बुधवार, 9 अप्रैल 2008

कितने सुरक्षित हैं सीआरपीएफ के जवान?


डा. महेश परिमल
आज हर कोई मानसिक तनाव से होकर गुंजर रहा है. नौकरी चाहे सरकारी हो या फिर निजी, सभी मेंं काम इतना अधिक होने लगा है कि सारी ऊर्जा काम करने में ही लग जाती है. इन तनावों के बीच न तो परिवार वालों की सुध रहती है और न ही अपने साथियों की. मानव आवेश में आकर न जाने क्या-क्या कर बैठता है. पर यही तनाव आज देश की रक्षा करने वाले जवानों पर भी हावी है. इस तनाव के कारण आज देश की सुरक्षा खतरे में है, लेकिन इसे अभी कोई स्वीकार नहीं कर रहा है. भविष्य में यह सच्चाई एक खौफनाक रूप में सामने आएगी, तब समझ में आएगा कि तनाव के बीच अपना र्क?ाव्य निभाना कितना मुश्किल है?
 सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के 107 जवानों ने आत्महत्या की है और 39 मामलों में तो उनके साथियों ने ही उन्हें मार डाला है.
 बारामूला में एक जवान डयूटी पर देर से आने पर उसके अधिकारी ने नाराजगी दिखाई थी, इस पर उसके साथियों ने उसकी खिल्ली उड़ाई, तो उसने सभी के सामने अपनी बंदूक तान दी और सात लोगों को ढेर कर दिया. यह घटना 28 नवम्बर 2004 की है.
 तनाव, हृदय रोग और नशा के कारण दो वर्ष पूर्व 270 जवानों की मौत हो गई. 2004 में यह ऑंकड़ा 455 तक पहुँच गया है.
 3000 जवानों ने मलेरिया का इलाज करवाया है, दूसरी ओर 1000 हृदय रोग से पीड़ित हैें.
 अपने एकाकी जीवन जीते हुए ये जवान बोर होने लगते हैं, इनमें से कई को अवकाश नहीं मिलता और कई बरसों तक अपने घर के दर्शन नहीं कर पाए.
 देश की आंतरिक सुरक्षा में लगे जवानों का ध्यान जितना रखना चाहिए, उतना नहीं रखा जा रहा है.
देश की आंतरिक सुरक्षा विशेषकर उ?ार-पूर्व की सीमा पर नक्सलवाद और कश्मीर की सीमा आतंकवाद का सामना करने के लिए तैनात सीआरपीएफ के जवानों का इस्तेमाल इनके अलावा दंगों, प्राकृतिक आपदाओं में भी किया जाता है. यही नहीं इनकी काफी ऊर्जा देश के नेताओं की सुरक्षा में ही खर्च हो ेजाती है. हर मौके पर एक पाँव पर खड़े रहने वाली ये ताकत आज मानसिक तनाव और विभिन्न समस्याओं से जूझ रही है. उनके निजी जीवन में झाँकने पर पता चलता है कि ये अपनी डयूटी पर इतने मुस्तैदी से लगे हुए हैं कि ये अपने परिवार का भी ध्यान नहीं रख पाते हैं.
एकाकी जीवन जीने वाले ये जवान आज मानसिक रूप से बुरी तरह त्रस्त हो गए हैं. न तो इन्हें नियमानुसार अवकाश मिल पाता है और न ही उन्हें इनकी पोस्टिंग इनके हिसाब से हो पाती है. नक्सलवादी इलाके में अपनी डयूटी बजाने वाले जवान का तबादला किसी शांत क्षेत्र में नहीं हो पाता, बल्कि उसे कश्मीर जैसे ठंडे और आतंकवाद से जूझते क्षेत्र में भेज दिया जाता है. यही कारण है कि वे लगातार तनाव से गुजरते हैं. यही हाल हमारे देश के मंत्रियों और नेताओं की सुरक्षा में लगे जवानों का है.
