शनिवार, 29 नवंबर 2008

चोला बदल रहा है आतंकवाद!


डॉ. महेश परिमल
आतंकवादियों के बुलंद हौसलों ने एक बार फिर देश की कानून व्यवस्था पर एक सवालिया निशान लगा दिया है। इस बार आतंकवादियों ने समुद्री मार्ग से आकर देश की आर्थ्ािक राजधानी पर हमला बोला है। मुम्बई पुलिस को कई सूत्रों से इस हमले की जानकारी मिली थी, किंतु उसे अनदेखा किया गया, फलस्वरूप पुलिस के कई जवानों के अलावा कई नागरिकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इस बार हमारे सामने आतंक का जो चेहरा हम सबके सामने आया है, उससे यही कहा जा सकता है कि आतंकवाद ने अब अपनी दिशा बदली है। अब उसके पास न केवल अत्याधुनिक शस्त्र हैं, बल्कि उसके पीछे एक गहरी सोच भी है। अब वे अपनी मौत से खौफ नहीं खाते, बल्कि अपने सर पर कफन बाँधकर निकलते हैं और देश की सुरक्षा एजेंसियों को धता बताते हैं। आतंकवादी बार-बार हमला करके हमेशा हमारे देश की सुरक्षा एजेंसियों की तमाम सुरक्षा पर सेंध लगा रहे हैं। हम केवल आतंकवादियों की आलोचना कर, उनकी भर्त्सना करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। हमें आतंकवाद के बदलते चेहरे को पढ़ना होगा, तभी समझ पाएँगे कि वास्तव में आतंकवाद का चेहरा इतना कू्रर कैसे हो गया?

पूरे विश्व में आतंकवाद की परिभाषा बदल रही है। अब तक हमारा देश दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम को ही सबसे बड़ा आतंकवादी मानता था। अब हमें हमारे ही देश के उन शिक्षित युवा आतंकवादियों से जूझना होगा, जो संगठित होकर पूरे देश में अराजकता फैला रहे हैं। इन युवाओं की यही प्रवृत्ति है कि देश में अधिक से अधिक बम विस्फोट कर जान-माल का नुकसान पहुँचाया जाए। विश्व के सभी आतंकवादी संगठनों में एक बात की समानता है कि उनका निशाना आम आदमी और सरकारी सम्पत्ति है। इन युवाओं को उनके आका यही कहते हैं कि हमेशा आम आदमी को ही निशाना बनाओ, किसी बड़े आदमी को निशाना बनाओगे, तो पुलिस हाथ-धोकर पीछे पड़ जाएगी। आम आदमी के मरने पर केवल जाँच आयोग ही बैठाए जाएँगे और उन आयोग की रिपोर्ट कब आती है और उस पर कितना अमल होता है, यह सभी जानते हैं। इसलिए आज आम आदमी ही बम विस्फोट का शिकार हो रहा है। वीआईपी विस्फोट के बाद घटनास्थल पर पहुँचते हैं। विस्फोट के पहले कोई वीआईपी आज तक घटनास्थल पर नहीं पहुँचा। ऐसा केवल श्रीलंका में ही हो सकता है।
क्या आप जानते हैं कि अल कायदा का नेता ओसामा बिन लादेन सिविल इंजीनियर है, अल जवाहीरी इजिप्त का कुशल सर्जन है। ट्वीन टॉवर की जमींदोज करने की योजना बनाने वाला मोहम्मद अट्टा आर्किटेक्चर इंजीनियर में स्नातक था। इन तमाम आतंकवादियों ने पूरे होश-हवास में अपने काम को अंजाम दिया था। ये सभी टीम वर्क में काम करते हैं और सदैव अपने साथियों से घिरे हुए होते हैं। वैसे ये आतंकवादी जब अकेले होते हैं, तब वे बिलकुल घातक नहीं होते, पर जब वे संगठित हो जाते हैं, तब उनका मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है।
हाल ही में आतंकवादियों की जो नई खेप आई है, वह हमारे देश की ही उपज है। आज राजनीतिक हालात बदलते जा रहे हैं, ऐसे में ये युवा पीढ़ी अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही है। आज के मुस्लिम युवाओं की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्स्ािटी के वाइस चांसलर मुशीरुल हसन कहते हैं कि आज की परिस्थिति में मुस्लिम युवा खुद को लाचार और असहाय समझ रहे हैं। यह लाचारी उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरित कर रही है। यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है, इसे हमें हलके ढंग से नहीं लेना चाहिए। 2002 में गुजरात में जिस तरह से दंगे हुए और हत्याएँ हुईं, ऐसे ही दंगे यदि और होते रहे, तो मुस्लिम युवाओं में विद्रोह की आग और भड़केगी। मुस्लिम युवाओं में घर कर रही इसी असुरक्षा की भावना का कुछ लोग गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। आतंकवादियों की नई खेप में उच्च शिक्षा प्राप्त युवा हैं। आतंकवादी बन जाने में मेडिकल और इंजीनियर युवा सबसे अधिक है, दूसरी ओर वकालात करने वाले युवा आतंकवाद से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
अभी देश भर में हुए बम विस्फोट में जिन आतंकवादियों के नाम सामने आए हैं, उनमें से प्रमुख हैं मुफ्ती अबू बशीर, अब्दुल सुभान कुरैशी, साहिल अहमद, मुबीन शेख, मोहम्मद असगर, आसिफ बशीर शेख, ये सभी आतंकवादी अपने फन में माहिर हैं, इसके पीछे यही कारण है कि इन्होंने ये सारा ज्ञान अपनी समझ और शिक्षा से प्राप्त किया है। इनमें से अधिकांश ने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की है। जिस तरह से शिक्षा हासिल करने में ये पारंगत रहे, उसी तरह अपनी जिम्मेदारी को निभाने में भी ये अव्वल रहे। इन्हें आतंकवाद की ओर धकेलने के लिए इनकी मानसिकता ही जवाबदार है। जाने-माने शिक्षाशास्त्री और समाजशास्त्री यह मानते हैं कि आजकल मुस्लिम समाज में जातिवाद का जहर फैलाया जा रहा है। इसका सीधा असर इस समाज के विद्यार्थ्ाियों और युवाओं पर पड़ रहा है। भुलावे में डालने वाली इस करतूत का असर युवाओं में कट्टरवाद के रूप में हो रहा है। कट्टरवाद के बीज रोपने में उन्हें दी जाने वाली जातिवाद की शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसीलिए ये युवा अपना विवेक खो रहे हैं।
अपना नाम न बताने की शर्त पर इंटेलिजेंस ब्यूरो के भूतपूर्व अधिकारी अभी की स्थिति की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि आतंकवादियों की मनोदशा देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा और मानसिकता के बीच कोई संबंध नहीं है। 60 और 70 के दशक में प्रेसीडेंसी और सेंट स्टिफंस जैसी प्रतिष्ठित कॉलेज के विद्यार्थ्ाियों का रुझान नक्सलवाद की ओर बढ़ने लगा था। उसी तरह आज ये शिक्षित मुस्लिम सम्मानजनक वेतन की नौकरी छोड़कर आतंकवाद को अपनाने लगे हैं। आतंकवाद के प्रति इन युवाओं के आकर्षण के पीछे किसी वस्तु का अभाव नहीं है, किंतु एक निश्चित विचारधारा का प्रभाव जवाबदार है। इस तरह की स्थिति केवल भारत में ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज विश्व स्तर पर जो आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं, उसमें से अधिकांश मुस्लिम युवा उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। पिछले वर्ष ब्रिटेन के ग्लास्को एयरपोर्ट में हुए बम विस्फोट का जो आरोपी पकड़ा गया था, वह साबिल था, जो ब्रिटेन की एक अस्पताल में डॉक्टर था। इस विस्फोट में साबिल का भाई काफिल की मौत हो गई थी, यह इंजीनियरिंग में पी-एच.डी. था। साबिल ने बेंगलोर के बी.आर. अंबेडकर कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई की थी।
आज के भटके हुए मुस्लिम युवाओं पर गीतकार जावेद अख्तर कहते हैं कि आतंकवादी बनने का प्रचलन देश के लिए चिंता का विषय है। इनके पीछे कुछ राजनीतिक दलों का भी हाथ है, जो परदे के पीछे से अपना खेल खेल रहे हैं। सरकार को इस पर अंकुश लगाना चाहिए और उन युवाओं की तरफ ध्यान देना चाहिए, जिनके हालात बद से बदतर हो रहे हैं। सन 2004 में एक भूतपूर्व सीआईए एजेंट ने अलकायदा के 172 आतंकवादियों की पृष्ठभूमि पर शोध किया, इसमें उन्होंने पाया कि इनमें से अधिकांश आतंकवादी मध्यमवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय परिवार के उच्च शिक्षा प्राप्त युवा हैं। हाँ वकालत करने वाले मुस्लिम युवा इससे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आतंकवाद को देखने का नजरिया बदलना आवश्यक हो गया है। इसे अब लाचार और बेबस लोग नहीं अपनाते। पहले इन लाचारों की विवशता का लाभ उठाकर कुछ लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते थे, पर अब ऐसी बात नहीं है। अब तो इसमें उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं का समावेश हो गया है, जो पूरे होश-हवास के साथ अपने काम को अंजाम देते हैं। ऐसे लोग टीम वर्क से अपना काम करते हैं, जिसका परिणाम हमेशा खतरनाक रहा है। सरकार ने अपना रवैया नहीं बदला, तो संभव है कोई सिरफिरा 'ए वेडनेस डे' जैसी हरकत कर बैठे। सरकार को इसके लिए भी सचेत रहना होगा।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

