मंगलवार, 30 सितंबर 2008

क्या नेता कभी रिटायर नहीं होते?


डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव की आहट शुरू हो गई है, इसी के साथ झुर्रियों वाले कई चेहरों पर खिल गई है मुस्कान। अब वे सभी अपने आप को तैयार कर रहे हैं एक दमदार नेता के रूप में स्थापित करने के लिए। कई अपने भुले हुए मतदाताओं को याद करने में लगे हैं, तो कई अपने कार्र्यकत्ताओं को जमा कर रहे हैं। कुछ तो अपने चुनाव क्षेत्रों में हुए कामों की सूची बनाने में लगे हैं, तो कुछ नई तैयारी में लगे हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि एक सरकारी कर्मचारी 60 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो जाएगा, यह तय वे लोग करते हैं, जो 70-75 होने के बाद भी रिटायर नहीं हुए हैं। केवल राजनीति ही वह क्षेत्र है, जहाँ लोग औसत आयु पार करने के बाद भी जमे रहना चाहते हैं।
ऐसा केवल राजनीति में ही संभव है। हम सबने देखा होगा कि घर-परिवार में जब घर के मुखिया थोड़े अशक्त होने लगते हैं, तब बेटे उनसे कहते हैं पिताजी बहुत हो गया, अब आप आराम करें, हम सब मिलकर सारा काम कर लेंगे। बस आप हम पर अपनी छत्रछाया बनाएँ रखें, हमें आपके अनुभवों की आवश्यकता होते रहेगी। आप हमारा मार्गदर्शन करते रहें। इससे उस बाुर्ग को लगता है सचमुच मैं तो बूढ़ा हो गया, बेटे कब जिम्मेदार हो गए, पता ही नहीं चला। अब मुझे आराम के लिए कह रहे हैं। क्या सचमुच मेरी उम्र आराम के लायक हो गई? उसका सीना गर्व से भर उठता है। उसके हाथ आशीर्वाद के लिए उठ जाते हैं। लेकिन राजनीति में ऐसा कभी नहीं होता। एड़िया घिस जाती हैं, फिर भी इसका मोह भंग नहीं होता। हो भी नहीं सकता, यह एक नशा है, जो कभी नहीं उतरता।
आज यदि मनुष्य की औसत आयु 80 वर्ष मानी जाए, तो इसके 20-20 वर्ष के चार स्तर होते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए, तो हमारे देश के 80 प्रतिशत सांसद-विधायक वानप्रस्थ के लायक हो गए हैं। सवाल यह उठता है कि आज के नेताओं की औसत उम्र कितनी होनी चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री 70 के पार हैं, नेता विपक्ष लालकृष्ण आडवाणी भी 75 पार हैं, उनकी ऑंखों में प्रधानमंत्री बनने का सपना पल रहा है। हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा भी 70 पार कर चुके हैं, 83 वर्ष की उम्र में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक तरह से सेवानिवृत्ति का ही जीवन गाुार रहे हैं, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री 90 पार कर चुके हैं और अधिकांश रायों के रायपाल भी 70 पार कर चुके हैं। ये सभी वृध्द हो चुके हैं, यह सच है। इससे किसी को इंकार भी नहीं होगा। सभी के जीवन में संघ्या का आगमन होता है, पर मानव की परिपक्वता के साथ-साथ उनके अनुभव का खजाना भी तो भरता रहता है। लेकिन इसका लाभ सभी को नहीं मिल पाता। इसलिए कुछ बुद्धिजीवियों ने यह प्रश्न उठाया है कि सांसदों और विधायकों की भी सेवानिवृत्ति की उम्र तय होनी चाहिए। इनकी बात अनुचित भी नहीं है, पर भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह निर्मूल सिद्ध होती है कि नेता स्वयं कभी सेवानिवृत्ति लेते हैं।
कुछ तस्वीरें उभरकर आती हैं, कुछ वर्ष पूर्व मुम्बई के एक सभागार में गद्दों और तकियों के सहारे बैठे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा खड़े हुए और कुछ कदम चलकर गिर पड़े, इसके बाद ऐसी ही एक सभा में काँग्रेसाध्यक्ष कमलापति त्रिपाठी खड़े होने के प्रयास में गिर पड़े। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में देवगौड़ा को कई बार ऊँघते हुए पाए गए। यही स्थिति आजकल मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह की है। इसकी क्लिपिंग जब टीवी पर दिखाई जाती है, तो हम सबका सर शर्म से झुक जाता है। आज जहाँ एक ओर कई युवा और उच्च शिक्षा प्राप्त सांसद बिना किसी जवाबदारी के संसद में अपनी शक्ति और समय को जाया कर रहे हैं। योतिरादित्य सिंधिया, राहुल गांधी, मिलिंद देवरा, सुचित्रा सूले, जैसे कई लोग हैं, जो इन बाुर्ग नेताओं से बेहतर जवाबदारी निभा सकते हैं। लेकिन हाशिए पर हैं। इन युवाओं में उमर अब्दुल्ला का नाम इसलिए नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि इन दिनों वे कठपुतली बनकर अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं।
इन बाुर्ग नेताओं के पक्ष में दलील देते हुए एक वर्ग का यह भी कहना है कि जब कोई व्यक्ति अपने व्यवसाय में 25-30 साल गाुार देता है, तो वह काफी अनुभवी हो जाता है। अपने अनुभवों का लाभ जब उसे मिलने लगता है, तब उसे काम से निवृत्त कर देना कहाँ की समझदारी है? आज कई निजी संस्थाओं में सेना एवं विभिन्न सरकारी क्षेत्रों के रिटायर्ड लोग अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। इसका आशय यही हुआ कि सभी को इनकी योग्यता का लाभ मिलना चाहिए। यह दलील सच्ची अवश्य है, लेकिन व्यावहारिक बिलकुल नहीं है। निजी संस्थाओं में कर्मचारियों को अपने वेतन के एक-एक पैसे का लाभ अपने काम में देना होता है। हाल ही में आईपीएल मैच का ही उदाहरण ले लें, जिसमें अपेक्षाकृत परिणाम न दे पाने वाले खिलाड़ियों को तुरंत टीम से बाहर कर दिया गया था।
उधर सरकारी कार्यालयों का रवैया ऐसा होता है कि इसमें किसी मामले में कभी कोई दोषी नहीं पाया जाता। फिर सरकारी बाबुओं के रुतबे से कौन वाकिफ नहीं होगा? इनके चंगुल से कोई भी बचकर नहीं निकल सकता, यह तय है। आखिर इनके आदर्श वे नेता ही हैं, जिनके पाँव कब्र में लटक रहे हैं, फिर भी धन जुटाने की जुगत में ही लगे हैं। ऐसे अतिवृध्द नेताओं को पद से हटा देना चाहिए। ये नेता काम तो कम ही कर पाते हैं, इनके इलाज में ही लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं। जो अपने पाँव पर ठीक से खड़ा नहीं हो पाता, सभा में सोते रहता है, चलने के लिए दो साथियों की आवश्यकता पड़ती हो, दो वाक्य भी स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाता हो, वह देश का किस तरह से भला कर सकता है? ऐसे में यह बात सामने आती है कि कमजोर कांधों पर राष्ट्र का भविष्य किस तरह से सुरक्षित रह सकता है? स्वस्थ राष्ट्र का अर्थ ही है, मजबूत काँधे? क्या आज देश की राजनीति में कोई दिख रहा है मजबूत काँधों वाला नेता, जो राष्ट्र का भार अपने मजबूत काँधों पर लेकर पूरे विश्व में एक नई मिसाल दे पाए?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 27 सितंबर 2008

सच्चे माथे के समाज से निकला अनुपम पुरुषार्थ


सुनील मिश्र
अनुपम मिश्र को समाज के सच्चे लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। वे जिस तरह का जीवन जी रहे हैं, जिस तरह की सच्चाई और साफगोई उनके व्यक्तित्व की पहचान है। देश के मरे, बाँझ और उदास तालाबों के लिए वे भागीरथ सिध्द हुए हैं। यशस्वी कवि भवानीप्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम ने राजनीति, सिनेमा, समाज सेवा और अन्य तमाम जगहों पर दिखायी पड़ने वाली, थोपी जाने वाली वंश परम्परा से बिल्कुल अलग जीवट के आदमी निकले। पिता के साहित्य प्रेम से वे पता नहीं कितने प्रभावित थे, मगर पिता के गांधीवाद ने उनको जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। बहुत से लोग उनका मध्यप्रदेश में जन्म मानते हैं जबकि उनका जन्म स्थान महाराष्ट्र का वर्धा शहर है। भवानी भाई जब सेवाग्राम में थे, तभी अनुपम का जन्म हुआ। नौकरी वे दिल्ली में कर रहे हैं और सेवा मध्य प्रदेश और राजस्थान की।
अब तक तकरीबन अठारह किताबों के लेखक अनुपम मिश्र की जीवन यात्रा एक सच्चे पुरुषार्थी की जीवन यात्रा रही है। सत्तर के दशक में जब आचार्य विनोबा भावे ने चंबल के दस्युओं से बीहड़ का रास्ता त्याग देने का आव्हान किया था, तब उन्होंने इस बात की प्रेरणा दी थी कि डाकू बुराई का रास्ता अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर छोड़ें। वे सरकार पर माफी, सजा से बचाव, जमीन-जायदाद, मुआवजा और खेती जैसी सौदेबाजी के बजाय अपने जीवन को आने वाली पीढ़ियों और समाज के लिए तब्दील करें। अनुपम बताते हैं कि उस वक्त प्रभाष जोशी, मैं और श्रवण गर्ग इस अनुष्ठान में तमाम जोखिमों के साथ 1972 में चम्बल के बीहड़ों में काम करने गये थे। उस समय चम्बल की बन्दूकें गांधी जी के चरणों में, अभियान को हमने चलाया था। उस समय वहाँ के पूरे वातावरण का अध्ययन करके चार दिन में एक किताब हमने तैयार की थी जिसमें चम्बल के स्वभाव का विवरण था, किस तरह विनोवा ने बागियों के जीवन में इस रास्ते को त्याग करने का बीज बोया, इस बात के लिए तैयार किया कि आकांक्षा मत रखो, जयप्रकाश नारायण ने जो पौधा रोपा उसमें विनम्रतापूर्वक पानी देने का काम हम तीनों ने किया। तभी उस वक्त 548 बागियों का समर्पण सम्भव हो सका था। बाद का आपातकाल का समय भी हम सबके लिए कड़ी परीक्षा का समय था, मगर हम सब जिस भावना से काम कर रहे थे, उसमें भय का कोई स्थान न था।
इन कार्यों के बाद का समय अनुपम मिश्र का प्रजानीति और इण्डियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों में थोड़े-थोड़े समय काम करके बीता। उसके बाद गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में आये। साढ़े तीन सौ रुपए माहवार की प्रूफ रीडिंग की नौकरी से शुरूआत की और फिर बाद में 1977 से मिट्टी बचाओ आन्दोलन, बांधों की गल्तियों को रेखांकित करने का काम और नर्मदा के काम से जुड़े। अनुपम चार दशकों से समाज को उन सारे खतरों से आगाह करने का काम कर रहे हैं जो आज बाढ़ और सूखे के रूप में हमारे सामने भयावह रूप लिए बैठे हैं। हाल में जिस तरह से बिहार के बाद उड़ीसा में बीस साल लोग तबाह हो गये हैं वह सब लाचार प्रशासन व्यवस्था का परिणाम है, ऐसा अनुपम का मानना है। चार साल पहले अनुपम ने एक लेख ऐसी ही चिन्ता में लिखा भी था जो आज जगह-जगह पुनर्प्रकाशित हो रहा है। वे कहते हैं कि प्राकृतिक अस्मिता के प्रति जिस तरह का उपेक्षा भाव हमारे देश में पिछली आधी सदी में देखने में आया है उसी का यह परिणाम है कि आपदाएँ हमारे सिरहाने खड़ी हैं और हमें होश नहीं है।
1993 में उनकी किताब आज भी खरे हैं तालाब आई। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान ने प्रारम्भ में इसकी तीन हजार प्रतियाँ छापी थीं। यह किताब अपनी सार्थकता और तालाबों की अस्मिता को बहाल करने के सार्थक जतन की वजह से इतनी लोकप्रिय हुई कि अब तक इसकी न सिर्फ सवा लाख प्रतियाँ मुद्रित होकर बिक चुकी हैं बल्कि इस किताब का गुजराती, मराठी, उर्दू, कन्नड़, तमिल, असमिया, उड़िया, अंग्रेजी, बंगला और गुरुमुखी में भी अनुवाद हो चुका है। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान ही इसके पाँच संस्करण अब तक निकाल चुका है। वैसे अब तक इसके कुल सोलह-सत्रह संस्करण निकल चुके हैं। यह किताब अनुपम के एक दशक के गहन अनुभवों के आधार पर लिखी गयी है। मध्यप्रदेश सरकार ने इस किताब का पुनर्मुद्रण कर पच्चीस हजार प्रतियाँ गाँवों में निशुल्क वितरण के लिए छापकर बटवायीं हैं। अनुपम कहते हैं कि इस किताब पर किसी का कॉपीराइट नहीं है। उन्होंने मानवीय अस्मिता के बचाव के लिए यह काम किया है, यह जितना सम्प्रेषित हो सके उतनी ही इसकी सार्थकता भी है।
इस किताब के दो साल बाद ही राजस्थान की रजत बूंदें किताब भी उनकी अत्यन्त चर्चित रही जिसमें राजस्थान के जीर्ण-शीर्ण तालों को एक-एक करके देखा गया था। यह किताब पहले हिन्दी में आयी फिर बाद में उसका फ्रांसीसी में अनुवाद हुआ और उसके बाद अंग्रेजी और अरबी में हो रहा है तथा जर्मन में प्रस्तावित है। साफ माथे का समाज उनकी एक और किताब है जो पेंग्विन से आयी है और हिन्दी में है जिसमें समय-समय पर अनुपम के लिखे महत्वपूर्ण सचेता लेखों का चयन है। अनुपम मिश्र को ताल-तलैयों के तारणहार कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
अनुपम मिश्र लोभ, लालच, मोह, माया और तमाम आडंबर-पाखंड से परे एक सादे इन्सान हैं। आज भी उनका गुजारा साढ़े सात हजार मासिक वेतन पर होता है। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी मार्ग के ये सम्पादक अपने घर से दफ्तर पैदल आते-जाते हैं। किसी तरह का कोई कर्ज भी उन पर नहीं है। देश में अनेक राय और शहर का प्रशासन अपने अधिकारियों और लोगों को उन तमाम विधियों को समझाने और व्याख्यायित करने के लिए आमंत्रित करते हैं जो अनुपम के चार दशक के गहरे अध्ययन और पुरुषार्थी जीवन का निचोड हैं। अनुपम कहते हैं कि जिस तरह देश में जल स्तर गिरा है, राजनीति की गिरावट की तरह। इससे सावधान होना चाहिए। ( भास्कर से साभार)
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10। 21 साउथ टी.टी. नगर, भोपाल-3 मध्य प्रदेश