18 अगस्त को ही केंद्रीय मंत्री दयानिधि मारन के यहाँ डयूटी पर तैनात जवान ने अपनी डयूटी खत्म कर चार्ज देते हुए अपने एक साथी को गोलियों से भून दिया था. उसका कसूर केवल इतना ही था कि कुछ साल पहले उसके साथी ने उसकी शिकायत उच्च अधिकारियों से की थी. कई राज्यों में सीआरपीएफ आंतरिक सुरक्षाकर्मी के रूप में अपनी डयूटी निभा रहे हैं. उ?ार-पूर्व और जम्मू-कश्मीर में ये जवान निरंतर अपनी डयूटी निभा रहे हैं. नियमानुसार इन जवानों को 60 दिन का अवकाश मिलना चाहिए, लेकिन जवानों की कमी के कारण इन्हें अवकाश नहीं दिया जाता. इनकी पोस्टिंग ऐसे स्थानों पर की जाती है, जहाँ इन्हें हमेशा सावधान रहना पड़ता है. कई स्थानों पर तो मिनी वार जैसी स्थिति होती है. यहाँ ये जवान निरंतर तनाव से गुंजरते हैं.
सीआरपीएफ के जनरल जे.के. सिन्हा ने गृह मंत्रालय को दी गई जानकारी में बताया है कि 304 जवानों ने आंतरिक सुरक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया है. कुल 2.4 लाख सीआरपीएफ के जवानों में से 97 प्रतिशत जवान तो आंध्र प्रदेश और छ?ाीसगढ़ के नक्सलवादी क्षेत्र में अपनी डयूटी निभा रहे हैं. इन जवानों की हालत दिनों-दिन खराब होती जा रही है. इसकी वजह यही है कि इनकी सुविधाओं की किसी को परवाह नहीं है. देश की आंतरिक सुरक्षा इन्हीं जवानों के जिम्मे है, फिर भी इनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आ रहा है. कई जवान तो एकाकी जीवन से इतने त्रस्त हो गए हैं कि वे नशे के आदी हो गए हैं. इनकी पोस्टिंग ऐसी जगहों पर होती है, जहाँ इन्हेें शराब आसानी से मिल जाती है. एकाकी जीवन के कारण ही ये जवान हाइपर टेंशन और हृदय रोग के शिकार होते हैं.
2001 में 829 जवानों को मनोचिकित्सक की सेवाएँ लेनी पड़ी थी, ये ऑंकड़ा बढ़कर 2004 में 1289 तक पहुँच गया. देश में सीआरपीएफ के जवानों की संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है. अभी 16 हजार स्थान रिक्त हैं. दस प्रतिशत पद हर वर्ष खाली हो जाते हैं. जो राज्य अपने यहाँ सीआरपीएफ के जवानों की माँग करते हैं, वे राज्य उन्हें आवश्यकतानुसार सुविधाएँ भी प्रदान नहीं करते. ऐसे में भला उनसे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे अपनी डयूटी पूरी ईमानदारी से निभाएँ? आप ही सोचें कि मणिपुर में तैनात बटालियन को तत्काल कश्मीर पहुँचने का आदेश दिया जाए, वे जवान कश्मीर के लिए रवाना हों, तब उन्हें राजस्थान की तरफ नजर करने की सूचना दी जाए, तो क्या गुजरती होगी, उन जवानों पर?
इस तरह से देखा जाए, तो अपनी डयूटी निभाने के लिए एक पाँव पर खडे रहने वाले ये जवान आज कहीं के भी नहीं रह पाए हैं. घोर अव्यवस्था और राजनैतिक दाँव-पेंच के चलते इनका इस्तेमाल हर स्थानों पर किया जाने लगा है. इसके अलावा साम्प्रदायिक दंगों, भूकम्प, बाढ़, टे्रन दुर्घटना आदि में इनकी सेवाएँ ली जाती हैं. देश की आंतरिक सुरक्षा में लगे इन जवानों की सुनने वाला कोई नहीं है, यहाँ तक कि जिन मंत्रियों और नेताओं की सुरक्षा में अपनी जान लुटा दी हो, वे भी इनकी नहीं सुन रहे हैं. सभी को अपनी पड़ी है, ऐसे में कैसे होगी देश की सुरक्षा और कैसे सुरक्षित रह पाएगा ये देश अपने भीतरी दुश्मनों की नजर से?

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