आम जनता को नहीं मिला चुनावी तोहफा

नीरज नैयर
चुनावी समर में वादे, घोषणाएं और सौगातों की बरसात न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. सत्तासीन सरकार की दरयादिली चुनाव के वक्त ही नजर आती है. किसानों के कर्ज माफी, वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी और अभी हाल ही में सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतन में भारी-भरकम वृद्धि केंद्र सरकार की पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और आने वाले लोकसभा चुनाव में हित साधने की कवायद का ही हिस्सा है. लेकिन इस कवायद में आम जनता की अनदेखी का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है. महंगाई के आंकड़े खुद ब खुद राजनीति के शिकार होने की दास्तां बयां कर रहे हैं. जो मुद्रास्फीति चांद के पार जाने को आमादा थी वो चुनाव आते ही यकायक पाताल की तरफ कैसे जाने लगी यह सोचने का विषय है. वैसे सोचने का विषय न भी होता अगर बढ़े हुए दाम भी महंगाई दर के साथ नीचे आ जाते, पर अफसोस की ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में लगी आग और कंपनियों को हो रहे वित्तीय घाटे का हवाला देते हुए केंद्र सरकार कई बार पेट्रोल-डीजल के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि कर चुकी है. लेकिन अब जब कच्चा तेल 45 डॉलर प्रति बैरल पर सिमट गया है तब भी सरकार मूल्यों में कमी करके जनता के भार को हल्का करने की जहमत नहीं उठा रही. जब सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह स्वयं कह चुके हैं कि दाम नहीं घटेंगे तो फिर आम जनता को अपने चुनावी तोहफे की बांट जोहना छोड़ देना चाहिए. इसी साल 11 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमत 147.27 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी, इसके बाद सरकार ने मजबूरी प्रकट करते हुए पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी का ऐलान किया था. सरकार ने तर्क दिया गया था कि घाटा इतना बढ़ गया है कि कीमतें थाम पाना असंभव है. सरकार की योजना तो मार्च 2009 तक हर महीने पेट्रोल की कीमत में प्रति लीटर ढाई रुपये और डीजल में 2010 तक 75 पैसे वृध्दि की थी मगर वो उसमें सफल नहीं हो पाई. बीच में भी जब तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 65 डॉलर प्रति बैरल के नीचे पहुंच गई तब भी दाम घटाने की खबरों का सरकार ने खंडन किया था. तब कहा गया कि अभी पुराना घाटा ही पूरा किया जा सका है. यह भी कहा गया था कि तेल कंपनियां वास्तविक लाभ की स्थिति में तब आएंगी, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत 60 डॉलर पर पहुंच जाएगी, लेकिन अब तो कच्चा तेल सरकार द्वारा बताई गई कीमत से काफी नीचे आ गया है लेकिन केंद्र को अब भी परेशानी हो रही है. सरकार को डर है कि तेल की कीमत में फिर उछाल आ सकता है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में माना जा रहा है कि आने वाले दिनों मे कीमतें और नीचे जाएंगी. दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी से पूर्व यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं. लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. अमेरिका और यूरोपीय बाजारों में आर्थिक मंदी के चलते तेल की मांग घटने से ही कीमतों में गिरावट का रुख है और तेल उत्पाद देश पहले ही उत्पादन बढ़ा चुके हैं. दुनिया भर के तमाम विशेषज्ञ भी कह चुके हैं कि हाल-फिलहाल मंदी के महमानव से छुटकारा नहीं मिलने वाला ऐसे में तेल की कीमतों में इजाफा होने की बात बेमानी है. दरअसल सरकार का सारा ध्यान इस बात लोक-लुभावन घोषणाएं करके अपने पक्ष में माहौल बनाने पर है. इसलिए उसने विधानसभा चुनावों से ऐन पहले सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतनमानों में 300 फीसदी तक की बढाेतरी की है. तेल की राजनीति हमारे देश में शुरू से ही होती रही है. एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी कीमतों के घोड़े खूब दौड़ाए गये थे लेकिन गनीमत यह रहती थी कि सरकार ने रोलबैक का प्रावधान भी खोल रखा था. ममता बनर्जी के तीखे विरोध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को एक बार कदम कुछ वापस खींचने पड़े थे. सरकारें हमेशा तेल पर नुकसान का रोना रोती रहती हैं जबकि कहा जा रहा है कि एक लीटर पेट्रोल में उसे दस रुपये से ज्यादा का मुनाफा होता है. टैक्स की मार भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है जिसके चलते तेल उत्पादों की कीमतें अन्य देशों के मुकाबले ऊंची रहती हैं. मौजूदा हालात में जहां चीन ने पेट्रोल-डीजल कीमतों में कुछ कमी कर दी हमारी सरकार अत्याधिक मुनाफा कमाकर अपने चुनावी हित साधने में लगी है.
नीरज नैयर9893121591

सोमवार, 24 नवंबर 2008

श्रीलंका पर भारत की सोच सही

नीरज नैयर
श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ चल रहे अभियान का व्यापक असर देखने को मिल रहा है. लिट्टे अपने ही गढ़ में घिरते जा रहे हैं और श्रीलंकाई सेना उन्हें ढूढ़-ढूढ़कर मौत के घाट रही है. काफी वक्त के बाद किसी लंकाई राष्ट्रपति ने इस हद तक जाने की चेष्टा दिखाई है. महिंद्र राजपक्षे के कार्यकाल में लिट्टे के खिलाफ छेड़ा गया यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है. राजपक्षे लिट्टे के सफाए को दृढं संकल्पित नजर आ रहे हैं जो अमूमन अशांत रहने वाले श्रीलंका के लिए शुभ संकेत है. भारत सरकार भी लिट्टे के खात्मे को सही मान रही है इसलिए अपने सहयोगी दलों के हो-हल्ले के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महेंद्र राजपक्षे से महज इतना भर कहा कि तमिलों की सुरक्षा का ख्याल रखा जाए. उन्होंने संघंर्ष वीराम जैसी कोई शर्त श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की. इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि लिट्टे भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा है और उसने ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची थी. ऐसे में दम तोड़ रहे लिट्टे के खिलाफ किसी तरह की नरमी सरकार की छवि को प्रभावित कर सकती थी. लेकिन मनमोहन सिंह ने बड़ी सूझबूझ के साथ काम लिया. एक तरफ वो द्रमुक आदि दलों की मांग को श्रीलंका सरकार के सामने रखकर उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हम भी आप की चिंता से चिंतित हैं वहीं दूसरी तरफ लंकाई सेना के अभियान पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त न करके उन्होंने यह भी जता दिया कि भारत श्रीलंका के साथ है. तमिलनाडु के राजनीतिक दल शुरू से ही यह समझते रहे हैं कि लिट्टे से जुड़े तमिल उनके भाई बंधू हैं, इसलिए लिट्टे के पक्ष में वहां से तरह-तरह की खबरें सामने आती रहती हैं. अभी हाल ही में लिट्टे के समर्थन को लेकर प्रमुख राजनीतिक दल के नेता को हिरासत में भी लिया गया था. कुछ राजनीतिक पार्टियां जैसे पीएमके, टीएनएम, दलित पैंथर्स आफ इंडिया ने भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पृथक तमिल राष्ट्र बनाने में मदद करने का अनुरोध भी किया था. इन सियासी दलों का यह मानना है कि श्रीलंकाई सेना निर्दोष तमिलों को मार रही है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. हां इतना जरूर है कि तमिल बहुसंख्य वाले इलाकों में चल रहे युद्व के कारण लाखों तमिल शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं. लेकिन इसे गलत नजरीए से नहीं देखा जा सकता. पंजाब में आतंकवाद का सफाया करने के लिए सुपरकॉप केपीएस गिल ने जिस तरह की रणनीति अपर्नाई थी उसे लेकर भी काफी आलोचना हुई थी मगर अंजाम आज सबके सामने है. लिट्टे श्रीलंका के लिए ऐसी समस्या बन गये हैं जिसने वर्षों तक देश को आगे नहीं बढ़ने दिया. गृहयुद्व की स्थिति के चलते न तो आर्थिक मोर्चे पर श्रीलंका को कोई खास सफलता हासिल हुई और न ही विश्व मंच पर वो अपनी दमदार पहचान बना पाया. उल्टा उसे कई बार वैश्विक समुदाय के दबाब का सामना जरूर करना पड़ा. हर रोज चलने वाले युद्व की वजह से वहां हालात यह हो गये हैं कि मुद्रास्फीति की दर 25 फीसदी की रफ्तार कायम किए हुए है. कुछ वक्त पहले श्रीलंका क्रिकेट र्बोर्ड ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड से आर्थिक सहायता की मांग भी की थी. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है. लंकाई सरकार को हर साल लिट्टे से संघर्ष के लिए एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ रही है. जिसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है. 2002 में लिट्टे और सरकार के बीच हुए संघर्ष वीराम के बाद काफी हद तक स्थिति संभलती नजर आ रही थी लेकिन जल्द ही सबकुछ हवा हो गया. श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र बनाने की मांग और विवाद का सिलसिला काफी पुराना है. श्रीलंका की आजादी से पूर्व जब अंग्रेजों ने चाय और कॉफी की खेते के लिए तमिलों को यह बसाना शुरू किया तो सिंहलों के मन यह डर घर करने लगा कि कहीं उन्हें अपने ही देश में अल्पसंख्यक न बना दिया जाए. श्रीलंका में सिंहल आबादी तमिलों की अपेक्षाकृत अधिक है. इसलिए उनका विरोध भी प्रभावशाली रहा. 1948 में श्रीलंका की आजादी के बाद सत्ता सिंहला समुदाय के हाथ आई और उसने सिंहला हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. सिंहला भाषा को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाया गया, नौकरियों में सबसे अच्छे पद सिंहला आबादी के लिए आरक्षित किए गये. 1972 में श्रीलंका में बौद्व धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित करने के साथ ही विश्वविद्यायलों में तमिलों के लिए सीटें घटा दी गई. अपने खिलाफ हो रहे सौतेले बर्ताव से तमिलों को धैर्य जवाब देने लगा और उन्होंने देश के उत्तर एवं पूर्वी हिस्सों में स्वायत्तता की मांग करनी शुरू कर दी. इसके बाद दोनों तरफ से खूनी संघर्ष का दौर शुरू हुआ. जिसने 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) को जन्म दिया. 1977 में सत्ता में आए जूनियस रिचर्ड जयवर्धने ने मामले को संभालने की काफी कोशिश की. उन्होंने तमिल क्षेत्रों में तमिल भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया, स्थानीय सरकारों में तमिलों को ज्यादा अधिकार दिए लेकिन सारे प्रयास नाकाफी साबित हुए. बात उस वक्त और बिगड़ गई जब 1983 में लिट्टे ने सेना के एक गश्ती दल पर हमला कर 13 सैनिकों को मार डाला. इसके बाद सिंहला उग्र हो गये और उन्होंने अगले दो दिनों तक जमकर हमले किए जिसमें हजारों तमिलों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद जब हालात हद से ज्यादा बेकाबू हो गये तो 1987 में श्रीलंका ने भारत के साथ समझौता किया जिसके तहत उत्तरी इलाकों में भारतीय शांति सेना कानून व्यवस्था पर नजर रखेगी. भारतीय सेना की मौजूदगी में लिट्टे संघर्ष वीराम के लिए तैयार हो गये थे लेकिन उसके एक गुट स्वतंत्र राष्ट्र की मांग दोबारा उठाकर मामले को फिर भड़का दिया. 1990 में शांति सेना वापस लौटी और 1991 में लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या करके भारतीय हस्तक्षेप का बदला निकाल लिया. इसके बाद 1993 में लिट्टे के अलगाववादियों ने श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा की भी हत्या कर डाली. चंद्रिका कुमारतुंगे के शासनकाल में भी इस समस्या के निपटारे के लिए बहुतरे प्रयत्न किए गये मगर कोई सार्थक परिणाम निकलकर सामने नहीं आए. 1995 में लिट्टे के संघर्ष वीराम का उल्लंधन करने के बाद सेना ने उसके खिलाफ कार्रवाई और तेज कर दी और मामला बढ़ता गया. इतने सालों तक खून की होली खेलने वाले लिट्टे के सफाए के लिए श्रीलंका सरकार अभियान चला रही है तो द्रमुक जैसी पार्टियों के पेट में दर्द हो रहा है, उन्हें लग रहा है कि भारत इस मामले में वैसा विरोध क्यों नहीं दर्ज करा रहा जैसा उसने बांग्लादेश और मालदीप में कि या था. लिट्टे कहते हैं कि उन्हें तमिलों का समर्थन प्राप्त है अगर ऐसा है तो उन्हें बंदूक छोड़कर चुनावी मैदान में उतरना चाहिए. अगर उन्हें अपनी जीत का भरोसा है तो फिर वो ऐसा करने से डर क्यों रहे हैं. यह बात सही है कि यह विवाद भी भेदभाव और पक्षपातपूर्ण सोच के कारण ही उबरा मगर आज इसने विकृत रूप अख्तियार कर लिया है, इसलिए सहानभूति, नरमी और तरस जैसे शब्दों के साथ इसे नहीं तोला जा सकता. समस्या के निपटारे के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा जो रणनीति अपनाई जा रही है वो उसका आंतरिक मामला है और उसमें किसी भी तरह की दखलंदाजी की गुंदाइश नहीं है.

