शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

हाशिए पर झुर्रियाँ

डा. महेश परिमल
वृद्धाश्रम के उद्धाटन अवसर पर एक विचारक को बुलाया गया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि मेरी यह दिली इच्छा है कि यह आश्रम जितनी जल्दी संभव हो, बंद हो जाए. उनके यह विचार सुनकर लोग हतप्रभ रह गए. लोगों ने उनकी आलोचना की और भला-बुरा कहा. पर लोग उस विचारक की दूरदर्शिता को भूल गए. विचारक का मानना था कि आज जिस कदर शहरीकरण हो रहा है, लोग अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं और उन्हें वृद्धाश्रमों में रखने लगे हैं, इसलिए जब ये आश्रम ही नहीं रहेंगे, तो क्या होगा. वे चाहते थे कि ऐसी नौबत ही न आए, कि लोग अपने माता-पिता को इन आश्रमों में छोड़ें. उस विचारक की दूरदर्श्ािता को किसी ने नहीं समझा और उन्हें बेइात होकर वहाँ से जाना पड़ा.
ये था आज के समाज का एक कड़वा सच! कुछ और भी ऐसे सच हैं, जो हमें सहज ही स्वीकार्य नहीं होंगे, पर हमें उसे स्वीकारना ही होगा, क्योंकि यह सच अनपढ़ और अशिक्षितों का सच नहीं है, बल्कि ऊँची सोसायटी पर जाने वाले उन रईसजादों का सच है, जिन पर समाज को गर्व है. विदेश में रह रहे पुत्र को अपने माता-पिता की याद उस वक्त आई, जब उसकी पत्नी गर्भवती हुई, वह आया और उन्हें लिवा ले गया. माता-पिता भी सहज भाव से चले गए, वे अपने पुत्र की कुटिल चाल को समझ नहीं पाए और यह सोचकर चले गए कि विदेश में रहकर भी हमारा बेटा अपने देश को नहीं भूला. चलो इसी बहाने उसे हमारी सेवा का अवसर मिलेगा. वहाँ जाकर पुत्र ने अपने माता-पिता के अनुभवों का खूब लाभ उठाया और हजारों डॉलर बचा लिए. साल दो साल बाद बूढे पिता की तबियत खराब रहने लगी. हो भी क्यों न? भला अपनी माटी से दूर रहकर कोई सुखी रह पाया है? पिता की अस्वस्थता बेटे को नागवार गुजरने लगी. उसका गणित गड़बड़ाने लगा, उसे समझ में आ गया कि यदि ऐसा ही चलता रहा, तो जितना बचाया है, वह तो इनकी बीमारी में ही लग जाएगा. अंत में एक दिन बेटे ने पिता से कह ही दिया- पिताजी अब आप अपने देश वापस लौट जाओ और मरना भी हो, तो वहीं मरो. क्योंकि यहाँ मरोगे, तो मेरे हजारों डॉलर निकल जाएँगे. इतने में पूरा गाँव तीन-चार दिन तक खाना खा सकता है. अतएव आप अपनी माटी में ही जाकर अपने जीवन के अंतिम दिन गुजारें, लेकिन बच्चा जब तक कुछ बड़ा नहीं हो जाता, माँ यहीं रहेगी. आप ही सोचो- क्या बीती होगी, उस झुर्रीदार चेहरे पर?
एक और चेहरा इसी समाज का. बेटी विदेश से आई और अपने माता-पिता को ले गई. दोनों बूढ़े खुश हो गए. उन्हें विदेश जाने का मौका मिल रहा है. वहाँ जाकर बेटी ने अपने माता-पिता की खूब सेवा की. पर होनी को कुछ और ही मंजूर था. बेटी की ऑंख किसी गोरे से लड़ गई और उसने उसके साथ शादी कर ली. इधर दामाद भी भला कहाँ चूकते, समय आने पर उसने भी एक गोरी कन्या से शादी कर ली. अब बूढ़े माता-पिता कहाँ जाएँ? पति के कहने पर बेटी ने उन्हें निकाल दिया. उधर दामाद ने भी अपने घर पर नहीं रहने दिया. जब बेटी ने ही निकाल दिया, तो दामाद पर कैसा भरोसा? बूढे माता-पिता की हालत खराब, जाएँ तो कहाँ जाएँ? देश लौटने तक को धन नहीं था. इतनी रकम आखिर कौन देता. एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर उन दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया. उन्हें अपनी माटी भी नसीब नहीं हो पाई.
ये सच है उस पीढ़ी का, जिसे हम हाईटेक पीढ़ी कहते हैं. जिनका मोबाइल अंगूठे से काम करता है और कंप्यूटर पर ऊँगलियाँ दौड़ती हैं. इन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं है, आज का झुर्रीदार चेहरा. उसे तो यह पीढ़ी एक बोझ ही समझती है. वह शायद यह भूल जाती है कि यदि उन्होंने भी इसे बोझ ही समझा होता, तो क्या होता? आज यह झुर्रियाँ भले ही हाशिए पर हों, पर इसने कभी भी अपने माता-पिता को कभी बोझ नहीं माना. आज्ञाकारी पुत्र की तरह उनकी हर माँग को पूरा करने की जी-तोड़ कोशिश की. इन्होंने अपनी ऑंखों से देखा था अपने पालकों को किस तरह भूखे रहकर उन्होंने अपने बच्चों को पाला था, अपना कर्त्तव्य समझकर. ंगरीबी में पाला, पर गरीबी क्या होती है, इसका अहसास भी नहीं होने दिया.