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

आओ एड्स के खिलाफ एक हो जाएँ


डॉ. महेश परिमल
कुछ समय पहले अखबारों में पढ़ा था कि पश्चिम बंगाल के एक व्यक्ति के रक्त की जाँच में उसे एचआईवी पॉजीटिव पाया गया। इसके बाद तो उस व्यक्ति का जीना ही मुहाल हो गया। उसे अपने ही नाते-रिश्तेदारों की उपेक्षा सहनी पड़ी। उसे समाज से ही बहिष्कृत कर दिया गया। सभी उसे कटाक्ष भरी दृष्टि से देखते। लोग उससे दूर-दूर रहते। कई लोग तो उसे छूना भी पसंद नहीं करते। एक तरह से तो वह जीवित रहकर भी मरणासन्न हो गया था। कई दिनों बाद पता चला कि उसकी रिपोर्ट गलत थी। जाँच में गलती हो गई, किसी और के रक्त की रिपोर्ट को उसकी रिपोर्ट बता दिया गया। उस व्यक्ति को तो सही साबित कर दिया गया, पर इस बीच उसने जो कुछ सहा, वह मौत से बदतर था। वह अपने ही लोगों की ऑंखों के सामने गिर गया। आखिर तक उसे वह इज्जत नहीं मिल पाई, जिसका वह हकदार था।
यह हमारे समाज की एक ऐसी सच्चाई है, जिसे हर कोई स्वीकार तो करता है, पर इसे दूर करने की दिषा में एक कदम भी नहीं उठाना चाहता। एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस था। तमाम अखबारों को पढ़ने पर पता चला कि हमारे देश में एड्स रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी के साथ बढ़ रहे हैं इस बीमारी की रोकथाम के उपाय। हम सभी जानते हैं कि एड्स एक जानलेवा बीमारी है। सावधानी ही इससे बचने का एकमात्र उपाय है। लोगों में यह आम धारणा है कि यह बीमारी केवल बड़ों को ही होती है। पर सच तो यह है कि इस रोग के संबंध में आवश्यक जागरूकता एवं सावधानी के अभाव में आज बच्चों में भी एड्स तेजी से बढ़ रहा है। विश्व में 15 साल से नीचे की उम्र के एक करोड़ बालक ऐसे हैं, जो एड्स के कारण अपने माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गए हैं। इन बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।
हाल ही में ऐसे तथ्य सामने आए हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि हमारे देश में अभी भी हजारों बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें यह बीमारी विरासत में मिली है। माता यदि एचआईवी पॉजीटिव हो, तो बालक जन्म के साथ ही यह बीमारी अपने साथ लाता है। एड्स का वायरस उसके खून में पहले ही समा चुका होता है। यह एक चिंता का विषय है कि आजकल हमारे देश में कई बच्चे माता की कोख में ही इस बीमारी से ग्रस्त हो रहे हैं। अब तो माँ की कोख भी सुरक्षित नहीं रही। इस जानलेवा बीमारी को रोकने के लिए विश्व स्तर पर वैज्ञानिक शोधकार्य में लगे हुए हैं, निश्चित रूप से इसके अच्छे परिणाम सामने आएँगे, पर इसके लिए समय लगेगा। अभी तो इसके लिए बिना किसी की सहायता लिए अपनी ओर से एक कदम उठाना ही होगा। यह कदम क्या हो, इस पर कई लोगों के कई विचार हो सकते हैं। सबसे पहले तो यह हो सकता है कि इस बीमारी से ग्रस्त लोगों से प्यार से बातचीत करें। उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव न करें। उसके सामने ऐसी कोई हरकत न करें, जिससे उसे लगे कि उसकी उपेक्षा की जा रही है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि एड्स न तो रोगी के कपड़े पहनने से होता है, न हाथ मिलाने से होता है और न ही उसके साथ भोजन करने से होता है। यह सब करने से केवल प्यार ही बढ़ता है। यदि हमें पता चल जाए कि किसी व्यक्ति को एड्स है, तो उससे इस तरह से व्यवहार करें, जिससे उसे अपनी जिंदगी से प्यार हो जाए और वह पूरी शिद्दत के साथ जिंदगी जीने की कोशिश करे।
यह आश्चर्य की बात है कि पूरे विश्व में अब तक 4 करोड़ लोग एचआईवी ग्रस्त हैं। इस बीमारी ने अभी तक 80 लाख लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। इसके बाद भी विश्व में अभी भी 80 प्रतिशत लोगों को यह मालूम ही नहीं है कि एड्स आखिर है क्या? यह अज्ञानता ही है, जो लोगों को इस बीमारी के करीब ला रही है। एक बार जो इसकी चपेट में आ गया, वह मौत के करीब पहुँच जाता है। पर सच तो यह है कि यदि रोगी के भीतर जीने की लालसा हो, तो इस बीमारी को भी अपने से दूर भगा सकता है। इससे ग्रस्त निराश लोगों में जीवन का संचार करने में हम सबको महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। एड्स रोगी भी यह तय कर ले कि चाहे कुछ भी हो, मुझे इस बीमारी से लड़ना ही है, तो उसका आत्मविश्वास ही उसे एड्स से छुटकारा दिला सकता है। हमारे ही समाज में ऐसे कई लोग हुए हैं, जो एड्सग्रस्त होने के बाद भी पूरी तरह से सामान्य जीवन जीया है।
जीवन जीने की कला यही है कि मौत से पहले मत मरो और दु:ख आने से पहले दु:खी मत हो, हाँ लेकिन सुख आने के पहले ही उसकी कल्पना में ही सुख का अनुभव करो, खिलखिलाहट के पहले ही अपने होठों पर मुस्कान खिला लो। सकारात्मक सोच का सफर काफी लम्बा होता है और नकारात्मक सोच का सफर शुरू होने के पहले ही तोड़कर रख देता है। यह सब कुछ निर्भर करता है हमारे व्यवहार पर। इस व्यवहार में सोच की परत जितनी अधिक जमेगी, जीवन की खुशियाँ उतनी ही परतों के नीचे दबती चली जाएगी। निर्णय हमें करना है कि एड्स रूपी राक्षस के बारे में अधिक सोच-सोच कर जीवन को भार बनाना है या उसका मुकाबला कर जीवन को फूलों की पंखुड़ी सा हल्का और सुकोमल बनाना है? क्योंकि एड्स की भयावहता निश्चित ही एक क्षण को हमें कमजोर बना देती है, किंतु आज आवश्यकता है इस चुनौती को स्वीकारने की और इससे लड़ने की। एक बार फिर हमें अपने आपको समर्पित करना होगा एचआइवी के विरुध्द दृढ़ होकर खड़े रहने के लिए और साथ ही इस बात का भी संकल्प लेना होगा कि हम इस वायरस से पीड़ित लोगों के जीवन में आशा की एक नई सुबह लाएँगे और उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेंगे, ताकि वे अपना सामान्य जीवन जी सकें और हमारे साथ हँसी-खुशी से रह सकें।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 25 सितंबर 2008

आखिर क्रिकेटरों की जेब से पैसा क्यों नहीं निकलता


नीरज नैयर
ये एक विचारणीय प्रश् है कि आखिर हमारे क्रिकेटरों की जेब से पैसा क्यों नहीं निकलता. ऐसे वक्त में जब पूरा देश बाढ़ पीड़ित बिहारवासियों की मदद को बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है. हमारे क्रिकेटर खामोश बैठे हैं. बॉलीवुड से लेकर उद्योगपतियों तक, राजनीतिज्ञों से लेकर आम आदमी तक हर कोई अपनी-आपनी सामर्थ्य के मुताबिक प्रकृति का कहर झेल रहे लोगों के आंसू पोछने की कोशिश में लगा है. बिहार में कोसी ने जो तबाही मचाई है उसकी भरपाई तो शायद ही हो पाए मगर थोड़ी-थोड़ी मदद दाने-दाने मोहताज लोगों को कुछ सहारा जरूर दे सकती है. बिहार में विकरालता और बेबसी का आलम ये हो चला है किखाने के लिए खून बहाया जा रहा है. लोग खाद्य सामग्री के लिए एक-दूसरे को कुचलने पर आमादा है. पर हमारे क्रिकेटरों के कानों तक शायद उन लोगों की करुण पुकार अब तक नहीं पहुंच पाई है. हमारे देश में क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभल रहा है.
सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. धोनी एक फीता काटने के 50 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से ही कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्य प्राप्ति में प्रेरक होता है. बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है. बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. बात चाहे गुजरात और जम्मू-कश्मीर में भूकंप की हो या सूनामी जैसी आपदाओं की बॉलीवुड कलाकार हमेशा दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल उठते रहे हैं. कोई इसे पब्लिसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें. यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी, अभी हाल ही में संपन्न हुई इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान भी उसने जमकर धन कूटा. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है.
नीरज नैयर 9893121591)

बुधवार, 24 सितंबर 2008

कैसा इनाम और काहे का इनाम


डॉ. महेश परिमल
आपके घर पर यदि मनीआर्डर आया है, या फिर अवसर हो दीवाली का, अक्सर पोस्टमेन आपके दरवाजे पर खड़ा मिलेगा। कारण वही इनाम की चाहत। यह इनाम क्या है भई? आपने हमारी सेवा की तो इसके एवज में सरकार आपको वेतन तो देती ही है ना। इसके साथ-साथ तमाम सरकारी सुविधाएँ नहीं लेते क्या? जब आप सबकुछ सरकार से प्राप्त कर रहे हैं, तो हम अलग से धन देकर आपको नकारा क्यों बनाएँ?
निश्चित है मेरी यह शिक्षा डाकिए को बुरी लगेगी। इसका प्रतिफल यह होगा कि कोई रजिस्ट्री यदि आई, तो उस पर यह लिखकर वापस भेज दिया जाएगा कि इस पते पर इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिला। अब क्या कर लेंगे आप? यदि हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं तो हमें पग-पग में ठोकरें खानी पड़ेंगी। पीट लो, जितना पीटना है इमानदारी का ढोल। होगा वही जो एक अदना-सा कर्मचारी चाहेगा। अधिकारियों को मौका ही नहीं मिलेगा। जरा उस काहिल डाकिए को याद कर लें, जो अपने हिस्से की सारी चिट्ठियाँ बरसों तक एक कुएँ में डालता रहा। खुशी के कितने पैगाम, उसकी काहिली की भेंट चढ़ गए। क्या कार्रवाई हुई उस पर? कोई नहीं जानता।
इसी तरह महीने के आखिर में एक गोरखा दरवाजे पर दस्तक देता है- शलाम शाब, चौकीदार। अच्छा तो तुम हो चौकीदार। पिछले महीने मेरा स्कूटर घर से चोरी चला गया, तब तुम कहाँ थे? हमको नहीं मालूम शाब। हम तो रात भर इसी मोहल्ले की चौकीदारी करते हैं। अच्छा, आपको काम पर किसने रखा? किसी ने नहीं रखा, तो फिर यह कैसी नौकरी? अपने मन से ही काम शुरू कर दिया और शुरू कर दिया वसूली अभियान।
आप ही बताएँ, हम इन्हें धन क्यों दें? यह तो खुले आम रिश्वत है। अगर आप ईमानदार हैं, तो इस तरह से धन बरबाद करने के लिए भी आपके पास धन नहीं होना चाहिए। अगर आपके पास इस तरह धन उड़ाने के लिए धन है, तो तय है कि आप सब कुछ हो सकते हैं, पर ईमानदार नहीं हो सकते।
रिश्वत को आजकल शिष्टाचार माना जा रहा है। कभी ध्यान दिया आपने? ये शिष्टाचार क्यों बना? कुछ काहिल हमारे बीच ऐसे हैं, जिनके पास हराम की दौलत है। वे उसका मोल नहीं समझते। इसलिए अपना काम जल्दी और आसानी से करवाने के लिए इन्हें धन दे देते हैं। लेने वाला खुश होकर उसके लिए नियमों को ताक में रख देता है। रिश्वत देने वाला सरकार से बड़ा हो जाता है, क्योंकि सरकार ने उसके हित के बारे में नहीं सोचा, आपने सोचा। इसलिए रिश्वत लेने वाला देने वाले पर कुर्बान हो जाता है। उसकी यह कुर्बानी तब तक जारी रहती है, जब तक उसे कोई उससे भी बड़ी रिश्वत देने वाला नहीं मिल जाता। यह अंतहीन सिलसिला है, जो शायद चलता रहेगा, पर कुछ प्रश्न अवश्य छोड़ता जाएगा-
- क्या रिश्वत देना बहुत जरूरी है?
- हमारे जागरूक होने का मतलब क्या है?
- रिश्वत देकर हम एक काहिल समाज को तो जन्म नहीं देते?
- ईमानदारी और मेहनत के धन को एक बार रिश्वत के रूप में देकर देखो?
- जो सरकार को लूटता है, उसे हम रिश्वत देकर उसकी लूट में शामिल तो नहीं हो जाते?
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

पानी का आना और जाना


डॉ. महेश परिमल
शहर में रहना है, आपकी आय भी अधिक नहीं है, उस पर यदि आपने अपना घर होने का सपना ऑंखों में पाल लिया है, तो आपका जीवन मुश्किल में पड़ सकता है। जीवन को मुश्किल में डालते हुए सपने को सिमित करते हुए अपने एक फ्लेट ले लिया। समझो जिंदगी कुछ आसान हो गई। अब यहाँ सब कुछ अपना है। न हर महीने की एक तारीख को मकान-मालिक का मुँह देखना पड़ता है, न ही किराया बढ़ाने की धौंस सुननी पड़ती है। चलो अच्छा हुआ, इस शहर में अपनी एक छत तो है।
लेकिन केवल सर छिपाने के लिए छत से कुछ नहीं होता। जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए भोजन से अधिक आवश्यक है जल, क्योंकि जल ही जीवन है। आपका फ्लेट तीसरी मंजिल में है, तो हो गया बंठाधार। फ्लेट में जल व्यवस्था नगर निगम के हाथ में तो होती नहीं। इसके लिए बिल्डर जो व्यवस्था कर गया है, उसी से काम चलाना आपका धर्म है। अब आपके यहाँ पानी नहीं आता तो दोष किसका, बिल्डर का? नहीं, उसका तो नहीं, क्योंकि पहले तो पानी हमेशा आता था। अब नहीं आता। पहले पानी आता था, इससे बिल्डर तो बरी हो गया। अब नहीं आता, इसका मतलब बिलकुल पानी की तरह साफ है। आपके यहाँ आते-आते पानी का दबाव कम हो जाता है।
आप कहेंगे, पर भाई साहब हमारे नीचे वाले फ्लेट में खूब पानी आता है। तो क्या अंदाजा लगाया आपने? जब उनके यहाँ खूब पानी आता है, तो वे भी पानी आते समय उसका खूब इस्तेमाल करेंगे। पानी चाहे आधा घंटा आए या पैंतालिस मिनट, उनकी वॉशिंग मशीन भी उसी समय चलेगी। जब उनका सारा काम हो जाएगा और उनको आप पर दया आई, तो वे अपने नल बंद कर देंगे। तब आपके यहाँ पानी आ सकता है। वह भी कुछ समय के लिए मेहमान बनकर।

मतलब यही कि आप यदि तीसरी मंजिल पर रहते हैं, तो आप नीचे वाले पर निर्भर हैं। उनमें नैतिकता है, तो आपके घर पानी आ सकता है, अन्यथा ऊपर रहने का सुख भोगें और हवा के सहारे जिंदा रहें। यही हो रहा है आजकल हर तरफ। हर कोई अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने में लगा हुआ है। दूसरों से उसका कोई वास्ता नहीं। वह अपने में ही रमा हुआ है। उसकी सारी जद्दोजहद केवल अपने लिए है। पडाेसी भी आपसे अच्छा व्यवहार तभी करेंगे, जब आपसे उसका कोई स्वार्थ सधता है। अन्यथा वह आपको पहचानने से भी इन्कार कर सकता है। आपके दु:ख से उसको कोई मतलब नहीं है। सबके अपने-अपने आस्मां हैं, अपनी-अपनी जमीं है।
सवाल यह उठता है कि क्या ऐसा होना चाहिए? क्या हो गया है हमें? कहाँ गई हमारी संवेदनाएँ? कहाँ गए हमारे संस्कार? और कहाँ गए हमारे अच्छे विचार?
- कहीं हमने अपनी संवेदनाएँ बेच तो नहीं डाली?
- कहीं हमारे संस्कार ताक पर तो नहीं रखे हैं?
- कहीं भाईचारा शब्द स्वार्थ के शब्दकोष में विलीन तो नहीं हो गया।
- कहीं हम भीतर से टूट तो नहीं रहे?
- कहीं हम भी तो स्वार्थी नहीं हो गए?
- क्या हममें जरा सी भी नैतिकता बाकी है?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 22 सितंबर 2008

