बुधवार, 26 मार्च 2008

भाभी के हाथ की रोटियाँ


गुजराती कहानी

स्व. केशवजी जयराम राठौड़
बरसों पहले की बात यानि कि सतयुग, द्वापर या त्रेता युग की यह बात नहीं, इसी कलयुग की 75-100 वर्ष पहले की ही यह बात है.
दो भाई. बड़े का नाम रामजी और छोटे का नाम जयराम. बिहार के चक्रधरपुर के घने जंगलों में, दोनों भाई कडिया का काम करते. मुझे शायद आज की पीढ़ी को कडिया का अर्थ भी समझाना होगा. आज के समान ऑर्डर दिया और ईंट का ढेर लग जाए, ऐसा वो जमाना न था. पत्थरों के ऊँचे टीलों में से हथौडे-छैनी की मदद से पत्थर निकाले जाते और फिर उन पत्थरों को आकार दे कर उनसे सड़क या रेलवे के पुल बनाने का काम किया जाता, मकान बनाए जाते. ऐसे पत्थरों को आकार देना और फिर उन्हें मकान या पुल बनाने के लिए उपयोग करने वाले कारीगरों को कडिया कहा जाता. ये दोनों भाई ऐसे ही कारीगर थे. मूल वतन कच्छ छोड़कर 9-9 वर्षों से ऐसे जंगलों में पसीना बहाकर दो पैसे कमाते थे.
एक जगह काम पूरा होता कि बँजारों की तरह 10-12 भाईयों की टुकड़ी दूसरी जगह काम खोजने निकल पड़ती. दोनों भाईयों की पत्नियाँ कच्छ में ही सासु माँ की सेवा और छोटी-मोटी मजदूरी कर घरखर्च निकालने की जद्दोजहद करतीं. 8-10 वर्षों से उन्होने अपने-अपने पति के चेहरे भी नहीं देखे हैं.
आसपास के गाँवों में कोई परदेस से आता, तो रैया माँ लकड़ी टेकते हुए उस गाँव में पहुँचती और पूछती- बेटे, मेरे रामजी और जेराम के कोई समाचार? उस बेचारी की नंजर में तो परदेस 70-75 गाँव दूर कोई मुल्क था, जहाँ उसके जिगर के टुकड़े पेट काट परिश्रम कर रहे थे.
कभी जवाब मिलता - माँ, हम तो उस जगह काम नहीं करते, हम तो दूसरी जगह काम करते हैं.
- रामजी और जेराम काम करते हैं, वह कितनी दूर है?
- हम जहाँ काम करते हैं, वहाँ से पाँच दिन का रास्ता होता है.
- ओ बाप रे ! ऐसा कहते हुए बूढ़ी अम्माँ लाठी टेकते हुए वापस आ जाती.
कभी कोई ऐसा भी मिल जाता, जो चक्रधरपुर के जंगलों में ही काम करता.
- हाँ, माँ. दोनों भाई हम जहाँ काम करते हैं, उससे थोड़ी ही दूरी पर काम करते हैं. दोनों का ही काम अच्छा चल रहा है. दो पैसे मिल जाते हैं. और उस बूढ़ी ऑंखों में खुशी चमक उठती. जाकर वे दोनों बहूओं को खबर देती.
दोनों भाई अपने हाथों से रोटियाँ बना कर खाते. टूटे-फूटे खपरैलों और घासफूस की बनी झोंपड़ी और ऐसी ही उनकी हाथ से बनाई रोटियाँ! एक दिन बड़े भाई ने कहा- जयराम, अब तो काफी वर्ष हो गए हमें हाथ से रोटियाँ बना कर खाते हुए, भगवान ने दो पैसे दिए भी हैं, तो देश जा कर बहू को ले आ. बहू के हाथों की रोटियाँ खाएँ. कब तक अपने हाथों से ही रोटियाँ बनाएँगे?
रामजी और जयराम, अर्थात् राम-लखन की जोड़ी. सभी इन भाईयों के बीच का स्नेह, ईमानदारी की मजदूरी और सच्चाई देखते और कहते - ईश्वर ने इन दोनों भाईयों के रूप में राम-लखन बन कर फिर इस धरती पर जन्म लिया है.
