शनिवार, 30 अगस्त 2008

चिंतन:-विचारों का टकराव


डॉ. महेश परिमल
उस दिन हमारी सोसायटी की महिलाओं में विवाद हो गया। विवाद का कारण गंदगी का होना था। महिलाएँ परस्पर आरोप लगा रहीं थीं, समझ में नहीं आ रहा था कि गलती कहाँ रही है? दोनों पक्षों के अपने-अपने दावे थे। कोई भी पक्ष झुकना नहीं चाहता था। इस विवाद में कई बातें सामने आई। जिस पर अब तक किसी का ध्यान ही नहीं था। विवाद तो अभी तक अनसुलझा ही है, पर जो बातें सामने आईं, उससे लगता है कि यदि विवाद नहीं होता, तो जो नई बातें आज सामने आई हैं, वे कभी सामने ही नहीं आतीं। सवाल यह उठता है कि नए विचार आए कहा से? बात एकदम सही है। जो भी आता है, अपने लिए जगह की तलाश करता है। जब तक पुराने विचारों को नहीं तिलांजलि नहीं दी जाएगी, तब तक नए विचारों को जगह कहाँ से मिलेगी? खंडहर के स्थान पर तभी नई इमारत बनेगी, जब खंडहर को तोड़ा जाएगा, जब तक खंडहर तोड़ा नहीं जाएगा, तब तक भला इमारत की बात कैसे सोची जा सकती है। याद रखें निर्माण सदैव विध्वंस के रास्ते से आता है। लेकिन विध्वंस इतना भी न हो कि विचारों का आना ही रुक जाए।
विचारों का टकराव अक्सर विरोध को जन्म देता है। यह सभी जानते हैं, पर यह बहुत कम लोग जानते हैं कि टकराव की यह प्रक्रिया कई नए विचारों को जन्म देती है। नए विचार याने नया उत्साह। यही उत्साह है, जो हममें जोश भरता है। इसी जोश में छिपे होते हैं जीवन तत्व। दुनिया में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, जिसे आलसी, काहिल, सुस्त और चेहरे पर मुर्दनी वाले लोग पसंद हो। हर किसी को हँसते-मुस्काते चेहरे ही अच्छे लगते हैं। ऐसे व्यक्ति पूरे समाज को अपने जैसा बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उनका यह प्रयास व्यर्थ नहीं जाता, वे जहाँ भी जाते हैं, अपनी मुस्कान बिखेर देते हैं।
लोग उन्हें ही पसंद करते हैं, जो ऊर्जावान होते हैं। उत्साह जिनकी ऑंखों में छलकता रहता है और जो अपने मस्तिष्क को संतुलित रखते हैं। किसी काम को हाथ में लेकर उसे सही अंजाम देने में अपनी शक्ति लगा देते हैं। ऐसे लोग कभी चैन से नहीं बैठते। वे क्रियाशील रहते हैं। उन्हें काम चाहिए। वे लगातार काम करने के आदी होते हैं। ऐसे लोगों से ही यदि विचारों का टकराव होता है, तो उस स्थिति में कई नई बातें सामने आती हैं।
आइए, विश्लेषण करें, टकराव की शुरूआत से। यदि किसी अधिकारी ने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को कोई ऐसा काम दे दिया, जो उसकी रूचि का न हो। उस काम को कर्मचारी अनमने ढंग से अरूचि के साथ करता है। नतीजा आशा के विपरीत मिलता है, जो स्वाभाविक है। ऐसे में अधिकारी इसे अपनी अवहेलना मानेगा और कर्मचारी पर कार्रवाई करेगा। दूसरी ओर कर्मचारी ने अरूचिपूर्ण कार्य को अपने रूचिपूर्ण कार्य के अतिरिक्त किया है, तो उसके मन में यह बात आएगी कि मैंने तो काम को अंजाम देने में पूरी कोशिश की, फिर भी परिणाम बेहतर नहीं निकला तो इसमें मेरा क्या दोष?
यह वह स्थिति है, जहाँ यह मतभेद मनभेद हो जाता है। परस्पर टकराव यदि सकारात्मक है, तो परिणाम बेहतर होते हैं, किंतु नकारात्मक टकराव के परिणाम कभी अच्छे नहीं होते। मतभेद और मनभेद में यही सकारात्मक और नकारात्मक वाली स्थिति है। जहाँ सभी एक जैसा सोचते हों, वहाँ प्रगति संभव नहीं। अनेक विचारों से बनने वाला एक विचार सफलता का सूत्र होता है। विचारों की यह टकराहट स्वयं को भी भीतर से देखने, जानने और समझने का रास्ता साफ करती है। हम सर्वश्रेष्ठ हैं, यह भावना विचारों के टकराव से दूर हो जाती है।
इस स्थिति से हमें घबराना नहीं चाहिए। यह स्थिति एक अच्छे विचार को सामने लाने के लिए प्रेरित करती है। यदि हमने इस टकराव को अपना अहं मान लिया, तो परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाएँगी, क्योंकि तब विचार नहीं अहं टकराएँगे। अहं का टकराव भयंकर परिणाम देता है। इससे बचने की हमें पूरी-पूरी कोशिश करनी चाहिए।
- विचारों के टकराव को सकारात्मक लें।
- इसे कभी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएँ।
- मतभेद को सहर्ष स्वीकारें, पर मनभेद न होने दें।
- अच्छे विचारों का प्रादुर्भाव टकराव से होता है।
- नए विचारों के स्वागत को सदैव तत्पर रहें।
याद रखें- जो लोग दूसरों को माफ नहीं कर सकते, वे उस पुल को तोड़ देते हैं, जिससे उन्हें आगे जाकर गुजरना है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

चिंतन:-विश्वास का घेरा


डॉ. महेश परिमल
कहते हैं कि विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है, यदि हो, तो। किसी पर विश्वास करने के लिए यह आवश्यक है कि आपके पास भी विश्वास का लहराता सागर होना चाहिए। विश्वास से ही विश्वास उपजता है। कभी-कभी तो आप किसी पर सहसा ही बहुत विश्वास कर लेते हैं, पर कभी-कभी तो सामने वाले पर जरा भी विश्वास नहीं कर पाते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? कभी जानने की कोशिश की है आपने?
उस रात ट्रेन अपने सही समय पर थी, पर उस व्यक्ति के लिए मानों एक-एक पल भारी पड़ रहा था, आखिर मामला बिटिया के लिए सुयोग्य वर देखने का था। उसे किसी दूसरे शहर जाना था। परिवार के अन्य सदस्य भी साथ थे। आखिर ट्रेन आई, अपने निर्धारित कूपे में जाकर उन्होंने अपनी बर्थ ढूँढी और थोडी ही देर में सबके बिस्तर भी बिछ गए। ट्रेन के चलते के कुछ ही देर बाद सभी ट्रेन के हिचकोलों के साथ ही गहरी नींद के आगोश में थे। इसे कहते हैं विश्वास की पराकाष्ठा। एक तरफ तो वे अपनी बिटिया के लिए सुयोग्य वर की तलाश में हैं, आखिर बिटिया की जिंदगी का सवाल है। अपने भावी दामाद के बारे में सब-कुछ जान लेना चाहते हैं। इस मामले में वे किसी पर विश्वास नहीं करना चाहते, दामाद की एक-एक आदत को जान लेना चाहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ ट्रेन में निश्ंचित सोकर उन्होंने अपने परिवार का जीवन एक अनजाने ड्राइवर के हवाले कर दिया। जिस ड्राइवर को उन्होंने कभी देखा नहीं, जाना नहीं, समझा नहीं, उस पर एक अनजाना विश्वास, वह भी इतना बड़ा विश्वास कि पूरा परिवार उसके भरोसे कर दिया। इसे ही तो कहते हैं विश्वास की पराकाष्ठा।
आखिर यह विश्वास आया कहाँ से? कहते हैं विश्वास ही विश्वास को जन्म देता है। सो जब उस ड्राइवर पर सरकार ने विश्वास किया, करोड़ों की सम्पत्ति उसके हवाले कर दी। सरकार के उस विश्वास को उसने पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। जब लगातार सरकार की सम्पत्ति सही-सलामत रही, तो यात्रियों का विश्वास जागा, इसी विश्वास के बल पर नए विश्वास का जन्म हुआ और विश्वास ने एक बड़ा आकार ग्रहण कर लिया, जिसमें सभी का विश्वास शामिल है। केवल एक विश्वास शब्द की रक्षा करने के लिए न जाने कितने लोग अपने प्राणों की आहूति दे देते हैं। कई युध्द तो केवल विश्वास के बल पर ही जीते जा चुके हैं।

विश्वास का जुड़ना जितना सहज है, उतना ही मुश्किल है उसका टूट जाना। यह स्थिति इंसान को भीतर तक हिलाकर रख देती है। इंसान को इससे उबरने में काफी वक्त लगता है। यदि इंसान का अनुभव कटु है, तो उसे किसी पर सहसा विश्वास ही नहीं होगा। दूसरी ओर कई ऐसे सच्चे और सरल लोग भी मिल जाएँगे, जो सहसा ही किसी पर विश्वास कर लेते हैं। कई बार इन्हें धोखा हो सकता है, पर इनका विश्वास पर विश्वास बना ही रहता है।
पहले जब शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी, तब पालक गुरुओं के पास जाकर अपने बच्चों को छोड़ देते थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि इस गुरुकुल में उनकी संतान को ऐसी शिक्षा मिलेगी ही, जिससे वह अपने कर्म क्षेत्र में प्रगति करेगा। होता भी यही था। यह विश्वास का परिणाम था। पालकों के विश्वास को गुरुओं ने समझा और उसका अच्छा परिणाम दिया। गुरुओं पर उस समय अविश्वास जैसी कोई बात ही नहीं होती थी। गुरु को विश्वास का पर्याय माना जाता था। अब उस स्थिति में विचलन आया है। आजकल विश्वास अपना रूप बदलने लगा है। इसके कई रूप हो गए हैं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

चिंतन :-धार्मिक शोर बनाम ध्वनि प्रदूषण



साथियॊ
आज २६ अगस्त याने मेरे ब्लाग का पूरा एक वर्ष । मुझे याद है भाई रवि रतलामी ने मुझे ब्लाग के लिए प्रेरित किया और एक दिन स्वयं भॊपाल आकर मेरा ब्लाग तैयार कर दिया । उस दिन मैंने इस दुनिया में पहला कदम बढ़ाया अब लगता है कि अभी भी ठीक से चलना नहीं सीख पाया हूँ । विश्वास है धीरे धीरे चलना सीख ही जाऊँगा । सभी साथियॊं का आभार जिन्हॊंने समय समय पर मेरा मार्गदर्शन किया । मुझे उन सभी से इसी तरह के सहयॊग की अपेक्षा रहेगी ।
डा महेश परिमल


हमारा मोहल्ला बहुत ही धार्मिक है। जगह-जगह मंदिर विराजमान है। आते-जाते लोग श्रद्धा से अपना सर झुका ही देते हैं। लोग भी धार्मिक होने लगे हैं, पर यह क्या? धार्मिक होने का यह मतलब तो नहीं कि आप अपने तथाकथित धार्मिक कार्य से दूसरों को अधार्मिक होने का संदेशा पहुँचाएँ। उस दिन हमारे पडाेसी की शादी की सालगिरह थी। उसने अखंड पाठ करवाने का विचार किया। हमें भी आमंत्रित किया। हमने उनका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। रात 8 बजे जब हम वहाँ पहुँचे, तो नजारा ही कुछ अलग था। छोटे से हॉल में क्षमता से यादा लोग बैठे हुए रामायण की चौपाइयाँ गा रहे थे। ढोल, मंजीरों की कानफाड़ आवाज उस पर एक माइक भी लगा था। जिससे पूरा शोर बाहर लगे दो स्पीकरों के माध्यम से पूरे वातावरण को शोर से गुंजायमान कर रहा था।
यह कैसी भक्ति? आसपास के लोग परेशान। कहीं बच्चों की पढ़ाई, कहीं कोई बीमार, कहीं कोई थका-हारा सोना चाहता हो तो सो न पाए। दूसरे दिन उसे फिर काम पर जाना है। ऐसे में वह कैसे सो पाएगा और दूसरे दिन कैसे काम पर जा पाएगा? बच्चे कैसे कर पाएँगे अपना होमवर्क? और वह बीमार जो शोर से घबराता है, उसका क्या होगा? सारी संवेदना खत्म हो गई, इस धार्मिक कार्य के पीछे।
धार्मिक अनुष्ठानों का विरोध नहीं होना चाहिए। ऐसे अनुष्ठान हृदय को पवित्र करते हैं, धार्मिक भाव जगाते हैं, विचार शुद्ध करते हैं, पर इनमें ध्वनि विस्तारक यंत्रों का जो प्रयोग किया जाता है, वह असहनीय हो जाता है। क्या हम इन यंत्रों का प्रयोग बंद नहीं कर सकते? वैसे भी हम इनका प्रयोग कर कोई पुण्य तो नहीं कमा रहे हैं। अनजाने में हम शोर बढ़ाने का ही काम कर रहे है। यह इतना जरूरी भी नहीं है। हमें अपने धार्मिक अनुष्ठान का प्रदर्शन तो नहीं करना है। तब फिर यंत्रों का प्रयोग करके हम मुसीबत क्यों मोल लें?
वैसे भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग कानूनन अपराध है, पर धार्मिक अनुष्ठानों में इसका खूब प्रयोग होता है। इससे निकलने वाला शोर व्यक्ति को बहरा बना सकता है या उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ सकता है। आज हमारे कानों में यह शहरी शोर इतना घुस गया है कि उसे बाहर निकालना मुश्किल है। इसीलिए कभी जब हम शहर से दूर चले जाते हैं, तो बाहर की शांति हमें बहुत भली लगती है। कुछ घंटों बाद हम फिर उसी शोर के बीच जीने को विवश हो जाते हैं।

प्रश् स्वाभाविक है- शोर की आवश्यकता क्यों? हमें शोर करके यह क्यों बताना चाहिए कि हम यह धार्मिक कार्यक्रम कर रहे हैं। क्या प्रचार आवश्यक है? अगर ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग न किया जाए, तो शांति स्थापित करने में हम परोक्ष भूमिका तो निभा ही सकते हैं। हमें शांति चाहिए, शोर नहीं।
- क्या हम वास्तव में शोरगुल पसंद हैं?
- क्या शोर करना और उसका प्रचार अति आवश्यक है?
- धार्मिक कार्यों में शोर की क्या आवश्यकता है?
- ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर समुचित प्रतिबंध क्यों नहीं लग सकता?
- शोर हमारा मानसिक संतुलन बिगाड़ देगा, तब क्या होगा?
निर्णय हमें स्वयं करना है, कि हमें शांति चाहिए या शोर?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 25 अगस्त 2008

अपने शहर में अपनेपन की तलाश


एक बड़े शहर का छोटा-सा नागरिक हूँ मैं। पहले यही शहर अपने बचपन में मेरे बचपन के साथ खेलता था, फुदकता था। हम साथ-साथ बड़े हुए। अचानक शहर ने कुलाँचे मारना शुरू किया। मैं जीवन की जद्दोजहद में फँस गया। शहर फैलता गया, मैं सिमटता गया। शहर का दायरा दस-बीस नहीं अस्सी किलोमीटर हो गया। मैं दो कमरों के फ्लैट में सिमटता गया। मैं नागरिक बना रहा और शहर 'मेट्रोपोलिटन सिटी' बन गया।
आज मैं शहर में अपने चलने लायक जगह ढूँढ़ रहा हूँ। कहते हैं, शहरों में पैदल चलने वालों के लिए फु टपाथ होते हैं, पर मेरे शहर में तो कहीं नहीं दिखता फुटपाथ। कहाँ है फुटपाथ? लोग जिसे फुटपाथ कहते हैं, वहाँ तो दुकानें लगी हैं। मैं आगे कैसे बढूँ? क्या मैं इस शहर में पैदल भी नहीं चल सकता? मैं नागरिक हूँ। वरिष्ठ नागरिक हूँ। सरकार के तमाम करों की अदायगी करता हूँ। तब फिर मुझे मेरे शहर में पैदल चलने का अधिकार क्यों नहीं है?
सुना है, शहर जब बड़ा होने लगता है, तब उससे भी बड़े अधिकारी आने लगते हैं। वे शहर के भविष्य पर चिंता करते हैं, योजना बनाते हैं, ताकि बड़े होते शहर के नागरिकों को कोई तकलीफ न हो। बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाकर नागरिकों की ऑंखों में सपना डाल देते हैं। शहर में अब ऐसा होगा, शहर में अब वैसा होगा। कुछ वर्ष बाद सपने तो बूढ़े हो जाते हैं, पर शहर के सीने में ऊग आती हैं बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी इमारतें। कई आवासीय कालोनियाँ, बड़े-बड़े कार्यालय और बड़ी-बड़ी दुकानें। शहर काँक्रीट का जंगल बनकर रह जाता है। लोगों का जीना मुहाल हो जाता है।
तब हो जाता है शहर अलमस्त। दिन भर भागता है, पर रात को सोता नहीं। आराम नहीं करता। रात को उसकी रफ्तार और तेज हो जाती है। तब भी फुटपाथ खाली नहीं मिलता। फुटपाथ तब शरणस्थली हो जाता है, गरीब और बेसहारा लोगों के लिए। मैं उनको फाँदकर तो जा नहीं सकता। इतनी मानवता तो शेष है मुझमें। फिर भी मैं अपने इस शहर में चलने के लिए फुटपाथ की तलाश में हूँ। आप मेरी मदद करेंगे? कहाँ है फुटपाथ इस शहर में? या फिर मुझे ऐसी जगह बता दें, जहाँ मैं कुछ पल सुकून के गुजार सकूँ। जहाँ शोर न हो, न वायु प्रदूषण और न ही सांस्कृतिक प्रदूषण। आप बता सकते हैं ऐसी जगह कहाँ है इस शहर में?

