शनिवार, 22 सितंबर 2007

सड़कों पर बिखरा पशु-धन

डा. महेश परिमल
सड़कों पर दौड़ते 'हत्यारे' रोज ही कई अकाल मौतों का कारण बनते हैं। इनके पहियों के नीचे कई साँसें रोज उखड़ती हैं। मानवीय रिश्तों की एक कड़ी को रौंदकर ये पूरी श्रृंखला ही तोड़ देते हैं, लेकिन सड़कों पर पसरे पशुओं के कारण होने वाली मौतों को हम कैसे अनदेखा कर सकते हैं। क्या पशुओं का दोहन करके उन्हें आवारा या लावारिस छोड़ने वाला पशु-मालिक अपराधी नहीं है? उसे भी अपराधी मानना ही होगा जो मूक, निरीह और हमारे लिए पूज्य पशुओं को सड़कों पर पसरने के लिए विवश करता है।
कुछ दिन पहले ही दिल्ली जाना हुआ। रास्ते में ट्रेन में एक महिला ने बातचीत के दौरान बताया भारतीय सड़के इतनी खराब है कि यहाँ लोगों को 'सड़कवीर' कहना ही उचित होगा। इतनी खराब सड़कों पर भी वे अपने और अपने वाहन को जिस तरह से बचा ले जाते हैं यह सोचकर आश्चर्य होता है। उस महिला ने बताया कि कुछ दिन पहले ही वह कार से एयरपोर्ट पहुँची। उनके एक परिचित पहली बार भारत आ रहे थे। यहाँ उन्हें एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेना था। नियत समय पर उनका प्लेन पहुँचा। उन्हें लेकर वे अपने घर की ओर चलीं। 'हम एयरपोर्ट से बाहर मुख्य मार्ग पर पहुँचे, तो सड़क के बीचों-बीच एक गाय को बैठा देख वे अपनी जगह से उछल पड़े। अनायास ही उनके मुँह से निकला- ओह! काउ ऑन द रोड।' महिला ने बताया, महाशय यह भारत है, यहाँ केवल काउ ऑन द रोड ही नहीं, बल्कि बफैलो, बुल, ऑक्स, बल्कि कभी-कभी तो शराब पीकर धु?ा पड़ा हुआ आदमी भी ऑन द रोड होता है। उस विदेशी सान ने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारत जैसे विकासशील देश में ऐसे दृश्य भी देखने को मिलेंगे।
सड़क के बीचों-बीच जानवरों का होना, हमें आश्चर्य में नहीं डालता। हमारे लिए यह आम दृश्य है। हम उनके किनारे से गाड़ी निकाल ले जाते हैं। कभी-कभी असावधानीवश यदि टकरा गए, तो घायल हो जाते हैं, वाहन क्षतिग्रस्त होता है, वह अलग बात है, लेकिन मजाल है, उस जानवर या जानवर के मालिक पर कोई कार्रवाई कर दे। पशु हमारे देश में पूज्य हैं, क्यों न पूजें, वे हमारे खेती के आवश्यक अंग हैं, पर साहब हमें यह बताइए- शहरों में कैसी खेती? फिर ये पशु सड़क पर कितनी दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं, यह जानने की कोशिश कभी हुई? ये पूज्य हैं, पर इन्हीं पूजनीय पशुओं ने कितनी माँगे सूनी कीं, कितनी कलाई सूनी कीं, कितनों की कोख उजाड़ी, कितने परिवारों के चिराब बुझाए, कितने हाथों में बैसाखियाँ थमाईं, यह जानते हैं आप? शायद नहीं।
चलो मान लिया- पशु हमारे देश में पूज्य हैं, पर क्या हम उस गो-पालक को भी पूजें, जिसने पशुओं को आवारा छोड़ दिया? वह तो विशुध्द अपराधी है। उसे सजा क्यों नहीं मिलती? क्या वह सजा का हकदार नहीं? क्या हम थोड़े से चैतन्य होकर दुर्घटनाओं का कारण बनने वाले उन पशु-पालकों को ढूँढ़ नहीं सकते, उन सबको पशुओं की तरह उसी स्थान पर सड़क के बीचों-बीच बैठने को विवश नहीं कर सकते? जरा उन पीड़ितों की तरफ नजर घुमाइए, जिनका सहारा ही टूट गया, जिनकी जिंदगी की डोर ही टूट गई, किसी के हाथ-पाँव टूट गए, किसी ने ऑंखें खो दीं, किसी ने स्मरण शक्ति खो दी, कोई कोमा में है। यह सब दुर्घटनावश हुआ। यह सच है, पर सड़कों के बीचों-बीच जानवरों का पसरे रहना आज सभी शहरों का एक कड़वा सच बन गया है। कोई दंडविधान यहाँ काम नहीं आता। सारे दंड विधान दुर्घटना के बाद लागू होते हैं।
सड़के नगरीय व्यवस्था की जान हैं। सड़कें विकास की मापदंड हैं। सड़कें शहर का आईना हैं। साफ-सुथरी सड़कें शहर के लोगों का चरित्र बताती हैं। दूसरी ओर खराब, उबड-ख़ाबड़ सड़कें, गंदगी से भरी सड़कें नगरपालिका, नगर-निगम की नाकामयाबी का नमूना हैं। पर इससे हमारा दोष कम नहीं हो जाता। कम से कम एक सड़क को सही-सलामत रखने में हमारी क्या भूमिका रही। गङ्ढे पार करते समय 'अपश?द' निकालना हमारी आदत में शुमार हो गया है। आज हम इसी के आदी हो गए हैं। अच्छी सड़क हमें रास नहीं आती। बहुत तेजी से पार कर लेते हैं, हम अच्छी सड़क को , उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात।
