलन की मुख्य भूमिका संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की थी, जबकि इस बार धरने में सभी दलों के लोग शामिल हुए. पूर्व राष्ट्रपति स्व. ज्ञानी जैलसिंह एवं पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह समेत तमाम दलों के नेता धरने में आए और एक स्वर में आयोग की सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने एवं भारतीय भाषाओं को उचित स्थान दिलाने की माँग की. फलस्वरूप संसद के दोनों सदनों में खासा हंगामा हुआ और वहाँ की कार्रवाई भी नहीं चलने दी. इस पर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस द्वारा इस मामले पर शीघ्र कार्रवाई का आश्वासन दे कर बला को टाला गया. अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस मुद्दे को काफी उछाला. बी.बी.सी., वॉयस ऑफ अमेरिका से विशेष झलकियाँ प्रसारित हुई.

तो यह है भारत देश का दुर्भाग्य, जहाँ हमारे नेताओं को देश की भाषाओं के लिए धरना देना पड़ रहा है. इस घरने के बाद ऐसा लगा, मानों भारतीय भाषाओं के दिन फिर जाएँगे. अंग्रेजी न जानने पर अब इस देश में बेइज्जत नहीं होना पड़ेगा. हिंदी न जानने पर सभ्रांतजन गर्व महसूस नहीं करेंगे. इसके साथ ही भाषा के नाम पर इस देश में जो अराजकता फैली हुई है, वह समाप्त हो जाएगी. यह आशा इसलिए भी बंधी थी कि धरना देने वाले नेताओं ने यह धमकी दी थी कि यदि नियत समय तक हमारी माँगे न मानी गई, तो हम सभी जेल जाने को तैयार हैं. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, संसद का विशेष अधिवेशन समाप्त हो गया, न तो कोई जेल गया, न ही किसी नेता ने अपनी माँगों को दोहराया और न ही किसी ने माँगों को याद दिलाने की कोशिश ही की. अगर यह मामला उसी समय जोर पकड़ लिया होता तो आज स्थिति कुछ और ही होती, पर हमारे नेताओं को श्रेय लूटना था-भाषा के नाम पर, सो उन्होंने लूट लिया. बस, खेल खत्म. समझ में नहीं आता कि जब सत्ता हाथ में आती है, तब ये सब क्यों नहीं सूझता?

आज भारतीय भाषाओं की जो स्थिति है, वह बहुत ही दयनीय है. एक तरफ तो यही नेता जब वोट माँगते हैं, तब अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में माँगते हैं.दूसरी ओर वोट मिलते ही अंग्रेजी प्रेमी हो जाते हैं. अंग्रेजी के बिना क्या देश नहीं चलेगा? क्या सचमुच हमारा देश आज भाषाई दृष्टि से इतना कमजोर हो गया है कि अंग्रेजी के बिना अब वह एक कदम भी नहीं चल पाएगा. क्या सिर्फ अंग्रेजी भाषा ही इस देश को जोड़ने वाली कड़ी है और कोई भाषा इस देश में है ही नहीं? जिस देश की अपनी कोई भाषा नहीं होती, उसकी आत्मा भी नहीं होती. क्या हम एक प्राणहीन, स्पंदनहीन देश में रह रहे हैं, जहाँ अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए विदेशी भाषा का सहारा लेना पड़े?

अंग्रेजी प्रेमियों की ओर से एक तर्क उछाला जाता है जिसे हिंदी प्रेमी भी स्वीकार करते हैं, वह यह कि यदि अंग्रेजी नहीं जानोगे, तो कम्प्यूटर कैसे चलाओगे? इस तर्क के जवाब में मेरा यही कहना है कि हालैंड, स्वीडन, चीन और रूस में कौन-सी भाषा में कम्प्यूटर चलता है? दरअसल हमारे नेताओं को हिंदी भाषा का यह फार्मूला पुराना लगने लगा है. अब वह समय नहीं रहा, जब हिंदी भाषा के नाम पर वोट बटोर लिए जाते थे. आजकल तो वोट बटोरने के लिए धार्मिक उन्माद, अराजकता, सनसनी पैदा करने वाले बयान, कीचड़ उछालने की प्रवृत्ति और आरोपों की बौछार, जिससे नागरिक उन पर रीझ जाएँ और अपना कीमती वोट उन्हें दे कर खुद को बरबाद कर लें.

इस पूरे मामले पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो पता चलेगा कि हिंदी को सर्वव्यापी बनाने की कोशिश आम व्यक्तियों द्वारा की गई. राजनेताओं ने इसका इस्तेमाल केवल वोट की खातिर किया. क्या कभी सोचा है आपने कि भाषा को लेकर धरना कार्यक्रम छह वर्षों तक जारी रहा? जी हाँ, अखिल भारतीय भाषा संरक्षण के लोग छह वर्षों तक संघ लोकसेवा आयोग के कार्यालय के बाहर धरना दिया. इसमें पूर्व राष्ट्रपति स्व. ज्ञानी जैलसिंह दो बार शामिल हुए.

