मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

राष्ट्र निर्माण से जुड़े साधु समाज


प्रमोद भार्गव
साधु समाज की रचनात्मकता से जुड़ी एक खबर सामने आई है कि महाराष्ट्र के भोईरपाड़ा में शिरडी के साईंबाबा मंदिर न्यास और सुजलान कंपनी के संयुक्त प्रयासों के फलस्वरूप पिछले पांच माह के भीतर पवनचक्की परियोजनाओं से 14 लाख यूनिट बिजली का उत्पादन किया गया। यह बिजली महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को बेच भी दी गई। न्यास ने 15 करोड़ का निवेश कर यह उपलब्धि हासिल की है। न्यास पवन चक्कियों की संख्या बढ़ाकर लागत राशि 6 साल के भीतर निकाल लेने की उम्मीद भी रखता है। राष्ट्र निर्माण से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में किसी धार्मिक न्यास द्वारा की गई एक एक महत्वपूर्ण पहल है। मानव शक्ति के रूप में भारत के पास विशाल साधु समाज है। जिसे अब तक आंतरिक चेतना एवं अतीन्द्रीय शक्तियों के नियंत्रण का ही मुख्य कारक एवं प्रतीक माना जाता रहा है। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण संबंधी विकास कार्यों से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के हल में जुट जाएँ तो राष्ट्र का बहुत भला हो सकता हैं। क्योंकि इस समाज के साथ अपार शारीरिक बल होने के साथ धार्मिक न्यासों की संपत्ति के रूप में अकूत आर्थिक बल भी है।
भ्रष्टाचार के चलते भारत का संस्थागत प्रशासनिक ढांचा गड़बड़ा गया है। केन्द्र सौ पैसे भेजता है तो सार्थक उपयोग केवल पैसे का ही हो पाता है। इसलिए नौकरशाही का कार्य प्रणाली और ईमानदारी पर सवाल उठते रहते हैं। ऐसे में मानवीय पक्षों को उभारते हुए धार्मिक ट्रस्ट और उनका संरक्षक साधु समाज विकास कार्यों से जुड़कर राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में कारगर हथियार साबित हो सकता है। क्योंकि हताशा से भरी इस दुनिया में धर्म ही ऐसा इकलौता क्षेत्र है। जिसमें निर्विवाद रूप से उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है। भारत के मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों और गिरिजाघरों भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और भक्त सामर्थ्य से ज्यादा दिल खोलकर दान भी दे रहे हैं।
हाल ही में शिरडी के साईंबाबा मंदिर में वर्ष 2007 में दान के जो आंकड़े आए हैं उनके अनुसार आस्था के इस अद्वितीय स्थल पर दौलत लुटाने वालों का जैसे तांता ही लगा हुआ है। मंदिर में 60 करोड़ नकद, 14 किलो सोना और 235 किलो चांदी का चढ़ावा आया।2006 की तुलना में चढ़ावे की यह वृध्दि लगभग दो गुनी थी। कमोवेश इससे भी बेहतर स्थिति तिरूपति, सिध्दि विनायक, जगन्नाथ बद्रीनाथ, केदारनाथ, नाथद्वारा, महाकाल, काशी विश्वनाथ, त्रंबकेश्वर और केरल के गुरूवायूर मंदिर की है। दिल्ली और अमृतसर के गुरूद्वारों की भी यही स्थिति है। भक्तों को दर्शन-लाभ और चढ़ावे का सिलसिला सुचारू चलता रहे इसके लिए कई मंदिरों और गुरूध्दारों ने आर्थिक प्रबंधान व पारदर्शिता को दृष्टिगत रखते हुए कम्प्यूटर प्रणाली भी अपना ली है। यही नहीं मुम्बई स्थित एक पोर्टल ठस्म्ैप्छळ व्छज्भ्म्छम्ज्ण्ब्व्ड ने तो जगन्नाथ मंदिर से लेकर बद्रीनाथधाम तक 21 मंदिरों की श्रृंखला न्यासों से गठजोड़ कर ऑनलाइन दान की नेटवर्किंग कर रखी है। ऑनलाइन यह दान आईसीआई और एजीनेट के माधयम से सीधो इन धार्मिक न्यासों को प्राप्त हो जाता है। इससे ज़ाहिर होता है कि मंदिरों में लक्ष्मी की अनुकंपा इस हद तक हो रही है कि उसकी चंचला प्रवृत्ति को मर्यादित बनाए रखने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी तकनीक का संबल लेना पड़ रहा है।
