मंगलवार, 12 अगस्त 2008

हमें मौत दे दो साहब, हम मरना चाहते हैं


डॉ. महेश परिमल
कभी किसी अस्पताल का दौरा किया है आपने? निश्चित रूप से आप कभी स्वयं ही या फिर अपने किसी परिजन का कुशल-क्षेम पूछने जाना पड़ा हो। वहाँ जाकर आपने यह अवश्य अनुभव किया होगा कि कई ऐसे बीमार हैं, जिन्हें मौत चाहिए, लेकिन उन्हें मौत नहीं आ रही है। कई ऐसे हँसते-खिलखिलाते मासूम भी मिल जाएँगे, जिन्होंने अभी जीवन को पूरी तरह से समझा भी नहीं है, वे भी अपने जीवन के दिन गिन रहे हैं।बच्चों का बीमार होना इस बात का परिचायक है कि अपनों की दुआ और आज की दवाओं के सहारे उनके जीवित रहने की संभावनाएँ अधिक हैं, पर बुजुर्गों को देखकर लगता है कि क्या इसी दिन के लिए इन्होंने स्वयं को तैयार किया है? पोपला मुँह, खल्वाट सर, पतली-दुबली काया, ऑंखें धँसी हुई या फिर उस पर मोटे ग्लास का चश्मा, झुकी हुई कमर, पीड़ा से छटपटाता शरीर, ऐसा लगता मानो यह शरीर अभी जवाब दे जाएगा।ये तो खुलकर अपनी मौत को पुकारते हैें, पर मौत है कि एक बार मासूमों को ले जाती है, पर इन्हें छोड़ देती है अपने हाल पर जिंदा रहने के लिए।
यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हमारे ही बीच कई ऐसे कथित रूप से बीमार हैं, जो केवल जीवित हैं, लेकिन जीवन के अन्य कोई लक्षण उनमें दिखाई नहीं दे रहे हैं। हमारे राष्ट्रपति के पास अभी आधा दर्जन आवेदन ऐसे हैं, जिसमें स्वयं रोगी या उसके परिजनों से मौत की गुहार की है। अभी उन आवेदनों पर विचार नहीं हुआ है। मैंने स्वयं ही 80 वर्श के ऐसे वृध्द को देखा है, जिनका शरीर कृशकाय है, उन उम्र तक आते-आते वे तीन बार हृदयाघात को सह चुके हैं।एक बार पक्षाघात भी हो गया, उनकी दैनिक गतिविधियाँ करीब-करीब बंद सी हो गई, इस स्थिति में स्वजनों का प्यार भी खत्म हुआ समझो।जब आखिरी बार हृदयाघात हुआ, तो उन्होंने कहा ''इनफ, अब बहुत हो चुका, परमात्मा मुझे वापस बुला ले।''इस वृध्द की करुण पुकार अनसुनी रह गई। यदि इस वृध्द के अंग किसी जरूरतमंद को दे दिए जाएँ और इन्हें स्वाभावित रूप से मरने दिया जाए, तो क्या इसे गलत माना जाएगा।
पहले के जमाने में हमारे ऋशि-मुनियों को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त होता था, तथापि वे अपना जीवन जब चाहे, तब समाप्त कर लेते थे।पर हमारे देश में ऐसे हजारों लोग हैं, जो रोज ही ईश्वर से प्रार्थना कर अपनी मौत माँग रहे हैं, पर ईश्वर उनकी नहीं सुन रहा है। इसलिए उन्होंने देश के राष्ट्रपति से मौत की गुहार की, पर वह भी अनसुनी रह गई। अभी हालत यह है कि मौत दूर से ही उन्हें तिल-तिलकर मरता देख रही है। उन्हें न तो मौत आ रही है और न ही जिंदगी उनसे ठीक से व्यवहार कर रही है।

