शनिवार, 31 मई 2008

मौत के आगोश में लिपटा एक कश जिंदगी का


; डॉ. महेश परिमल
देवानंद की एक फिल्म बरसों पहले आई थी, जिसमें वे गाते हुए कहते हैं '' हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया। '' वह समय ऐसा था, जब हर फिक्र को धुएँ में उड़ाया जा सकता था, पर अब ऐसी स्थिति नहीं है, अब तो लोग इससे भी आगे बढ़कर न जाने किस-किस तरह के नशे का सेवन करने लगे हैं। हमारे समाज में पुरुषयदि धूम्रपान करे, तो उसे आजकल बुरा नहीं माना जाता, किंतु यदि महिलाओं के होठों पर सुलगती सिगरेट देखें, तो एक बार लगता है कि ये क्या हो रहा है। पर सच यही है कि पूरे विश्व में धूम्रपान से हर साल करीब 50 लाख मौतें होती हैं, उसमें से 8 से 9 लाख लोग भारतीय होते हैं। इसके बाद भी हमारे देश में धूम्रपान करने वाली महिलाओं की संख्या में लगातर वृद्धि हो रही है। वे भी अब हर फिक्र को धुएँ में उड़ा रही हैं।
हमारे देश के महानगरों में चलने वाले कॉल सेंटर के बाहर रात का नजारा देखा है कभी आपने? न देखा हो, तो एक बार जरूर कोशिश करें। वहाँ आपको देखने को मिलेगा, मुँह से धुएँ के छलले निकालती युवतियाँ। ऐसा सभी कॉल सेंटर्स में दिखाई देगा। जिन्होंने यह दृश्य पहले कभी नहीं देखा है, उनके लिए यह अचरच भरा हो सकता है, पर आजकल यह सामान्य बनता जा रहा है कि युवतियाँ लड़खड़ाते कदमों से अस्त-व्यस्त हालत में कुछ न कुछ बड़बड़ाते हुए इधर-उधर भटकती रहती हैं। इधर कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि केवल कॉल सेंटर्स में ही नहीं, बल्कि कार्यालयों में ऊँचा पद सँभालने वाली महिलाओं, क्लब-पार्टी में युवतियों के मुँह से निकलने वाले धुएँ के छलले अब आम होने लगे हैं। यह उनके लिए स्टाइल स्टेटमेंट बन गया है। इसके पीछे होने को तो बहुत से कारण हो सकते हैं, पर सबसे उभरकर आने वाला कारण है काम का दबाव। आपाधापी और प्रतिस्पर्धा के इस युग में आजकल महिलाओं पर भी काम का दबाव बढ़ गया है। घर और ऑफिस दोनों जिम्मेदारी निभाते हुए वह इतनी थक जाती है कि उसे शरीर को ऊर्जावान बनाने के लिए वह न चाहते हुए भी धूम्रपान का सहारा लेने लगी है। महिलाओं द्वारा धूम्रपान कोई आज की बात नहीं है। भारत के सुदूर ग्रामों में आज भी मजदूरी करने वाली महिलाएँ बीड़ी पीते हुए देखी जा सकती हैं। कई स्थानों पर पुरुषों की तरह शारीरिक परिश्रम करते हुए काम के बीच कुछ पल का समय निकालकर बीड़ी का कश ले लेती हैं। कुछ विशेषसम्प्रदाय की महिलाओं में बीड़ी या तम्बाखू का सेवन आम है। इसीलिए तम्बाखू का अधिक उपयोग करने वालों भारत का नम्बर तीसरा है। हर वर्षविश्व को करीब 50 लाख मौतें देने वाला यह पदार्थ न जाने और कितनी जानें लेगा। हालांकि भारत में तम्बाखू का सेवन करने वाली महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत अभी कम है, फिर भी इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है, यह विचारणीय है।

महानगर में रहने वाली युवतियाँ तो काम के दबाव में ऐसा कर रही हैं, यह समझ में आता है। इसके अलावा ऐसी युवतियों की संख्या भी बहुत अधिक है, जिन्होंने इसे केवल शौक के तौर पर अपनाया। पहले तो स्कूल-कॉलेज में मित्रों के बीच साथ देने के लिए एक सुट्टा लगा लिया, फिर धीरे-धीरे यह उनकी आदत में शामिल हो गया। उधर पार्टियों में शामिल होने वाली महिलाएँ एक-दूसरे की देखा-देखी में या फिर अपनी मित्र का साथ देने के लिए या फिर गँवार होने के आरोप से बचने के लिए केवल ''ट्राय'' के लिए अपने होठों के बीच सिगरेट रखती हैं, धीरे-धीरे यह नशा छाने लगता है। अपनी पसंदीदा अभिनेत्रियों को टीवी या फिल्म में जब युवतियाँ देखती हैं कि वे भी तनाव के क्षणों में किस तरह से सिगरेट के कश लगाती हैं, तब हम भी क्यों न तनाव में ऐसा करें? वे शायद यह समझ नहीं पाती कि उनकी पसंदीदा अभिनेत्री को यह सब करने के लिए लाखों रुपए मिलते हैं। ऐसा कहा जाता है कि 70 के दशक में जो महिलाएँ पार्टी में धूम्रपान नहीं करती थीं, उन्हें ''आऊट डेटेड '' माना जाता था। आज तो हालात और भी अधिक बुरे हैं।

इसी तरह धूम्रपान का शिकार बनी वनिता का कहना था-जब मैं कॉलेज में थी, तब मित्रों के कहने से मैंने पहली बार सिगरेट को हाथ लगाया, फिर इस डर से कि कहीं मैं इन मित्रों को न खो दूँ या यह सब मुझे अपने से दूर न कर दें, इसलिए मैंने इस व्यसन को जारी रखा। धीरे-धीरे यह मेरी आदत में शामिल हो गया। अब तक जब भी मौका मिलता, मैं सिगरेट सुलगाती और उसके कश लेने लगती। एक बार रात में मेरी खाँसी बढ़ गई, माता-पिता घबरा गए, वे मुझे डॉक्टर के पास ले गए, मैं समझ गई कि अब मेरा झूठ यहाँ नहीं चलेगा। तब मैंने डॉक्टर को एकांत में हकीकत बता दी और वादा किया कि मैं इस व्यसन को छोड़ दूँगी, पर मेरे माता-पिता को इस बारे में कुछ न बताया जाए। डॉक्टर मेरी बात सुनकर घबरा गए, पर उन्होंने स्थिति को सँभाला और मुझे इस व्यसन से मुक्त करने का फैसला किया। मुझे निकोटीन दिया जाता था, खास प्रकार के माउथ वॉश से कुल्ला करने का कहा जाता, मेरे लिए वे दिन बहुत ही यातनापूर्ण थे, इस व्यसन से मुक्ति के लिए मुझे मानसिक रूप से भी तैयार होना पड़ा। छह महीनों के इलाज से यह लाभ हुआ कि धूम्रपान से मेरे फेफड़ों को हुए नुकसान की भरपाई हो गई। उसके बाद तो मैंने धूम्रपान से तौबा ही कर ली। वनिता जैसी किस्मत सबकी नहीं होती, इसमें वनिता की इच्छा शक्ति ने कमाल किया। वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन (WHO) ने एक सर्वेक्षण में बताया कि धूम्रपान या तम्बाखू का सेवन छोड़ने का संकल्प कई लोग करते हैं, पर 71 प्रतिशत में से मात्र 3 प्रतिशत लोग ही इसमें सफल हो पाते हैं। बाकी लोग कुछ समय बाद फिर वही नशा करने लगते हैं। उनकी देखा-देखी में उनकी संतानों में भी यह प्रवृति देखने को मिलती है। जिन परिवारों में महिलाएँ धूम्रपान करती हैं, उन परिवारों में बच्चों को ऐसा कुछ अनोखा नहीं लगता। मुम्बई में हुए एक सर्वेक्षण्ा में यह पाया गया कि 33.4 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ, जो किसी न किसी प्रकार के तम्बाखू का सेवन करती हैं, ऐसी महिलाओं का गर्भपात, अधूरे महीने ही प्रसूति, अविकसित बच्चे को जन्म देना आदि घटनाएँ होती हैं। पति का साथ देने के लिए धूम्रपान, मद्यपान या फिर तम्बाखू का सेवन गर्भावस्था के दौरान भी करने वाली एक महिला ने बताया कि इस दौरान में काफी तकलीफों से गुजरना पड़ा। बच्चे के जन्म के बाद उसकी अच्छी परवरिश के लिए मैंने तम्बाखू का सेवन छोड़ दिया, पर इसे लम्ब समय तक अपने से दूर नहीं कर पाई, तक कई लोगों ने समझाया कि यह सेवन तुम्हारे बच्चे के लिए खतरनाक है, मैं इसे समझती, तब तक काफी देर हो चुकी थी, मेरा बच्चा बहुत ही छोटी उम्र में ही धूम्रपान की लत लग गई है।
तम्बाखू से होने वाले नुकसान से शिक्षित वर्ग बहुत अच्छी तरह से वाकिफ होता है, पर विडम्बना यह है कि महानगर की महिलाओं में धूम्रपान का शौक बुरी तरह से हावी हो रहा है। एक शोध के अनुसार एक सिगरेट में ''फिनोल'', सीसा, टार और केडियम जैसे 4800 खतरनाक केमिकल होते हैं, दूसरी ओर उसके धुएँ में 4000 केमिकल और 500 जहरीली गैसें होती हैं। यह जानते हुए भी इंसान फिर इसी लत का शिकार होता रहता है। आश्चर्य की बात यह है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को तम्बाखू का व्यसन छोड़ने में अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। हमारे देश में 49 ये 59 वर्षतक महिलाओं में यह व्यसन सामान्य है, किंतु उसकी शुरुआत बाल्यकाल में ही हो जाती है। विद्यार्थियों में यह आदत दस वर्षकी उम्र या उसके पहले ही हो जाती है। भारत में तम्बाखू का सेवन उत्तर-पूर्व में होता है। परिवार में यदि बड़े लोग खुलेआम धूम्रपान करते हैं, तो उस परिवार के बच्चे भी इसे अपनाने में देर नहीं करते। बचपन की यह आदत युवावस्था में काम के दबाब को देखते हुए बढ़ जाती है। '' टोबेको कंट्रोल फाउंडेशन ऑफ इंडिया'' के प्रेसीडेंट डॉ. सजीला मैनी के अनुसार यदि भारतीय युवतियाँ 15 से 22 वर्षके बीच तम्बाखू का सेवन न करे, तो आमतौर पर इस व्यसन के शिकार की संभावना बहुत ही कम हो जाती है।
इसके बाद भी ''पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए'' यह उक्ति उन लोगों के लिए सही बैठती है, जो रोज ही इस लत को छोड़ने का संकल्प लेते हैं और वह चीज सामने आते ही संकल्प भूल जाते हैं। इसलिए यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उसने धूम्रपान छोड़ दिया। इसके लिए तो जरूरी यह है कि क्या वास्तव में धूम्रपान ने उसे छोड दिया है?
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 30 मई 2008

हवाएँ होने लगी हिंसक


डॉ. महेश परिमल
मौसम लगातार बदल रहा है। प्रकृति अब लोगों को डराने लगी है। अब डर लगता है प्रकृति की गोद में मचलना। प्रकृति के अनुपम उपहार हमारे सामने ही भूमिगत होने लगे हैं। पिछले 10 से 12 वर्षों में प्रकृति असंतुलन अधिक दिखाई दे रहा है। लोग इसका कारण ग्लोबल वार्मिंग को मान रहे हैं। वैज्ञानिक इसे ''अलनाइनो'' कहते हैं। आज जो स्थिति दिखाई दे रही है, वैसी स्थिति करीब 4 हजार साल पहले भी आई थी। आज जो हालात बदल रहे हैं, उसका सबसे अधिक असर कृषि और पानी पर पड़ेगा, बाढ़ और अकाल अब होते ही रहेंगे। आपको यह जानकर आष्चर्य होगा कि अमेरिका के पेरु देष में लगातार बारिष के कारण 2300 वर्गमील का खाली स्थान एक बड़े सरोवर में तब्दील हो गया। अब वहाँ जमीन दिखाई ही नहीं देती। प्रकृति का इस तरह से लगातार हिंसक होना यही बताता है कि मानव यदि अभी भी सचेत न हुआ, तो इसका विकराल रूप हम सबको बहुत ही जल्द दिखाई देगा। आइए पिछले कुछ वर्षों में विष्व में हुई कुछ घटनाओं की तरफ नजर डालें, इससे ही पता चल जाएगा कि अब प्रकृति अपना खेल खेलकर ही रहेगी-
केनेडा में बर्फ का अभूतपूर्व तूफान आया, लोग त्राहिमाम्-त्राहिमाम् पुकारने लगे। ऐसा दृष्य वहाँ पहले कभी नहीं देखा गया।

अफ्रीका में बाढ़ के कारण हजारों लोग मारे गए।
अमेरिका के पेरु देष में लगातार बारिष के कारण 2300 वर्गमील का खाली स्थान एक बड़े सरोवर में तब्दील हो गया। अब वहाँ जमीन दिखाई ही नहीं देती।
अमेरिका में बर्फ के तूफान ने तबाही मचाई।
ग्रेट प्लेइंस में तेज हवा से की चपेट में आकर 124 लोग मारे गए।
मास्को में इतनी तेज हवा चली कि लोग डर गए, क्योंकि इसके पहले उन्होंने हवा का यह रौद्र रूप कभी नहीं देखा था।
चीन में यांग्त्से नदी में आई बाढ़ में करीब 500 लोग बह गए। नदी के किनारे टूट गए, तबाही का मंजर चारों ओर दिखाई देने लगा।
अमेरिका के केलिफोर्निया राज्य की नदियों में आई बाढ़ के कारण असंख्य लोगों ने जान गवाई।
फ्लोरिडा में आए झंझावात के बाद जोरदार बिजली गिरी, 2000 स्थानों पर आग लग गई, 5 लाख एकड़ जमीन के जंगलों का नाष हो गया। 25 अरब डॉलर की सम्पत्ति का नुकसान हुआ।
बलूचिस्तान जैसी सूखी जगह पर बारिष के बाद बाढ़ आ गई, सैकड़ों लोग बह गए। जहाँ लोग पानी के लिए तरसते थे, वही पानी उनकी मौत का कारण बना।
1998 में लैटिन अमेरिका के पेरुग्वे मानाग्वे और होंडुरास में बाढ़ से 10 हजार लोग मौत के षिकार हुए।
इंडोनेषिया में बिजली गिरने से जंगल जल गए, बहुत ही नुकसान हुआ।
दक्षिण अमेरिका के चीली के रेगिस्तान में बर्फ की बारिष हुई, जिससे एक फीट ऊँची बर्फ की परत जम गई।
1997 में अमेरिका के टर्की नदी में बाढ़ आने से हजारों लोग मौत के षिकार हुए।
तो ये थे, पिछले 10-12 बरसों में आई तबाही के किस्से। ऐसा नहीं है कि उक्त कारणों से जनजीवन पर कोई असर नहीं होता। इन कारणों से जनजीवन इतना अस्त-व्यस्त हो जाता है कि लोग महँगाई की मार से जूझने लगते हैं। मौसम का सबसे पहला असर समुद्र पर पड़ता है, तूफान से समुद्र की मछलियाँ उसमें फँस जाती हैं, इससे उनकी मौत हो जाती है। इस तरह के तूफानों के बाद यूरोप और अमेरिका में मछलियों की कीमतों में 25 प्रतिषत बढ़ोत्तरी हो जाती है। इंडोनेषिया में बेमौसमी बारिष से सोयाबीन की फसल को काफी नुकसान हुआ, फलस्वरूप सोयाबीन तेल की कीमतों में 40 प्रतिषत बढ़ोत्तरी हो गई।

