गुरुवार, 8 मई 2008

सोए समाज को जगाने की कोशिश है 'तारे जमीं पर'


डॉ. महेश परिमल
भारतीय बच्चों की दशा को दर्शाने वाली फिल्म 'तारे जमीं पर' प्रस्तुत कर अमोल गुप्ते और आमिर खान ने कई पुरस्कार बटोर लिए। ऐसा नहीं है कि बच्चों पर केंदि्रत फिल्म पहली बार इस तरह से परदे पर आई है। इसके पहले भी कई फिल्मों ने बच्चों की दशा पर सोचने के लिए विवश किया है। सबसे पहले नीतिन बोस ने फिल्म बनाई 'जागृति', इसमें बाल मनोविज्ञान को समझते हुए बहुत ही शरारती बच्चों को बिना किसी डाँट-डपट के, बिना बेंत का सहारा लिए बच्चों को प्र्रेम की भाषा से शिक्षा का सही अर्थ बताया गया। शिक्षक की भूमिका में अभि भट्टाचायर् र् ने गजब का अभिनय किया। इस फिल्म में वे बच्चों को भारत दर्शन कराते हैं और इस पावन भूमि की गाथा कहते हैं। कवि प्रदीप के गीत ' आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ, झाँकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की' और 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' खूब चले। आज भी राष्ट ्रीय पर्वों पर ये गीत सुनने को मिल ही जाते हैं। इसके बाद व्ही. शांताराम ने 'बूँद जो बन गई मोती' में यह बताने की कोशिश की थी कि बच्चों को प्रकृति के साथ जोड़कर शिक्षा दी जानी चाहिए। शाला के कमरों में कैद करके उन्हें शिक्षित तो किया जा सकता है, पर व्यावहारिक नहीं। इसलिए उन्होंने इस फिल्म में बच्चों को खुले आसमान के नीचे, पेड़ों, पर्वतों और झरनों के बीच ले जाकर प‎‎्रकृति की भाषा को समझाने की कोशिश की। इसके बाद तो गुलजार साहब ने 'परिचय' बनाई, इसमें बिना तूफानी बच्चों को प्यार की भाषा से सुधारने की बात की गई। जागृति और परिचय की कहानी एक जैसी ही थी, अंतर था तो केवल उन बच्चों का जो बोर्डिंग स्कूल में रहते हैं और दूसरी ओर परिचय में बिना माता-पिता के बच्चे जो दादा की छत्रछाया में पलते बढ़ते हैं। थोड़ी सी कोशिश 'राजू चाचा' में की गई थी, पर उसमें व्यावसायिकता हावी हो गई, इसलिए वह चल नहीं पाई।