रामजी की बात सुनकर जयराम ने कहा - ठीक है भैया, आप कहो उस दिन यहाँ से निकलूँ.
- कल ही रवाना हो जा.
- ठीक है, मैं कल ही जाता हूँ.
इस तरह जयराम कच्छ आया. कितने वर्षों में? 9 वर्ष में!! गाँव की सरहद पर पहुँचते ही स्नेहीयों, संबंधियों और पुराने मित्रों को मिलते हुए, बुजुर्गों के आशीर्वाद लेते हुए 3-4 घंटे में वह अपने घर पहुँचा, तब रैया माँ ने बेटे को अपने हृदय से लगा लिया. भाभी ने भी दौड़ कर देवर की अगुआई की. एक जोड़ी ऑंख (पत्नी) घँघट की आड़ से उसे देखने का असफल प्रयास ही करती रह गई. (मैं आपको यहाँ फिर से एक बार बता दूँ कि यह बात है आज से करीब 100 वर्ष पुरानी, जब पति-पत्नी का बुजुर्गों के सामने मिलना तो दूर, देखने से ही मर्यादा का उल्लंघन होता था)
जब रैया माँ को इस बात का पता चला कि जयराम, बाहर बरामदे में ही सो रहा है, तब तक तीन दिन बीत चुके थे. तब उन्होंने महसूस किया कि बेटा बहुत शर्मिला है. चौथे दिन उन्होंने जयराम से कहा कि बाहर बरामदे में रात-दिन पड़ा रहता है, तो जाकर अपने कमरे में सो ना! इस तरह जयराम ने 9 वर्ष में अपने गाँव आकर भी तीन दिन बाद अपनी पत्नी का मुँह देखा. थोड़ा विचार कीजिए, लखी की दशा क्या हुई होगी? पति 9 साल बाद घर आया है, उसके बाद भी घर में रहते हुए भी चार दिन बाद उसका चेहरा देखा! आज इस संयम और बुजुर्गों की मर्यादा को मूर्खता कहा जाता है!
रात को पति की बगल में समाई लखी ने पूछा- ऐसी शरम कैसी? 9 वर्ष में अपने घर आए, उसके बाद भी अपने कमरे तक आने में चार दिन लगा दिए?
- मैं तो कमरे में नहीं आया, तू भी तो घर से बाहर न निकली. घँघट से अपना चेहरा नहीं दिखाया?
और फिर सारे गिले-शिकवे भूल कर दोनों एकदूसरे में समा गए. ऐसा आनंद का क्षण कि स्वर्ग के देवताओं को भीर् ईष्या हो जाए.
सात दिन बाद जयराम ने माँ से कहा- माँ, बड़े भैया ने मुझे भाभी को लेने भेजा है. जो हाँ कहो, तो भाभी को लेकर कल परदेस को रवाना हो जाऊँ.
इतनी जल्दी, 9 वर्ष में तो तू आया है और अभी तो 9 दिन भी पूरे नहीं हुए हैं?
- मेरे बिना भैया को बहुत तकलीफ होती होगी. सारा दिन सुबह से शाम काम ही काम! फिर घर आने के बाद रोटियाँ टीपना. जो सहमति दो, तो अपने हाथों की रोटियाँ बंद कर अब भाभी के हाथों की रोटियाँ खाएँ.
माँ ने आग्रह कर बेटे को चार दिन और रोका, पर लखी की हालत तो देखने लायक थी. भाभी को ले जाओगे, यह तो ठीक है, पर मैं ने क्या गलती की है? 9-9 वर्षों से राह देख रही हूँ कि आज आएँगे, कल आएँगे.. ऐसा करते हुए बरसों बीत गए. अब तो जाने की भी जल्दी कर रहे हो!
- पगली, तू नहीं समझेगी. तू मेरे साथ आएगी, तो यहाँ माँ की सेवा कौन करेगा? माँ को अकेला छोड़ कर जाया जा सकता है क्या?

लखी का खून सूख गया. मुँह से एक शद्व न निकला, जयराम ने फिर उसे अपनी तरफ खींच लिया, कहा- देख, अब दो पैसे कमा रहे हैं, काम अच्छा चल रहा है, अभी भाभी को ले जाता हूँ, दो-तीन सालों में वापस आकर तुझे और माँ को भी ले जाऊँगा. सभी के खर्च एक साथ कैसे उठाऊँ?