यह सब हो रहा है प्ृथ्वी के गर्म होने के कारण। वैज्ञानिकों का मानना है कि जब तक पृथ्वी का गर्म होना जारी रहेगा, इस तरह के तूफान, बारिष, झंझावात, बर्फबारी, बिजली गिरने आदि प्रकोप जारी रहेंगे। सौ वर्षों में पृथ्वी का तापमान में एक डिग्री फैरनहीट की वृदधि देखी गई है। अभी गर्मी में ही पूरे देष में करीब 500 लोग मारे गए। यही हाल अतिवृष्टि से भी हो रहा है। लोग मर रहे हैं, मौसम विभाग की सारी भविष्यवाणी झूठी साबित हो रही है। समय हाथ से निकला जा रहा है। अब तक तो प्रकृति ने मानव को सहेजा, किंतु मानव प्रकृति को सहेजना नहीं सीख पाया, इसलिए अब प्रकृति ने स्वयं ही फेसला कर लिया है कि उसे क्या करना है।
प्रकृति अब हिंसक होने लगी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अब इंसान प्रकृति का प्रकोप देखेगा। ये प्रकोप क्या-क्या हो सकते हैं, जरा इस पर नजर डाल लें- पृथ्वी का तापमान बढ़ने से कृषि पैदावार कम होगी, नई तकनीकों से भले ही अधिक उत्पादन लिया जाए, पर वह फसल अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रखी जा सकेगी, पानी के लिए युध्द होगा, खूनी जंग होगी, लोग हरियाली देखने के लिए तरस जाएँगे, बारिष अधिक होगी, इससे चारों ओर पानी ही पानी होगा, जमीन कम होने लगेगी, विष्व की बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय होगी, किंतु प्रकृति इस समस्या को अधिक समय तक सहन नहीं कर पाएगी, इसलिए वह अपना संतुलन बनाए रखने के लिए विप्लव का सहारा लेगी। मौसम का बदला हुआ स्वरूप हजारों लाखों लोगों को अपने आगोष में ले लेगा। भविष्य में जहाँ आज पानी है, वहाँ की जमीन रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगी और जहाँ आज रेगिस्तान है, वह जगह पानी से सराबोर हो जाएगी।
यह तो हुई विष्व की स्थिति, अब भारत में क्या हो सकता है, यह जान लें, तो बेहतर होगा। हाल ही '' भारत में मौसम के परिवर्तन के प्रभाव'' पर हुए एक षोध में कहा गया है कि आगामी 70 वर्र्षो में भारत में अकाल की विभीषिका जोर पकड़ेगी, अल्प वर्षा और अतिवृष्टि के नजारे देखने को मिलेंगे, गर्मी और बढ़ेगी, मच्छरों से लेकर अन्य कीड़े-मकोड़ों की संख्या में बेतहाषा वृद्धि होगी, संक्रामक रोग फैलेंगे, बंगाल की खाड़ी में समुद्री तूफान बढ़ेंगे, नदियाँ सूख जाएँगी।
अब तक हमारा देष षट्ऋतुओं का देष कहलाता था, लेकिन मोसम के बदलते तेवर के कारण वह भी अनियमित हो जाएगा। कभी भी कोई भी ऋतु आ जाएगी। तब षायद इंसान भी अपना स्वभाव बदल देगा। वह भी पहले से अधिक आक्रामक हो जाएगा, संवेदनाओं से उसका नाता टूट ही जाएगा। लोग भावनाषून्य हो जाएँगे, मार-काट का दौर जारी रहेगा, हत्या जैसी बात अब और साधारण हो जाएगी। ऐसे में एक सभ्य समाज की परिकल्पना ही झूठी साबित हो जाएगी। एक बार सोचो, कैसा होगा उस समय का संसार?
; डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 29 मई 2008

नाम बदलेगा, शहर की तासीर नहीं....


डॉ. महेश परिमल
शेक्सपीयर ने कहा है कि नाम में क्या रखा है. पर सच तो यह है कि आज हर कोई नाम के पीछे ही भागा जा रहा है। हर जगह बड़े-बड़े नामों की ही चर्चा है। अब तो नामों के साथ खिलवाड़ भी शुरू हो गया है। लोग बड़ी तेजी से अपना नाम बदलने लगे या उसमेें फेरफार करने लगे हैं, समझ में नहीं आता कि उनका नाम क्या है और उनका उपनाम क्या है? नामों के इस चक्कर में अब हमारे देशके शहरों के नाम भी बदलने लगे हैं, गोया नाम बदले जाने से उस शहर का विकास तेजी से होने लगेगा। शहरों के नाम बदल जाने से कुछ लोगों की आत्मा को शांति मिलती होगी, पर उस शहर के मजदूर को तो उतनी ही रोंजी मिलती होगी, नाम बदल जाने से उसकी रोंजी में बढ़ोत्तरी तो नहीं होती होगी, फिर नाम बदलने का आखिर क्या अर्थ?
चेन्नई, कोलकाता, मुम्बई के बाद अब बेंगलोर का नाम बेंगालुरु करने की कवायद चल रही है, इससे किसको क्या लाभ होगा, यह तो किसी को नहीं पता, पर प्रांतवाद और भाषावाद के चलते हो रहे नामों के इस परिवर्तन से कई बार मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। बेंगलोर के नाम बदलने की राजनीति में अपना स्वार्थ देखने वाले क्या यह बता सकते हैं कि नाम बदलने से क्या उस शहर में बाहर से आने वाले लोगों को मूलभूत सुविधाएँ मिल जाएँगी? क्या उस शहर से सड़कों पर पसरा अतिक्रमण हट जाएगा? या फिर उस शहर के एक आम मजदूर को अधिक मजदूरी मिलने लगेगी? यह सब तो नहीं होगा, तो फिर आखिर नाम बदलने की इतनी होड़ क्यों?

आईटी का नाम आते ही बेंगलोर का नाम सबसे पहले लिया जाता है। यह वह शहर है,जहाँ कंप्यूटर का दिल धड़कता है। इंटरनेशनल स्तर पर टॉपटेन टेक्नीकल हॉट स्पॉट की सूची में बेंगलोर भी शामिल है। भारत का यह आईटी हब अब विश्व में आईटी क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम बन गया है। बेंगलोर का मतलब आईटी और आईटी का हॉट स्पॉट मतलब बेंगलोर। अब यह नाम सबकी जुबान पर चढ़ गया है। कर्नाटक के रजत जयंती वर्ष पर बेंगलोर सहित राज्य के अन्य सात शहरों के नाम बदले जाने की तैयारी भी हो चुकी है।
आईटी के क्षेत्र में तो यह कहा जा रहा है कि यदि आपका कार्यालय बेंगलोर में नहीं है, तो आप आईटी के क्षेत्र में हैं ही नहीं। विश्व की लगभग 1500 इंफोटेक कंपनियों की यहाँ ऑफिस है। अधिकांशउत्पादन इकाइयाँ यहाँ मौजूद हैं। भारत के 70 अरब डॉलर के साफ्टवेयर उद्योग का 75 प्रतिशत काम यहीं होता है। ऐसे में यदि इस ब्रांड का नाम बदला जाएगा, तो विदेशके लोग कैसे समझ पाएँगे? विश्व में अपना ब्रांड खड़े करने में बरसों लग जाते हैं, फिर इसे बाजार में प्रतिस्पर्धा के बीच सँभाल पाना भी एक दुष्कर कार्य है, ऐसे में एक शहर का नाम बदलने की तैयारी शुरू हो चुकी है। केंद्र सरकार ने भी इसके लिए हरी झंडी दिखा दी है।

अँगरेजों ने इस देशको 200 वर्षों तक गुलाम बनाए रखा, दस दौरान बेंगालुरु का नाम बेंगलोर हो गया। यह नाम इतना अधिक प्रचलित हो गया कि सबकी जुबान पर चढ़ गया। बोलने में सहज हो गया। अब नया नाम भले ही कन्नड़भाषियों को अच्छा लगे, पर 80 प्रतिशत अँगरेजी की गिरफ्त में रहने वाले इस शहर का नया नाम अँगरेजीदाँ लोगों को बिलकुल भी पसंद नहीं आएगा, यह तय है। यदि पुराने ही नाम वापस लाने हैं, तो वाराणसी, पाटलिपुत्र, कर्णावती, भेलसा, भोजपाल, गुवाहाटी आदि नाम भी अब क्या नए सिरे से जोड़े जाएँगे?
किसी भी शहर का नाम उस तरह से क्यों पड़ा, यह कोई नहीं बता सकता, पर इतना तो तय है कि लोग अपनी सुविधा अनुसार वस्तुओं या शहरों के नाम रख लेते हैं। शहरों के नामों पर भी ऐसा ही होता है। कई नामों को तो अँगरेजों ने ही बदला है, जो अब भी प्रचलित हैं। जब इस देशसे अभी तक अँगरेजी को ही नेस्तनाबूद नहीं किया जा सका है, तो उनके द्वारा दिए गए नामों के प्रति इतनी अधिक अरुचि आखिर क्यों? फिर तो बेंगलोर अँगरेजों द्वारा ही पोषित एक राज्य है। आखिर कंप्यूटर के क्षेत्र में उसे इतना अधिक महत्व इसलिए दिया गया कि वहाँ का पर्यावरण अँगरेजों के अनुकूल है। एक कोशिशबेंगलोर से अँगरेजी हटाने के लिए की जाए, तब शायद लोगों को समझ में आ जाएगा कि कितना मुश्किल है, नामों के साथ छेड़छाड़ करने में।

एक गरीब बालक का नाम सुखरु से बदलकर यदि विक्टर कर दिया जाए, तो क्या वह गायें चराने का काम छोड़ देगा? उसके गाँव का नाम पिटियाझर के बजाए पेंटागनी कर दिया जाए, तो क्या उस गाँव के लोगों की तकदीर बदल जाएगी। भाषा और प्रांतवाद के कारण यदि नामों से खिलवाड़ किया जा रहा है, तो यह अनुचित है। नाम के बजाए यदि वहाँ के नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं की ओर ध्यान दिया जाए, तो अधिक अच्छा होगा। क्या मद्रास का नाम बदल जाने से वहाँ के लोग सुखी हो गए, बम्बईवासी क्या अब यातायात समस्या से मुक्त हो गए, कलकत्तावासी अब गंगा के प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से मुक्त हो गए? यदि इन सबका जवाब हाँ में है, तो निश्चित रूप से उन शहरों का ही नहीं, बल्कि देशका नाम भी बदल जाए, तो किसी को कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 28 मई 2008

ऑंखों में पानी नहीं साहस का तूफान समाया है इन महिलाओं में


भारती परिमल
इरादे यदि हो बुलंद
तो बीच तूफान में समंदर भी रास्ता देता है।
पल-पल की कहानी लिखने को
समय खुद अपने हाथों से रोशनाई देता है।
भारतीय नारी महान है, यह उक्ति अब धुँधली पड़ने लगी है। अब तो यह कहा जा सकता है कि भारतीय नारी महानतम होने लगी है। अब कोई भी ऐसा क्षेत्र नही। बचा, जिसमें उसका दखल न हो। फिर चाहे राजनीति हो या खेल, विज्ञान का क्षेत्र हो या फिर कोई अन्य क्षेत्र। भाारतीय नारियों की एक बड़ी श्रृंखला है, जिन्होंने कई ऐसे क्षेत्रों में कदम रखा है, जहाँ अब तक पुरुषों का ही वर्चस्व था।
आज इक्कसवीं सदी में जीते हुए जब हम संपूर्ण विश्व की ओर देखते हैं, तो पाते हैं कि नारी शक्ति पूरी तरह से जाग्रत हो चुकी है। अपने इस्पाती इरादों के साथ वह लक्ष्य सिद्धि की ओर आगे बढ़ रही है। कड़ी मेहनत, योग्यता का सदुपयोग और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेने की स्वस्फूर्त प्रेरणा के द्वारा आज वह इतनी आगे निकल चुकी है कि उसकी शारीरिक और भावनात्मक निर्बलता भी उसके मार्ग की बाधा नहीं बन पाई। इसका ताजा उदाहरण देखने को मिला महामहिम प्रतिभा पाटिल में।
राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर आसीन श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश की सर्वप्रथम महिला राष्ट्रपति हैं। इन्होंने इस जवाबदारी को सँभालते हुए देश की अन्य प्रथम पंक्ति की महिलाओं की याद ताजा कर दी, जिन पर केवल नारी जाति को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण देश को गर्व है। राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर विराजमान प्रतिभा पाटिल को इस उपलब्धि के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उन्हें हाशिए पर लाने के लिए टीकाकारों ने कई दावपेंच खेले, किन्तु जीत बुलंद इरादों की हुई और वे अपने लक्ष्य तक पहुँच ही गई। जब उन्होंने अपने पद की शपथ ली, तो हर कहीं उनकी जीत की ही चर्चा हो रही थी। हर नारी की जबान पर उनका नाम था। चर्चा करते समय प्रत्येक नारी के मुख की गर्वीली मुस्कान यही कह रही थी, मानों वे स्वयं ही उस पद पर विराजमान हो। ।
ऐसा नहीं है कि हमारे देश में महिलाएँ कभी किसी उच्च पद पर रही ही नही। प्रधानमंत्री के पद पर आसीन स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी भी प्रथम महिला प्रधानमंत्री थी, जो अपने दृढ़ निश्चय से ही शीर्ष तक पहुँची। आज नारी ने हर क्षेत्र में उन्नति की है। यही कारण है कि आज वह केवल रसोईघर की रानी न होकर प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही है। उसकी रसोईघर वाली छवि धीरे-धीरे धूमिल हो रही है, किन्तु इसकी शुरुआत वर्षों पहले हो चुकी है।

सरोजिनी नायडू की बात करें, तो वे हमारे देश की एक प्रतिभावान महिला थी, जो स्वतंत्रता के बाद प्रथम महिला गर्वनर बनी। 'स्वर कोकिला' के नाम से जानी जाने वाली सरोजिनी नायडू राजनीति में होने के बाद भी सरल हृदय कवयित्री थी। राजनीति पैंतरेबाजी उनके स्वभाव का हिस्सा कभी न बन पाई। भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जिस प्रकार राष्ट्रपति भवन के दरवाजे बच्चों के लिए खुले रखते थे, उसी प्रकार सरोजिनी नायडू ने भी राजभवन के द्वार सभी के लिए खुले रख दिए थे। प्रत्येक व्यक्ति के साथ अपनेपन से मिलना उनके स्वभाव में शामिल था। इसी कारण वह सामान्य लोगों में लोकप्रिय हो गई थी। पुरूष जहाँ अपने रूखे स्वभाव के कारण कई कामों में पीछे रह जाता है, वहीं नारी मेलजोल एवं अपनेपन के कारण कई कठिनाइयों को पार कर लेती है। यह बात सरोजिनी नायडू में थी। वे अपने सरल एवं मूदुल व्यवहार के कारण सभी को अपना बना लेती थी। ।
उत्तर प्रदेश की प्रथम मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी को कौन नहीं जानता? 1963 में जब इन्होंने अपना पदभार सँभाला तो किसे पता था कि उनकी इस सफलता के साथ ही उत्तरप्रदेश महिलाओं के मामले में एक भाग्यशाली राज्य बनने जा रहा है। राजनीति के क्षेत्र में या अन्य कई क्षेत्रों में इस बीच कई बदलाव आए और हमेशा यह प्रदेश अपनी महिला प्रतिभा का लोहा मनवाता रहा। सुचेता कृपलानी कभी भी 'नोट और वोट' के लिए काम नहीं किया। वे एक अच्छी प्रबंधक थीं। उनके साथ काम करने वालों की राय उनके बारे में यही थी कि वे अत्यंत बुध्दिशाली महिला थीं। केवल विधानसभा सदस्यों के साथ ही अपनेपन से नहीं मिलती थीं, बल्कि वे सामान्य लोगों से भी अपनापे के साथ बात करती थीं। छोटे से छोटे लोगों की परेशानियों की ओर ध्यान देती थीं। यही कारण है कि उन्होंने अपने यहाँ काम करने वाली एक स्त्री की बंध्यत्व की पीड़ा को समझा और उसका अच्छे से अच्छे डॉक्टर के पास इलाज करवाया। परिणाम स्वरूप उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। अपनी व्यस्तताओं के बीच भी ऐसे सेवा कार्य के लिए समय निकाल लेना उनके स्वभाव में शामिल था।

