शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2007

मौत से मोहव्बत निभाने वाले......

डा. महेश परिमल,
कुछ दिनों पहले गुजरात के शहर सूरत जाने का मौका मिला. पूरे भारत में इसे 'डायमंड सिटी' के नाम से जाना जाता है. यहाँ हीरे को तराशने का काम होता है. इस शहर के बारे में यह कहा जाता है कि यहाँ पैसा बहता नहीं, बल्कि उड़ता है. यह आप पर निर्भर करता है कि आप कितने ऊँची उड़ान भरकर कितना बटोर सकते हैं. इसी शहर में अखबारों में पढ़ा कि यहाँ एचआईवी पॉजीटीव से ग्रस्त लोगों का सम्मेलन हो रहा है. इसमें पूरे गुजरात से लोग शामिल हो रहे हैं. मैंने सोचा कि जिंदगी से हताश और निराश लोग अपना दु:ख बाँटने के लिए एक जगह इकट्ठा हो रहे हैं. उत्सुकतावश मैं भी वहाँ पहुँच गया. वहाँ पहुँचकर मैं दंग रह गया, क्योंकि यह किसी हताश और निराश लोगों का जमावड़ा नहीं था, बल्कि उत्साह से लबरेज लोग वहाँ इकट्ठा थे. इन्हें देखकर लगा नहीं कि मौत के अहसास से इतने करीब होने के बावजूद ये लोग न केवल ंजिंदा हैं बल्कि अपने जैसे लोगों के लिए जीने का सहारा बने हुए हैं.
मौत का अहसास मात्र ही हमें थर्रा देता है. यह जानते हुए भी यह एक शाश्वत सत्य है. अपनी मौत को सामने पाकर भी ये लोग बाकी जिंदगी को एक बोझ की तरह नहीं, बल्कि पूरे उत्साह और आत्मविश्वास के साथ जी रहे थे. इनके पास जाकर लगा कि सचमुच जीना इसी का नाम है. मौत के करीब, ंजिंदगी से दूर रहकर ये न केवल खुद जी रहे हैं, बल्कि अपने जैसे हताश लोगों के लिए प्रेरणा पुंज बन रहे हैं.
इस सम्मेलन में महिलाएँ भी थीं, वह केवल यही बताने में संकोच कर रहीं थीं कि ये रोग उन्हें कैसे लगा? बाकी विषयों पर वे खुलकर बातचीत कर रही थीं. उनका कहना था कि यह सच है, यह रोग हमारी गलती से हमें लग गया है, लेकिन इसका यह आशय तो कदापि नहीं है कि इस गलती के कारण हमें समाज से प्रताड़ना मिले, अस्पताल में डाक्टरों से उपेक्षा मिले. हम अपनों से भी अपनी बात न कह पाएँ, ऐसे में कौन रह जाता है अपना. इनमें से कई तो ऐसी थी, जिन्होंने अस्पताल में किसी से खून लिया था. अब उन्हें यह रोग लग गया है, तो इसके लिए आखिर जिम्मेदार कौन है भला?
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि समाज इतना निष्ठुर क्यों होता जा रहा है? एक अपराधी चुनाव में खड़ा होता है, और यही समाज उसे विजयी बनाता है. बाद में वही जनप्रतिनिधि उन पर कहर बरसाता है, तब समाज को यह समझ में नहीं आता है कि उसने अपराधी को वोट देकर कितनी बड़ी गलती की है? यह गलती उन रोगियों की गलती से छोटी ही है. तब फिर उन्हें इतनी बड़ी सजा क्यों? अपना संगठन बनाकर इन्होंने उसी निष्ठुर समाज को एक तमाचा ही मारा है. अब भले ही समाज उन्हें अपना ले, पर क्या वे सभी उस प्रताड़ना की टीस को भूल पाएँगे? अब इनके समाज में नारियाँ तो हैं ही, पुरुष भी कम नहीं. यही एक समाज है जिसकी सदस्यता के लिए उन्हें भटकना नहीं पड़ता, बल्कि हर महीने उनके समाज में 40-50 लोग बढ़ जाते हैं. ये सभी अपने बनकर रहते हैं. क्योंकि सभी ने झेली है समाज की प्रताड़नाएँ. समाज भले ही उनकी पीड़ा को न समझ पाया हो, लेकिन इन्होंने एक-दूसरे की पीड़ा समझी है. यह तो इनकी खुशी है, लेकिन ये सब मौत के साये में जी रहे हैं. न जाने कब चुपचाप इनके पास से इनका कोई अपना चला जाता है, मौत की बाँहों में. ये खामोश होकर यह नजारा देखते हैं. पर इन्हें इस बात की खुशी है कि मात्र कुछ ही वर्षों में उस बिछड़े साथी ने उनके साथ रहकर बहुत लम्बी जिंदगी जी ली.