डॉ. महेश परिमल
मुझे लगता है आप भी मेरी कोई सहायता नहीं कर पाएँगे, क्योंकि आप भी इस शहर का एक हिस्सा हैं। अगर आप इस शहर का हिस्सा नहीं बन पाए हैं, तो फिर आप इस शहर के बारे में अच्छा कैसे सोच सकते हैं? जब आप इस शहर को अपने भीतर महसूस करेंगे, तभी इसे समझ पाएँगे। मेरे बहुत से हमउम्र साथी हैं, जो इस शहर को अपने भीतर महसूस करते हैं। हमने तय किया है कि हम इस शहर में फुटपाथों को फिर से आबाद करेंगे। उसे पैदल चलने वालों के लिए सुरक्षित करेंगे। हमें चाहिए आपका नैतिक समर्थन। आप देंगे ना?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 23 अगस्त 2008

राधा की पाती कान्हा के नाम....


प्रिय कान्हा,
आज यह पाती लिखते हुए मैं काफी उदास हूँ. लोग भले ही हमारे संबंधों को लेकर न जाने कितने ही प्रश्नों की झड़ियाँ लगाते रहें, पर हमारा शाश्वत प्रेम मेरे लिए तो एक अनमोल उपहार है. प्रेम कभी संबंधो में बंधा नहीं रहता कि उसे कोई नाम दिया जाए, वह तो सारे बंधनों से दूर असीम और अनंत होता है. फिर भी यह दुनिया, यह समाज हमारे संबंधों को लेकर उँगली उठाता है.
तुम इन सभी बातों से दूर, प्रश्नों के इस तिलस्म से विलग अपने आपमें मस्त रहते हो. इसलिए तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उठती उंगलियों की ओर तुम्हारी नजरें नहीं जाती. क्योंकि तुम्हारी ऑंखों में कदाचित मेरा ही बिम्ब है. लोगों की बातें तुम सुन नहीं पाते. मेरा विश्वास है कि तुम्हारे कानों में मेरी ही स्वर लहरियाँ गूँज रही है. ये विश्वास चलो मेरा भ्रम ही सही, पर सच्चाई यही है कि इन सभी सामाजिक बंधनों से दूर तुम अपने आप में ही मगन हो. किंतु कान्हा, मैं तो राधा हँ. हूँ तो एक नारी ही ना. मुझे लेकर लोग चार बातें कहें, और मेरे माथे पर बल न पड़े, हृदय तार-तार न हो, ऐसा कहीं हो सकता है भला?
काली अंधेरी रात, घनघोर वर्षा का तांडव, बिजलियों का नृत्य और ऐसे में तुम्हारा आना. सचमुच ही उस समय मथुरा नगरी धन्य थी. पर उस नगरी के माथे पर तुम्हारे नाम का टीका बहुत बाद में लगा. तुम नवजात थे, फिर भी यमुना ने तुम्हारे कदम चूम ही लिए. गोकुल में जिसने भी तुम्हें देखा, बस देखता ही रहा. तुम्हारी मनभावन, मोहिनी मूरत सभी को अपनी ओर खींचती रही. तुम्हारा बाल-रूप, बाल क्रीडाएँ सभी को लुभाती रही. मैं भी तो उन लोगों में से एक थी. धीरे-धीरे तुम्हारी बंसी की तान मेरे हृदय को छेड़ती रही. मेरे अधरों पर तुम्हारा नाम, ऑंखों में तुम्हारी छवि कब बस गई, इसका भान तो मुझे भी न हुआ.
बचपन की तुम्हारी हर शरारत, जो लोगों को अचंभे में डाल देती थी, दांतो तले उंगली दबाने पर विवश कर देती थी, वही शरारतें मुझे भीतर तक वेदना से भर देती थी. तुम्हारा खेल-खेल में गेंद लेने के बहाने यमुना में कूद पड़ना और काली नाग के साथ युध्द करना, लोगों के लिए एक कौतूहल का क्षण था. किंतु मेरे लिए तो वह परीक्षा की घड़ी थी. मेरे प्राण अधर में लटके, तुम्हारे नदी से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. एक उंगली पर गोवर्धन उठाने की क्या जरूरत थी कान्हा? यदि तुम्हें कुछ हो जाता तो?

तुम्हें माखन बहुत पसंद है, माँ यशोदा तुम्हें भरपूर माखन देती थी. उसके बाद भी गोपियों के घरों से माखन चुराना, उनके दहीं के मटके फोड़ना तुम्हारी आदत में शामिल था. वन में बलदाऊ के साथ गायें चराने जाते हुए भटक जाने का विचार ही तुम्हें डरा देता था और तुम माँ के पास ग्वालबालों और भाई की शिकायत करने में थोड़ा भी विलंब नहीं करते थे. जबकि तुम यह अच्छी तरह जानते थे कि कोई तुम्हें वन में अकेला छोड़ कर नहीं जाएगा. छोटी-छोटी बातों मे डरने वाले मेरे प्रियतम, क्या तुम्हें बडे-बड़े पराक्रम करते हुए माँ का खयाल नहीं आया? तुम्हारी तो एक नहीं, दो-दो माता थी. उनका ममत्व क्या तुम्हें रोक नहीं पाया? माँ की व्यथा से अनजान तुम अपने कर्मपथ पर आगे बढ़ते रहे और कर्मयोगी कहलाए.
एक बार तो कहो कान्हा कि मेरे मर्म को कब समझने की कोशिश की तुमने? गोपियों के साथ तुम्हारी अठखेलियाँ, रास-लीलाएँ, माखन चोरी और मस्ती मुझे भीतर तक आहत कर देती थी. एक बार तो मुझसे कहा होता- मुझे माखन चाहिए. मैं तुम्हारे लिए माखन के हजारों छींके अपने हाथों से तैयार कर तुम्हारे सामने रख देती. गोपियों के साथ तुम्हारा प्रेम मेरे भीतरी की अगन को और अधिक भड़काता रहा. इसका वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता.
मैं जानती हूँ, तुम बहुत पराक्रमी हो. शूरवीर, साहसी, बलशाली, हिम्मती यह सारे आभूषण तुम्हारे आगे फीके हैं. पूतना का वध, बकासुर का अंत, शिशुपाल का संहार, कंस का अंत, इन सारी चुनौतियों को स्वीकारते हुए क्या तुम्हें एक क्षण को भी मेरा विचार नहीं आया? चलो अच्छा है कि इन चुनौतियों के बीच मैं तुम्हारी स्मृतियों में नहीं थी, वरना तुम डगमगा जाते. जो मुझे अच्छा नहीं लगता.
मैं जानती हूँ कि संपूर्ण जगत में मेरी पहचान केवल तुमसे है. लोग तुम्हें भी राधा के बिना आधा कहते हैं. यह सुनकर एक पल को मैं गर्वित हो उठती हूँ, किंतु दूसरे ही पल तुम्हारा आधा होना मुझे स्वीकार नहीं होता. तुम्हारे जन्मदिवस पर मेरे पास तुम्हें देने के लिए सिवा ऑंसुओं के और कुछ भी नहीं है. हाँ, याद आया. तुम्हारी और सुदामा की मित्रता. यह एक अमोल भेंट है, जो हर किसी के भाग्य में नहीं है. यह मित्रता तुम्हारे जन्मदिवस पर सभी को मिले, हमारा शाश्वत प्रेम सभी को मिले, माँ यशोदा और देवकी की ममता सभी को मिले, कुरुक्षेत्र में पार्थ को दिए गीता के ज्ञान का कुछ अंश लागों के व्यवहार में मिले, इन्हीें कामनाओं के साथ....
केवल तुम्हारी
राधा
भारती परिमल

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

तारीफों के शोर में दबी कराह


नीरज नैयर
मुमताज और शाहजहां की बेपनाह मोहब्बत की निशानी ताजमहल आज भी जहन में प्यार की उस मीठी सुगंध को संजोए हुए है. वर्षों से यह इमारत प्यार करने वालों की इबादतगाह रही है. वक्त के थपेड़ों ने भले ही इसके चेहरे की चमक को कुछ फीका कर दिया हो मगर इसके लब आज भी वो तराना गुनगुना रहे हैं. इसकी हंसी इस बात का सुबूत है कि पाक मोहब्बत आज भी जिंदा है. हमारे दिलों-दिमाग पर ताज की यह तस्वीर हमेशा कायम रहेगी मगर अफसोस कि सच इतना हसीन नहीं है. सच तो यह है कि ताजमहल अब बूढा हो चुका है. उसके चेहरे पर थकान झलकने लगी है. वक्त के थपेड़ों में उसकी मुस्कान कहीं खो गई है. आंखों के नीचे पड़ चुके काले धब्बे उसकी उम्र बयां कर रहे हैं. ताज कराह रहा है मगर उसके कराहने का दर्द तारीफों के शोर में दबकर रह गया है.
मुमताज महल की मौत के बाद उसकी यादों को जिंदा रखने का ख्याल जब शाहजहां के जहन में आया तब ताजमहल का जन्म हुआ. तत्कालिन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने फारसी ग्रंथ में लिखा था कि मुमताज महल की मृत्यु के बाद उनके मकबरे के लिए आगरा शहर के बाहर यमुना नदी के किनारे एक उपयुक्त स्थान चुना गया. ताजमहल की नीवें जलस्तर तक खोदी गईं और फिर चूने-पत्थरों के गारे से उन्हें भरा गया. यह नीव एक प्रकार के कुओं पर बनाई गई. कुओं की नींव पर बनी इस इमारत की लंबाई 997 फीट, चौड़ाई 373 फीट और ऊंचाई 285 फीट रखी गई. ताजमहल के अकेले गुंबद का वजन ही 12000 टन है. ताजमहल को यमुना के किनारे ही क्यों बनाया गया इसके पीछे भी एक महत्वूर्ण तथ्य है. ताजमहल को यमुना के किनारे ऐसे मोड़ पर निर्मित किया गया जहां शुद्ध जल पूरे साल मौजूद रहता था.
इसके चारों ओर घना जंगल था. परिणामस्वरूप यहां वातावरण निरन्तर नम रहता था और यह नमी, धूल व वायु के किसी भी अन्य प्रदूषण को सोख लेती थी. अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो ताजमहल नमी की एक चादर सी ओढ़े रहता था जो इसे प्राकृतिक दुष्प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करती थी. वास्तव में ताजमहल का आंतरिक ढांचा ईंटों की चिनाई से बना है. श्वेत संगमरमर तो केवल इसमें बाहर की ओर लगा है. ताज के निर्माण के लिये विशेष प्रकार की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था. ताजमहल का ढांचा आज भी उतना ही मजबूत है जितना कि पहले था. वायु प्रदूषण से ताजमहल के आंतरिक ढांचे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. प्रदूषण केवल बाहर के संगमरमर को धूमिल कर रहा है. संगमरमर का क्षेय होना भी अच्छा लक्षण नहीं है. वर्तमान स्थिति की अपेक्षा यमुना पहले बारहों महीने भरी रहती थी. यमुना का पानी एकदम स्वच्छ था और पानी ताजमहल से टकराकर उसका संतुलन बनाए रखता था. इस भरी हुई नदी में ताजमहल का प्रतिबिंब साफ नजर आता था. मानो मुस्करा रहा हो. वर्तमान समय में यमुना का जल स्तर पहले की भांति नहीं रहा है और तो और पानी बहुत ही प्रदूषित हो चला है. रासायनिक कूड़े से युक्त शहर के गंदे नाले यमुना को और प्रदूषित कर रहे हैं. ताजगंज स्थित शमशान घाट के पास से बहने वाले नाले का गंदा पानी यमुना में जहां मिलता है वह स्थान ताजमहल के बहुत करीब है. उस जगह को देखकर यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यमुना को जल प्रदूषण से बचाने के लिए क्या कार्य किये जा रहे हैं. ताजमहल के दशहरा घाट पर यमुना किनारे कूड़े का ढेर सा लगा रहता है, जिसमें पॉलीथिन प्रचुर मात्रा में है. दिन-ब-दिन यमुना का पानी प्रदूषित होता जा रहा है.

यमुना के प्रदूषित पानी से निरन्तर गैसें निकलती रहती हैं. जो ताज को क्षति पहुंचा रही है. जाने माने इतिहासकार प्रोफेसर रामनाथ के एक शोध में यह बात सामने आई थी कि ताजमहल यमुना नदी में धंस रहा है. ताज की मीनारें एक ओर झुक रही हैं. वास्तव में इसे बनाने वाले की कला ही कहा जायेगा तो इतने झुकाव के बाद भी मीनारें अभी तक खड़ी है पर ऐसा कब तक चलेगा यह कहना मुश्किल है. वर्तमान समय में ताजमहल जैसी अमूल्य कृति को ज्यादा खतरा यमुना के प्रदूषित जल से है. ताजमहल को वायु प्रदूषण से हो रही क्षति को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बहस हुई मगर इस पर विचार नहीं किया गया कि इमारत धंस रही है. गौरतलब है कि 1893 में यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन ताज के समीप ही बना था. यहां निरन्तर 60 वर्षों से इंजन धुआं भी छोड़ रहे थे. परन्तु जब 1940 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट आई तो नतीजों में कहीं भी धुएं से ताज को होने वाली क्षति का उल्लेख नहीं था. ऐसा इसलिए कि यमुना का शुध्द जल और आसपास की हरियाली वास्तव में ऐसी कोई क्षति होने ही नहीं देते थे. नदी का स्वच्छ जल निरन्तर इसकी रक्षा करता था.
प्रदूषण के चलते आगरे से बहुत सी फैक्ट्रियों को हटा दिया गया मगर इस अहम समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया. हां यह बात एकदम कही है कि 1940 से अब तक के सफर में वायु प्रदूषण के अस्तित्व में भी इजाफा हुआ है. इसे ताज के संगमरमर को क्षति हुई है. इसके चलते आज ताज का श्वेत रंग थोड़ा काला सा हो गया है. जो निश्चित ही इसकी खूबसूरती के लिये घातक है. इसी के चलते कई बार मथुरा रिफाइनरी पर भी सवाल उठाए गए. आगरे से व्यावसायिक इकाइयों को तो हटा दिया गया मगर प्रदूषण की समस्या जस की तस है. भारत की तरफ पर्यटकों को आकर्षित करने में ताजमहल का अपना ही एक अनोखा योगदान है. ताज की इस छवि को हमेशा के लिए बनाए रखने केलिये सही दिशा में शीघ्र ही कार्य करने की जरूरत है. यमुना है तो ताज है यमुना नहीं तो ताज नहीं. इसलिए नदी के प्रदूषित पानी को स्वच्छ करने के प्रयास करने चाहिए. वर्तमान समय में यमुना का पानी कितना शुध्द है यह बताने की शायद जरूरत नहीं है. कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि नदी का जलस्तर ज्यादा नीचे न जाए. यह समस्या कोई नई नहीं है. कई बार सामने आ चुकी है मगर अफसोस की बात है कि अब तक इसके निपटारे के सार्थक कदम नहीं उठाए गए हैं.
तो नहीं रहता ताज
आज जो ताज हम देख रहे हैं यह शायद होता ही नहीं इसका अस्तित्व कैसे बचा इसके पीछे भी एक अनोखी घटना है. बात उन दिनों की है जब आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था. अंग्रेजी हुकूमत उन दिनों जोरों पर थी. बंगाल के एक दैनिक अखबार में ताज को बेचने के संबंध में विज्ञापन प्रकाशित हुआ इसको पढ़कर मथुरा निवासी एक व्यापारी ने ताज को महज चंद हजार रु. में अपना बना लिया और सब देखते ही रह गये.
इस बीच एक अंग्रेज अफसर ने ऐसे ही उस व्यापारी से पूछा कि आप इस इमारत का क्या करोगे तो व्यापारी ने जवाब दिया कि जनाब करना क्या है. इसे तुड़वाकर संगमरमर निकाल कर बेच देंगे. जवाब सुनने के पश्चात अफसर से रहा नहीं गया कि इतनी खूबसूरत इमारत को सिर्फ इसके संगमरमर के लिए गिरा दिया जायेगा. अफसर ने वहां से उस व्यापारी को तुरन्त निकालने का आदेश दिया और आखिरकार इस भव्य इमारत का अस्तित्व बच गया. एक अंग्रेज अफसर की वजह से ताज हमारी आंखों के सामने है. मगर इसकी खूबसूरती को कायम रखने के लिए हमारे द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.
नीरज नैयर