अपने देश की प्रथम मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली की प्रथम महिला जज लीला शेठ किसी परिचय की मोहताज नहीं। इस महिला पर केवल गुजराती भाई-बहनों को ही नहीं, संपूर्ण देशवासियों को गर्व अनुभव होता है। दिल्ली हाईकोर्ट में जब उन्होंने न्यायमूर्ति की कुर्सी पर बैठ कर अपना पदभार संभाला, तो अनेक व्यक्ति केवल समाज में आए इस परिवर्तन को देखने के लिए ही उमड़ पड़े थे। 1971 में हिमाचल प्रदेश की हाईकोर्ट में उन्हें मुख्य न्यायाधीश के रूप में चुना गया। उसके पहले उन्होंने पूरे बारह वर्षों तक जज के पद पर आसीन होकर अपना कार्यभार ईमानदारी पूर्वक संभाला था। इसलिए उन्हें यह मुख्य पद दिया जाना अपने आपमें कोई आश्चर्य न था, किंतु खुशी इस बात की थीं कि वे देश की प्रथम मुख्य न्यायाधीश बनीं। इस सफलता को प्राप्त करने में उन्हें कई चुनौतियाें का सामना करना पड़ा। वे इस बात को अच्छी तरह जानती थीं कि कई टीकाकारों की नजरें उन पर गड़ी हुई हैं। इसलिए वे इस मामले में हमेशा सतर्क एवं अपने इरादों में दृढ़ रहीं।
अब हम बात करते हैं इंग्लिश चैनल पर करने वाली प्रथम ऐशियन महिला आरती शाह की। जब उन्होंने इस उपलब्धि को प्राप्त किया, तब वे केवल 19 वर्ष और 5 दिन की थीं। कोलकाता की इस बंग्ला संस्कृति को करीब से जानने वाली गुजराती बाला ने अपने दृढ़ नि ्चय के बल पर केवल 16 धंटे और 20 मिनट में ही 42 मील तैर कर ईंग्लिश चैनल को पार कर लिया। 1960 में उन्हें इस साहसिक कार्य के लिए पद्मश्री से विभूशित किया गया। उनके द्वारा यह साहसिक कार्य करने के बाद इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए महिलाओं के लिए राह खुल गई। कितने ही राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने के बाद आरती शाह ने ओलम्पिक में भी देश का नाम शीर्ष पर पहुँचाया। सन् 1952 में उनके साथ ओलम्पिक खेलों में हिस्सा लेने के लिए मुंबई की डॉली नजीर भी गई थीं। दोनों ने ही सेंडगेट में भारत की विजय पताका फहराई थी। ये भारत के खेल के इतिहास के सुनहरे क्षण थे, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।
कार रैली की बात करें, तो आमतौर पर यह पुरुषों का ही क्षेत्र माना जाता है। किंतु इस क्षेत्र में भी महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। सन् 2002 में हिमालय कार रैली मेें मारूति-800 कार में 18 पुरूषों के साथ स्पर्धा में आने वाली सारिका शेरावत ने आठवाँ स्थान प्राप्त किया। भारतीय कार रैली के भीष्म पितामह माने जाने वाले हरि सिंह से आशीर्वाद प्राप्त कर वे कभी पीछे नहीं रहीं। दोगुने जोश के साथ आगे बढ़ने वाली इस महिला ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और कार रैली में हमेशा साहसिकता के साथ भाग लिया। 2006 में स्पर्धा के दौरान उनकी जिप्सी पलट गई थी, तब वे गंभीर रूप से घायल हो गई थी, किंतु उनका मनोबल नहीं टूटा। ऐसी कई छोटी-मोटी दुर्घटनाओं को हँसते हुए झेलते ये महिला लगातार अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ती गई।
क्या आपने आग से जुड़ी हुई किसी दुर्घटना के समय अग्निशमन अधिकारी के रूप में किसी महिला को देखा है? आपको आश्चर्य होगा कि हर्शिनी कानेकर हमारे देश की प्रथम महिला अग्निशमन अधिकारी हैं। जब इंटरव्यू के दौरान बोर्ड के सदस्यों कहा कि वे अग्निशमन दल की ''किरण बेदी'' बनने जा रही हैं, तो उनके चेहरे पर साहस और उत्साह की मुस्कान खिल उठीं और दृढ़ संकल्प के साथ यह महिला अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने को तत्पर हो उठी।
साहस की साकार मूर्ति बचेन्द्री पाल को कौन नहीं जानता! माउन्ट ऐवरेस्ट पर भारत की विजय पताका फहराने वाली यह प्रथम भारतीय महिला बनीं। एक ऐसी पर्वतारोही जिन्होंने 13 वर्ष की छोटी उम्र में ही कुछ अलग कर दिखाने का निश्चय कर लिया। उनकी प्रेरणा बनीं- ईंदिरा गांधी की वे तस्वीरें, जो वे बचपन में अखबारों में देखी थीं। इन तस्वीरों ने उन्हें जीवन में कुछ नया कर दिखाने का जोश भर दिया। एक ग्रामीण बाला के लिए जहाँ साक्शर होना भी अपने आपमें एक उपलब्धि होता है, वो यदि स्नातकोत्तर करने के बाद माउन्टेनियरींग का कोर्स भी कर ले, तो यह एक आश्चर्य होता है। इसी आश्चर्य के साथ वे उस सपने को पूरा करने में लग गईं जो उन्होेंने बचपन में देखा था। 23 मई 1984 में उन्होंने माउन्ट एवरेस्ट पर जब भारत की विजय पताका फहराई तो भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर एक और नाम जुड़ गया।
भारतीय सफल महिलाओं की सूची इतनी लम्बी है कि उन्हें गिनाते हुए समय गुजर जाएगा, पर नामों की इतिश्री नहीं होगी। होनी भी नहीं चाहिए। आज महिलाएँ जिस साहस और उत्साह के साथ अपने लक्ष्य में आगे बढ़ रही है, उसमें कोई बाधा उन्हें डिगा नहीं सकती। किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, अरूंधती रॉय, हरिता देओल, सानिया मिर्जा, झूलन गोस्वामी, मेधा पाटकरे के अलावा कार्पोरेट जगत में नित नए नाम आ रहे हैं, जो अपनी सूझबूझ से लगातार आगे बढ़ रही हैं। इन महिलाओं ने हर क्षेत्र में साहस का परिचय दिया है। इससे यह कहा जा सकता है कि अब किसी भी महिला को चारदीवारी के भीतर बाँधना मुश्किल है, क्योंकि उसने अब अपना आसमान बना लिया है। अब उसे आवश्यकता नहीं है पुरुषों के सहारे की, अपने हाथों से अपना भविष्य लिखने वाली भारतीय महिलाएँ एक दिन पूरे विश्व में छा जाएँगी देखते रहना।
भारती परिमल

सोमवार, 26 मई 2008

साइड इफैक्ट देने वाली कई दवाएँ भारतीय बाजार में



डॉ. महेश परिमल
काफी दिनों बाद अपने शहर आ रहा था। घर पहँचने की जल्दी थी, इसलिए एक मोड़ पर बस के धीरे होते ही मैं कूद पड़ा, बारिश के कारण सड़क के किनारे की मिट्टी गीली थी, मैं गिर पड़ा। कई चोटें आई, फिर भी घर का मोह कम नहीं हुआ। सारा दर्द भूलकर घर पहुँच ही गया। मिलने-मिलाने का दौर शुरू हुआ, तो समय का पता ही नहीं चला। कुछ ही घंटों बाद पूरा शरीर दर्द करने लगा। पास ही मेडिकल स्टोर्स था, वहाँ जाकर कहा-कोई पेन किलर दे दो भाई, बहुत दर्द हो रहा है। वहाँ मुझे उसने ''नीमेसुलाइड'' देते हुए कहा-यह ले लो, अचूक दवा है, दर्द कुछ ही समय बाद खत्म हो जाएगा। दवा ने असर दिखाया, शरीर की पीड़ा तो जाती रही, पर कुछ नई तकलीफें शुरू हो गई। अब तो तय हो गया कि डॉक्टर के पास जाए बिना काम हो ही नहीं सकता। डॉक्टर ने कई टेस्ट लेने के बाद कहा-आपके लीवर में सूजन आ गई है, इसे ठीक करने के लिए कई दवाएँ लम्बे समय तक लेनी होगी। मुझे लगा-यह क्या हो गया, यह तो वही हुआ कि दवा खाओ और बीमार पड़ो।
नीमेसुलाइड या कह लें, निमेसुलीड गोली बुखार उतारने के लिए या पीड़ा कम करने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है, किंतु उसके ''साइड इफैक्ट'' बहुत हैं। कुछ समय पहले इस दवा के प्रयोग पर ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक आलेख में आपत्ति उठाई गई थी। चेन्नई की इंस्टीटयूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ के भूतपूर्व डायरेक्टर ने बच्चों को नीमेसुलाइड देने के विरोध में एक याचिका मद्रास हाईकोर्ट में प्रस्तुत की है, मामला अभी अदालत में ही है। इतना होने के बाद भी भारत सरकार ने यह आदेश जारी किया कि छह माह से कम उम्र के बच्चों को यह दवा न दी जाए। इस दवा के गंभीर परिणामों की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता किसी अधिकारी ने नहीं समझी।
फीनलैण्ड में पिछले वर्षएक हजार लोगों को यह दवा दी गई। इनमें से 100 मरीजों को उस दवा का साइड इफैक्ट हुआ। एक रोगी की तो मौत ही हो गई, लेकिन इससे प्रभावित अन्य कई मरीजों को लीवर ट्रांसप्लांट करवाना पड़ा। इससे फीनलैण्ड सरकार चौंक गई। मात्र 72 घंटे के अंदर ही फीनलैण्ड सरकार ने इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद तो स्पेन में भी इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इससे यूरोपियन यूनियन (EU) की मेडिकल प्रोडक्ट्स इवेल्यूएशन एजेंसी ने इस दवा से सचेत रहने की मुनादी की। अमेरिका में तो आज भी इस दवा पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन हमारे देश में यह आज भी बेखौफ बिक रही है। लोग खरीद रहे हैं, अपने शरीर का दर्द या बुखार कम कर रहे हैं और अपने लीवर को सूजा रहे हैं।

हमारे देश में एक बात तो सर्वविदित है, यहाँ हर तीसरे व्यक्ति के पास हर बीमारी का कोई न कोई तो इलाज है ही। वह ऐसे सुझाव देगा, मानों वह उस बीमारी का ही विशेषज्ञ हो। दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ पेन किलर तो लोग चन-मुरमुरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। गरीब आदमी के लिए क्या कोम्बीफेम, क्या बु्रफेन, क्या सुमो और क्या नीमेसुलाइड। सभी एक जैसी दवा है। वे इस खाते हैं और सो जाते हैं। यदि कुछ हो भी जाए, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि इस दवा के बारे में एक अखबार में प्रकाशित एक खबर में इस दवा को इंडियन मेडिकल काउंसिल ने ''सुरक्षित और निर्दोष'' बताया। इसमें एक सर्वे का जिक्र किया गया है। जिसमें 50 चिकित्सकों को शामिल किया गया था। यह तो सभी जानते हैं कि यह किस तरह का सर्वे हुआ होगा। सवा अरब की आबादी वाले इस देश में मात्र 50 चिकित्सकों ने यह सिध्द कर दिया कि नीमेसुलाइड इंसान के लिए सुरक्षित और निर्दोषहै। हमारे देश में गंभीर रूप से साइड इफैक्ट पैदा करने वाली दवाओं का परीक्षण पूरी ईमानदारी के साथ नहीं होता। इसकी कोई व्यवस्था भी नहीं है। हमारे राजनेता और सरकारी अफसर कितने बिकाऊ है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। दवा कंपनियाँ किस तरह से चिकित्सकों का मुँह बंद करती हैं, यह तो उनकी विदेश यात्राओं और शान-शौकत से पता चल जाता है। पर आम आदमी तो मात्र प्रयोग की एक वस्तु बनकर रह जाता है। ऐसे में डॉक्टरों की विदेश यात्राओं को किस तरह से सुरक्षित और निर्दोषकहा जाए?
यह बात केवल नीमेसुलाइड को ही लेकर नहीं कही जा रही है। ऐसी तो न जाने कितनी ही दवाएँ हैं, जो विदेशों में तो प्रतिबंधित हैं, लेकिन हमारे देश में खुले आम बिकती हैं। ये दवाएँ छोटी-छोटी शारीरिक पीड़ाओं को दूर करने के लिए ली जाती हैं, पर वे बड़ी-बड़ी व्याधियों का कारण बन जाती हैं। आखिर यह बड़ी-बड़ी दवा कंपनियाँ प्रतिस्पर्धा में टिकी कैसे रह सकती हैं भला बताओ। किसी भी दवा दुकान में जाकर सरदर्द या फिर सर्दी की दवा माँगो, तो वह दर्जन भर दवाओं के नाम बताकर पूछेगा कि इनमें से कौन सी दूँ? इनमें से एक दवा है एनाल्जिन। विश्व के अधिकांश देशों में इस दवा पर प्रतिबंध लग चुका है। डॉक्टरों की पाठय पुस्तकों में तो यह नाम तलाशने पर भी नहीं मिलेगा, पर हमारे देश में आज भी इसकी खुलेआम बिक्री हो रही है। यह दवा हर वर्ष20 करोड़ रुपए का कारोबार करती है। यह हमारे देश की विडम्बना है। इस दिशा में भारत सरकार की तरफ से यह घोषणा की जाती है कि विदेशों की तर्ज पर अब हमारे देश में भी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन जैसी चुस्त औषधि नियमन विभाग तैयार किया जाएगा। आज तक उस दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाया गया है। आज हालत यह है कि उपभोक्ता दो रुपए की दवा को 12 रुपए में खरीद रहा है। उसके बाद भी उसके साइड इफैक्ट से बच नहीं पा रहा है। इस तरह से वह दोहरी मार का शिकार हो रहा है।
देश भर में खूब बिकने वाली कुल 80 दवाओं में से कम से कम 23 दवाएँ ऐसी हैं, जो घातक कोम्बीनेशन की हैं। इसके लिए कई जागरूक चिकित्सक, समाज सेवियों ने समय-समय पर आवाज उठाई है, पर औषधि नियामक ने बहाने बनाकर उस आवाज को दबा दिया। सत्ता पर आसीन लोगों से कुछ होना संभव नहीं दिखता। उन्हें तो बस माल चाहिए, जो किसी न किसी तरह उन तक पहुँचता ही रहता है, बाकी लोगों के दु:ख दर्द से उनका कोई लेना-देना नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन दवाओं पर विदेशों मेें पूरी तरह से प्रतिबंध लगा है, वे दवाएँ हमारे यहाँ आखिर क्यों धडल्ले से बिक रही हैं? सरकार को आखिर कौन रोक रहा है? अभी कुछ बरस पहले ही मर्क कंपनी ने अपनी वियोक्स दवा, जो सूजन कम करने का काम करती थी, दुष्प्रभाव के संबंध में हल्ला मचने पर अंतराष्ट्रीय बाजार से उसे हटा लिया था। इस हल्ले से प्रभावित होकर हमारी सरकार ने इस पर प्रतिबंध तो लगा दिया, किंतु यह दवा आज भी चुपचाप बिक रही है, यहाँ तक कि डॉक्टर भी अपने प्रिस्क्रिप्शन में बेखौफ इस दवा का नाम लिख देते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि आखिर इसके पीछे है कौन? कहीं यह उच्च अधिकारियों और चिकित्सकों की मिलीभगत से तो नहीं हो रहा है? आश्चर्य तब होता है जब हम देखते हैं कि बंगला देश, भूटान और श्रीलंका जैसे छोटे से देश भी दवाओं के संबंध में कड़ा रवैया अपनाते हैं, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? शीर्शके दवा विशेषज्ञ कहते हैं कि हमें तो कुल साढ़े चार सौ दवाओं की ही आवश्यकता है, किंतु बाजार में एक ही दवा 10-12 ब्रांड से बेची जाती है। इसी का परिणाम है कि आज भारत के बाजार में कुल 40 हजार दवाओं का व्यापार फल-फूल रहा है। जिसमें से 75 प्रतिशत दवाएँ बेकार और नुकसानकारी हैं। हमारे देश के स्वास्थ्य मंत्री स्वयं भी एक चिकित्सक हैं, जब वे ही इन सबसे अनजान हैं, तो हमारा नसीब ही हमारे साथ है।
डॉ.महेश परिमल

