बुधवार, 5 मार्च 2008

शहरों पर हावी 'सायलेन्ट किलर'


अकेले इंसान के भीतर चीखती खामोशियाँ
 डा. महेश परिमल
अकेलेपन का साथी कोई नहीं, मुझसे रूठा मेरा साया
जब जब इसे छूना चाहूँ, दूर-दूर भागे मेरा साया
उस दिन शाम को टहलते हुए एक ंगंजल पर ध्यान अटक गया. 'हर तरफ हर जगह, बेशुमार आदमी, फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी' सचमुच आज आदमी अपने आप में कितना अकेला हो गया है. इतना अकेला कि वह मौत को भी करीब बुलाने में ंजरा भी संकोच नहीं करता. क्या उसे मौत से भी भय नहीं लगता? वास्तव में वह इतना अकेला होता है कि मौत उसे अपनी साथी ही नजर आती है. वह मौत में सुकून तलाशता है. पर उसकी यह तलाश अधूरी ही रह जाती है.
वैसे भी महानगरों के दिन और रात एक जैसे होते हैं. वहाँ पल कोई भी हो, जगह कोई भी हो, परिस्थितियाँ कोई भी हो और मौसम कोई भी हो, भीड़ ही भीड़ नंजर आती है. रेल्वे-स्टेशन, बस-स्टैंड, कार्यालय, हॉस्पीटल, स्कूल-कॉलेज, मैदान, बाजार, हॉटेल-रेस्तराँ आदि-आदि अनेक नाम हैं, जहाँ भीड़ ही भीड़ नंजर आएगी और इस भीड़ के बीच एक अकेला आदमी, अपने आपसे जूझता आदमी, अपनी पहचान तलाशता आदमी... साधारण से असाधारण होता आदमी भी अपनी विशिष्टता के बीच कहीं न कहीं अकेलेपन का शिकार होता है. ये अकेलापन उसके आसपास के वातावरण से भले ही न झलकता हो, पर उसके चेहरे से झलकता है. उसकी कोरी ऑंखों में, उसकी मुस्कान के पीछे छीपी वेदना में, उसकी खोखली हँसी में, उसके बनावटीपन में कहीं न कहीं तो नंजर आ ही जाता है, जिसे मन की ऑंखें बड़ी आसानी से पढ़ लेती हैं.
आज जिस तेज गति से हमारे महानगर पश्चिमी संस्कृति के इंद्रधनुषी रंग को ओढ़ रहे हैं, उसी गति से 'सायलेंट किलर' के रूप में अकेलेपन को भी अपना रहे हैं. यह एक सनातन सत्य है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे हमेशा किसी के साथ, किसी के प्रोत्साहन की ंजरुरत होती है. यूँ कहें कि उसे परिवार या मित्र की मानसिक आवश्यकता हमेशा बनी रहती है. अकेलापन उसे भीतर से आहत कर देता है. बाहर से पूरी तरह सामान्य दिखाई देने वाला आदमी भीतर से एकदम टूटा हुआ और उदास होता है. आज हमारे महानगरों में पश्चिमी देशों से आया यह संक्रामक रोग अधिकांश लोगों को अपने शिकंजे में ले रहा है. यहाँ नौकरी के असामान्य अवसर होने के कारण छोटे शहरों के युवक-युवतियाँ कैरियर बनाने की चाहत लेकर और आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए परिवार से दूर, अकेले आकर रहते हैं. यहाँ आकर वे काम में और वातावरण में अपने आपको ढालने का प्रयास करते हैं. और तब शुरु होता है, मुश्किलों का दौर. वैसे भी हमारे भारत में जितनी सभ्यता और संस्कृति की गहरी झलक देखने को मिलती है, वैसी अन्य कहीं नहीं. इन्हीं संस्कारों का एक व्यावहारिक स्वरूप यह है कि भारतीय युवक-युवतियाँ विवाह के पहले माता-पिता या अभिभावक पर आश्रित रहते है. इनमें भी विशेष रूप से युवकों की तो बचपन से ही यह आदत होती है कि वे पूरी तरह से घर के अन्य लोगों पर ही निर्भर होते हैं. उन्हें पानी के ग्लास से लेकर स्कूटर की चाबी सब कुछ अपने हाथों मेंत्त्तैयार मिलनी चाहिए. उन्हें घर का काम करने की कोई आदत नहीं होती. ये सारी सुविधाएँ उन्हें केवल घर पर ही मिल सकती है.