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

चिंतन:- सेहत की सौगात


डॉ महेश परिमल
एक चीनी कहावत है - अगर मैं अपने हृदय में एक हरा-भरा बगीचा बना लूँ, तो गाने वाली कोयल अपने आप आ जाएगी। ये उन बुझे हुए निराष लोगों के लिए एक रामबाण दवा है, जो जीवन की राहों में चलकर थक गए हैं, निस्तेज हो चुके हैं। स्वयं को प्रकृति से दूर रखा, इसीलिए इतनी जल्दी थक गए। प्रकृति को अपने भीतर बसाने वाले सदैव प्रफुल्लित होते हैं। उनके विचारों में ताजगी होती है। वे ऊर्जावान होते हैं।
कभी किसी दिन आप जल्दी बिस्तर छोड़ दें और बाहर का नजारा देखने निकल पड़ें। चिड़ियों की चहचहाट को अपने भीतर आने दें। ठंडी हवाओं के झोकों को महसूस करें। बादलों को दौडता देखें, यदि आपके पास और भी समय हो, तो घर से बाहर आकर किसी पार्क में पहुँच जाएँ। फिर देखो, प्रकृति के सुकुमार किस तरह से व्यायाम करते दिखाई देंगे। बुजुर्ग बच्चाें के साथ बच्चे बनकर दौड़ लगा रहे हैं। युवा एक नई उमंग और उल्लास के साथ सूरज की किरणों के बीच एक नई सोच में रंग भर रहे हैं। इन्हें कहा जा सकता है, प्रकृति की गोद में खेलने वाले सुकुमार।
आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में यह संभव नहीं हो पाता। किसी के पास भी समय नहीं है। धन की लालसा और आगे बढ़ते रहने की चाहत ने सब-कुछ भुला दिया है। हमारे भीतर ही खो गया है, पेड़-पौधों का हरापन। अंतस की हरियाली पीले पत्तों की तरह मुरझा गई है। षहरी षोर और वाहनों का धुऑं हमारे भीतर इतनी पैठ जमा चुका है कि हम प्रकृति के सच से दूर हो गए हैं। प्रकृति से जुड़ना तो दूर हम प्रकृति को भूलने लगे हैं। ड्राइंगरूम में प्रकृति का बड़ा सा पोस्टर लगाकर हम सोचते हैं कि हम प्रकृति प्रेमी हो गए हैं। क्या यही है प्रकृति प्रेम? प्रकृति का राग ही ऐसा है, जिसके लिए किसी साज की आवष्यकता नहीं होती। यह तो हृदय के स्पंदन से प्रारंभ होता है और मस्तिष्क को प्रभातिव करता है।
प्रकृति के बारे में प्रकृतिप्रेमी वाल्ट व्हिटमैन कहते हैं कि किसी अध्यात्म से अधिक संतुष्टि मुझे अपनी खिड़की के बाहर सूर्योदय के नजारे से मिलती है। हमारी कई समस्याओं के मूल में यही भावना है कि हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। प्रकृति ने हमें सदैव दिया है। प्रकृति हमसे कुछ नहीं लेती। उसके पास ऊर्जा की दौलत है, वही हमें लुटाना चाहती है। एक हम ही हैं, जो प्रकृति का साथ छोड़कर न जाने किस चाहत में भागे जा रहे हैं।
जरा सोचिए, आज हमें जो षुध्द वायु मिल रही है, वह हमें हमारे आसपास के पेड़-पौधों से प्राप्त हो रही है। इन्हें लगाया किसने है? हमारे पूर्वजों ने। याने पूर्वजों का वह पराक्रम आज हमें काम आ रहा है। आप बताएँ अपनी भावी पीढ़ी के लिए आप ऐसा क्या करने जा रहे हैं, जो उन्हें काम आए? आपका उत्तर नकारात्मक ही होगा। अपने पूर्वजों के अच्छे कार्यों की बदौलत आप तो बच गए, अगली पीढ़ी को षुध्द हवा और पानी भी न देकर उनके साथ किस प्रकार का अन्याय करेंगे, उसकी कल्पना भी की है आपने?
प्रकृति को माँ का स्थान ऐसे ही नहीं दिया गया है। इसकी गोद में आकर तो देखो- माँ का सच्चा दुलार मिलेगा। वह भी बिना किसी भेदभाव के, नि:स्वार्थ भाव से। हम इससे हृदय से जुड़ जाएँ, तो यह हमें उपहारों से लाद देगी। इसका सबसे बड़ा उपहार होता है- सेहत का उपहार। प्रकृति प्रेमी इसीलिए कभी बिमार नहीं पड़ते। इसलिए आओ प्रकृति से जुड़ें और पा लें- सेहत की सौगात। फिर इसे बाँट दें अपनों के बीच।
डॉ। महेश परिमल

बुधवार, 20 अगस्त 2008

राह चलते पुण्य बटोरो

डॉ. महेश परिमल
आजकल महानगरों में एक दृश्य आम हो गया है, एक महिला बैठी हुई है, पास ही घास रखी हुई है. करीब ही एक खूँटे से गाय बँधी हुई है. लोग आते हैं, कुछ पैसे देकर घास खरीदते हैं और गाय को खिला देते हैं. इस तरह से वे शायद पुण्य बटोरते हैं. पुण्य देने का यह गोरखधंधा आजकल हमारे देश में खूब फल-फूल रहा है।
यह सच है कि गाय से हमारी धार्मिक मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं, वेदों में गाय को माता का स्थान दिया गया है, उसका न केवल दूध बल्कि मूत्र और गोबर को भी पवित्र माना गया है, पर शायद हम यह समझने में भूल कर जाते हैं कि जिसने गाय पाली है, तो गाय को चारा देने कार् कत्तव्य भी उसी का है। वह अपनेर् कत्तव्य से विमुख होकर उसके चारे की व्यवस्था के लिए हम पर आश्रित है। क्यो? एक भूखी गाय, उसके सामने चारा है, किंतु वह चारा खा नहीं सकती। कोई पुण्य बटोरने आता है, धन देकर चारा खरीदता है और गाय को दे देता है। गाय चारा खाती है, हम प्रणाम करते है और यह सोचकर आगे बढ़ जाते हैं कि चलो कुछ तो पुण्य बटोर लिया। इस तरह से क्या हम उस गो-पालक द्वारा गाय को भूखा रखने के अत्याचार में अनजाने ही शामिल नहीं हो जाते? यह तो वैसा ही हुआ कि एक व्यक्ति अपने बच्चों को भूखा रखकर आपसे भोजन की गुहार करे, आप उसी से भोजन खरीदें और बच्चों को दें और पुण्य बटोरें। क्या यह पुण्य आपको स्वीकार है? शायद नहीं।
यह दौर आपाधापी और प्रतिस्पर्धा का है। इसमें हम इतने व्यस्त हैं कि कोई पुण्यकार्य करना हमें सुहाता नहीं है। हम इसी आपाधापी में पुण्य बटोरना चाहते हैं, शायद गाय को चारा देकर हम सात्विक कार्य कर रहे हैं और हृदय को पवित्र करने का प्रयास कर रहे हैं। मेरा प्रश्न यह है कि हृदय को इतना मलिन ही क्यों किया कि उसे पवित्र करने की आवश्यकता पड़े। हृदय मलिन होता है हमारे कार्यों से, हमारे विचारों से, हमारे व्यवहार से। यदि हम अपने विचारों को ही पवित्र कर लें, तो हमारे कार्य और व्यवहार को पवित्र होने में देर नहीं लगेगी।
जापान का एक दृष्टांत है। एक व्यक्ति कार से तेजी से कहीं चला जा रहा था। अचानक उसने कार रोकी, किनारे खड़ी की और पास ही एक नल से व्यर्थ बहते पानी को बंद किया। कार स्टार्ट की और आगे बढ़ गया। क्या यह पुण्य कार्य नहीं था? हम जहाँ रहते हैं, वहाँ ऐसे दृश्य निश्चय ही आम होंगे, पर क्या हमने कभी इस तरह से पुण्य बटोरने का साहस किया? ऊर्जा की बचत एक सरकारी नारा है। यह नारा हमें घर में याद रहता है, पर अपने कार्यालय पहुँचते ही हम इस नारे को ताक पर रखकर अनजाने में ही ऊर्जा बेकार होने देते हैं। क्या यहाँ हम सतर्क रहकर ऊर्जा बचाकर देश को सम्पन्न बनाने का पुण्य कार्य नहीं कर सकते?
देखा जाए, तो हमारी नीयत ही साफ नहीं है। अपनी खुशी में हम मित्रों, पड़ोसियों को तो शामिल कर सकते हैं, पर देश को कदापि नहीं। इसी तरह दुख के क्षणों में हम रोने या शोक मनाने के लिए अपनों का काँधा ढूँढेंग़े, पर इसमें भी देश को शामिल नहीं करेंगे। जापान में ऑफिस में काम करते हुए किसी कर्मचारी को यह सूचना मिले कि उसका लड़का हुआ है, तो वह अपनी इस खुशी में देश को शामिल करते हुए चार घंटे अधिक काम करने का निश्चय करता है। यदि उसे यह पता चले कि उसके पिता का देहांत हो गया, तो इसमें भी वह देश को शामिल करते हुए सड़क की सफाई करने का निश्चय करता है। क्या ऐसी धार्मिक एवं राष्ट्रीय भावना हममें है? यह सच है कि हम जापानी नहीं बन सकते। हम पाश्चात्य संस्कृति बेधड़क अपना सकते हैं। उसके दुर्गुणों को हम सहज अंगीकार कर सकते हैं, पर भारत की गौरवशाली परंपरा को निभाते हुए अच्छे संस्कारों को नहीं अपना सकते। यह हमारी विशेषता है कि दुर्गुणों को अपनाने और देखने में हम देर नहीं करते। सद्गुणों को देखना हमारे स्वभाव से दूर होता जा रहा है।
महानगरों में हमारे ऑंखों के सामने से कई अच्छे दृश्य भी गुजरते हैं, पर हम उन्हें 'नोटिस' में नहीं लेते। मेरी ऑंखों के सामने से वह यादगार दृश्य गुजरा है। मेरीन लाइंस का समुद्री किनारा। लोग ताजा हवा ले रहे हैं, कोई अपने कुत्ते के साथ दौड़ रहा है, कोई पत्नी या बिटिया के साथ तेज-तेज चल रहा है। कोई ऐसे ही पंजों के बल कूद रहा है। ऐसे में एक व्यक्ति साधारण कपड़े पहने, एक बड़ा सा थैला लिए वहां आता है, थैले से खाना निकालता है, अलग-अलग प्लेटों में सजाता है। डबलरोटी, पके चावल, रोटी, सब्जी सभी प्लेटों में रखता है और एक सीटी मारता है। थोड़ी ही देर में आवारा कुत्तों का जमघट लग जाता है। आवारा कुत्ते वहाँ पहुँच तो जाते हैं, पर भोजन पर टूट नहीं पड़ते। सभी अनुशासित होकर अपनी-अपनी प्लेटों के आगे खड़े हो जाते हैं। कुछ देर की इंतजारी के बाद उस व्यक्ति की तरफ देखते हैं। व्यक्ति इशारा करता है और कुत्ते खाना शुरू कर देते हैं। इस दौरान व्यक्ति की प्यार भरी थपकी हर कुत्ते को पड़ती है। किसी को डाँटता है, किसी को दुलारता है। खाना खत्म होते ही सभी कुत्ते चले जाते हैं। व्यक्ति प्लेट उठाता है और चला जाता है।
दादर के ही शिवाजी पार्क में एक महिला रोज सुबह-शाम आवारा कुत्तों को दूध देती है। उसका प्यार, दुलार, ममत्व कुत्तों पर मानों बरस पड़ता है। उसके चेहरे पर परम संतोष का भाव होता है। इन्हें न लोगों की परवाह होती है, न ही कुत्तों की प्लेट उठाने में घृणा होती है। ये सिर्फ अपना काम करते हैं। प्रचार की भूख से परे ये केवल सेवाभाव के साथ जीए जा रहे हैं।
आप कह सकते हैं कि नैतिकता का पाठ तो हर कोई पढ़ा सकता है, उपदेश कोई भी दे सकता है, पर उसे अमल में लाना टेढ़ी खीर है। ऐसा सोचना स्वाभाविक है, पर हम यह भी तो देखें कि पहले हम क्या थे, पर आज एकाएक हममें परिवर्तन कैसे आ गया। हमारे माता-पिता ने ही संस्कार के रूप में हमें अपने से बड़ों की इात करना सिखाया। फिर हम अब क्यों हिचकने लगे हैं बड़ों का सम्मान करने में? हम प्रतिदिन गलतियाँ करते हैं। इसे हम बखूबी जानते-समझते हैं, पर उसी गलती की तरफ कोई आपसे छोटा इंगित करता है, तो आपका पारा सातवें आसमान पर पहुँच जाता है, ऐसा क्यों? उस अदने से व्यक्ति ने आपका ध्यान उसी गलती की ओर दिलाया है, जिस गलती को आप बखूबी जानते हैं, फिर यह झूठा अहंकार क्यों?
भूखे को भोजन देना पुण्य है, पर किसी व्रतधारी या अनशनकारी को भोजन देना पाप है, पर अब हम सब इस पाप-पुण्य की सीमा से बाहर आ गए हैं। सच यही है कि सामने वाले से जब तक हमारा स्वार्थ सधता है, तब तक वह भगवान, बाद में वह हमारे लिए दो कौड़ी का भी नहीं रह जाता है। आज हम इसी सच को पाले हुए हैं। यह सच का एक रूप है। जल्द ही यही सच विभिन्न विद्रूपताओं के साथ हमारे सामने आएगा, हमें इसके लिए तैयार रहना होगा।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