भारत के हर परिवर्तनकारी युग में मठ, मंदिरों और साधुओं ने सांस्कृतिक चेतना का नवजागरण कर राष्ट्र निर्माण को नया मोड़ देते हुए समय-समय पर उदात्त भावनाओं और मंगलकारी सिध्दान्तों का प्रतिपादन किया है। जिससे धर्म दीर्घकालिक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हित पोषक न बना रहे। यही कारण है कि विश्वामित्र, चाणक्य, महावीर, बुध्द, जगतगुरू, शंकराचार्य, गुरूनानक देव, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविन्द स्वामी, विवेकानंद और ज्योतिबा फुले जैसे राजमोह तथा गृहत्यागी स्वप्न दृष्टाओं ने इस देश को आततायी विदेशी अतिक्रमणकारियों से लड़ने की शक्ति देने के साथ अज्ञान, भूख अराजकता और असमान सामाजिक ढांचे से जूझने की भी चुनौती व प्रेरणा आम जनमानस को दी। मधययुग के अंधाकार से भारतीय जनमानस को कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, दादू, मलूकदास और नानकदेव जैसे संत कवियों ने ही उबारकर नवयुग के निर्माण् की आधारशिला रखी।
स्वतंत्रता पूर्व भारत में करीब 60 लाख साधु थे लेकिन वर्तमान में इनकी संख्या बढ़कर एक करोड़ के ऊपर पहुंच गई हैं। हालांकि साधु-समाज की इस गणना में रोगी-भिखारी, बाजीगर-सपेरे, नट-मदारी, लावारिस और अपाहिज भी शुमार हैं। इनकी संख्या 80 प्रतिशत है। पहुंचा हुआ साधु इन्हें साधु नहीं मानता। ऐसे ही साधुओं की बदौलत धार्म और नैतिकता का मूलमंत्र खंडित हो रहा है। ये साधु ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से पैठ बनाकर ग्रामीणों को गांजा, भांग, बीड़ी, सिगरेट जैसे व्यसनों का आदि बना लेते हैं। यही साधु वेषधारी हत्या, बलात्कार, ठगी और अपहरण जैसे गंभीर मामलों के आरोपी निकलते हैं। दरअसल इन साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो ये बौरा जाते हैं। नतीजतन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने और भौतिक सुविधायें जुटाने में लग जाते हैं। ऐसे साधुओं की जहाँ जनता द्वारा उपेक्षा की जाने की ज़रूरत है वहीं साधाु-समाज इन्हें शिक्षित कर समाज के लिए हितकारी साधु भी बना सकता है। जिससे ये साधु समाज को मद्य-निषेध एवं सदाचारी के संस्कार तो दें ही रालेगांव(महाराष्ट्र) की तर्ज पर ग्रामीण स्तर पर साक्षरता, पर्यावरण् संरक्षण, जल संग्रह, मवेशी पालन व गोबर गैस संयंत्रों से बिजली उत्पादन के कार्यों की संपन्नता के लिए सहकार की सामुदायिक भावना भी पैदा करें। यदि ऐसा होता है तो ग्रामों में जातीय विद्वेष कम होगा और स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता के चलते शहरों की ओर युवा वर्ग का पलायन भी बाधित होगा।
हालांकि साधु-जीवन पर अब 'रमता जोगी बहता पानी' की कहावत पूरी चरितार्थ नहीं हो रही है। मोक्ष के प्रचारक यह साधु भौतिकवाद के शिकार होकर वैभव व प्रदर्शन की प्रवृत्तियों के आदि भी हो रहे हैं। मोह-माया, भौतिक सुखों और कारों का काफिला इनके इर्द-गिर्द मंडरा रहा है। सूचना तकनीक के चलते तमाम साधुओं का भू-मण्डलीकरण तो हुआ ही बाज़ारवाद की गिरफ्त में भी ये आ गए। लिहाजा धर्म-अरबों-खरबों के उद्योग में परिवर्तित हो गया। देखते-देखते बीते दो दशकों के भीतर हरिद्वार, ऋषिकेश, अयोधया, उज्जैन,शिरडी, त्रंबकेश्वर जैसी धार्मिक नगरियों में साधु संतों की घास फूस की झोपड़ियां आलीशान अट्टालिकाओं में तब्दील हो गईं। इसी कारण साधु समाज पर सवाल दागे जाने लगे कि मोह माया और भौतिक सुखों से ऊपर उठने का दावा करने वाले जो सिध्द पुरुष स्वयं भोग विलास में संलग्न हो गए हैं वे अधयात्म का उपदेश देकर क्या समाज को भौतिकवादी बुराईयों से उबार पाएंगे ?
साधु का प्रमुख गुण समष्टिगत होता है। इसलिए वह धार्म का प्रतिनिधि है। साधु के सदाचरण, संयमी, असंचयी और सात्विक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता है। इसीलिए इन दिव्य पुरुषों के एक इशारे पर लोग करोड़ों लुटा देते हैं। यही कारण है कि अपेक्षाकृत कम प्रसिध्दी पाए साधु अथवा मठ-मंदिर के पास भी करोड़ों की नकद और अचल परिसंपत्तियां हैं। जिन साधुओं का कोई उत्तराधिकारी नहीं है, इनका डाकघरों व बैंकों में लाखों-करोड़ों रुपए जमा हैं, ऐसे में इन साधुओं के आत्मलीन होने के बाद यह धान लावारिस घोषित कर दिया जाता है। आखिर इस धन को साधु समाज के सुपुर्द कर स्थानीय विकास कार्यों में क्यों नहीं लगाया जा रहा ? इस तरह की मांग अयोधया के राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता और बुध्दिजीवी कई मर्तबा उठा भी चुके हैं। इनका दावा है कि अयोधया के बैंक व डाकघरों में बाबाओं का इतना लावारिस धान जमा है कि यदि इसे निकालकर विकास कार्यों में ईमानदारी से लगा दिया जाए तो अयोधया का कायाकल्प ही हो जाएगा।