घर से दूर किसी अनजान शहर में जीविका की तलाश में आया नवयुवक धीरे-धीरे सब कुछ करने की आदत डाल लेता है. अनेक कठिनाइयों के बाद वह रोजमर्रा के छोटे-मोटे काम करना तो सीख ही लेता है, पर जब घर और बाहर के काम के लंबे परिश्रम के बाद जब उसे चाहत होती है, कि किसी अपने के कंधे पर सर रख कर थोड़ी देर दिन भर की बातें कर लें और अपने आपको हल्का कर ले या किसी की गोद में सर रख कर आराम कर ले, तो उस समय उसके दुख-सुख बाँटने वाला, उसके एकाकीपन को भरने वाला कोई नहीं होता. आसपास होती है, केवल सूनी-सूनी दिवारें और मुँह चिढ़ाती छत. किसी-किसी के साथ होता है, ऐसे युवा मित्रों का साथ जो रूम-पार्टनर की तरह साथ तो रहते हैं, पर स्वभाव के राहू-केतू उन्हें कभी विचारों से साथ नहीं रख पाते. इसलिए केवल एक छत के नीचे साथ रहना उनकी विवशता होती है.
अभी पिछले महीने ही टीवी धारावाहिकों में काम करने वाली कुलजीत रंधावा ने आत्महत्या कर ली. लोगों का मानना है कि वह अपने आप को बहुत अकेला पा रही थी. सोचो, धारावाहिकों में काम करते हुए एक अलग ंजिंदगी जीते हुए भी वह कितनी अकेली हो गई थी. महानगरीय जीवन आज बहुत ही अधिक त्रासदायी होता जा रहा है. इसके केवल युवा ही नहीं, बल्कि बच्चे और बूढ़े भी शिकार हैं.
मायानगरी की तो बात ही न पूछो, आज तो वहाँ कल के सुपर स्टार राजेश खन्ना जैसे लोग भी नितांत एकांत में जीवन जीने को विवश हैं. यही हाल सुलक्षणा पंडित का है, भारत कुमार या कह लें मनोज कुमार जिसने कल तक शराब और सिगरेट को जाना भी नहीं था, वह आज उसी में डूब गए हैं. नादिरा को भी उनका अकेलापन ही डस गया. ललिता पवार भी इतनी अकेली थी कि मौत के कई दिनों बाद लोगों को पता चला कि वह इस दुनिया से फानी हो चुकी हैं. परवीन बॉबी की कहानी कौन नहीं जानता? नवीन निश्चल को तो उनके छोटे भाई ने ही घर से निकाल दिया है.
हाल ही में महानगरों में प्रेक्टिस करते मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिछले तीन वर्षों में अकेलेपन को लेकर मानसिक रोगों से पीड़ितों की संख्या में बेशुमार इजाफा हुआ है. शोध से यह भी पता चला है कि अकेलेपन का असर उनके मस्तिष्क पर ही नहीं, बल्कि उनके शरीर पर भी हो रहा है. जो हृदय रोग के रूप में सामने आ रहा है. ऐसे लोगों के लिए मुम्बई के मनोवैज्ञानिकों ने एक आशा की किरण दिखाई है. इन्होंने अकेलेपन में जी रहे लोगों के लिए कुछ 'सपोर्ट ग्रुप' बनाए हैं. इसके अंतर्गत अकेलेपन का जीवन जीने वाले एक स्थान पर हर सप्ताह इकट्ठे होते हैं, आपस में मिलकर ध्यान करते हैं, हँसी-मजाक करते हैं, और अपना दु:ख-सुख बाँटते हैं. कई बार तो ये लोग मिलकर दोपहर का भोजन भी साथ-साथ लेते हैं, या फिर सामूहिक रूप से फिल्म का मजा लेते हैं. यहाँ आकर हर किसी को लगता है कि केवल वे ही अकेलेपन का शिकार नहीं हैं, बल्कि उनकी तरह बहुत से लोग इससे पीड़ित हैं. एक दिन साथ रहकर वे अपना रोजमर्रे का जीवन थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं. यहाँ आकर लोगों का शांति का अनुभव होता है.
यह सच है कि इस सपोर्ट ग्रुप की जानकारी अभी बहुत ही कम लोगों को है. हर कोई इसमें शामिल हो जाए, ऐसी किस्मत बहुत कम लोगों की होती है. फिर भी इस सपोर्ट ग्रुप ने एक रोशनी दी है कि अकेलेपन को दूर करना है, तो साथ रहना सीखो. यह मानो की केवल वे ही अकेले नहीं है. सचमुच किसी ने सही कहा है कि अंधेरे में हो, इसलिए अकेले हो, उजाले में आओ, कम से कम साये का तो साथ मिलेगा.

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सही कहा है.. मैं भी युवा वर्ग में से ही आता हूं और अधिकांशतः ऐसा ही महसूस भी करता हूं.. अगर आप मेरे ब्लौग पर आते होंगे तो आपको कई बार ये महसूस भी हुआ होगा..

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