नीरज नैयर
9893121591

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

नारी देह पर लपलपाती निगाहें

डॉ. महेश परिमल
गुजरात के पाटण पी.टी.सी. कॉलेज में 6 प्रोफेसरों द्वारा एक छात्रा के साथ किए गए सामूहिक अनाचार के बाद देश भर की शैक्षणिक संस्थाओं में सन्नाटा छा गया है। वैसे तो हम सभी शालाओं को सरस्वती मंदिर मानते हैं, पर उसी मंदिर में नराधमों की नियुक्ति होती है, जहाँ ये अध्यापन के अलावा कुछ ऐसा अवश्य करते हैं, जिससे समाज कलंकित होता है। शिक्षक याने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान हमारे पुराणों में दिया गया है, वही गुरु आज अपनी शिष्याओं के साथ इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं, जिससे पूरा शिक्षक वर्ग लाित है। समझ में नहीं आता कि जब घर में एक नौकर को रखा जाता है, तब उसके बारे में सारी जानकारी इकट्ठा की जाती है, उसके चरित्र की पड़ताल करने से लोग नहीं चूकते, पर एक शिक्षक की नियुक्ति के समय केवल उसकी अंक सूची ही देखी जाती है। उसकी प्रतिभा के आगे उसके चरित्र को परखने की कोशिश कोई नहीं करता। यही हमारी शिक्षण पध्दति का सबसे बड़ा दोष है।
आज शिक्षा जगत में ऐसे लम्पट शिक्षकों की संख्या बहुत ही अधिक है, जो अध्यापन को छोड़कर स्कूल-कॉलेज में आने वाली छात्राओं पर लपलपाती निगाहें रखते हैं। जहाँ भी उन्हें अवसर मिलता है, वे छात्राओं की विवशता का लाभ लेने से नहीं चूकते। सबसे बड़ी बात तो यह है कि शालाओं में आजकल दूसरे कर्मचारी भी इस तरह के कार्य में शामिल हो रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि उन्हें भी शिक्षकों से पूरा संरक्षण मिल रहा है। छात्राओं का शाला या कॉलेज में कहीं भी अध्यापकों के साथ अकेले में बातचीत करना भी मुश्किल हो गया है। आखिर छात्राओं की शाला में पुरुष अध्यापकों की नियुक्ति ही क्यों की जाती है? अब इस दिशा में गुजरात सरकार ने घोषणा करते हुए कहा है कि छात्राओं की जिन कॉलेजों में पुरुष शिक्षक नियुक्त हैं, उनका 5 वर्ष बाद तबादला कर दिया जाएगा। इसका आशय यही हुआ कि प्राध्यापक 5 वर्ष तक पढ़ाने के बाद ही अनाचार की कोशिश कर सकते हैं, उसके पहले नहीं?
पुराने जमाने में गुरु जब अपने शिष्यों को स्नातक की डिग‎‎्री देते थे, तब केवल उसकी प्रतिभा ही नहीं, बल्कि उसके चारित्र्य, व्यवहार, चाल-चलन, सदाचार, धैर्य, दया, करुणा और क्रोध आदि को परखने के विभिन्न उपाय करते। आज के पालक अपने बच्चों को ऐसे शिक्षकों के हाथों सौंप रहे हैं, जिनके पास प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, पर उसके चरित्र के बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं करते। आज के पाठयक्रम में इतने सारे विषय हैं, इसमें नए-नए विषयों को शामिल किया जा रहा है, फिर भी अभी तक कहीं सुनने को नहीं मिला कि पाठयक्रम में सदाचार, धैर्य, सदाचार का नीतिशास्त्र शामिल किया गया हो। आज की शिक्षण पध्दति का सबसे बड़ा दोष यही है कि सब कुछ पढ़ाया जा रहा है, पर वह नहीं, जिससे चरित्र बनता हो, जिससे आत्मा को शांति मिलती हो, आदर, सम्मान, प्रेम और प्यार बढ़ता हो, स्नेह की गंगा बहती हो। सब कुछ इतना आधुनिक होने लगा है कि ऐसी बातें करना भी बेमानी होने लगा है।
आज की शिक्षा पध्दति में कहीं भी धर्म, नीति, सदाचार, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, आत्मा, मोक्ष, ईश्वरभक्ति, अतिथि-सत्कार, विनय, विवेक, श्रम, आत्मनिर्भरता, देश-भक्ति आदि का कहीं भी ािक्र नहीं है। इन विषय के अभाव में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी जितने भी अच्छे अंक लाएँ, उनकी शिक्षा अधूरी है। जिन्हें सदाचार और नीति की जानकारी नहीं है, वे इस भौतिकतावादी शिक्षा को ग्रहण करने के बाद यदि चिकित्सक बन भी जाएँ, तो वे मरीजों से धन लूटने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि चिकित्सकीय शिक्षा में उन्हें कहीं भी यह नहीं पढ़ाया जाता कि जो मजबूर हैं, उनका इलाज मुफ्त में किया जाना एक चिकित्सक का धर्म है। ऐसी शिक्षा ग्रहण करने वाले यदि वकील बन जाएँ, तो वे आरोपियों को असत्य कहने के लिए ही विवश करेंगे, क्योंकि उन्हें सत्य का पाठ तो पढ़ाया ही नहीं गया है। यही कारण है कि आज की शिक्षा को ग्रहण करने वाले विद्यार्थी शिक्षक बनकर अपनी शिष्या से ही अनाचार कर रहे हैं। दूसरी ओर कॉलेज में प्रोफेसरों की नियुक्ति होती है, तो केवल उनकी प्रतिभा को ही देखा जा रहा है, उसके चरित्र से प्र्रबंधन को कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसे में अव्यवस्था तो फैलेगी ही, इस दुष्परिणाम भी सामने आ रहा है।
आज जमाना बहुत ही खराब हो गया है। अब वह समय नहीं रहा कि शाला में पढ़ने वाली बिटिया को शिक्षक के भरोस छोड़ दिया जाए। हर जगह महिलाओं को समान अधिकार देने वाली सरकार कन्याओं की शाला में पुरुष शिक्षकों की नियुक्ति ही क्यों करती है, यह एक विचारणीय प‎‎्रश्न है। केंद्र सरकार के महिला एवं बालविकास मंत्रालय ने पिछले वर्ष अप्रैल माह में 13 रायों के 12 हजार 447 विद्यार्थियों से मिलकर यह जानने की कोशिश हुई कि समाज में उनके साथ किस प‎‎्रकार का व्यवहार किया जाता है, तो 53 प्रतिशत विद्यार्थियों ने बताया कि उनके साथ छेड़छाड़ या उनका यौन शोषण किया जाता है। इन कार्य में विद्यार्थियों के स्वजन, रिश्तेदारों के अलावा शिक्षक भी शामिल थे। आश्चर्य इस बात का है कि इस तरह का दुष्कर्म केवल छात्राओं ही नहीं, बल्कि किशोरों के साथ भी हुआ था। पुरुष शिक्षकों की लपलपाती निगाहें हमेशा सुंदर कन्याओं या फिर किशोरों पर टिकी होती हैं, जहाँ कहीं भी मौका मिला, ये शिक्षक अपनी काली करतूत कर दिखाते हैं।
आज देश में जो शिक्षा माफिया हावी है, उसके तहत ये पुरुष शिक्षक अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अधिकांश निजी शिक्षा संस्थाओं में जब भी किसी शिक्षिका की नियुक्ति की जाती है, तब उसे कई मानसिक यंत्रणाओं से होकर गुजरना पड़ता है। एक नियुक्ति के पीछे कई कहानियाँ होती हैं, पर वह बाहर नहीं आ पाती। जब कोई बड़ा हादसा होता है, तभी पता चलता है कि ऐसा हो रहा था। जैसा कि अब गुजरात में शिक्षकों द्वारा कथित रूप में कन्याओं के साथ अनाचार या छेड़छाड़ के मामले सामने आ रहे हैं। छात्राओं के साथ सबसे बड़ी बात यह होती है कि वे शमर् र् के कारण या फिर बदनामी के कारण कुछ कह नहीं पातीं। कई बार तो मामला सीधे उनके भविष्य से जुड़ा होता है, इसलिए वे खामोश रहकर शिक्षकों का कथित रूप से अत्याचार सहन करती रहती हैं। छात्राओं की इन्हीं विवशताओं का भरपूर लाभ ये लम्पट शिक्षक उठाते हैं। यह बात भी सामने आई है कि शिक्षक कई बार युवतियों के शोषण में बड़े लोगों को भी शामिल कर लेते हैं, जिससे भविष्य में कोई गड़बड़ हो, तो ये उन्हें बचाने में मदद कर सकें। अधिकांश मामलों में ऐसा ही होता है और हो भी रहा है।
पते की बात यह है कि आज शिक्षा पूरी तरह से व्यावसायिक हो गई है, इसमें चरित्र शिक्षा का नामोनिशान भी नहीं है। शिक्षक भी व्यावसायिक हो गए हैं। इसलिए उनकी हरकतें भी समाज को कलंकित करने वाली हो गई हैं। इस स्थिति में पालकों को यह समझना होगा कि अपने बच्चों को शाला या कॉलेज में प्रवेश दिलाने के पहले यह अवश्य देख लें कि वहाँ के शिक्षक किस तरह के हैं? वहाँ के परिणाम का प्रतिशत न देखें, बल्कि वहाँ होने वाली शैक्षणिक गतिविधियों पर बारीक नजर रखें। घर में बच्चों को यह अवश्य सिखाया जाए कि स्कूल-कॉलेज में उन पर होने वाली तमाम हरकतों का वे अपने पालकों को अवगत कराएँ। ताकि समय रहते उसका समाधान किया जा सके। सरकार इस दिशा में कोई कड़े कदम उठाए, उसके पहले पालकों को ही सचेत होना होगा, तभी लम्पट शिक्षकों की हरकतों पर अंकुश रखा जा सकता है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

