सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

क्या आप केवल माता-पिता ही हैं?


भारती परिमल
क्या आप वास्तव में एक माता-पिता हैं या सिर्फ एक माता-पिता की भूमिका निभा रहे हैं? प्रश्न सचमुच आश्चर्य में डालने वाला है, परंतु यह शत प्रतिशत सच है। आपको स्वयं ही अंतर्मन के आईने में झाँक कर देखना होगा और इस सवाल का ंजवाब देना होगा कि क्या सही है और क्या ंगलत? मात्र बालक को जन्म देना, इसका नाम ही वात्सल्य नहीं है। उसे पूरे ममत्व के साथ पालपोस कर बड़ा करना ही सही अर्थो में वात्सल्य है। जब आपने बालक को जन्म दिया है, उसे इस संसार में लाने का पनीत कार्य किया हैं, तो उसके प्रति अपनी पूरी जवाबदारी भी निभानी होगी। वह मासूम और अबोध जीव इस संसार में अपनी खुशी से तो आया नहीं है, उसे इस संसार में लाने में आपकी भूमिका महत्व की है। आप अपनी इच्छा या अनिच्छा से उसे इस संसार में लाए हैं, तभी तो वह इस संसार में आया है। फिर उसे संभालने की, उसकी छोटी-बड़ी ंजरूरतें पूरी करने की, उसके सुख-दु:ख के साथी बनने की पूरी जवाबदारी आपकी ही है। अब तो वह इस संसार में आ चुका है, तो उसके प्रति अपना कर्त्तव्य तो पूरा करना ही होगा। भले ही उसे खुशी-खुशी पूरा करें या फिर भारी मन से अनिच्छा के साथ। तो फिर क्यों न अपनी स्वयं की सहमति के साथ खुशी-खुशी इसर् कत्तव्य को पूरा किया जाए? क्योंकि भारी मन से न चाहते हुएर् कत्तव्य पूरा करने का अर्थ हुआ - स्वयं के जीवन को ही भार रूप बनाना। जब स्वयं का जीवन ही भाररूप रहेगा तो फिर संतान की सही ढंग से देखभाल किस तरह होगी? उसे अच्छा व्यवहार किस प्रकार मिलेगा? अच्छे वातावरण का अभाव तो उसके व्यक्तित्व को बौना बना देगा। इसलिए ऊपरी मन से बालक पर वात्सल्य जाहिर न करें, बल्कि हृदय से उस पर अपने ममत्व की फुहार कर उसे पूरी तरह आप्लावित कर दें। आप स्वयं विचार करें कि क्या आप ऐसा कर रहे हैं?
पिछले दिनों में आपने अपने मासूम बच्चे को कब वास्तव में प्यार किया है? क्या आपने उसकी कोमल बाँहों को थाम कर अपनी गोद में बैठाया है? क्या उसके सिर पर या उसकी पीठ पर प्यार से एक चपत लगाई है? क्या उसके गाल पर वात्सल्य का एक मीठा चुंबन दिया है? अरे यह तो कहिए कि कितने दिन हो गए, आपने उसे अपने पास बिठा कर उसकी परेशानियों को पूछा है? चलिए, परेशानियाँ पूछना तो दूर रहा, क्या आपने उसकी कोई बात जो वह कितने उत्साह और उमंग से आपको बताना चाह रहा था, क्या वह बात भी आपने उसके मुँह से सुनी है? क्या कहा? आपके पास इन सभी बातों के लिए समय नहीं है? अरे, जब आपकी कामवासना मूर्त रूप ले रही थी, तब उसके लिए नौ महीने का समय आपके पास था? और आज जब वह आपके घर का चिराग बनकर आपके सामने खड़ा है, बगिया का महकता फूल बनकर अपनी सुगंध चारों ओर बिखेर रहा है, तब उसके लिए आपके पास नौ पल का भी समय नहीं है? यह आपकी महत्वाकांक्षा की सीमा का पार नहीं तो और क्या है? और उस पर भी आप यह कहते हैं कि आप माता-पिता हैं। नहीं, बिल्कुल नहीं। आप तो केवल माता-पिता की एक छोटी-सी भूमिका ही निभा रहे हैं।