शनिवार, 24 मई 2008

आकाश से मौत बरस सकती है मोबाइलधारियों पर


डॉ. महेश परिमल
पिछले साल ही ब्रिटेन में एक किशोरी मोबाइल से बात कर रही थी, उस समय खूब तेज बारिशहो रही थी, बादल गरज रहे थे, बिजली चमक रही थी और हवा भी काफी तेज चल रही थी। उक्त किशोरी मोबाइल के आकाशसे गिरने वाली बिजली के संबंध में कुछ भी नहीं जानती थी। अचानक ही आकाशमें बिजली कौंधी और वह बेहोशहो गई। बाद में जाँच में पता चला कि किशोरी के कान और मस्तिश्क को काफी क्षति पहुँची है। ''ब्रिटिशमेडिकल जर्नल'' में प्रकाशित यह घटना मोबाइल के आकाशीय बिजली के रिश्ते का उजागर करती है। यदि बारिशहो रही हो साथ ही बिजली भी कौंध रही हो, तो उस समय मोबाइल से बात करना अपनी जान को जोखिम में डालना है। यहाँ तक कि स्वीच ऑफ किया हुआ मोबाइल भी बारिशके समय अपने पास रखना खतरनाक है। भारत में मोबाइल बेचने वाली कंपनियाँ अपने उपभोक्ताओं को कभी नहीं बताती कि बारिशहोती हो और बिजली चमकती हो, तब मोबाइल का उपयोग न करें, किंतु ऑस्टे्रलिया सरकार ने मोबाइल उपभोक्ताओं के लिए एक मार्गदर्शिका बनाई है, जिसमें यह स्पश्ट किया गया है कि तेज हवा चल रही हो, बादल गरज रहे हों और बिजली की चमक दिखाई दे रही हो, तो मोबाइल अपने पास न रखें, यदि आप मोबाइल रखते हैं, तो आपकी जान को खतरा है।
इन दिनों पूरे देश में मानसून सक्रिय हो गया है, खूब तेज बारिशहो रही है। इसके साथ ही मोबाइलधारकोें की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, ऐसे में इन्हें कौन समझाए कि बारिशके समय मोबाइल अपने पास रखना कितना खतरनाक है। इन दिनों महानगरों ही नहीं, बल्कि शहरों और कस्बों में एफएम का चलन है। लोग अपने मोबाइल से एफएम सुनते हुए वाहन चालन करने लगे हैं। इस तरह से इस मौसम में वे किस तरह से अपनी जान को जोखिम में डाल रहे हैं, यह उन्हें नहीं पता और न ही मोबाइल बेचने वाली कंपनियों को। बारिशके समय मोबाइल से बात करने वालों का अचानक बेहोशहोना, बहरापन आना या फिर मृत्यु को प्राप्त होना, इस तरह की घटनाएँ सभी देशों में हो रही हैं। हमारे देश में भी हो रही होंगी, पर इसकी जानकारी अभी लोगों को नहीं है, विदेशों में इस तरह की घटनाएँ सामने आने लगी हैं, इसके पीछे मोबाइल भी एक कारण है, इसे अभी उन्होंने समझा है। हमने नहीं समझा है, हमें इसे समझने में अभी वक्त लगेगा। आइए जानें कि मोबाइल किस तरह आकाशीय बिजली को अपनी ओर आकर्शित करता है।
मोबाइल में धातु के अलग-अलग भाग होते हैं। ये धातु बिजली को अपनी ओर आकर्शित करते हैं। मोबाइल की संवेदनशीलता के ही कारण उसे पेट्रोल पम्प में उपयोग करने नहीं दिया जाता। उसमें व्याप्त तमाम धातु बिजली को अपनी ओर आकर्शित करने में सक्षम होते हैं। शहरों में बिजली गिरने की घटनाएँ इसलिए कम होती हैं, क्योंकि यहाँ आकाशीय बिजली को तुरंत जमीन में दाखिल कर देने की व्यवस्था होती है। शहरों में बिजली के सुचालक लगे होते हैं। लोगों ने अपने घरों में बिजली का मीटर लगाते समय देखा होगा कि मीटर से एक तार किस तरह से जमीन से जोड़ दिया जाता है, इस गङ्ढे में काफी नमक भी डाला जाता है। इसका आशय यही है कि आकाशीय बिजली सीधे उस माध्यम से जमीन पर चली जाती है। इसे लाइटनिंग अरेस्टर कहते हैं। आकाशमें विचरण करने वाले परिंदों पर जब भी बिजली गिरती है, तो वह उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त होता है। अब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि उड़ते विमान में बिजली गिरे, तब क्या होगा। जिन्हें विमान की तकनीक के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी है, वे जानते हैं कि सभी विमानों के ऊपर अलग-अलग भागों में ऐसे सेंसर लगे होते हैं, जो बिजली को एक सिरे से दूसरे सिरे तक धकेलकर बाहर की ओर भेज देते हैं। यूँ तो बारिशमें लोहे की डंडी वाली छतरी लेकर बाहर निकलना भी खतरनाक है। इसमें भी बिजली का वही नियम लागू होता है, जिसमें वह अपने सुचालक को खोजती है और उसके माध्यम से वह जमीन में चली जाती है। यह माध्यम यदि किसी इंसान के हाथ में है, तो उसे भी बुरी तरह प्रभावित करने से नहीं चूकती। बिलकुल यही गणित मोबाइल के साथ भी है। बिजली के स्वभाव से हम सभी परिचित हैं, पर वह मोबाइल के माध्यम से हमें प्रभावित कर सकती है, यह हमें अभी नहीं मालूम।

एक जानकारी के अनुसार विश्व में आकाशमें हर सेकंड 1800 से 2000 बादलों की गर्जना होती है। आकाशसे बिजली पृथ्वी पर 22,400 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गिरती है। इस संबंध में वैज्ञानिकों का मानना है कि आकाशमें रोज 44,000 बार बिजली चमकती है, किंतु सभी बिजलियों की चमक धरती पर मनुश्यों को दिखाई नहीं देती। इसका कारण बिजली और हमारे बीच बादलों की मोटी परत का होना है। ऐसा माना जाता है कि बादलों में जो बिजली होती है, उसका दबाव करोड़ों वोल्ट तक हो सकता है। जब पृथ्वी और बादलों के बीच विद्युत क्षेत्र की तीव्रता 36000 हजार वोल्ट प्रति सेंटीमीटर पहुँच जाती है, तभी वायु में अणु आयनित हो जाते हैं और बादलों की उग्रता पृथ्वी में समा जाती है। हमारे देश में हर वर्शबिजली गिरने से 900 से 1000 लोगों की मौत होती है। दूसरी ओर अमेरिका में मात्र 150 लोग ही मौत का शिकार होते हैं। इसका कारण यही है कि वहाँ बिजली के सुचालक अधिक लगे हैं। यह तय है कि आकाशीय बिजली को जमीन में जाने के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। फिर यह माध्यम कोई पेड़ भी हो सकता है और इंसान भी। गाँवों में जिस पेड़ पर बिजली गिरती है, वह एकदम ही काला हो जाता है। फिर उसमें संवेदना नाम की कोई चीज नहीं रहती। मानो उसे जला दिया गया हो। आकाशीय बिजली तत्क्शण ही किसी को भी जला देने में सक्षम होती है।
हमारे देश में जब सिगरेट के पेकेट और गुटखे के पाऊच पर यह सूचना अंकित होती है कि यह यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो फिर मोबाइल कंपनियों को भी अपने मोबाइल सेट पर आकाशीय बिजली से दूर रहने की सलाह देनी चाहिए। तभी मोबाइलधारक यह समझेंगे कि आकाशीय बिजली उनके लिए किस तरह उनकी जान भी ले सकती है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 23 मई 2008

अपराध का अवैध हथियारों से गहरा संबंध


डॉ. महेश परिमल
अपराध आज समाज का एक आवष्यक हिस्सा बनकर रह गया है। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो यह बच्चों को घुट्टी में मिलता है। यहाँ हथियार रखना बच्चों का खेल है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हथियार से दूसरों को नुकसान पहुँचता है। आज मीडिया अपराध समाचारों के बिना पंगु है। जिस अखबार और टीवी चैनल के पास अपराध की खबर न हो, तो उसका टीआरपी बहुत ही कम होता है। इसीलिए ही कहा जाता है कि अपराध आज समाज का एक आवश्यक अंग है, इसके बिना तो जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। एक सर्वेक्षण के अनुसार सन् 2005 में देशमें कुल 5643 हत्याएँ हुई, इसमें से 90 प्रतिशत हत्याएँ गैरकानूनी शस्त्रों से की गई। जब देशमें इतने असंवैधानिक शस्त्र हैं, तो क्या लायसेंसी शस्त्र बिलकुल नहीं हैं? प्रश्न स्वाभाविक है, पर उत्तर उतना ही कठिन, क्योंकि पिस्तौल, रिवाल्वर, गन, राइफल्स, कारतूस और दूसरे शस्त्रों का उत्पादन और विक्रय सरकार स्वयं ही करती है। हमारे देशमें शस्त्र खरीदना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए लोग अवैध शस्त्रोें की ओर आकर्शित होते हैं। ये शस्त्र अपेक्षाकृत सस्ते भी होते हैं, तो क्यों न इसे ही लिया जाए, इस सोच से वशीभूत होने वाले आज अपराध की दुनिया में अपना नाम कमा रहे हैं।
हमारी सरकार की मूर्खता के दो उदाहरण यह प्रस्तुत है- दिल्ली में हीरे-जवाहरात के व्यापारी की मौत के बाद उसकी बेटी से कारोबार सँभाला। पिता के नाम पर एक लायसेंसी रिवाल्वर थी, बेटी से उस रिवाल्वर को अपने नाम पर कराना चाहा, इसके लिए बाकायदा उसने आवेदन किया। महीनों तक चक्कर लगाने के बाद पुलिस से उसे रिवाल्वर रखने की अनुमति तो दी, पर उसके कारतूस के लिए अनुमति नहीं दी, अब आप ही सोचें कि यदि मुसीबत के समय उसे सचमुच ही रिवाल्वर की आवश्यकता आ पड़ी, तो क्या वह बिना कारतूस के अपनी रक्षा कर पाएगी? दूसरा उदाहरण- राश्ट्रीय या ओलम्पिक जैसे खेलों में शामिल होने वाले निशानेबाजों को उत्तम क्वालिटी की इम्पोटर्ेड गन की आवश्यकता होती है। पर इन्हें ये गन आसानी से उपलब्ध नहीं होती। हाँ राजनेताओं और अपराध की दुनिया के लोगों को इस तरह के हथियार आसानी से मिल जाते हैं, पर देशके निशानेबाजों को नहीं मिल पाती। नेशनल राइफल्स ऐसोसिएशन के महामंत्री बलजीत सिंह सेठी रोशभरे स्वर में कहते हैं कि यदि आप विश्वस्तर की प्रतिस्पर्धा जीत कर आ जाओ, तो एक बार संभव है कि आपको गन मिल जाए, पर विश्व स्तर की स्पर्धा को जीतने के लिए भी तो लगातार प्रेक्टिस की आवश्यकता होती है, इसके लिए भी तो गन चाहिए, पर इतनी छोटी सी बात हमारी सरकार की समझ में नहीं आती। यह एक हास्यास्पद स्थिति है।

आज से कुछ वर्शपूर्व हमारे देशके सैनिकों के हाथों में कबाड़ में रखे जाने वाले शस्त्र हुूआ करते थे। अब स्थिति में थोड़ा सुधार आया है और अब जवानों, अर्ध सैनिक बलों, कमांडो, सिनियर पुलिस अधिकारियों और वीवीआईपी की सुरक्षा में लगे स्टॉफ के पास ए. के. 47 दी जाने लगी है। कुछ वर्शपूर्व तक स्थिति काफी खराब थी। कारगिल युध्द के बाद एक सैनिक अधिकारी ने एक अखबार को दिए गए साक्षात्कार में यह बताया कि युध्द के दौरान एक स्थिति ऐसी भी आई थी, जब मेरे हथियार ने काम करना बंद कर दिया था, सामने से गोलियों की बौछारें आ रहीं थीं, मैं किस तरह से बचा, इसका मुझे आश्चर्य है। बहुत ही विकट स्थिति थी, आज जब भी उस स्थिति को याद करता हूँ, तो मेरी रुह ही काँप जाती है।
अपराधों पर अंकुशरखने के लिए सरकार ने सभी तरह के हथियारों का निर्माण और विक्रय का काम अपने हाथ में रखा है, दूसरी ओर बिहार और उत्तर प्रदेशमें देशी पिस्तौल और तमंचे बनाने वाले कारखाने दिन-रात चल रहे हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सरकारी शस्त्रों की अपेक्षा ये हथियार अधिक विश्वसनीय होते हैं। ये अच्छा काम करते हैं और समय पर धोखा नहीं देते हैं, यही इनकी विशेशता होती है। सरकारी हथियार आखिर क्यों नहीं बिकते? यह सवाल आसानी से समझा जा सकता है। पहली बात तो यह है कि सरकार खुले रूप में हथियार बेचना ही नहीं चाहती। दूसरी बात यह है कि इसके लायसेंस लेने की प्रक्रिया काफी पेचीदा है। इसके अलावा ये काफी महँगी साबित होती है।

आज पूरे विश्व में आतंकवाद पाँव पसार चुका है, इस स्थिति में देशकी सुरक्षा के साथ स्वयं की सुरक्षा भी एक पेचीदा सवाल है। सरकार जब शस्त्र का लायसेंस नहीं देती, तो लोग विदेशी शस्त्रों की ओर आकर्शित होते हैं। लेकिन सरकार यहाँ भी नहीं चूकी, उसने विदेशी शस्त्रों पर तीन गुना इम्पोर्ट डयूटी वसूल करती है। गन की कीमत यदि 60 हजार रुपए है, तो उस पर एक लाख 80 हजार रुपए से लेकर दो लाख रुपए तक आयात डयूटी वसूल करती है। तब फिर लोग क्यों न मेड इन उत्तर प्रदेशया फिर मेड इन बिहार के शस्त्राें की तरफ आकर्शित हों? सरकार की ढीली नीतियों के कारण ही आज अवैध शस्त्रों का बाजार गरमाया हुआ है। एक सेवानिवृत सैनिक अधिकारी का कहना है कि हमारे सरकारी कारखाने में निर्मित ब्रांड न्यू पिस्तौल से बेहतर है 1960 के जमाने की विदेशी पिस्तौल। यह बेहतर परिणाम देती है। हमारे ही देशमेें बनने वाली 60 हजार रुपए में बिकने वाली गन अंतरराश्ट्रीय बाजार में छह हजार रुपए में भी कोई खरीदने को तैयार नहीं है। यह है भारतीय सेना के लिए बनी पिस्तौल की स्थिति। ऐसे में भला सरकार पर कैसे विश्वास किया जाए कि वह अच्छे हथियार का निर्माण कर सकती है।
आजकल जो भी अपराधी मारा जाता है या फिर गिरोह पकड़ा जाता है, उसके पास से अवैध हथियारों का जखीरा ही पकड़ा जाता है। ये सारे हथियार हमारे देशके दो विशेशराज्यों में बने होते हैं, सारे अपराधी यहीं से हथियार चलाने का प्रशिक्षण लेते हैं, फिर बाद में हथियार भी खरीदते हैं। हमारे देशमें सबसे अधिक हथियार या तो राजनेताओं के पास हैं, या फिर फिल्म स्टार के पास। अब यह बात अलग है कि इनमें से कितनों को हथियार चलाना आता है। वैसे देखा जाए तो लायसेंसी हथियार अक्सर आत्महत्या करने के ही काम आते हैं। इससे सुरक्षा हो नहीं पाती। जेसिका लाल और भाजपा नेता प्रमोद महाजन की हत्या लायसेंसी हथियार से की गई थी, पर इस तरह के ऑंकड़े बहुत कम मिलते हैं। इस दिशा में सरकार जितनी सख्ती करती है, यह धंधा उतना ही फलता-फूलता है। जहाँ सरकार की विफलता होती हे, यह धंधा वहीं सफल होता है। आज पूरे देशमें जितने लायसेंसी हथियार हैं, उससे कई गुना अवैध हथियार हैं, जो अपराध की दुनिया में फैले हुए हैं।
; डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 21 मई 2008

