शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

शहरी शोर में गुम होती श्मशान की खामोशी ...


डा. महेश परिमल
बाल सखा की मृत्यु पर श्मशान जाने का अवसर मिला. वहाँ लोगों की बातें सुनीं. ऐसा लगा मानो सभी जीवन के अध्यात्म से गहरे तक जुड़े हैं. कई लोग तो वैराग्य की भी बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि सचमुच ये लोग जीवन को कितना बेहतर समझते हैं. काश सभी मानव जीवन को इसी दृष्टि से देखें और अपने जीवन को सँवारने का प्रयास करें. मेरी इस सोच को कुछ दिनों बाद ही विराम लग गया. मैंने देखा कि जीवन की गहराई को समझने वाले वे ही ध्ञलोग जीवन की आपाधापी में इतने उलझ गए हैं कि उनके पास पल भर का भी समय नहीं है. उन्हें पता ही नहीं है कि जिस मृत व्यक्ति को लेकर वे श्मशान गए थे, उसका परिवार आज दर-दर की ठोकरें खाने को विवश है. परोपकार की बातें समय के साथ हवा में हवा हो गई. जिस मृत व्यक्ति को वे श्मशान में जला आए, वास्तव में वह जीवित ही रहा, बल्कि एक शव को जलाने में सहभागी बनने वालों के मस्तिष्क से उस व्यक्ति को भूल जाना ही वास्तव में उसकी मौत है. एक इंसान की मौत का आशय यह कतई नहीं कि वह मर गया. जिस क्षण वह लोगों की स्मृति से लुप्त हो गया, वास्तव में उसकी मौत उसी दिन होती है.
अधिकतर व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो जीवन के विषय में विचार करने की बात को सदैव टालते हैं. उनका कहना यह होता है कि उनके पास इसके लिए समय नहीं है. जीवन जैसे विषय को लेकर सोचने के लिए गहरी समझ का उनके पास पूरी तरह से अभाव होता है. वे लोग केवल खाना-पीना, मौज-मस्ती, शरीर और मन की वासना को ही जीवन जीने का मूल उद्देश्य मानते हैं और इसी की पूर्ति के लिए बेहोश होकर भौतिक सुख का आनंद लेते हैं, यहाँ तक कि मृत्यु के सामने भी वे बेहोश होकर ही जाते हैं. विचार और चिंतन से दूर हो कर अनेक लोगों का जीवन समाप्त हो जाता है. इस पर सोने पे सुहागा ये कि उन्हें इस बात की कोई पीड़ा, अफसोस या जीवन के रहस्य को न समझ पाने का, मनुष्य होने का पूर्ण लाभ न उठा पाने का कोई विषाद भी नहीं होता. ऐसे लोगों को हमारे धर्मग्रंथों में मनुष्य रूप में पशु की संज्ञा दी गई है. मनुष्य का देह प्राप्त कर लेने मात्र से मानव नहीं बना जा सकता. मनुष्य से मानव बनने तक में या आदमी से इंसान बनने में एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है. जीवन के रहस्य को जानना पड़ता है, उसकी गहराई में डूबना होता है, तभी जीवन का अर्थ, मृत्यु का बोध और मनुष्य देह की सार्थकता का अनुभव होता है.
मानव की जो विशेषता है, मानव जन्म का जो महत्व है, उसका एक कारण उसे मिली विचारशीलता है. ईश्वर ने यह विशेषता मानव को छोड़कर किसी पशु-पक्षी को नहीं दी है. उसके बाद भी मनुष्य अपनी इस विचार-चिंतन की शक्ति का सही उपयोग नहीं करता और केवल जीवन सागर में ऊपर ही ऊपर तैरता हुआ पार लग जाता है.
मनुष्य के जीवन का अधिकांश भाग बेहोशी में ही बीतता है. ऑंख खुली हो इसका अर्थ ये नहीं कि वो जाग गया है. शरीर में गति हो इससे यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि मनुष्य जीवित है, क्योंकि इस अवस्था में भी मनुष्य के चिंतन में एक विराट स्वप्न चलता रहता है. मनुष्य नए-नए सपने देखने में ही अपनी पूरी ंजिंदगी गुजार देता है. नींद में ही स्वप्न चलता रहता है और एक स्वप्न ् पूरा होकर दूसरा स्वप्न ् शुरू हो जाता है. इसी स्वप् में मनुष्य रिश्ते बनाता है, संबंधों की डोर बाँधता है. मेरा-तेरा के मायाजाल में फँसता है, लड़ाई-झगड़ा करता है, दर्प-घमंड में अपना सर ऊँचा करता है और फिर एक दिन वही सर चिंता और विषाद में डूब कर नीचा हो जाता है. एक समय ऐसा भी आता है कि बाकी का जीवन रो-रोकर पूरा होता है.