यह सर्वविदित है कि हमारे समाज में अफसरी का क्या महत्व है? सारे कार्यों की धुरी आज अफसर ही बन गए हैं. वे चाहें तो किसी का भी काम करें या न करें. कई मामले तो ऐसे आए हैं कि इन अफसरों ने मंत्रियों तक को चला दिया है. यदि यह कहा जाए कि इस देश को अफसर लोग चला रहे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी. केन्द्रीय सेवा के अधिकारियों के मानों हमेशा पौ-बारह रहते हैं.

हालांकि भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाए जाने की वकालत आजादी से पहले भी होती रही है और संविधान सभा के सामने भी यह मामला कई बार आया, पर काँग्रेस के भीतर ही एक वर्ग ऐसा था जो अंग्रेजी प्रेमी था. इन्हें पं. जवाहर लाल नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त था. फिर भी लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में व्याप्त अराजकता और अंग्रेजी की दादागिरी को देखते हुए काँग्रेस कार्यसमिति ने 1954 में एक प्रस्ताव पारित किया कि हिंदी के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं को भी आयोग की परीक्षाओं के माध्यम की मान्यता दी जाए. बाद में राजभाषा आयोग और संसदीय राजभाषा समिति ने भी इस सुझाव को मान लिया, लेकिन 1960 में राष्ट्रपति ने विशेष आदेश जारी किए, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया कि केन्द्रीय स्तर पर हिंदी और प्रादेशिक स्तर पर स्थानीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ाया जाए. नौकरियों के ढाँचे को विकेंद्रित किया जाए और कर्मचारियों व अधिकारियों को हिंदी का सम्यक ज्ञान आवश्यक कर दिया जाए. भर्ती परीक्षाओं में कुछ समय बाद हिंदी को भी माध्यम बनाया जाए.

इसके बावजूद राजभाषा अधिनियम 1963 में इस मामले में कोई खास प्रावधान नहीं रखा गया. अधिनियम में सरकार ने यह जरूर छूट दे दी कि चाहे तो इस संबंध में कोई फैसला कर सकती है. 1963 के अधिनियम को देखकर दक्षिण के राजनेताओं को जलन होने लगी. फलस्वरूप तमिलनाडु में हिंदी विरोधी दंगे शुरू हो गए. अंतत: 1967 के अधिनियम में यह संशोधन करना पड़ा कि तब तक अंग्रेजी की स्थिति में कोई अंतर नहीं आएगा, जब तक कि राज्यों में विधानसभाएँ स्वेच्छा से यह स्वीकार नहीं कर लेतीं कि वे हिंदी को अपनाने को तैयार हैं, लेकिन भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाए जाने को लेकर सरकार पर जोर पड़ता रहा. हिंदी भाषी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी दबाव डाला. फरवरी 1968 में महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों ने हिंदी को स्वीकारने की घोषणा भी की. दिल्ली, उत्तरप्रदेश और बिहार में अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ आंदोलन भी हुए. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ के सांसदों-विधायकों ने राजभाषा संशोधन अधिनियम 1967 की प्रतियों को जलाया और तब 1968 में यह संकल्प पारित हुआ, जिसका संबंध भारतीय भाषाओं की मौजूदा लड़ाइयों से है.

इस संकल्प से गड़बड़ी शुरू हो गई. इस संकल्प से हिंदी के संवर्धन, विकास और प्रचार-प्रसार के साथ ही साथ आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को केंद्रीय सरकार की नौकरियों के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं के माध्यम का दर्जा दिया गया और कहा गया कि केंद्र उनके विकास का प्रयास करे, लेकिन यह संकल्प लोकसेवा आयोग ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया. इस पर कभी अमल नहीं हुआ. तमाम परीक्षाओं के माध्यम की भाषा अंग्रेजी ही रही. 1967 में ही जब यह संकल्प पारित हो रहा था, तभी संसद ने लोकसेवा आयोग को निर्देश दिया था कि 1968 तक कम से कम एक परीक्षा में यह संकल्प लागू कर दिया जाए, लेकिन आयोग ने यह निर्देश लौटा दिया.

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए जो भी प्रस्ताव पारित किया गया उसमें दृढ़ता का अभाव था. उच्च पदों पर बैठे अधिकारी भी हिंदी को बढ़ावा देना नहीं चाहते.