डिप्रेशन की शिकार शिखर पर पहुँची हस्तियाँ


भारती परिमल
आज हर आदमी सफल होना चाहता है। हर किसी का संघर्शकेवल सफलता के लिए ही है। कोई नौकरी में, कोई व्यवसाय में तो कोई मीडिया में सफल होना चाहता है। कहा जाता है कि सफल होना आसान है, पर सफलता को बरकरार रखना बहुत ही मुश्किल है। आज वॉलीवुड में ऐसे न जाने कितने ही लोग हैं, जो पहले सफलता के उच्च शिखर पर थे, पर आज गुमनामी के अंधेरे में जीवन बिता रहे हैं। इनमें से कई तो ऐसे हैं, जो अब नशे के आदी हो चुके हैं। परवीन बॉबी जैसी अभिनेत्री तो अकेलेपन में ऐसे गुम हुई कि एक दिन उसकी लाशही उसके घर से मिली। आज राजेशखन्ना, मनोज कुमार, सुलक्षणा पंडित, प्राण के अलावा कई अभिनेता और अभिनेत्रियाँ हैं, जिनकी खबर कभी भी आ सकती है। ये सभी सफलता को पचा नहीं पाए। इसलिए गर्दिशके दिनों में जी रहे हैं।
हमेशा आर्कलाइट के सामने अपने अभिनय का प्रदर्शन करने वाले सेलिब्रिटी करोड़ो रूपए से खेलते हैं। अपने आसपास दर्शकों की भीड़ बनाए रखते हैं। उनके जीवनशैली की चकाचौंध से आम दर्शकों की ऑंखें विस्फारित हो जाना स्वाभाविक है, क्योंकि उनका जीवन आम लोगों से बिलकुल विपरीत होता है। इसीलिए हम हमेशा उनके प्रति आकर्शित रहते हैं। अखबारी दुनिया हो या रेडियो व टेलिविजन का संसार, हम हमेशा उनके जीवन से जुड़ी छोटी से छोटी बातें जानने को व्याकुल होते हैं। किंतु क्या आप जानते हैं लाखों-करोड़ों दिलों की धड़कन ये सेलिब्रिटी जिन्हें अपने प्रशंसकों के समूह से सुरक्षित रखने के लिए जहाँ सुरक्षागार्डो की आवश्यकता होती है, उन्हीं का जीवन हकीकत में एकदम सूनापन लिए हुए और हताशा से घिरा होता है ?
चकाचौंध भरी जिंदगी का पर्याय बने ये सेलिब्रिटी एक समय ऐसे दौर से गुजरते हैं कि ''दीया तले ऍंधेरा'' उक्ति को चरितार्थ करते नजर आते हैं। पैसा और प्रसिध्दि पाने के लिए हमेशा लालायित रहती ये सेलिब्रिटियाँ रात-दिन कड़ी मेहनत कर शीर्ष पर पहुँचती हैं और एक समय ऐसा आता है कि उनके हिस्से में केवल अकेलापन और दु:ख ही आता है। सफलता के पीछे का यह अकेलापन उन्हें निरंतर डिप्रेशन की ओर ले जाता है।
हॉलीवुड और बॉलीवुड के ये फिल्मी कलाकार लगातार डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं और अपने त्रासदीपूर्ण जीवन का बोझ ढोने को विवशहै। डिप्रेशन के कारण ये सनकी स्वभाव के बनते जा रहे हैं। अनियमित जीवनशैली, प्रेम में विफलता, जीवन में शुश्कता, प्रियजनों या माता-पिता का नैतिक सपोर्ट न मिलना आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जिसकी वजह से ये शराब और नशीले पदार्थो के आदी हो जाते हैं। जब नशे के इस जाल से बाहर निकलना उनके लिए संभव नहीं होता तो अंत में आत्महत्या कर जीवनलीला समाप्त कर देना ही इनकी विवशता है।
आखिर क्या कारण है कि अपने जमाने की चर्चित हस्तियाँ अपना समय गुजर जाने के बाद डिप्रेशन में आ जाती है ? उनके पास पैसा, प्रसिध्दि, सुख, समृध्दि सभी कुछ होता है, फिर भी वे निराशा से घिरे होते हैं क्योंकि पैसे से प्रेम और खुशी नहीं खरीदी जा सकती। आमतौर पर ये सेलिब्रिटी अपने शहर और परिवार से अलग होकर ही सफलता के सोपान चढ़ते हैं। इसमें थोड़ा-सी भी रुकावट आती है कि ये हताशहो जाते हैं। हिंदी फिल्म जगत के महान अभिनेता गुरुदत्त की मृत्यु अधिक मात्रा में ड्रग्स के सेवन से हुई थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे शराब के आदी हो चुके थे। फिल्म निर्माण के क्शेत्र की असफलता ने उन्हें भीतर से आहत कर दिया था। वे ज्यादा से ज्यादा समय एकांत में नशे की हालत में ही गुजारा करते थे। परवीन बॉबी का एकाकीपन उन पर इस कदर हावी हो चुका था कि वह किसी से मिलना भी पसंद नहीं करती थी। गुमनामी के ऍंधेरे में रहने के बाद एकाएक उनकी मौत की खबर ने सभी को चोंका दिया था। जाने-माने खलनायक प्राण की बात करें, तो हम पाते हैं कि वो एक ऐसे अभिनेता हैं जिनके नाम मात्र से ही दिलों में दहशत समा जाती है। कोई भी माता-पिता अपने बेटे का नाम प्राण्ा रखना पसंद नहीं करते। लोगों के दिलों में इस डर के साथ अपना स्थान बनाने वाले प्राण स्वयं अगोरोफोबिया का शिकार हो गए। किसी से मिलना तो दूर उन्हें ऊँचाई से भी डर लगने लगा। डर उन पर इस कदर हावी हो गया कि उनकी स्थिति देखकर यकींन ही नहीं होता कि वे कभी एक सफल खलनायक भी हुआ करते थे।

बॉलीवुड की बात करें तो 60 के दशक की ''सेक्स बम'' के नाम से जानी जाने वाली मर्लिन मुनरो ने भी नींद की गोलियों का अधिक सेवन कर मौत को गले लगाया था। जेनिस जोपलीन और जिमी हेन्ड्रीक्स जैसे रॉक्र्स भी हेरोइन और शराब के नशे के कारण मौत की आगोशमें चले गए थे।
मनोचिकित्सक के अनुसार लोगों की नजरों में बने रहने का मानसिक दबाव सेलिब्रिटियों को नशीले द्रव्यों और शराब का सेवन करने को बाध्य करता है। जानीमानी हस्तियों पर लोगों की नजरें हमेशा टिकी रहती है, इस मानसिकता के साथ जीना और हमेशा युवा बने रहने की लालसा इन्हें अधमरा बना देती है। मानसिक रूप से बीमार होकर ये नशीले पदार्थो का सहारा लेते हैं। इन पदार्थो के जाल से बाहर निकलना आसान नहीं होताहै। संजय दत्त, फरदीन खान जैसे फिल्मी कलाकार भी इस जाल में फँस चुके हैं। रिहेबिलीटेशन थेरेपी से नशे से मुक्ति पाना संभव है, किंतु इसके लिए जरूरत होती है-दृढ़ संकल्प की। इसके अलावा परिवार वालों का साथ, दोस्तों का अपनापन ये सभी नैतिक रूप से मददगार साबित होते हैं।
डिलीवरी के बाद कई अभिनेत्रियाँ डिप्रेशन की शिकार हो जाती है। ब्रिटनी स्पीयर्स और ब्रुक शील्ड इस दौर से गुजर चुकी हैं। ब्रिटनी ने अपनी पुस्तक ''डाउन कम द रेन'' में इस बात की पुश्टि की है कि पुत्री रोवन के जन्म के बाद वे डिप्रेशन में आ गई थी। वे दिन उनके सबसे बुरे दिन थे। जब वे अपने बीते दिनों को याद करते हुए उन्हें फिर से पाने के लिए बेताब हो गई थीं। डॉक्टर्स के अनुसार 60 से 90 प्रतिशत सेलिब्रिटी अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद कुछ सप्ताह तक एंजाइटी सिंड्रोम से पीडित होती है। यही कारण है कि ये हताशा के सागर में डूबती -उतराती हैं।
इस प्रकार का डिप्रेशन दूर करने में परिवार एवं दोस्तों की विशेशभूमिका होती है। अभिनेत्री से गायिका बनी सुचिता कृश्णमूर्ति बच्ची के जन्म के बाद पूरी तरह हताशा में डूब गई थी। उपचार के बहाने उनकी माँ और बहन उन्हें उसी पार्क में ले गई, जहाँ वे गर्भावस्था के दौरान सैर के लिए जाती थी। वहाँ मिलने वाले सभी उनके परिचित थे। उन्होंने उसे सांत्वना दी और समझाया। इस दौरान वे लगभग चीखते हुए रो पड़ी थी। बाद में उन्होंने इस बात को महसूस किया कि ईश्वर सभी समस्याओं को दूर करता है और यह मातृत्व उसी की तरफ से मिला उपहार है। इसे दिल से स्वीकार करना चाहिए।

कई अभिनेत्रियाँ फिगर मेन्टेन की फिक्र में ही डिप्रेशन का शिकार हो जाती है। शारीरिक सुंदरता को बनाए रखने के लिए डायटिंग ही एकमात्र शस्त्र होता है। लगातार परहेज के साथ जीने वाली ये सेलिब्रिटी कुछ न खा पाने की बंदिशके साथ डिप्रेशन में चली जाती हैं। हाई प्रोटीन आहार के कारण विटामिन का प्रमाण घटता है और चेहरे पर झुर्रियाँ दिखने लगती हैं। जाहिर है आइना झूठ नहीं बोलता, परिणाम स्वरूप हताशा आ घेरती है। ऐसे मामलों में पतला होना या बने रहना, हमेशा जवान बने रहना ही डिप्रेशन का मुख्य कारण होता है। भूख को मारने के कारण ये एनोरेक्सिया और बूलीमिया से पीडित हो जाती हैं। ऐसे मरीज को संभालना बहुत मुश्किल होता है। ये मरीर्ज डॉक्टर के पास जाने को तैयार नहीं होते। दुबली-पतली मॉडल या अभिनेत्रियाँ मानसिक रूप से भी कमजोर होती हैं।
कुछ फिल्मी हस्तियाँ अपने आपसे ही प्रेम करती है। 70 के दशक के प्रसिध्द अभिनेता राजेशखन्ना सेट पर बच्चों जैसी हरकतें और जिद कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्शित करने का प्रयास करें, तो इसे सुनकर आश्चर्य ही होगा। डॉक्टर इसे 'अहंप्रेम' मानते हैं। वे अपनी एक निश्चित इमेज को बनाए रखने के लिए ऐसी हरकतें करते हैं।
ये सेलिब्रिटियाँ सफलता का नशा ऑंखों पर चढ़ाए हुए जीने की लालसा में इस तरह अपना वर्तमान दांव पर लगा लेती हैं कि असफलता उन्हें बुरी तरह से तोड़ देती है। जबकि उन्हें मानसिक रूप से इस बात को समझने की आवश्यकता है कि सफलता और असफलता दोनों ही जीवन का एक अंग है। यदि एक को स्वीकार किया है, तो दूसरे को भी स्वीकार करना ही होगा। ऊँचाई पर रहने वाले ये विशिश्ट नामधारी भी है तो एक साधारण मानव ही। उनमें भी वे सभी कमजोरियाँ है, जो आम लोगों में होती हैं। वे अपने काम के कारण जाने जाते हैं, तो उस काम के प्रति ईमानदार रहते हुए उन्हें अपना आत्मविश्वास खोना नहीं चाहिए और जीवन के हर रूप को स्वीकार करना चाहिए।
भारती परिमल

मंगलवार, 20 मई 2008

खतरे में है भावी पीढ़ी का भविष्य


डॉ. महेश परिमल
एक बार किसी ने मजाक में कह दिया कि सन् 2035 में किसी एक दिन अखबार का एक शीर्षक लोगों को निश्चित रूप से चौंका देगा, शीर्षक होगा- एक महिला की नार्मल डिलीवरी हुई। यह बात भले ही मजाक में कही गई हो, पर सच तो यह है कि आजकल जिस तरह से सिजेरियन ऑपरेशन का प्रचलन बढ़ रहा है और माताएँ जिस तरह प्रसव वेदना से मुक्ति और इच्छित मुहूर्त में अपनी संतान का जन्म चाहते हैं, उसे देखते हुए तो अब नार्मल डिलीवरी किसी आश्चर्य से कम नहीं होगी। हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने शोध में यह चौंकाने वाला परिणाम दिया है कि यही हाल रहा, तो भावी पीढ़ी का भविष््य अभी से ही खतरे में है।
आजकल कोई भी शहरी बच्चा 'नार्मल' पैदा होता ही नहीं है। सुदूर गाँवों की स्थिति अच्छी है। इसका आशय यही हुआ कि आजकल जो बच्चे नार्मल पैदा नहीं हो रहे हैं, उसके पीछे शिक्षा का दोष् है। सिजेरियन ऑपरेशन से होने वाले लाभ और हानि की जाँच के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोर्धकत्ताओं ने लैटिन अमेरिका की 120 अस्पतालों में जन्म लेने वाले बच्चों की जाँच की, तो पाया कि इनमें से 33 हजार 700 बच्चे सिजेरियन ऑपरेशन से पैदा हुए थे, शेष 66 हजार 300 बच्चे नार्मल डिलीवरी से इस दुनिया में आए थे। इस शोध में यह चौंकाने वाली जानकारी मिली कि जिन महिलाओं ने बिना किसी आपात स्थिति जेरियन ऑपरेशन करवाया, उनकी मृत्यु दर में 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई। ऑल इंडिया इंस्टीटयूट ऑफ मेडिकल साइंस की गायनेकोलोजिस्ट डा. नीरजा भाटिया का कहना हे कि भारत में सिजिेरियन डिलीवरी की संख्या 5 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई है। इसकी मुख्य वजह यही है कि शिक्षित महिलाएँ आजकल प्रसूति पीड़ा से घबराने लगी हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में होने वाले 6 डिलीवरी में से एक प्रसूति तो सिजेरियन ही होती है। अमेरिका में तो यह संख्या 29.1 जितनी अधिक है। ब्रिटेन में 20 प्रतिशत महिलाएँ अपनी डिलीवरी सिजेरियन ऑपरेशन से ही करवाना पांद करती हैं। ब्राजील जैसे विकासशील देशमें तो यह संख्या 80 प्रतिशत तक पहुँच कगई है। भारत में अभी भी 70 प्रतिशत डिलीवरी सिजेरियन ऑपरेशन के माध्यम से ही हो रही है। इसके पीछे चिकित्सकों की अहम् भूमिका है। जो महिलाएँ नार्मल डिलीवरी चाहती हैं, उनकी ओर विशेष् ध्यान नहीं दिया जाता। उन्हें सिजेरियन ऑपरेशन के लिए बाध्य किया जाता है। सरकारी अस्पतालों में मात्र 20 प्रतिशत ऑपरेशन ही सिजेरियन होते हैं, क्योंकि इन अस्पतालों में पदस्थ डॉक्टरों को सिजेरियन ऑपरेशन करने से कोई आर्थिक लाभ नहीं होता।