मुहावरों में उलझा मस्तिष्क



डॉ. महेश परिमल
मेरे सामने दो मुहावरे हैं- एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इन दोनों में विरोधाभास है। कोई जब एक उदाहरण देता है तो दूसरा दहला मारते हुए दूसरा उदाहरण दे देता है और लोग हँस कर रह जाते हैं। आइए, इसका विश्लेषण करते हुए इसकी गंभीरता पर विचार करें।
दोनों में मुख्य अंतर है अच्छाई और बुराई का। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि उसे बुराई यादा आकर्षित करती है। केवल आकर्षित ही नहीं करती बल्कि प्रभावित भी करती है। दूसरी ओर अच्छाई में चकाचौंध कर देने वाली कोई चीज नहीं होती। वह सदैव निर्लिप्त रहती है। जब तक एक कमरे में दीपक प्रकाशवान है, तो हमें उसकी उपस्थिति का भान नहीं होता, किंतु कमरे में जैसे ही अंधेरा पसरता है, हमें दीपक के महत्व का पता चलता है।
विदेशों से हमने कई नकलें की हैं। फैशन के मामले में, शिक्षा के मामले में, यहाँ तक कि राजनीति के मामले में, लेकिन इसके साथ हम उनके अनुशासन, समय की पाबंदी और निष्ठा जैसे गुणों को नहीं अपनाया। एक व्यक्ति वह भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति ने फैशन के बतौर विदेशी परंपरा को अपनाया। उसकी नकल कई लोगों ने की, किंतु उसी व्यक्ति ने विदेश से ही चुपचाप एक अच्छी परंपरा को आत्मसात किया। परिणाम यह कि लोगों ने उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस तरह से बुरी बातें लोगों को आकर्षित करती रही और अच्छाई एक कोने में रहकर यह सब देखती रही।

सड़ी हुई मछली में संक्रामक कीटाणु होते हैं, जो तेजी से फैलते हैं। उनकी संख्या प्रतिक्षण बढ़ती है। इसलिए सारे तालाब को गंदा करने में वह मछली सक्षम होती है। दूसरी ओर बहुत से चने का का इकट्ठा होना, भाड़ में पहुँचना, यहाँ तक उन सभी चनों का रूप सख्त है, किंतु गर्मी पाते ही उसका रूप बदल जाता है। वे सभी नरम पड़ जाते हैं। उनमें कोमलता आ जाती है, सख्ती गायब हो जाती है। भाड़ फोड़ने की बात एक क्रांति है और क्रांति बगावती विचारों के साथ आती है। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना क्रांति का आगाज है। फिर भाड़ ने चनों पर कोई अन्याय नहीं किया, बल्कि अपनी तपिश से उन्हें कोमल और स्वादिष्ट बनाया। तो फिर कहाँ क्रांति, कैसी क्रांति ?
मछली तालाब को सदैव गंदा नहीं रख सकती। बुराई कुछ देर के लिए तालाब पर हावी हो जाती है, पर कालांतर में उसी तालाब की अच्छाई सक्रिय होती है और बुराई का नाश करते जाती है। कुछ समय बाद तालाब फिर साफ हो जाता है। बुराई के ऐसे ही रंग हमें अपने जीवन में भी देखने को मिलते हैं। जैसे ही हमारे जीवन में बुराई रूपी अंधेरे का आगमन होता है, विवेक रूपी दीपक प्रस्थान कर जाता है। बुराई अपना खेल खेलती है। मानव को दानव तक बना देती है और उसी दानव को महात्मा भी बना देती है। अच्छाई को यदि कोई दानव भी सच्चे हृदय से स्वीकार करे, तो उसे महात्मा बनने में देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 20 सितंबर 2008

आलोचना में असली चेहरा



डॉ. महेश परिमल
मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता। वास्तव में आलोचना वह दर्पण है, जिसमें इंसान अपना असली चेहरा देखता है। जब एक व्यक्ति दूसरे से कहता है कि मैं उसकी रग-रग से वाकिफ हूँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह व्यक्ति उस तीसरे व्यक्ति के असली चेहरे से वाकिफ है। यह बात वह किसी अन्य से तो कह सकता है, किंतु संबंधित व्यक्ति को नहीं कह सकता, क्योंकि कोई भी अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता।
दूसरी ओर नेपोलियन का कहना था '' मैं सौ हितैषी अखबारों की अपेक्षा एक विरोधी अखबार से यादा डरता हूँ। '' इसका मतलब यही हुआ कि जो विरोधी होता है वह सच बोलता है। यह तो तय है कि आज तक कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ, जिसकी सारी बातें लोगों ने मानी। विरोध का सामना सबको करना पड़ता है। महात्मा गाँधी को ही लिया जाए, उनकी महानता से किसी को कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु उनके विचारों एवं स्वभाव का अक्षरश: पालन किया जाए, यह जरूरी नहीं।
जब हम किसी के विचार या स्वभाव को पूरी तरह से अंगीकार नहीं करते, तब हम यह अपेक्षा कैसे पाल लेते हैं कि लोग हमारे विचारों एवं स्वभाव का पालन करें। ऐसा संभव ही नहीं है। इस परिस्थिति में हमारे पास दूसरों के विचारों एवं स्वभाव को सहने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं। यह सम्पूर्ण विश्व विचारों एवं स्वभावों के विराध का एक बाजार है। इसमें रहकर जो व्यक्ति दूसरे के विचारों एवं स्वभावों को जितना सहन कर लेता है, वह उतना ही महान एवं सुखी होता है।

यह विज्ञान का नियम है कि कोई भी दो वस्तु समान नहीं होती। इसीलिए हम अपने आसपास देखते हैं कि हर व्यक्ति के खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, उठने-बैठने, चलने-फिरने और काम धंधा करने के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। दूसरी ओर सोचने के ढंग में भी भिन्नता पाई जाती है। सोच की कोई सीमा नहीं होती। जुड़वा भाइयों का लालन-पालन एक होने के बाद भी उनके विचार अलग-अलग होते हैं। इसके अलावा मान्यताओं, धारणाओं एवं सिद्धांतो की भिन्नता का उदाहरण आज हर कदम पर मिल रहा है।
अब ऐसे मनुष्यों के बीच रहकर जो व्यक्ति दूसरों से समझौता नहीं कर सकता, वह व्यवहार में कैसे सफल हो सकता है। यह तय है कि जहाँ चार बर्तन होंगे, वहाँ आवाज तो होगी ही। उन्हें संभालकर रखना समझदार आदमी का काम है। दूसरे के स्वभाव एवं क्रियाओं को सहन किए बिना किसी का भी मन शांत नहीं हो सकता।
इस रास्ते पर चलते हुए बार-बार हमें एक चीज परेशान करती है, वह है अहंकार। जो व्यक्ति इस पर जितनी विजय प्राप्त करता है, वह उतना ही सहनशील होता है और सर्वजयी होता है। जो व्यक्ति हमारी रुचि का नहीं, वह हमारा शत्रु है, यह मानना हमारी ओछी मानसिकता को दर्शाता है। हम उसे अपना आईना समझें। ऐसे लोगों से हमें अपने आप में सुधार का मौका मिलेगा। हितैषी तो वही कहेंगे, जो हम चाहते हैं, पर विरोधी वही कहेगा जो सच है। सच के सहारे चलने वाला इंसान संतोषी होता है। झूठ का सहारा लेने वाला सदैव दु:ख पाता है। तो क्यों न सच को अपना साथी मानकर विरोधियों को अपना मित्र ही मानें।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

आपके मंदिर में कचरा


डॉ. महेश परिमल
कोई आपके दरवाजे पर ढेर सारा कचरा डाल दे, तो आप क्या करेंगे? संभवत: अपनी दयाशीलता के वश में होकर आप कुछ नहीं कहेंगे, पर वही व्यक्ति प्रतिदिन आपके दरवाजे पर कचरा फेंकना शुरू कर दे, तो निश्चय ही आपको क्रोध आ जाएगा और एक दिन आप उसकी धुनाई कर देंगे। है ना यही बात। आप कहेंगे कि यह भी कोई बात हुई। वह रोज मेरे दरवाजे पर गंदगी डाल रहा है, मैं कैसे चुप रह सकता हूँ। आपने बिलकुल सही किया। हर इंसान को ऐसा ही करना चाहिए।
अब अगर आप स्वयं ही अपने दरवाजे पर रोज दिन में कई बार गंदगी डाल रहे हैं, तो स्वयं को किस तरह की सजा का हकदार पाते हैं आप? शायद आप समझे नहीं। मैं उन सभी व्यसनी लोगों को सवालों के कटघरे में खड़ा करना चाहता हूँ, जो रोज ही अपने दरवाजे याने स्वयं के मुख, जो कि ईश्वर का दरवाजा कहा जाता है, में तम्बाखू, बीड़ी, सिगरेट रखकर उसे गंदा करते हैं। ये सभी नशीली चीजें हैं, फिर इसे ईश्वर के दरवाजे पर क्यों रखते हैं?
आप कहेंगे ये भी भला कोई बात हुई। हमारा मुँह ईश्वर का दरवाजा भला कैसे हुआ? मैं कहता हूँ, हम अपने आराध्य देव, ईश्वर, राम, रहीम, हे गुरु, हे भगवान जैसे पवित्र शब्दों का उच्चारण अपने मुँह से ही तो करते हैं, तो फिर यह जगह पवित्र तो हुई ही न। अब आप ही बताएँ, इस पवित्र स्थान पर उन गंदी और नशीली चीजों का क्या काम?
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है ''जीह देहरी द्वार'' अब बताओ भला तम्बाखू, बीड़ी, सिगरेट जैसी नशीली चीजों का सेवन करने वाले सुबह-सुबह भगवान के द्वार मुख पर गंदी चीजें रख देते हैं। ऐसा वे रोज करते हैं। इसके बाद ईश्वर से हम यह अपेक्षा रखें कि वे हमारा भला करेंगे, तो यह मूर्खता है। हमारे इस कर्म से हमारे हृदय का ईश्वर भला कैसे प्रसन्न रहेगा। यह तो ईश्वर से दुश्मनी करना हुआ। आप सोच सकते हैं यह दुश्मनी आपको कितनी महँगी पडेग़ी? आप ईश्वर को दु:ख देकर उससे खुशी प्राप्त करने की सोच भी कैसे सकते हैं?


जीवन स्वयं अपने आपमें एक नशा है। यदि इसे अच्छी तरह से जीया जाए, ता नशे से भी यादा मजा देता है। इंसान को नशे का गुलाम कभी नहीं होना चाहिए। वैसे भी गुलामी अच्छे विचारों को आने से रोकती है। प्रत्यक्ष रूप से हमें यह लगे कि इंसान तम्बाखू खा रहा है, पर इसके दूरगामी दृष्टिकोण से देखें, तो होता यह है कि तम्बाखू इंसान को खा रहा है। यह एक भयानक सच है, जिसे प्रत्येक व्यसनी को स्वीकारना होगा।
- आप नशा नहीं बीमारियाँ खरीदते हैं?
- नशा करके आप अपने बच्चों के सपनों से खेलते हैं।
- नशा आपको भीतर से खोखला कर देता है।
- नशा करके आप बुद्धि का साथ छोड़ देते हैं।
- नशा करके आप पशु से भी गए-गुजरे हो जाते हैं।
इस पर भी क्या आप नशा करना चाहेंगे? आइए संकल्प लें और नशा छोड़कर एक नया सवेरा लाने का प्रयास करें।
डॉ. महेश परिमल

दु:ख तो अपना साथी है


डॉ. महेश परिमल
यह एक पहेली हो सकती है कि ऐसी कौन सी अदृश्य वस्तु है, जो एक तरफ बाँटने से कम होती है और दूसरी तरफ बाँटने से बढ़ती है। उत्तर हम सब जानते हैं क्योंकि जीवन में उतार-चढ़ाव के साथ यह भी हमारे साथ जुड़े हैं। अदृश्य वस्तु से आशय उस अनुभूति से है जिसे हम केवल महसूस करते हैं। उन दोनों अनुभूतियों का रिश्ता ऑंसुओं से है। शायद अब आप समझ गए होंगे, इस पहेली का हल।
आपने सही समझा- दु:ख बाँटने से कम होता है और खुशी बाँटने से बढ़ती है। दु:खी मनुष्य इन क्षणों में ऑंसुओं को अपना साथी मानता है। ये ऑंसू उसके दु:ख को सहलाते हैं। दूसरी तरफ अचानक मिली खुशी भी ऑंखें गीली कर देती है। ये खुशी के ऑंसू ही होते हैं, जो अनायास ही आ जाते हैं। खुशी में ऑंसुओं का आना यह बताता है कि इस खुशी को प्राप्त करने के लिए उसने कितना संघर्ष किया है। इन क्षणों में वह संघर्ष याद आता है। यही वजह है कि उन संघर्ष के दौरान हार न मानने वाला व्यक्ति, ऑंसुओं को रोकने वाला व्यक्ति खुशी प्राप्त होती ही अनायास ही रो पड़ता है। उसके अब तक रोके हुए ऑंसू सतत बहते चले जाते हैं। इस रोने में दु:ख नहीं होता। इसमें खुशी शामिल होती है।
इसके अलावा इन क्षणों में ऑंसू आने का एक और कारण है। उस व्यक्ति को यह खुशी देने वाला या फिर संघर्ष के दिनों में उसे लगातार प्रेरित करने वाले व्यक्ति की अनुपस्थिति। खुशी के उन क्षणों में प्रेरणापुंज बने उस व्यक्ति का न होना भी ऑंखें गीली कर देता है। खुशी का यही क्षण होता है, जब लोग उसकी इस खुशी में शामिल होकर उस सफलता के लिए बधाई देते हैं। जितनी अधिक उसे बधाई मिलती है, वह उतना ही अधिक खुश होता है। उसकी खुशी बढ़ती जाती है।

इंसान के पास खुशी हमेशा नहीं रहती, किंतु दु:ख या ंगम सदैव उसके साथ रहते हैं। इसे दु:ख कह लें या निराशा। इसके केन्द्र में मनुष्य अकेला होता है। अब यह उसकी प्रवृत्ति पर निर्भर है कि वह इन क्षणों को किस प्रकार जीना चाहता है। अगर दु:ख को वह अपना साथी मानता है, तब तो उसे दु:खी होने की कतई आवश्यकता नहीं, क्योंकि साथी से भला कौन बिछुड़ना चाहेगा? अगर वह दु:ख को मेहमान मानता है, तब तो उसे दु:खी होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि मेहमान कुछ दिनों के होते हैं। दु:ख भी मेहमान की तरह उसके जीवन में आया और कुछ दिन बाद फिर चला जाएगा।
इसके अलावा कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो दु:ख को पहाड़ समझते हैं। वे मानते हैं कि हमारा दु:ख ही सबसे बड़ा है। हमसे बड़ा दु:खी संसार में नहीं है। ऐसे लोगों के लिए अपना जीवन बेहतर बनाना मुश्किल है। वे रोज ही नए-नए दु:ख पाते हैं। ऐसे लोग यह समझते हैं कि खुशी हमसे रूठ गई है। अब वह हमारे पास कभी नहीं आएगी। इनके पास यदि कोई चला जाए और उनसे उनका दु:ख पूछे, तो वे अपनी दु:खभरी कहानी सुना देते हैं। उन्हें यदि हम सांत्वना और सहानुभूति के दो शब्द बोल दें, तो वे काफी राहत महसूस करते हैं। यही क्षण होता है, जब उन्हें बताया जाए कि संसार में तुम अकेले नहीं हो और भी बहुत से दु:खी प्राणी हैं। कुछ समय बाद वे अपनी दु:खभरी स्थिति से उबर जाते हैं।
तो यह था एक पहेली के माध्यम से जीवन के उतार-चढ़ाव का विश्लेषण। जीवन में ये दोनों आते जाते रहते हैं। वैसे दु:ख में भी हँसते-हँसते जीने वाला कभी दु:खी नहीं होता। यह परमसत्य है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 17 सितंबर 2008