आज जंगली घासों की तरह गली-मोहल्लों में ऊग आई न जानें कितनी अंग्रेजी माध्यम की स्कूलें खुल गई हैं, जहाँ बच्चा किसी को प्रणाम या नमस्कार नहीं कर सकता. अब तो उनकी पाठयपुस्तकों से राम, मोहन, सीता के नाम गुम होने लगे हैं. भारतीय संस्कृति पर यह हमला हो रहा है और हम खामोश हैं. हिंदी भाषा आज अपने ही घर में अजनबी हो गई है. उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा रहा है. हिंदी अब केवल हिंदी दिवस पर होने वाले आयोजनों में ही अपने सही रूप में दिखती है. सरकारी संरक्षण के अभाव में वह विकृत हो रही है. जिस दिन सरकार दृढ़ता से यह संकल्प ले लें कि हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा होगी, तो उसे राष्ट्रभाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, पर जरूरी यही है कि सरकार की नीयत में खोट न हो.

संकल्प

गृह मंत्रालय के दिनांक 18 जनवरी, 1965 का संकल्प एफ 5.8.65 रा.भा.

संख्यांक एफ 5.8.65 रा.भा. संसद के दोनों सदनों में पारित निम्नलिखित सरकारी संकल्प आम जानकारी के लिए प्रकाशित किया जाता है.

और जबकि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों का पूर्ण परित्राण किया जाए. यह सभा संकल्प करती है-

क. कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर जिनके लिए ऐसी किसी सेवा अथवा पद के र्क?ाव्यों के संतोषजनक निष्पादन हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिंदी अथवा दोनों जैसी कि स्थिति हो, का उच्च स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए. संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिंदी अथवा अंग्रेजी में किसी एक का ज्ञान अनिवार्यत: अपेक्षित होगा और

ख. कि परीक्षाओं की भावी योजना प्रक्रिया संबंधी पहलुओं एवं समय के विषय में संघ लोक सेवा आयोग के विचार जानने के पश्चात अखिल भारतीय एवं उच्चतर केंद्रीय सेवाओं संबंधी परीक्षाओं के लिए संविधान की आठवीं अनुसूचि में सम्मिलित सभी भाषाओं तथा अंग्रेजी को वैकल्पिक माध्यम के रूप में रखने की अनुमति होगी.



संसदीय समिति की सिसकती सिफारिशें

संसदीय राजभाषा समिति का गठन 1976 में किया गया था, ताकि राजभाषा अधिनियम और राजभाषा से संबंधित संवैधानिक एवं कानूनी प्रावधानों का पालन हो सके. राजभाषा के मामले यह सबसे शक्तिशाली समिति है, जो सरकार में राजभाषा के कार्यान्वयन की जाँच पड़ताल करती है. दस साल तक इस समिति ने हवाई यात्राएँ तो बहुत की, पर राष्ट्रपति को कोई रिपोर्ट नहीं दी. 1987 में पहली बार रिपोर्ट दी गई. 1992 तक पाँच खंड राष्ट्रपति को दिए जा चुके हैं.

इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि भर्ती के लिए साक्षात्कार के समय हिंदी का विकल्प दिया जाए. उम्मीदवार को लिखित रूप से यह सूचना देने के लिए कहा जाए कि वह साक्षात्कार में किस भाषा का माध्यम अपनाना चाहता है. उसी भाषा में साक्षात्कार लिया जाए. चयन बोर्ड में भी हिंदी जानने वाले विशेषज्ञ हों.

समिति की कृषि, इंजीनियरिंग तथा आयुर्विज्ञान की भर्ती व प्रवेश परीक्षाओं में हिंदी माध्यम का विकल्प देने का सुझाव दिया गया. समिति की यह भी सिफारिश मान ली गई है कि ऐसी संस्थाओं में जो किसी न किसी रूप में भारत सरकार के नियंत्रणाधीन हैं, प्रवेश परीक्षाओं में तुरंत हिंदी माध्यम का शिक्षा विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय इस विषय में समुचित कार्रवाई सुनिश्चित करें. संसदीय संकल्प के बारे में संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिश है कि भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी के प्रश्न पत्र की अनिवार्यता को तुरंत समाप्त करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि 18 जनवरी 1968 के संसद के संकल्प में की गई व्यवस्था को निष्ठापूर्वक अनुपालन किया जाए और उस प्रावधान में अंतर्निहित भावना का पूर्ण आदर किया जाए. समिति की यह सिफारिश मान लिए जाने के बावजूद अंतिम निर्णय रोक लिया गया है कि इस संबंध में संघ लोक सेवा आयोग के विचार अभी नहीं मिले हैं.

