गुरुवार, 27 सितंबर 2007

अपनेपन को तरसते अपनापन लुटाने वाले

डॉ. महेश परिमल
एक षानदार भवन और उस भवन में बने कई छोटे-छोटे कमरे और उन कमरों में से एक कमरे के अहाते में बैठा एक बूढ़ा, बेबस, झुर्रीदार चेहरा लिए एक गमगीन व्यक्तित्व। जो गुनगुना रहा है-
एक ये दिन जब अपनों ने भी नाता तोड़ लिया...
और एक वो दिन जब पेड़ की षाखें बोझ हमारा सहती थीं... मुझको यकीं है सच कहती थीं, जो भी अम्मी कहती थीं....
गीत की ये पंक्तियाँ यूं ही होंठ नहीं गुनगुनाते और फिर बुढ़ापे में तो जब मन सारी मोह-माया से दूर ईष्वर के करीब जाता है, तो इस स्थिति में तो कदापि नहीं। फिर भला लरजते होठों पर इस गीत ने अपना अधिकार क्यों जमाया? केवल इसलिए कि इस गीत में एक सच्चाई है, जो उस बूढ़े का अनुभव बनकर कभी उसकी ऑंखों से बहती है, तो कभी गीत बन कर होठों से गुनगुनाती है।
कहते हैं कि हमारे देष में जितने झूलाघर हैं, उतने ही वृध्दाश्रम भी हैं। जबकि विदेषों में जितने झूलाघर हैं, उससे भी कहीं अधिक वृध्दाश्रम हैं। यदि हम ऐसे ही अपनेर् कत्तव्यों से विमुख होते रहें, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देष की स्थिति भी विदेष जैसी हो जाएगी। हाँ, ये संख्या उस स्थिति में अवष्य घट सकती है, जब अनाथाश्रम से गोद लिए जाने वाले अनाथ बच्चों की तरह वृध्दाश्रम से लाचार और बेबस माँ-बाप को भी गोद लिया जाए!
आज माता-पिता युवा पीढ़ी के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। पिज्जा और बर्गर की षौकीन जवानी बूढ़े स्वाद से नाता तोड़ रही है। बरगद की वह घनी छाँव जो कभी जीवन की कड़ी धूप में आधार बनी थीं, वो ही छाँव अब उन्हें अंधकार का आभास दिलाने लगी हैं, इसलिए पहले तो उन्होंने लापरवाहीपूर्ण व्यवहार कर उनकी षाखों को काटने का प्रयास किया और जब इससे काम न बना तो जड़ को काट कर उनसे नाता ही तोड़ लिया।
एक डॉक्टर बेटे के पास दिन में 20-22 मरीज देखने का तो समय है, किंतु घर में बीमार पड़े पिता को देखने का समय नहीं है। इसलिए उसने उन्हें एक प्राईवेट हॉस्पीटल में दूसरे डॉक्टर और नर्स की देखरेख में रख दिया है।
नारी उत्थान केन्द्र की अध्यक्षा के पास दिन में कई संस्थाओं से जुड़ने का समय होता है, महिला विकास पर भाषण देने का समय होता है, वृध्दाश्रम जाकर निराश्रित बुजुर्गो को षॉल या कपड़े बाँटने का समय होता है, किंतु घर आकर घर के स्टोर रूम में एक टूटी चारपाई पर पड़ी विधवा सास के हालचाल पूछने का समय नहीं होता।
किटी पार्टी में विविध विषयों पर चर्चा करती महिलाओं के पास रमी खेलने या वन मिनट षो खेलने का समय होता है, झुग्गी-बस्तियों में जाकर वहाँ के निरक्षर लोगों को साक्षर बनाने का, उन्हें जागरूक करने का समय होता है, किंतु घर में दो घड़ी बैठकर बूढ़े माता-पिता के साथ दो मीठे बोल बोलने का समय नहीं होता।
ये मात्र वे उदाहरण हैं, जो आज हर तीसरे घर मेें देखने को मिल जाएँगे, किंतु अब जिस घटना के बारे में लिखने जा रहा हूँ, वह चौंकाने वाली है- ऑंध्र प्रदेष के एक गाँव की घटना है। 75 वर्षीय एक वृध्दा, नाम है पद्मावती। जिसने अपना पेट काटकर बड़ी कठिनाइयों के साथ अपने बच्चों को बड़ा किया, उन्हें पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया। सभी संतान आर्थिक रूप से सुखी और संपन्न। ढलती उम्र में पद्मा अम्मा को केन्सर ने आ घेरा। बेटे उन्हें विषाखापट्टनम के एक बड़े अस्पताल में ले आए। वहाँ उनका इलाज षुरू हुआ। इलाज में कोई कमी नहीं रखी गई, किंतु हालात में अधिक बदलाव नहीं आया। आखिर डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि अम्मा अधिक समय तक नहीं जी पाएँगी। बस दुआ की जरूरत है और कुछ दवाएँ हैं, जो स्थिति यथावत रखने के लिए देना जरूरी है। इसलिए घर ले जाओ और जितनी सेवा कर सकते हो करो और उनका अंतिम समय संभाल लो।
