शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008
पेड़ॊं से प्यार करना सीखॊ
पंकज अवधिया
जब भी जंगलो मे जाना होता है दो प्रकार के दृश्य देखने को मिलते है। एक तो पुराने वृक्षो की लकडियो से लदे ट्रक जिन्हे जंगल विभाग की अनुमति मिली होती है और दूसरा तरह-तरह की लकडियो को सिर मे लादे आम निवासी। दोनो ही मामलो मे लकडियाँ जंगल से लायी जाती है। ट्रको मे लदी लकडी आधुनिक मानव समाज की आवश्यकता के लिये जरुरी बतायी जाती है जबकि सिर पर लडी लकडी जलाने के काम आती है। इससे ही घरो का चूल्हा जलता है। मै अक्सर इन लोगो से लकडी की कीमत पूछ लेता हूँ। ट्रक वाले ठेकेदार कहते है साहब ये तो हजारो मे बिकेगी और आम लोग बताते है कि इसके तो कम दाम मिलेंगे पर कुछ दिनो तक घर मे खाना बन जायेगा। जब मै उनसे कहता हूँ कि एक पेड की कीमत लाखो मे है तो वे चौक जाते है। आप भी शायद चौक जाये क्योकि जब वैज्ञानिको ने एक पेड की कीमत निकालनी चाही तो उनके होश उड गये।
पचास वर्ष तक जीने वाला एक वृक्ष इस अवधि मे 31,250 अमेरीकी डालर के कीमत की आक्सीजन देता है। यह प्रदूषण को नियंत्रित करता है। प्रदूषण को कम करने के इस कार्य को आदमी 62,000 अमेरीकी डालर के खर्चने के बाद कर सकता है। मिट्टी के क्षरण को रोकने और उसकी उपजाऊ शक्ति बढाने के योगदान की कीमत 31,250 आँकी गयी है। 37,500 अमेरीकी डालर के बराबर जल का पुनर्चक्रीयकरण करता है। 31,250 अमेरीकी डालर की कीमत के बराबर जीवो को आश्रय देता है। यदि आज की दर से एक अमेरीकी डालर को चालीस रुपयो के बराबर माना जाये तो एक पेड की कीमत 78 लाख 50 हजार रुपये होती है। ऊपर किये गये आँकलन मे पेडो से प्राप्त होने वाले फल और अन्य उपयोगी पौध भागो से होने वाली आय को नही जोडा गया है। मान लीजिये किसी पेड की छाल से कैसर की दवा बनती है और एक पेड पचास वर्षो मे 100 कैसर रोगियो की जान बचाता है। अब यदि कैसर के इलाज की आधुनिक कीमत एक लाख प्रति मरीज भी आँकी जाये तो वह पेड एक करोड का हो जाता है। अर्थात कुल कीमत हुयी 1,78,50,000। इतनी महंगी चीज को हम कुछ हजार मे बेच कर खुश हो रहे है। ये समझदारी है या बेवकूफी?
हमारे योजनाकार कह सकते है कि पेड लगाये भी जा सकते है। सही है पर इसमे सोचिये कितनी लागत आयेगी पचास सालो मे। माँ प्रकृति ने तो पूरी लागत बचा दी है और साथ ही एक पेड से कई नये पेड बनाकर दिये है। यह तो अब आधुनिक अनुसन्धानो से भी प्रमाणित हो चुका है कि माँ प्रकृति द्वारा लगाये गये जंगल मनुष्य द्वारा लगाये जंगल से लाख गुना बेहतर है। माँ प्रकृति के राज जानने के लिये पहले उनका आदर करना सीखना होगा।
कुछ महिनो पहले मै एक पेड की कीमत के आधार पर नियमगिरि पर्वत के पेडो की कीमत का आँकलन कर रहा था। आपको तो मालूम ही है कि यहाँ बाक्साइट का खनन होना है और इसके लिये बडी मात्रा मे पेडो को क़ाटे जाने की योजना है। बाक्साइट जरुरी है और इससे बहुत आमदनी होगी। उसकी तुलना मे पेडो की क्या कीमत-ऐसा खनन के हिमायती कहते फिर रहे है। पर उपरोक्त आँकलन के आधार पर यदि कुछ हजार पेडो के कीमत की तुलना बाक्साइट खनन से होने वाले फायदे से की जाये तो पता चलेगा कि यह खनन घाटे का सौदा है। अपने सर्वेक्षण मे मैने अल्प सम्य मे ही दसो ऐसे पुराने पेडो की पहचान की जो कि लाइलाज समझे जाने वाले आधुनिक रोगो की चिकित्सा मे उपयोगी है।
यह बात समझ से परे है कि क्यो हमारे योजनाकार ये भूल जाते है कि बाक्साइट के बिना जीया जा सकता है पर आक्सीजन के बिना नही। यह तो सरासर आत्मघाती कदम है। मै इसे बेवकूफी मानता हूँ। सब कुछ जानते हुये भी अपने पैर पर कुल्हाडी मारना। रोज हमारे समाचार पत्र यह प्रकाशित करते है कि सडक चौडीकरण के नाम पर दर्जनो पुराने पेड काटे गये। ऐसी हर कार्यवाही से सरकार को करोडो का घाटा होता है। आधुनिक विकास तो इन पेडो को बचाते हुये भी किया जा सकता है। हमारे देश मे पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अरबो रुपये खर्च हो रहे है फिर भी पेडो के कटने की गति कम नही हो रही है। रट्टू तोते की तरह चिपको आँदोलन हमे पढा दिया जाता है और हम परीक्षा देकर इसे भूल जाते है। आज गाँव-गाँव मे ऐसे आँदोलनो की जरुरत है। नयी पीढी को पेडो की सही कीमत बताने की जरुरत है वरना वह दिन दूर नही जब प्राणवायु और अच्छे स्वास्थय के लिये तडपते हुये हम आखिरी साँसे गिन रहे होंगे।
पंकज अवधिया
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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पर्यावरण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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एक तथ्यात्मक लेख..
जवाब देंहटाएंसही सीख..
बहुत ही बढिया लेख..
पंकज जी आप का लेख बहुत अच्छा लगा , यह बाते सब कॊ मलाउम हे लेकिन हमारी सरकार ओर ओर उस मे बॆठे काठ के उल्लूओ को शायाद नही मालुम, जो चन्द रुपये के लिये लाखो करोडो जिन्दगियो को नरक मे धकेल रहे हे,महेश जी आप का भी धन्यवाद एक सुन्दर लेख को हमारे सामने लाने का.
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