आज शिक्षित और उच्च वर्ग की महिलाओं में सिजेरियन ऑपरेशन करवाने का फैशन ही चल रहा है। ब्रिटनी स्पीयर्स, एंजेलिना जॉली और मेडोना जैसी अभिनेत्रियों की राह पर आज की आधुनिक माँएँ भी चल रही हैं। शहर की नाजुक महिलाएँ भी प्राकृतिक रूप से होने वाली प्रसूति से घबराने लगी हैं। डॉक्टरों के सामने वे कई बार स्वयं ही सिजेरियन ऑपरेशन करवाने का आग्रह करती हैं। ये नाजुक महिलाएँ यह सोचती हैं कि सिजेरियन ऑपरेशन से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता। दूसरी ओर नार्मल डिलीवरी से शरीर को खतरा है। यहाँ तक कि जो माताएँ टेस्ट टयूब के माध्यम से माँ बनती हैं, वे भी अपना पेट चीरवाकर सिजेरियन ऑपरेशन करवाना चाहती हैं। पिछले कुछ वर्ष्ों में सिजेरियन ऑपरेशन से डिलीवरी होने का मुख्य कारण यह माना जा रहा है कि यह चिकित्सकों के लिए लाभकारी है। शिक्षित होने के कारण कई महिलाएँ आधुनिक टेक्नालॉजी पर अधिक विश्वास करती हैं, इसलिए वे भी सिजेरियन ऑपरेशन का आग्रह रखती हैं। कई बार तो स्थिति नार्मल डिलीवरी की होती है, फिर भी चिकित्सक सिजेरियन ऑपरेशन के लिए बाध्य करते हैं। दिल्ली की ऑल इंडिया इंस्टीटयूट की डॉ. सुनीता मित्तल का कहना है कि सिजेरियन ऑपरेशन आज हमारे देशमें एक संक्रामक रोग की तरह फैल रहा है।
एक बात ध्यान देने योग्य है कि जितने भी सिजेरियन ऑपरेशन होते हैं, उनमें से अधिकांशसुबह दस बजे से शाम 5 बजे तक ही होते हैं, वह भी शनिवार और रविवार को छोड़कर। ऐसा भी क्या होता होगा? नहीं, बात दरअसल यह है कि यदि रात में नार्मल डिलीवरी होनी है, तो चिकित्सकों को रात भर जागना पड़ेगा। इसके अलावा यदि चिकित्सक ने शनिवार या रविवार की डेट दी है, तो फिर हो गई छुट्टी खराब। ऐसे में कमाई भी नहीं होगी और धन भी नहीं मिलेगा। तो क्यों न नार्मल डिलीवरी वाले ऑपरेशन भी सिजेरियन कर दिए जाएँ और कमाई भी कर ली जाए। दूसरी ओर चिकित्सकों के अपने ज्योतिष् होते हैं या फिर जो महिलाएँ उन पर विश्वास करती हैं, वे शुभ मुहूर्त पर अपनी संतान को लाने का प्रयास करती हैं, इसके लिए तो सिजेरियन ऑपरेशन ही एकमात्र उपाय है। किसी भी अस्पताल में नार्मल डिलीवरी करानी हो, तो उसका खर्च चार से पाँच हजार रुपए आता है। वहीं सिजेरियन में मात्र शल्य क्रिया का ही खर्च 15 से 20 हजार रुपए आता है। यदि इसमें ऐनेस्थिसिया, सहायक, पेडियाट्रिशियन और अस्पताल के खर्च को शामिल कर दिया जाए, तो यह बढ़कर 50 हजार रुपए तक हो जाता है। मध्यम वर्ग के लिए तो यह खर्च करना आवश्यक हो जाता है। आजकल निजी अस्पतालों से जुड़े गायनेकोलोजिस्ट अपना वेतन तक नहीं लेते, वे जो सिजेरियन ऑपरेशन करते हैं, उनमें ही उनकी मोटी फीस शामिल होती है। ये कमाई दो नम्बर की होती है। हाल ही में मुम्बई के उपनगर घाटकोपर में एक गायनेकोलोजिस्ट के घर पर आयकर का छापा मारा गया, तो यह पाया गया कि उस महिला ने अपने पलंग के गद्दे में रुई के स्थान पर ठूँस-ठँसकर नोट भरकर उसे गद्देदार बनाया था। आजकल अधिकांश गायनेकोलोजिस्ट की कमाई सिजेरियन ऑपरेशन और गर्भपात से हो रही है।

सिजेरियन ऑपरेशन को निरापद मानने वाले यह भूल जाते हैं कि यह भी खतरनाक साबित हो सकता है। कोई भी सर्जरी बिना जोखिम के नहीं होती। इस ऑपरेशन में भी अधिक रक्तस्राव होता है, यह संक्रामक भी हो सकता है। दवाएँ भी रिएक्शन कर सकती हैं। बच्चे को जिन हथियारों से खींचकर बाहर निकाला जाता है, उससे भी उसे चोट पहुँच सकती है। सिजेरियन ऑपरेशन के बाद महिला को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने में काफी वक्त लगता है। इसके अलावा वह महिला पूरे जीवनभर भारी वनज नहीं उठा सकती। ऑपरेशन के तुरंत बाद माँ अपने बच्चे को दूध भी ठीक से नहीं पिला सकती। जबकि यह दूध बच्चे के लिए अमृत होता है। इस स्थिति में बच्चा माँ से अधिक आत्मीयता का अनुभव नहीं करता। यदि माँ सिजेरियन के लिए अधिक उतावली होती है, तब तक पेट में बच्चे का पूरी तरह से विकास नहीं हो पाता। नार्मल डिलीवरी में बच्चे के माथा एक विशेष् तरह के दबाव के साथ बाहर आता है, इससे उसका आकार व्यवस्थित होता है। पर सिजेरियन वाले बच्चे के माथे का आकार थोड़ा विचित्र होता है। इस तरह के बच्चेशवसन तंत्र के रोगों का जल्दी शिकार होते हैं।
आजकल प्रसूति के पहले डॉक्टर कई पेथालॉजी टेस्ट के लिए कहते हैं। इसमें अल्ट्रासोनोग्राफी से लेकर डोपलर टेस्ट भी होता है। इस थोकबंद टेस्ट में यदि किसी एक की भी रिपोर्ट में थोड़ा-सा ऊँच-नीच हुआ, तो डॉक्टर मरीज को डरा देते हैं और सिजेरियन ऑपरेशन की सलाह देते हैं। डॉक्टर की इस सलाह के खिलाफ जाने वाली बहुत ही कम माताएँ होती हैं। मरीज की इस स्थिति का लाभ चिकित्सक खूब उठाते हैं और खूब कमाई भी करते हैं। एक तरफ विदेशमें अब नार्मल डिलीवरी के लिए क्लासेस शुरू की जा रही हैं और भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी अधिकांशडिलीवरी नार्मल हो रहीं हैं, ऐसे में केवल शहरों में ही सिजेरियन ऑपरेशन का चस्का शिक्षित महिलाओं को लगा है। बालक का जन्म एक प्राकृतिक घटना है, डॉक्टरों ने अपनी कमाई के लिए इसे कृत्रिम बना दिया है। यदि हमस ब प्रकृति की ओर चलें, तो हम पाएँगे कि वास्तव में संतान का आना प्रकृति से जुड़ा एक अचंभा है, न कि डॉक्टरों की कमाई का साधन। आज यदि यह कहा जाए कि आज की टेक्नालॉजी का अभिशाप सिजेरियन ऑपरेशन है, तो गलत नहीं होगा।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 19 मई 2008

मोबाइल मेसेज और डिप्रेशन की शिकार युवापीढ़ी


भारती परिमल
बीप... बीप... बीप... मोबाइल पर मेसेज का सिगनल आया और मोबाइलधारी जो कुछ समय पहले बाहरी दुनिया से जुड़ा हुआ था, वह एकदम से उससे कट गया और पहुँच गया मोबाइल से जुड़ी एक छोटी सी दुनिया में। मोबाइल की दुनिया छोटी इसलिए कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नति करता जा रहा है, लोगों से हमारा जुडाव कम से कमतर हाो चला जा रहा है। एक समय था, जब हमारे पास अपने स्नेहीजनों से मिलने के लिए सशरीर उनके पास पहुँचने के सिवाय और कोई उपाय न था। लोग तीज-त्योहार पर ही नहीं यूँ ही इच्छा होने पर एक-दूसरे के हालचाल जानने के लिए समय निकाल कर घर मिलने के लिए जाते थे। घंटों साथ बैठकर दु:ख-सुख की बातें करते थे। गप्पों की थाली में अपने अनुभवों की वानगी एक-दूसरे को परोसते थे। फिर समय ने करवट ली और पत्र लिखने का दौर आया। अब जब मिलने जाना संभव न होता, तो लोग लम्बे-लम्बे पत्रों के माध्यम से अपने दिल का हाल सामने वाले को सुनाते थे और उसकी खैर-खबर पूछते थे। स्नेह की पाती पर अपनेपन के उभरे हुए अक्षर और अंत में स्वयं के स्वर्णिम हस्ताक्षर से सुसाित पत्र जब अपनों के द्वार पर पहुँचता था, तो ऑंखों में दूरी का भीगापन भी होता था और दूर होकर भी पास होने की चमक भी झलक आती थी।
पत्रों की यह दुनिया अपनी धीमी रफ्तार से आगे बढ़ ही रही थी कि विकास का एक और साधन हमारे घर की शोभा बन गया। टेलिफोन ने घर-घर में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। अब लोगों को एक-दूसरे के हालचाल पूछने के लिए मिलने जाने या पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं थी। फोन के माध्यम से ही वे एक-दूसरे से बातें कर लिया करते थे। स्वजनों से मिलने का सिलसिला कम होता चला गया। पत्र लिखना तो मानों छूट ही गया। जबकि पत्र अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। पत्र में जिस तरह से अपनी भावनाओं को उँडेला जा सकता है, वह फोन में संभव नहीं है। पत्र को लम्बे समय तक सहेजकर रखा जा सकता है। पत्र में लिखे गए अक्षर व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। लोगों ने इस बात को महसूस भी किया, किंतु समय की कमी और व्यस्तता के बीच इस प्रगति को स्वीकार करना ही विवशता थी।

आज भी फोन का अपना महत्व है। फोन से लाभ है, तो नुकसान भी। फोन पर की जानेवाली बातचीत में आमने-सामने मिलने जैसी आत्मीयता नहीं होती, किंतु उसके बाद भी ध्वनि के माध्यम से एक-दूसरे की भावनाओं को समझा जा सकता है। अपनी खिलखिलाहट से खुशी जाहिर की जा सकती है, तो सिसकियों के द्वारा अपने दु:ख को भी महसूस करवाया जा सकता है। फोन के माध्यम से अपनेपन को बाँटा जा सकता है, किंतु इससे मिलने वाली खुशी को देखा नहीं जा सकता।
आज है एसएमएस का जमाना। संदेश संप्रेषण का सबसे आधुनिक माध्यम- मोबाइल द्वारा एसएमएस करना और अपनी बात सामने वाले तक पहुँचाना। बात पहुँचने के बाद उस पर उसकी क्या प्रतिकि्रया हुई इस बात से बिलकुल अनजान रहना। क्योंकि यह संप्रेषण का एकतरफा माध्यम है। मोबाइल द्वारा एसएमएस भेजना भावनाओं को व्यक्त करने के बजाए उन्हें छुपाना है। किसी को सॉरी कहने के लिए उसे महसूस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस, मैसेज बॉक्स में सौरी लिखा और भेज दिया। एक सेकन्ड में यह मैसेज सामने वाले तक पहुँच जाएगा। मैसेज का आदान-प्रदान वन-वे ट्रेफिक है। आप सामने वाले को आघात तो पहुँचा सकते हैं, पर उसके प्रत्याघात से बचा जा सकता है। एसएमएस के माध्यम से किसी का दिल एक पल में तोड़ा जा सकता है, किंतु उसके टूटने की आवाज को सुना नहीं जा सकता।

एसएमएस का फैशन जिस तेजी से बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से आत्मीयता खत्म होती जा रही है। मोबाइल के द्वारा एसएमएस से विवाह हो रहे हैं, तो एक ही क्षण में तलाक भी लिए जा रहे हैं। एसएमएस की आकर्षक दुनिया लोगों को करीब ला रही है, तो उनके बीच दूरियाँ भी बढ़ा रही है। हॉलीवुड अदाकारा ब्रिटनी ने मोबाइल मैसेज के माध्यम से एक तरफ मोबाइल का महत्व बढ़ा दिया, तो दूसरी ओर वैवाहिक जीवन के महत्व को भी क्षण भर में कम कर दिया। टेक्स्ट मैसेज का उपयोग बातचीत करने के लिए कम और बातचीत टालने के लिए अधिक किया जाता है। कॉलेज के युवा तो अपने मित्राें से केवल एसएमएस के माध्यम से ही बातें करते हैं। भावनाओं की अभिव्यक्ति को इसने बिलकुल निष्प्राण बना दिया है। आपको आश्चर्य होगा, किंतु सच यह है कि आज की युवापीढ़ी को भावनाओं की अभिव्यक्ति के प्रति रूचि भी नहीं है। वे इसे समय बरबाद करने के अलावा और कुछ नहीं मानती।
इस व्यस्त दिनचर्या और एसएमएस में सिमटी दुनिया युवापीढ़ी को मानसिक रूप से बीमार बना रही है। मोबाइल से भेजे जानेवाले एसएमएस इतने छोटे होते हैं कि उसमें भाषा की दरिद्रता साफ झलकती है। साथ ही विचारों और भावनाओं की दरिद्रता भी छुप नहीं सकती। इसे न तो प्रिंट के माध्यम से अपने पास फाइल में सुरक्षित रखा जा सकता है न ही मैसेज बॉक्स में लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता है।

आज के आधुनिक उपकरण मानवीय शक्तियों को बढ़ा रहे हैं, किंतु साथ ही उसकी भावनाओं को कुंठित कर रहे हैं। एक-दूसरे को यूं तो मोबाइल के माध्यम से कुछ सेकन्ड में ही सुन सकते हैं, मैसेज के माध्यम से वैचारिक रूप से मिल भी सकते हैं, किंतु अपनेपन की खुशी या गम बाँटने में ये माध्यम बिलकुल निरर्थक है। एसएमएस के इस क्रांतिकारी अविष्कार ने युवाओं को अकेलेपन का ऐसा साम्राय दिया है कि उसके मालिक वे स्वयं हैं। इसकी खुशी बाँटने के लिए भी आसपास कोई नहीं है। नीरवता का यह संसार उन्हें लगातार डिप्रेशन की ओर ले जा रहा है। तनाव का दलदल उन्हें अपनी ओर खींच रहा है और युवापीढ़ी है कि मानसिक रोगी बनने के कगार पर पहुँचने के बाद भी हथेली में सिमटी इस दुनिया से बाहर ही नहीं आना चाहती। बीप..बीप.. की यह ध्वनि भविष्य की पदचाप को अनसुना कर रही हैं। फिर भी युवा है कि इस बात से अनजान अपनेआप में ही मस्त है। समाज में बढ़ते इन मानसिक रोगियों के लिए कौन जवाबदार है वैज्ञानिक या स्वयं ये मानसिक रोगी बनाम आज की युवापीढ़ी? जवाब हमें ही ढूँढ़ना होगा।
भारती परिमल

शनिवार, 17 मई 2008

एक दिन के लिए हम सब एक हो जाएँ


डॉ. महेश परिमल
बिजली महँगी हो गई, कुछ दिन बाद गैस महँगी हो जाएगी।पेट्रोल के दाम भी बढ़ ही रहे हैं। ट्रेन यात्रा भी बहुत जल्द महँगी होने जा रही है, तय है बस-यात्रा पर भी इसका असर होगा। बच्चों की स्कूल की फीस हर साल बढ़ती है, साथ ही बढ़ जाते हैं स्कूल संचालकों के नखरे। डाक खर्च बढ़ गया, बरसों हो गए, किसी को चिट्ठी नहीं लिखी। सारी बातें फोन पर ही हो जाती है। ये सब आम आदमी के आसपास कसते शिकंजे हैं, जिनसे वह अनजान है। उसका जीना मुश्किल हो रहा है। हालात जीने नहीं देते, कानून मरने नहीं देता। ऐसे में इंसान क्या करे?
मुझे याद है, बचपन में पिताजी ने कहा था- बेटा, गेहूँ बारह आने से चौदह आने किलो हो गया है। कैसे जी पाएँगे इस महँगाई में। सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए महीने की फीस जो मात्र आठ रूपए थी, उसे देने में हालत खराब हो जाती है। पिता मजदूर थे, जिन्दगी भर मजदूर ही रहे। पर आज जमाना बहुत आगे बढ़ गया है। जो जहाँ है, वह वहाँ रहना ही नहीं चाहता। उसे प्रगति प्यारी है। वह शार्टकट से ही सही, तेजी से आगे बढ़ना चाहता है। वह बढ़ भी रहा है, पर बहुत कुछ अपनापन छोड़कर।
सरकार की तमाम नीतियाँ आम आदमी को कागज में खास बना रही है, उसका जीवन स्तर सुधार रही हैं, उसे रोजगार के अवसर प्रदान कर रही है। इसे जानकर और कुछ पढ़क रवह आम आदमी इसे समझने का प्रयास करता है। सच्चाई से कोसों दूर सरकारी कागजी पुलाव उसे कुछ क्षणों के लिए भरमा रहे हैं। इस भरम को वह अपने बच्चों को नहीं खिला पाता, बच्चों को चाहिए भोजन। कहाँ से जाए उनके लिए भोजन? मजदूरी के पैसे से पेट भी मुश्किल से भर पा रहा है।
हम सब एक हैं, यह नारा अक्सर सुनाई देता है। युध्द के समय तो हम ऐसा प्रदर्शित भी करते हैं, पर क्या हम सचमुच एक हैं? एक अधिकारी केवल हस्ताक्षर करता है, लाखों पाता है, एक मजदूर दिन-भर हाड़-तोड़ मेहनत करता है, रोटी मुश्किल से खा पाता है। धनाढय बस्तियों के पास झुग्गी बस्ती भी होती है। दोनों का जीवन स्तर अलग-अलग है। फिर कैसे हम एक हैं?
यही बात है कि आम आदमी की याने इस मध्यमवर्गीय परिवार की हालत बद से बदतर होती जा रही है। गरीब ठंड में हाथ-पाँव सिकोड़कर, गर्मी में सड़क किनारे सोकर और बरसात में किसी के बरामदे में रात गुजार सकता है, पर मध्यमवर्गी! उसे तो गैस भी खरीदनी है, पेट्रोल भी खरीदना है, ट्रेन-बस में यात्रा भी करनी है, और बच्चों को बेहतर शिक्षा भी देना है, वह क्या करे? वह चीख नहीं सकता, वह कोई अनहोनी भी नहीं कर सकता।ऐसे में ''हम एक हैं'' का नारा कितना बेमानी हो जाता है?

