गुरुवार, 26 जून 2008

लौट रहीं हैं संवेदनशील फिल्में...


डॉ. महेशपरिमल
एक जमाना था, जब लोग फिल्में देखने जाते थे, तब कलाकार का नाम नहीं, बल्कि किस बैनर की फिल्म है, यह अवश्य जानते थे. व्ही. शांताराम, जेमिनी, एवीएम, बी.आर. फिल्मस, राजश्री प्रोडक्शन, सागर आट्र्स, आर. के. प्रोडक्शन, प्रसाद प्रोडक्शन, नवकेतन फिल्मस, मिनर्वा प्रोडक्शन आदि की फिल्में देखकर दर्शक अपने साथ कुछ न कुछ नया विचार लेकर आता ही था. इन बैनरों की फिल्मों का समाज से सीधा सरोकार होता था. समाज की सच्चाई की जीती ये फिल्में अपनी एक अलग छाप छोड़ने में कामयाब होती थी. बीच के तीन दशक की बात छोड़ दें, तो कहा जा सकता है कि एक बार फिर संवेदनशील फिल्मों का दौर शुरू हो रहा है.

दो वर्ष पहले आई बागवाँ में संतानों के लिए सब कुछ करने वाले माता-पिता अंत में कितने परेशान होते हैं, इसे रवि चोपड़ा ने सफलता पूर्वक फिल्माया है. इस फिल्म की कहानी पिछले 40 वर्ष से पिता बी. आर. चोपड़ा के पास थी, पर किन्हीं कारणवश यह फिल्म नहीं बन पाई. पर जब रवि चोपड़ा ने इसे अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी के साथ शुरू की, तो लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया. फिल्म हिट रही और इस तरह से एक बार फिर संवेदनशील फिल्मों का दौर शुरू हो गया. वैसे पिछले एक दशक की हिट फिल्मों पर एक नजर डालें, तो स्पष्ट होगा कि राजश्री प्रोडक्शन ने पिछले 50 वर्षों में समाज को हमेशा ही संवेदनशील फिल्में ही दी हैं. अपनी ही हिट फिल्म 'नदिया के पार' का शहरी संस्करण लेकर जब फिल्म आई 'हम आपके हैं कौन', तो लोगों ने इसे काफी सराहा. यह फिल्म इतनी हिट रही कि इसे कई भाषाओं में डब किया गया. विदेशों में इसे केवल इसलिए सराहा गया कि इस फिल्म में भारतीय संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है. उसके बाद आई 'हम साथ-साथ हैं', यह फिल्म भी सामाजिक सरोकारों को लेकर पारिवारिक ताने-बाने में बुनी हुई एक साफ-सुथरी फिल्म रही. लोगों ने इसे भी सराहा. इसी क्रम में करण जौहर की कुछ-कुछ होता है, मोहब्बतें, वीर-जारा, कभी खुशी-कभी ंगम, कल हो ना हो, इनमें से किसी भी फिल्म को एक्शन फिल्म नहीं कहा जा सकता. इसी तरह संजय लीला भंसाली की 'हम दिल दे चुके सनम', देवदास, ब्लेक आदि फिल्में संवेदनशील प्रेमकथा की कतार में आती हैं. विपुल शाह की वक्त, राजकुमार हिराणी की मुन्नाभाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्ना भाई, राकेशरोशन की कोई मिल गया इन फिल्मों में न तो बलात्कार है और न ही हिंसा. परिवार के सभी सदस्यों के साथ देखी जा सके, इन्हें इस तरह की फिल्मों के साथ रखा जा सकता है. इन्हीं फिल्मों के साथ डॉन, सरकार, कृश, धूम जैसी दो चार फिल्में आ गई, पर यह कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि आज के युवाओं को केवल एक्शन फिल्में ही अच्छी लगती हैं.