लुप्तप्राय नदियों में शुमार है हमारी पवित्र गंगा


डॉ. महेश परिमल
कितनी श्रध्दा रखते हैं, हम सब अपनी गंगा मैया पर। फिर चाहे वह इलाहाबाद का तट हो या हरिद्वार का, लखनऊ हो या आगरा, हर जगह हम रोज सुबह देखते हैं कि लोग अपनी श्रध्दा को किस तरह से प्रदर्शित करते हैं। इनकी श्रध्दा ही इनका विश्वास है। अगर इन्हें यह कहा जाए कि गंगा अब हमारे देश में कुछ ही वर्षों की मेहमान है, तो इन्हें विश्वास नहीं होगा। पर इस कटु सत्य को हमें अब स्वीकार ही लेना चाहिए, क्योंकि गंगा अब अपना अस्तित्व खोते जा रही है। गंगा तट लगातार सिमटते जा रहे हैं, इसका प्रदूषण भी बढ़ रहा है। गंगा को शुध्द करने के सारे प्रयास नाकाम होते जा रहे हैं। गंगा अब मैली ही नहीं, बल्कि गटर के गंदे पानी वाली गंगा बन गई है। अब इसके पानी में वह बात नहीं रही। अब तो बोतल में बंद पानी अधिक दिनों तक सुरक्षित भी नहीं रह पाता। गंगा नदी अब अपनी आयु पूरी कर रही है। आज की युवा पीढ़ी जब तक अपनी जीवन संधया में पहुँचेंगे, तब तक गंगा नदी केवल पाठय पुस्तकों और पुरानी हिंदी फिल्मो तक ही सीमित रह जाएगी, यह तय है।
गंगा नदी में रोज ही हजारों टन फूल, लाखों गैलन सीवेज का पानी और हजारों गैलन प्रदूषणयुक्त रसायन विभिन्न माध्यम से पहुँच रहे हैं। हाल ही में महानगर दिल्ली में लोकशिक्षण के एक भाग के रूप में गंगा नदी पर केंद्रित एक डाक्यूमेंट्री फिल्म का प्रदर्शन किया। इस फिल्म का नाम है 'गंगा: रेस्क्यूइंग द रिवर इन डिस्ट्रेस'। इस फिल्म को बनाया एक विदेशी गंगा प्रेमी सुसान जी. जोन्स ने, इसमें सहयोग दिया पानी मोर्चा गंगा महासभा नामक एनजीओ ने। इस फिल्म में उन्होंने बताया है कि किस तरह से गंगा पर्वतराज हिमालय की गोद से निकलकर उत्तर के मैदानी इलाकों में प्रवेश कर अपना रौद्र रूप दिखाती है। उसके तट पर होने वाले अंतिम संस्कार, गंगा पूजा-आरती, गंगा में छोड़े जाने वाले दीये, फूल-हार, स्थानीय लोगों द्वारा मल-विसर्जन और स्नान और इसके अलावा बरतन-कपड़े की धुलाई को स्पष्ट रूप से दिखाने की कोशिश की है। दूसरी ओर जगह-जगह पर मिलने वाले रसायनों के कारण किस तरह से गंगा लगातार प्रदूषित होती जा रही है, फिल्म में इसे बखूबी दिखाया गया है।
पिछले एक दशक से पर्यावरण प्रेमी और वकील महेश मेहता गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए काम कर रहे हैं, गंगा में जहरीले रसायनों और गंदा पानी बहाने वाले तमाम निगमों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ना मामूली बात नहीं है। अफसोस के साथ वे बताते हैं कि मानव ने यदि प्र.ति के साथ छेड़छाड़ करना बंद नहीं किया, तो समूची जीवनसृष्टि ही खतरे में पड़ जाएगी। हाल ही में यूएनओ से जारी किए गए रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि गंगा को पानी की आपूर्ति करने वाले हिमालय के हिमखंड सन् 2030 तक पूरी तरह से पिघल जाएँगे। इन हिमखंडों से गंगा को 70 प्रतिशत पानी मिलता है। खासकर चैत और वैशाख में मैदानी इलाकों में जब गंगा बिलकुल सूख जाती है, तब गंगोत्री ही एकमात्र सहारा के रूप में उसकी मदद करती है। यही गंगोत्री अब 50 गज के हिसाब से सिकुड़ती जा रही है। आज से 20 वर्ष पहले गंगोत्री इतनी तेजी से नहीं पिघल रही थी, लेकिन अब उसका पिघलना तेजी से जारी है।
पानी मोर्चा गंगा महासभा के साथ सम्बध्दा निवृत्त कमांडेंट सुरेश्वर सिन्हा कहते हैं कि 2008 के मार्च में यूएनओ ने लुप्तप्राय होने वाले विश्व की दस नदियों की सूची जारी की है, जिसमें गंगा का नाम भी शामिल है। यह जानकर हर भारतीय दु:खी हो सकता है, पर किया क्या जा सकता है? प्र.ति से लगातार छेड़छाड़ के कारण गंगा ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के पर्यावरण पर संकट आ पड़ा है। हजारों वर्ष की पुराण प्रसिध्दा और एक से अधिक संस्कृति की साक्षी गंगा आज लुप्तप्राय नदियों की श्रेणी में आ गई है। यह खबर भारतीय को कँपकँपा सकती है। गंगा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया खंड में पेयजल की विशाल स्रोत के रूप में जानी जाती है। गंगा लुप्त न हो, इसके लिए एक-एक समझदार भारतीय नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी है।
कमांडेंट सिन्हा के अनुसार गंगा 50 करोड़ लोगों के लिए पेयजल और खेती के लिए पानी की पूर्ति करती है। किंतु अब उसकी यह आपूर्ति जल्द ही खतम हो जाती है। उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर रायों के लोग कम पढ़े-लिखे होने के कारण परिस्थितियों की भयावहता को ये समझ नहीं पा रहे हैं। दूसरी ओर हर पाँच साल में हाथ जोड़कर गरीबों के सामने गरीब बनकर वोटों की भीख माँगने वाले नेता इस स्थिति को समझना ही नहीं चाहते।
विशेषज्ञ कहते हैं कि वह समय दूर नहीं, जब गंगा एक मौसमी नदी बनकर रह जाएगी। यदि बारिश अच्छी हुई तो गंगा के किनारे छलकते हुए मिलेंगे, परंतु गर्मी में गंगा नदी पूरी तरह से सूख जाएगी। 1568 मील लम्बी नदी के किनारे 100 से अधिक छोटे-बड़े शहर बसे हुए हैं। इनमें से बहुत ही थोड़े शहरों की अपनी सीवेज लाइन है, बाकी शहरों का गंदा पानी गंगा में ही बहाया जा रहा है। इसमें उद्योग कारखानों की गंदगी तो और भी बुरी हालत में है। यह सारे काम बेरोकटोक जारी हैं। गंगा में मिलने वाले इन प्रदूषणों को कम करने की दिशा में सरकार के सारे प्रसास नाकाफी साबित हो रहे हैं। हमारे सामने ही गंगा का पलायन हो रहा है। इसे हम जानते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। गंगा मैली नहीं थी, हमने ही उसे मैली कर दिया है। गंगा तो पवित्र नदी थी, जो अब पाठय पुस्तकों और पुरानी फिल्मों में ही देखने और जानने को मिलेगी। यह हमारा दुर्भाग्य ही है। गंगा हमारे पाप तो धो सकती थी, पर हमारा दुर्भाग्य नहीं बदल सकती। हर-हर गंगे.
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 18 अगस्त 2008

रिश्तों की गरिमा खोता 'भाई'


डॉ. महेश परिमल
हर साल की तरह इस बार भी रक्षा बंधन का त्योहार आया और चला भी गया। बहुत ही कम लोगों ने इस दिन यह ध्यान दिया होगा कि इस दिन के लिए कई लोग अपने प्रचार के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि महिलाएँ जेल तक पहुँच जाती हैं कैदियों को राखी बाँधने। यह जानकारी हमें अखबार या टीवी से ही मिलती है। यानि कि इसमें भी प्रचार ? रिश्तों में यह कैसी विकृति? भाई-बहन का निष्पाप प्यार भी आजकल प्रचार की वेदी पर चढ़ गया है। अब तो भाई शब्द से ही डर लगने लगा है। बहन के इस भाई को कहीं किसी भाई की नजर न लग जाए? अब तो यह भाई ही सब-कुछ तय करने लगा है। पूरने समाज मेें ये भाई हावी हो गया है।आज जीवन की धरती पर रिश्तों की इंद्रधनुषी धूप ऐसी चटकी है कि हर रिश्ता अपने अर्थ खो रहा है. इन्हीं अर्थ खोते रिश्तों में एक रिश्ता है, भाई-बहन का. सदियों से चला आ रहा यह पवित्र रिश्ता श्रद्धा और मर्यादा से परिपूर्ण है. इस रिश्ते को लेकर न जाने कितनी ही बार भाइयों ने अपनी बहनों के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है, तो कई बार बहनों ने भी अपने धर्म का पालन किया है. भाई-बहन के इस अटूट रिश्ते पर अब उँगलियाँ उठने लगी हैं. अब तो कहीं भी कोई भी सुरक्षित नहीं है. न बहन और न ही भाई.
देखते ही देखते भाई शब्द ने अपनी परिभाषा बदल दी. अब तो भाई शब्द इतना डरा देता है कि जान हलक पर आकर अटक जाती है. बहन अपने भाई से छुटकारा पा सकती है, लेकिन कोई भी इंसान इस भाई से छुटकारा नहीं पा सकता. जिसकी कलाई में राखी बँधी है, वह तो है भाई, पर जिसके हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र है, वह भी तो कुछ है भाई. इस भाई के आगे रिश्तों की गुनगुनी धूप भी आकर सहम जाती है. इसके सामने कोई रिश्ता नहीं होता, इनका रिश्ता केवल अपराध से होता है. आज किसी बहन का भाई होना भले ही फख्र की बात न हो, पर दूसरे ही तरह का भाई होना फख्र की बात हो गई है. एक तरफ ये दूसरा भाई उतनी सहजता से प्राप्त नहीं होता, तो दूसरी तरफ ये ही भाई समाज में अपनी धाक जमाने के लिए काम भी आता है. एकमात्र बहन के यदि आठ भाई भी हुए, तो ये अकेला भाई उन सब पर हावी हो सकता है.

क्या करें, आज समाज का ढाँचा ही बदल गया है. संबंधों की पवित्रता पर अब विश्वास किसे है? हर कोई इसे दागदार बनाने में अपना योगदान दे रहा है. संबंध चाहे ईश्वर से हो या समाज से, इंसान ऐसा कोई भी मौका नहीं चूकना चाहता, जिससे उसका स्वार्थ सधे. स्वार्थ की यह बजबजाती नदी इतनी प्रदूषित हो गई है कि पूरा समाज ही इससे प्रभावित हो रहा है.
भाई-बहन के पवित्र संबंधों को दर्शाने वाला त्योहार रक्षा बंधन भी आज पूरी तरह से व्यावसायिक हो गया है. राखी बाँधने के पहले ही बहन सोच लेती है कि इस बार भैया से क्या लेना है? ये तो है घर की बातें. हमारे समाज में ऐसे बहुत से महिला संगठन हैं, जो इस दिन विशेष रूप से सक्रिय हो जाते हैं. इन संगठनों की महिलाएँ भले ही अपने सगे भाइयों को राखी न बाँध पाएँ, पर शहर की जेल में जाकर वहाँ कैदियों को राखी बाँधना नहीं भूलती. आप शायद उन महिलाओं की पवित्र भावनाओं को समझ सकते हैं. आप शायद यही सोच रहे होंगे कि इससे कैदियों की कलाई सूनी न रह जाएँ, इसलिए इन महिलाओं का यह कार्य पुनीत है. लेकिन आज जब प्रचार और प्रसार की भूख अपना पंजा फैला रही है, तब भी क्या ऐसा सोचना उचित है. ये महिला संगठन चुपचाप अपना काम करे, तो इनकी पवित्र भावनाओं को समझा जा सकता है. पर इस काम को करने के पहले वे इसका खूब प्रचार करती हैं. राखी के दिन जेल जाने के पहले मीडिया को सूचित करना नहीं भूलती. राखी बाँधने का काम पूरा होते ही महिला आत्मसंतुष्टि का भाव लिए अपने घर पहुँचती हैं. सोचती हैं आज एक बड़ा काम हो गया. दिन में लोकल टीवी पर अपने आप को देखकर शायद इतरा भी लें. पर वह क्या सच्चा आत्म सुख प्राप्त कर पाती हैं. उन्हें तो यह भी नहीं मालूम होता कि आज कितनों को राखी बाँधी. चलो यह संख्या मालूम भी हो गई, पर क्या अपने सभी भाइयों के नाम जानती होंगी वे सभी?
एक दृश्य की कल्पना करें. राखी के दिन जिस महिला संगठन ने जेल जाकर कैदियों को राखी बाँधी थी, उस संगठन की अध्यक्ष के घर जन्म दिन की पार्टी चल रही है. इतने में जेल से अपनी सजा पूरी कर उसी दिन छूटने वाला एक कैदी वहाँ पहुँचकर अपनी कथित बहन को प्रणाम करता है और कहता है दीदी, पहचाना मुझे, मैं आ गया हूँ. क्या वह महिला उस कैदी को पहचानते हुए भी सबके सामने उसे भाई के रूप में स्वीकार करेगी?
बदलते जीवन मूल्यों के साथ आज सब कुछ बदल रहा है. अब न तो रिश्तों की गरिमा ही रह गई है और न ही रिश्तों की पवित्रता. अब तो ऐसे-ऐसे रिश्ते बन रहे हैं, जिसे कोई संबोधन ही नहीं दिया जा सकता. अपनी ही बेटी के साथ व्यभिचार करने वाले दुराचारी और हवसखोर पिता को क्या कहेंगे, कभी सोचा है किसी ने. यही नहीं आज तो रिश्तों की आड़ में जो कुछ अनुचित हो रहा है, उससे क्या लगता है कि समाज सही दिशा में जा रहा है?
अभी तो केवल 'भाई' शब्द ने ही अपनी पवित्रता खोई है, पर धीरे-धीरे ऐसे कई शब्द होंगे, जिनकी पवित्रता पर विश्वास करना मुश्किल होगा. इसे आधुनिकता की अंधी दौड़ कहें या समय की खुली माँग, कि आज हम इस बदलाव को महसूस करने के बाद भी इसे अनदेखा किए हुए हैं. हम अच्छी तरह से जानते हैं कि रिश्तों में परिवर्तन आ रहा है और तेजी से आ रहा है. फिर भी इस परिवर्तन के प्रति हमारी चुप्पी क्या ज्वार के पहले की शांत लहरों का परिचय दे रही है? यदि हाँ, तो नहीं चाहिए हमें ऐसा परिचय जो हमारे भीतर की कोमल भावनाओं को ही समाप्त कर दे.
हमारे रिश्तों की गहरी नदी जो यूं ही सूखती रही, तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब मानवता को सिसकने के लिए आंसुओं का भी अकाल होगा. बंजर हो जाएगी स्नेह की धरती और वीरान हो जाएगा हमारा जीवन. हम दूसरे देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की बातें करते हैं, हम चाँद-तारों को मुट्ठी में कैद करने की बातें करते हैं, इस ग्रह से दूर एक नए ग्रह की खोज और उस पर जीवन होने की बातें करते हैं, पर उसके पहले तो हमें अपने ही घर में खून के रिश्तों को गहरा बनाना होगा, एक दूसरे में भाई-चारा और स्नेह ढूँढना होगा, मानवता के लहू को अपने रग-रग में बहाना होगा और इसके भी पहले रिश्तों के मोती को अपनी हथेली पर सहेजना होगा, तभी मिलेगी रिश्तों को सही पहचान.
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

