मंगलवार, 1 जुलाई 2008

छलकते अन्नभंडारों के बीच तड़पते मासूम


डॉ. महेश परिमल
कुपोषण और भुखमरी यह दोनों ही देश की एक गंभीर समस्या है. बिहार, उड़िसा जैसे अल्प विकसित राज्यों में यह समस्या होना कोई विशेष बात नहीं है, किंतु महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में भी अब यह समस्या एक गंभीर स्थिति के रूप में दिखाई पड़ने लगी है. अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. अमर्त्य सेन ने भी भारत में फैली इस जटिल समस्या के विषय में अपनी चिंता जाहिर की है.संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1990 के दशक के बाद विश्व के 17 देशों में भूखमरी का प्रमाण बढ़ा है.
हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि अनाज के संदर्भ में हम विपुलता के बीच कमी की समस्या से जूझ रहे हैं. अनाज के भंडार छलक रहे हैं, सरकारी एवं किराए के अनाज गृहों में अनाज रखने की जगह नहीं है. फलस्वरूप किसान हजारों टन अनाज खुले आकाश के नीचे रखने को विवश है. इससे यह अनाज बारिश में सड़कर बेकार हो रहा है. अनाज में फफूंद पड़ जाने की वजह से उसे फेंकना पड़ रहा है. हजारों टन अनाज इस तरह बेकार हो जाने पर फेंक दिया जाता है. दूसरी ओर अनाज के एक-एक दाने के लिए देश के सेंकड़ो लोग तड़प रहे हैं. भखमीऔर कुपोषण से मौत के मुँह में जाने वाले इन मासूमों के प्रति हमारी सरकार का रूखा व्यवहार एक प्रश् चिन्ह तो अवश्य लगाता है, पर इसे पूर्ण विराम में नहीं बदलता.
1950-51 में भारत का अनाज उत्पादन 550 लाख टन था. जो 2003-04 में बढ़कर 2108 लाख टन हुआ है. 2003-04 में चावल का उत्पादन 864 लाख टन, गेहूँ का उत्पादन 727 लाख टन, मोटे अनाजों का उत्पादन 368 लाख टन और चना, मटर, राजमा, सेम के बीज आदि सूखे खाद्य पदार्थों का उत्पादन 149 लाख टन हुआ. इस तरह अनाज के उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई, इसमें कोई शक नहीं. उसे उपयोग में भी लाया जा रहा है. इससे तय है कि भुखमरी के लिए देश में अनाज का कम उत्पादन कतई जिम्मेदार नहीं है. इसके लिए जवाबदार है तो वह है लोगों की कम क्रय शक्ति. यदि किसी गरीब के पास कुछ पैसा होता है तो वह सबसे पहले उसका उपयोग अनाज खरीदने में ही करता है. पर जब लोगों के पास पैसे ही नहीें है, तो वह अनाज कैसे खरीदेंगे? इसके लिए यदि कोई दोषी है तो वह है देश की गरीबी और बेकारी.
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन फाओ के द्वारा जारी विवरण के अनुसार 1990 क बाद भारत मेें भुखमरी, कुपोषण के मामले में बढाेत्तरी हुई है. इसका आशय यह हुआ कि 1991 के बाद उदारीकरण और निजीकरण की बाजार आधारित नीतियों के अमल के कारण सरकार की सक्रियता में कमी आई है. सरकार की सामाजिक कल्याण की नीतियाँ विफल हुई हैं. अनाज की सबसिडी में लगातार कमी आई है. दूसरी तरफ रोजगारी और आय उत्पादन के अवसर भी कम हुए हैं. इससे भुखमरी और कुपोषण के मामले और बढ़े हैं.
विदेशी निवेशक ओर अनाज के भंडार छलक रहे हैं, इसके बाद भी महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में अप्रैल-मई 2004 के दौरान 1049 बच्चे कुपोषण का शिकार हुए. भुखमरी और कुपोषण से देश में बड़े पैमाने पर मानवीय, आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, शारीरिक नुकसान हो रहे हैं. एक सर्वेक्षण के अनुसार कुपोषण से देश को हर वर्ष दस अरब डॉलर का नुकसान होता है.