चाहे वह दक्षाबेन पटेल हों, प्रीती चावड़ा या मनीषाबेन सांलुके, इन सभी की यही दास्तान है कि रोग का पता लगते ही परिवार ने ही उन्हें काफी प्रताड़नाएँ दीं. दक्षाबेन को तो डाक्टर ने पाँच महीने की जीवन शेष होने की जानकारी दी थी, लेकिन अपनी इच्छा शक्ति से वह आज छह वर्ष बाद भी न केवल जीवित है, बल्कि जीवन का संदेश देने के लिए वह हाल ही में इंडोनेशिया और पाकिस्तान होकर आई हैं. उत्साह से छलकती दक्षा बेन बताती है कि अब उसे इसी जीवन में जीना अच्छा लग रहा है. अब यदि इस बीमारी से मुक्त होने का इंजेक्शन भी आ जाए, तो वह नहीं लगवाएँगी. क्योंकि इस जीवन ने उसे जीवन का सही अर्थ बताया है. वह बड़ी दिलेरी से बताती है कि मौत को तो आना ही है, भले ही पाँच वर्ष पहले आए, कोई ंगम नहीं, तब तक तो एक और भरपूर जिंदगी जी जा सकती है. जीवन के प्रति इस तरह का रवैया देखकर लगा कि वास्तव में सच्चा जीवन तो अब ये ही जी रहे हैं. बिना किसी भेदभाव के जीवन जीने का यह तरीका शायद सब को पसंद आए न आए, पर समाज के जागरुक लोग जानते हैं कि इनका जीवन आनंद से भरपूर है, क्योंकि अपनी जिंदगी को मौत के पंजे से छीनकर इन्होंने अपने आपको जो खुला आकाश दिया है, वह किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं.
मौत के साये में जीने वाले ये लोग आज भले ही समाज में उपेक्षित हों, पर यह सच है कि इनका अपना एक ऐसा समाज है, जहाँ सभी मौत के साये में रहकर भी अपनों के बीच खुश हैं. सभी जानते हैं कि हम सब मौत के बहुत करीब हैं, पर वे सब कुछ भूलकर समाज की सेवा में लगे हैे. उनकी जीने की इच्छा ही है, जो उनकी मौत को पीछे धकेल रही है. इन्हें अपनों का सहारा न मिला होता, तो शायद ये सबत्त्तो कब का मौत को स्वीकार कर लिए होते.
एड्स के नाम पर करोड़ों खर्च करने वाली सरकार क्या इनके लिए कुछ नहीं कर सकती. ये अपनी जिंदगी नहीं माँग रहे हैं, बल्कि माँग रहे हैं उन लोगों के लिए जिंदगी, जो अभी तक बचे हुए हैं, इन भयावह रोग से. जब गुजरात सरकार शराबियों को समाज सेवा का दंड देने का प्रावधान कर सकती है, तो क्या इन एचआईवी पॉजीटिव से ग्रस्त लोगों के लिए ऐसा कुछ नहीं कर सकती, जिससे ये समाज के सामने अच्छे नागरिक बनकर कुछ समय के लिए जी सकें. इन्हें तो अपनी लंबी उम्र के लिए न तो एड्स प्रतिरोधी इंजेक्शन की आवश्यकता है, और न ही किसी तरह की सहायता की, इन्हें तो चाहिए समाज से प्यार और केवल प्यार. क्या आज का संवेदना शून्य समाज इन्हें अपना थोड़ा सा प्यार नहीं दे सकता?
सच्चाई को कभी नकारा नहीं जा सकता, लेकिन कुछ समय के लिए खुद को सच्चाई से दूर अवश्य किया जा सकता है. यह एड्स रोगी इसी कुछ समय को भरपूर जी रहे हैं और पूरे जोश के साथ जी रहे हैं. दूसरों के लिए प्रेरणा बने इन प्रेरणावाहकों का केवल यही संदेश है- प्यार दो प्यार लो. प्रेम की भाषा किसी रिश्ते को नहीं मानती. इसका अपना एक अनूठा रिश्ता होता है और इसी अनूठे रिश्ते में समा गया है पूरा विश्व. कोई जाति-बंधन नहीं, कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई अमीर-गरीब नहीं, कोई काला-गोरा नहीं. संपूर्ण एकत्व का परिचय देते हैं यह एड्स रोगी. इनसे प्रेम की यह परिभाषा ही सीख ले समाज, तो एक महान उपलव्धि होगी. किंतु क्या स्वार्थ के धरातल पर टिका यह समाज इस लायक भी है भला?
डा. महेश परिमल

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