महानगर मुम्बई में एक गैर सरकारी संस्था है, इसके बहुत सारे सदस्य प्रतिष्ठित डॉक्टर हैं। होता यह है कि जब सारे डॉक्टर मिलकर भी किसी मरीज को ठीक नहीं कर पाते, उनके सारे प्रयास निष् फल हो जाते हैं, तब वे मरीज के परिजनों से कहते हैं कि अब बस परमात्मा से प्रार्थना करें। यह डॉक्टरों का अंतिम शस्त्र है। इसके बाद का काम परिजनों का होता है।प्रार्थना का असर होता है, इसे सुपरस्टॉर अमिताभ बच्चन भी स्वीकारते हैं।उनका मानना है कि दोनों बार जब मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ा, तब मेरे प्रशंसकों की प्रार्थना ने ही मुझे बचा लिया। यह तो ठीक है, पर जिस मरीज के लिए दवा और दुआ दोनों ही बेकार हो जाए, तब क्या किया जाए? यहाँ वे यही गैर सरकारी संस्था काम आती है।इस संस्था का नाम है 'सोसायटी फॉर राइट टू डाई विथ डिग्नीटी याने गौरवपूर्ण मृत्यु का अधिकार दिलाने वाली संस्था।
कई बार ऐसा होता है कि जब मरीज का जीवन रक्षक यंत्र ही काम करता है और मरीज को कथित रूप से जिंदा रखता है, तब उस मरीज को क्या कहा जाए? वेंटीलेटर ऐसा ही एक यंत्र है। सवा अरब की जनसंख्या वाले इस देश में हर पचास व्यक्तियों के लिए एकमात्र वेंटीलेटर है।इस यंत्र में मरीज को रखने का ही खर्च रोज का दस से पचास हजार रुपए है।कितने मरीज इसे वहन कर पाते होंगे और कथित रूप से उधार का जीवन जीते होंगे? जो मरीज इस यंत्र के सहारे ही जीवित हैं, डॉक्टर उन्हें ''वेजीटेबल'' कहते हैं। इन वेजीटेबल मरीज के साथ स्थिति यह होती है कि परिजन इनके सामने मूक खड़े रहते हैं और मरीज उन्हें एकटक देखता रहता है, बस..... इसके अलावा मरीज में जीवन के कोई लक्षण नहीं होते।इनके शरीर के सारे अंग काम तो करते हैं, पर उनके काम करने का कोई अर्थ नहीं होता। वे अंग भी वेंटीलेटर के अधीन हो जाते हैं। परिजन केवल मरीज के जिंदा रहने का भ्रम पालकर उन्हें केवल देखते रहते हैं।ऐसे मरीजों के अच्छे अंग यदि किसी जरूरतमंद को काम आ जाएँ तो कैसा रहे? इसके लिए मीनू मसानी अपनी उक्त संस्था के साथ लगातार संघर्श कर रहे हैं। इसके लिए अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में ''यूथेनेशिया'' स्वीकार्य है।यह वह स्थिति है, जिसमें जीवन से विदा ले रहे इस तरह के वेजीटेबल मरीज अपने अच्छे अंगों का दान कर सकते हैं। इससे कई लोगों को लाभ हो सकता है।नेत्रहीन को ऑंखें मिल सकती हैं, किसी को किडनी या फिर लीवर मिल सकती हैं।इससे वह व्यक्ति मरकर भी उन लोगों के लिए जीवित रहेगा, जिन्होंने उसके अंग को धारण किया है। अभी यह हमारे देश में लागू नहीं हुआ है, इसलिए परिजन अपने मरीज को अपनी ऑंखों के सामने तिल-तिलकर मरता देखते रहते हैं।कई बार उनके मुँह से सच्चाई निकल ही जाती है, अब बहुत हो गया, इन्हें मुक्ति मिल ही जानी चाहिए, इनकी पीड़ा अब हमसे सही नहीं जा रही है।
गौरवपूर्ण मृत्यु का अधिकार दिलाने वाली इस संस्था के मीनू मसानी''फ्रीडम फर्स्ट' नामक एक पत्रिका भी निकालते हैं। इस संस्था के सदस्य डॉक्टर के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में विख्यात लोग हैं।इन सबका मानना है कि अभी हमारा देश इतना अमीर नहीं है कि इन वेजीटेबल मरीजों का खर्च वहन कर सके।इस स्थिति में उस मरीज के अंग यदि किसी दूसरे को काम आ जाएँ, तो बुरा क्या है? डॉक्टर ही क्यों, मनोवैज्ञानिक भी इसे गलत नहीं मानते।यह आत्महत्या कतई नहीं है, यह है अंग दान कर मरकर भी उस व्यक्ति के रूप में जीवित रहना, जिसने उनके अंग को धारण किया है। यदि अंतर है आत्महत्या और यूथेनेशिया में।
आज डॉक्टर मर्सीकिलिंग को कानून बनाने की वकालत कर रहे हैं। सरकार का इस संबंध में कहना है कि इसका गलत फायदा उठाया जा सकता है। पर आज यह तो देखो कि किस क्षेत्र में सरकार की मंशा का गलत फायदा नहीं उठाया जा रहा है। हर जगह सरकार अपने ही बनाए कानून से मात खा रही है। ऐसे में मरकर भी जिंदा रहने का यह उपक्रम अनुचित तो नहीं है। फिर यदि इसे स्वीकारा नहीं जाता, तो हमारे बीच ऐस मरीज चीख-चीखकर कहेंगे कि साहब हमें मौत दे दो, हम शांति से मरना चाहते हैं।
डॉ. महेश परिमल

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है, एक बेहद संवेदनशील मानवीय समस्या जिसका निदान जल्द से जल्द होना ही चाहिए अथवा न जाने कितने भुक्तिभोगी वृद्ध व् असहाय, अपनी इस अन्तिम अवस्था में तकलीफदेह मौत को प्राप्त होंगे ! सरकार को और अन्य बुद्धिजीवी लोगों को इसका अहसास ही नही है "जाके पीर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई

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  5. आपकी बातें गलत तो नहीं , पर इसके कुछ दुष्परिणाम अवश्य निकलेंगे। आपकी बातें गलत तो नहीं , पर इसके कुछ दुष्परिणाम अवश्य निकलेंगे। वैसे तॅ हर चीज के फायदे और नुकसान दोनो हैं , पर उचित काम तो किया ही जाना चाहिए।

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