चुभती निगाहों में कैद मासूम


डॉ. महेश परिमल
आजकल सेक्स एजुकेशन की बड़ी चर्चा है। हर तरफ यही माँग उठ रही है कि बच्चों को स्कूल में सेक्स की शिक्षा दी जाए। कई लोग इसके खिलाफ आवाज भी उठा रहे हैं। लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि शालाओं में यौन शिक्षा नहीं, बल्कि योग शिक्षा दी जाए। इस विशय पर सभी सम्प्रदायों का अलग-अलग मत है। इसका दूसरा पहलू यह है कि आज जिस तरह से शालाओं में शिक्षकों, प्राचार्यों और वहाँ के कर्मचारियों द्वारा बच्चों का जो यौन शोषण किया जा रहा है, उसे देखते हुए यदि शालाओं में यौन शिक्षा दी जाएगी, तो यह मुद्दा एक विकृति के रूप में जिस तरह से सामने आएगा, उससे तो समाज का सर शर्म से झुक जाएगा।
केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी आजकल इसी बात से चिंतित हैं कि देश के 9 राज्यों ने शालाओं में यौन शिक्षा देने के लिए मना कर दिया है। दूसरी ओर उन्हें इस बात की भी चिंता है कि देश की राजधानी नई दिल्ली की एक प्रतिश्ठित शाला के शिक्षक ने शाला के ही दो कर्मचारियों के साथ मिलकर दस साल के एक छात्र के साथ दुष्कर्म किया। यही नहीं उस छात्र को यह धमकी भी दी गई कि इसकी चर्चा किसी से भी न करे, अन्यथा उसे जान से मार डाला जाएगा। राजधानी के हडसन रोड पर स्थित इस कांवेंट स्कूल के इस विद्यार्थी पर लगातार तीन महीने तक अत्याचार होता रहा।जब विद्यार्थी के माता-पिता को इसकी जानकारी हुई, तब उन्होंने इसकी शिकायत स्कूल के चेयरमेन से की, किंतु उन्होंने पालकों की इस शिकायत को अनदेखा कर दिया। इसकी वजह यही थी कि इस मामले में चेयरमेन का पुत्र भी शामिल था।चूँकि इस चेयरमेन की पहुँच काफी ऊँची थी, इसलिए पुलिस ने भी शिकायत दर्ज नहीं की।उसने भी मामले की रिपोर्ट लिखने से साफ मना कर दिया। अंतत: हारकर पालक केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी से मिले। इसके बाद प्रशासन में हरकत आई और दो आरोपियों की धरपकड़ की गई। तीसरा आरोपी अभी फरार है। आश्चर्य इस बात का है कि पकडे गए दो आरोपियों को जमानत पर छोड़ भी दिया गया है। इस मामले की जाँच के लिए महिला बाल विकास मंत्री ने एक समिति का गठन भी किया है।
एक तरफ केंद्र सरकार शालाओं में यौन शिक्षा देने पर लगातार जोर दे रही है, तो दूसरी तरफ देश के अनेक भागों में शिक्षकों द्वारा बच्चों के यौन शोषण की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। इस तरह की विकृत मानसिकता वाले शिक्षकों पर यदि यौन शिक्षा का भार सौंपा जाएगा, तो स्थिति कितनी भयावह होगी, इससे शायद ही कोई वाकिफ होगा। केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा ही इस वर्ष के अप्रेल माह में 5 से 12 वर्श के विद्यार्थियों के साथ होने वाले यौन शोषण पर एक सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण में देश के 12 राज्यों के 12 हजार 447 विद्यार्थियों से बात की गई। इसमें चौंकाने वाली यह बात सामने आई कि 53 प्रतिशत बच्चों ने कहा था कि उनका घर या स्कूल में यौन शोषण किया गया था। इसमें से 21.90 प्रतिशत ने तो स्वीकार किया कि उनके साथ बलात्कार या फिर अन्य तरह का यौन शोषण हुआ है। यौन शोषण के 70 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि वे तो इस हादसे से इतना घबरा गए थे कि अपने साथ हुए अत्याचार की जानकारी उन्होंने किसी को नहीं दी। हमारे देश की स्कूलों में जब इस तरह का वातावरण है, तो इस स्थिति में यौन शिक्षा का भार इस तरह के शिक्षकों को कैसे दिया जा सकता है?
नई दिल्ली में यौन शोषण की घटना जब प्रकाश में आई, उसके तीन दिन पहले ही चेन्नई की एक शाला में पढ़ने वाली सात वर्ष की मासूम के साथ उसी स्कूल के एक शिक्षक द्वारा बलात्कार करने का मामला प्रकाश में आया। इस शिक्षक पर इसके पहले भी इस तरह के आरोप लगाए गए थे, किंतु शाला प्रशासन द्वारा इस दिशा में ध्यान न दिए जाने के कारण मामला दब गया।ठीक इस तरह का मामला पिछले सप्ताह ही अहमदाबाद के मणिनगर में नेल्सन स्कूल के एक ड्राइंग टीचर अरुण तलाटी द्वारा दस वर्श्र की मासूम से शारीरिक कुचेष्टा करने की खबर सामने आई है।इस शिक्षक का पुराना रिकॉर्ड भी ठीक नहीं रहा है, उसके बाद भी शाला प्रशासन ने उसके चरित्र को अनदेखा कर उसे नौकरी पर रख लिया।इस तरह के मामलों में ऐसा ही होता आया है कि शाला प्रशासन हमेशा अपने शिक्षकों को बचाने के फिराक में होता है।स्पश्ट है कि इससे शाला की बदनामी होगी और पालक अपने बच्चों को अन्य शालाओं में भर्ती कर देंगे। नई दिल्ली की ही एक और घटना है जिसमें वहाँ की प्रतिश्ठित मीरांबिका स्कूल के एक चार वर्श के मासूम के साथ मनीश कुमार नाम के एक शिक्षक ने दुष्कर्म किया था। इस मासूम की माँ सामाजिक कार्र्यकत्ता थी, जब उसे अपने बच्चे के साथ होने वाले इस दुष्कर्म की जानकारी हुई, तब उसने इसकी शिकायत स्कूल के प्राचार्य से की, तो उसने शिकायत सुनने से ही इंकार कर दिया, आखिर पुलिस थाने में इसकी रिपोर्ट की गई, तब उस शिक्षक की धरपकड की गई। स्कूल में पढने वाली 16 व की छात्रा के साथ बलात्कार का उदाहरण मुम्बई की एसआईएस हाईस्कूल में देखने को मिला। इस स्कूल के सूर्यनाथ यादव नामक शिक्षक ने 6 वर्ष की एक कन्या से बलात्कार किया, इसके बाद भी उस शिक्षक की नौकरी जारी रही। मामला जब अदालत पहुँचा, तब सेशन जज ने बलात्कारी शिक्षक को सात वर्ष की कैद और दो लाख रुपए जुर्माना किया, तब कहीं जाकर उक्त शिक्षक को बर्खास्त किया गया। ऐसे शिक्षकों द्वारा जब यौन शिक्षा दी जाएगी, तो बच्चों का क्या होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
भारतीय संस्कृति में शिक्षक को ईश्वर का स्वरूप माना गया है।उक्त घटनाओं से यह धारणा तो निर्मूल ही साबित हुई है। कितने विश्वास के साथ माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए शाला में भेजते हैं, यदि वहाँ जाकर बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं, तो फिर भला किस पर विश्वास किया जाए? दो वर्ष पहले ही रघुवीर नगर की एक शाला में प्रिंसीपाल ओमप्रकाश शर्मा ने अपनी ही शाला की दसवीं की छात्रा से बलात्कार किया। यह छात्रा दसवीं में अनुत्तीर्ण हुई थी और टयूशन के लिए प्राचार्य के घर जाती थी। प्राचार्य उसे खरीदी करने के बहाने एक गेस्ट हाउस में ले गया था, जहाँ चार पुरुषों ने उस छात्रा का बलात्कार किया।फिर छात्रा को उसके घर छोड़ दिया। इस घटना से दिल्ली में उग्र प्रदर्शन भी हुए।
ऐसा नहीं है स्कूल जाने वाली सभी छात्राएँ यौन शोषण का शिकार होती हैं, पर यह भी सच है कि अधिकांश छात्राएँ शाला में पुरुष शिक्षकों की विकृत मानसिकता की शिकार अवश्य होती हैं। दिल्ली की झोपड़पट्टियों में काम करने वाली संस्था '' नवसृष्टि'' का कहना है कि पालकों द्वारा अपनी 10 से 12 वर्र्ष की बच्चियों को स्कूल न भेजने के पीछे यही कारण है। शालाओं में पढ़ने वाली छात्राओं के लिए ''किशोरी प्रोजेक्ट'' सामने आया था, इस प्रोजेक्ट में भाग लेने वाली अधिकांश छात्राओं का कहना था कि पुरुश शिक्षकों द्वारा उनके शरीर पर अनावश्यक रूप से हाथ फेरा जाता है। आज तो हमारे देश में नौकरी करने वाली महिलाएँ भी सुरक्षित नहीं हैं। वहाँ भी वे महिलाएँ अपने आपको बचाए रखने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं। ठीक उसी तरह अब छात्र-छात्राओं के लिए स्कूल भी असुरक्षित हो गया है। अब तो केवल शिक्षक ही नहीं, बल्कि अन्य कर्मचारी भी इस कार्य में शामिल होने लगे हैं। '' शिक्षा सबके लिए '' योजना के अनुसार भारत की 20 प्रतिशत शालाओं में केवल एक ही शिक्षक है। इसमें से 18 प्रतिशत मात्र पुरुष शिक्षक ही हैं। जब ऐसे पुरुष शिक्षक जब हैवान बन जाएँ, तो मासूमों की क्या हालत होती होगी, इसे कौन समझेगा ? इन तथ्यों के बाद भी यदि शालाओं में यौन शिक्षा देने के लिए सोचा जा रहा है, तो एक बार इस विकृति की तरफ भी विचार किया जाए, तभी बात बनेगी।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 19 नवंबर 2008

एक सड़क की छटपटाहट


राकेश ढौंडियाल
नैनीताल के नाम
उत्तराखंड आन्दोलन जब अपने चरम पर था तब मैंने यह लेख लिखा था । प्रभाकर क्षोत्रिय जी ने इसे 'वागर्थ' में रम्य रचना के नाम से छापा । जिस क़स्बेनुमा शहर का ज़िक्र इसमें किया गया है - उसका नाम है नैनीताल । उत्तराखंड की स्थापना के सात साल बाद भी पहाड़ और ख़ासकर नैनीताल की स्थिति कमोबेश वैसी ही है जैसी इस लेख को लिखते समय थी …

सड़क

वह सड़क सिर्फ़ एक मील लंबी है और वह सिर्फ़ सड़क नहीं है । ऐसा नहीं कि उस एक मील की लंबाई के दोनों सिरों पर खाइयाँ हैं अलबत्ता दोनों सिरों पर उसकी प्रकृति ज़रूर बदल जाती है और साथ ही साथ नाम भी । वह एक मील किसी ख़ास मुकाम तक नहीं पहुँचाता बल्कि वह हर वक्त लोगों को, ज़िन्दगी को पकड़ने की कोशिश में लगा रहता है । अंग्रेज़ों के ज़माने में उसे मॉल रोड कहते थे । आज़ादी के बाद उसका नाम बदल दिया गया हालांकि नाम बदल जाने से वो सड़क बिल्कुल भी नहीं बदली । पहले की तरह ही उसे एक तरफ से नीली झील लगातार भिगोती रही और दूसरी तरफ एकदम चढ़ाई वाला पहाड़ ज्यों का त्यों खड़ा रहा । सड़क के बीच और किनारे चिनार और पाँगड़ भी वैसे के वैसे ही खड़े रहे ।