इन तमाम सिफारिशों और आदेशों के बावजूद सच आज भी यही है कि न तो साक्षात्कार में हिंदी को विकल्प दिया जा रहा है, न ही प्रश्न पत्र हिंदी में लिखने की छूट है. हाँ, सिविल सेवा जैसी कुछ परीक्षाओं में जरुर कुछ सीमा तक नियमों का पालन हो रहा है. बैंको, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और भारत सरकार के छुटपुट पदों के लिए होने वाली भर्तियों में आज भी अंगरेजियत का वर्चस्व है. ऐसा न होता तो अंग्रेजी स्कूलों की माँग इतनी नही बढ़ती.
रचनाकार संपर्क:

- डॉ. महेश परिमल,

गुरुवार, 13 सितंबर 2007

लो आ गया हिंदी दिवस....

डा. महेश परिमल
लो फिर आ रहा है, हिंदी दिवस. तय है कि वही सब कुछ होगा, जो होता आया है. सभाएँ, समारोह, हिंदी लेखन स्पर्धा, वाद-विवाद प्रतियोगिता, हिंदी में काम करने का संकल्प, ऍंगरेजी की गुलाम मानसिकता से बाहर निकलने का प्रण आदि वह सब कुछ होगा. भले ही इसका प्रतिफल कुछ न मिले, लेकिन कार्यक्रम तो होने ही हैं और होंगे. कोई बता सकता है कि हिंदी के अलावा किस भाषा का दिवस मनाया जाता है? हिंदी दिवस का आगमन हमेशा से श्राध्द पक्ष के आसपास ही होता है. क्या इससे नहीं लगता कि हम हिंदी का ही श्राध्द मना रहे हैं? हर साल लिए जाने वाले संकल्पों को याद किया जाए, तो न जाने कितने संकल्प दम तोड़ते दिखाई देंगे.
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम हर वर्ष हिंदी दिवस मनाते हैं. इस बहाने हम याद कर लेते हैं कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, इस देश की भाषा है, जन-जन की भाषा है, हमें इसे धारण करना चाहिए. हिंदी के लिए तैयार किए गए ये तमाम जुमले केवल हिंदी को जीवित रखने का एक उपक्रम मात्र ही है. देखा जाए, तो हिंदी की दशा हमारे देश के कर्णधारों की विफलता का एक जीता-जागता नमूना है. क्योंकि भारत का संविधान भाग 17 अनुच्छेद 343 (।) में स्पष्ट लिखा है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. इतने स्पष्ट निर्देशों के बाद भी आज ऍंगरेजी पूरे देश में इतनी हावी है कि उसके सामने हिंदी केवल छटपटाकर रह जाती है. हम भले ही लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति को दोष देते रहें, पर सच तो यह है कि इतने शिक्षाशास्त्रियों के देश में अभी तक ऐसी शिक्षा नीति नहीं बन पाई, जिससे देश के नागरिकों को अपनी भाषा में पढ़ने की छूट मिल सके. मैकाले को दोष देना उचित नहीं, क्योंकि उसने वही किया, जो उस समय की आवश्यकता था. पर स्वतंत्रता के 58 वर्षों बाद भी हम अपने देश की राष्ट्रभाषा में शिक्षा नहीं दे सकते, तो यह आखिर किसका दुर्भाग्य है?
मान लो कोई छात्र तकनीकी शिक्षा राष्ट्रभाषा में लेना चाहता है, या फिर कोई चिकित्सक इस देश की राष्ट्रभाषा में उपाधि प्राप्त करना चाहता है, तो क्या उसकी यह इच्छा पूर्ण होगी? अब इसे इस देश का दुर्भाग्य नहीं कहा जाए, तो और क्या कहा जाए कि इस देश में कोई उच्च शिक्षा अपनी राष्ट्रभाषा में प्राप्त नहीं कर सकता. हमारा देश जापान की तरह उसका इतना भी अनुकरण नहीं कर सकता कि उस देश में जो भी पुस्तक आए, वह पहले जापानी भाषा में अनूदित होगी, फिर सबके हाथों तक पहुँचेगी.