एक पर्यावरणीय चिंता



प्रकृति और मानव का संवंध चिरकालिक और शाश्वत है । प्रकृति ईश्वर का रूप है जिसे हम देख भी सकते है । प्रकृति की गोंद में खेलते हुए मानव नें उन्नति की है सभ्यता के प्रारम्भ में मानव प्रकृति के बहुत निकट था परन्तु जैसे-जैसे पृथ्वी महाद्वीपों, देशों, और शहरों में विभक्त होने लगी और कंक्रीट के जंगल खड़े होने लगे, धीरे-धीरे मानव प्रकृति से दूर होता गया और उसने प्रकृति की उपेक्षा करनी शुरू कर दी है । हमारे पूर्वज पंचमहाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, और वायु के महत्व को जानते थे क्योकि प्राणीमात्र की संरचना में यही उपदान के कारण है । वैदिक काल से ही प्रकृति को उच्च भाव से देखा गया है प्रकृति व मानव अन्योंन्याश्रित है इसीलिए प्राणिमात्र वन, उपवन, हरे-भरे वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों, झरनों व नदियों में कल-कल बहते शुद्ध जल का लाभ उठाता है । किंतु आज यह सारा पर्यावरण दूषित हो गया है और पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय हो गया है । हमारी लापरवाही के कारण मानो प्रकृति हमसे क्षुब्ध हो गई है और बाढ़, सूखा, भूकंप, भूस्खलन, आदि अनेक प्राकृतिक आपदाओं के रूप में अपना रोष प्रकट कर रही है । इसी वजह से मानव घबराया हुआ है और दिन ब दिन पर्यावरण के प्रति सचेत होता जा रहा है । आज इस् दिशा में अनेक नियम और कानून बनाये जा रहे है । और सरकारें करोडों अरबों रूपया खर्च करके पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना चाहती है पर कुछ लोगों के व्यावसायिक स्वार्थ इस दिशा में अवरोध बनकर खड़े है ।
प्रकृति मानव तथा पर्यावरण सृष्टि रूपी त्रिभुज के त्रिकोण है प्रदुषण कई प्रकार से प्रकट होता है जैसे जल, वायु, मृदा, ध्वनि, व रेडियोधर्मी प्रदुषण । जनसंख्या विस्फोट से भी प्रदुषण होता है मानव द्वारा फैलाये जा रहे प्रदुषण से आज प्रकृति की आत्मा कराह उठी है । वृक्षों की अनवरत कटान, भूमि का तेजी से क्षरण, औद्योगीकरण, पश्चिमी जीवन शैली से उपजा प्रदुषण, वनस्पतियों तथा अपार वन संपदा का ह्रास, जीव जंतुओं का विलुप्तिकरण, नदी व भूक्षरण, परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न जल, वायु तथा भूमि में प्रदुषण, पालीथीन का प्रचुर मात्रा में बढ़ता उपयोग, शहरों में बढ़ता कूडा-करकट, अस्पतालों से निकला कचरा, नदियों में कूडा-करकट फेकने से उपजा जल प्रदुषण, शहरों में बढ़ता ध्वनि प्रदुषण, पेट्रोल-डीजल के जलने से उपजा वायु प्रदुषण, ओजोन की परत में क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग तथा न्युक्लियर फाल आउट आदि के गंभीर परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पडेगा ।
आत्म-संयम और विवेक, प्रकृति प्रेम व उसके प्रति सहभागिता का भाव हमारे लिए सच्चे समाधान जुटा सकता है भौतिकवादी जीवन को मूर्तरूप देने की ललक में मानव प्रकृति व पर्यावरण का क्रूरता पूर्वक शोषण कर रहा है । अनियंत्रित औद्योगीकरण आज पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है । यद्यपि सरकार नें पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाया हुआ है जिससे अनापत्ति प्रमाण-पत्र लिए बिना किसी उद्योग को चलाने की अनुमति नही दी जाती यह बोर्ड जांच करता है कि कारखाने से निकलने वाले रासायनिक धुआं, कचरा आदि के निस्तारण की इस प्रकार व्यवस्था हो कि प्रदूषण न फैले । किंतु पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण संवंधी विभागों में फैले भरी मात्रा में भ्रष्टाचार ने उद्योगपतियों को प्रदूषण फैलाने की अबाध एवं खुली छुट दे रखी है । इनके कारखानों से निकला विषाक्त कचरा व रसायन पास के नदी-नाले अथवा समुद्र के पानी को लगातार एवं भयावह रूप से प्रदूषित कर रहे है परिणाम स्वरूप जल में पाई जाने वाली मछलियाँ व जीव-जंतु लुप्त होने लगे है जो लोग इस प्रदूषित पानी का उपयोग करते है रोगग्रस्त हो जाते है । आलम यह है कि ऐसे प्रदूषित पानी की मछलियों के खाने से भी बीमारियाँ फ़ैल रही है कोलकाता की एक रिपोर्ट के अनुसार वहां के पानी में आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है जिसके लम्बे समय तक प्रयोग से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है । इतना ही नहीं भारत में तमाम औद्योगिक इकईयाँ रासायनिक कचरायुक्त पानी को जमीन के निचे पानी की सतह में लगातार फेंक रहें है जिसके कारण उस औद्योगिक इकाई के आस-पास के कस्बों अथवा गाँवो के नागरिकों द्वारा भूगर्भीय जल का इस्तेमाल करने से वे घातक बीमारियों से ग्रस्त हो रहे है किंतु स्थानीय पर्यावरण नियंत्रण विभाग इन औद्योगिक इकाईयों द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय विनाशक अपराध के प्रति आँखें बंद किए बैठा है ।
पालीथीन का प्रयोग भी आज देश के लिए एक बडी समस्या बन चुका है ये आसानी से नष्ट नहीं होते इसके खाने से अनेक गाये मर चुकी है चूँकि लोग खाने का सामान इसमे रख कर बाहर फेंक देंते है । बहुराष्ट्रीय प्लास्टिक उद्योग भारत में २ मिलियन टन प्लास्टिक बनाता है जो बाद में कचरे में परिवर्तित हो जाता है इसमे से एक मिलियन टन वह कंटेनर है जिसमें भोज्य पदार्थ, दवाएं, कास्मेटिक्स सीमेंट बैग आदि होते है, जो एक बार प्रयोग के बाद बेकार हो जाते है । इन्हे कौन उठाकर फ़िर से रीसायकिल करेगा ? २५००० करोड़ का यह सनराईज उद्योग जो कि १० से १५ प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा है पर्यावरण दुष्प्रभाव के नाम से भी चिढ़ता है । इन लोगों को देश के उन छोटे-छोटे कारीगरों, कुम्हारों, डलिया व जूट बनाने वाले श्रमिकों से क्या मतलब जिनकी रोटी इनके कारण छीन सी गई है । इनके लिए तो पर्यावरण की बात करने वाले लोग भी पसंद नही है । स्वीडन, नार्वे व जर्मनी में ऐसे नियम बनाए गए है कि प्लास्टिक कंपनियों द्वारा बनाए गए प्लास्टिक कचरे को एकत्र करके उसे रीसाईकल करने की जिम्मेदारी इन्ही कंपनियों की है । भारत में रंगनाथन कमेटी ने कहा था कि प्लास्टिक उद्योग अपने द्वारा उत्पादित १५००० टन बोतलों के कचरे का १००० केन्द्रों द्वारा एकत्र करके रीसाईकिल करे पर कोई नहीं जनता कि इस दिशा में क्या प्रगति हुई । सरकार ने ३ बार रीसाईकिल उत्पाद नियम के द्वारा २० माईक्रोन से कम के ८ गुणे १२ के छोटे प्लास्टिक लिफाफे बनाने पर प्रतिबन्ध लगाया है चूकि यह इधर-उधर उड़ते है और गंदगी फैलाते है पर क्या मात्र इस प्रतिबन्ध से समस्या हल हो जायेगी ?
अस्पतालों से निकला कचरा जैसे प्लास्टिक की ग्लूकोज की बोतलें, दवाये, प्लास्टिक आफ पेरिस व अन्य विषाक्त वस्तुए समाज के लिए बहुत ही खतरनाक है इन्हे नष्ट करने के लिए इनसिनेटर नामक मशीन आती है इस मशीन की जरूरत आज हर बडे अस्पतालों में है पर हमारी सरकार इस दिशा में कितना कार्य कर पाई है पर्यावरण की सुरक्षा आज हमारी परम आवश्यकता बन चूकी है इसके लिए केवल सरकार पर निर्भर नही रहा जा सकता इस् लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ एवं अनुच्छेद ५१-अ (ग ) के तहत आम नागरिकों को भी पर्यावरण वायु एवं जल प्रदूषण से आने वाली पीढ़ी के लिए पैदा हुए गंभीर खतरे को रोकने हेतु अनिवार्य रूप से कार्य करना होगा अन्यथा पर्यावरण प्रदूषण मानवता के लिए गंभीर खतरे का रूप ले चुका है ।
प्रस्तुतकर्ता Rajesh R. Singh

बुधवार, 13 अगस्त 2008

कैसी आजादी, काहे की आजादी?


डॉ. महेश परिमल
आजादी.... आजादी.... और आजादी, पिछले साठ वर्षों से यह सुनते आ रहे हैं, पर आज भी हम यदि इस आजादी को ढूँढ़ने निकल जाएँ, तो वह कुछ हाथों में छटपटाती नजर आएगी। आजादी कैद हो गई है, कुछ मजबूत हाथों में, वे हाथ जो खून से रँगे हैं, वे हाथ जो कानून को अपने हाथ में लेते हैं, वे हाथ जो पाँच वर्ष में आम लोगों के सामने एक बार जुड़ते हैं,। इन हाथों में छटपटाती आजादी की सिसकियाँ किसने सुनी?
सन् 1857 के पहले भी आजादी का शंखनाद हुआ था। उसमें था आजादी पाने का जोश, भारत माँ को जंजीरों की जकड़न से दूर करने का उत्साह। बच्चा-बच्चा एक जुनून की गिरफ्त में था। सभी चाहते थे - आजादी। वह आजादी केवल विचारों की नहीं, बल्कि इंसान को इंसान से जोड़ने वाली आजादी की कल्पना थी, जिसमें बिना भेदभाव, वैमनस्यता के एक-दूसरे के दिलों में बेखौफ रहने की कल्पना थी।
अनवरत् संघर्षो, लाखों कुर्बानियों एवं असंख्य अनाम लोगों के सहयोग से हमें रक्तरंजित आजादीमिली, भीतर कहीं फाँस अटक गई, विभाजन की। एक सपना टूट गया- साथ रहने का। वह सपना कालांतर में एक ऐसा नासूर बन गया, जो रिस रहा है। असह्य वेदना को साकार करता शरीर का वही भाग आज आक्रामक हो चला है।
हमें आजादी मिली तो सही, पर हम उसे संभाल नहीं पाए, आजादी मिलने की खुशी में हम भूल गए कि यह धरोहर है, हमारे पूर्वजों के पराक्रम की, इसे संभालकर रखना हमारा कर्त्तव्य है। इसे सहेज कर रखने से ही प्रजातंत्र जिंदा रह पाएगा। आज प्रजातंत्र जिंदा तो है, पर उसकी हालत मरे से भी गई बीती है। हमें चाहिए था, एक ऐसा प्रजातंत्र जो साँस लेता हुआ हो, जिसकी धमनियों में शहीदों का खून दौड़ता हो, पर हमने अपने हाथों से अपनी आंजादी खो दी। वह भी आजादी मिलने के तुरंत बाद ही।
इस आजादी को पाने के लिए कई अनाम शहीदों ने भगीरथ प्रयास किए। आज बदलते जीवन मूल्यों के साथ वही आंआजादी की गंगा कुछ लोगों की सात पीढ़ियों को तारने का काम कर रही है। पीढ़ियों को उपकृत करने वाली आजादी की कल्पना तो हमने नहीं की थी। पूरे 60 बरसों से आंजादी का भोंपू हम सुन रहे हैं, पर इन वर्षो में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर । हाँ विकास के नाम पर देश इतना आगे बढ़ गया है कि हर हाथ को काम मिलने लगा है। हर गाँव रोशनी से जगमगा रहा है, प्रत्येक गाँव में सड़कें हैं, कोई भी बेरोजगार नहीं है, एक-एक बच्चा शिक्षित हो रहा है, यह सब हो रहा है, सिर्फ ऑंकडा के रूप में, मोटी-मोटी फाइलों में।
सच्चाई के धरातल पर देखें तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे उपलव्धि कहा जाए। रिक्शा चालक सुखरू या समारू के बेटे भी या तो रिक्शा चला रहे हैं या मंजदूरी कर रहे हैं। अलबत्ता उस वक्त एक ट्रक का मालिक आज कई ट्रकों के मालिक बनकर करोड़ों से खेल रहा है। महज एक रोटी का जीवंत प्रश्न सुलझाया नहीं जा सका है, पिछले 60 वर्षों में। रोटी की बात छोड़ भी दें, तो आज हम साफ पानी के भी मोहताज हैं।

सामाजिक परिवेश में जीवनमूल्य बदल रहे हैं। भ्रष्टाचार शिष्टाचार का पर्याय बन गया है। बलात्कारी सम्मानित हो रहे हैं। घूसखोरों की हवेलियाँ बन रही है। बहुओं को जला कर वर्ष भर होली मनाने वाले नारी उत्पीड़न विरोधी समिति या नारी उत्थान संघ के संचालक बने बैठे हैं। कानून को हाथ में लेने वाले अपराधी सफेदपोशों के अनुचर हैं। इन सबके अलावा कलमकार के हाथों को खरीदने की भी प्रक्रिया शुरू हो गई है, इसलिए सच हमेशा झूठ का नकाब लगाकर सामने आ रहा है।
आजादी अब खेतों-खलिहानों में नहीं बल्कि कांक्रीट के जंगलों में सफेदपोशों के हाथों में या फिर ए के 56 या ए. के. 47 वाले हाथों में पहुँच गई है। आंजादी को इस कैद से हमें ही छुड़ाना है। इसके लिए हमे आजादी की सही पीड़ा को समझना पड़ेगा। त्रासदी भोगती इस आंजादी को खेतों, खलिहानों, खेल के मैदानों, शालाओं, महाविद्यालयों में पहुँचाने का संकल्प लेना होगा, ताकि सही हाथों में पहँचकर आजादी 'हाथों के दिन' की उक्ति को चरितार्थ कर सके। ताकि हम सगर्व कह सकें, आ गए हाथों के दिन.... .... ।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

हमें मौत दे दो साहब, हम मरना चाहते हैं


डॉ. महेश परिमल
कभी किसी अस्पताल का दौरा किया है आपने? निश्चित रूप से आप कभी स्वयं ही या फिर अपने किसी परिजन का कुशल-क्षेम पूछने जाना पड़ा हो। वहाँ जाकर आपने यह अवश्य अनुभव किया होगा कि कई ऐसे बीमार हैं, जिन्हें मौत चाहिए, लेकिन उन्हें मौत नहीं आ रही है। कई ऐसे हँसते-खिलखिलाते मासूम भी मिल जाएँगे, जिन्होंने अभी जीवन को पूरी तरह से समझा भी नहीं है, वे भी अपने जीवन के दिन गिन रहे हैं।बच्चों का बीमार होना इस बात का परिचायक है कि अपनों की दुआ और आज की दवाओं के सहारे उनके जीवित रहने की संभावनाएँ अधिक हैं, पर बुजुर्गों को देखकर लगता है कि क्या इसी दिन के लिए इन्होंने स्वयं को तैयार किया है? पोपला मुँह, खल्वाट सर, पतली-दुबली काया, ऑंखें धँसी हुई या फिर उस पर मोटे ग्लास का चश्मा, झुकी हुई कमर, पीड़ा से छटपटाता शरीर, ऐसा लगता मानो यह शरीर अभी जवाब दे जाएगा।ये तो खुलकर अपनी मौत को पुकारते हैें, पर मौत है कि एक बार मासूमों को ले जाती है, पर इन्हें छोड़ देती है अपने हाल पर जिंदा रहने के लिए।
यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हमारे ही बीच कई ऐसे कथित रूप से बीमार हैं, जो केवल जीवित हैं, लेकिन जीवन के अन्य कोई लक्षण उनमें दिखाई नहीं दे रहे हैं। हमारे राष्ट्रपति के पास अभी आधा दर्जन आवेदन ऐसे हैं, जिसमें स्वयं रोगी या उसके परिजनों से मौत की गुहार की है। अभी उन आवेदनों पर विचार नहीं हुआ है। मैंने स्वयं ही 80 वर्श के ऐसे वृध्द को देखा है, जिनका शरीर कृशकाय है, उन उम्र तक आते-आते वे तीन बार हृदयाघात को सह चुके हैं।एक बार पक्षाघात भी हो गया, उनकी दैनिक गतिविधियाँ करीब-करीब बंद सी हो गई, इस स्थिति में स्वजनों का प्यार भी खत्म हुआ समझो।जब आखिरी बार हृदयाघात हुआ, तो उन्होंने कहा ''इनफ, अब बहुत हो चुका, परमात्मा मुझे वापस बुला ले।''इस वृध्द की करुण पुकार अनसुनी रह गई। यदि इस वृध्द के अंग किसी जरूरतमंद को दे दिए जाएँ और इन्हें स्वाभावित रूप से मरने दिया जाए, तो क्या इसे गलत माना जाएगा।
पहले के जमाने में हमारे ऋशि-मुनियों को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त होता था, तथापि वे अपना जीवन जब चाहे, तब समाप्त कर लेते थे।पर हमारे देश में ऐसे हजारों लोग हैं, जो रोज ही ईश्वर से प्रार्थना कर अपनी मौत माँग रहे हैं, पर ईश्वर उनकी नहीं सुन रहा है। इसलिए उन्होंने देश के राष्ट्रपति से मौत की गुहार की, पर वह भी अनसुनी रह गई। अभी हालत यह है कि मौत दूर से ही उन्हें तिल-तिलकर मरता देख रही है। उन्हें न तो मौत आ रही है और न ही जिंदगी उनसे ठीक से व्यवहार कर रही है।