खैर अब नए जमाने में बच्चों की मानसिकता को दर्शाने वाली फिल्म तारे जमीं पर आ गई है। इस फिल्म में बच्चे और शिक्षक तो हैं, पर इसमें यह बताने की कोशिश की गई है कि बच्चों की अपनी समस्याएँ होती हैं, पालकों और शिक्षकों को उनकी समस्याएँ समझने की कोशिश करनी चाहिए। इस फिल्म में एक शिक्षक तो बच्चे की परेशानी समझता है, पर पालक नहीं समझ पाते। इस फिल्म के माध्यम से आज की शिक्षा पद्धति पर चोट करते हुए यह बताया गया है कि कभी पालक अपने को बच्चा समझकर उन्हें समझने की कोशिश करें। केवल बच्चों की पूरी फीस भरकर, टयूशन और कोचिंग की व्यवस्था करने मात्र से उनकेर् कत्तव्य समाप्त नहीं हो जाते। बच्चे की हर समस्या पर उनका साथ होना बड़ी बात है, ताकि बच्चे को ऐसा न लगे कि वह अकेला है। आज के पालक बच्चों पर अपेक्षा का बोझ इस कदर लाद देते हैं कि बच्चा क्लॉस में अव्वल आना आवश्यक है। यह भी तो सोचने वाली बात है कि क्लॉस के 40-50 बच्चों में से सभी तो अव्वल आ नहीं सकते। कोई न कोई बच्चा तो ऐसा होगा ही, जिसे आखिर में रखा जा सकता है। क्या यह बच्चा वाकई निर्बुद्धि है, या फिर उसे शिक्षा प्राप्त करने का हक नहीं है? यह बच्चा यदि साधारण परिवार से है, तो सचमुच उसे शिक्षित होने का अधिकार नहीं है, पर यदि वह धनाढय परिवार से है, तो केवल धन के कारण ही वह उस स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी रख सकता है। पर क्या ऐसे बच्चे सचमुच ही पढ़ाई के योग्य नहीं होते? यही बात फिल्म तारे ामी पर बताने की कोशिश की गई है।
इस फिल्म में एक दृश्य ने कुछ सोचने को विवश कर दिया। फिल्म में ईशान के पिता अपने बेटे के स्कूल पहुँचते हैं और गर्व के साथ टीचर का किरदार निभाने वाले आमिर को बताते हैं कि ईशान की माँ ढेर सारे अनुसंधान कार्य में जुटी हुई हैं। इस अनुसंधान से कई औषधियों का निर्माण किया गया, जिससे ईशान की कई समस्याएँ सुलझाने में मदद मिली। ऐसे में आप यह न समझें कि हम अपने बेटे की परवाह नहीं करते। इस पर आमिर का जवाब होता है '' सही है, दूसरों का खयाल इस तरीके से रखें कि उनमें आपके प्रति भरोसा जागे कि हर हाल पर आप उसके साथ डटकर खड़े होंगे। कभी-कभार आप उसके साथ जाएँ और उसे किस करें। उसे गले लगाएँ और उन्हें इस तरह का पक्का आश्वासन दें कि जब भी उनको आपकी जरूरत होगी, आप उनके पास होंगे। जब कभी वे गलती करें, तो आप कहें कि चलो, कोई बात नहीं, हाँ मगर कोशिश करना कि ऐसी और यही गलती दोबारा न हो। कई अवसरों पर बच्चों, युवाओं और बाुर्गों को छूकर प्यार प्रदर्शित किया जाता है। खयाल रखने का यही अंदाज होता है। क्या आप अपने बच्चे का कभी इस तरह से खयाल रखा?''
अक्सर ऐसा ही होता है, पालक अपने आप में इतने मशगूल होते हैं कि बच्चा कब स्कूल से आता है, कब जाता है, उन्हें यह भी पता नहीं होता। कई पालक तो यह सोचते रह जाते हैं कि उनका बच्चा किस क्लॉस में है। ऐसे में यह कैसे समझा जा सकता है कि वे अपने बच्चों का अच्छी तरह से खयाल रखते होंगे। बच्चे को प्यार करना, किस देना, उन्हें प्यार से दुलारना आदि कि्रयाएँ तो एकदम बंद हो गई है। यह फिल्म आज भारतीय दर्शकों को इसीलिए पसंद आ रही है, क्योंकि इसमें यह बताया गया है कि जो पालक यह समझते हैं कि वे अपने बच्चों का खयाल रखते हैं, वे झूठणे हैं। अपेक्षाओं के बोझ से लदा आज भारत का यह भविष्य अपनी ही गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है। किसी को इतनी फुरसत ही नहीं है कि कभी बच्चे से उनकी समस्याएंँ जानी जाए। कई बीमारियों से ग्रस्त बच्चा कुछ कह नहीं पाता। जब वह अंकसूची लेकर पिता के पास जाता है, तब उसे उनकी नाराजगी का सामना करना पड़ता है। स्कूल में टीचर का डर, घर में पालकों का, बच्चा आखिर जाए कहाँ? सारी सुविधाओं के बीच आज का मासूम केवल प्यार के दो बोल चाहता है, प्यार में भीगे पल चाहता है, अपने रचना संसार में वह अपने पालकों को लेना चाहता है, अपनी कल्पनाओं में वह अपनों को ढँढ़ता है, इसीलिए वह कभी गाता है, कभी चित्र बनाता है, कभी प‎‎्रकृति के साथ खेलता है। इन सारी कि्रयाओं में उसके साथ आखिर कौन है? पालक तो कतई नहीं, टीचर हो नहीं सकते, तो फिर कौन उन्हें बताएगा कि जो वह चाहता है, उसे कहाँ मिलेगा? ऐसे बच्चों को समय पर अपनों का सानिध्य नहीं मिलता, तो वे अपने आप से नाराज हो जाते हैं। यह सभी जानते हैं कि अपने आप से नाराज होना याने अपनों से विद्रोह की पहली सीढ़ी है। यही विद्रोह आजकल शालाओं में खुले आम देखने को मिल रहा है।
'तारे जमीं पर' के माध्यम से अमोल गुप्ते और आमिर खान ने एक पत्थर फेंका है, समाज के उस दरिये पर, जो सोया हुआ है। उसमें कम्पन नहीं है, वह लाचार है आधुनिकता का लबादा ओढ़कर। अब यह समाज पर निर्भर करता है कि वह इस पत्थर का जवाब किस तरह से देता है?
डॉ. महेश परिमल

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