लखी का मन भर आया. उसकी जेठानी भची की ऑंखें भी भर आई, जब अपने सर पर पोटली रखकर वह देवर के साथ परदेस को रवाना हुई, सास-बहू ने बहती ऑंखों से दोनों को विदाई दी.
सातवें दिन 'वह परदेस' आया, जहाँ सभी काम करते थे. शाम चार बजे नौ-दस झोपड़ियों वाले गाँव में दोनों आ पहुँचे. भाभी ने झोपड़ी के अंदर जाकर देखा- ऐसा लगा मानो इस घर में इंसान नहीं, कोई और ही रहता हो. सारी चीजें अस्त-व्यस्त. एक ओर मैले-फटे कपड़ों का ढेर चूहों का इंतजार कर रहा था, दूसरी ओर एक कोने में काई जमी हुई मटकी पड़ी हुई थी, दो-तीन थाली, एक गंजी, मिट्टी का तवा, दो-तीन कपड़े की गुदड़ियाँ, यही था गृहस्थी का सामान.
बाहर आकर भाभी ने जयराम को झूले जैसी चारपाई पर लेटा देखा, उसके खर्राटों की आवाज सुनकर भाभी को लगा-भले सोये. बेचारा थक गया है. जर्जर चारपाई पर जयराम ऐसे सोया था, मानो डनलप के गद्दे पर आराम से सोया हुआ हो. भाभी घर में चली गई, इसके बाद शुरू हो गई, गृहस्थी को जमाने की जद्दोजहद. भाभी ने पहले तो घर का हुलिया बदलने के लिए सामान को व्यवस्थित किया. बरतन को माँज कर चमकाया. कहीं से सूई-धागा ढूँढ़कर फटे कपड़ों को सिला.
जयराम की ऑंख खुली, तब तक दिन ढल चुका था. 'आज तो बहुत नींद आई' कहते हुए ऍंगड़ाई लेता हुआ वह खड़ा हुआ कि दूर से आठ-नौ मंजदूरों को आते देखा. सबसे आगे शान से उसके बड़े भाई रामजी चले आ रहे थे. भाई को देखते ही जयराम ने पुकार लगाई 'भा....ई....'
रामजी ने भाई की पुकार सुनी, तुरंत ही उन्होंने अपने कदम तेज किए और करीब दौड़ते हुए छोटे भाई को गले से लगा लिया. साथ के मंजदूरों ने भाइयों के इस मिलन को राम-भरत मिलाप की संज्ञा दी. लोग गद्गद् हो गए. जयराम ने अपने आप को भाई की जकड़ से मुक्त कराते हुए बड़े भाई का चरणस्पर्श किया.
-माँ कैसी है जयराम?
-बहुत अच्छी हैं भैया. मुझे तो ऐसा लग रहा था कि माँ कमजोर हो गई होंगी,लेकिन अभी तो उनका शरीर अच्छा है.
-लगता है दोनों बहुओं ने माँ की अच्छी सेवा की है.
-सच कह रहे हो भैया. माँ भी ठीक ऐसा ही कह रही थी.
-और अपने सामने वाले लधा महराज?
- वो तो गए भैया. दो साल पहले ही निकल लिए.
-क्या कहा? दो साल पहले ही निकल गए. यहाँ तो किसी को पता ही नहीं है. रामजी ने नि:श्वास लेते हुए कहा.
फिर पूछा-अच्छा, ये बताओ, जीवन दादा कैसे हैं? वो तो हैं ना, या फिर वो भी निकल लिए.
-भैया अभी दस वर्ष तक दादा जाने वाले नहीं हैं.
-अच्छा..अच्छा. गाँव में ऐसे आठ-दस बुजुर्ग हों,तो गाँव की एक तरह से रखवाली हो जाती है.
-और भैया, वो लधी माँ भी गईं. समय पर उनके बेटे भी नहीं पहुँच पाए, गाँव वालों ने ही मिलकर सब निबटाया.