घटना में नया मोड़ अब आया। पद्मावती के एक बेटे ने डॉक्टर से अनुरोध किया कि हॉस्पीटल से घर तक का रास्ता काफी लम्बा है। अत: आप इन्हें नींद का ईंजेक्षन दे दें, ताकि ले जाते समय रास्ते में कोई परेषानी न हो। डॉक्टर ने भी मरीज की हालत देखते हुए उन्हें नींद का ईंजेक्षन दे दिया। उसके बाद दूसरा बेटा कहीं से मृत्यु का एक फर्जी सर्टिफिकेट ले आया। फिर बेहोषी की हालत में पद्मा अम्मा को वे लोग सीधे ष्मषान ले गए। ष्मषान के स्टाफ को बेटों की राजनीति पता नहीं थी। उन्होंने चिता तैयार की और 'मृत देह' को चिता पर रखा। ठीक उसी समय ईष्वर की इच्छा से अम्मा की बेहोषी टूटी और उन्होंने ऑंखें खोली। चिता पर लकड़ी जमाने वाला व्यक्ति चीख उठा- अम्मा जिंदा है, उतारो, इन्हें चिता से नीचे उतारो... किंतु स्वार्थी बेटे अम्मा को वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। तब ष्मषान के कर्मचारियों ने इसकी सूचना पुलिस को दी, पुलिस ने तुरंत कार्रवाई करते हुए पद्मावति के स्वजनों को गिरफ्तार कर लिया। इस संबंध में विषाखापटनम के पुलिस कमिष्नर वी.एस.के कौमुदी ने बताया कि पुलिस ने परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए आवष्यक कदम उठाए, तो आज स्थिति यह है कि पद्मावति अपने बड़े पुत्र श्रीनिवासन के साथ रह रही हैं। अब श्रीनिवास अपनी माँ की देखभाल अच्छे से कर रहा है, इसकी निगरानी भी पुलिस ही कर रही है। सोच लो, आज झुर्रीदार चेहरे और लरजते होठों की हमारे समाज में क्या स्थिति हो गई है। एक माँ अपने ही पुत्र के साथ किस तरह से रह रही है, इसकी जानकारी भी पुलिस को रखनी पड़ रही है।
हमारे समाज में दिनों-दिन इस तरह की घटनाएँ बढ़ रही हैं। कई संतान तो इतनी आधुनिक हो गई हैं कि विधवा माँ को तीर्थ यात्रा कराने के बहाने कुछ धार्मिक स्थानों में ले जाती हैं, वहाँ एक मंदिर में बिठाकर प्रसाद लेने के बहाने पुत्र वहाँ से चम्पत हो जाता है। हमारे देष के तमाम संत अपनी वाणी में यही कहते हैं कि माता-पिता की सेवा करो। उनका यही तर्क होता है कि जब आप कुत्ते-बिल्ली पर अपना प्यार जता सकते हैं, तो अपने माता-पिता पर क्यों नहीं? अपने बूढ़े माता-पिता को बोझ समझने वाली यह पीढ़ी यह क्यों भूल जाती है कि उनके बच्चे यदि उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करेंगे, तो उनका क्या होगा? मुझे तो विष्वास है कि इस छोटी सी पीढ़ी को अपने माता-पिता की कमी कभी नहीं खलेगी, उन्हें यदि अपने माता-पिता न मिले, तो वे निष्चित ही वृध्दाश्रम से माता-पिता गोद ले लेंगे। इस मासूम पीढ़ी में ऐसा करने की हिम्मत है, क्योंकि इस तरह की खबरें भी आना षुरू हो गई हैं।
दक्षिण भारत जहाँ साक्षरता अधिक है, वहीं का एक और किस्सा है। इस बार हमारे सामने पर्वत अम्मा है, जो एक अस्पताल में इलाज करवा रही थी। उनकी हालत काफी खराब हो गई, जबान ने साथ देने से इंकार कर दिया, तो पुत्रों ने अपनी माँ को अस्पताल से सीधे ष्मषान पहुँचा दिया, वहाँ उन्होंने कर्मचारियों को एक हजार रुपए देते हुए कहा कि ये माताराम जब परलोक सिधार जाएँ, तो उनका क्रियाकर्म कर देना। यह सुनकर वहाँ के कर्मचारी हतप्रभ रह गए। उन्होंने इसकी जानकारी पुलिस को दी। पुलिस के आने के पहले ही पुत्र वहाँ से भाग गए थे। तब पुलिस के संरक्षण में ही कर्मचारियों ने उस बूढ़ी अम्मा का ध्यान रखा। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया। बूढ़ी ऑंखों और लाचार जबान से वह अपने बेटों को याद करते हुए उसने दस दिन के बाद दम तोड़ दिया। उसकी अंत्येष्टि भी पुलिस ने की। बेटों ने आखिर तक अपनी माँ की सुध नहीं ली। अब पुलिस उन कपूतों को ढूँढ़ रही है।
आज की युवा पीढ़ी रिष्तों को एक सीढ़ी समझकर आगे बढ़ती है, इसमें उन कांधों का सहारा लेती है, जिन पर चढ़कर उन्होंने अपनी मंजिल को देखा था। आज वे लरजते हाथ, बूढ़ी ऑंखें, झुर्रीदार चेहरा, खल्वाट सर जाने क्या कहना चाहते हैं, पर उस ओर देखने की फुरसत नहीं है। घर के एक कोने में दुबकी एक गठरी न जाने कब, किस वक्त एक लम्बे सफर पर निकल जाए, उसके पहले युवाओं सोचो, आखिर इनकी गलती क्या है? यही ना कि उन्होंने आपको इतना बड़ा बना दिया कि ये बौने नजर आने लगे हैं। इन्होंने अपनी ऊँगली इसलिए दी थी कि कल आप उनका हाथ थाम सकें। आज वे हाथ इतने मजबूत अषक्त हो गए हैं कि केवल संतानों का ही हाथ पकड़ पाते हैं। वृध्दाश्रमों की पहचान बनने वाले ये झुर्रीदार चेहरे आज हाषिए पर हो गए हैं। यही हाल रहा तो ये आने वाली पीढ़ी इन्हें भी किसी कोने में गठरी बनने के लिए विवष कर देगी। तब क्या होगा, सोचा है आज की पीढ़ी ने?
डॉ. महेश परिमल

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