विश्व से 2015 तक भुखमरी और कुपोषण को खत्म करने का संकल्प लिया गया है. किंतु भारत में कुपोषण और भुखमरी में हो रही चिंताजनक वृद्धि के कारण दस वर्ष में भारत को इससे मुक्ति मिलना बहुत ही मुश्किल है. खाद्यान्न का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन उसका प्रभावशाली वितरण एवं संचालन नहीं हो रहा है. जो किसान अनाज उत्पादन में मुख्य भूमिका निभाते हैं, उसी के भाग्य में पूरा अनाज नहीं है. अभिजात्य किसान वर्ग इस अनाज पर अपना एकाधिकार रखते हैं. अनेक गरीबों के लिए मुट्ठी भर अनाज भी नहीं बच पाता. कुछ वर्ष पहले ही इंडियन मेडिकल रिसर्च काउंसिल ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि देश में 40 प्रतिशत लोग कुपोषण के शिकार हैं. सच्चाई इससे अलग है, क्योंकि सच तो यह है कि देश में कुल 50 प्रतिशत लोग कुपोषण के शिकार हैं.
कुपोषण एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या है. इस समस्या के औचित्य और व्यापाक विनाशक परिणामों को ध्यान में रखते हुए इस समस्या का शीघ्रातिशीघ्र निराकरण किया जाना चाहिए. देश में आर्थिक, सामाजिक, अपराध, मारधाड़, आतंकवाद आदि के पीछे यह भुखमरी ही जवाबदार है. क्योंकि जब इंसान को एक वक्त की रोटी नहीं मिलेगी, तब उसके पांव खुद ब खुद गलत दिशा में आगे बढ़ेंगे.
इस महासमस्या के निराकरण की दिशा में यदि कुछ सोचा जाए, तो सबसे पहले राजनेताओं को अपनी धन-सम्पत्ति और सत्ता की भूख को भुलाकर ंगरीबों के पेट की भूख को मिटाने की तीव्रतम राजकीय इच्छा जाग्रत करनी होगी. मात्र झूठे आश्वासन, कागजी योजनाओं और खोखले कार्यक्रमों के माध्यम से यह क्रांति नहीं लाई जा सकती. इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पारदर्शी, स्वच्छ, प्रभावशाली बनाना होगा. ग्रामीण रोजगार योजना के तहत मजदूरों को 50 प्रतिशत मजदूरी अनाज के रूप में वितरित की जानी चाहिए. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इतना सुधार होना चाहिए कि कालाबाजार करने वाले व्यापारियों को सख्त से सख्त सजा मिले. अभी तक इस तरह के कई मामले सामने आ चुके हैं, किंतु किसी व्यापारी को सजा हुई, यह सुनने को नहीं मिला.
कुपोषण और भुखमरी के खिलाफ चलाई गई तमाम सरकारी योजनाएँ पूरी तरह से दम तोड़ चुकी हैं. शालाओं में मध्यान्ह भोजन में लापरवाही के किस्से रोज ही सुनने को मिल रहे हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के हाल बुरे हैं. सरकार का चेहरा कहीं भी साफ दिखाई नहीं दे रहा है. दरअसल इसके पीछे उसकी मंशा ही स्पष्ट नहीं है. यही वजह है कि दृढ़ इच्छा शक्ति के अभाव में तमाम सरकारी घोषणाएँ गरीबों को लाभ नहीं पहुँचा पाई हैं, फलस्वरूप गरीब और गरीब हुए हेै और अमीर और अधिक अमीर. शायद यही सोचते हुए नीरज ने लिखा है-
तन की हवस मन को गुनाहगार बना देती है
बाग के बाग को बीमार बना देती है
भूखे पेट को ओ देश भक्ति सिखाने वालो
भूख इंसान को गद्दार बना देती है.
डॉ. महेश परिमल

3 टिप्‍पणियां:

  1. The nice thing with this blog is, its very awsome when it comes to there topic.

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  2. लेख पर काफी मेहनत की गई है, जानकारी के लिऐ धन्यवाद

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  3. बहुत अधिक अच्छा लिखा है। विचारात्मक शैली में लिखा गया निबन्ध।

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