विदेशों में हिन्दी का बढ़ता प्रभाव

राकेश शर्मा निशीथ
आज दुनिया का कौन-सा कोना है, जहां भारतीय न हों । अनिवासी भारतीय सपूर्ण विश्व में फैले हुए हैं । दुनिया के डेढ सॊ से अधिक देशों में दो करोड़ से अधिक भारतीयों का बोलबाला है। अधिकांश प्रवासी भारतीय आर्थिक रूप से समृध्द हैं । 1999 में मशीन ट्रांसलेशन शिखर बैठक में में टोकियो विश्वद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने जो भाषाई आंकड़े प्रस्तुत किए थे, उनके अनुसार विश्व में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिन्दी का द्वितीय तथा अंग्रेजी का तृतीय है ।
हिन्दी विश्व के सर्वाधिक आबादी वाले दूसरे देश भारत की प्रमुख भाषा है तथा फारसी लिपि में लिखी जाने वाली भाषा उर्दू हिन्दी की ही एक अन्य शैली है । लिखने की बात छोड़ दें तो हिन्दी और उर्दू में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता सिवाय इसके कि उर्दू में अरबी, फारसी, तुर्की आदि शब्दों का बहुलता से इस्तेमाल होता है। एक ही भाषा के दो रूपों को हिन्दी और उर्दू, अलग-अलग नाम देना अंग्रेजों की कूटनीति का एक हिस्सा था ।
विदेशों में चालीस से अधिक देशों के 600 से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढाई जा रही हैं । भारत से बाहर जिन देशों में हिन्दी का बोलने, लिखने-पढने तथा अध्ययन और अध्यापक की दृष्टि से प्रयोग होता है, उन्हें हम इन वर्गों में बांट सकते हैं - 1. जहां भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में रहते हैं, जैसे - पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव आदि । 2. भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण पूर्वी एशियाई देश, जैसे- इंडोनेशिया, मलेशया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया तथा जापान आदि । 3. जहां हिन्दी को विश्व की आधुनिक भाषा के रूप में पढाया जाता है अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूरोप क देश। 4. अरब और अन्य इस्लामी देश, जैसे- संयुक्त अरब अमरीरात (दुबई) अफगानिस्तान, कतर, मिस्र, उजबेकिस्तान, कज़ाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि ।

मॉरिशस

यहां भारतीय मूल के लोगों की जनसंख्या कुल आबादी की आधे से अधिक है । मॉरिशस की राजभाषा अंग्रेजी है और फ्रेंच की लोकाप्रेम है । फ्रेंच के बाद हिन्दी ही एक ऐसी महत्वपूर्ण एवं सशक्त भाषा है जिसमें पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य का प्रकाशन होता है । मॉरिशस में भारतीय प्रवासियों का विधिवत आगमन चीनी उद्योग के बचाव तथा उसके विकास हेतु 1834 में शुरू हुआ था । यूरोप में चीनी की बढती मांग को ध्यान में रखकर तत्कालीन प्रशासकों ने भारतीयों को सशर्त यहां लाकर स्थायी रूप से बसने का प्रावधान किया । मॉरिशस में भारतीय प्रवासी वर्ष 1834 से बंधुआ मजूदरों के रूप में आने लगे थे । ये लोग अधिकांशत: भारत के बिहार प्रदेश के छपरा, आरा और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर, बलिया, गोंडा आदि जिलों के थे । भारतीय श्रमिकों ने विकट परिस्थितियों से गुजरते हुए भी अपनी संस्कृति एवं भाषा का परित्याग नहीं किया । अपने प्रवासकाल में महात्मा गांधी जब 1901 में मॉरिशस आए तो उन्होंने भारतीयों को शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया । हिन्दी प्रचार कार्य में हिंदुस्तानी पत्र का योगदान महत्वपूर्ण है।
धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं के उदय होने से यहां हिन्दी को व्यापक बल मिला । वर्ष 1935 में भारतीय आगमन शताब्दी समारोह मनाया गया । उस समय यहां से हिन्दी के कई समाचारपत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें आर्यवीर, जागृति आदि उल्लेखनीय है । वर्ष 1941 में हिन्दी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा हिन्दी पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन किया । 1943 में हिन्दू महायज्ञ का सफल आयोजन किया गया। 1948 में जनता के प्रकाशन के माध्यम से दर्जनों नवोदित हिन्दी लेखक साहित्य सृजन क्षेत्र में आए ।
वर्ष 1950 में यहां हिन्दी अध्यापकों का प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ और 1954 से भारतीय भाषाओं की विधिवत पढाई शुरू हुई। मॉरिशस सरकार ने स्कूलों में छठी कक्षा तक हिन्दी पढाने की व्यवस्था की । वर्ष 1961 में मॉरिशस हिन्दी लेखक संघ की स्थापना हुई। यह संघ प्रतिवर्ष साहित्यिक प्रतियोगिताओं, कवि सम्मेलनों, साहित्यकारों की जयंतियां आदि का आयोजन करता है। मॉरिशस में हिन्दी भाषा का स्तर ऊंचा उठाने में हिन्दी प्रचारिणी सभा का योगदान अतुलनीय है। यह संस्था हिन्दी साहित्य सम्मेलन (प्रयाग) की परीक्षाओं का प्रमुख केन्द्र है। औपनिवेशिक शोषण और संकट के समय 1914 में हिन्दुस्तानी, 1920 में टाइम्स और 1924 में मॉरिशस मित्र दैनिक पत्र थे । आज मॉरिशस में वसंत, रिमझिम, पंकज, आक्रोश, इन्द्रधनुष, जनवाणी एवं आर्योदय हिन्दी में प्रकाशित होते हैं। वर्ष 2001 में विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना भी मॉरिशस में हो चुकी है।

फिजी

फिजी दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित 322 द्वीपों का समूह है । यहा के मूल निवासी काईबीती है । देश की आबादी लगभग 8 लाख है । इसमें 50 प्रतिशत काईबीती, 44 प्रतिशत भारतीय तथा 6 प्रतिशत अन्य समुदाय के हैं। 5 मई 1871 में प्रथम जहाज लिओनीदास ने 471 भारतीयों को लेकर फिजी में प्रवेश किया था । गिरमिट प्रथा के अंतर्गत आए प्रवासी भारतीयों ने फिजी देश को जहां अपना खून-पसीना बहाकर आबाद किया वहीं हिन्दी भाषा की ज्योति भी प्रज्जवलित की जो आज भी फिजी में अपना प्रकाश फैला रही है।
फिजी की संस्कृति एक सामासिक संस्कृति है, जिसमें काईबीती, भारतीय, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के निवासी है। इनकी भाषा काईबीती (फीजियन) हिन्दी तथा अंग्रेजी है। फिजी का भारतीय समुदाय हिन्दी में कहानी, कविताएं लिखता है। हिन्दी प्रेमी लेखकों ने हिन्दी समिति तथा हिन्दी केन्द्र बनाए हैं जो वहां के प्रतिष्ठित लेखकों के निर्देशन में गोष्ठियां, सभा तथा प्रतियोगिताएं आयोजित करते हैं। इनमें हिन्दी कार्यक्रम होते हैं कवि और लेखक अपनी रचनाएं सुनाते हैं ।
फिजी में औपचारिक एवं मानक हिन्दी का प्रयोग पाठशाला के अलावा शादी, पूजन, सभा आदि के अवसरों पर होता है। शिक्षा विभाग द्वारा संचालित सभी बाह्य परीक्षाओं में हिन्दी एक विषय के रूप में पढाई जाती है । फिजी के संविधान में हिन्दी भाषा को मान्यता प्राप्त है। कोई भी व्यक्ति सरकारी कामकाज,अदालत तथा संसद में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग कर सकता है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं तथा रेडियो कारगर माध्यम हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिजी हिन्दी साहित्य समिति वर्ष 1957 से बहुमूल्य योगदान दे रही है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को बढावा देना । फिजी में हिन्दी प्रगति के पथ पर है तथा इसका भविष्य उज्ज्वल है।

नेपाल
भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत और नेपाल संप्रभु राष्ट्र है, दोनों देशों के बीच पौराणिक काल से संबंध चला आ रहा है, खुली सीमाएं, तीज-ज्यौहार, धार्मिक पर्व-समारोह तथा इन्हें मानाने की शैली और पद्धति की समानता के अतिरिक्त नेपाल में हिन्दी-प्रेम हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए काफी है। नेपाली भाषा हिन्दी भाषी पाठकों लिए सुबोध है। यदि इसमें कोई अंतर है तो लिप्यंतरण का है।
प्रचीन काल में नेपाली में संस्कृत की प्रधानता थी। हिन्दी और नेपाली दोनों भाषाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों की प्रचुरता और इनके उदार प्रयोग के अतिरिक्त नेपाली भाषा में अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी एवं कई अन्य विदेशी शब्दों का हिन्दी के समान ही प्रयोग हिन्दी और नेपाली भाषी जनता को एक दूसरे की भाषा समझने में सहायक रहा है। प्रारंभिक दिनों में नेपाल के तराई क्षेत्रों में स्कूलों में तो शिक्षा का माध्यम हिन्दी बना । काठमांडू से हिन्दी में पत्र-पत्रिका का प्रकाशन हाता है। प्रख्यात नेपाली लेखक, कहानीकार एवं उपन्यासकार डा. भवानी भिक्षु ने तो अपने लेखन कार्य का श्रीगणेश हिन्दी से ही किया। गिरीश वल्लभ जोशी, रूद्रराज पांडे, मोहन बहादुर मल्ल, हृदयचंद्र सिंह प्रधान आदि की एक न एक कृति हिन्दी में ही है।
श्रीलंका
श्रीलंका में भारतीय रस्म-रिवाज, धार्मिक कहानियां जैसे जातक कथा का भंडार आज भी सुरक्षित है । श्रीलंका की संस्कृति वही है जो भारत की है। वहां हिन्दी का प्रचार अत्यंत सुचारू एवं सुव्यवस्थित ढंग से होता रहता है । फिल्म प्रदर्शन, भाषण विचार गोष्ठी आदि का आयोजन होता रहता है। भारत से आई पत्र-पत्रिकाओं जैसे बाल भारती, चंदा मामा, सरिता आदि श्रीलंका में बड़े चाव से पढी ज़ाती हैं। श्रीलंका रेडियो पर भारतीय शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। वहां विश्वविद्यालय में हिन्दी पढाI जा रही है।

यू.ए.ई.
संयुक्त अरब अमीरात देश की पहचान सिटी ऑफ गोल्ड दुबई से है। यूएई में एफ. एम. रेडियो के कम से कम तीन ऐसे चैनल हैं, जहां आप चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने हिन्दी फिल्मों के गीत सुन सकते हैं। दुबई में पिछले अनेक वर्षों से इंडो-पाक मुशायरे का आयोजन होता रहा है, जिसमें हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चुनिंदा कवि और शायर भाग लेते रहे हैं। हिन्दी के क्षेत्र में खाड़ी देशों की एक बड़ी उपलब्धि है, दो हिन्दी (नेट) पत्रिकाएं जो विश्व में प्रतिमाह 6,000 से अधिक लोगों द्वारा 120 देशों में पढी ज़ाती हैं। अभिव्यक्ति व अनुभूति www.abhivykti- hindi.org तथा www.anubhuti- hindi.org के पते पर विश्वजाल (इंटरनेट) पर मुफ्त उपलब्ध हैं। इन पत्रिकाओं की संरचना सही अर्थों में अंतर्राष्ट्रीय है क्योंकि इनका प्रकाशन और संपादन संयुक्त अरब अमीरात से, टंकण कुवैत से, साहित्य संयोजन इलाहाबाद से और योजना व प्रबंधन कनाडा से होता है।

ब्रिटेनवासियों ने हिन्दी के प्रति बहुत पहले से रुचि लेनी आरंभ कर दी थी । गिलक्राइस्ट, फोवर्स-प्लेट्स, मोनियर विलियम्स, केलाग होर्ली, शोलबर्ग ग्राहमवेली तथा ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने हिन्दीकोष व्याकरण और भाषिक विवेचन के ग्रंथ लिखे हैं। लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। यहां से प्रवासिनी, अमरदीप तथा भारत भवन जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। बीबीसी से हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं ।

संयुक्त राज्य अमेरिका में येन विश्वविद्यालय में 1815 से ही हिन्दी की व्यवस्था है। वहां आज 30 से अधिक विश्वविद्यालयों तथा अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा हिन्दी में पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। 1875 में कैलाग ने हिन्दी भाषा का व्याकरण तैयार किया था। अमरीका से हिन्दी जगत प्रकाशित होती है ।
रूस में हिन्दी पुस्तकों का जितना अनुवाद हुआ है, उतना शायद ही विश्व में किसी भाषा का हुआ हो। वारान्निकोव ने तुलसी के रामचरितमानस का अनुवाद किया था। त्रिनीडाड एवं टोबेगो में भारतीय मूल की आबादी 45 प्रतिशत से अधिक है। युनिवर्सिटी ऑफ वेस्टइंडीज में हिन्दी पीठ स्थापित की गई है। यहां से हिन्दी निधि स्वर पत्रिका का प्रकाशन होता है। गुयाना में 51 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं। यहां विश्वविद्यालयों में बी.ए. स्तर पर हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की गई है। पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू है, जो हिन्दी का ही एक रूप है । मात्र लिपि में ही अंतर दिखाई देता है। मालदीव की भाषा दीवेही भारोपीय परिवार की भाषा है । यह हिन्दी से मिलती-जुलती भाषा है। फ्रांस, इटली, स्वीडन, आस्ट्रिया, नार्वे, डेनमार्क तथा स्विटजरलैंड, जर्मन, रोमानिया, बल्गारिया और हंगरी के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है ।
इस प्रकार हिन्दी आज भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है। आज हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। अब तक भारत और भारत के बाहर सात विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। पिछले सात सम्मेलन क्रमश: नागपुर (1975), मॉरीशस (1976), नई दिल्ली (1983), मॉरीशस (1993), त्रिनिडाड एंड टोबेगो (1996), लंदन (1999), सूरीनाम (2003) में हुए थे। अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन 2007 में न्यूयार्क में होगा। इसके अतिरिक्त विदेश मंत्रालय क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन का भी आयोजन करता रहा है। अभी तक ये सम्मेलन ऑस्ट्रेलिया और अबूधाबी में फरवरी, 2006 तथा तोक्यो में जुलाई 2006 में किए गए थे। अभी हाल ही में शुक्रवार, 18 अगस्त, 2006 को विदेश मंत्रालय ने हिन्दी वेबसाइट का शुभारंभ किया है। यह वेबसाइट माइक्रोसॉपऊट विंडोज प्रोग्राम और यूनीकोड पर आधारित है । इसे देखने के लिए कोई फॉन्ट डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है। वेबवाइट का पता है : www.mea.gov. in ।
वर्तमान में आर्थिक उदारीकरण के युग में बहुराष्ट्रीय देशों की कंपनियों ने अपने देशों (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन आदि) के शासकों पर दबाव बढाना शुरू कर दिया है ताकि वहां हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार तेजी से बढे ऒर हिन्दी जानने वाले एशियाई देशों में वे अपना व्यापार उनकी भाषा में सुगमता से कर सकें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की प्रगति यदि इसी प्रकार होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ में एक अधिकारिक रूप हासिल कर लेगी। (पसूका)