जब से मैंने होश संभाला तभी से हर शाम मल्लीताल से तल्लीताल तक की इस एक मील की दूरी को मापने की आदत सी लग गई थी । वैसे यह उस क़स्बेनुमा शहर की अपनी ख़ास संस्कृति भी कही जा सकती है । वहाँ के लगभग सभी लोग शाम को किसी न किसी बहाने मॉल पर उतर ही आते हैं । विशुद्ध रूप से घूमने न सही, सब्ज़ियाँ ख़रीदनी हों या भले ही मंदिर जाना हो लेकिन मॉल का एक चक्कर तो तयशुदा है । झील ने किनारे-किनारे लाठी लिए हुए कुछ अत्यन्त वृध्द लोग भी घूमते मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगेगा कि कोई अदृश्य शक्ति ही इन्हे चला रही है लेकिन वह शक्ति मेरे लिए दृश्य है । किसी ज़मीन की तासीर होती है कि आप कितना भी चलें, थकेंगे नहीं, कुछ ऐसी ही ज़मीन पर बनी सड़क है वह । मॉल पर घूमने का जुनून देखना हो तो बरसात या सर्दियों में देखिए । जब वहाँ सात-सात दिनों तक लगातार बारिश होती रहती है, तब भी मॉल के दीवानों के हौसले कतई पस्त नहीं होते, हाँ छतरियाँ उनके साथ जरूर जुड़ जाती हैं । बर्फ वाले दिनों, अकड़ी अंगुलिओं से मूंगफली ठूँगते हुए ये लोग उसी सहज भाव से घूमते मिलेंगे ।

एक अजीब सा भावनात्मक रिश्ता है मेरा उस सड़क के साथ और न जाने कितनी स्मृतियाँ उससे जुड़ी है....... बपचन से बेरोज़गारी तक की । वाटर बॉल, सॉफ्टी, भुट्टे, गुब्बारे....... । प्रभातफेरियाँ, परीलोक से आई तितलियाँ....... । गुदगुदी, फिकरे......। राजनीति थिएटर और दर्शन पर गरमागरम बहसें और निराशा भरी कविताओं वाले दिन ।

वह सड़क ज़िन्दगी का पर्याय न सही लेकिन उससे ज़िन्दगी चिपकी हुई ज़रूर है और उसके बल पर कई ज़िन्दा भी हैं - भुट्टे वाले रेस्तराँ वाले, होटल वाले, रिक्शेवाले , ट्रैवल एजेंसी वाले और कई तरह के पहाड़ी तोहफों की दुकानदारी करने वाले । भले ही मैं उस सड़क से सैकड़ों मील दूर होऊँ, अवसाद के क्षणों में मैं उस पर पहुँच ही जाता हूँ और हर बार एक नई शक्ति लेकर लौटता हूँ ।

इस बार ठीक चार साल बाद उस क़स्बेनुमा शहर लौटने का मौका मिला है । काठगोदाम से जैसे ही बस ने पहाड़ों पर चढ़ना शुरू किया, बस के साथ-साथ मेरा दिमाग़ भी हिचकोले खा रहा है । पता नहीं कैसी होगी वो सड़क...... न जाने क्या-क्या बदल गया होगा....... देखता हूँ इस बार तल्लीताल से मल्लीताल तक सड़क पर कितने परिचित मिलते हैं - वैसे वहाँ अब साथ वाला शायद ही कोई मिले...... नौकरी की तलाश में बी.ए. करते ही तो भागने लगे थे सब के सब...... मेरे आकाशवाणी में निकलने से पहले कितना अकेलापन महसूस करने लगा था मैं वहाँ ...... ऐसे में मेरी सबसे अच्छी मित्र वो सड़क ही तो थी...... मैं जब जब उस पर अकेला घूमता, उदास होता तो वह मुझे बहलाती, मुझसे बातें करती...... ''याद हैं तुम्हें उस दिन यहाँ पर ऐसा हुआ था........।'' बस लंबे मोड़ पर घूमकर तल्लीताल 'डाट' पर लग गई है । डाट यानि जहाँ से तालाब का पानी ख़तरे के निशान से ऊपर हो जाने पर निकाला जाता है और डाट यानि उस शहर का स्टेशन । डाट से तल्लीताल से मल्लीताल तक की वह सड़क पूरी की पूरी दिखाई देती है और जब पानी ठहरा हो तो उसका अक्स भी । आज अक्स के साथ-साथ सड़क भी ठहरी हुई है । सारी नावें किनारों पर लगी हैं और झील का पानी जमा हुआ सा दिखता है । मुझे मालूम था कि लोग उत्तराखंड और पहाड़ों की अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं फिर सर्दियाँ तो हैं ही । ऐसे मैं सैलानी निश्चित रूप से ही नही के बराबर होंगे, जानता था, किंतु ऐसे सन्नाटे की उम्मीद न थी । इन वर्षों में मैं उस शहर की तरक्की से भी नावाकिफ़ था । हाँ, चिठ्ठियों के ज़रिए यह ज़रूर जानता था कि कष्मीर जाने वाले ज्यादातर सैलानी इधर का रुख करने लगे हैं इसलिए इस बीच काफ़ी होटल बन गए हैं । लेकिन आज मैंने खुद अपनी ऑंखों से पहाड़ की फटी छाती देखी । जहाँ देवदार और बाँज बसते थे वहाँ कंक्रीट के रंग बिरंगे कुकुरमुत्ते उग आए थे । फटी छाती का मलवा बारिश में बहकर सड़क पर उतर आया था । हड़ताल और बंद के दौर में सफ़ाई नहीं हुई होगी, जगह-जगह मलवे और कूड़े के ढेर लगे थे । मुझे याद है कि आगरा में ताजमहल के आसपास की सफ़ाई की बात को लेकर एक गाइड ने वहाँ मुझसे कहा था कि मेरे शहर जैसी साफ़ सड़कें उसने कहीं नहीं देखी । उसका अभिप्राय मॉल रोड से ही था । तब मुझे बहुत फ़क्र हुआ था अपने क़स्बेनुमा शहर पर । गंदगी से ढकी वही सड़क आज बेजान सी लेटी थी । उस पर न भुट्टे वाले थे न मूंगफली वाले, न रिक्शे वाले न होटल के गाइड । कुछ इक्के-दुक्के लोग थे जो निश्चित तौर पर किसी न किसी काम के सिलसिले में ही निकले होंगे । उनके चेहरों पर अनिश्चितता और दहशत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती थी । मुज़फ्फ़नगर वाली घटना को बीते लगभग तीन माह होने को आए लेकिन लगता है कि कल ही इन लोगो ने सबकुछ अपनी ऑंखों के आगे घटता देखा है । उत्तराखंड के लिए लड़ने वाले लोगों पर हुए अत्याचार के संबंध में अख़बारों में पढ़ा ज़रूर था लेकिन उसे महसूस नहीं कर पाया था । आज कुछ अंदाज़ा लगा पाया हूँ । लगभग चौथाई सड़क पार कर चुका हूँ लेकिन अभी तक कोई परिचित नहीं मिला । मोड़ पर घूमते हुए मेरी नज़र झील पर है - पानी उसी तरह जमा हुआ सा दीखता है । नज़रें वापस सड़क पर लौटती हैं और मैं बुरी तरह चौंक पड़ता हूँ । सामने सड़क के बगल में पहाड़ को काटकर बनाए गये तीन चार मंज़िले होटलों की कतार खड़ी है । मैंने याद किया यहाँ पर पांगड़ को पेड़ों का झुरमुट हुआ करता था । अक्टूबर के महीने में जब पत्ते गिरते तो सड़क पर पीले रंग का कार्पेट सा बिछ जाया करता था । इसी सड़क पर घूमते समय एक बार दादाजी ने बताया था ''भव्वा तुझे मालूम है, अंग्रेज़ों के टाइम मॉल रोड में ट्रक नहीं चल सकते थे । भारी गाड़ियों को वो तल्लीताल में ही रुकवा देते थे और मॉल रोड के ऊपर वे जो पहाड़ है ना, शेर का डाँडा,' इस पर कोई मकान नहीं बना सकता था और जो ज़रूरी थे वो लकड़ी के बनाए जाते थे ताकि पहाड़ पर और इस सड़क पर ज़ोर न पड़े ।'' दादाजी की वह बात शायद इसलिए याद हो गई क्योंकि तब मुझे बहुत अटपटा सा लगा था कि इतने बड़े पहाड़ पर या इतनी चौड़ी सड़क पर मकानों का भला क्या ज़ोर पड़ सकता है लेकिन कुछ ही वर्षों बाद मुझे लगा कि वाकई अंग्रेज़ कितने चिंतित थे पहाड़ के लिए, इस सड़क के लिए । हालांकि उनके लिए यह शहर एक 'नॉस्टेल्जिया' था - टेम्स नदी का किनारा, लंदन की कुहासे भरी शामें और पानी के विस्तार को अपनी खिड़कियों में समेटे कुछ मध्यम रौशनी वाले रेस्तराँ और वे अपने 'नॉस्टेल्जिया' को सुरक्षित रखना चाहते थे लेकिन कुछ भी हो उन्होंने इसे बचाये तो रखा ही था ।

मुझे बहुत ग़ुस्सा आने लगा । कौन पास करता है यह नक्शे ...... इनकी संवेदनायें मर गई हैं क्या...... कैसा तंत्र है यह...... क्यों खिलवाड़ कर रहे है ये पहाड़ के साथ......। गले में हल्का सा दर्द होने लगा है । लाइब्रेरी वाला मोड़ आ चुका है अब सड़क के किनारे झील पर झुके मजनू के पेड़ों का सिलसिला शुरू होगा लेकिन ये क्या-ये सड़क को क्या हुआ...... ये क्यों झुकी है झील की तरफ ? मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा है । झील वाले छोर की तरफ सड़क का किनारा जगह-जगह से टूटकर पानी में समा चुका है । कई मंजनू के पेड़ अब वहाँ नहीं हैं, कुछों की जड़े ऊपर हैं और सर पानी में डूबा हुआ । काफ़ी दूर तक सड़क का यही हाल है । उसके आगे सड़क को बचाने के लिए 'रिटेनिंग वॉल' बनाई गई है किन्तु दबाव से उसका पेट किसी गर्भवती महिला की तरह फूला हुआ है । मेरे गले का दर्द बहुत तेज़ हो गया है । सड़क बहुत उदास सी दीखती हैं । मेरा क्रोध भी धीरे-धीरे उदासी का रूप ले लेता है । चलते-चलते आज थकान महसूस करने लगा हूँ । अचानक सड़क मुझसे बातें करने लगी है- ''तू क्यों दुखी होता है रे ! मैं अपने लिए उदास थोड़े ना हूँ, मुझे मालूम है मुझ पर दबाव हैं, मै बूढ़ी हो रही हूँ, टूट रही हूँ लेकिन यह मेरे दुख का कारण नहीं । मैं इसलिए उदास हूँ कि मेरी गोद में बड़ा हुआ एक ख़ूबसूरत सा नौजवान मेरी अस्मिता के लिए आवाज़ उठाने गया था, तीन महीने होने को आए, लेकिन वो लौटकर नहीं आया । मैं इसलिए उदास हूँ कि मैं एक अर्से से किसी को खुशियाँ नहीं बाँट सकी...... मैंने कब से उस नौजवान जैसी खिलखिलाहटें नहीं सुनी ।''
राकेश ढौंडियाल

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?