महानगर मुम्बई में एक गैर सरकारी संस्था है, इसके बहुत सारे सदस्य प्रतिष्ठित डॉक्टर हैं। होता यह है कि जब सारे डॉक्टर मिलकर भी किसी मरीज को ठीक नहीं कर पाते, उनके सारे प्रयास निष् फल हो जाते हैं, तब वे मरीज के परिजनों से कहते हैं कि अब बस परमात्मा से प्रार्थना करें। यह डॉक्टरों का अंतिम शस्त्र है। इसके बाद का काम परिजनों का होता है।प्रार्थना का असर होता है, इसे सुपरस्टॉर अमिताभ बच्चन भी स्वीकारते हैं।उनका मानना है कि दोनों बार जब मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ा, तब मेरे प्रशंसकों की प्रार्थना ने ही मुझे बचा लिया। यह तो ठीक है, पर जिस मरीज के लिए दवा और दुआ दोनों ही बेकार हो जाए, तब क्या किया जाए? यहाँ वे यही गैर सरकारी संस्था काम आती है।इस संस्था का नाम है 'सोसायटी फॉर राइट टू डाई विथ डिग्नीटी याने गौरवपूर्ण मृत्यु का अधिकार दिलाने वाली संस्था।
कई बार ऐसा होता है कि जब मरीज का जीवन रक्षक यंत्र ही काम करता है और मरीज को कथित रूप से जिंदा रखता है, तब उस मरीज को क्या कहा जाए? वेंटीलेटर ऐसा ही एक यंत्र है। सवा अरब की जनसंख्या वाले इस देश में हर पचास व्यक्तियों के लिए एकमात्र वेंटीलेटर है।इस यंत्र में मरीज को रखने का ही खर्च रोज का दस से पचास हजार रुपए है।कितने मरीज इसे वहन कर पाते होंगे और कथित रूप से उधार का जीवन जीते होंगे? जो मरीज इस यंत्र के सहारे ही जीवित हैं, डॉक्टर उन्हें ''वेजीटेबल'' कहते हैं। इन वेजीटेबल मरीज के साथ स्थिति यह होती है कि परिजन इनके सामने मूक खड़े रहते हैं और मरीज उन्हें एकटक देखता रहता है, बस..... इसके अलावा मरीज में जीवन के कोई लक्षण नहीं होते।इनके शरीर के सारे अंग काम तो करते हैं, पर उनके काम करने का कोई अर्थ नहीं होता। वे अंग भी वेंटीलेटर के अधीन हो जाते हैं। परिजन केवल मरीज के जिंदा रहने का भ्रम पालकर उन्हें केवल देखते रहते हैं।ऐसे मरीजों के अच्छे अंग यदि किसी जरूरतमंद को काम आ जाएँ तो कैसा रहे? इसके लिए मीनू मसानी अपनी उक्त संस्था के साथ लगातार संघर्श कर रहे हैं। इसके लिए अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में ''यूथेनेशिया'' स्वीकार्य है।यह वह स्थिति है, जिसमें जीवन से विदा ले रहे इस तरह के वेजीटेबल मरीज अपने अच्छे अंगों का दान कर सकते हैं। इससे कई लोगों को लाभ हो सकता है।नेत्रहीन को ऑंखें मिल सकती हैं, किसी को किडनी या फिर लीवर मिल सकती हैं।इससे वह व्यक्ति मरकर भी उन लोगों के लिए जीवित रहेगा, जिन्होंने उसके अंग को धारण किया है। अभी यह हमारे देश में लागू नहीं हुआ है, इसलिए परिजन अपने मरीज को अपनी ऑंखों के सामने तिल-तिलकर मरता देखते रहते हैं।कई बार उनके मुँह से सच्चाई निकल ही जाती है, अब बहुत हो गया, इन्हें मुक्ति मिल ही जानी चाहिए, इनकी पीड़ा अब हमसे सही नहीं जा रही है।
गौरवपूर्ण मृत्यु का अधिकार दिलाने वाली इस संस्था के मीनू मसानी''फ्रीडम फर्स्ट' नामक एक पत्रिका भी निकालते हैं। इस संस्था के सदस्य डॉक्टर के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में विख्यात लोग हैं।इन सबका मानना है कि अभी हमारा देश इतना अमीर नहीं है कि इन वेजीटेबल मरीजों का खर्च वहन कर सके।इस स्थिति में उस मरीज के अंग यदि किसी दूसरे को काम आ जाएँ, तो बुरा क्या है? डॉक्टर ही क्यों, मनोवैज्ञानिक भी इसे गलत नहीं मानते।यह आत्महत्या कतई नहीं है, यह है अंग दान कर मरकर भी उस व्यक्ति के रूप में जीवित रहना, जिसने उनके अंग को धारण किया है। यदि अंतर है आत्महत्या और यूथेनेशिया में।
आज डॉक्टर मर्सीकिलिंग को कानून बनाने की वकालत कर रहे हैं। सरकार का इस संबंध में कहना है कि इसका गलत फायदा उठाया जा सकता है। पर आज यह तो देखो कि किस क्षेत्र में सरकार की मंशा का गलत फायदा नहीं उठाया जा रहा है। हर जगह सरकार अपने ही बनाए कानून से मात खा रही है। ऐसे में मरकर भी जिंदा रहने का यह उपक्रम अनुचित तो नहीं है। फिर यदि इसे स्वीकारा नहीं जाता, तो हमारे बीच ऐस मरीज चीख-चीखकर कहेंगे कि साहब हमें मौत दे दो, हम शांति से मरना चाहते हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 11 अगस्त 2008

जहां चाह, वहां राह


* अंबरीष
उम्र कैद की सजा काट रहे चुनींदा कैदी विभिन्न व्यावसायिक पाठयक्रमों की पढ़ाई कर रहे. इससे उन्हें रिहाई के बाद नई जिंदगी शुरू करने में मदद मिलने की उममीद है

नर्मदा घाटी की गोद में स्थित होशंगाबाद का एक 51 वर्षीय किसान महिपाल सिंह राजपूत इन दिनों 'रिलायंस फ्रेश' के कारोबार का गहन अध्ययन कर रहा है. अर्थशास्त्र और भूगोल में स्नातकोत्तर उपाधिधारक राजपूत की कृषि उत्पादों में दिलचस्पी स्वाभाविक है, मगर यह बात इस तथ्य के मद्देनजर और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि अभिनव सोच रखने वाला यह किसान हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है. और कृषि उत्पादों का विपणन एमबीए पाठयक्रम का हिस्सा है, जिसे वह जेल में पढ़ रहा है.
भोपाल केंद्रीय जेल के दो दर्जन से यादा कैदी, जिनमें एक महिला भी शामिल है, इन दिनों एमबीए की पढ़ाई कर रहे हैं. इनमें से एक को छोड़कर सभी हत्या के मामलों में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे हैं. एमबीए की पढ़ाई कर रहा एकमात्र अन्य कैदी भी हत्या की कोशिश करने का दोषी पाया गया था. इन कैदियों के अपराध ने उन्हें जिंदगी के बारे में काफी कुछ पढ़ा दिया और अब सजा उनके लिए नया रास्ता खोल रही है.
जेल में एमबीए पाठयक्रम का संचालन मध्य प्रदेश के भोज मु1त विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा है. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मु1त विश्वविद्यालय की तर्ज पर राय में बने इस विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. कमलेश्वर सिंह कहते हैं, ''दूरस्थ शिक्षा का मूल विचार ऐसे समूहों तक पहुंचना है, जो शिक्षा से दूर रहे हैं. जेल में बंद कैदियों से अलग-थलग भला और कौन हो सकता है?''
इस जेल में रहकर एमबीए की डिग्री हासिल करने वाले पहले तीन कैदियों को कम अवधि की सजा हुई थी और वे रिहा हो चुके हैं. जेल के अधिकारी उनकी पहचान जाहिर नहीं करते. उप-जेलर एम. कमलेश कहते हैं, ''हम उनका नाम, सजा की अवधि या रिहाई की तारीख उनकी सहमति के बिना नहीं बता सकते.'' इन दिनों पढ़ रहे कैदी दूसरे सेमेस्टर की परीक्षा उत्ताीर्ण कर चुके हैं. वे अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान दे रहे हैं और डिग्री हासिल करने को प्रतिबध्द हैं. दो साल पहले इस जेल में दूरस्थ शिक्षा केंद्र शुरू किए जाने के बाद से भोज विश्वविद्यालय के शिक्षक नियमित तौर पर कक्षाएं लेते हैं. जेल के पुस्तकालय में विषय से संबंधित अच्छी पुस्तकें लाई जा चुकी हैं और विश्वविद्यालय कैदियों के लिए नियमित अंतराल पर अध्ययन सामग्री मुहैया कराता है.

कैदियों में सजा के अलावा और कोई समानता नहीं है. सिहोर की निवासी 28 वर्षीया शालिनी पाठक, जो अंग्रेजी में स्नातकोत्तार उपाधिधारक है, राजमार्गों पर डकैती डालने वाले गिरोह की सदस्य थी. ऐसे ही एक मामले में शिकार की हत्या हो गई और पांच साल पहले शालिनी को सजा सुनाई गई. निचली अदालत के फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट में शालिनी की अपील अभी लंबित है और उसने एमबीए की पढ़ाई करने का फैसला किया. वह मानव संसाधन प्रबंधन (एचआरएम) में विशेषज्ञता हासिल करना चाहती है. यादातर कैदी एचआरएम में विशेषज्ञता हासिल करना चाहते हैं, तो इसकी वजह भी है. 28 वर्षीय कमलेश गौर का कहना है, ''दरअसल, सजा काटने के बाद जब हम नौकरी करेंगे, तो एचआरएम में परदे के पीछे रहकर भी काम किया जा सकता है. हत्या के मामले में सजा काट चुके शख्स को कोई भी सेल्स या मार्केटिंग में नौकरी नहीं देगा.'' गौर के हाथों अपराध होने से पहले वह अपने गृह नगर सिहोर में एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) में कार्यरत था. उसकी दिलचस्पी सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तार उपाधि हासिल करने में थी, मगर वह पाठयक्रम जेल में उपलब्ध नहीं है.
एमबीए पाठयक्रम में प्रवेश लेने की प्रेरणा अलग-अलग है. राजपूत ने, जो इस समूह में सबसे उम्रदराज है, महज साथियों को प्रेरित करने के लिए पढ़ने का मन बनाया. उसका कहना है, ''यदि मैं 51 साल की उम्र में पढ़ सकता हूं तो दूसरे भी पढ़ सकते हैं.'' यही नहीं, राजपूत के संयु1त परिवार में बच्चे, जो व्यावसायिक शिक्षा की ओर ध्यान नहीं देते थे, अब इस दिशा में गंभीरता से सोचने लगे हैं.
वहीं 30 वर्षीय राजेश शाक्य को, जो भोपाल निवासी इंजीनियर है और छह साल से सजा काट रहा है, जेल में पहुंचने के बाद अपनी योजनाएं पूरी करने का मौका मिला. उसका कहना है, ''जब मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की, तभी मुझे एहसास था कि इसकी बदौलत नौकरी पाना आसान नहीं है और कुछ विशेषज्ञता हासिल करना जरूरी है.'' अब एमबीए पाठयक्रम के लिए पढ़ाई में जुटने से वह व्यस्त रहता है. उम्र कैद की सजा काट रहे इन कैदियों ने अपनी सजा के खिलाफ हाइकोर्ट में अपील कर रखी है. सिरोंज के 40 वर्षीय मोहम्मद जलील, जिसने सीखचों के पीछे 12 साल काट लिए हैं, के अलावा बाकी किसी भी कैदी को जल्दी रिहा होने की उममीद नहीं है. उन सभी की उम्मीदें अपनी अपील पर टिकी हैं.
बहरहाल, लंबे समय तक जेल में रहने की आशंका भी इन कैदियों को एमबीए की पढ़ाई करने से रोक नहीं सकी. 24 वर्षीय शैलेंद्र बाथम को जब सजा सुनाई गई, तब उसकी उम्र सिर्फ 18 साल थी. किसी दार्शनिक के अंदाज में वह कहता है, ''जो बीत गई, सो बात गई. अब हमारी उममीदें भविष्य पर टिकी हैं.'' अपराध और सजा मिलने के उतार-चढ़ाव भरे दौर में कई कैदियों को किस्मत पर भरोसा होने लगा है. वहीं कुछ अन्य कैदी सुकून पाने के लिए धर्म की शरण लेते हैं. जेल अधीक्षक पुरुषोत्ताम सोमकुंवर, जिन्होंने जेल में एमबीए और डीसीए पाठयक्रम शुरू करने में खासी दिलचस्पी ली, कहते हैं, ''इसी वजह से हमने धर्म शिक्षा और योतिष में पाठयक्रम शुरू किए हैं. इसके पीछे विचार यह है कि कैदियों को ऐसे काम में व्यस्त रखा जाए, जो जीवन के इस कठिन दौर में उन्हें राहत दे सके. इसके अलावा गरीब और निमन-मध्यम वर्ग के इन लोगों को जेल से रिहा होने के बाद इससे आजीविका चलाने में भी मदद मिल सकेगी.''
पर तमाम खूबियों और क्षमताओं के बावजूद यह प्रयास नाकाफी है और इसे जेलों में व्यापक सुधार लाने की वृहद कोशिश की बजाए कुछ अधिकारियों की निजी स्तर पर पहल कहा जा सकता है. चंबल इलाके के दुर्दांत दस्युओं को सुधारने के लिए शुरू की गई देश की पहली 'खुली जेल' दो दशक पहले ही बंद हो चुकी है. दिवंगत फिल्म निर्माता वी. शांताराम ने दो आंखें बारह हाथ फिल्म से कैदियों का जीवन सुधारने का जो अभियान सिनेमा के जरिए छेड़ा था, वह सिरे नहीं चढ़ सका. उनके बाद न्यायमूर्ति मुल्ला आयोग ने जेल सुधारों पर रिपोर्ट सौंपी और फिर महिला कल्याण पर संसदीय समितियों, राय मानवाधिकार आयोगों और नामी-गिरामी विधि संस्थानों ने भी जेल सुधारों के संबंध में दर्जनों अनुशंसाएं कीं. मगर इन्हें किसी-न-किसी बहाने से लागू नहीं किया गया. चूंकि जेल राय सूची का विषय है, तो जेलों से जुड़े कानूनों, संहिताओं और नियम पुस्तिकाओं में संशोधन का अधिकार रायों को है. भोपाल स्थित राष्ट्रीय विधि संस्थान विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सी. राजशेखर कहते हैं, ''दुर्भाग्य से आजकल विधि निर्माता इस ओर उदासीनता बरत रहे हैं.''
बहरहाल, भोपाल केंद्रीय जेल में उम्र कैद की सजा काट रहे इन कैदियों को पूरी उममीद है कि व्यावसायिक डिग्री हासिल करने के बाद उनका भविष्य सुधर सकता है.
* अंबरीष

शनिवार, 9 अगस्त 2008

हिज मास्टर वॉयस यानी चाबी वाला बाजा


ग्रामोफोन आज बीते जमाने की बात हो गई है क्योंकि अब संगीत सुनने के साधन इतनी तेजी से बदल रहे हैं कि बहुत कम लोगों को ही इसके बीते महत्व के बारे में पता है। एक जमाना था जब संगीत सुनने के लिए ग्रामोफोन के अलावा कोई दूसरा सशक्त माध्यम नहीं था। उन दिनों रेडियो पर गीत जरुर प्रसारित होते थे लेकिन संगीत का पर्याप्त आनंद लेने के लिए घर में ग्रामोफोन होना जरुरी माना जाता था। आज से लगभग 130 वर्ष पूर्व एडीसन ने ऐसी मशीन का आविष्कार किया था जिससे रिकॉर्ड की गई आवाज सुनी जा सकती थी और इस मशीन का नाम फोनोग्राफ रखा गया। उस समय थियेटरों में फोनोग्राफ खास शो में रखा जाता था। एडीसन स्वयं भी थियेटरों में हाजिर रहते थे और लोग फोनोग्राफ सुनने के लिए बैठे रहते।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए एमिल बर्लीनर ने वर्ष 1888 में ग्रामोफोन बाजार में जारी किया। एक ही वर्ष बाद इंग्लैंड में ग्रामोफोन कंपनी की स्थापना हुई। शुरूआत में इस कंपनी के ट्रेडमार्क में एक देवदूत को लिखते हुए बताया गया। कुछ समय बाद ही इसे बदल दिया गया और ग्रामोफोन के लाउडस्पीकर के समक्ष बैठे कुत्ते का प्रतीक रखा गया। स्वयं के मालिक की आवाज सुनता यह कुत्ता हिज मास्टर वॉयस के नाम से विश्व विख्यात हो गया। इस ग्रामोफोन की एक विशेषता थी कि हरेक रिकॉर्ड को चलाते समय हैंडल घुमाकर चाबी भरनी पड़ती थी एंव स्टायलस में पिन बदलनी पड़ती। पिनों से एक्सट्रा लाउड प्राप्त होती थी जो उस युग में स्टिरियो के सबसे नजदीक था। इस ग्रामोफोन को चाबी वाला बाजा या पाली वाला बाजा कहा जाता था। ग्रामोफोन के लिए कितनी सावधानी रखनी पड़ती थी इस संबंध में भी आज शायद ही कोई अंदाज लगा सकेगा। प्रयुक्त की गई पिन एक विशेष खाने में एकत्र की जाती थीं। रिकॉर्डों को रखने के लिए विशेष बॉक्स बनाया जाता था जिसमें रिकॉर्डस खड़े रखे जाते थे।