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

धन कमाने में बिक गई नींद हमारी



डॉ. महेश परिमल
बरसों पहले कृश्न चंदर का उपन्यास पढ़ा था 'बम्बई रात की बाँहों में'। तब उम्र छोटी थी, इसलिए उसका कथानक समझ नहीं पाया, आज जब यह मायानगरी हमारे सामने मुम्बई बनकर आई है, तब से यह सपनों का शहर बनकर रह गई है। हर आदमी यहाँ एक सपना लेकर आता है। सपने का संबंध नींद से है, पर यहाँ के लोग अब अपनी नींद बेचकर धन कमाने में लगे हैं। लोग दिन में सपने देखते हैं और रात में उसे पूरा करने के लिए परिश्रम करते हैं। केवल मुम्बई ही नहीं, आज हर महानगर इसकी चपेट में है। हर शहर अब रात को और अधिक रंगीला होने लगा है। लोगों को अब शहर की रातें लुभाने लगी हैं। आपने घ्यान दिया होगा कि अब लोग रात का सफर करने में अधिक दिलचस्पी लेने लगे हैं। यात्रा चाहे ट्रेन की हो, बस को हो या फिर प्लेन की। एक तरह से आज की प्रतिस्पर्धा वाली इस जिंदगी में लोग अपनी स्वाभाविक नींद को तिलांजलि देकर धन कमाने में लग गए हैं।
पहले बिजली नहीं थी, तब लोग रात का समय सोने में ही निकालते थे। इससे न केवल शारीरिक क्रियाएँ, बल्कि स्वास्थ्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। आज समय सबसे आगे निकल जाने का है। सबके पास समय की कमी है। किसी को किसी से बात करने का समय नहीं है। विज्ञान के इस युग में मोबाइल और लेपटाप ने पूरी दुनिया को ऊँगलियों में समा दिया है। लोग अब ऑफिस से ही देर से लौटते हैं, साथ में काम भी लेते आते हैं, इसलिए रात जागकर काम पूरा करने में लग जाते हैं। स्वभाविक है इससे नींद को अपने से दूर करना होता है। नींद दूर करने के साधनों में व्यसन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। आजकल कार्पोरेट कल्चर के अंतर्गत लोगों को 247 की डयूटी करनी पड़ती है। यानि आप सातों दिन डयूटी पर होते हैं, आपको कभी भी ऑफिस बुलाया जा सकता है। आखिर मोटी तनख्वाह अपना असर कहीं तो दिखाएगी!
अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, ारा अपने बच्चों की दिनचर्या पर ही नजर डाल लें, आप पाएँगे कि उनके पास केवल नींद का समय नहीं है, बाकी सब के लिए समय है। घंटों मोबाइल पर बातें हो सकती हैं, कंप्यूटर पर घंटों बैठकर चेटिंग की जा सकती है, देर रात के फिल्म शो देखे जा सकते हैं, पार्टियाँ अटेंड की जा सकती है, पर सोने के लिए समय नहीं है। शरीर थककर चूर हो रहा है, पर काम का बोझ इतना है कि नींद भगाने के लिए सिगरेट, शराब, ड्रग्स आदि का सहारा लेना पड़ रहा है। यही हाल व्यापारियों का है, लोग अब रात की शापिंग अधिक करने लगे हैं, इसलिए उनकी दुकान रात के एक-दो बजे बंद होने लगी है, देर रात घर लौटकर भोजन करना, फिर टीवी पर फिल्में देखना या फिर कोई विशेष दिलचस्प कार्यक्रम देखकर सुबह चार बजे तक सोना हो पाता है। ऐसे में शरीर की सारी मशीनरी को काफी मेहनत करनी पड़ती है। शरीर का समय-चक्र बदल जाता है। इन सबका असर स्वास्थ्य पर किस तरह पड़ रहा है, यह जानने की जरूरत नहीं है। आज युवा इसका प्रतिस्पर्धी युग का सबसे पहला शिकार है। कम समय में काफी कुछ पा लेने की चाहत उसे भटका रही है। आश्चर्य इस बात का है कि इसे आज के पालक भी नहीं समझ पा रहे हैं। आज स्वास्थ्य गौण हो गया है, धन ही सब-कुछ हो गया है।

नीतिशास्त्र में कहा गया है कि जो रात को जल्दी सो जाते हैं और सुबह जल्दी उठते हैं, वे वीर बनते हैं, उनकी विद्या, बुद्धि, धन में वृद्धि होती है और शरीर के साथ-साथ जीवन भी सुखी होता है। उधर, आज के लोगों को वीर बनना है, विद्या प्राप्त करनी है, धन कमाना है, बुद्धिमान बनना है, जीवन को सुखी बनाना है, पर रात को जल्दी सोना नहीं है और सुबह जल्दी उठना नहीं है। आज की पीढ़ी नींद की व्याख्या कुछ अलग ही तरीके से करती है। उनकी तमाम कामयाबी के पीछे नींद के लिए कोई जगह नहीं है। उनका तो यहाँ तक कहना है कि दिन-रात मिलकर केवल 24 घंटे के ही क्यों होते हैं, यदि ये 30 या 36 घंटे के होते, तो भी हमें कम ही पड़ते। नींद बेचकर जागने की नई पीढ़ी की यह आदत उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। एशियन हार्ट इंस्टीटयूट के नींद के विशेषज्ञ डॉ. शेखर घमंडे कहते हैं कि मानव शरीर को रोज 6 से 8 घंटे की नींद की आवश्यकता होती है। नींद में कटौती करना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। दूसरी ओर हिंदुजा अस्पताल के नींद विशेषज्ञ डॉ1 अशोक महासौर का कहना है कि कम नींद लने से शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति घट जाती है। फलस्वरूप उसका काम भी प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति एक वर्ष तक ही कम नींद लेना शुरू कर दे, तो उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा ही।
आज पति के पास इतना समय नहीं है कि पत्नी से दो मीठे बोल बोल सके। नींद कम लेने से लोगों के आपसी संबंध बिगड़ने लगे हैं, लोग चिड़चिड़े होने लगे हैं। प्रकृति के बनाए नियमों को तोड़कर हम खुशियाँ प्राप्त नहीं कर सकते। देर रात भोजन करने से पाचन शक्ति का नाश होता है। आयु कम होती है। हमें यह तय कर लेना चाहिए कि हमारी प्राथमिकता क्या है स्वास्थ्य या पैसा? पैसा कमाने के लिए स्वास्थ्य की बलि देना कहाँ की समझदारी है?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 15 सितंबर 2008

कागा के बहाने बुजुर्गों की बात....


डॉ. महेश परिमल
कौवे वे भी काले, हमें क्या किसी को भी फूटी ऑंख नहीं सुहाते. क्योंकि हम अब भी उसे अपशकुन के रूप में स्वीकारते हैं. वह पर्यावरण का सच्चा साथी भी हो सकता है, यह हमारी कल्पना के बाहर है. पर अब वही काला कौवा हमसे लगातार दूर होता जा रहा है, और यह मंजर हम सभी अपनी ऑंखों से देख रहे हैं. पहले उसे किसी सूचना का संवाहक माना जाता था, याने वह एक कासिद बनकर हमारे बीच रहता था, पर अब वह कासिद नहीं, बल्कि हमारे आसपास नष्ट होते पर्यावरण के रक्षक के रूप में मौजूद है. हमारी ऑंखें भले ही उसे इस रूप में न स्वीकार करती हों, पर यह सच है कि पर्यावरण का यह सच्चा प्रहरी अब हमारी ऑंखों से दूर होता जा रहा है. अब उसकी भूमिका कासिद की नहीं रही. जमाना बहुत तेजी से भाग रहा है, इंटरनेट के इस युग में भला पारंपरिक रूप से सूचना देने के इस वाहक का क्या काम? पर कभी आपने इस काले और काने कौवे को अपने मित्र के रूप में देखने की छोटी-सी कोशिश भी की? निश्चित ही नहीं की होगी, पर जब श्राध्द पक्ष में घर में माँ कहेगी, छत पर जाओ, इस खीर-पूड़ी को अपने पुरखों को दे आओ. तब लगेगा कि सचमुच ये काला कौवा तो हमारे पुरखों के रूप में हमारी मुंडेर पर रोज ही बैठता है, और हम हैं कि इसे भगााने में कोई संकोच नहीं करते. यही होता है, पीढ़ियों का अंतर. आज की पीढ़ी को यह भले ही नागवार गुजरे, पर यह सच है कि यह पीढ़ी भी एक न एक दिन काले और काने कौवे की कर्कश आवाज में पुरखों की पीड़ा को समझेगी.
काले कौवे को भारतीय समाज में कभी-भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया. उसे सदैव अपशकुन से जोड़ा गया. पर जैसे घूरे के दिन भी फिरते हैं, वेसे ही वर्ष में मात्र 15 दिनों के लिए कौवे के दिन फिर जाते हैं. उन दिनों हर कोई लालायित रहता है, उसे अपने सामर्थ्यनुसार भोग लगाने के लिए. इन दिनों उसे खूब ढृँढ़ा जाता है. छत पर खड़े होकर हम अपने पुरखों को याद करते हुए उसे उन्हीं की आवाज में पुकारते हैं. वह आता है, फिर चला जाता है. हमारे हाथ पर खीर-पूड़ी की थाली वैसी ही रह जाती है. ऑंखें भर आती हैं, हम सोचते हैं, क्यों नाराज हैं, हमसे हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, माँ-पिताजी? क्यों नही आ रहे हैं हमारे पास....

तब हम समझ लेते हैं उनकी नारांजगी का कारण. खीर-पूड़ी की थाली हमें याद दिला देती है, उन सूखी रोटियों की, जो हम अक्सर ही उनकी थाली में देखते थे. उनके भोजन में कभी खीर-पूड़ी रखी गई हो, हमें याद नहीं आता. जब तक उनके स्नेह और ममत्व की छाँव हमारे साथ थी, उनके पोपले मुँह से हमारे लिए आशीर्वाद ही निकलता. वे हमें टोकते, हम बुरा मान जाते, फिर तो उनके मनाने के ढंग भी बड़े प्यारे होते. हम मान भी जाते. उनकी गोद में घंटों खेलते, कभी-कभी परेशान भी करते, तो वे हमें डाँटते भी. कभी चपत भी लगाते. हम उनके बारे में न जाने क्या-क्या सोच लेते.
आज वही सोच हमारी ऑंखें गीली कर रही हैं. सहसा हाथ गाल पर चला जाता है, उन्होंने हमें यहीं मारा था ना, पर उसके बाद तो वह ंगलती हमने नहीं दोहराई. इसीलिए आज ये ऑंसू हमारे साथ हैं. अब तो वह सब-कुछ याद आ रहा है, उन्हें कैसी-कैसी झिड़कियाँ मिलती थी. मकान अपने नाम करने के लिए उनकी खूब खातिरदारी भी की गई थी. वे तो इस खातिरदारी से इतने गद्गद् हो गए थे कि भूल ही गए उन सभी कष्ट भरे दिनों को. ंजरा भी देर नहीं की उन्होंने रजिस्ट्री पर हस्ताक्षर करने में. कुछ दिन तक सब ठीक रहा. बाद में उनके झिड़कियों वाले दिन लौट आए. हमने महसूस किया, उनकी गृहस्थी ही अलग बसा दी गई. घर का एक कोना उनके लिए सुरक्षित हो गया. न किसी से बातचीत, न ही किसी से प्यार-मोहब्बतब्बत. अपने ही घर में बेगाने हो गए थे वे.
कैसे पीड़ादायी क्षण थे उनके. थकी साँसें, जर्जर शरीर, दुर्गंधयुक्त कपड़े-बिस्तर, खून से सना कंफ, बलगम या फिर थूक. ऐसे भी जी लेते हैं लोग. वे जीते रहे, अंतिम साँसों तक. मुझे याद है, उन्होंने एक बार मुझे अपने पास बुलाया था, प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा था- बेटा, मुझे भूख लगी है, माँ से कहकर एक रोटी ला दे. मैं दौड़ा था, एक रोटी लाने. उस समय मैं दौड़ में पिछड़ गया. मुझे देर हो गई, कुछ क्षण पहले ही माँ ने बासी रोटियाँ कुत्ते को डाली थी. खून के ऑंसू कैसे पीते हैं लोग, इसे उस समय नहीं,पर आज महसूस कर रहा हूँ.
आज वे नहीं हैं, विडम्बना देखो, जो एक सूखी बासी रोटी देने में सक्षम नहीं हो पाया था, उसे ही कहा गया है कि दादा को खीर-पूड़ी दे दो. वे कौवे के रूप में हमारी मुँडेर पर आएँगे. मरने के बाद उन्हें खीर-पूड़ी का भोग! किस समाज में जी रहे हैं हम? चलती साँसों का अपमान और थकी थमी साँसों का सम्मान. अगर यही समय का सच है, तो एक और सच यह भी स्वीकारने के लिए तैयार हो जाएँ हम सब, वह यह कि अब हमारी मुँडेर पर कभी नहीं बैठ पाएंगे कागा, न ही किसी के आने की सूचना दे पाएँगे. फिर क्या करेंगे हम?
पॉलीथीन, खेतों में कीटनाशक, प्रदूषित पर्यावरण, प्रदूषण, घटते वन-बढ़ते कांक्रीट के जंगल. ये सब मिलकर कागा को शहर से दूर भगा रहे हैं. इन्हें ही हम सब वर्ष के 350 दिन याद नहीं करते, मात्र 15 दिनों तक इन्हें अपने पूर्वजों के नाम पर याद रखते हैं. इन्हें भगाने के सारे उपक्रम हमारे द्वारा ही सम्पन्न होते हैं. पर्यावरण सुधार की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया हमने. केवल एक पखवाड़े तक इन्हें खीर-पूड़ी से नवाजने में संकोच नहीं करते. ऐसे में हमसे क्यों न रूठें कागा......
इन कागाओं को हम केवल उन्हीं के उसी रूप में न देखें. अपनी संस्कृति में झाँककर इन्हें केवल 15 दिन नहीं, बल्कि वर्ष भर स्मरण करें. यदि हम उनमें अपने पुरखों को देखना चाहते हैं, तो हमें उनका भी ध्यान रखना होगा. यह जान लें कि कागा में पूर्वज हैं, तो कागा नहीं, हमारे पूर्वज ही हमसे रूठने लगे हैं. यह पूर्वजों का पराक्रम ही था कि उन्होंने हमे वनों से आच्छादित संसार दिया. उन्हीं के वैभव ने हमें जीना सिखाया. आज हम भावी पीढ़ी को क्या देकर जा रहे हैं, कांक्रीट के ज्रंगल, प्रदूषित पर्यावरण, उजाड़ मैदान, प्रदूषित वायु और जल? इसके अलावा इंसानियत को खत्म करने का इरादा रखने वाले हैवानों को?
अब भी वक्त है. हम नहीं चेते, तो प्रकृति ही हमसे रूठ जाएगी. वह खूब जानती है,अपना संतुलन कैसे रखा जाता है. फिर इसके प्रकोप से हमें कोई नहीं बचा सकता. प्राकृतिक विपदाओं का सिलसिला चलता रहेगा. पूर्वजों ने अच्छे कार्य किए, तो कौवे भी अपना कर्त्तव्य समझकर पर्यावरण की रक्षा करते रहे. पूर्वज गए, कौवे हमसे दूर हुए और हम इन दोनों से दूर हो गए. अभी भी थोड़ा सा समय है हमारे पास. बुंजुर्ग नाम की जो दौलत हमारे पास है, उसे हम न खोएँ. उनसे सलाह लें, उनका मार्गदर्शन लें, उन्हें आगे बढ़ने का मौका दें. फिर देखो, कागा ही नहीं, पंछियों का कलरव हमारे ऑंगन होगा, हम चहकेेंगे, सब चहकेंगे. मुँडेर पर बैठकर कागा कहेगा- काँव-काँव....
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 13 सितंबर 2008