जो अपनी माँ का बीमार छोड़कर दूसरे की माँ की सेवा करता है, उसे क्या कहा जाए? निर्लज्ज या स्वार्थी? कुछ भी कह लो, पर सच तो यही है कि आज हमारे देश में जिस तेजी से ऍंगरेंजी का प्रभाव बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से हम गुलाम मानसिकता के शिकंजे में फँसते जा रहे हैं. शायद किसी को विश्वास न हो, पर यह सच है कि हमारे देश में ऍंगरेंजी जानने वाले आबादी का कुल चार प्रतिशत हैं, फिर भी हम ऍंगरेंजी के ंगुलाम हैं. यह तो ठीक वैसा ही हुआ कि मात्र दो लाख ऍंगरेंजों ने 33 करोड़ लोगों को शताब्दियों तक गुलाम बनाकर रखा. वे तो चले गए, पर पीछे बहुत-कुछ ऐसा छोड़ गए हैं, जिससे उबरना काफी मुश्किल है. हम भले ही कितना ही राग अलाप लें कि दूसरे देशों में हिंदी का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है, पर सच तो यह है कि हमारे ही देश में हमारी ही राष्ट्रभाषा की लगातार उपेक्षा हो रही है.
हिंदी भले ही हमारी राष्ट्रभाषा हो, पर हमने सदैव ऍंगरेंजी पर ही अधिक ध्यान दिया. कारण स्पष्ट है, क्योंकि हमने कभी इसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा. हमारा बच्चा यदि हिंदी में कमंजोर हो, तो हम ध्यान नहीं देते, पर ऍंगरेंजी मेें कमजोर है, तो एक अच्छे शिक्षक की तलाश में जुट जाते हैं. हम अपने ही देश में हिंदी को अपमानित होता देख रहे हैं. अभी उस दिन ही देश की महान् लेखिका महादेवी वर्मा का जीवन चरित्र जानना चाहा. इंटरनेट पर कई साइट्स देखी, पर आश्चर्य सभी जगह उनका परिचय ऍंगरेंजी में ही मिला. हाँ हिंदी में उनकी कुछ कविताएँ अवश्य पढ़ने को मिली. यह है हमारे देश का दुर्भाग्य!
भाषा एक माध्यम है अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का. इससे विचारों को गति मिलती है. इसका सही उच्चारण और सही लिखने का ढंग इसे और प्रभावशाली बनाता है. वैसे पेट तो रद्दी भोजन से भी भर जाता है, फिर भी मानव सुस्वादु भोजन की चाहत क्यों रखता है? इसीलिए ना कि भोजन का पूरा स्वाद लेकर भूख को शांत किया जाए. यही स्थिति भाषा को भी लेकर है, पर हमारे देश में लोग अपनी राष्ट्रभाषा को लेकर उदासीन रहते हैं, यही उदासीनता ही हमें भाषा के प्रति अरुचि का भाव पैदा करती है.
भाषा एक प्रवाहमान नदी के समान है. इसमें जितने क्षेत्रों का पानी समाहित होगा, वह उतनी ही बोधगम्य होगी. इसकी गतिशीलता ही भाषा को सम्पन्न और बोधगम्य बनाती है. इसकी गति को रोकने से हमारा भला नहीं हो सकता, अपितु भाषा तेज गति से आगे बढ़कर अन्य क्षेत्रों के शब्दों को अपने में समाहित कर लेती है. आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषा के प्रति सचेत हों और उसके प्रयोग में भी अधिक से अधिक सावधानी बरतें. सावधानी न बरतने का ही प्रमाण है कि आज प्रसार माध्यमों में हिंदी और ऍंगरेंजी का इस तरह से मिश्रण किया जा रहा है कि हमें शर्म आती है कि हम हिंदी भाषी हैं. दूसरे देशों की ओर ध्यान दिया जाए, तो वे अपनी भाषा के प्रति बहुत ही सचेत हैं. भाषा की अवहेलना उन्हें कतई पसंद नहीं है. पर हम भारतीयों में अभी तक यह बात नहीं आई है.
डा. महेश परिमल

