सोमवार, 26 मई 2008

साइड इफैक्ट देने वाली कई दवाएँ भारतीय बाजार में



डॉ. महेश परिमल
काफी दिनों बाद अपने शहर आ रहा था। घर पहँचने की जल्दी थी, इसलिए एक मोड़ पर बस के धीरे होते ही मैं कूद पड़ा, बारिश के कारण सड़क के किनारे की मिट्टी गीली थी, मैं गिर पड़ा। कई चोटें आई, फिर भी घर का मोह कम नहीं हुआ। सारा दर्द भूलकर घर पहुँच ही गया। मिलने-मिलाने का दौर शुरू हुआ, तो समय का पता ही नहीं चला। कुछ ही घंटों बाद पूरा शरीर दर्द करने लगा। पास ही मेडिकल स्टोर्स था, वहाँ जाकर कहा-कोई पेन किलर दे दो भाई, बहुत दर्द हो रहा है। वहाँ मुझे उसने ''नीमेसुलाइड'' देते हुए कहा-यह ले लो, अचूक दवा है, दर्द कुछ ही समय बाद खत्म हो जाएगा। दवा ने असर दिखाया, शरीर की पीड़ा तो जाती रही, पर कुछ नई तकलीफें शुरू हो गई। अब तो तय हो गया कि डॉक्टर के पास जाए बिना काम हो ही नहीं सकता। डॉक्टर ने कई टेस्ट लेने के बाद कहा-आपके लीवर में सूजन आ गई है, इसे ठीक करने के लिए कई दवाएँ लम्बे समय तक लेनी होगी। मुझे लगा-यह क्या हो गया, यह तो वही हुआ कि दवा खाओ और बीमार पड़ो।
नीमेसुलाइड या कह लें, निमेसुलीड गोली बुखार उतारने के लिए या पीड़ा कम करने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है, किंतु उसके ''साइड इफैक्ट'' बहुत हैं। कुछ समय पहले इस दवा के प्रयोग पर ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक आलेख में आपत्ति उठाई गई थी। चेन्नई की इंस्टीटयूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ के भूतपूर्व डायरेक्टर ने बच्चों को नीमेसुलाइड देने के विरोध में एक याचिका मद्रास हाईकोर्ट में प्रस्तुत की है, मामला अभी अदालत में ही है। इतना होने के बाद भी भारत सरकार ने यह आदेश जारी किया कि छह माह से कम उम्र के बच्चों को यह दवा न दी जाए। इस दवा के गंभीर परिणामों की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता किसी अधिकारी ने नहीं समझी।
फीनलैण्ड में पिछले वर्षएक हजार लोगों को यह दवा दी गई। इनमें से 100 मरीजों को उस दवा का साइड इफैक्ट हुआ। एक रोगी की तो मौत ही हो गई, लेकिन इससे प्रभावित अन्य कई मरीजों को लीवर ट्रांसप्लांट करवाना पड़ा। इससे फीनलैण्ड सरकार चौंक गई। मात्र 72 घंटे के अंदर ही फीनलैण्ड सरकार ने इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद तो स्पेन में भी इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इससे यूरोपियन यूनियन (EU) की मेडिकल प्रोडक्ट्स इवेल्यूएशन एजेंसी ने इस दवा से सचेत रहने की मुनादी की। अमेरिका में तो आज भी इस दवा पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन हमारे देश में यह आज भी बेखौफ बिक रही है। लोग खरीद रहे हैं, अपने शरीर का दर्द या बुखार कम कर रहे हैं और अपने लीवर को सूजा रहे हैं।