हिंदी को आजादी चाहिए


प्रसून जोशी
षा कोई भी हो, वह अपनी जमीन से उपजती और पनपती है, इसलिए कोई लाख चाहे भी तो उसका रिश्ता उस जमीन से तोड़ नहीं सकता। भाषा को लेकर आज तक जितने भी विवाद हुए हैं, उसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं रहा है। कुछ स्वार्थी तत्वों का हित-साधन उससे जरूर हो जाता है। भाषा का उससे न कुछ बनता है, न बिगड़ता है। जहां तक हिंदी की बात है, वह खुद इतनी सक्षम और सशक्त है कि अपना पालन-पोषण जीवंत तरीके से कर रही है।
हर भाषा समय के साथ अपना रूप-रंग बदलती रहती है। इसका मतलब यह नहीं कि वह अपने मूल रूप से च्युत हो रही है। दरअसल उसकी आत्मा नहीं बदलती है। हिंदी को खुद खिलने और खेलने की आाादी मिलनी चाहिए। हिंदी तो सतत प्रवाहित धारा है। धारा जरूरी नहीं कि सीधी ही चले, आड़ी-तिरछी भी चलेगी। उसे उसी रूप में बहने नहीं दिया गया, तो उसके साथ अन्याय होगा। हिंदी का विकास कभी नहीं रुका, सिर्फ जगह-जगह रूप बदल रहा है। जब मैं उत्तर भारत में था तो मुझे लगता था कि जो हिंदी वहां बोली जा रही है, वही सही हिंदी है। जब मैं मुंबई आया तो पाया कि हिंदी तो यहां भी है, मगर उसमें कुछ टपोरीपन और मस्ती मिली हुई है। उसे ही हर कोई सुनता और बोलता है। किसी को कोई परेशानी भी नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी विकृत हो गई। हां, यह जरूर लगा कि व्याकरण यहां मजबूर हो गया है। भाषा-शुध्दि की आवश्यकता है। मगर यह शुध्दिकरण अभियान कहां-कहां चलाएंगे? इसलिए भाषा को अपनी राह पर चलते रहने की आजादी चाहिए, जो अंतत: समृध्दि ही देगी। हमें अंग्रेजी से कुछ सीखने की जरूरत है। उसकी समृध्दि का राज सभी जानते हैं कि वह जहां गई है, वहीं की हो गई। भारत, स्पेन, रूस, ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है, क्योंकि वहां की स्थानीय बोलियां उसमें शामिल हो जाती हैं। आंचलिक भाषाओं ने अंग्रेजी को इतना कुछ दे दिया है कि अंग्रेजी ऋणी हो गई है। भारत में भी लगभग सारी भाषाओं के शब्द अंग्रेजी में घुल-मिल रहे हैं।
इस मामले में हिंदी पिछड़ रही है। हिंदी के तथाकथित अलमबरदारों ने इसे अपनी ही सीमा में देखने और रखने का मानो संकल्प ले लिया है, लेकिन क्या किसी के रोके हिंदी का विकास रुक रहा है? अगर रुकना होता तो हिंदी के इतने सारे टीवी चैनल नहीं आए होते! और भी दर्जनों चैनल आने वाले हैं। हिंदी के अखबारों के संस्करणों में लगातार वृध्दि हो रही है। पाठकों की संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल हो गया है। टीवी सीरियल्स और हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता और मांग में इजाफा ही हो रहा है। आज के जितने सफल विज्ञापन हिट हैं, वे सारे के सारे लगभग हिंदी में ही हैं। विज्ञापनों में 'कैच लाइन' का बहुत महत्व है, हिंदी में ज्यादा चर्चित हैं। वह चाहे 'ठंडा मतलब...', 'सबका ठंडा एक...', 'दोबारा मत पूछना...', 'पीयो सर उठा के...' हो या फिर 'ज्यादा सफेदी...' हो- हिंदी के सारे कैच लाइन मुहावरे की तरह प्रचलित हो रहे हैं।
हिंदीभाषियों को और भी उदार होने की जरूरत है। हृदय विशाल हो जाए तो सीमा-रेखा अपने आप मिट जाएगी। सभी भाषाओं और बोलियों का सहयोग लेना चाहिए। अंग्रेजी के साथ भी जीने की आदत डालनी चाहिए, इसलिए मेरा मानना है कि भाषा के कपाट को कभी बंद नहीं रखना चाहिए। उसका खुला रहना सुखकर और समृध्दिकर है। कोई कैसे बोलेगा और कोई कैसे- इसे समस्या नहीं समझना चाहिए। हिंदी बोलने की आदत अगर कोई डाल रहा है तो यह अच्छी बात है। गैर-हिंदीभाषी ही क्यों, हिंदीभाषी भी अशुध्द बोलते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि वे हिंदी को बिगाड़ रहे हैं। इसे इस तरह कहना चाहिए कि वे बोलकर भाषा को सीखने और शुध्द करने का प्रयास कर रहे हैं। यह उनकी मुख्यधारा(हिंदी) में शामिल होने की इच्छा है। गाना सबका स्वभाव होता है। कोई अच्छा गाता है और कोई बुरा। बुरा गाने वालों का लगाव गीतों से उतना ही है, जितना अच्छा गाने वालों का। फर्क इतना ही है कि किसी का सुर अच्छा लगता है और किसी का बुरा। गानों की तरह भाषा पर सबकी पकड़ एक जैसी हो, संभव नहीं है।
हिंदी के हितैषी पता नहीं क्यों, इसे लेकर इतना बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं! हम यह क्यों नहीं मानते कि सबका बौध्दिक स्तर एक जैसा नहीं होता? कोई भाषा और व्याकरण के मामले में कमजोर होता है और कोई परिष्कृत शब्दों का इस्तेमाल करता है। इसके बावजूद दोनों में संवाद होना चाहिए। इससे दोनों में समृध्दि आएगी। जिम्मेदारी भी महसूस होगी।
हां, यह बात सही है कि आजकल फिल्मों की स्क्रिप्ट रोमन लिपि में लिखी जाती है, मगर इससे क्या फर्क पड़ता है। अंतत: पर्दे पर तो वह हिंदी ही बनकर आती है। इसे अंग्रेजीदां की जिद नहीं कह सकते। संभव है उन्हें अच्छी हिंदी बोलनी आती हो, मगर पढ़नी नहीं। सीधे हिंदी पढ़ने के बाद जो भाव आता है, संभव है वह रोमन से नहीं आता हो, मगर यह काम निर्देशक का है कि संवाद के अनुसार एक्सप्रेशन या इमोशन कैसे लाया जाए! जहां तक फिल्म, टीवी, एड मीडिया में अंग्रेजी स्कूलों से पढ़े लोगों के आने की बात है, इसमें हिंदी को खुश होना चाहिए कि उन्हें हिंदी ही आश्रय दे रही है। वे अंग्रेजी में भले योजना बनाते हों, स्क्रिप्ट भी अंग्रेजी में मांगते हों, सेट पर पूरा माहौल अंग्रेजीनुमा हो, मगर कलाकारों को जब डायलॉग बोलने की बारी आएगी तो क्या बोलेंगे?
वैश्वीकरण के बाद हिंदी का भी विस्तार हो रहा है। हिंदी फिल्में विदेशों में भी धूम मचा रही हैं। इसे सिर्फ भारतीय या भारत के गैर-हिंदीभाषी ही नहीं देखते हैं, बल्कि विदेशी भी देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं। अगर आज की भाषा में कहूं तो हिंदी एक बड़ा बाजार बन गया है। विदेशी भी हिंदी में काम करना चाह रहे हैं। भले उनके डायलॉग डब किए जाएं, मगर हिंदी की सत्ता को वे स्वीकार तो कर ही रहे हैं।
हिंदी की अपनी भाव-भूमि है। उसके अपने शब्दों में क्षेत्र, जमीन, मौसम, संवेदना और भावना का असर होता है। 'तारे जमीं पर' में 'मां...' वाला गाना भारतीय जमीन और मानसिकता का प्रतिबिंब है। उसका अनुवाद अगर विदेशी भाषा में होगा तो वह असर नहीं पैदा होगा, क्योंकि वहां की संस्कृति में 'मां' का क्या स्थान है, ठीक-ठीक पता नहीं है। यह निश्चित है कि मां का जो दर्जा यहां है, वैसा कहीं नहीं है। इसलिए मैं मानता हूं कि हिंदी की भाषा जितनी समृध्द है, उतने ही विचार भी परिपक्व हैं। हिंदी को रोकना संभव नहीं है, मगर हमारी जिम्मेदारी है कि हम हिंदी को खिलने की आजादी दें। (भास्कर से साभार)
- लेखक प्रसिध्द गीतकार, संवाद लेखक व 'एड गुरु' हैं।

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

मन के हारे हार और मन के जीते जीतx



डॉ. महेश परिमल
अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि लोग दु:खी क्यों हैं? सवाल गंभीर है, पर जवाब उतना ही आसान है। गंभीर सवाल का आसान जवाब? बात भले ही विचित्र लगे, पर यह सच है। हाल ही में इस पर एक शोध सामने आया है। उसमें कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष निकाले गए हैं। शोध के अनुसार लोग इसलिए दु:खी हैं कि उनका पड़ोसी सुखी है। है ना गंभीर सवाल का आसान जवाब।
मनुष्य के अपने दु:ख बहुत छोटे हैं। ऐसे कई दु:ख वह झेलता रहता है। जीवन के मार्ग में संघर्ष करता रहता है, परंतु कभी-कभी वह ओढ़ी हुई सभ्यता का शिकार हो जाता है। ओढ़ी हुई सभ्यता का मतलब है कि कोई हमें कहता है आप अच्छे हैं, तो हम स्वयं को बहुत अच्छा मानने लग जाते हैं। यदि कोई हमें बुरा कहता है, तो हम स्वयं को अच्छा समझते हुए उसे अपना जानी दुश्मन मान लेते हैं और उसको नुकसान पहुँचाने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। किसी के कहने मात्र से हम अच्छे-बुरे बन गए, तो हमारी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है।
जो हमारी निंदा या प्रशंसा करते हैं, जरा उनका मानसिक स्तर तो देखें, ऐसे ओछे विचार वालों के दृष्टिकोण से हमारा फूलना या पिचकना कितना हास्यास्पद लगता है, कभी सोचा है आपने? इससे तो यही निष्कर्ष निकला कि हम अच्छा रहने की चिंता नहीं करते, बल्कि अच्छा कहलाने मात्र की चिंता करते हैं। हम भले ही अच्छा न बन पाएँ, पर अच्छी सोच के स्वामी तो हो ही सकते हैं।
अच्छी सोच होगी और अच्छे कार्य होंगे, तो हम इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाएँगे, जहाँ संसार के राग-द्वेष हमें छू भी नहीं पाएँगे। किसी को अपनी निंदा करते देखें तो मन ही मन मुस्करा दें। कोई हमारी प्रशंसा करे, तो भी मन में मुस्करा दें।
मन बड़ा चंचल है, पर इसे काबू में किया जा सकता है। अपने आप से बातें करों। मन भी उसमें शामिल हो जाएगा। कोई भी कार्य करो, तो मन की राय अवश्य लो। वह कभी गलत सलाह नहीं देगा। दु:ख के क्षणों में वही अपना सच्चा साथी साबित होता है। मन कोमल होता है, संवेदनशील होता है और कमजोर भी होता है। इसे सबल बनाने का काम हमारा है। हमारे दृढ़ विचार इसे सबल बनाते हैं। इसका सबल होना इसलिए भी आवश्यक है कि सबल मन तूफानों से नहीं डरता। तूफान में भी कोई अविचल खड़ा रह सकता है, तो वह है सबल मन।
रोगी को अच्छा करने में सबल मन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मन से हारा रोगी कितनी भी महँगी दवाएँ खरीद ले, बड़े से बड़ा अस्पताल चला जाए, वह निरोगी नहीं हो सकता। वहीं सबल मन का स्वामी हर परिस्थितियों में अपने लायक हालात बना ही लेता है। इसे कहते हैं मन की जीत। इसीलिए कहा गया है कि मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीत।

डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 10 सितंबर 2008

सदा खुश रहो


डॉ. महेश परिमल
बड़े बुजुर्ग जब भी हमें आशीर्वाद देते हैं, तब एक वाक्य यह अवश्य होता है- सदैव प्रसन्न रहो। उनके इस आशीर्वाद के पीछे एक रहस्य है। वैसे भी हमारे अग्रज हमेशा गूढ़ बातें किया करते हैं। कई बार तो वे ऐसा कुछ कह जाते हैं कि समझने में काफी वक्त लगता है। तो आइए, बुजुर्गो के उस आशीर्वाद का मतलब जानने की कोशिश करें।
खुश रहना एक कला है, जो सबको प्राप्त नहीं होती। इसे हासिल करना पड़ता है। सुख में, अनुकूल परिस्थितियों में खुश रहना कोई बड़ी बात नहीं है। यह स्वाभाविक है, लेकिन दु:ख में, प्रतिकूल परिस्थितियों में खुश रहना बहुत बड़ी बात है। हमारे बुजुर्ग जानते हैं कि मनुष्य जीवन विषम होता है। इस जीवन-मार्ग में चलना बहुत दुष्कर है। बहुत-सी बाधाएँ हैं, लेकिन हँसमुख स्वभाव का व्यक्ति अपने स्वभाव और व्यवहार से सभी को अपना बना लेता है। जहाँ हमारे हितैषी अधिक हों, वहाँ जीवन सुचारू रूप से चलने लगता है। रास्ते सरल होने लगते हैं, बाधाएँ दूर होने लगती हैं।
यह समझना गलत होगा कि जो हँसमुख होते हैं, वे गंभीर नहीं हो सकते। वास्तव में जो हँसते-हँसाते रहते हैं, उनके भीतर अथाह पीड़ा छिपी होती है। कभी उनका हृदय टटोलने का प्रयास करो तो असीम वेदना का एक अंतहीन सिलसिला मिलेगा। कहीं रिश्तेदारोें से धोखाघड़ी, कहीं प्रेमिका ने ठुकराया, गरीबी, कुंठा, संत्रास ये सभी कुछ उनके जीवन के अभिन्न अंग के रूप में मिलेंगे। ऐसे लोग हँसते इसलिए हैं कि उनका दु:ख कुछ कम हो जाए और हँसाते इसलिए हैं कि सामने वाले का दु:ख कुछ कम हो जाए।
ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जिसे हँसता और खिलखिलाता चेहरा अच्छा नहीं लगता। हर कोई चाहता है कि वह स्वयं सदैव हँसता रहे, हँसाता रहे, पर क्या करे? ओढ़ी हुई गंभीरता से पीछा ही नहीं छूटता। गंभीर रहने के ही शायद बहुत से फायदे हैं, फिर हँसकर, हँसाकर नुकसान क्यों किया जाए। चेहरे पर मुर्दनी, चाल में सुस्ती, निरीह, बेबस, लाचारी से भरे चेहरे देखकर दया तो उपजती है, पर प्यार नहीं उमड़ सकता।
हँसने से यादा मुश्किल है हँसाना। यह कला हर किसी को सीखनी चाहिए। मनोविज्ञान में कहा गया है, जो जितना खुलकर हँसता है, वह उतना ही साफ दिल का होता है अर्थात उसके भीतरर् ईष्या, द्वेष, कटुता नाममात्र को भी नहीं होती। एक खिलखिलाहट पूरे वातावरण को पवित्र बना देती है। उससे बड़ा दुर्भाग्यशाली कोई नहीं हो सकता, जो एक मासूम की हँसी या खिलखिलाहट में अपनी हँसी न मिला सके। ऐसे लोग अभागे होते हैं, क्योंकि मासूम की हँसी पवित्र होती है। उस हँसी में शामिल होना याने अपनी हँसी को भी पवित्र बना देना। यहीं से मिलता है हमें उन्मुक्त हँसी का पहला सूत्र। यहाँ वह मासूम हमारा गुरु होता है। उसका मंत्र होता है- मुझसे मेरी हँसी ले लो, जमाना तुम्हें बहुत दु:ख देगा, तब यही काम आएगी।
तो आज से आप भी यह संकल्प लेंगे ना कि मासूमों से हँसी लेंगे, आशीर्वाद में खुश रहने को कहेंगे और हँसेंगे, हँसाते रहेंगे।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

कहाँ है सुख?