बुधवार, 12 सितंबर 2007

संबोधन तलाशते रिश्ते

डा. महेश परिमल
परिवर्र्तन समय की माँग है, इसके साथ ही बदल रहे हैं, संबोधन! देखते-ही-देखते बहन की रक्षा का संकल्प लेने वाला शब्द भाई आज सभ्य समाज से दूर होकर अपना अलग ही अर्थ देने लगा है. दूसरी ओर अंखबारों में कुछ दिनों पहले पढ़ा था कि 'कॉलगर्ल' रैकेट में पकड़ी गई सरगना को सब 'बहन' के नाम से संबोधित करते थे. इस तरह से बहन और भाई दोनों ही सभ्य समाज से दूर हो गए. 'भाई' अब रक्षाबंधन पर बहन की रक्षा का संकल्प नहीं लेता, बल्कि उसे धन देने वालों के विरोधियों का सफाया करता है. 'बहन' भी रेशमी कलम से भाग्य लिखने वालों की 'क्षुधापूर्ति' में लाचार, बेबस और भाग्यहीन युवतियों को सामने लाने में सहायक सिध्द होने लगी हैं.
अब तो कामातुर पिता और लालची माँ के वीभत्स रूप भी सामने आने लगे हैं. बेटी को गर्भ में ही मार देने वाली कई 'वीरांगनाएँ' और कथित माँएँ आज सभ्य समाज में शान से जी रहीं हैं. जरा उस मासूम की अनसुनी चीखों को तो सुनो, जिसने अभी ऑंखें भी नहीं खोली हैं. वह आना चाहता है, हमारी इस दुनिया में. पर उसे मार दिया गया. कोई बता सकता है, उसका गुनाह क्या था? वह स्वयं तो इस संसार में नहीं आया. फिर उसने कोख से 'डस्टबीन' का रास्ता किस यंत्रणापूर्ण स्थिति में किया, यह किसी ने जानने की कोशिश की. उस कथित माँ ने भी यह नहीं सोचा कि ऐसा ही यदि उसकी माँ ने उसके जन्म के पहले सोचा होता, तो क्या होता? ंजरा उस मासूम को होने वाली पीड़ा को महसूस तो करो. हमें तो एक सूई चुभती है, हम आह कर उठते हैं. वह मासूम तो नश्तर, कैंची, चाकू का वार झेलता है, अपने रुई जैसे कोमल और नाजुक शरीर पर. उसके पास बचाव का कोई साधन नहीं है. वह तो सबसे सुरक्षित अपनी माँ की कोख को ही समझता है. उसके साथ वहीं अत्याचार होता है. वह मासूम सब-कुछ सह लेता है चुपचाप. उस मासूम की जिजीविषा तो देखो... 'डस्टबीन' में भी उसके अंग छटपटाते रहते हैं. मानवता यहाँ बार-बार मरती है. ऐसे में कोई मासूम उस कथित माँ को कैसे कहे - माँ....!
कामातुर पिता से गर्भवती होतीेबेटी समाज के सामने इस नए रिश्ते को परिभाषित करने का सवाल दागती है. समाज खामोश है. यह जानते हुए भी कि बेटी घर में भी सुरक्षित नहीं है. समाज की यह खामोशी पिता याने सृजनकार को कटघरे में खड़ा करती है. क्या ऐसे व्यक्ति को गर्व से हम संबोधन दे सकते हैं. कह सकते हैं उसे पिता, पापा, बाबा, बाबूजी या अब्बू? इस तरह से पिता भी चले गए सभ्य समाज से दूर..... कथित भाई, बहन और माँ के पास.
सवाल यह उठता है कि अब शेष कौन बचा? किस समाज में जी रहे हैं हम? यह विकृति आई कहाँ से? पहले तो ऐसा नहीं था. समाज हम पर और हम समाज पर गर्व करते थे. सिक्के का दूसरा साफ पहलू यह है कि सभी सामाजिक प्राणी ऐसे नहीं होते. कुछ लोगों के कारण पूरे समाज को दोषी नहीं कहा जा सकता. पर यह बुराई आज पूरे समाज पर हावी होती जा रही है, तब भी क्या हम यह मानकर चलें कि हम बिलकुल भी दोषी नहीं है? खैर हम दोषी नहीं, पर क्या हमने यह कभी सोचा कि हमारे नौनिहालों को हम कौन-से औैर कैसे संस्कार दे रहे है? कुछ संस्कार, कुछ शिक्षा, कुछ वातावरण और हमारे थोपे और ओढ़े हुए विचार आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर रहे हैं. कोई भी माता-पिता नहीं चाहते कि उनके लाडले को गलत संस्कार मिले, पर वह यह भी नहीं देखना चाहते कि आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा में हमारा लाडला कितना भींग चुका है? बच्चा उसे 'पैराटीचर' कहता है, पर यह पैराटीचर उसे क्या पढ़ा रहा है, यह जानने की फुरसत उनके माता-पिता को नहीं. यहीं से बदलती है संबोधन की राह.