जापान की एक जूता कंपनी थी। वहाँ के कर्मचारियों को अपनी माँगे मनवानी थी। प्रबंधन इसके लिए तैयार न था तब कर्मचारियों ने एक निर्णय लिया। उन्होंने केवल एक पाँव का जूता बनाना शुरू कर दिया। उत्पादन तो ठीक रहा, पर कुछ काम का नहीं था। अंत में प्रबंधन को कर्मचारियों की बात माननी पड़ी। वे सब समस्याओं का समाधान करने में एक थे। इसलिए अपनी बात उन्होंने मनवा ली। क्या हम सब मिलकर कुछ ऐसा नहीं कर सकते?
मान लो दूध का दाम बढ़ गया।क्या एक दिन के लिए ही सही हम दूध न लें? सोचो हमारे इस एक कदम से लाखों पैकेट दूध वापस डेयरी में जाएगा और बरबाद हो जाएगा। तब प्रबंधन को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना ही पड़ेगा।
स्कूलों में फीस बढ़ गई। क्या सारे पालकगण एक होकर स्कूल प्रबंधन पर दबाव नहीं डाल सकते? आप सोच सकते हैं, क्या गुजरेगी स्कूल प्रबंधन पर? मत खरीदें, पेट्रोल, मत खरीदें गैस। क्या हम ऐसा एक दिन के लिए भी नहीं कर सकते? क्या केबल लगाकर टी.वी. देखना जरूरी है? बच्चाों की परीक्षा के समय तो केबल कटवा देते हैं, क्या तब उसकी कमी नहीं खलती? तब वह क्यों जरूरी हो जाता है, हमारे लिए?
क्या हम एक होकर इन मोर्चो पर मुकाबला नहीं कर सकते? आज मानव इसलिए दु:खी है, उसकी आवश्यकताएँ बहुत ज्यादा है। आवश्यकताएँ सीमित हो जाएँ, तो परेशानी भी कम हो जाए। हम बहुत ज्यादा निर्र्भर रहने लगे हैं। आत्म निर्भरता खत्म होते जा रही है। देश भले आत्मनिर्भर हो जाए, पर हम कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाएँगे। हमने भी दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियाँ सुनी है। उन्हीं की गोद में खेले कूदे, बड़े हुए। हम तो आज खुद को किसी से कम नहीं पाते। फिर आज हमारे बच्चों को हम उनके दादा-दादी या नाना-नानी के बीच क्यों नहीं रख पाते?
शहरों में इन दिनों वृध्दाश्रमों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, कभी उन बुजुर्गों की हालत पर ध्यान देने की कोशिश की है? शायद नहीं, हम उनका दु:ख समझना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि हम एक नहीं है, हममें ही विभिन्नता है। कई नकाब है हमारे चेहरे पर। पत्नी, बच्चे, बॉस, दोस्त, सहकर्मी, प्रेयसी इन सभी से हम अलग-अलग नकाब चढ़ाकर मिलते हैं। ऐसे में हम कैसे विश्वास कर लें कि हम एक हैं?
हमें एक होना चाहिए। हमें एक होना ही होगा, नहीं तो हमारा जीना मुश्किल हो जाएगा। हम सभी जानते हैं कि एकता में शक्ति होती है। फिर हम सब एक क्यों नहीं हो पा रहे है? क्यों हम सभी अपनी-अपनी लड़ाई अपने-अपने मोर्चो पर लड़ रहे हैं? देखा जाए, तो हम स्वकेन्द्रित हो गए हैं। हम अकेले जीना चाहते हैं, अपने गम और परेशानियों के साथ, खुशियाँ बाँटने में भी हम कंजूसी करने लगे हैं। हमें डर है कि हमारी खुशी से किसी को र् ईश्या हो सकती है। जोश की बातें भी दबे स्वरों में करने लगे हैं। ''एकता में ताकत है'' का विज्ञापन हमारी ऑंखों के सामने से हवा के झोंके की तरह गुजर जाता है, हममें कोई हलचल भी नहीं होती। क्या हो गया है हमें?
यदि हम एक दिन केवल एक दिन के लिए ही एक होना सीख जाएँ, तो संभव है, कई समस्याएँ दूर से ही भागने लगेंगी। हमारी एकता लोगों में खौफ को भी पछाड़ कर सकती है। हमें उन खौफजदाओं को मिलाना होगा, ताकि वे अपना डर छोड़े और हमारे साथ प्रगति की मुख्य धारा में शामिल हो सके। हमें अपनी सोच को विशल कैनवास देना होगा। तभी हम स्वकेन्द्रित न होकर ऐसी धुरी बन पाएँगे, जिसमें सभी की समस्याएँ खुद ही समस्या बनें। इस दिशा में हमें केवल यही करना है कि एक कदम- बस एक कदम ईमानदारी से बढ़ाना होगा, हमें पता ही नहीं चलेगा। एक कदम आप ईमानदारी से उठाएँ बस......।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 16 मई 2008

हिंदी प्रेमियॊं के लिए दॊ अच्छी खबरें


अमेरिका में हिंदी बन रही है वैकल्पिक भाषा
वाशिंगटन। अमेरिका में बड़ी संख्या में रह रहे गैर अंग्रेजी भाषी प्रवासी समुदायों में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी उर्दू की स्वीकार्यता से चकित अमेरिकी समाज भी इसे अपनाने को तैयार हो रहा है।
दुनिया भर से विभिन्न भाषा भाषी समुदायों के लाखों लोगों के अमेरिका में आ बसने के साथ ही इन वर्गो में सांस्कृतिक चुनौतियां सामने आ रही हैं जिनमें भाषा की समस्या प्रमुख है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एशियाई भाषा एवं साहित्य विभाग के प्रोफेसर डा. एमजे वारसी देश में हो रही इस दिलचस्प क्रांति का बयान करते हुए बताते है कि गैर अंग्रेजी भाषी पृष्ठभूमि के अफ्रीकी, एशियाई लैटिन अमेरिकी आदि देशों के लोगों के परिवारों के बच्चे स्कूलों में शिक्षा पाकर फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगते हैं लेकिन मां बाप की अंग्रेजी समझ तो लेते हैं लेकिन बोलने में दिक्कत आती है। इसीलिए वे जवाब हिन्दी या उर्दू में देते हैं। डा. वारसी के अनुसार ऐसे माता-पिता हिंदी या उर्दू बहुत आसानी से सीख लेते हैं। बच्चों को भी इस भाषा में बात करने में अच्छा लगता है। उनके अनुसार 11 सितंबर के हमले के बाद अमेरिका में एक सकारात्मक परिवर्तन भी आया है। यहां के समाज में दूसरे समुदायों की संस्कृतियों एवं धर्म को जानने की इच्छा जागृत हुई है। ऐसे में इस्लाम को समझने जानने का माध्यम उर्दू बनी। अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों में भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश और अफगानिस्तान के लाखों विद्यार्थियों का जमावड़ा है, इन सबकी संपर्क भाषा हिंदी उर्दू ही है। इन विश्व विद्यालयों में दक्षिण एशिया छात्र संघ गठित किए गए हैं जो प्रति सेमेस्टर सांस्कृतिक सप्ताह का आयोजन करते हैं। डा. वारसी ने बताया कि दक्षिण एशियाई छात्र संघ विश्वविद्यालय परिसरों में ईद, होली, दीवाली, दशहरा आदि सभी त्यौहार मनाते हैं तथा नृत्य एवं संगीत समारोह, कवि सम्मेलन और मुशायरों का भी आयोजन करते हैं। उन्होंने बताया कि मुस्लिम समाज में उर्दू के प्रचलन को सकारात्मक ढंग से लिया गया है। दक्षिण एशिया की एक 51 वर्षीय महिला आबिदा सादिक ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए कहा कि इससे उनके बच्चों को अपनी जड़ों को पहचानने में मदद मिलेगी। बात यही तक सीमित नहीं है। अमेरिकी समाज भी हिंदी-उर्दू के चलन को अपनाने के लिए तैयार दिखता है। हाल ही में लखनऊ से उर्दू की पढ़ाई कर लौटे वाशिंगटन विश्वविद्यालय के छात्र स्टीकन विल्सन का कहना है कि भाषा सिर्फ संचार का माध्यम ही नहीं बल्कि समुदाय के सामूहिक इतिहास एवं विरासत का आइना है।

अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों को हुआ हिंदी से प्रेम

नई दिल्ली। अंग्रेजी भाषा के बढ़ते वर्चस्व के बीच हिंदी के दीवानों के लिए एक अच्छी खबर है। पेंग्विन के बाद हापर कालिंस ने हिंदी साहित्य के प्रकाशन का रुख किया है। यह कदम निश्चित रूप से विश्व की तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी के रुतबे को बढ़ाता है।
2005 में पेंग्विन पब्लिकेशन ने जन्नत और अन्य कहानियां तथा शकुंतला के साथ हिंदी के क्षेत्र में कदम रखा था। तब से अब तक यह प्रकाशन कई किताबों को हिंदी में प्रकाशित कर चुका है। ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक रवींद्र कालिया ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के हिंदी के बाजार में आने से लेखकों का शोषण कम होगा। लेखकों को ये प्रकाशक जितनी रकम दे रहे हैं, उतनी भारत के प्रकाशक नहीं दे रहे थे।
उन्होंने कहा कि वैश्वीकरण के इस दौर में भारतीय प्रकाशकों को चुनौती मिलने से प्रकाशन उद्योग की तस्वीर बदलेगी। इन प्रकाशकों का प्रोडक्शन भी बेहतर होता है। ये प्रकाशक यदि हिंदी के उत्तम साहित्य को अंग्रेजी में प्रकाशित करें तो बेहतर होगा।
वाणी प्रकाशन के प्रदीप सैनी ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के आने से बड़े प्रकाशकों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ज्यादातर अनुवादित कृतियां पेश करते हैं, जबकि हम बड़े साहित्यकारों की मौलिक रचनाओं को बरसों से प्रकाशित करते आ रहे हैं।
राजकमल प्रकाशन के सतीश कुमार ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के आने से बाजार में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। राजकमल पिछले साठ साल से इस क्षेत्र में हैं। हालांकि छोटे प्रकाशकों पर अवश्य इसका प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि हिंदी प्रकाशन की तासीर एकदम अलग है, जिसे समझने में अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों को तकलीफ होगी। अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक गोदाम में रखने के लिए किताबें नहीं छापते।
हापर कालिन्स की कतिका ने कहा कि कई ऐसे लेखक हैं, जिन्हें सामने आना चाहिए लेकिन वे सामने नहीं आ पाते। हापर कालिन्स हिंदी के बाजार में आ रहा है, ताकि ऐसे लेखक भी सामने आएं। वैसे भी हिंदी का बाजार तेजी से आगे बढ़ रहा है।
उन्होंने कहा कि हमारा विशेष जोर फिक्शन और नान फिक्शन पर ही होगा। राजनीति जैसे कई अलहदा पहलुओं पर भी हम ध्यान देंगे। हम चाहेंगे की हिंदी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे और इसके लिए हम लेखकों को अपने साथ जोड़ेंगे। दाम के अंतर पर उन्होंने कहा कि हिंदी बाजार के हिसाब से दाम जरूर कम करने होंगे, लेकिन इसके लिए हम क्वालिटी से समझौता नहीं करेंगे।
(याहू हिन्दी से साभार )

गुरुवार, 15 मई 2008

चलो शाकाहार की ओर


डॉ. महेश परिमल
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं, एक शाकाहारीऔर दूसरे लाशाहारी। आप कहेंगे, यह भी भला कोई बात हुई, मनुष्य भला क्यों लाशाहारी होने लगा? अब आप ही बताएँ कि मांस को मनुष्य का निवाला बनने के पहले क्या बनना पड़ता है? किसी जानवर को मारकर ही तो मांस की प्राप्ति होती है। मांस बनने के पहले वह जानवर तो एक लाश के रूप में ही हमारे सामने था, उसी लाश का एक हिस्सा उनका निवाला बना, तो फिर उस निवाले को ग्रहण करने वाला लाशाहारी ही तो हुआ ना।
अरे भई! जब प्रकृति ने ही मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी के लिए की है, तो फिर हम भला कौन होते हैं, प्रकृति के खिलाफ जाने वाले? मांसाहारी प्राणियों की ऑंतें छोटी होती हैं, जबकि इंसान की ऑंते लम्बी होती हैं। लम्बी ऑंतें केवल शाकाहारी प्राणियों में ही पाई जाती हैं। इंसान के लीवर और ऑंत में मांस को पचाने के लिए उत्पे्ररकों का नामोनिशान नहीं है, इसका आशय यही हुआ कि विकासवाद के चलते मानव मांसाहार का त्याग करता गया और शाकाहार को अपनाता गया। जो अपना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास नहीं करना चाहते, वे मांसा पसंद करते हैं। जो मानवता और सभ्यता की दौड़ में आगे निकलना चाहते हैं और जिन्हें आध्यात्मिक सुख की तलाश है, वे निश्चित रूप से शाकाहारी बन जाते हैं।
आपको पता है कि प्लुटो, सुकरात, न्यूटन,अल्बर्ट आइंस्टाइन, एपीजे अब्दुल कलाम, अमिताभ बच्चन, करीना कपूर और मल्लिका शेरावत में क्या समानता है? यही कि इनका संबंध शाकाहार से है और इस बात का उन्हें गर्व भी है। आज विश्व की कई हस्तियाँ लगातार मांसाहार छोड़कर शाकाहार की ओर बढ़ रही हैं। मुम्बई के उपनगर मालाबार हिल्स में तो पिछले दिनों एकमात्र मांसाहारी होटल बंद हो गई, क्योंकि वहाँ मांसाहार के ग्राहक नहीं आते थे। कई देशों में मेकडोनाल्ड कंपनी के भी कई रेस्तारां अब शाकाहारी होने लगे हैं। विदेशों में तो अब शाकाहार का वर्चस्व बढ़ने लगा है। डॉक्टर भी अब अपने मरीजों को शाकाहारी भोजन लेने की सलाह दे रहे हैं। इसके बाद भी यदि लोग मांसाहार ग्रहण कर रहे हैं, तो यह उनकी मानसिक दिवालिएपन का ही एक उदाहरण ही है।
अब इसे हम पर्यावरण की दृष्टि से देखते हैं। पर्यावरणविद् यह मानने लगे हैं कि आज जो ग्लोबल वामिंग हो रही है, उसकी एक वजह मांसाहार भी है। एक एकड़ जमीन का उपयोग इस उद्देश्य से किया जाए कि यहाँ पाले गए जानवरों का कतल करना है, तो उसमें एक वर्ष में केवल 75 किलोग्राम मांस का उत्पादन हो सकता है, किंतु इस जमीन का उपयोग शाकाहार उत्पादन के लिए किया जाए, तो उसमें 9040 किलो अनाज उगाया जा सकता है। अमेरिका और कनाडा में मांस के लिए पशुओं को पालने के लिए अनाज उगाया जाता है। ऐसा 14 किलोग्राम अनाज पशुओं को खिलाया जाए, तब कहीं जाकर उनके शरीर में एक किलो मांस बनता है।
एक किलो गेंहूँ पकाने के लिए 55 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, किंतु एक किलो मांस के उत्पादन के लिए 21 हजार 570 लीटर पानी खर्च हो जाता है। विश्व में अनाज और पीने के पानी की जो विकराल समस्या देखने में आ रही है, उसके लिए कुछ हद तक मांसाहारी जीवन शैली भी जवाबदार है। हैदराबाद के समीप स्थित अल-कबीर कतलखाने में प्रति वर्ष 48 करोड़ लीटर पानी खर्च हो जाता है, जिसके कारण आसपास के गाँवों में पीने के पानी की समस्या पैदा हो गई है।