साधु समाज भारतीय वेद, उपनिषद् और पुराण इतिहास के पुनर्लेखन एवं तार्किक व्याख्यान लेखन के सिलसिले में भी उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं। क्योंकि हमारे प्राचीन साहित्य को धार्मिक पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधाविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ाई जाती रही हैं । यहाँ तक कि राम और कृष्ण जैसे विराट व्यक्तित्व वाले राष्ट्र नायकों तक को पुरातत्व जैसा जिम्मेदार विभाग मिथक कहकर विवाद का विषय बना देता है। केवल बाहरी लोगों द्वारा हमारी संस्कृति को आधयात्मिक और प्राचीन संस्कृत साहित्य को कपोल कल्पना करार को हमारे प्रगतिशील बुध्दिजीवी इतिहासकारों ने कृतज्ञ भाव से स्वीकार लिया और हम इसी परंपरा के वाहक बन गए। जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे पौराणिक आख्यानों में प्रणय प्रसंगों की भरमार है। राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति, जल और शिक्षा प्रबंधान की संरचना के सूत्र व सिध्दांत उनमें हैं। युध्दशास्त्र, विमानशास्त्र, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद और कामशास्त्र विषयक हमारी प्राचीन उपलब्धियां चमत्कृत करने वाली हैं। भाषा, व्याकरण और योग के क्षेत्रों में भी हम अनुपम हैं। जरूरत है इनके गूढ़ सूत्रों के रहस्यों को खोलकर मानव-उपयोगी बनाना। इस संदर्भ में हम बाबा रामदेव से उत्प्रेरित हो सकते हैं जिन्होंने पतंजलि योग सूत्र के रहस्यों को लाइलाज बीमारियों से मुक्ति का साधय बनाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही चुनौती दे डाली ? दरअसल हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों के यथार्थ को ठीक से समझने की आवश्यकता है लेकिन इस संदर्भ में पूर्वग्रह व दुराग्रह सांस्कृतिक अराजकता पैदा करने के कारण बन रहे हैं।
बहरहाल साधु समाज अपने जनबल और अर्थबल से बुनियादी समस्याओं के निदान में शिरडी के साईंबाबा न्यास की तरह जुट जाए तो उसकी समाज के लिए रचनात्मक क्रियान्वयन से जो वातावरण निर्माण होगा तो जो युवा शक्ति ईमानदारी से काम करने की इच्छुक है उसका राष्ट्र को अद्वितीय व अपेक्षित योगदान मिलेगा। लाल फीताशाही के चलते जो प्रतिभायें तालमेल न बिठा पाने के कारण पलायन कर दूसरे देशों में अपनी मेधा का परचम फहरा रही हैं उनकी पलायन प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगेगा। यह ट्रस्ट विद्युत,शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क निर्माण जैसे क्षेत्रों में तो पूंजी निवेश कर इनकी दशा बदल ही सकते हैं, वहीं साधुओं की विशाल संख्या के रूप में जो इस समाज के पास मनुज शक्ति है, वह जहाँ है वहीं रहकर नदी और तालाबों का कायाकल्प कर जल स्त्रोतों के अक्षय भण्डारों का पुनरूध्दार कर सकते हैं। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण में जुट जाती है तो इनसे प्रभावित आम जनमानस भी स्वप्रेरणा से इनका अनुयायी हो जाएगा। क्योंकि साधु समाज से कल्पना की जा सकती है कि वह भ्रष्टाचार और पक्षपात की दुर्भावना से मुक्त रहेगा ?
प्रमोद भार्गव

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ. जितनी अपार धन सम्पदा हमारे धार्मिक स्थलों और उनकी संस्थायों के पास है इसका इस प्रकार प्रयोग होना ही चाहिए. और यही लोग हैं जो देश के विकास में हाथ बँटा सकते हैं. क्यूँ की सरकारी इच्छा शक्ति की कमी है. मुझे उम्मीद है की इस प्रकार के प्रयास अन्य धार्मिक संगठन भी उठाएंगे क्यूँ की इनके पास धन सम्पदा के साथ साथ लोगों का हाथ भी है जो इनकी मदद के लिया हमेशा तैयार भी रहता है.

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  2. आपके विचार अत्यन्त सम्यक हैं। यदि दान में आया पैसा सही कार्यों पर लगाया जाय तो देश का बहुत भला हो।

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