समाज में सैकड़ों शब्द प्रतिदिन प्रवेश करते हैं. कुछ प्रचलित होते हैं, कुछ भुला दिए जाते हैं. कुछ शब्दों का ऐसा अर्थ विस्तार होता है कि वे रिश्तों की दुनिया में छा जाते हैं. अगरेंजी का शब्द 'अंकल-आंटी' आज हमारे भारतीय समाज के रिश्तों के शब्द चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, फूफा-फूफी आदि पर छा गया है. आज की पीढ़ी ने सारे रिश्तों को इन दो शब्दों में समेट दिया है. जहाँ खून के रिश्तों से जुड़े शब्द अपना अर्थ खोकर अर्थ संकोच के दायरे में कैद हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर माता-पिता की ओर से बनने वाले रिश्ते सिमटकर अर्थ संकोच का कारण बन रहे हैं.
रिश्तों को नकारना आज एक फैशन बन गया है. टूटते-बिगड़ते रिश्ते भी अब सुख देने लगे हैं. 'भाभी' जैसे ममत्वमयी संबोधन भी अब जब उलाहने और कर्कश आवाज के साथ सुनाई देते हैं, तो भाभी शब्द से ज्यादा उस 'भाभी' का करुण चेहरा अनायास ही सामने आ जाता है. इसी तरह 'बहू, माँजी' जैसे शब्द कई बार हमें स्वप्न में डराते हैं. रिश्तों के संबोधनों का हमला अब हमारे अपने रचना संसार में होने लगा है. आकाशीय मार्ग से प्राप्त होने वाला मनोरंजन रिश्तों की जिस तरह से बखिया उघाड़ रहा है, उससे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारण ही नष्ट होने लगी है. बाज आए, ऐसे संयुक्त परिवारों से. इससे तो 'हम दो हमारे दो' ही भले. पर संयुक्त परिवारों का यह बिखराव दिन में एक बार न देख लें, तो मन नहीं मानता.
इन सबसे हटकर बहुत से ऐसे रिश्ते हैं, जिन्हें संबोधन की भी दरकार नहीं है. हमारे आसपास ऐसे कई रिश्ते मिल जाएँगे, जो केवल अपना काम ही करते रहते हैं. उनका काम करते रहना, हमारी प्रगति में सहायक है. दूधवाला, कामवाली बाई, धोबी, दर्जी, नाई, मोची, मेकेनिक, जमादार आदि ऐसे लोग हैं, जिन्हें हम सम्मानजनक संबोधन देने में मुकर जाते हैं. पर उनके बिना हमारे कई काम थम जाते हैं. अपनी दाढ़ी बनाकर हम नाई तो बन सकते हैं, पर बाल तो नहीं काट सकते. वाशिंग मशीन में कपड़े तो धो लिए, पर उसे प्रेस करने की जहमत कौन उठाए? टूटी चप्पल की मरम्मत या जूते की पॉलिस एक बार-दो बार तो कर सकते हैं, पर रोंज-रोंज नहीं. कपड़े तो दर्जी ही सिलेगा ना. इनको कभी रिश्तों का संबोधन दिया किसी ने?
रिश्ते ही रिश्ते, अनाम रिश्ते, गुनाहगारों के बेगुनाही के रिश्ते, अपनों के रिश्ते, बेगानों के रिश्ते, इन्हें आज तक कोई संबोधन क्यों नहीं मिला? कैसे सामाजिक हैं हम? कैसी है हमारी सामाजिकता! मम, पॉप,चाचू, जीजू, जेठू जैसे संबोधनों के बीच रिश्ते नहीं, बल्कि हमारे संबोधन ही अर्थ खोने लगे हैं. ये अर्थ खोते शब्द छोटे परदे पर सिमटे परिवारों के टूटने-बिखरने की कहानी कहते हुए हमें ही भरमा रहे हैं, इसके पहले कि ये हम पर हावी हों, इनको हमें ही एक नई परिभाषा देनी होगी. संबोधनों के बीच बसे भावनात्मक अर्थों को सार्थक बनाना होगा.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 10 सितंबर 2007

