सोमवार, 9 जून 2008

चौराहे पर ठिठका बचपन


डा. महेश परिमल
बारिशने इस मौसम पर धरती का ऑंचल भिगोने की पहली तैयारी की. प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए मैं अपने परिवार के साथ अपने परिसर की छत पर था. बारिशकी नन्हीं बूँदों ने पहले तो माटी को छुआ और पूरा वातावरण उसकी सोंधी महक से भर उठा. ऐसा लगा मानो इस महक को हमेशा-हमेशा के लिए अपनी साँसों में बसा लूँ. उसके बाद शुरू हुई रिमझिम-रिमझिम वर्षा. ऐसा लगा कि आज तो इस वर्षा और माटी के सोंधेपन ने हमें पागल ही कर दिया है. हम चारों खूब नहाए, भरपूर आनंद लिया, मौसम की पहली बारिशका.
मैंने अपनी खुली छत देखी. विशाल छत पर केवल हम चारों ही थे. पूरे 38 मकानों का परिसर. लेकिन एक भी ऐसा नहीं, जो प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए अपने घर से बाहर निकला हो. बाद में भले ही कुछ बच्चे भीगने के लिए छत पर आ गए, लेकिन शेष सभी कूलर की हवा में अपने को कैद कर अपने अस्तित्व को छिपाए बैठे थे. क्या हो गया है इन्हें? आज तो प्रकृति ेने हमें कितना अनुपम उपहार दिया है, हमें यह पता ही नहीं. कितने स्वार्थी हो गए हैं हम प्रकृति से दूर होकर. कहीं ऐसा तो नहीें कि हम अपने आप से ही दूर हो गए हैं?
पूरी गर्मी हम छत पर सोए. वहाँ था मच्छरोेंं का आतंक. हमने उसका विकल्प ढूँढा, बड़े-बड़े पत्थर हमने मच्छरदानी के चारों तरफ लगाकर पूरी रात तेज हवाओं का आनंद लिया. हवाएँ इतनी तेंज होती कि कई बार पत्थर भी जवाब दे जाते, हम फिर मच्छरदानी ठीक करते और सो जाते. कभी हवाएँ खामोशहोती, तब लगता कि अंदर चलकर कूलर की हवा ली जाए, पर इतना सोचते ही दबे पाँव हवाएँ फिर आती, और हमारे भीतर की तपन को ठंडा अहसास दिलाती. कभी तो हवा सचमुच ही नाराज हो जाती, तब हम आसमान के तारों के साथ बात करते, बादलों की लुकाछिपी देखते हुए, चाँद को टहलता देखते. यह सब करते-करते कब नींद आ जाती, हमें पता ही नहीं चलता.
ए.सी., कूलर और पंखों के सहारे हम गर्मी से मुकाबला करने निकले हैं. आज तो हालत यह है कि यदि घर का ए.सी. या कूलर खराब हो गया है, उसेबनवाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, चाहे इसके लिए दफ्तर से छुट्टी ही क्यों न लेनी पड़े. शायद हम यह भूल गए हैं कि कूलरों और ए.सी. की बढ़ती संख्या यही बताती है कि पेड़ों की संख्या लगातार कम होते जा रही है. आज से पचास वर्ष क्योें, पच्चीस वर्ष पहले ही चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि तब इतनी क्रूर तो नहीं थी. उस समय गर्मी भी नहीं पड़ती थी और ठंडक देने वाले इतने संसाधन भी नहीं थे. पेड़ों से बने जंगल आज फर्नीचर के रूप में ड्राइंग रुम में सज गए या ईंधन के रूप में काम आ गए. अब उसी ड्राइंग रुम में जंगल वालपेपर के रूप में चिपक गए या फिर कंप्यूटर की स्क्रीन में कैद गए. वे हमारी ऑंखों को भले लगते हैं. हम उन्हें निहार कर प्रकृति का आनंद लेते हैं.
कितना अजीब लगता है ना प्रकृति का इस तरह से हमारा मेहमान बनना? प्रकृति ने बरसों-बरस तक हमारी मेहमान नवाजी की, हमने मेहमान के रूप में क्या-क्या नहीं पाया. सुहानी सुबह-शाम, पक्षियों का कलरव, भौरों का गुंजन, हवाओं बहना आदि न जाने कितने ही अनोखे उपहार हमारे सामने बिखरे पड़े हैें, लेकिन हम हैं कि उलझे हैं आधुनिक संसाधनों में. हम उनमें ढूँढ़ रहे हैं कंम्यूटर में या फिर ड्राइंग रुम में चिपके प्राकृतिक दृश्य में.
असल में हुआ यह है कि हमने प्रकृति को पहचानने की दृष्टि ही खो दी है. वह तो आज भी हमारे सामने ंफदकती रहती है, लेकिन हमें उस ओर देखने की फुरसत ही नहीं है. हमने अपने भीतर ही ऐसा आवरण तैयार कर लिया है, जिसने हमारी दृष्टि ही संकुचित कर दी है. विरासत में यही दृष्टि हम अपने बच्चों को दे रहे हैं, तभी तो वे जब कभी ऑंगन मेें या गैलरी में लगे किसी गमले में उगे पौधों पर ओस की बूँद को ठिठका हुआ पाते हैं, तो उन्हें आश्चर्य होता है. वे अपने पालकों से पूछते हैं कि ये क्या है? पालक भी इसका जवाब नहीं दे पाते. भला इससे भी बड़ी कोई विवशता होती होगी?
प्रकृति हमारे भीतर आज भी कुलाँचे मारती है, वह हमें पुकारती है, वह हमें दुलारना चाहती है, अपने ममत्व की छाँव देना चाहती है, लेकिन हम हैं कि चाहकर भी न तो उसके पास जा सकते हैं, न उसकी आवाज सुनना चाहते हैं और न ही उसकी छाँव में रहकर सुकून पाना चाहते हैं. हम भाग रहे हैं अपने ही आप से. भीतर के मासूम बच्चे को हमने छिपा दिया है संकुचित विचारों की भूल-भूलैया में. हम तो कीचड़ से खूब सने हैं, दूसरों को भी खूब नहलाया है कीचड़ से, पर अब यदि हमारा बच्चा कीचड़ से सना हुआ हमारे सामने आ जाता है, तो उसकी यह हालत करने वाले से झगड़ने में पीछे नहीं रहते. कीचड़ से सना हमारा बच्चा हमें ही फूटी ऑंख नहीं सुहाता. क्योंकि आज हालात काफी बदल गए हैं. अब हमें हमारा नटखट बचपन नहीं चाहिए, बल्कि एक सुनहरा भविष्य चाहिए. इस सुनहरे भविष्य की चाह में बचपन को सिसकता छोड़ चुके हैं. यह बचपन आज भी सभी चौराहों पर सिसकता हुआ हम सभी को मिल ही जाएगा।
डा. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. यह सच है कि हमने प्रकृति को पहचानने की दृष्टि ही खो दी है विचारणीय पोस्ट के लिए आभार.

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