डॉ. महेश परिमल
मुसीबतों से घिरे लोग अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है? हम सभी के जीवन में इस तरह के अवसर आते ही रहते हैें, जब हमें हालात से शिकायत रहती है। यह नकारात्मक विचारों की एक ऐसी श्रृंखला है, जो कभी नहीं टूटती। इसे ही यदि दूसरे नजरिए से देखें, तो क्या तब भी हम ऐसा ही कहते हैं, जब हम लगातार सफलता प्राप्त करते रहते हैं? लगातार सफलता प्राप्त करने पर हम कभी ऐसा नहीं कहते कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?
अच्छे और बुरे कार्य रबर की गेंद की तरह होते हैं, जो लौटकर आते हैं। कई बार हम किसी दुर्घटना से बाल-बाल बचते हैं, तब हमारे अच्छे कार्य ही हमें बचा लेते हैं। पर हम उसे अपनी सावधानी से बचना मान लेते हैं। कई बार हम मुसीबतों से घिर जाते हैं, तब हमारे द्वारा किए गए बुरे कार्य ही होते हैं, जिनके कारण मुसीबतों का पहाड़ हम पर टूट पड़ा। इसे हम अपनी किस्मत मान लेते हैं, पर दुंर्घटना से बचने को हम अपनी सावधानी मानकर उसे भूलने की कोशिश करते हैं। ये हमारी सोच ही है, जो हमें इस तरह से सोचने के लिए विवश करती है। हम यह भूल जाते हैं कि मुसीबतें आती ही हैं, हमारी परीक्षा लेने के लिए। मुसीबतें हमें तराशती हैं, जिस समय हमारे सामने मुसीबतें होती हैं, यदि उन परिस्थितियों का बारीकी से अवलोकन किया जाए, तो स्पष्ट होगा कि भविष्य में आने वाले हालात का यह एक पूर्वाभ्यास है। इस दौरान यदि हम उन मुसीबतों से निकल गए, तो निकट भविष्य में आने वाला समय हमारे लिए सहज हो जाएगा।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 17 नवंबर 2008

आखिर सुख है कहाँ ?


डॉ. महेश परिमल
पिछले महीने से शुरू हुई विश्व आर्थिक मंदी ने अनेक करोड़पतियों को रोडपति बना दिया है। इस दौरान भारतीय मूल के लक्ष्मी मित्तल के शेयर के मूल्य में 2500 अरब की कमी हुई। मित्तल के निजी शेयर का मूल्य 3300 अरब रुपए से घटकर 800 अरब रुपए हो गया। इतना बड़ा झटका लगने के बाद भी उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। इसे भी उन्होंने निर्लिप्त भाव से स्वीकारा। इस झटके पर अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा कि धन से आप सुख कभी नहीं खरीद सकते, सुख एक आंतरिक अनुभूति है। मैं इसी सुख पर विश्वास रखता हूँ। मेरे बिजनेस में जब भी कोई बड़ा घाटा होता है, तब मैं आशावादी हो जाता हूँ और जो परिस्थितियाँ पैदा होती हैं, उसे स्वीकार कर सुख से रहता हूँ। हमारे ऋषि-मुनि भी यही कहते हैं कि अधिक से अधिक चीजों को इकट्ठी कर और उसका उपयोग करने से सुख की प्राप्ति नहीं होती, बल्कि इन सब चीजों को प्राप्त करने की इच्छा से मुक्ति पाने से ही सुख की प्राप्ति होती है। इसके बाद भी लोग सुख की प्राप्ति के लिए न जाने कहाँ-कहाँ भटककर अपने वास्तविक सुख को खो देते हैं। प्रश्न एक बार फिर सामने आ खड़ा होता है कि आखिर सुख कहाँ है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

कबीर कहते हैं 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय', कबीर जी की इस वाणी को यदि हम सुख के पैमाने से देखें, तो यही हाल होगा कि हमसे बड़ा दु:खी कोई नहीं मिलेगा, सभी सुखी दिखाई देंगे। आज हमारे समाज में वे सबसे अधिक दु:खी हैं, जो अपनी तुलना अपने से बड़े से करते हैं। सामने वाला क्यों सुखी है, यही हमारा सबसे बड़ा दु:ख है। इसके अलावा दिखावा ही इस दु:ख का मूल है। भला, वह हमसे अधिक सुखी कैसे रह सकता है? यह अहम् भाव ही उसे भीतर से दु:खी कर जाता है। अपनी तुलना यदि हम अपने से कम आय वाले से करें, तो हमारे दु:ख का कोई कारण ही दिखाई नहीं देगा। मनुष्य की यही प्रवृत्ति होती है कि उसे दूसरों की थाली में अधिक घी दिखाई देता है। यदि थोड़ी देर के लिए मानव यह सोचे कि सामने वाला धन की प्राप्ति के लिए कितना संघर्ष कर रहा है, उतना ही संघर्ष मैं करुँ, तो मैं भी सुखी हो सकता हूँ, इस बात को स्वीकारते हुए भी वह उस संघर्ष के लिए अपने आप को कभी तैयार नहीं कर पाता। वह चाहता है कि मैं जितनी मेहनत कर रहा हूँ, बस उसी से मैं सामने वाले से अधिक धन की प्राप्ति करुँ। यह कैसे संभव हो सकता है?सच हमेशा कड़वा होता है, यदि यह कहा जाए कि आप कामचोर हैं, काहिल हैं, बेईमान हैं, आलसी हैं, तो इस आरोप को स्वीकार नहीं करेंगे। इन आरोपों को सुनकर आप भीतर से दहल भी सकते हैं। पर जरा रुककर सोचें कि क्या ये आरोप सच नहीं हैं? जब आप अपनी तुलना किसी सुखी व्यक्ति से करने जा रहे हैं, तो यह अवश्य सोच लें कि वह हमारी अपेक्षा कितनार् कत्तव्यनिष्ठ है, कर्मशील है, ईमानदार है और चुस्त है? इन सबमें में आप अपने को कहाँ कमजोर पाते हैं? कारण स्पष्ट हो जाएगा कि कहीं न कहीं आप में ऐसी कमी है, जो सामने वाले में नहीं है। आपकी इसी कमी को उसने समझते हुए अपने पास उस कमी को फटकने नहीं दिया और धान कमाता चला गया। आप केवल परिस्थितियों को दोषी मानते हुए अपना पल्ला झाड़ते रहे। दूसरों के दोष देखने में जितना समय आपने गँवाया, उससे आधा समय भी आपने अपनी कमी को दूर करने में लगाया होता, तो निश्चित आप हालात के नहीं, बल्कि हालात आपके गुलाम होते। आप में हालात को बदलने की शक्ति होती।

जो देश जितना समृद्रधा होता है, आवश्यक नहीं कि वह उतना ही सुखी हो, होता यह है कि जो देश जितना गरीब होता है, वह आर्थिक रूप से भले से सुखी न हो, पर मानसिक रूप से अवश्य सुखी होता है। आर्थिक रूप से समृध्दा देश अब मानसिक रूप से अधिक अशांत होने लगे हैं। हाल ही में विश्व आर्थिक मंदी के दौरान कुछ लोगों ने आत्महत्या कर ली। निश्चित रूप से करोड़पति थे, जो थोड़ी-सी भी हानि बर्दाश्त नहीं कर पाए। अर्थशास्त्री अब किसी भी देश को धन से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षण, अपराध और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए उसकी समृद्धि का आकलन करने लगे हैं। प्रगति के सूचकांक में भी अब बदलाव आने लगा है। अमेरिका के 'रिडिफाइनिंग प्रोग्रेस' नाम के समूह ने तो कुल राष्ट्रीय आवक में से कानूनी खर्च, चिकित्सकीय खर्च, तलाक खर्च आदि पर होने वाले खर्च को काटकर जो शेष बचता है, उसके आधार पर प्रगति का इंडेक्स घोषित करने लगे हैं। दूसरी कई संस्थाएँ मित्रता, ईमानदारी, परोपकार आदि मापदंड तय करके उसके आधार पर देश की प्रगति तय करने की कोशिश कर रही हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि जो देश आर्थिक रूप से समृध्दा होता है, वह महान नहीं हो जाता।

पिछले 25 वर्षों में ब्रिटेन, नार्वे, जापान आदि देशों ने आर्थिक प्रगति की वार्षिक रिपोर्ट जारी करने की परंपरा शुरू की है। इसी रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जा रहा है कि 1973 में जहाँ 77 प्रतिशत अमेरिकी सुखी थे, वहीं 1993 में यह घटकर 38 प्रतिशत रह गया, अर्थात तीन दशक में अमेरिका ने आर्थिक रूप से खूब प्रगति की, किंतु उसकी सामाजिक व्यवस्था का अधा:पतन हो गया। ऑंकड़ों की सच्चाई यही कहती है। आज का मानव यही सोचता है कि इंसान को यदि बहुत सारी दौलत मिल जाए, तो वह सुखी हो जाता है। दौलत मिलने पर सुख हमारे साथ लुकाछिपी का खेल खेलता रहता है। वह हमारे पास नहीं फटकता। जो दौलत में सुख खोजते हैं, वह कभी सुखी नहीं हो सकते। आज भारत की नई पीढ़ी अधिक धन को ही सुख प्राप्ति का मुख्य साधान मानती है। यह पीढ़ी यह सब एक साथ और बहुत ही जल्दी प्राप्त करना चाहती है। यह तय है कि अचानक बिना परिश्रम के हाथ लगने वाला धन अपने साथ तनाव लेकर आता है, साथ ही अपने जाने का रास्ता भी। इसलिए जितनी तेजी से वह आता है, उतनी ही तेजी से वह चला भी जाता है। यही आकर यह पीढ़ी दु:खी हो जाती है और डिप्रेशन का शिकार होती है।सुख धन प्राप्त करने में नहीं, बल्कि धन लुटाने में है। धान का सुख से कोई संबंध नहीं है। थोड़ी देर के लिए भले ही हम सुविधाभोगी बनकर धान से सुख प्राप्त करने की कोशिश करें, पर यह एक मृगतृष्णा ही साबित होगी। प्राप्त करने की अपेक्षा देने में विश्वास रखने वाले कभी दु:खी नहीं होते। देने वाला हमेशा बड़ा होता है, भले ही वह दुआएँ ही क्यों न दे रहा हो। पाने वाले का हाथ हमेशा नीचे होता है। उसकी ऑंखें भी नीची होती है, क्योंकि वह जो कुछ प्राप्त कर रहा है, उसे खोना नहीं चाहता, इसलिए वह यह देखता है कि कहीं प्राप्त की जाने वाली चीज गिर न जाए, बरबाद न हो जाए। उसका ध्यान देने वाले पर कतई नहीं होता। अगर देने वाले को देखा जाए, तो उसके चेहरे का परम संतोष देखो। तब आप पाएँगे कि सचमुच देने में ही सच्चा सुख है। अंत में एक बात, आप क्या लेकर आए थे, जो लेकर जाना चाहते हो? जब कुछ लेकर जाना ही नहीं है, तो फिर यह संचय क्यों, यह तनाव क्यों, केवल सुविधाभोगी बनकर आप ने क्या संकलित कर लिया? मौत के बाद आपको क्या नसीब होगा, जब आप यही नहीं जानते, तो फिर इतनी हाय तौबा क्यों? कुछ देकर आप जितने बड़े होते हैं, उतने ही छोटे कुछ पाकर होते हैं। अब यह आपको तय करना है कि आप कितने बड़े बनना चाहते हैं या कितने छोटे?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 15 नवंबर 2008

भारत की परेशानी बढ़ाएंगे ओबामा!