भारत में सर्वप्रथम ग्रामोफोन कंपनी की शाखा कोलकाता में वर्ष 1901 में खुली। उस समय प्रत्येक ग्रामोफोन की खरीद पर पांच रिकॉर्डस मुफ्त मिलते थे। प्रारंभ में रिकार्ड एक ही तरफ से बज सकते थे, दूसरी तरफ ये खाली होते थे। यह रिकार्ड साढ़े तीन मिनट चलता एवं इसकी गति प्रति मिनट 78 चक्कर होती थी, अत: इसका नाम 78 आर पी एम पड़ा। तत्पश्चात अनेक नई कंपनियां इस क्षेत्र में आने लगीं। कोलंबिया, ओडियन, यंग इंडिया के रिकार्डस बाजार में जारी करने के लिए वी शांताराम ने बंबई में नेशनल ग्रामोफोन कंपनी खोली। इन रिकार्डों के विषय भी विविध होते। गीत, भजन से लेकर रविन्द्रनाथ टैगोर की कविता पाठ तक। यंग इंडिया कंपनी के रिकार्ड पर तिरंगे झंडे का प्रतीक होता एवं स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले नेताओं के भाषणों के रिकार्डस इस कंपनी की विशेषता होती थी।
इस युग में संगीत प्रेमियों के शौक भी जरा अलग प्रकार के होते थे। नाटकों के संवाद, लोकगीत एवं हास्य प्रधान कार्यक्रमों के रिकार्डस बाजार में काफी बिकते थे। ग्रामोफोन कंपनी सबसे बड़ी मानी जाती थी। इस कंपनी ने सचिन देब बर्मन और कुंदनलाल सहगल को गायक के रुप में अस्वीकार कर दिया था। आगे जाकर इस रिकार्ड कंपनी ने अपनी भूल महसूस की। फिल्मी गीत जब प्रचलन में नहीं थे तब रिकार्डिंग करते समय गायकों को ऊंची आवाज में गाना पड़ता था। उस समय धीमी आवाज पकड़ पाने वाले साधनों का अभाव था।
वर्ष 1902 में पहली हिंदुस्तानी कलाकार का रिकार्ड आया। इस गायिका का नाम था शशि मुखी देवी। वर्ष 1904 में दोनों तरफ गीत वाले रिकार्ड बाजार में आए। तब सम्भ्रांत घरों की स्त्रियां परदे में रहती थीं अत: बेहतर गायन के बावजूद रिकार्ड नहीं आ सकते थे। सी आर दास की बहिन अमला दास ने इस प्रथा को तोड़ा एवं वर्ष 1912 में अमला दास का गीत रिकार्ड हुआ। प्रारंभ में रिकार्ड पर कलाकार का नाम नहीं लिखा जाता था। गीत पूरा होने पर कलाकार अपना नाम बोलता था। कवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने वंदेमातरम् एवं सोनार तोरी का गायन एच बोज कंपनी की रिकार्ड के लिए किया था। वर्ष 1925 में पहली बार कवि एवं संगीतकार के नाम रिकार्ड पर लिखे गए। वर्ष 1934 में पहले फिल्मी गीत की रिकार्डिंग वी शांताराम ने की। उन दिनों विशेष त्योहारों पर नए रिकॉर्ड जारी किए जाते थे। ग्रामोफोन मनोरंजन का मुख्य साधन होने के नाते विशेष महत्व था। सभी कंपनियों में बेहतर ग्रामोफोन बनाने की स्पर्धा थी। इसके बाद लोंग प्ले आई। आज भी अनेक लोग पुराने रिकार्डस एकत्र करने का शौक रखते हैं, जिनमें कोलकातावासी ही आगे हैं।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

नारी, तुम सचमुच शक्ति हो


strong>डॉ. महेश परिमल
महिलाओं के स्वालम्बन और आत्मनिर्भर होने की बात हमेशा कही जाती है, पर इसे चरितार्थ करने के नाम पर केवल बयानबाजी होती है। इस दिशा में जब तक महिलाएँ स्वयं आगे नहीं आएँगी, तब तक कुछ होने वाला नहीं। हाल ही में दो घटनाएँ ऐसी हुई,जिससे लगता है कि महिलाओं ने न केवल आत्मनिर्भरता की दिशा में, बल्कि अपनी जिंदादिली का परिचय आगे आकर दिया। इन दोनों ही घटनाओं से इन महिलाओं ने यह बता दिया कि उनमें भी कुछ कर गुजरने का ाबा है, इसके लिए वे पुरुषों के आगे किसी प्रकार की सहायता की भी अपेक्षा नहीं करतीं।
हुआ यूँ कि राजस्थान के उदयपुर मेें बारहवीं की परीक्षा चल रही थी, एक केंद्र में साधारण रूप से जैसी आपाधापी होती है, उसी तरह हर तरफ मारा-मारी मची थी। किसी को अपनी सीट नहीं मिल रही थी, किसी को रोल नम्बर ही नहीं मिल रहा था। कोई अपने साथी की तलाश में था, तो कोई बहुत ही बेफिक्र होकर अपना काम कर रहा था। ऐसे में परीक्षा शुरू होने में मात्र दस मिनट पहले एक विचित्र घटना उस परीक्षा केंद्र में हुई। सभी ने अपने-अपने काम छोड़ दिए और उस नजारे को देखने लगे। बात यह थी कि एक नवयौवना दुल्हन परीक्षा केंद्र के बरामदे से गाुरने लगी। शादी का जोड़ा, शरीर पर थोड़े से गहने, हाथों पर मेंहदी, घँघट निकला हुआ, यह थी उषा, जो उस दिन उस परीक्षा केंद्र में बारहवीं की परीक्षा में शामिल होने आई थी। साधारण मध्यमवर्ग परिवार की उषा के माता-पिता की इतनी अच्छी हैसियत नहीं थी कि बहुत सारा दहेज देकर बिटिया की शादी किसी अमीर घर में करते, इसलिए अभी उषा की उम्र शादी लायक नहीं थी, फिर भी उन्होंने उसके लिए योग्य वर की तलाश में थे। योग्य वर मिल भी गया, उन्होंने समझा कि परीक्षा तक सब कुछ ठीक हो जाएगा। उषा ने अपने भावी पति को देखा, दोनों ने मिलकर तय किया कि बारहवीं की परीक्षा तक शादी नहीं होगी, भावी पति ने उषा को बारहवीं की परीक्षा देने की अनुमति भी दे दी। अब किसे पता था कि शादी का मुहूर्त और परीक्षा की तारीख में एक दिन का अंतर होगा। अब मजे की बात यह है कि उषा तो सच्चे मन से परीक्षा की तैयारी कर रही थी। जिस दिन शादी, उसके ठीक दूसरे दिन परीक्षा का पहला पेपर। अब शादी कोई ऐसे तो हो नहीं जाती, पंडितों के सभी प्रसंग निपटाते-निपटाते आधी रात बीत चुकी थी। उसके बाद भोजन और फिर विदाई, बज गए चार। परीक्षा शुरू होनी थी सुबह सात बजे। समय मात्र तीन घंटे का। ऐसे में पढ़ाई आवश्यक थी, सो उषा ने जो थोड़ा समय मिला, उसे पढ़ाई में लगा दिया। अब वह दुल्हन के जोड़े में ही पहुँच गई, परीक्षा भवन। यह उसकी दृढ़ता ही थी, जो उसे यह सब करने के लिए प्रेरित कर रही थी। कुछ कर बताने का साहस ही उसे शक्ति प्रदान कर रहा था। उसने वह सब कुछ किया, जो उसे करना था। इसी से स्पष्ट है कि नारी यदि ठान ले कि उसे यह करना है, तो वह कर के ही रहती है।
एक और घटना राास्थान से काफी दूर सिकर गाँव की है। इस गाँव में एक स्नातक गृहिणी सुभीता रहती हैं। पति की सहायता करने के लिए उसे शिक्षिका बनने की ठानी। इसके लिए बी.एड. करना आवश्यक था। पति सेना में हैं, इसलिए घर की कई जिम्मेदारियाँ उसे ही सँभालनी पड़ती थी। एक बार जब पति काफी समय बाद सेना से अवकाश लेकर आए, तो सुभीता ने उससे कहा कि घर में कई बार उसे लगता है कि वह केवल घर के कामों में ही सिमटकर नहीं रहना चाहती, वह कुछ और करना चाहती है। पति राजेंद्र को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। पति के बाद ससुराल वालों ने भी कोई दलील नहीं दी। उन्होंने भी सोचा कि बहू बाहर जाकर कुछ करे, तो उससे समाज का ही भला होगा। अब स्थितियाँ अनुकूल हो, इसके लिए पति-पत्नी ने मिलकर ईश्वर से प्रार्थना की कि उनकी इच्छा पूरी कर दे। पर ईश्वर तो सुभीता को किसी और ही परीक्षा के लिए तैयार कर रहे थे। वह सुभीता को एक जाँबाज महिला के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। यहाँ भी कुदरत ने अपनी करामात दिखाई। राजेंद्र जब छुट्टियाँ खत्म कर सीमा पर गया, उसके पहले अपने प्यार का बीज सुभीता की कोख पर स्थापित कर गया। सुभीता के लिए अब शुरू हो गई परीक्षा की घड़ी। एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ घर के रोजमर्रा के काम और तीसरी तरफ अपने प्यार की निशानी का ध्यान रखना। समय के साथ-साथ सब कुछ बदलता रहा।
अचानक एक सूचना ने सुभीता को हतप्रभ कर दिया। बीएड परीक्षा की समय सारिणी घोषित की गई, तब उसे ध्यान में आया कि उसकी डॉक्टर ने डिलीवरी की भी वही तारीख दी है। अब क्या होगा, पति हजार किलोमीटर दूर। परीक्षा भी देनी ही है, नहीं तो साल भर की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। अब क्या किया जाए? संकट की घड़ी चारों तरफ से अपने तेज घंटे बजा रही थी। परीक्षा की तारीख आ पहुँची, परीक्षा शुरू होने में गिनती के घंटे बचे थे कि सुभीता को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। घर परिवार के सभी सदस्य तनाव में आ गए। अब क्या होगा? इधर सुभीता आश्वस्त थी कि जो भी होगा, अच्छा ही होगा। उसे ईश्वर पर पूरा विश्वास था। आधी रात को उसने एक तंदुरुस्त बच्चे को जन्म दिया। उसके बाद फोन पर अपने पति से कहा- मैं एक भारतीय सिपाही की पत्नी हूँ, मैं इससे भी विकट परिस्थिति के लिए तैयार थी। हमारा बेटा स्वस्थ है और अभी कुछ ही घंटों बाद मैं परीक्षा देने जा रही हूँ। उधर पति को उसकी जीवटता पर आश्चर्य हो रहा था, लेकिन वह खुश था कि मेरी पत्नी ने एक जाँबाज महिला होने का परिचय दिया है। उधर परीक्षा केंद्र में इसकी सूचना दे दी गई, वहाँ के लोगों ने उसके लिए विशेष व्यवस्था करते हुए उसे एक अलग कमरे में पेपर लिखने की छूट दे दी। सुभीता एम्बुलेंस से परीक्षा केंद्र पहुँची और पेपर समाप्त कर तुरंत ही अस्पताल पहुँच गई।
दोनों ही विकट परिस्थितियों में परीक्षा दी, यह बताते हुए खुशी हो रही है कि दोनों ने ही फर्स्ट क्लास में परीक्षा पास की। इस घटना ने साबित कर दिया कि ईश्वर हमारी हर घड़ी परीक्षा लेता है। यह काम इतने खामोश तरीके से होता है कि किसी को पता ही नहीं चलता। इसमें जो पास हो जाता है, उसके लिए फिर एक नई परीक्षा की तैयारी की जाती है। इसी तरह हर घड़ी परीक्षा देते हुए इंसान नए रास्ते तलाशता रहता है। उसे नई मंजिल मिलती रहती है। उन दोनों जाँबाज महिलाओं को सलाम......
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

चिंतन स्वयं से बातें करो


डॉ. महेश परिमल
एक बार एक व्यक्ति ने अपने मोबाइल से कई लोगों से बात की, सबसे बात करके वह काफी खुश था। अपनी इस खुशी को वह जाहिर करना चाहता था। पर कैसे? वह मेरे पास आया और कहने लगा- मैं बहुत खुश हूँ, क्योंकि मैंने अपने सारे अपनों से आज जी भरकर बात की है। मैंने कहा-बहुत अच्छी बात है, मेरे दोस्त। मेरा एक काम करो- अपने मोबाइल पर एक नम्बर तो लगाओ। मैंने नम्बर बताया, उसने वे नम्बर डायल किए। वह हतप्रभ था कि वह नम्बर एंगेज जा रहा था। थोड़ी देर बाद उसने फिर वही नम्बर लगाया, फिर एंगेज। ऐसा उसने कई बार किया, हर बार नम्बर एंगेज ही होता। अपनी खुशी में वह यह भी भूल गया कि वह जो नम्बर डायल कर रहा है, वह वास्तव में उसी का नम्बर है।
अकसर ऐसा ही होता है, दूसरों से बात करने के लिए लाइन हमेशा खाली मिलती है, पर स्वयं से बात करने के लिए लाइन हमेशा एंगेज मिलती है। इंसान सबसे बात कर लेता है, पर अपने आप से कभी बात नहीं कर पाता। जो अपने आप से बात कर सकता है, वह ज्ञानी है। आज लोगों की उदासी और निराशा का सबसे बड़ा कारण यही है कि वह अपने आप से ही दूर रहता है, बाकी सभी के पास रहना चाहता है और रहता भी है। उसके भीतर का मैं हमेशा उससे बात करने के लिए लालायित रहता है, पर इंसान के पास समय ही कहाँ है, जो अपने से बात कर पाए। जिस दिन इंसान ने अपने से बात कर ली, समझ लो, उसके आधे दु:ख दूर हो गए।
मानव की यही प्रवृत्ति है कि वह दूसरों के बारे में अधिक से अधिक जानने की इच्छा रखता है, पर अपने बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहता। अपने को न जानना ही दु:ख का कारण है। जो अपने को नहीं जानता, वह कितना भी विद्वान क्यों न हो, पर उससे बड़ा कोई अज्ञानी नहीं है। ज्ञान का सही अर्थ अपने आप को जानना ही है। देखा जाए, तो ज्ञान मानव के भीतर ही होता है, गुरु केवल उस ज्ञान को जाग्रत करने का माध्यम होता है। मानव के भीतर अथाह ज्ञान का सागर है, पर वह उसे बाहर से प्राप्त करने का प्रयास पूरे जीवन करता रहता है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह अपने भीतर से ही ज्ञान की गंगा बहाए। असीमित संसाधनों का स्वामी होने के बाद भी वह कंगाल बने रहता है। उसके दु:ख का कारण वह स्वयं ही होता है। उसे सबसे बड़ा दु:ख इसी बात का होता है कि सामने वाला सुखी क्यों है? मानव सबकी प्रसन्नता नहीं देख पाता, इसीलिए वह दु:खी रहता है। अपने आप से बात करे, अपनी अपरिमित शक्तियों को पहचाने, तो कोई कारण ही नहीं हो सकता, जो उसे दु:खी करे।
दु:ख और सुख ये मन के भाव हैं, जिसे हमें अनुभव करना होता है। लोग बंधन में भी सुख की अनुभूति प्राप्त करते हैं, जंगल में रहकर भी ऐश्वर्यशाली जीवन जीते हैं। पागल अपने आप से बातें करते हैं, पर क्या वे सुखी हैं? नहीं, क्योंकि मेघावी होने की पराकाष्ठा ही पागलपन है। वह जाग्रत अवस्था में अपने आप से बातें नहीं करते, बल्कि वे अचेतनवस्था में अपने आप से बातें करते हैं। ज्ञानी अपने आप से ही बातें करते हैं। कई बार निर्णय लेने में मस्तिष्क काम नहीं करता, पर हृदय अपनी बात अवश्य कहता है। विवेकानंद जी ने कहा है कि निर्णय की स्थिति में जब दिल और दिमाग हावी हों, तो दिल की बात माननी चाहिए। दिल की बात इसलिए माननी चाहिए कि दिल ही हमसे करीब होता है, दिमाग तो समय के साथ-साथ बढ़ता है, पर दिल हमेशा से अपने पास रहता है। दिमाग काम करना बंद कर सकता है, पर दिल नहीं। इसीलिए जो दिल की बात सुनते हैं, वे ही अपने आप को बेहतर समझते हैं।
सब-कुछ हमारे ही भीतर है, इसलिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। किसी से सच ही कहा है कि अंधेरे में हो, इसलिए अकेले हो, उजाले में आओ, कम से कम छाया का तो साथ मिलेगा। भीड़ में भी जिसने अकेले रहना सीख लिया, वही होता है असली इंसान।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 6 अगस्त 2008

भारत में प्रसूता का जीवन जोखिमपूर्ण


भारती परिमल
हमारे देश में जन्म देने वाली माँ को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। जिसके पास माँ होतीे है, उसे खुशकिस्मत कहा जाता है। पर आज उसी माँ की स्थिति हमारे देश में बहुत ही दयनीय है। जन्म देने वाली माँ की हालत इतनी खराब हो गई है कि उसे संतान को जन्म देने के पहले भी कई बार मरना पड़ता है। हालत यही नहीं सुधर पाती, संतान को जन्म देते समय कई माँएँ दम तोड़ देती हैं।
'प्रति 7 मिनट में एक महिला की मौत' खबर पढ़कर दिल को चोट पहुँची। वास्तव में यह खबर है ही आहत करने वाली। देश को आजाद हुए 58 वर्ष हो चुके हैं, किंतु आज भी स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। हमारे यहाँ कुपोषण से आज भी हजारों बच्चों की मौत होती है और स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में प्रति 7 मिनट में एक महिला की प्रसवोपरांत मृत्यु हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार प्रसव के दौरान होने वाले प्रभावों एवं रोगों के कारण मृत्यु को प्राप्त होती महिलाओं में से 30 प्रतिशत जितने मामलों की तो लिखित जानकारी भी नहीं होती।
भारत सरकार के द्वारा इस दिशा में अनेक योजनाएँ लागू की गई और काफी धन खर्च किया गया, किंतु ऐसे मामलों को रोकने के संबंध में विशेष सफलता नहीं मिली। यूनिसेफ के एमएमआर प्रोजक्ट के अनुसार ग्रामीण्ा क्षेत्रों में स्वास्थ्य की कम सुविधाएँ उपलब्ध हैं। साथ ही गाँवों में लगभग 65 प्रतिशत प्रसव अनुभवहीन स्टाफ के द्वारा करवाया जाता है। भारत का एमएमआर (मेटरनल मोरालीटी रेशियो) 301 के करीब है। अर्थात् 301 माताएँ कहीं प्रसव दौरान मृत्यु को प्राप्त करती है अथवा प्रसव के 42 दिनों में मृत्यु को प्राप्त होती हैं। भारत का एमएमआर, यूनिसेफ के अनुसार 106 होना चाहिए, किंतु आश्चर्य यह कि ये बांगलादेश और श्रीलंका से भी अधिक है। भारत में आज जिस तरह से ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही की जा रही है, उसे देखते हुए तो ऐसा लगता है कि 2015 में भी भारत का एमएमआर 140 का होगा!! भारत में इस प्रकार की मृत्यु का प्रमाण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं में अधिक देखने को मिलता है। दु:ख की बात यह है कि पिछले छ: वर्षों में एमएमआर कम करने के संबंध में सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किए हैं।