हॉलीवुड और बॉलीवुड के कई कलाकार मांसाहार का त्याग कर शाकाहार की तरफ बढ़ रहे हैं। हाल ही में करीना कपूर ने मांसाहार हमेशा के लिए त्यागने की घोषणा की है। उसका मानना है कि अपने सौंदर्य को अखंड बनाए रखने के लिए उसने मांसाहार का त्याग किया है। कई अन्य फिल्मी सितारों ने अपने पशु-पे्रम के कारण मांसाहार का त्याग किया है। दक्षिण के सुपरस्टार आर. माधवन का कहना है '' मैं प्राणियों से प्र्रेम करता हूँ, उसकी हत्या कर उसका मांस खाना मुझे गवारा नहीं है। इसलिए मैं शाकाहार को हृदय से स्वीकार करता हूँ।'' दूसरी ओर अदिति गोवात्रीकर का कहना है ''मैं कोई व्रत या फिर पूजा पर विश्वास नहीं करती, पर जब से मैंने शाकाहार ग्रहण करना शुरू किया है, तब से मेरी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ रही है। अब मुझे सब कुछ अच्छा लगने लगा है।'' सूफी गायिका शिवानी कश्यप कहती हैं कि मैं संगीत की साधना में आगे बढ़ रही हूँ, तो उसके लिए मेरा शाकाहार होना ही जवाबदार है। यदि हम शाकाहारी खुराक लेना शुरू करें, तो हमारे व्यवहार में सौम्यता आती है। विख्यात चिंतक जार्ज बर्नाड शॉ कहते थे कि मेरा पेट प्राणियों का कब्रिस्तान नहीं है, इसलिए मैं माँसाहार ग
्रहण नहीं करता।
अब तो डॉक्टर भी अपने मरीजों से शाकाहारी भोजन लेने की सलाह दे रहे हैं। उन्हें यह अच्छी तरह से पता है कि मांसाहारी भोजन से अनेक रोग पैदा होते हैं। अंडा, चिकन, मटन और मछली खाने से शरीर का कोलेस्ट ्रॉल बढ़ता है, जिससे ब्लड प्रेशर और हृदय रोग जैसी गंभीर बीमारी हो जाती है। मांसाहारी पदार्थों में निहित सल्मोनेला नामक जहर कैंसर भी पैदा करता है। उसके कारण चर्बी बढ़ती है और डायबिटीस जैसी बीमारी भी होती है। इस संबंध में मनोचिकित्सकों का कहना है कि मानव के क्रोधी स्वभाव के लिए मुख्य रूप से मांसाहार ही जवाबदार है। मांसाहारी का दिमाग तामसी बन जाता है। ऐसे लोग स्वस्थ मन से कोई निर्णय नहीं ले सकते।
विदेशों में भारतीय योग विद्या के बढ़ते प्रचार से आजकल विदेशों में शाकाहार के प्रति रुझान बढ़ रहा है। बाबा रामदेव, बीकेएस अयंगार, दीपक चोपड़ा और भरत ठाकुर जैसे योगगुरुओं द्वारा विदेशों में लगाए जाने वाले योग शिविरों के प्रभाव से लोग मांसाहार का त्याग कर शाकाहार की तरफ बढ़ रहे हैं। अमेरिका और लंदन में आज ऐसे रेस्ताराँ खुल गए हैं, जहाँ केवल स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन ही परोसे जाते हैं। भारतीय पाकशास्त्र में इतनी अधिक शाकाहारी व्यंजनों की सूची है,उसके बाद भी लोग केवल जीभ के स्वाद के लिए मांसाहार ग
्रहण करते हैं। अब तो कुछ एयरलाइंस ने भी शाकाहारी भोजन परोसना शुरू कर दिाय है।
मुम्बई के उपनगर मालाबार हिल्स की कुछ सोसायटियों में यह नियम है कि जो मांसाहारी हैं, वे यहाँ के सदस्य नहीं बन सकते। इस कारण मांसाहारी आज मुम्बई की इस पॉश कालोनी में चाहते हुए भी फ्लैट नहीं खरीद सकते। इस क्षेत्र की एकमात्र मांसाहारी होटल कुछ समय पहले ही ग्राहकों की कमी के कारण बंद हो गई। शाकाहार का प
्रभाव इस इलाके में इतना अधिक है कि किसी भी दुकान में अंडे या मछली भी नहीं मिलती। जब शाकाहार के लिए बना मानव अपनी मर्यादा भूलकर मांसाहार की तरफ बढ़ रहा है, तो इसे क्या कहा जाए? शाकाहारी व्यक्ति ही सही दिशा में कुछ नया सोच सकता है। मांसाहारी या कहें लाशाहारी तो केवल क्रोध करता ही दिखाई देगा, हर तरफ, हर जगह। तो क्या आपने भी निर्णय ले लिया कि अब अपने पेट को कबि्रस्तान नहीं बनने देंगे। शाकाहार ग्रहण करेंगे और शाकाहारी बनने के लिए प्रेरित करेंगे।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 14 मई 2008

जिनके लिए विवाह अर्थहीन परंपरा है


डॉ. महेश परिमल
महानगरों में आजकल जीवन मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। मान्यताएँ और परम्पराएँ आज केवल दिखावा बनकर रह गई हैं। उन्हें आज समाज से पिछड़ा माना जाने लगा है, जो इन मान्यताओं और परम्पराओं को गलत मानते हैं।आज युवा पीढ़ी कुछ भी समझने को तैयार नहीं है। उसे तो आज मानो खुला आकाष मिल गया है, जहाँ वे अपनी चाहतों के पंखों को पूरी मस्ती के साथ फैलाकर उड़ रहे हैं। अब तो षादी जैसे पवित्र परंपरा भी उन्हें एक बोझ लगने लगी है, इसलिए महानगरों में आज सेक्स माइनस फ्रेंडषिप, लव एंड मेरिज का प्रचलन षुरू हो गया है। इसके तहत आज युवक-युवतियाँ बिना षादी के पति-पत्नी की तरह साथ-साथ रहने और लम्बे समय तक साथ देने वाले पार्टनरों की तलाष करने लगे हैं।
मुम्बई जैसे महानगर में नौकरी करने वाली कैरियर वुमन आजकल आल्फा वुमन के नाम से पहचानी जाती है। ये आल्फा वुमन अब सभी मामलों पर आत्मसंतुश्ट हैं। उनके पास कॉलेज की डिग्री है, खुद की अपनी कार है, अच्छी नौकरी है, बढ़िया बैंक बेलैंस है, अपना फ्लैट है, जब चाहे विदेष दौर पर जा सकती है, अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण निर्णय वह स्वयं लेने में सक्षम है। इतना कुछ होने के बाद भी वह न तो षादी के झंझट में पड़ना चाहती है, न ही किसी से प्यार करना चाहती है, न किसी की बहू बनना चाहती है और न ही बच्चों की माँ बनना चाहती है। अब यह स्वछंद रहना चाहती हैं, इसलिए वह पार्टी में जाकर खूब षराब पीती है, स्मोकिंग करती हैं, वह जीवन अपने तरीके से जीना चाहती है। इसलिए आजकल महानगरों में इस तरह की आल्फा वुमन की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह महिलाएँ जब इतनी सक्षम हैं, तो निष्चित रूप से किसी न किसी मामले में वह पुरुशों पर निर्भर होती होंगी, विषेश रूप से अपनी षारीरिक आवष्कताओें की पूर्ति के लिए, तो इसके लिए उसने एक अलग ही तरीका अपना रखा है, वह है मात्र कुछ समय के लिए ही अपने षरीर के लिए किसी पुरुश की तलाष। इस तरह से आजकल ऐसी महिलाओं के लिए ऐसे पुरुशों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। इस तरह के पुरुश पार्टियों, क्लबों, पार्कों, टॉकीजों के आसपास आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। आवष्यकता है पहचानने की। ये आल्फा वुमन किसी से भी भावनात्मक रूप से मिलना नहीं चाहती। इसका वह विषेश रूप से खयाल रखती हैं।
आज मेट्रोपोलिटन षहरों में बिना विवाह के साथ-साथ रहने वाले युगलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दबे रूप में इन्हें सामाजिक स्वीकृति भी मिल रही है। ये अपना आदर्ष जॉन अब्राहम और विपाषा बसु को मानते हैं। अब तो उनसे कोई पूछता भी नहीं कि आप दोनों षादी कब कर रहे हैं। इन दोनों का साथ-साथ रहना अब किसी को आष्चर्य में नहीं डालता। भविश्य में इनके बीच तलाक भी हो जाए, तो किसी को आष्चर्य नहीं होगा। वैसे भी इनके बीच हमेषा किसी तीसरे की कहानी सामने आती ही रहती है। इसलिए आल्फा वुमन इस तरह का कोई मौका समाज को देना नहीं चाहती।

मुम्बई की हेल्थ क्लबों में जब ये आल्फा वुमन मिलती हैं, तो इनमें क्या बातचीत होती है, यह जानना एक चुनौतीभरा काम है, पर इनकी बातें एकदम बिंदास होती हैं। एक महिला दूसरी महिला से कह रही थी-मेरे बॉयफ्रेंड के साथ मेरी सेक्स लाइफ एकदम डल हो गई है, क्योंकि बॉयफ्रेंड मुझसे बार-बार षादी करने के लिए कह रहा है। इस कारण हममें अक्सर विवाद होता रहता है और अब तो मजा भी नहीं आता। इसके जवाब में दूसरी महिला कहती है- मैंने तो अपने एक बीएफ (बॉयफ्रेंड) को छोड़ दिया है, अब दूसरे की तलाष लिया है। इस तरह से ये आल्फा वुमन अपना पार्टनर तलाष लेती हैं और जब जरूरत पड़े, उसे बूला लेती है, फिर उससे कोई वास्ता नहीं रखती। दिल्ली की एक आल्फा वुमन षालिनी तो स्पश्ट तौर पर कहती है- मुझे सागर के साथ रहना अच्छा तो लगता है, पर उसके साथ किसी प्रकार का भावनात्मक संबंध रखना नहीं चाहती।जब हम बहुत करीब होते हैं, तब वह प्रेम, संबंध, जवाबदारी आदि की बातें करता है, जो मुझे बिलकुल नहीं भाती।दूसरी ओर यह भी सच है कि उसके बिना मुझे चैन नहीं आता।लेकिन अब हमने तय कर लिया है कि अब हमारे बीच केवल सेक्स का ही संबंध रहेगा, बाकी सारे संबंधों को तिलांजलि दे दी जाए। इस दौरान हमें कोई दूसरा साथी मिल जाता है, तो हम बड़ी सादगी से अलग हो जाएँगे। आज महानगरों में षालिनी और सागर जैसे युगलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ये मानते हैं कि प्रेम और सेक्स दो अलग-अलग चीज वस्तुएँ हैं, इन दोनों को मिलाने की आवष्यकता ही नहीं है।
इनके बारे एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इन आल्फा वुमन के पास ऐसे व्यक्तियों की सूची होती है, जो इस काम को किसी पेषेवर की तरह नहीं देखते, बल्कि इसे उपभोग और उपभोक्ता की दृश्टि से देखते हैं।ये जब भी किसी को आवष्यकता के अनुसार अपनी संतुश्टि के लिए प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार के कॉल को ''बूटी कॉल'' कहा जाता है। इसमें यही षर्त होती है कि जब फोन करें, तो उन्हें वह तुरंत मिल जाए, उस वक्त वह किसी और के साथ इंवाल्व नहीं होना चाहिए। इस प्रकार के संबंध कॉल गर्ल से संबंध से अलग ही प्रकार का है। इसमें धन का किसी तरह से लेना-देना नहीं होता। इसके साथ ही इस संबंध का अंत प्रेम या षादी तो किसी भी रूप में है ही नहीं। इससे खतरा कुछ और कम हो जाता है। किसी तरह के इनवेस्टमेंट भी नहीं करना पड़ता और मेनेटेंस भी बहुत कम आता है। इसीलिए इस तरह के संबंध आजकल तेजी से फल-फूल रहे हैं।
एक समय ऐसा था, जब भारतीय नारी की छवि ही कुछ अलग थी।वह जिससे प्रेम करती, उसी के साथ षादी करती और उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर करती। आजकल कॉलेज में जाने वाली युवतियाँ यही कहती हैं कि हम कॉलेज तो केवल मौज-मस्ती के लिए ही जाते हैं, वहाँ यदि हम किसी युवक से मिलते हैं, इसका आषय यह तो कदापि नहीं है कि हम उससे प्यार करते हैं और षादी भी करेंगे। षादी तो हम वहीं करेंगे, जहाँ हमारे पालक चाहेंगे, कॉलेज में युवक का साथ तो ''जस्ट फार इन'' जैसा होता है।आज आल्फा वुमन भी कुछ इस तरह का व्यवहार करती है। उसे अच्छी तरह से मालूम है कि बोर्डरूम और बेडरूम में किस चीज की आवष्यकता है और उसे किस तरह से प्राप्त किया जा सकता है। पहले तो कोई महिला अपने मन की मीत के साथ जुड़ जाती थी, तब यदि पुरुश उसे छोड़ दे, तब उसे जोरदार आघात लगता था। आज कई पुरुश इसी तरह के आघात से गुजर रहे हैं। हाल ही में हुए मॉडल मून दास और उड़ीसा के युवक अविनाष पटनायक के किस्से में भी कुछ इसी तरह की बात थी। उन दोनों में गहरे संबंध थे, अविनाष अपनी मित्र मंडली में अपनी गर्ल फ्रेंड के रूप में प्रस्तुत करता। उसके बाद तो वह उसके निजी जीवन में भी दखल डालने लगा।बाद में उसे पता चला कि वह अकेला ही मून का बॉयफ्रेंड नहीं है, उसके संबंध अन्य कई लोगों से हैं, इससे उनके रिष्ते में दरार आ गई।इस संबंध का अंत बहुत ही दुखद हुआ। अविनाष ने आवेष में आकर मून की माँ और उसके मामा को मारकर आत्महत्या कर ली।
अब तो यह कहा जा सकता है कि संबंध कैसे भी हों, उसे कहाँ तक निभाना है, निभाना भी है या नहीं, ये सब निर्भर करता है, उन परिस्थितियों पर, जो आज की जरूरत है।इस तरह के संबंधों को ''लीव इन रिलेषनषिप'' कहा जाने लगा है। अब जीवनमूल्यों में आए बदलाव को देखते हुए इस तरह के संबंधों को नई पहचान और परिभाशा देनी होगी।यह बात अलग है कि इस तरह के संबंध कितने टिकते हैं, समाज इन्हें किस तरह की सम्मति देता है। ये संबंध समाज के लिए कितने हितकारी हैं, यह सब हमारे समाजषास्त्रियों को सोचना है।
डॉ. महेश परिमल

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