आखिर ऐसा क्यों होता है? क्यों मनुष्य जीवन सागर के उथले पानी में ही मौजों की थप-थप के साथ पूरा जीवन गुजार देता है? नींद से जागना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. मनुष्य रात होते ही बिस्तर में जाता है और सुबह होते ही उस बिस्तर को छोड़कर, रात में देखे गए स्वप्न को भूलकर काम में लग जाता है, ऐसा दैनिक क्रिया-कलापों में शामिल है, लेकिन यहाँ बात हो रही है शरीर और मन के जागरण से अलग आध्यात्मिक जागरण की. अध्यात्म की ओर अग्रसर होना ही सच्चा जागरण है. यह केवल ऑंखों का खुलापन नहीं मन का खुलापन है.
मनुष्य के भीतर के इस अध्यात्म ज्ञान को जगाने का, उसकी नींद को तोड़ने के प्रसंग इस संसार में नित्य बनते ही रहते है उसके बाद भी कोई विरला ही होता है, जो इन प्रसंगाें से प्रेरणा लेकर जागता है. सच्चा मनुष्य वही है, जो पेड़ से गिरते पत्तों से भी शिक्षा ले और जाग जाए. मिट्टी के घड़े को टूटते देख कर ही संभल जाए. किंतु ऐसे प्रखर बुध्दिमान प्राणी बहुत कम देखने को मिलते हैं.
यदि हम अपने आत्मिक ज्ञानचक्षु खुले रखें तो जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते है जो 'अलार्म' का काम करते हैं. ऐसे प्रसंग हमें सोते से जगाते हैं, न केवल जगाते हैं, बल्कि हमारी ओढ़ी हुई चादर खींच कर हमें चिकोटी काटते हुए उठाते हैं. ऐसा कब होता है? हकीकत में ऐसा होता है किसी अपने और बेहद अपने की मृत्यु पर. मृत्यु के साथ ही एक स्वप्न टूटता है. यह कोई छोटा-मोटा प्रहार नहीं है. जीवन का शाश्वत सत्य मृत्यु इस सजीव प्राणी को भीतर तक आहत कर देती है. मृत्यु विविध रंग-रूप में कई रिश्तों को अपने आगोश में लेती है. इकलौती संतान की मृत्यु, जवान बेटे या बेटी की मृत्यु, बरसों तक जीवन के हर क्षण में संघर्ष करते लाचार माता-पिता की मृत्यु, जीवन साथी की मृत्यु, अपने किसी प्रिय की मृत्यु ... ऐसे कई संबंधों की मृत्यु है, जो व्यक्ति को जड़ से हिलाकर रख देती है. दीदी कहकर बुलाने वाला कोई भाई मृत्यु का ग्रास बन जाता है, तो कलाई पर राखी बाँधने वाली कोई बहन सदा के लिए भाई से रूठ कर दूर चली जाती है, कोमल रिश्तों के बीच माँ की ममता तड़पती है, तो बाप का कलेजा फटता है. प्रिय की याद में प्रियतमा की ऑंखें भीगती हैं, तो कोई अपना ंगम ऑंखों की कोर में ही छुपा लेता है. ऐसी अनेक हृदय विदारक घटनाएँ घटती है, जिनमें हमारा किसी से कोई रिश्ता भी नहीं होता, पूरी तरह से अनजान होते हुए भी कुछ पल के लिए वह घटना ऐसा प्रभाव डालती है कि सिसकी होठों पर आ जाती है. कई दिनों तक वो घटना जागी ऑंखों का सपना बनी रहती है और होठों पर अपना अधिकार जमाए रखती है. किंतु ये सभी कोमल पल स्वयं को तोड़ने के लिए नहीं है. समझदार मनुष्य वह है, जो ऐसे क्षणों में आत्म चिंतन-मनन और ज्ञान की ओर अग्रसर हो. इसी क्षण का उपयोग स्वयं के लिए करना चाहिए. ऐसे हृदय विदारक क्षणों में स्मशान में जाकर जलती चिता को देखने का एक भी अवसर चूकना नहीं चाहिए. इस जलती चिता के साथ यदि हमारे भीतर से भी कहीं कुछ जल जाए, तो यही उस मृत व्यक्ति के लिए हमारी सच्ची श्रध्दांजलि होगी. हमारे भीतर का अहंकार जल जाए तभी हमें आत्मज्ञान होगा.