हमारे देश में एक बात तो सर्वविदित है, यहाँ हर तीसरे व्यक्ति के पास हर बीमारी का कोई न कोई तो इलाज है ही। वह ऐसे सुझाव देगा, मानों वह उस बीमारी का ही विशेषज्ञ हो। दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ पेन किलर तो लोग चन-मुरमुरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। गरीब आदमी के लिए क्या कोम्बीफेम, क्या बु्रफेन, क्या सुमो और क्या नीमेसुलाइड। सभी एक जैसी दवा है। वे इस खाते हैं और सो जाते हैं। यदि कुछ हो भी जाए, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि इस दवा के बारे में एक अखबार में प्रकाशित एक खबर में इस दवा को इंडियन मेडिकल काउंसिल ने ''सुरक्षित और निर्दोष'' बताया। इसमें एक सर्वे का जिक्र किया गया है। जिसमें 50 चिकित्सकों को शामिल किया गया था। यह तो सभी जानते हैं कि यह किस तरह का सर्वे हुआ होगा। सवा अरब की आबादी वाले इस देश में मात्र 50 चिकित्सकों ने यह सिध्द कर दिया कि नीमेसुलाइड इंसान के लिए सुरक्षित और निर्दोषहै। हमारे देश में गंभीर रूप से साइड इफैक्ट पैदा करने वाली दवाओं का परीक्षण पूरी ईमानदारी के साथ नहीं होता। इसकी कोई व्यवस्था भी नहीं है। हमारे राजनेता और सरकारी अफसर कितने बिकाऊ है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। दवा कंपनियाँ किस तरह से चिकित्सकों का मुँह बंद करती हैं, यह तो उनकी विदेश यात्राओं और शान-शौकत से पता चल जाता है। पर आम आदमी तो मात्र प्रयोग की एक वस्तु बनकर रह जाता है। ऐसे में डॉक्टरों की विदेश यात्राओं को किस तरह से सुरक्षित और निर्दोषकहा जाए?
यह बात केवल नीमेसुलाइड को ही लेकर नहीं कही जा रही है। ऐसी तो न जाने कितनी ही दवाएँ हैं, जो विदेशों में तो प्रतिबंधित हैं, लेकिन हमारे देश में खुले आम बिकती हैं। ये दवाएँ छोटी-छोटी शारीरिक पीड़ाओं को दूर करने के लिए ली जाती हैं, पर वे बड़ी-बड़ी व्याधियों का कारण बन जाती हैं। आखिर यह बड़ी-बड़ी दवा कंपनियाँ प्रतिस्पर्धा में टिकी कैसे रह सकती हैं भला बताओ। किसी भी दवा दुकान में जाकर सरदर्द या फिर सर्दी की दवा माँगो, तो वह दर्जन भर दवाओं के नाम बताकर पूछेगा कि इनमें से कौन सी दूँ? इनमें से एक दवा है एनाल्जिन। विश्व के अधिकांश देशों में इस दवा पर प्रतिबंध लग चुका है। डॉक्टरों की पाठय पुस्तकों में तो यह नाम तलाशने पर भी नहीं मिलेगा, पर हमारे देश में आज भी इसकी खुलेआम बिक्री हो रही है। यह दवा हर वर्ष20 करोड़ रुपए का कारोबार करती है। यह हमारे देश की विडम्बना है। इस दिशा में भारत सरकार की तरफ से यह घोषणा की जाती है कि विदेशों की तर्ज पर अब हमारे देश में भी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन जैसी चुस्त औषधि नियमन विभाग तैयार किया जाएगा। आज तक उस दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाया गया है। आज हालत यह है कि उपभोक्ता दो रुपए की दवा को 12 रुपए में खरीद रहा है। उसके बाद भी उसके साइड इफैक्ट से बच नहीं पा रहा है। इस तरह से वह दोहरी मार का शिकार हो रहा है।
देश भर में खूब बिकने वाली कुल 80 दवाओं में से कम से कम 23 दवाएँ ऐसी हैं, जो घातक कोम्बीनेशन की हैं। इसके लिए कई जागरूक चिकित्सक, समाज सेवियों ने समय-समय पर आवाज उठाई है, पर औषधि नियामक ने बहाने बनाकर उस आवाज को दबा दिया। सत्ता पर आसीन लोगों से कुछ होना संभव नहीं दिखता। उन्हें तो बस माल चाहिए, जो किसी न किसी तरह उन तक पहुँचता ही रहता है, बाकी लोगों के दु:ख दर्द से उनका कोई लेना-देना नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन दवाओं पर विदेशों मेें पूरी तरह से प्रतिबंध लगा है, वे दवाएँ हमारे यहाँ आखिर क्यों धडल्ले से बिक रही हैं? सरकार को आखिर कौन रोक रहा है? अभी कुछ बरस पहले ही मर्क कंपनी ने अपनी वियोक्स दवा, जो सूजन कम करने का काम करती थी, दुष्प्रभाव के संबंध में हल्ला मचने पर अंतराष्ट्रीय बाजार से उसे हटा लिया था। इस हल्ले से प्रभावित होकर हमारी सरकार ने इस पर प्रतिबंध तो लगा दिया, किंतु यह दवा आज भी चुपचाप बिक रही है, यहाँ तक कि डॉक्टर भी अपने प्रिस्क्रिप्शन में बेखौफ इस दवा का नाम लिख देते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि आखिर इसके पीछे है कौन? कहीं यह उच्च अधिकारियों और चिकित्सकों की मिलीभगत से तो नहीं हो रहा है? आश्चर्य तब होता है जब हम देखते हैं कि बंगला देश, भूटान और श्रीलंका जैसे छोटे से देश भी दवाओं के संबंध में कड़ा रवैया अपनाते हैं, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? शीर्शके दवा विशेषज्ञ कहते हैं कि हमें तो कुल साढ़े चार सौ दवाओं की ही आवश्यकता है, किंतु बाजार में एक ही दवा 10-12 ब्रांड से बेची जाती है। इसी का परिणाम है कि आज भारत के बाजार में कुल 40 हजार दवाओं का व्यापार फल-फूल रहा है। जिसमें से 75 प्रतिशत दवाएँ बेकार और नुकसानकारी हैं। हमारे देश के स्वास्थ्य मंत्री स्वयं भी एक चिकित्सक हैं, जब वे ही इन सबसे अनजान हैं, तो हमारा नसीब ही हमारे साथ है।
डॉ.महेश परिमल

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