'हाय राम' रामजी के मुँह से अनायास ही निकल गया. कितनों के मरने की खबर लेकर आया है तू? इसके बाद बातों का सिलसिला काफी समय तक चलता रहा. रामजी भाई अपने छोटे भाई से गाँव के एक-एक व्यक्ति का हालचाल जानते रहे. बहुत देर बाद जयराम ने कहा- भैया, आपने सबके समाचार तो पूछ लिए, पर मेरी भाभी का समाचार नहीं पूछा?
रामजी को हँसी आ गई. थोड़ी देर बाद बोला- पगले, तेरी भाभी तो बहुत खुश होगी. उसके बारे में क्या पूछूँ?
-क्यों पूछा नहीं जा सकता क्या?
-पागल, तेरी भाभी को यदि कुछ हुआ होता, तो तू मेरे पूछे बगैर ही बता देता. तूने उसके बारे में कुछ नहीं बताया, तो मैं समझ गया कि वह तो ठीक होगी ही.
जयराम को हँसी आ गई. जोर से उसने आवाज लगाई- 'भाभी....! देखो तो सही, कौन आया है?'
अब अचंभित होने की बारी रामजी की थी. क्या कहा तूने- भाभी?
-हाँ, भाभी, मेरी भाभी. जयराम ने दृढता से कहा.
दरवाजे पर देखा, तो हाथ में झाड़ू लिए हुए भाभी खड़ी थी.
-भाभी, मेरे भाई के पैर तो छुओ! नौ वर्ष बाद मिल रहे हो!
पर रामजी के आगे तो पूरी दुनिया ही घूमने लगी. भाभी? तेरी भाभी यहाँ कहाँ से?
-ये सामने ही देखो ना भैया!
जयराम हँसता ही रहा और भाभी झाड़ू एक तरफ रखते हुए दोनों भाइयों की ओर बढ़ी.
-क्या कहा था और क्या कर आया?
रामजी मन ही मन अपनी पत्नी को देखते ही रह गया. भची अपने पति की चरणधूलि सर पर लगाने के लिए आगे बढ़ी. यह देखकर रामजी ने अपने पाँव पीछे खींच लिए. सामने देखा तो उसका छोटा भाई अपनी हँसी को रोकने का प्रयास कर रहा था.
एकाएक रामजी गुस्से से लाल-पीला हो गया. गरजकर बोला- जयराम, यह तूने क्या किया? तुझे तेरी भाभी को लेने के लिए किसने भेजा था? मैंने नहीं कहा था कि बहू को लेकर आ! अपनी भाभी को लेकर क्यों आया?
भची भाभी तो सकते में आ गई. दो घंटे पहले ही तो वह आई थी. अभी तो केवल पति का चेहरा ही देख पाई कि अचानक यह क्या हो गया? हतप्रभ होकर वह कभी पति की तरफ तो कभी देवर की तरफ देखती ही रह गई. उधर जयराम तो हंसी के मारे लोट-पोट होता रहा. भाई के गुस्से की मानो उसे परवाह ही नहीं थी.
हँसते-हँसते उसने भैया को जवाब दिया- भाई, नौ बरसों में आपको अपनी बहू के (मेरी पत्नी के) हाथ की रोटियाँ खाने का मन हुआ, तो मुझे भी मेरी भाभी के हाथों की रोटियाँ खाने का मन नहीं होता? मैं तो आपसे छोटा हूँ ! पहले आपकी इच्छा पूरी करुँ कि मेरी? अपनी भाभी को लाकर उनके हाथ की गरम-गरम रोटियाँ खाने की मैंने अपनी इच्छा पूरी की है, तो इसमें नाराज होने की कौन सी बात है? पहले इच्छा छोटे भाई की या बड़े भाई की?
भची को अब समझ में आया. जयराम उनके करीब आया. भाभी का हाथ पकड़कर वह बड़े भाई के पास आया और कहने लगा- भाभी एक बार फिर से भैया के चरणों की धूल लो, और उसका टीका मेरे माथे पर लगाओ, आज मैं धन्य हो गया.
और उसके बाद रामजी ने जयराम को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. दोनों भाइयों के इस अनोखे मिलन को देखकर किसी कोर् ईष्या न हो, इसलिए सूरज ने भी अपनी ऑंखें बंद कर धरती पर अंधेरे की चादर बिछा दी.
भाषांतर- भारती परिमल

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