कुछ विभाग ऐसे हैं, जो केवल सड़के खोदना जानते हैं। इन्हें नई सड़क बनने का इंतजार रहता है। सड़क बनी नहीं कि खोदना शुरू। एक विभाग ने खुदाई शुरू की, कुछ हुआ, तभी दूसरे विभाग को ख्याल आया, वह भी लग जाता है खुदाई में। बहुत से विभाग ऐसे हैं, जो सड़कें खोदने में विश्वास रखते हैं, सड़कें पाटने का कोई विभाग है, यह कोई नहीं जानता। खुदी हुई सड़कों को पार करना कितना मुश्किल होता है, यह केवल पार करने वाले ही समझते हैं। काले शीशी चढ़ी कारों, अच्छे शॉकअप वाले वाहनों पर सवार होकर मंत्रियों, अधिकारियों को इससे कोई मतलब नहीं। यह हमारी बदकिस्मती है कि चुनाव के पहले हमारे साथ संघर्ष करने वाला नेता आम नागरिक होता है और चुनाव जीतने के तुरंत बाद वी.आई.पी. हो जाता है। लोकतंत्र का यह गणित आम आदमी की समझ से एकदम बाहर है, जबकि इस लोकतंत्र की धुरी में वही आम आदमी है।
बात सड़कों पर पसरे पशुओं की हो रही थी। ये वे पशु हैं, जो यातायात के तमाम नियमों की रोज धज्जियाँ उड़ाते हैं। वे नगरपालिका, नगर-निगमों को चुनौती देते हैं। 'कर लो, हम पर कार्रवाई, देखते हैं क्या बिगाड़ लेंगे आप हमारा।' कांजी हाऊस का डर न इन पशुओं को है न पशु-पालकों को। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कांजी हाऊस में पशुओं को एक या दो सप्ताह तक रखा जाए इसी बीच यदि पशु-पालक आ जाए, तो उसे भारी जुर्माने और हिदायतों के बाद पशु सौंपा जाए। शेष पशुओं को शासन हस्तगत कर ले, उनके पालने की अलग व्यवस्था की जाए। उनके गोबर से खाद, गैस और बिजली के छोटे-छोटे प्लांट तैयार किए जाए। गो-मूत्र दवाओं के लिए भेजा जाए और दूध को बेचकर लाभ कमाया जाए। इस दिशा में एक ईमानदार सोच को सकारात्मक रूप से लागू किया जाए, तो इसमें कोई दो मत नहीं कि कुछ लोगों को रोजगार मिलेगा, दवाओं के लिए भरपूर गो-मूत्र मिलेगा। खाद व खाना पकाने की गैस भी उपयोगी सिध्द होगी। दूसरी ओर सड़कों पर आवारा पशुओं का जमावड़ा खत्म होगा। सड़कों का ही नहीं, जिंदगी का रास्ता भी आसान होगा।
कुछ भी करें, पर पशु-मालिक को केन्द्र में अवश्य रखें। एक व्यक्ति या परिवार यदि उसके पशु से दुर्घटनाग्रस्त होता है, तो उसका पूरा मुआवजा पशु-मालिक से वसूला जाए, ताकि दूसरों को सबक मिले। हमारी संस्कृति है, पशुओं की पूजा करना। लेकिन हम आवारा पशुओं के मालिकों की पूजा नहीं कर सकते। वे अपराधी हैं। नगर-पालिका, नगर-निगमों में आवारा पशु-मालिकों के खिलाफ कानून बनाए जाएँ, तो बेहतर होगा। शासन को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा। इन पशुओं से वोट नहीं मिलने वाला, क्या इसीलिए इन्हें आवारा, लावारिस घूमने दिया जाए, लोगों की भले ही जान जाती रहे। वैसे भी शहरों की कई सड़कें ऐसी हैं, जिन्हें सड़क कहने में शर्म आती है। उबड़-खाबड़ सड़कों, रोज की आपाधापी, बढ़ता प्रदूषण, उखड़ती साँसों के बीच यदि हमारे बलगम का रंग काला हो जाए, तो आश्चर्य नहीं। उस पर रास्तों पर पसरे पशु ये हमें विकलांग बना रहे हैं, हमें बेसहारा कर रहे हैं, हमारी रोटी छिन रहे हैं और शान से यातायात नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। इन दुर्घटनाओं में यदि कोई पशु घायल हो जाए, तो उसकी हालत दयनीय हो जाती है। हमें तब भी उन पर दया आती। क्या हमारी यह नियति है कि हम कुछ नहीं कर सकते। आइए संकल्प लें- आवारा पशु को रास्ते से किनारे कर दें, पर पशु-मालिक पर बिल्कुल रहम न करें। वह अपराधी है, उसे पुलिस के हवाले करें, नगरनिगम को विश्वास में लें, कानून बनाने में सहायक बनें, तभी हम एक नया भारत न सही, एक अच्छे शहर में नई बुनियाद तो रख ही सकते हैं।
डा. महेश परिमल

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