वास्तव में मृत्यु क्या है? मृत्यु के रहस्य को कोई नहीं जान पाया. हाँ इतना अवश्य है कि शरीर के भीतर से किसी वस्तु का चला जाना शरीर को मृत घोषित करता है, किंतु एक पूरे के पूरे आदमी की अस्मिता को कतई नहीं. वह तो हमारे भीतर, हमारी स्मृति में हमेशा जीवित रहता है. शारीरिक रूप से किसी का चले जाना मृत्यु बिल्कुल नहीं है. हाँ हमारे स्मृतिपटल से उसका विस्मृत हो जाना अवश्य मृत्यु है. जब तक वह व्यक्ति हमारे भीतर जीवित है,उससे प्रेरणा लो, उसके स्वप्नों को पूरा करो. क्योंकि वास्तव में मृत्यु किसी की नहीं है. भीतर से जो हारता है, वही मृत है.
एक चिंतक ने कहा है कि मंदिर को आबादी से कहीं दूर बनाना चाहिए,ताकि जब लोग मंदिर जाएँ, तो वहाँ की शांति को अपने भीतर समेट लें. इसी तरह श्मशान को शहर के बीचों-बीच होना चाहिए, ताकि जब भी कोई व्यक्ति वहाँ से गुंजरे, तो मृत देह की गंध उसे मनुष्यता की ओर ले आए. लेकिन आज सब-कुछ इसके विपरीत हो रहा है. मंदिर शहर के बीचों-बीच और श्मशान शहर से काफी दूर बनने लगे हैं. इसलिए मानव आज अपनी मानवता को भूलने लगा है. मंदिर में उसे अशांति मिलती है और श्मशान की नीरवता उसे मात्र कुछ क्षणों के लिए ही वैराग्य लाने में सफल होती है. श्मशान की शांति शहर तक आते-आते कहीं खो जाती है. शहर में प्रवेश करते ही मानव एक साधारण मानव बनकर रह जाता है. ऐसा मानव जिसके पास अपने कोई विचार नहीं, भावना नहीं, वह तो खाने के लिए जीवन जीता है और भोग-विलास में अपना जीवन गुजार देता है. एक पशु का जीवन जीकर वह यह समझने की भूल करता रहता है कि उसने मनुष्य का जीवन जिया. कहाँ गया वह विवेक, जो मानव को पशु से अलग करता है?
डा. महेश परिमल

4 टिप्‍पणियां:

  1. महेश जी
    कटु यतार्थ का बिल्कुल सही सामने लाये हैं आप. बहुत गंभीर और सार्थक लेखन के लिए बधाई.
    नीरज

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  2. डा. महेश परिमल जी धन्यवाद वचपन मे मेरे पिता जी यह सब बाते मुझे किसी ना किसी रुप मे बताते थे,ओर अब मे यही सब अपने बच्चो को भी देता हू, बहुत ही अच्छा लगा आप का लेख, बेसे आप के सभी लेख बहुत अच्छे होते हे, समय की कमी के कारण कई वार हाजरी नही दे पाता , लेकिन आप के लेख जरुर पढता हू.
    फ़िर से धन्यवाद अच्छे विचारो के लिये, अगर आज के बच्चे भी यह सब पढे तो काफ़ी प्रभाव पडे गा उन पर भी

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