'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा खंडित हो चुकी है. एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोड़ना चाहते हैं. पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं. इसकी वजह भी हम हैं. हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते. इससे उस पोपले मुँह के अहम् को चोट पहुँचती है. उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता. भविष्य में जब कभी हमारा आज्ञाकारी पुत्र हमारी परवाह न करते हुए प्रेम विवाह कर लेता है और अपनी दुल्हन के साथ हमारे सामने होता है, हमसे आशीर्वाद की माँग करता है. तब हमें लगता है कि हमारे बुजुर्ग भी हमारे कारण इसी अंतर्वेदना की मनोदशा से गुजरे हैं. तब हमने उन्हें अनदेखा किया था.
संभव है अपने बुजुर्ग की उस मनोदशा को आपके पुत्र ने समझा हो और आपको उनकी पीड़ा का आभास कराने के लिए ही उसने यह कदम उठाया हो. ऐसा क्यों होता है कि जब बुजुर्ग हमारे सामने होते हैं, तब ऑंखों में खटकते हैं. वे जब भी हमारे सामने होते हैं, अपनी बुराइयों के साथ ही दिखाई देते हैं. बात-बात मेंं हमें टोकने वाले, हमें डाँटने वाले और परंपराओं का कड़ाई से पालन करते हुए दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने वाले बुजुर्ग हमें बुरे क्यों लगते हैं? आखिर वही बुजुर्ग चुपचाप अपनी गठरी समेटकर अनंत यात्रा में चले जाते हैं, तब हमें लगता है कि हम अकेले हो गए हैं. अब वह छाया हमारे सर पर नहीं रही, जो हमें ठंडक देती थी, दुलार देती थी, प्यार भरी झिड़की देती थी.
यही समय होता है पीढ़ियों के द्वंद्व का. एक पीढी हमारे लिए छोड़ जाती है जीने की अपार संभावनाएँ, अपने पराक्रम से हमारे बुजुर्गों ने हमें जीवन की हरियाली दी, हमने उन्हें दिए कांक्रीट के जंगल. उन्होंने दिया अपनापन और हमने दिया बेगानापन. वे हमारी शरारतों पर हँसते-हँसाते रहे, हम उनकी इच्छाओं को अनदेखा करते रहे. वे सभी को एक साथ देखना चाहते थे, हमने अपनी अलग दुनिया बना ली. वे जोड़ना चाहते थे, हमारी श्रध्दा तोड़ने में रही. घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना. साल में एक बार अचार या बड़ी का बनना, या फिर बच्चों के लिए रोज ही प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनना, बात-बात में ठेठ गँवई बोली के मुहावरों का प्रयोग या फिर लोकगीतों की हल्की गूँज. यह न हो तो भी कभी-कभी गाँव का इलाज तो चल ही जाता है. पर अब यह सब कहाँ?
अब यह बात अलग है कि स्वयं बुजुर्गों ने भी कई रुढ़िवादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नातिन या पोते की बाइक पर पीछे निश्ंचित होकर बैठ जाते हैं. यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा. पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं. पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह ंगलत है. पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है. कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का काँधा नहीं होता. बुजुर्ग या तो संसार छोड़ चुके होते हैं या गाँव में एकाकी जीवन बिताना प्रारंभ कर देते हैं.
आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. उनके पास अनुभवों का भंडार है, उनके दिन, रातों के कार्बन लगी एक जैसी प्रतियों से छपते रहते हैं. कही कोई अंतर नहीं. वे अपने समय की तुलना आज के समय के साथ करना चाहते हैं, उनके ंफर्क को रेखांकित करना चाहते हैं, पर किससे करें? उनके अंधिकांश मित्र छिटक चुके होते हैं. यदि आप किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उसे अपनी बात कहने का अवसर दें और उसकी अभिव्यक्ति का आनंद महसूस करें, तो आप पाएँगे कि आपने बिना कुछ खर्च किए परोपकार कर दिया है. फिर शायद उन्हें कराहने की जरूरत नहीं पड़े और न बिना बात बड़बड़ाने की. दिन में आपने जिस बुंजुर्ग की बात ध्यान से सुनी हो, उसे रात में चैन की नींद लेते हुए देखें, तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपका छोटा-सा बच्चा नींद में मुस्करा रहा हो.
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं. उनके पोपले मुँह से आशीर्वाद के शद्वों को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएँ हैं. दादी माँ का केवल 'बेटा' कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं. यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दे, तो समझो हम निहाल हो गए. लेकिन वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात का परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं. हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं. इसके बाद भी इन बुजुर्गाें के मुँह से आशीर्वाद स्वरूप यही निकलता है कि जैसा तुमने हमारे साथ किया, ईश्वर करे तुम्हारा पुत्र तुम्हारे साथ वैसा न करे. देखी..... झुर्रीदार चेहरे की दरियादिली?
डा. महेश परिमल,

Post Labels