इस कलयुग में माता-पिता की विवशता है कि उसके पास अपनी संतान को देने के लिए सब कुछ है, ऐश्वर्य के सुख साधन है, बच्चों की भौतिक सुख-सुविधाएँ पूरी करने के लिए पैसे हैं, सभी कुछ है, पर उसके साथ बिताने के लिए एक पल नहीं है। इसके बाद भी महत्वाकांक्षा यह कि संतान उनके सारे स्वप्नों को पूरा करें। इस महत्वाकांक्षा की शुरुआत तो बालक के जन्म के साथ ही हो जाती है। यह इच्छा एक सुदृढ़ आकार तब लेती है, जब बालक पाठशाला जाना शुरू करता है। बालक के स्कूल जाते ही माता-पिता दोनों ही अपने सपनों का भार उसके सिर पर रख देते हैं। स्कूल बैग का भार तो बालक बड़ी मुश्किल से उठा पाता है और उस पर माता-पिता के सपनों का अनचाहा भार? ऐसे में बालक शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर न हो जाए, तो यह उसका भाग्य ही है। धीरे-धीरे इन ऊँचे सपनों के भार के साथ बालक शरीर से बड़ा होता है और मानसिक रूप से छोटा। क्योंकि उसके दिमाग में उसके खुद के तो विचार होते नहीं हैं। केवल माता-पिता की इच्छा और अरमान विचार के रूप में उसके दिमाग में साँप की कुंडली की तरह लिपटे हुए रहते हैं। माता-पिता की महत्वाकांक्षा की वेदी पर उसकी स्वयं की इच्छाएँ होम हो जाती हैं।
माता-पिता के पास बालक की इच्छाएँ पूरी करने का, उसकी परेशानियों को सुलझाने का, उसे समझने का समय होता नहीं है, किन्तु जब बालक असफलता के मार्ग पर आगे बढ़ता है, तो उससे इस संबंध में पूछने का सच कहें तो डाँटने का समय अवश्य होता है। माता-पिता हमेशा यही इच्छा रखते हैं कि वे स्वयं बालक को समय दे या न दें, किन्तु बालक हर परीक्षा में सफल हो। उसमें भी सिर्फ सफलता उन्हें संतोष नहीं देती बल्कि वे तो यह चाहते हैं कि उनका बेटा या बेटी अच्छे नंबरों से सफल हों, जिससे उनका समाज में एक स्टेटस बना रहे। इस स्टेटस मेन्टेन की कोशिश में बालक कठपुतली बन कर रह जाता है।
क्या कारण है कि माता-पिता संतान से इतनी ज्यादा अपेक्षा रखते हैं? क्या वास्तव में वे अपनी संतान को कुछ बनाना चाहते है? यदि सचमुच संतान को कुछ बनाना चाहते हैं, तो उसे कुछ समय देना होगा। उसकी सारी समस्याओं को हल करने में उसकी मदद करनी होगी। उसके कोरे ऑंचल को अपने ममत्व से भिगोना होगा, उसकी हर छोटी-बड़ी तकलीफों को दूर करना होगा। वह मात्र आपकी महत्वाकांक्षाओं का शो पीस नहीं है, उसमें भी प्राण हैं, उसकी भी साँसें चलती है, इसलिए उसमें भी जीवन है और जीवन है, तो उसकी स्वयं के जीवन के प्रति इच्छाएँ भी हैँ, क्या उसे अपनी इच्छाएँ पूरी करने का अधिकार नहीं? र् कत्तव्य और अधिकारों की इस उलझन में क्या संतान की इच्छाओं की मुस्कान उसी के चेहरे पर देखना क्या आपका कर्त्तव्य नही?
यदि वास्तव में आप माता-पिता हैं और केवल माता-पिता की भूमिका नहीं निभा रहे हैं, तो तोड़ दीजिए संतान के आसपास बाँधी गई अपेक्षाओं के काँच की दीवार.... और उसे खुला छोड़ दीजिए एक पंछी की तरह, ताकि वह अपनीे स्वाभाविक उड़ान भर सके। उसके स्वयं के विचारों का आकाश और उसी के विचारों का इंद्रधनुष। फिर देखें उसकी स्वतंत्र उड़ान उसे किस दिशा में ले जाती है, हो सकता है कि यह स्वतंत्र उड़ान भरते हुए वह अपने विचारों में आपके भी विचारों को शामिल करते हुए एक नया मार्ग और एक नया लक्ष्य निर्धारित करे और आप उस पर गर्व कर सकें। यह भी हो सकता है कि उसके स्वयं के विचारों का मार्ग उसे रसातल में ले जाए। भले ही ऐसा हो, परंतु उसे इस बात का संतोष होगा कि उसने अपना पूरा जीवन अपनी मर्जी से जीया।
आप संतान के लिए मात्र मार्गदर्शन की एक किरण बनें, पूरा का पूरा सूरज बनने की भूल न करें, पूरे सूरज के सानिध्य में उसकी ऑंखें चौधिया जाएँगी और शरीर जल जाएगा, इसलिए केवल किरण बनें, जिसकी तपिश उसे एक सही मार्ग खोजने में प्रेरणादायक बन सके। डॉक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, ऐयरफोर्स पायलट संतान से अपेक्षाओं की यह एक लंबी सूची है, अपेक्षाओं का यह भार उस पर डालने का स्वार्थी यह निर्णय बदल डालें और फिर उसकी परवरिश करें, फिर देखें संतान आपकी आशा के अनुरूप आगे बढ़ता है या नहीं? उसके स्वप्न में अपने सपने जोड़ दें उसके अरमानों में अपने अरमानों की डोर बाँधे, फिर संतान आपकी है, केवल आपकी। आप केवल एक भूमिका नहीं निभा रहे हैं, बल्कि हकीकत में वात्सल्य का बीज उस मिट्टी में बो रहे हैं, जो फिर एक नई पीढ़ी को जन्म देगी और आपके द्वारा दिया गया स्नेह उसे समर्पित करेगी। इस पीढ़ी को ममत्व का नीर दें, जिससे वह भी आने वाली पीढ़ी को वही ममत्व दे सके।
भारती परिमल

1 टिप्पणी:

  1. बच्चों के लिए पल तो खुद ही निकालने होंगे चाहे थोड़ा अपने साथ compromise क्यों ना करना पड़े। वैसे आप की ये बात अच्छी लगी।---
    आप संतान के लिए मात्र मार्गदर्शन की एक किरण बनें, पूरा का पूरा सूरज बनने की भूल न करें, पूरे सूरज के सानिध्य में उसकी ऑंखें चौधिया जाएँगी और शरीर जल जाएगा, इसलिए केवल किरण बनें, जिसकी तपिश उसे एक सही मार्ग खोजने में प्रेरणादायक बन सके।
    ये हमें दिमाग में रखनी चाहिए। अपनी पत्नी से भी कहूंगा कि ये आर्टिकल पढ़े जरूर।

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