डॉ. महेश परिमल
आज के भागमभाग और आपाधापी के जीवन में सबका एक ही उद्देश्य है- वह है सुखी होना। सुखी होने के लिए इंसान क्या नहीं करता। उसकी खोज में वह कहाँ-कहाँ नहीं भटकता। सुखी जीवन प्राप्त करने के लिए लोग धन, जमीन, मकान, विद्या, यश आदि तो बटोर लेते हैं, परंतु सुख से रहना नहीं जानते। सुख कोई क्रय-विक्रय की चीज भी नहीं, जिसे जब चाहे जितना खरीद लिया। सुख आंतरिक विषय है। यह हमारे भीतर ही होता है। हमें इसका अनुभव करना होता है।
पदार्थों को संग्रह करने में मनुष्य की प्रवृत्ति जितनी प्रबल है, उतनी यदि अच्छा व्यवहार करने में होती, तो उसे सुखी होने में क्षण भर भी नहीं लगता। मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, यदि वह अच्छा व्यवहार करना नहीं जानता, तो कदापि सुखी नहीं हो सकता। धर्म, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि का दिखावा भी मनुष्य को सुख नहीं दे सकता।
यदि हम अपने घर और समाज में रहने वालों से अच्छा व्यवहार करते हैं, तो आधा पेट सूखी रोटी खाकर भी सुख से रह सकते हैं। दूसरी ओर यदि हम अपने साथियों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार नहीं कर सकते तो हर प्रकार की सम्पन्नता भी हमें सुख नहीं दे सकती। लोग सुखी होने के लिए देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इसी समाज में कई मनुष्य ऐसे हैं, जो राग-द्वेष से ऊपर उठकर लोगों की भलाई के बारे में सोचते हैं और उनकी सेवा करने को सदैव तत्पर रहते हैं। क्या ऐसे लोग ईश्वर के प्रतिनिधि नहीं हैं?
सच बताएँ, क्या ईश्वर पत्थर, पेड़-पौधे, नदी, पर्वत, गोबर, मिट्टी, चाँद, सूरज, तारे आदि जड़ पदार्थों में है? इन सभी को हम यदा-कदा पूजते ही रहते हैं, पर क्या कभी हमने ईश्वर के जीवित प्रतिनिधियों की तरफ ध्यान दिया है? वस्तुत: प्राणी ही और उनमें भी श्रेष्ठ मनुष्य ही सच्चे देवता है, क्योंकि उनमें जान है। वो ज्ञान स्वरूप हैं। उनसे गलती होती है, तो उन्हीं से सही होने की भी उम्मीद है। आप कह सकते हैं कि हमने जड़ वस्तुओं में ईश्वर के दर्शन किए हैं, इसलिए हम तो उन्हें ही पूजेंगे। यदि आपको जड़ वस्तुओं में ईश्वर के दर्शन होते हैं, तो आप चेतन में फिर किस के दर्शन करेंगे, यह सोचा कभी आपने?
आप यह जान लें कि पत्थर की मूर्ति कुछ गलत नहीं कर सकती तो कुछ सही भी नहीं कर सकती। पेड़, पत्थर, पहाड़ में बुराई नहीं है, तो उनमें भलाई करने की भी समझ नहीं है। इंसान बुराई करता है, परंतु उसी से भलाई की भी आशा की जा सकती है। मनुष्य जब अच्छा व्यवहार करता है, तब वह देवत्व के करीब होता है। यही अच्छा व्यवहार और भलाई के कार्य जब उसके स्थायी स्वभाव बन जाए, तो वह देवता बन जाता है।
आप कहेंगे, एक डॉक्टर भी अच्छा व्यवहार करके रोग का उपचार करके भलाई का काम करता है, तो क्या हम उसे देवता मान लें? वह डॉक्टर जिस पर आपने विश्वास कर अपने परिजन को उसके हवाले कर दिया है और वह उसे बचाने में अपनी सारी शक्ति लगा रहा है, तो उस वक्त वह किसी ईश्वर से कम नहीं, पर उसके एवज में जब वह स्वार्थी होकर मोटी रकम वसूलता है, तो वह किसी शैतान से कम नहीं। एक ही व्यक्ति में दो रूपों के दर्शन ऐसे होते हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 8 सितंबर 2008

अधिक सोच आदमी को निराशा देती है


डॉ. महेश परिमल
दो मित्र अपने रोजमर्रा के कामों से उकता कर छुट्टियाँ मनाने के लिए किसी हिल स्टेशन पर गए। वहाँ रोज का ऑफिस वर्क नहीं था, रोज की छोटी-मोटी समस्याएँ नहीं थी। बॉस की झिड़कियाँ, पत्नी की फरमाइशें, बच्चों की जिद सबसे दूर वे दोनों छुट्टी का आनंद लेने के लिए यहाँ आए थे। दो-चार दिन यूँ ही मस्ती में गुजर गए। एक दिन शाम के समय जब एक मित्र प्रकृति का आनंद ले रहा था, पहाड़ के पीछे डूबते सूरज को देख रहा था, बादलों की ऑंख-मिचौनी के बीच झांकती सूरज की रश्मियों को प्यार से निहार रहा था, तो दूसरा मित्र इस अनुपम अवसर से अपने आपको दूर रखते हुए कमरे में बैठा कुछ सोच रहा था। पहले मित्र ने आकर उसे बाहर के सुंदर प्राकृतिक दृश्य को देखने की बात कही, तो वह बोला अभी मैं ऑफिस की एक समस्या से घिरा हुआ हूँ, उसका हल मिले तो मैं अपने आपको इस सुंदर दृश्य से जोड़ सकूँ। मित्र को यह सुनकर आश्चर्य भी हुआ और उसके इस व्यवहार पर गुस्सा भी आया। आता भी क्यों नहीं! वे दोनों सारे दुनियादारी के झंझटों से खुद को दूर करते हुए, हजारों रूपए खर्च करके इतनी दूर मानसिक शांति की तलाश में आए थे, प्रकृति की गोद में खुद को बैठाने आए थे और वह था कि अभी भी उसी ऑफिस और उसके आसपास ही घूम रहा था। मित्र उसे हाथ पकड़कर बाहर खींच लाया और बोला- पहले ये जाता हुआ सुंदर दृश्य देख लो, प्रकृति की सुंदरता को पूरी तरह निहार लो और उसके बाद जब तुम्हारा मन इस मनोरम दृश्य से भर जाए, तो रात को बिस्तर पर पड़े हुए भले ही सारी रात जागते हुए अपनी समस्या का हल खोजते रहना, कई घंटों तक सोचते रहना, पर ये पल जो अभी जा रहा है, उसे यूं ही अनदेखा न करो। उसे अपनी ऑंखों के माध्यम से हृदय में बसा लो।
मित्र उसकी बात को सुनकर उसके चेहरे को निहारता ही रह गया। वह असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा। उसे समझ न आया कि वह तत्क्षण क्या करे? अब मित्र झल्ला गया और बोला- तुम्हारी यही समस्या है, तुम सोचते बहुत हो और इसी सोच के साथ जीवन के कितने ही अनमोल क्षणों को यूं ही व्यर्थ गँवा देते हो। यदि तुम यूं ही समय-बेसमय सोचते ही रह जाओगे, तो मालूम नहीं जिंदगी के कितने ही सुंदर क्षणों से हाथ धो बैठोगे।
यह मात्र दो मित्रों के बीच का वार्तालाप नहीं है, ऐसे कई प्रकृति प्रेमी मिल जाएँगे, जिनके जीवन के प्रति ऐसे विचार होते हैं। देखा जाए तो जीवन के प्रति ऐसे विचार होने भी चाहिए। हम हमेशा अपनी छोटी-मोटी समस्याओं में ऐसे खोए रहते हैं कि हमें प्रकृति से जुड़ने का मौका ही नहीं मिलता। जब मिलता है, तो हम उसका फायदा उठाते हुए घर के एक कोने में खुद को कैद कर लेते हैं और कुछ सोचना शुरू कर देते हैं। इसके लिए हम समय नहीं देखते।
महान दार्शनिक ओशो का कहना है कि मनुष्य जो जीवन जीता है, उसे उसका क्षण-क्षण का जीवन रस निचोड़ लेना चाहिए। रोम-रोम में जीवन प्रस्फुटित होना चाहिए और संपूर्ण शरीर में उमंग, उल्लास, जोश होना चाहिए। मनुष्य को अपनी आत्मा की आवाज सुनकर केवल और केवल अपने वर्तमान में ही जीना चाहिए। वर्तमान का एक एक पल सुंदर बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग अतीत की यादों में और भविष्य के विचारों में उलझे रहते हैं, उनका वर्तमान बोझ सदृश होता है, व्यक्ति जीवन जीता नहीं, अपितु उसका भार वहन करता है। अधिक सोच उसके विचारों की रीढ़ को खोखला बना देती है और वह खोखले विचारों के साथ निराशा का हर पल गुजारने को विवश होता है।
अधिक सोच व्यक्ति को निराशावादी बनाती है। उसे मौत के निकट ले जाती है, उसमें असुरक्षा की भावना भरती है, उसे समय से पहले बूढ़ा बनाती है। इसलिए बुद्धिमान होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हर काम दिमाग से किया जाए या हर समय दिमाग का उपयोग किया जाए, बुद्धिमान होने का वास्तविक अर्थ यही है कि दिमाग को कुछ समय आराम दिया जाए और जीवन में कुछ काम केवल दिल से किए जाए। जो लोग केवल अपने दिमाग का उपयोग करते हुए, हर पल सोच की व्यसतता में घिरे हुए होते हैं, वे केवल जिंदा रहते हैं और जो लोग अपनी आत्मा की आवाज को मानते हुए, दिमाग और दिल दोनों के बीच में संतुलन बनाते हुए अपनी सोच को कुछ समय विराम देते हुए केवल और केवल पलों में खुद को समर्पित कर देते हैं, वास्तव में वे ही जीवन जी पाते हैं। इसीलिए तो कहा गया है- ज्यादा मत सोच, नहीं तो मर जाएगा।
जीवन जीने की कला यही है कि मौत से पहले मत मरो और दु:ख आने से पहले दु:खी मत हो, हाँ लेकिन सुख आने के पहले ही उसकी कल्पना में ही सुख का अनुभव करो, खिलखिलाहट के पहले ही अपने होठों पर मुस्कान खिला लो। सकारात्मक सोच का सफर काफी लम्बा होता है और नकारात्मक सोच का सफर शुरू होने के पहले ही तोड़ कर रख देता है। यह सब कुछ निर्भर करता है हमारे व्यवहार पर। इस व्यवहार में सोच की परत जितनी अधिक जमेगी, जीवन की खुशियाँ उतनी ही परतों के नीचे दबती चली जाएगी। निर्णय हमें करना है अधिक सोच-सोच कर जीवन को भार बनाना है या कम से कमतर सोच के द्वारा जीवन को फूलों की पंखुड़ी सा हल्का और सुकोमल?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 6 सितंबर 2008

विचारों का टकराव नए विचारों को जन्म देता है


डॉ. महेश परिमल
विचारों का टकराव अक्सर विरोध को जन्म देता है। यह सभी जानते हैं, पर यह बहुत कम लोग जानते हैं कि टकराव की यह प्रक्रिया कई नए विचारों को जन्म देती है। नए विचार याने नया उत्साह। यही उत्साह है, जो हममें जोश भरता है। इसी जोश में छिपे होते हैं जीवन तत्व। दुनिया में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, जिसे आलसी, काहिल, सुस्त और चेहरे पर मुर्दनी वाले लोग पसंद हों। ऐसा एक व्यक्ति पूरे समाज को अपने जैसा बनाने का सामर्थ्य रखता है।
लोग उन्हें ही पसंद करते हैं, जो ऊर्जावान होते हैं। उत्साह उनकी ऑंखों में छलकता रहता है। मस्तिष्क संतुलित रखते हैं। किसी काम को हाथ में लेकर उसे सही अंजाम देने में अपनी शक्ति लगा देते हैं। ऐसे लोग कभी चैन से नहीं बैठते। वे क्रियाशील रहते हैं। उन्हें काम चाहिए। वे लगातार काम करने के आदी होते हैं। ऐसे लोगों से ही यदि विचारों का टकराव होता है, तो उस स्थिति में कई नई बातें सामने आती हैं।
आइए, विश्लेषण करें, टकराव की शुरुआत से। यदि किसी अधिकारी ने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को कोई ऐसा काम दे दिया, जो उसकी पसंद का न हो, तो उस काम को कर्मचारी अनमने ढंग से अरुचि के साथ करता है। नतीजा आशा के विपरीत मिलता है, जो स्वाभाविक है। ऐसे में अधिकारी इसे अपनी अवहेलना मानेगा और कर्मचारी पर कार्रवाई करेगा। दूसरी ओर कर्मचारी ने उस अरुचिपूर्ण कार्य को अपने रुचिपूर्ण कार्य के अतिरिक्त किया है, तो उसके मन में यह बात आएगी कि मैंने तो काम को अंजाम देने में पूरी कोशिश की, फिर भी परिणाम बेहतर नहीं निकला तो मेरा क्या दोष?
यह वह स्थिति है, जहाँ यह मतभेद मनभेद हो जाता है। परस्पर टकराव यदि सकारात्मक है, तो परिणाम बेहतर होते हैं, किंतु नकारात्मक टकराव के परिणाम कभी अच्छे नहीं होते। मतभेद और मनभेद में यही सकारात्मक और नकारात्मक वाली स्थिति है। जहाँ सभी एक जैसा सोचते हों, वहाँ प्रगति संभव नहीं। अनेक विचारों से बनने वाला एक विचार सफलता का सूत्र होता है। विचारों की यह टकराहट स्वयं को भी भीतर से देखने, जानने और समझने का रास्ता साफ करती है। हम सर्वश्रेष्ठ हैं, यह भावना विचारों के टकराव से दूर हो जाती है।
इस स्थिति से हमें घबराना नहीं चाहिए। यह स्थिति एक अच्छे विचार को सामने लाने के लिए प्रेरित करती है। यदि हमने इस टकराव को अपना अहं मान लिया, तो परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाएँगी, क्योंकि तब विचार नहीं, अहं टकराएँगे। अहं का टकराव भयंकर परिणाम देता है। इससे बचने की हमें पूरी-पूरी कोशिश करनी चाहिए।
- विचारों के टकराव को सकारात्मक लें।
- इसे कभी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएँ।
- मतभेद को सहर्ष स्वीकारें, पर मनभेद न होने दें।
- अच्छे विचारों का प्रादुर्भाव टकराव से ही होता है।
- अच्छे विचारों के स्वागत के लिए हमेशा तैयार रहें।
याद रखें- जो लोग दूसरों को माफ नहीं कर सकते, वे उस पुल को तोड़ देते हैं, जिससे उन्हें आगे जाकर गुजरना है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

चिंतन: मेरा ही धर्म सर्वश्रेष्ठ है?


डॉ. महेश परिमल
मेरा धर्म सर्वश्रेष्ठ है। आजकल यह दंभोक्ति अक्सर सुनाई देती है। जब से राजनीति में धर्म शामिल हो गया है, तब से धर्म को भी राजनीति के चश्मे से देखा जा रहा है। हर धार्मिक वक्तव्य का राजनीतिक अर्थ निकाला जा रहा है। ये दोनों आज एकाकार हो गए हैं। इन्हें अलग करना मुश्किल है।
इन परिस्थितियों में मासूमों के भीतर साम्प्रदायिक संस्कार पनपने लगे हैं। फलस्वरूप युवा ही नहीं बल्कि किशोर पीढ़ी भी आक्रामक हो रही है। आए दिन होने वाले अपराधों में किशोरवय की संलग्नता इसका सबसे बेहतर उदाहरण है। आखिर क्यों जरूरत पड़ी साम्प्रदायिक संस्कार देने की? प्रश् कठिन है, पर समाधान के सभी रास्ते खुले हुए हैं।
आज प्रत्येक धर्मावलम्बी यह मानता है कि उसके धर्म का अस्तित्व संकट में है। इसलिए वह अपने धर्म और धार्मिक स्थलों पर विशेष निगरानी रखने लगा है। इसके अलावा अपने धर्म के नियमों का न केवल पालन करने लगा है, बल्कि अपने बच्चों को भी कड़ाई से पालन करने के लिए कहता है। इससे बच्चों में भी अपने धर्म को लेकर आस्था की जड़ें गहरी होती जाती है। डर इस बात का है कि बच्चों से भी यही कहा जाता है कि हमारा धर्म महान है, सर्वश्रेष्ठ है। बाकी सारे धर्म बेकार हैं, गिरे हुए हैं, उन धर्मो की ओर देखो भी मत, फिर भी यदि दूसरा धर्म तुम पर हावी होने की कोशिश करे, तो उसका जमकर विरोध करो। विरोध की सीमा कहाँ तक हो, यह उन पर छोड़ दिया जाता है। यही कारण है कि जब विरोध का दौर शुरू होता है, तो धर्मांध लोग क्या-क्या नहीं कर गुजरते, यह बताने की जरूरत नहीं है।
धर्म के ये ठेकेदार और राजनीति के सौदागर ये नहीं जानते कि वे जिस धर्म की बात करते हैं, वास्तव में वह धर्म है ही नहीं। सबसे बड़ा धर्म है मानवता। इस धर्म से उनका नाता है ही नहीं। मानवता का यह धर्म इंसान को ईश्वर के करीब ले जाता है। इस धर्म को स्वीकार करने के बाद इंसान सभी प्राणियों की भलाई के ही बारे में सोचता है। यह धर्म विश्वव्यापी है। सारे धर्मो का सार है यह धर्म। सारे धर्म इसमें ही एकाकार हो जाते हैं।
राजनीति के छद्मवेष में लिपटे आज के धार्मिक नेता जिस धर्म को लेकर मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं, वह धर्म संकुचित है। उनका यह धर्म रायों नहीं, बल्कि कुछ जिलों तक ही सीमित है। इनके धर्म की कोई पहचान भी नहीं है, पर इन्हें भी अपना कथित धर्म महान लगता है। वे चाहते हैं कि उनके धर्म का डंका देश ही नहीं, विदेशों में भी बजता रहे। वे सब मुगालते में हैं, इसीलिए वह मासूमों में साम्प्रदायिक संस्कार डाल रहे हैं, ताकि भविष्य में उनके धर्म का विरोध न हो। वे यह भूल रहे हैं कि मासूमों को साम्प्रदायिक संस्कार देने का पुनीत कार्य वे अकेले नहीं कर रहे हैं, बल्कि धर्म के कई ठेकेदार अन्य धर्मो के लिए कर रहे हैं।
- क्या धर्म के प्रति ऐसा दृष्टिकोण देश-समाज के लिए उचित है?
- क्या कथित धर्म के ठेकेदार उचित कर रहे हैं?
- क्या मानवता का धर्म विश्वव्यापी नहीं है?
- क्या मासूमों में साम्प्रदायिक संस्कार डालना उचित है?
तो फिर आओ, संकल्प लें और बताएँ कि मानवता का धर्म ही शाश्वत धर्म है। यही धर्म इंसान को ईश्वर के करीब ले जाता है। यही धर्म सभी धर्मों का मूल है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