नीरज नैयर
जार्ज डब्लू बुश के उत्तराधिकारी के रूप में बराक हुसैन ओबामा की ताजपोशी के बाद अब अमेरिका से भावी संबंधों को लेकर आकलन शुरू हो गया है. पिछले कुछ सालों में भारत-अमेरिका एक दूसरे के काफी करीब आए हैं. खासकर परमाणु करार ने दोनों देशों के बीच की दूरी पाटने में अहम किरदार निभाया है जिस तरह से बुश प्रसाान ने पाकिस्तान को एकतरफा मदद देने की आदत को छोड़कर भारत से द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का प्रयास किया ठीक वैसी ही आशा ओबामा से की जा रही है. महात्मा गांधी के प्रशंसक और हनुमान भक्त की अपनी छवि के चलते ओबामा न केवल भारतीय अमेरिकी बल्कि भारत में रहने वाले लोगों के दिल में भी रच-बस गये हैं. भारतीय मीडिया ने भी उन्हें सिर-आंखों पर बैठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें हमेशा मैक्केन के मुकाबले तवाो दी गई. उनके कथनों को प्रमुखता से प्रकशित किया गया. कुछ वक्त के लिए तो ऐसा लगा जैसे या तो हम अमेरिकी हो गये हैं या फिा ओबामा भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं. डेमोक्रेट से उम्मीदवारी तय होने से लेकर व्हाइट हाउस के सफर तक उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया गया. लिहाजा अब उनसे अपेक्षाएं भी बड़ी-बड़ी की जा रही हैं. भारतीय यह मानकर चल रहे हैं कि संबंधों में मधुरता की दिशा में जो थोड़ी बहुत कसर बुश के कार्यकाल में रह गई थी उसे ओबामा पूरा कर देंगे. लेकिन अंकल सैम की विदाई को लेकर दिल्ली में जो मायूसी दिखाई दे रही है उससे साफ है कि ओबामा के साथ बेहतर भविष्य को लेकर भारतीय नेतृत्व भी कहीं न कहीं आशंकित है. भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर जिस तरह का रुख ओबामा ने अपनाया था उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ओबामा ने खुलकर भारत को छूट देने की मुखालफत की थी. इसलिए अब यह देखने वाली बात होगी कि वो करार पर नये सिरे से क्या रुख अख्तियार करते हैं. वैसे ऐसी भी आशंका जताई जा रही है कि ओबामा भारत को न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीट्री पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर सकते हैं. उस स्थिति में करार पर प्रश्चिन्ह लग जाएगा और भारत को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ेगा. इसके साथ ही कश्मीर पर ओबामा ने पूर्व में जो संकेत दिए थे अगर वो उस पर कायम रहते हैं तो निश्चित ही भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. बराक ओबामा ने मतदान से कुछ दिन पूर्व कहा था कि हमें कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में कोशिश करनी चाहिए, इससे पाकिस्तान की चिंता भारत की तरफ से हट जाएगी और वह आतंकवादियों पर ध्यान केंद्रित कर सकेगा. जुलाई 2007 में विदेश नीति पर लिखे अपने लेख में ओबामा ने कहा था कि हम कश्मीर इश्यू को सुलझाने में भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता को प्रोत्साहित करेंगे. ओबामा ने यह भी कहा था कि वो पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को कश्मीर विवाद के निपटारे के लिए विशेष दूत बनाकर भेजेंगे. भारत शुरू से ही कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा बताता रहा है. उसे न तो किसी का दखलंदाजी वाला रवैया पसंद है और न ही वो पसंद करने वाला है. बुश के कार्यकाल में भी जब जनमत संग्रह जैसी बातें उठी थी तो भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. लिहाजा दोनों देशों के रिश्तों में काफी कुछ इसबात पर निर्भर करेगा कि ओबामा कश्मीर को कितनी तवाो देते हैं. वैसे ओबामा के एजेंडे में इस वक्त ईरान, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान मुख्य रूप से शामिल हैं. ओबामा ईरान से चल रही तनातनी को जल्द खत्म करना चाहेंगे. बुश के साथ ईरान के संबंध किस कदर बिगड़ गये थे यह किसी से छिपा नहीं है. बात युद्ध तक पहुंच गई थी और अगर गर्माहट थोड़ी भी बढ़ जाती तो ईरान को भी इराक बनते देर नहीं लगती. ओबामा इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों की दशा पर पहले ही चिंता जता चुके हैं. ऐसे में उनकी कोशिश होगी कि इराक को वहां के हुक्मरानों के हवाले करके सेना को उस नरकीय जिंदगी से बाहर निकाला जाए. इसके बाद ओबामा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से रिश्ते दुरुस्त करने की तरफ आगे बढ़ेंगे. पाकिस्तान से भी अमेरिका के रिश्ते पिछले कुछ वक्त से ठीक नहीं चल रहे हैं. आतंकवादियों पर पाक सीमा में घुसकर हमले संबंधी खुलासे के बाद जिस लहजे में पाक प्रधानमंत्री गिलानी ने बयानबाजी की थी उससे दोनों के रिश्तों में और तल्खी आ गई थी. भारत से परमाणु करार से पहले तक पाकिस्तान अमेरिका का विश्वस्त मित्र और सैनिक साजो-सामान का बहुत बड़ा खरीददार रहा है. पाकिस्तानी सेना की करीब 90 प्रतिशत खुराक अमेरिका की पूरी करता रहा है. ऐसे में ओबामा पाक पर पहले जैसी मेहरबानी दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. हालांकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा ने यह कहकर कि पाक आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता है, यह संकेत दिए थे कि वो पाक के साथ बेवजह नरमी नहीं बरतने वाले लेकिन इसे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर वोट खींचने की कवायद के रूप में देखना गलत नहीं होगा. ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन के साथ उम्मीदवारी पाने के द्वंद्व में यह भी कहा था कि वो आउटसोर्सिंग को अमेरिकी कामगारों के खिलाफ हिंसा मानते हैं क्योंकि इसके जरिए इन लोगों के रोजगार दूसरे देशों को भेजे जा रहे हैं. गौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आउटसोर्सिंग के चलते कई कंपनियां यहां फली फूलीं. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध हुए हैं. इनमें इफॉम्रमेशन टैक्नोलाजी का सबसे बड़ा हिस्सा है. अब चूंकि ओबामा व्हाइट हाउस की गद्दी पर काबिज हो गये हैं इसलिए हो सकता है कि वो इस बारे में भी कुछ ऐसे कदम उठाएं जो भारत के लिहाज से अच्छे न हों. ओबामा का चुना जाना निश्चित ही अमेरिका के इतिहास में बहुत ही ऐतिहासिक क्षण हैं लेकिन भारत के लिए यह बदलाव खुशियों की बयार लेके आएगा ऐसी उम्मीदें पालना भी बेमानी होगा.
नीरज नैयर
9893121591

