शुक्रवार, 6 जून 2008

आह! निकल गया !!


भारती परिमल
इसे सुखद आश्चर्य कहें या दु:खद! किंतु सच यह है कि पिछले एक सप्ताह से वो मुझसे बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि हम दोनों के बीच कोई झगड़ा हुआ हो। मैं तो खुद ही हैरान, परेशान और अनजान हूँ कि आखिर ऐसा क्या हुआ है जो वे मुझसे इतने नाराज है कि बात ही नहीं करना चाहते।
एक शाम जब वे ऑफिस से लौटे, तो बिना बात किए चुपचाप पलंग पर लेट गए। मैंने पानी दिया तो मना कर दिया। नाश्ता दिया तो वह भी हाथ के इशारे से वापस लौटा दिया। जो घर उनके हँसी-मजाक, ठहाकों और गप्पों से गँज उठता था, उसी घर को शांत देखकर मैं घबरा गई। याद करने की कोशिश की कि मुझसे ऐसी कौन सी गलती हो गई है किंतु कुछ याद नहीं आया।
एक-दो दिन तो यूँ ही चलता रहा। वे किसी से कुछ भी न बोलते। चुपचाप अपना काम करते। खाने के वक्त बुलाने पर आते, धीरे-धीरे भोजन करते और अंत में अधूरा खाना छोड़ कर सोने के कमरे में चल देते। यहाँ तक कि घर में यदि कोई यार-दोस्त भी आ जाता तो उससे हाँ-ना में बात कर बात खत्म कर देते।
ऐसे ही एक दिन रात के समय मैंने उन्हें कुछ गोलियाँ खाते हुए देखा। मैं तो डर के मारे काँपने ही लगी कि कहीं उन्हें नशे की आदत तो नहीं हो गई! हो न हो ये ब
्राउन शुगर, चरस, गाँजा, अफीम आदि में से किसी नशे के शिकार हो गए हैं। तभी तो खोए-खोए से रहते हैं। यदि ऐसा हुआ तो मेरा क्या होगा? मेरे बच्चे! मेरा घर! हे भगवान, सब कुछ बरबाद हो जाएगा। हमारा भविष्य! क्या होगा हमारा भविष्य? मेरी ऑंखों के आगे तो ऍंधेरा ही छा गया। ख्याल आया कि आखिर इन्होनें तो अपना बीमा भी नहीं करवाया। ये ख्याल आते ही मैंने अपने पड़ोसी जीवनलाल जो कि बीमा बंपनी में काम करते हैं, उन्हें पकड़ा और उनसे कहा कि वे मेरे पति को कोई अच्छी सी जीवनबीमा पॉलिसी दिलवा दें। फिर क्या था, वे तो बड़े खुश हुए। उन्हें घर बैठे ही एक ग
्राहक जो मिल रहा था। दूसरे ही दिन वे हमारे घर आए और फिर कई महीनों तक उनकी बात न मानने वाले मेरे पति मात्र दस मिनट में ही उनकी पॉलिसी के लिए हस्ताक्षर कर दिए।
सिलसिला यूँ ही चलता रहा। मैं उनकी नाराजगी दूर करने की, उन्हें खुश करने की कोशिश करती, उनके ऑफिस से लौटते ही सजी-सँवरी मुस्कान बिखेरती एक आदर्श पत्नी बनकर उनका स्वागत करती। उनकी पसंद का नाश्ता उनके सामने रखती, मगर उन पर कोई असर न होता।
उन्हें खुश करने के चक्कर में मैंने बजट से अधिक ही खर्च कर डाला। तीन दिन में ही पाँच किलो दूध अलग से घर में आया, जिससे उनके पसंद की खीर, रबड़ी, रसमलाई आदि मिठाई बनाई कि शायद इसे खाकर वे खुश हो जाएँ। पेपर में पढ़ा कि एक जगह कपड़ों की सेल लगी हुई है, तो जाकर उनके लिए दो शर्ट पीस और एक जोड़ी कुर्ता-पायजामा भी खरीद लाई। मगर उनकी आवाा, उनकी खिलखिलाहट घर की दीवारों से न टकराई।
छुट्टी के दिन उनकी पसंद की फिल्म भी सीडी पर देखी कि शायद उनका मन बहल जाए और नाराजगी दूर हो जाए, मगर कोई फायदा न हुआ। फिल्म चलती रही और वे अपना फूला हुआ चेहरा लिए कुर्सी पर अधलेटे से बैठे रहे।
अब तो मैं काफी निराश हो चुकी थी। उन्हें खुश करने के कई प्रयत्न कर डाले, लेकिन वे खुश न हुए। आखिर एक दिन उनके सामने गुब्बारे की तरह फट ही पड़ी। खूब सुनाया, मगर इस पर भी वे कुछ न बोले। चुपचाप मेरी बातें सुनते रहे। दो दिन और बीत गए, मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैंने फैसला कर लिया कि अब मैं यहाँ नहीं रुकूँगी, इन्हें बिना बताए अपने मायके चली जाऊँगी। जाने की सारी तैयारी भी कर ली। मगर यहाँ क्या! शाम को वे समय से पहले ही घर आ गए और बेहद खुश! आते ही मुझसे बोले- जानती हो, पिछले कई दिनों से एक दाँत मुझे बहुत ही परेशान कर रहा था, इसके कारण मैं न तो ठीक से खा पाता था और न ही बोल सकता था। आज ही ऑफिस में इस मुसीबत से छुट्टी मिली, अब कहीं जाकर चैन मिला है।
ओह! तो यह था उनकी चुप्पी का राा! और मैं न जाने क्या-क्या सोच बैठी थी। कहीं आप भी मेरी तरह किसी गलतफहमी का शिकार तो नहीं ?
भारती परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी जिंदगी में खुशफहमी छोड़कर कुछ भी नहीं है.. :)

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  2. Doctor saheb ...akhir aapne daant nikalwa hi liya.Bahut achha kia...waise der se nikalwaya yeh bhi achha hua kyunki hame aapke ghar men chhipi pratibha ka pata chal gaya.

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