मृत्यु के इन बढ़ते ऑंकड़ों के पीछे मूल कारण गाँव की गरीबी है। दूसरी तरफ प्रसव संबंधी अज्ञानता और स्वास्थ्य की कम सुविधाओं के कारण भी गाँवों में ऐसे मामले बहुतायत से देखने को मिल रहे हैं। गाँव में प्रसवकाल दौरान अनेक शारीरिक समस्याओं से जूझती महिला को पास के शहर में ले जाया जाता है, वहाँ यदि उसे उचित उपचार नहीं मिल पाता, तो बड़े शहर में ले जाने की सलाह दी जाती है। गाँव से शहर और शहर से बड़े शहर तक का सफ़र करते हुए अंत में महिला मृत्यु को प्राप्त करती है। आज भी न तो गाँवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था हो पाई है और न ही परिवार नियोजन के क्षेत्र में जागरूकता आई है। 5-6 संतान को पालने वाली माता सातवीं संतान को उसकी आवश्यकता अनुसार पोषण नहीं दे पाती। नतीजा यह होता है कि बालक जन्म से पूर्व या जन्म के कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त होता है। कई ग्रामीण घरों में तो अधिक संतान के कारण उनके खान-पान की उचित व्यवस्था न होने के कारण वे बीमार होकर अपनी जान गँवा बैठते हैं। इसके पीछे गरीबी, अज्ञानता, जागरूकता का अभाव, सरकारी व्यवस्था, स्वयं की लापरवाही आदि ऐसे अनेक से कारण हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मध्यप्रदेश में इस प्रकार की मृत्यु के लिए प्रसवोपरांत आंतरिक रक्तस्राव एवं प्रसव वेदना के दौरान उचित चिकित्सा के अभाव को कारणभूत माना गया है।
मध्यप्रदेश में चाइल्ड बर्थ एवं प्रसव दौरान माता की मृत्यु की संख्या 1,36,000 है। वर्तमान में मध्यप्रदेश का एमएमआर 540 है। अर्थात् एक लाख महिलाओं में से 540 की मौत होती है। उत्तर प्रदेश में प्रति वर्ष ऐसे मामलों में 40 हजार महिलाओं की मौत होती है। ऐसे मामलों को घटाया जा सकता है। प्रसव के दौरान महिलाओं को यदि योग्य उपचार एवं बलवर्धक दवाओं का सेवन करवाया जाए, तो इन संख्याओं को कम किया जा सकता है। प्रसव के बाद भी मिलने वाली योग्य चिकित्सकीय सुविधाओं का अभाव है। इसप्रकार आर्थिक पक्ष इस दिशा में जितना जिम्मेदार है, उतना ही सरकारी पक्ष भी। क्योंकि सरकार द्वारा ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सुविधाएँ देने की बात केवल फाइलों में ही कैद होकर रह जाती हैं। स्वैच्छिक संस्थाएँ तो एमएमआर को 'साइलेन्ट सुनामी' कहती हैं। एमएमआर के कारण तो दो लाख घर माताविहीन होकर उजड़ गए हैं। प्रसव के दौरान होने वाले रोगों का योग्य उपचार न होने के कारण लगभग 6 लाख जितनी महिलाएँ रोग की शिकार हो चुकी हैं। चीन, श्रीलंका और इन्डोनेशिया जैसे देशों में तो प्रसव दौरान अनुभवी चिकित्सक की सेवा उपलब्ध हो, ऐसी पूरी व्यवस्था करने में आई है।
मृत्यु के इन ऑंकड़ों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकार के द्वारा इस दिशा में किए गए तमाम प्रयास निष्फल हुए हैं। आजादी मिलने के बाद गाँवों के उत्थान के लिए अरबों रूपए खर्च किए जा चुके हैं। बिजली एवं पानी की सुविधा के लिए खर्च किए गए पैसों का तो थोड़ा-बहुत उपयोग भी हुआ है, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी सुविधा के मामले में सफल उपयोग की बात तो आज भी विचाराधीन ही है। भारत में यदि इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाए और गाँवों में स्वास्थ्य सुविधा का पूरा प्रयास किया जाए, तभी महिलाओं की मृत्यु के ऑंकड़े कम हो सकते हैं।
आज भारत हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। भारत का जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) दो अंको को छूने के लिए आगे बढ़ रहा है, सेंसेक्स 15 हजार की दिशा के नजदीक है, एक्सपोर्ट एवं एफडीआई में आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त कर सकने वाला भारत अब गाँवों के विकास की ओर ध्यान दे, यही आज की आवश्यकता है।
भारत के पास आज बहुत-सी उपलिब्धयाँ हैं, जिसके कारण उसकी चर्चा चारों ओर हो रही है, किंतु स्वास्थ्य के संबंध में उसकी लापरवाही इन सारी उपलब्धियों पर पानी फेर देती है। अभी तक हालत यह है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह केवल शहरों में ही दिखता है, गाँव की हालत में अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। सरकारी सहायता गाँवों तक पहुँचते-पहँचते दम तोड़ देती है। केंद्र या राज्य शासन द्वारा भेजी गई सहायता गाँवों तक समुचित रूप से नहीं पहुँच पाती।
भारती परिमल

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

तिब्बत पर भारत की खामोशी जायज


नीरज नैयर
दुनिया की छत पर जाना-पहचाना सा शोर है. आजादी के नारों के बीच बंदूकों का शोर और फिर कुछ क्षणों के लिए मातम भरी खामोशी यह बताने के लिए काफी है कि तिब्बत सुलग रहा है. सालों-साल चीनी हुकूमत के कदमों तले जिंदगी बिताने को मजबूर तिब्बतियों के सब्र की डोर अब टूटने लगी है. तिब्बती अपना हक चाहते हैं, सर उठाकर जीने की आजादी चाहते हैं मगर साम्यवादी चीन उनकी जायज मांगों को नाजायज बताकर वही खूनी खेल खेलने पर आमादा है जो उसने 1959 में खेला था. चीन अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलना चाहता है और कुचल भी रहा है. उसने शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर भिक्षुओं पर गोलियां बरसाकर यह साफ कर दिया है कि उसके शब्दकोष में रहम नाम की कोई चीज नहीं है. चीन की इस बर्बरता के खिलाफ अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवाज उठने लगी है. ब्रिटेन, फ्रांस और यूरोपीय संघ ने जहां बीजिंग में होने वाले ओलंपिक खेलों के बहिष्कार की धमकी दी है वहीं अमेरिका पहले ही चीन को शांति बरतने की सलाह दे चुका है. ऐसे में भारत की खामोशी किसी के गले नहीं उतर रही है. चूंकी दलाई लामा को भारत ने शरण दे रखी है और तिब्बतियों के प्रति भी उसका रवैया हमेशा उदारवादी रहा है, इसलिए उसका चीनी दमनकारी नीति की मुखालफत न करना तिब्बतियों को भी सोचने पर मजबूर कर रहा है. दरअसल तिब्बत के रिश्ते जितने गहरे भारत के साथ हैं उतने किसी भी देश के साथ नहीं. चीन तथा भारत के मध्य बसा एशिया के बीचों-बीच 25 लाख वर्ग किलोमीटर वाला तिब्बत चीन के कब्जे से पहले स्वतंत्र था. तिब्बत और भारत के बीच संबंध शुरू से ही बड़े घनिष्ट रहे हैं. विशेषकर 7वीं शताब्दी से जब भारत से बौद्ध धर्म का तिब्बत में आगमन हुआ. जब तिब्बत स्वतंत्र था तो तिब्बती सीमाओं पर भारत के केवल 1500 सैनिक रहते थे और अब अनुमान है कि भारत उन्हीं सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रतिदिन 55 से 65 करोड़ रुपए खर्च कर रहा है. 1950 के दौरान चीन ने तिब्बत के आंतरिक मामलों में दखल देना शुरू किया. चीन से लाखों की संख्या में चीनी तिब्बत में लाकर बसाए गये. जिससे तिब्बती अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएं और आगे जाकर तिब्बत चीन का अभिन्न अंग बन जाए.

1959 में जब तिब्बती जनता ने चीनी शासन के विरुद्ध विद्रोह किया तो चीन ने उसे पूरी शक्ति से कुचल दिया. दलाईलामा को प्राणरक्षा के लिए भारत आना पड़ा. इसके बाद तिब्बत की सरकार भंग कर दी गई और वहां सीधे चीन का शासन लागू कर दिया गया. अत: हर कोई यह आस लगाए बैठा था कि भारत इस मसले पर कोई कड़ा रुख अख्तियार करेगा. तिब्बत में जो कुछ भी हो रहा है निश्चित ही उसकी भर्त्सना करनी चाहिए पर सवाल यह उठता है कि क्या भारत तिब्बतियों के घाव पर मरहम लगाकर चीन को अपनी खाल नोंचने देने की स्थिति में है? और वो भी तब जब दोनों देश एक दूसरे के करीब आने की कोशिशों में लगे हैं. भले ही भारत 1962 की स्थिति से बहुत आगे निकल आया है मगर फिर भी चीन को टक्कर देने के लिए उसे सौ बार सोचना होगा. चीन हमेशा से ही अपनी कूटनीतिक और सामरिक चालों से हमें कसता रहा है, ऐसे में तिब्बत का समर्थन और ड्रैगन की मुखालफत करना किसी भी लहजे में भारत के सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा. अभी हाल ही में चीन यात्रा के वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जिस गर्मजोशी के साथ स्वागत हुआ, ऐसा पहले शायद ही कभी देखने को मिला हो. ग्रेट पीपुल हॉल में रात्रिभोज के बाद चीनी प्रधानमंत्री के शून्य से साढ़े तीन डिग्री नीचे तापमान में मनमोहन सिंह को विदाई देने के लिए कई मिनट खड़े रहना दर्शाता है कि चीन अब दुश्मनी भुलाना चाहता है. प्रधानमंत्री न सिर्फ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की पुरजोर मांग पर चीन का रुख बदलने में कामयाब हुए बल्कि परमाणु ऊर्जा उत्पादन में भी उससे सहयोग का वायदा लेने में सफल रहे. इससे कहीं न कहीं यह संकेत जाता है कि दोनों देशों के पथरीले हो चुके रिश्तों में अब फिर से नमी लौटने लगी है. मनमोहन सिंह की इस यात्रा में सबसे बड़ी उपलब्धि रही आर्थिक संबंधों को और नजदीक लाना. दोनों देश 2010 तक द्विपक्षीय व्यापार 40 से बढ़ाकर 60 अरब डॉलर करने पर सहमत हुए हैं. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 1999 में दोनों देशों के बीच महज 2 अरब डॉलर का ही व्यापार था. ऐसे में 60 अरब डॉलर का लक्ष्य अपने आप में एक उपलब्धि है. 2007 में चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बनकर उभरा है. पिछले साल भारत-चीन व्यापार में लगभग 57 फीसदी का इजाफा हुआ है. चीन ने भारत के साथ संयुक्त बयान में यह भी कहा था कि दोनों देश उन नदियों पर निगरानी के लिए साझा तंत्र बनाएंगे, जो भारत और चीन दोनों में बहती हैं. पर यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि विगत वर्ष अमेरिका और ब्रिटेन के प्रमुख समाचार पत्रों में यह सनसनीखेज खुलासा हुआ था कि चीन जोरशोर से प्रयास में लगा हुआ है कि तिब्बत से निकलने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की धारा को मोड़कर उत्तर में येलो रिवर में मिला दिया जाए. ताकि उत्तरी चीन का सुखा भाग फिर से हरा भरा हो सके. अब अगर भारत तिब्बत का समर्थन कर चीन को चेताने की हिमाकत करता है तो चीन भी खामोश नहीं बैठने वाला, उसने पहले ही यह चेतावनी दे डाली है कि तिब्बत चीन का आंतरिक मामला है और इसमें टांग अढ़ाने वाले देशों को अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए. ऐसे में तिब्बत के समर्थन की कीमत कहीं हमें ब्रह्मपुत्र को खोकर न चुकानी पड़े. जानकारों का भी मानना है कि चीन अगर इसी तरह अपनी चाल चलने में लगा रहा तो आने वाले दस सालों में वह हमसे ब्रह्मपुत्र को छीनने में सफल हो जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो असम सहित भारत का उत्तरी-पूर्वी इलाका बंजर में तब्दील हो जाएगा. मेकांग नदी इसका उदाहरण है. राजनयिक मामलों के जानकारों में से अधिकतर मानते हैं कि भारत को सतर्कता से न केवल तिब्बत के आंदोलन के प्रति नैतिक समर्थन दिखाना चाहिए साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह किसी भी सूरत में ऐसे देश के रूप में नजर नहीं आए जो चीन विरोधी गतिविधि में शामिल है और वहां होने वाली ओलंपिक गतिविधियों को मुश्किल बनाने का काम कर रहा है. जानकारों की नजर में भारत के लिए ऐसा करना राष्ट्रीय हित में नहीं होगा. 1980 में अफगानिस्तान के नाम पर जब कुछ देशों ने रूस में ओलंपिक खेलों का विरोध किया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रहित में नहीं होने के कारण इस मुहिम को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया था. भारत को इस बात का अच्छी तरह अहसास है कि चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति है जिससे रिश्ते बिगाड़ने में बुद्धिमानी नहीं होगी. वर्तमान में चीन का कद इस कदर बढ़ गया है कि दुनिया का कोई भी देश सीधे तौर पर उससे पंगा लेने की सोच भी नहीं सकता. अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश जो कोसोवो की आजादी एंव रक्षा के लिए नाटो के तत्वाधान में अपनी सेना भेज सकते हैं, वे भी तिब्बत पर केवल बयानबाजी ही कर रहे हैं. हिंसा पर चिंता व्यक्त करके यह कहना कि चीन को दलाई लामा से बात करनी चाहिए, औपचारिक खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं है. स्वयं दलाई लामा जब कह चुके हैं कि वो चीन से अलग नहीं होना चाहते केवल स्वायत्तता चाहते हैं तो हम कौन होते हैं जो तिब्बत की आजादी का झंडा बुलंद करें. पिछले दिनों भारत में चीनी दूतावास में तिब्बतियों के प्रदर्शन को लेकर ही चीन ने जो कड़ा रुख दिखाया था उससे यह अंदाजा लगया जा सकता है कि वो इस मामले पर कितना भर्राया हुआ है. चीन ने प्रदर्शन के बाद रात दो बजे चीन में भारत की राजदूत निरुपमा राव से नाराजगी का इजहार किया. दूसरे दिन निरुपमा राव को एक बार फिर दिन में बुलाया गया और उन्हें उन तिब्बती संगठनों की एक फेहरिस्त भी सौंपी गई जो भारत में चीन के खिलाफ बढ चढ़ कर प्रदर्शन कर सकते हैं. दूसरे देशों के राजदूतों को बुलाकर प्रतिक्रिया जताना सामान्य बात है मगर किसी राजदूत को इतनी रात में बुलाना आम बात नहीं मानी जा सकती.
णवैसे भी चीन का तीन हजार वर्षो का इतिहास बताता है कि वह सदा विस्तारवादी रहा है. चीन जब किसी पड़ोसी की जमीन छीन लेता है तो उसे आसानी से अपने हाथ से जाने नहीं देता. इसलिए यह सोचना कि चीन हमारे विरोध के चलते तिब्बत को छोड़ या अपनी विस्तारवादी आदत बदल देगा देगा गलत होगा. हां भारत इतना जरूर कर सकता है कि कूटनीतिक तौर पर तिब्बती आंदोलन का समर्थन करें जैसा चीन पाकिस्तान के सहारे करता आया है. इसमें न तो कोई बुराई है और न ही कोई नुकसान मगर यह कहना कि तिब्बत के समर्थन में भारत को खुलकर सामने आना चाहिए कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है. हर देश के अपने हित होते हैं और उनकी भलि चढ़ाकर दूसरों की मदद नहीं की जा सकती.
नीरज नैयर
9893121591

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