शिक्षक दिवस एक विद्यालय की वेदना


डा. महेश परिमल
मैं एक विद्यालय हूँ, आप मुझे शाला भी कह सकते हैं। पाठशाला, विद्या का मंदिर, विद्या का निकेतन, विद्या का आलय, शिक्षालय, गुरुकुल, मकतब, मदरसा, आदि कई नाम हैं मेरे। इन सभी नामों के बीच विराजती हैं, विद्या की देवी सरस्वती। इस परमपूज्य देवी के सानिध्य में और मेरे अहाते में बैठकर कई अबोध मासूमों ने शिक्षा और संस्कार का ककहरा पढ़ा है। मेरे ऑंगन में हर वर्ष नई किलकारियाँ गूँजती है, माता-पिता अपने बच्चों में अपने ही भविष्य का सपना देखते हैं और उसी सपने को पूरा करने के लिए उन मासूमों को छोड़ जाते हैं, मेरी गोद में। मैं ही उन्हें दुलारती हूँ, प्यार करती हूँ और उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश फैलाती हूँ, ताकि वे ज्ञान के इस प्रकाश को देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में फैलाए।
मेरे आंगन में अपनी सारी मस्तियों के बीच वे न जाने कब, कैसे बड़े हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। ऑंखों में सफल जीवन के कई सपने पाले किलकारियाँ भरते, अठखेलियाँ करते, अपने बचपन को जीते कई नौनिहाल मेरे द्वार पर आए और उन सपनों में सफलता के इंद्रधनुषी रंग भर कर मेरे आंगन से विदा ली। उनकी विदा बेला में दु:खी होने के बजाए मैं प्रसन्नता से आल्हादित हो जाता हूँ। मैं गौरवान्वित हो उठता हूँ, क्योंकि मेरे यहाँ कई निरक्षरों को साक्षरता का उपहार मिला है। आज भी जब कोई पालक अपने बच्चों के साथ मेरे सामने से गुजरता है, तो वह बड़े ही गर्व से कहता है- देखो बच्चो, मैंने यहीं से शिक्षा प्राप्त की है। यहीं मैंने अपने जीवन की बहुत सारी मस्तियाँ की हैं। शिक्षकों के प्यार, दुलार के साथ-साथ उनकी कड़वी डाँट भी सुनी है। मेरी शाला का यह ऑंगन आज भी मेरे लिए पूजनीय है, मैं इसे प्रणाम करता हूँ।
आज मेरी पवित्रता पर ग्रहण लग गया है। अब मैं केवल ज्ञापन का मंदिर नहीं, बल्कि एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान का रूप मिल गया है। मेरा रूप पूरी तरह से इन्हीं पढ़े-लिखे लोगों ने ही बदल दिया है। आज मुझे विद्या का मंदिर नहीं, व्यापार का केन्द्र कहा जाता है। मेरे यहाँ अब विद्या तो मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गई है। आज हर गली-मोहल्लों में मेरे कई छोटे-छोटे रूप देखने को मिल जाएँगे, बारिश मेें ऊगने वाले कुकुरमुत्तों की तरह। सुनकर बड़ा बुरा लगता है, पर मैं क्या कर सकता हूँ? कुछ नहीं। लोगों की बातें सुनता हूँ और खो जाता हूँ अतीत में। जहाँ मेरे पास कई सुनहरी स्मृतियों का इतिहास है। एक वह समय था, जब मेरे पास आने में लोगों को आनंद की अनुभूति होती थी। उनके चेहरे का सुकून मुझे मेरी जवाबदारियों का अहसास दिलाता था। नहीं भूल सकता मैं कि इन जवाबदारियों का बोझ मैंने अकेले कभी नहीं उठाया, क्योंकि हमेशा सरस्वतीपुत्रों यानि कि शिक्षकों ने मेरा साथ दिया। कैसे भूल सकता हूँ मैं कि उनकी रात-दिन की मेहनत, एक निरक्षर को साक्षर बनाने की ललक, जोश, उमंग, उत्साह ये सभी उस समय कितने अनोखे और अनमोल थे, जैसे पानी की एक बूँद सीप में कैद हो कर मोती का रूप ले रही हो, पत्थर पर एक नया इतिहास रचा जा रहा हो, झरने की लहरों में एक नया संगीत गूँज रहा हो, ऐसा ही कुछ और बहुत कुछ नया करने का प्रयास प्रतिक्षण होता था, उन सरस्वतीपुत्रों के द्वारा।
एक समय था जब मेरी चौखट पर विद्यार्थी श्रध्दा से अपना शीश झुकाते थे, देशभक्ति के गीत, राष्ट्रप्रेम के गीतों से जब मेरा कोना गूँजता था, तो उसमें विद्यार्थियों के रोम-रोम से समर्पण भावना बहती थी। शाला के कोई भी कार्यक्रम में वे पूरे उत्साह से भाग लेते थे। शिक्षक के प्रति आदर भाव तो इतना अधिक था कि अपशब्दों का प्रयोग तो दूर की बात है, ऊँचे स्वर में बोलना भी मर्यादा का उल्लंघन माना जाता था। शाला के जिस कक्ष में छात्र अध्ययन करते थे, उसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना उनकी जिम्मेदारी थी और वे अपनी यह जिम्मेदारी निभाने का पूरा प्रयास करते थे।
आज एक बार फिर समय ने ऐसी करवट ली है कि ये सारी बातें केवल अतीत का एक हिस्सा बनकर रह गई है। श्रध्दा शब्द अब विद्यार्थियों के शब्दकोश से गायब हो चुका है। कार्यक्रम अब भी होते हैं, पर उनमें व्यावसायिकता राजनीति की तरह हावी हो जाती है। इस कुहासे में छात्रों का मनोबल टूटने लगता है। अपशब्द आज के विद्यार्थियों की पहचान बन चुके हैं। मेरे ही ऑंगन से हटकर ही अब कई छोटी-छोटी दुकानें लग गई हैं, जहाँ पान, सिगरेट, गुटखा, तम्बाखू आदि बुराइयाँ परोसी जा रही हैं। यहाँ बिकने वाली वस्तुओं का सेवन केवल छात्र ही नहीं, बल्कि शिक्षक भी बड़ी शान से करने लगे हैं। मेरे ऑंगन से साफ-सफाई अब विदा ले चुकी है। अनुशासन शब्द एक मजाक बनकर रह गया है मेरे ऑंगन में।
दु:ख तो तब और बढ़ जाता है, जब मेरे ही ऑंगन से निकलकर शायद बड़े होकर बच्चे युवा बनते हैं, और पहुँच जाते हैं महाविद्यालय। यही महाविद्यालय अब राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गए हैं। जहाँ रेगिंग के नाम पर खुलेआम अपराध होते हैं, अपराधी ही चुनाव लड़ते हैं और अपनी वीरता के बल पर चुनाव जीत भी जाते हैं। शिक्षा से इनका कोई लेना-देना नहीं होता। दूसरे अर्थों में कहा जाए, तो यही वह स्थान है,जहाँ देश के भविष्य का आकार मिलता है। यही वह स्थान है जहाँ शिक्षा के नाम पर पालकों को बुरी तरह से आर्थिक शोषण होता है। अपने बच्चों को शिक्षित करने के नाम पर पालक कुछ नहीं कर पाते।
अब तो मेरे ही ऑंगन में नन्हों की मौत भी होने लगी है। समाज के कथित ठेकदार साधु संतों द्वारा चालाए जा रहे गुरुकुल या कह ले आश्रमों में मासूमों की मौत होने लगी है। ये कैसे शिक्षा संस्थान हैं, जिसे अपराधी संचालित कर रहे हैं? प्रशासन मौन है, अनजाने में इन कथित शिक्षा संस्थाओं को उसी का वरदहस्त प्राप्त है। कहाँ से कहाँ पहुँच गई शिक्षा पध्दति? अब तो न धौम्य ऋषि जैसे गुरु हैं ओर न ही आरुणि जैसे शिष्य, अब तो हर तरफ धाक लगाए छात्र और इसे संरक्षण देने वाले शिक्षक ही शेष हैं। जो शिक्षक वास्तव में गुरु की अहम भूमिका निभा रहे हैं, वे प्रचार-प्रसार से काफी दूर हैं। जिन्हें योग्य शिक्षक का पुरस्कार मिल रहा है, वह भी कई जुगत के बाद मिल रहा है। इसके लिए कितनी तिकड़म करनी पड़ती है, उन्हीं शिक्षकों से पूछो, जो पुरस्कृत हो रहे हैं।
रक्तरंजित शिक्षा संस्थान क्या वास्तव में शिक्षा देने का काम कर रहे हैं? यह एक विचारणीय प्रश्न है, जो हम सबके लिए है। देखते हैं इस विचार को हम कहाँ तक आगे ले जाने में सक्षम हो पाते हैं?
डा. महेश परिमल

बुधवार, 3 सितंबर 2008

अपने आपको जानना सीखें



डॉ. महेश परिमल
यदि आपसे यह पूछा जाए कि आप अपने जीवन में सबसे अधिक महत्व किसे देते हैं, तो यह तय है कि आपकी ऑंखों के सामने ऐसे कई चेहरे उभर आएँगे, जो आपके अपने हैं। इन चेहरों में कोई चेहरा माता-पिता का है, तो कोई भाई-बहन, मित्र-सखी-सहेली का है। रिश्तों की सीप खुलकर हर चेहरा एक मोती-सा चमकता है और हमारी ऑंखों में अपनेपन की रोशनी भर देता है। यह सच है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हम रिश्तों को महत्व न देकर अपने आसपास के वातावरण और परिस्थितियों से जुड़ जाते हैं और अपनेपन का एक अलग ही रिश्ता कायम कर लेते हैं। हमारे लिए वही रिश्ता सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। हम उसे ही अपने जीवन में सबसे अधिक महत्व देने लगते हैं। यह अच्छी बात है, किंतु इससे भी अधिक अच्छी बात यह होगी कि हम अपने जीवन में किसी और को अधिक महत्वपूर्ण मानने से पहले स्वयं को ही महत्व दें।
आपके अपने जीवन में आपके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि आपका स्वयं का व्यक्तित्व होना चाहिए। आपके अपने जीवनकाल में कोई एक व्यक्ति ऐसा है, जिसे बहुत अधिक प्यार करते हैं, यह अच्छी बात है, किंतु उससे भी कहीं अधिक आप केवल और केवल अपने आपको ही प्यार करते हैं, यह उससे भी कहीं अधिक अच्छी बात है।
अपने आपको महत्व देना, अपने बारे में अधिक से अधिक सोचना, अपना विशेष ध्यान रखना, ये स्वार्थ नहीं, अपितु परमार्थ की शुरूआत है, क्योंकि जब व्यक्ति अपने बारे में सोचेगा, समझेगा, महत्व देगा, तभी तो वह स्वयं के प्रति निश्चिंत होकर दूसरों को महत्व दे पाएगा।
आप में से बहुत से इस विचार से सहमत न होकर इसका मखौल उड़ाएँगे और कहेंगे कि यह बात बिल्कुल गलत है। केवल स्वयं को महत्व देना स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं है। फिर हमारे संस्कार ही ऐसे नहीं है कि हम इतने स्वार्थी बनें। हमें यह नहीं सिखाया जाता कि हम खुद के लिए जिएं। हमें तो बचपन से ही संस्कारों की यही घुट्टी पिलाई जाती है कि दूसरों के लिए जीते हुए अपना सर्वस्व होम कर दो। अपने जीवन के छोटे-छोटे खुशी भरे क्षण, सपने, आशाएँ, महात्वाकांक्षाएँ, विचार यहाँ तक कि शरीर की आहूति भी दूसरों के जीवन को निखारने के लिए पूरे समर्पण भाव से दे दो। यही जीवन का सारांश है, संस्कार है और एकमात्र उद्देश्य भी।
इन सर्वोच्च संस्कारों के बीच जीते हुए कभी एकांत में अपने आप से बातें करें, तो पाएँगे कि हाँ, हमने अपने आपसे तो कभी रिश्ता बनाया ही नहीं। कभी खुलकर खुद से तो बात की ही नहीं। हम स्वयं के बारे में तो कुछ जानते ही नहीं। कई बार ऐसा होता है- हमें लेकर यानि कि हमारे व्यक्तित्व को लेकर सामने वाला व्यक्ति इतना कुछ कह देता है कि हमें लगता है कि हमने तो खुद को लेकर कभी ऐसा सोचा ही नहीं। अपनी ही नजरों में झेंप तब महसूस होती है, जब कोई कहता है- तुम पर तो पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सकता है और हम स्वयं अपने बारे में एक पंक्ति लिखने में भी खुद को असमर्थ पाते हैं।
ऐसा क्यों होता है? क्योें जीवन की इस स्पर्धा में हम इतने दौड़ते-भागते हैं? रिश्तों के जाल में इतने उलझते चले जाते हैं कि स्वयं के लिए ही समय नहीं निकाल पाते। दूसरों की नजरों में 'परफेक्ट' होने का दम भरने वाले हम स्वयं के 'परफेक्ट' होने का तुलनात्मक अध्ययन आईने के सामने करने का साहस भी नहीं कर पाते। हम स्वयं को भूलते जा रहे हैं। अपने आपसे दूर होते जा रहे हैं। यह केवल एकाकीपन की निराशावादी सोच नहीं वरन् आज की दौड़ती-भागती जिंदगी की सच्चाई है। हर तरफ लाखों-करोड़ों की भीड़ होते हुए भी आदमी अपने आपमें अकेला है। यह अकेलापन सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने अपने आपसे दोस्ती नहीं की। जब भी उसे फुरसत मिली, वह बाहर की दुनिया में लोगों से जुड़ता चला गया। उसकी जिंदगी में एक के बाद एक कई चेहरे महत्व से महत्वपूर्ण बनते चले गए, पर उसका अपना चेहरा ही धुँधला होता चला गया। नतीजा यह हुआ कि आदमी अकेला हो गया। यदि उसने अपने आपसे ही दोस्ती की होती तो वह कभी अकेला न होता। किंतु आज आदमी भीड़ में भी अकेला है और एकांत में भी अकेला। उसके साथी हैं केवल उसके ऑंसू। वे भी ऑंखों से रिश्ता तोड़कर हिचकियों के बीच उसे ले जाते हैं। याद रखें आप जिसके लिए ऑंसू बहा रहे हैं, वह आपके उन ऑंसुओं के लायक ही नहीं है और जो आपके ऑंसुओं के लायक है, वह कभी आपको ऑंसू बहाने ही नहीं देगा।
अकेलापन दो तरह का होता है- भीड़ के बीच मिलनेवाला अकेलापन और दूसरा एकांत में मिलनेवाला अकेलापन। दोनों ही स्थितियों में आदमी निराशा के गर्त में डूबता चला जाता है, किंतु यदि आदमी ने स्वयं से ही एक नाजुक रिश्ता बनाया हो, तो अकेलापन उस पर हावी नहीं होता और स्वस्फूर्त प्रेरणा का ऐसा स्रोत फूटता है कि उसका कल्पना संसार ऐसी सर्जना करता है कि उसकी अस्मिता कोहिनूर की तरह चमक उठती है। इसलिए अपने आप से नाता जोड़ें और खुद से बात करें। दूसरों की शिकायत करने के पहले अपने आप को देखें कि आपको अपने आप से कितनी शिकायत है? जिस क्षण आपने ऐसा सोचना शुरू कर दिया, समझ लो, जीवन का दर्शन समझ लिया।
डॉ. महेश परिमल

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