कहीं सूख न जाए संवेदनाओं की नदी...

डा. महेश परिमल
एक खबर, केलिफोर्निया की एक महिला अपनी कार होने के बावजूद एक महीने तक बस से कार्यालय गईं. वजह जानना चाहेंगे आप? क्योंकि उसकी कार के पहिए के पास चिड़िया ने अपना घोसला बनाया है. अब जब तक चिड़िया के बच्चे जन्म नहीं लेते, तब तक वह महिला इसी तरह अपने कार्यालय जाएगी. अब वह महिला पक्षीविदों के पास जाकर यह जानने की कोशिश कर रही है कि चिड़िया कब तक अपने बच्चों को जन्म दे देगी? पक्षीविद् उस महिला की जिज्ञासा जानकर हतप्रभ रह गए, क्योंकि अब तक उनके पास जो भी आया, वह यही पूछता कि चिड़िया के घोसले को किस तरह से हटाया जाए.
हम भारतीयों के लिए यह एक सामान्य घटना हो सकती है. शायद इसलिए कि हम यह जानना ही नहीं चाहते हैं कि चिड़िया के घोसले बनाने का मतलब क्या है. क्योंकि हमने ही एक नहीं, कई बार चिड़िया द्वारा लाए गए तिनके-तिनके को बाहर फेंका है. बिना यह जाने कि उनके इस तिनके के पीछे क्या मंशा है? परिंदे अपना घरौंदा तैयार करते हैं, उसके पीछे उनकी यही मंशा होती है कि अपने घरौंदे में अपने परिवार का लालन-पालन हो. उस घरौंदे में जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तब वह अपना घरौंदा छोड़कर कहीं और चले जाते हैं. लेकिन इंसान इतना स्वार्थी हो गया है कि ऐसा केवल अपने लिए ही सोचता है. मान लो वह इंसान किराए के मकान में रह रहा हो, वहाँ यदि चिड़िया अपना घोसला बनाती है, तब वह किराएदार उस घोसले को बनने के पहले ही उजाड़ देता है. ऐसा वह बार-बार करता है. वह नहीं समझना चाहता, तिनके-तिनके बटोरने के पीछे उस उद्देश्य को. उसे तो फेंकना ही जानता है. यह तो हुई, उस किराएदार की बात. उसका कहना है कि तिनके बटोरने में कहीं चिड़िया हमारे पंखे में उलझ गई, तो वह घायल हो जाएगी. इसीलिए हम उस बसने देना ही नहीं चाहते. ताकि वह कहीं और जाकर अपना घोसला बनाए. बड़ी अच्छी सोच है. चिड़िया ने उस इंसान के किराए के घर पर अपना घरौंदा बनाने का सपना देखा. यह उसका सपना था. पर उस सपने को किराएदार ने पलने के पहले ही उजाड़ दिया. अब यदि ईश्वर कभी उस इंसान के बारे में कुछ सोचता है कि आखिर यह कब तक किराए के मकान में रहेगा, इसका भी अपना घर होना चाहिए. ईश्वर की उस सोच को उस इंसान की करतूत पनपने ही नहीं देगी. क्योंकि इसी इंसान ने जब एक चिड़िया का घरौंदा बनने से पहले ही उजाड़ दिया, तो अब इसका घरौंदा बनाने की हालात क्यों तैयार किए जाएँ?
बात बिलकुल सही है, जब हम किसी का भला नहीं सोच सकते, तो हमारा भला कौन सोचेगा? जब हम किसी का घरौंदा बनाने में सहायक नहीं हो सकते, तो फिर हमारा घरौंदा बनाने में कौन सहायक होगा? छोटी सी तिनके-तिनके जितनी सोच, लेकिन इसमें भी है, दृढ ऌच्छाशक्ति. वह चिड़िया तो अपना घोसला कहीं भी बना ही लेगी. पर क्या आप में इतनी भी इंसानियत नहीं है कि किसी का घरौंदा बनने में सहायक बनें? अनजाने में हम कहाँ-कहाँ, किसको, किस तरह से सहायक बनते हैं, यह हमें ही नहीं मालूम. दफ्तर में यदि एक फाइल अटका दी जाती है या फिर कथित रूप से गुम हो जाती है, तब उससे जुड़े कई काम अटक जाते हैं. संभव है उस फाइल में किसी की पेंशन के बारे में जानकारी हो, किसी बच्चे को मिलने वाली छात्रवृत्ति की जानकारी हो, या हो सकता है कि सरकार की किसी महत्वपूर्ण योजना के बारे में ही तमाम जानकारियाँ हों. अब आप ही सोचें कि एक बुजुर्ग कर्मचारी को यदि समय पर पेंशन न मिले, तो उसके परिवार पर क्या गुजरती है? एक छात्र को समय पर छात्रवृत्ति न मिले, तो उसका मेधावी जीवन तो खत्म ही समझो. जिस योजना को बरसात के पहले लागू हो जाना था, वह फाइल गुम हो जाने के कारण कई महीनों तक कथित रूप से विचाराधीन ही पड़ी रही.
किसी काम में सहायक होना बड़ी बात है, पर अनजाने में सहायक होना उससे भी बड़ी बात है. ऐसा तब होता है जब हम अपने ही प्रति ईमानदार रहें. जो अपने ही प्रति ईमानदार नहीं रह सकता, वह किसी के प्रति ईमानदार नहीं रह सकता. अपने प्रति ईमानदार होने का सबसे बड़ा सुबूत यही है कि अपने काम में ईमानदारी बरती जाए. शुरुआत खुद से ही करनी होगी.
दूसरों के प्रति ईमानदारी का भाव रखा जाए, तो ईमानदारी का सिलसिला शुरू हो सकता है. पहली ही नजर में हम यदि किसी को बेईमान मान लें, तो हो गई काम की अच्छी शुरुआत. दूसरों के प्रति संवेदना का भाव रखा जाए, तो निश्चित ही वह भी हमारे प्रति अपना सख्त रवैया भी नरम कर सकता है. यदि सड़क पर कुचले हुआ कुत्ता हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं कर सकता, तब तो आगे किसी परिचित का शव भी हमें आंदोलित नहीं कर पाएगा, क्योंकि हमने ही अपनी संवेदनाओं की शिराओं को बंद कर सकता है. फिर उसमें अच्छी भावनाओं का लहू कैसे बहेगा? बात फिर वहीं आकर अटक जाती है कि अगर चिड़िया आपके घर पर अपना घरौंदा बनाना चाहती है, तो आपको क्या चिंता है, बनाने दो उसे अपना घरौंदा! आपको थोड़ी सी परेशानी ही तो होगी, पर इस परेशानी से कोई अपने लिए सर छिपाने की जगह बना लेता है, तो किसी का कुछ नहीं जाता, बल्कि उससे जुड़ती है हमारी संवेदनाएँ..
डा. महेश परिमल

Post Labels