बागवाँ, लगे रहो मुन्ना भाई की सफलता से यह कहा जा सकता है कि इन फिल्मों ने युवा वर्ग को निश्चित रूप से प्रभावित किया है. देश में गांधी साहित्य की बढ़ती बिक्री, गांधीगीरी पर घंटों चर्चा करते युवाओं को देखकर लगता है कि अब एक्शन फिल्मों से उनका मोहभंग होने लगा है. अपनी नई फिल्म बाबुल के बारे में रवि चोपड़ा ने इस बात की पुष्टि की है कि आज के युवाओं को संवेदनशील फिल्में भाने लगी हैं. बाबुल में एक अकाल विधवा होने वाली पुत्रवधू के जीवन में फिर से आनंद उल्लास लाने के लिए सास-ससुर क्या-क्या करते हैं, यह बताया गया है.
आज के युवाओं के पास फिल्मों के कई विकल्प हैं. आज वह पल भर में ही अपनी मनपसंद फिल्मों की सीडी प्राप्त कर लेता है. फिल्में चाहे विदेशी हों या फिर देशी, अब उसे अच्छी और मनपसंद फिल्में देखने से कोई रोक नहीं सकता. कथा में दम हो, प्रतिभावान कलाकार हों, उच्च कोटि का डायरेक्शन हो, कर्णप्रिय गीत-संगीत हों, तो टीन एजर्स उस फिल्म को देखने के लिए टूट पडेंग़े, फिर चाहे वह फिल्म विदेशी हो, या रीमेक. आज के युवा अपनी मस्ती में जीते हैं. उन्हें पता है कि क्या गलत है और क्या सही. कई बार उनका किसी गलत पर अधिक समय तक टिके रहने यह दर्शाता है कि उन्हें समझ नहीं है. पर बात यह नहीं है, आज का युवा एक तरफ काफी संवेदनशील है, तो दूसरी तरफ अपने कैरियर की तरफ सचेत भी है. अब डन्हें बरगलाना मुश्किल है. फिर चाहे वह क्षेत्र फिल्मों का ही क्यों न हो. पल भर में अपनी मनपसंद फिल्म की सीडी प्राप्त कर वह उस फिल्म के बारे में अपनी राय तय कर लेता है. कई बार तो पूर्व धारणा के अनुसार फिल्मों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी इकट्ठा कर वह अपनी राय बनाने में परिश्रम करता है. आजकल ऐसे कई संसाधनों की जानकारी उसे है, जिससे वह सही गलत का निर्णय कर सकता है. इसलिए आज के युवाओं को पथभ्रष्ट कहना मुश्किल है.

रही बात फिल्मों के गंभीर होने की, तो आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में हर कोई धन कमाना चाहता है. कई लोग केवल धन कमाते हैं और कई लोगों के सामने केवल धन ही सब-कुछ नहीं होता. वे संतुष्टि को धन मानते हैं. संतुष्टि केवल अपनी नहीं, बल्कि जिसके प्रति वे जवाबदार है,उनके प्रति. चोपड़ा बंधुओं की फिल्मों का कए सामाजिक सरोकार होता था. आज भी है,उन्हें मालूम है कि दर्शकों को ऐसा क्या चाहिए, जिसे संवेदनाओं में पिरो कर दिया जाए,तो उसे वे दिल से पसंद करेंगे. इसलिए वे वही परोसते हैं, जो आज के दर्शक चाहते हैं. इन दर्शकों में सबसे बड़ा वर्ग युवाओं का ही है, इसलिए उन्हें सामने रखकर वे अपनी सृजनशीलता का परिचय देते हैं. इस पर यदि संवेदनशील फिल्में आज के युवाओं को भाने लगी है, तो इसके आज के युवाओं की बदलती सोच ही है. इन अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.
डॉ. महेशपरिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. सही लेख है.. आप शायद 'तारे ज़मीन पर' को भूल गये.. ऐसी संवेदनशील फिल्म को हर वर्ग द्वारा पसंद किया जाना काबिल -ए -तारीफ है

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