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

आज बाल दिवसः बड़ों की दुनिया में गुम होती बच्चों की दुनिया


सुनील मिश्र
बाल दिवस हमारे यहां चंद मुस्कराते चेहरे वाले बच्चाें के छायाचित्रों का दिवस हो गया है, जो हमें चैनलों और अखबारों में एक दिन दिखाई दे जाते हैं। हमारे देश में बच्चों की एक बड़ी दुनिया है, मगर दूसरे अर्थों में देखा जाए, तो उनका संसार कहीं दिखाई नहीं देता। ज्यादा से ज्यादा चार दिन हुए होंगे जब बोरवेल मेंफंसा एक बच्चा जीते-जी बाहर नहीं आ सका। साल में कई बार बच्चे धरती को भेदकर गहरे उतरती मशीन के कारण होने वाले गङ्ढों में गहराई तक जाकर तड़पते हैं। लगभग पांच वर्ष पहले की सागर की एक घटना का स्मरण हो आता है जिसमें स्कूल के बच्चे अपने अध्यापक के यहां उनकी बेटी की शादी में पांच-पांच रुपए चंदा करके तोहफा देने एक ट्रॉली में जा रहे थे और भयानक दुर्घटना के शिकार होकर जान से हाथ धो बैठे। आरुषि के साथ हुई दुर्घटना से ज्यादा त्रासद और क्या होगा, जिसमें नितांत विफल व्यवस्था आज तक सच्चाई का पता न लगा पाई। ऐसी ही न जाने कितनी ही घटना-दुर्घटनाएं और उनका शिकार होते बच्चों को देख-पढ़-सुनकर एक पूरी सामाजिक मन:स्थिति पर विचार करने का मन होता है, जहां बच्चों को हम सबसे असुरक्षित पाते हैं। बसों और लोकल ट्रेनों में बड़ी छोटी उम्र से मंजिल तय करते बच्चे कितने सुरक्षित हैं, उनकी मुस्कान की कौन रक्षा कर रहा है, उनके आंसू कितना और किसे व्यथित कर रहे हैं, इसका अंदाज लगा पाना आसान नहीं है।
छोटे टेंपो, बसों, मिनी बसों में बच्चे और उनके बस्ते हाट में बिकने जा रही सब्जियों की तरह हैं। बड़ी संख्या में बच्चे अपने हाल पर जीते हैं। वे अपने जोखिम से खुद ही सामना करते हैं। जीत-हार तो क्षमता, शक्ति और परिस्थितियों पर निर्भर है मगर उनके अपने संघर्ष में वे अकेले ही होते हैं, उनका कोई साथी नहीं होता। ऐसे भाग्यशाली बच्चों की संख्या कम ही होगी जिनके अभिभावक रोज खुशबूदार रुमाल से उनका चेहरा चार बार साफ करते हों। ऐसे बच्चों का प्रतिशत कम ही होगा जिनको कार से स्कूल जाना और आना नसीब होता हो। ऐसे बच्चे न्यूनतम ही होंगे जो स्कूल से घर लौटते ही बस्ता फेंककर खेलने निकल जाते हैं और उनके कपड़े घड़ी करने एवं बस्ता सम्हालने वाले उनकी सेवा में हर वक्त हाजिर रहते हैं। बहुत से बच्चे स्कूल में अपनी पढ़ाई करने के बाद अपने परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए चाय के ठेले पर चाय वाले की चाकरी भी करते हैं और दफ्तरों में चाय लगाते हैं। वाहन रिपेयरिंग की दुकानों पर बच्चों की दशा को भला हम सबसे बेहतर कौन जान सकता है?
समाज, बच्चों की संवेदनाओं को किस प्रकार सहृदयता से लेता है, यह एक अलग प्रश्न है। मगर क्या कभी इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि अभिभावक बच्चों की संवेदनाओं को किस तरह लेते हैं? इस मामले में आमिर खान जैसे प्रतिबध्द अभिनेता का अभिभावकों को शुक्रगुजार होना चाहिए कि बीते साल इस कलाकार ने 'तारे जमीं पर' जैसी फिल्म बनाकर सभी संजीदा माता-पिताओं के अंतस को जाग्रत करने का काम किया। इस सार्थक फिल्म का ही यह चमत्कार कहा जाएगा कि अभिभावकों ने इस फिल्म को देखकर, आंसू बहाने के बाद अपने बच्चों की ओर संवेदना से देखा। परिस्थितियां हमें अपना गिरेबां दिखाती हैं मगर हम सभी को नजरअंदाज करते हैं, लेकिन लंबे अंतराल में ही सही यदि तारे जमीं पर, ने अभिभावकों को झकझोरने का काम किया तो यह एक बहुत बड़ा काम माना जाएगा।
एक समय जवाहरलाल नेहरू ने बड़े फिल्मकारों का आह्वान किया था कि वे अपनी कमाई में से एक हिस्से का उपयोग करके बाल संवेदना पर कम से कम एक फिल्म नफे-नुकसान की परवाह किए बिना अवश्य बनाएं। उस आव्हान पर ही 'जागृति', 'दो आंखें बारह हाथ', 'बूट पॉलिश' जैसी फिल्में बनकर आई थीं। बाल मनोविज्ञान और संवेदना पर अच्छा सिनेमा अब नितांत असंभव हो गया है। सई परांजपे ने एक सार्थक बाल फिल्म 'चकाचक' बनाई, मगर उसको बच्चों तक पहुंचाने का रास्ता नहीं मिल सका। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मराठी फिल्म 'श्वास' कितने लोगों ने देखी और अपने बच्चों को दिखाई होगी, यह बता पाना मुमकिन नहीं है। बाल संवेदना पर एक महत्वपूर्ण फिल्म 'रामचंद्र पाकिस्तानी' बनी है, मगर उसको प्रदर्शन के अवसर नहीं मिल रहे।
बच्चों के लिए अखबारों में सप्ताह या पखवाड़े में सिर्फ एक ही बार गुंजाइश है। कैसे समझें कि छुट्टी का दिन ही केवल बच्चों का दिन नहीं होता। कैसे समझें कि बच्चे रोज दिन में एक बार मौका पड़ने पर अखबार हाथ में लेते हैं। बच्चों के लिए पत्रिकाएं नहीं हैं। 'चकमक', 'बाल भारती' जैसी जो महत्वपूर्ण बाल पत्रिकाएं हैं उन्हें बच्चे भले ही उस तरह से न जानते हों मगर कितने अविभावक बच्चों से उसे परिचित कराया करते होंगे, यह प्रश्न ही है। बच्चों का सृजनात्मक पक्ष इन्हीं सब बातों से प्रभावित होता है। बाल दिवस, बच्चों की क्षणिक छवियों का, खुशियों का सिर्फ एक दिन का रचा गया कोलाज मात्र नहीं है। हमें आज के दिन बच्चों के सीमित और संकुचित होते जगत की चिंता करनी चाहिए।
सुनील मिश्र

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

पंकज पराशर की कविताएँ


हस्त चिन्ह(बनारस के घाटों को देखते हुए)
पुरखों के पदचिन्ह पर चलने वालों
कभी उनके हस्तचिन्हों को देखकर चलो तो समझ सकोगे
हाथ दुनिया को कितना सुंदर बना सकते हैं
ख़ैबर दर्रा से आए धनझपटू हाथ
जब मचा रहे थे तबाही
वे बना रहे थे मुलायम सीढ़ियाँ
सुंदर-सुंदर घाट और मिला रहे थे गंगा की निर्मलता को
मन की कोमलता से
तलवारें टूट गईं
मिट्टी में मिल गए ख़ून सने हाथ
कोई जानता तक नहीं उन हाथों को
जिसके मलबे के नीचे सदियों तक दबी रही दुनिया
याद करो उन हाथों को जिन्होंने बनाए ताजमहल
बड़े-बड़े राजमहल
और पूरे बनारस में इतने सारे घाट
आज किसे है याद?
ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ो इतिहास में उन हाथों को
जिन्होंने बेघर होकर बनाए लोगों के घर
लेकिन अफसोस! वहाँ दीखते हैं वही हाथ
जिन्होंने चंद सिक्के देकर ख़रीदे ग़रीब मजूरों के
अमीर हाथ
जान की परवाह किए बग़ैर जो उकेरते रहे
राजाओं के नाम और जूझते रहे सालों
छेनी-हथौड़ी लिए पत्थरों से
उन हाथों की लकीर किस हर्फ़ में दबी है
ज़रा उसे ढँढ़ो तो अपने मुल्क के इतिहास में?
वे जो इन सीढ़ियों से पहुँचते हैं
विद्युत अभिमंत्रित सरकाऊ सीढ़ियों तक
क्या बना सकते हैं कोई एक ऐसा घाट
जहाँ पी सकें पानी एक साथ
बकरी और बाघ?
* * * * * *
बऊ बाज़ार
यहाँ आई तो थी किसी एक की बनकर ही
लेकिन बऊ बाज़ार में अब किसी एक की बऊ नहीं रही मैं
ओ माँ!
अब तो उसकी भी नहीं जिसने सबके सामने
कुबूल, कुबूल,कुबूल कहकर कुबूल किया था निकाह
और दस सहस्र टका मेहर भी भरी महफिल में
उसने कितने सब्ज़बाग दिखाए थे तुम्हें
बाबा को गाड़ी और तुम्हें असली तंतु की साड़ी
माछ के लिए छोटा पोखर और धान के लिए खेत
जिसकी स्वप्निल हरियाली कैसे फैल गई थी तुम्हारी आँखों में
और...न जाने कहाँ खो गई थी तुम माँ!
यह जानकर तुम्हारी छाती फट जाएगी
कि जब लाठी और लात से नहीं बन सकी पालतू
तो भूख से हराया गया तुम्हारी बेटी को
जिससे हारते हुए मैंने तुम्हें बचपन से देखा है
रात के तीसरे पहर के निविड़ अंधकार में
सोचती हूँ कैसे बचे होंगे
इस बार की वृष्टि में पिसी माँ की बाड़ी
और चिंदी-चिंदी तुम्हारी साड़ी
मैं तो कुछ भी नहीं जान पाती यहाँ
कि छुटकी के रजस्वला होते ही
बाबा ने क्या उसे भी ब्याह दिया या क़िस्मत की धनी
वह अब तक है कुँआरी?
तुम्हें तो रतौंधी है माँ यह याद है मुझे
कि तुम देख नहीं सकती कुछ भी साँझ घिरते ही
चलो यह अच्छा ही हुआ कि तुम
देख नहीं सकती शाम को जो हर रोज़ उतरती है
मेरी ज़िंदगी में और-और स्याह बनकर
कभी पान खाकर कभी इलायची चबाकर
दारू की गंध को छिपाने की कोशिश करता हुआ
मेरा खरीददार खींच-खींचकर अलग करता है
मेरी देह से एक-एक कपड़ा
जैसे रोहू माछ की देह से उतार रहा हो एक-एक छिलका
छोटे-छोटे टुकड़ों में तलकर परोसने के लिए
आदमजात की थाली में.
* * * * * *
रात्रि से रात्रि तक
सूरज ढलते ही लपकती है सिंगारदान की ओर
और घंटी बजते ही खोलकर दरवाज़ा मधुशालीन पति का करती है स्वागत
व्योमबालाई हँसी के साथ

जल्दी-जल्दी थमाकर चाय का प्याला घुस जाती है रसोई में
खाना बनाते बच्चों से बतियाते होमवर्क कराते हुए
खिलाकर बच्चों को पति को
फड़फड़ाती है रात भर कक्ष-कफ़स में तन-मन से घायल
जल्दी उठकर तड़के नाश्ता बनाती बच्चों को उठाती
स्कूल भेजकर पहुँचाती है पति के कक्ष में चाय
फ़ोन उठाती सब्जी चलाती हुई भागती है दरवाज़े तक
दूधवाले की पुकार पर
हर पुकार पर लौटती है स्त्री खामोश कहीं खोई हुई
जब तक सहेजती हुई सब कुछ लौटती है पति तक
हाथ में थाली लिए जलपान की
पति भूखे ही जा चुके होते हैं दफ़्तर
एक और दिन उसके जीवन में बन जाता है पहाड़
रोती जाती है काम करती जाती है पति के आने तक
मकान को घर बनाती हुई स्त्री
सूरज ढलते ही करने लगती है पुनः स्वयं को तैयार
व्योमबालाई हँसी के लिए
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पंकज पाराशर

पंकज पाराशर जी से अनुमति लेकर बीबीसी से साभार

बुधवार, 12 नवंबर 2008

जारी है प्रतिभावानों की खोज


डॉ. महेश परिमल
ये प्रतिस्पर्धा का युग है. यहाँ हर पल जहाँ हैं, उससे आगे बढने की कवायद की जा रही है. हर कोई यही सोच रहा है कि किस तरह आगे बढ़ा जाए. हममें से न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जो प्रतिभा सम्पन्न होने के बाद भी जहाँ हैं, वहाँ से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं. पर कुछ ऐसे भी हैं, जिनमें प्रतिभा न होते हुए भी अपनी वाक् पटुता के कारण बहुत आगे हैं. कभी सोचा आपने कि ऐसे कैसे हो गया? आपको शायद समझ में न आए, पर यह सच है कि आज ऐसे व्यक्तियों की खोज लगातार जारी है, जो कंपनी को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दें. इसके लिए विभिन्न कंपनियों की जासूसी निगाहें प्रतिभावान लोगों पर टिकी हैं. इसलिए जो प्रतिभावान हैं, वे कदापि निराश न हों, क्योंकि अब समय आ गया है कि उनकी प्रतिभा की कद्र होगी और वे भी आगे बढ़ने में सक्षम होंगे.
इन दिनों आधुनिक मैनेजमेंट की बड़ी चर्चा है. ये क्या होता है, आप जानते हैं? शायद नहीं. आइए आपको बताएँ कि ये क्या होता है. आधुनिक मैनेजमेंट याने ऐसे कर्मठ लोगों का समूह, जो निष्ठावान होकर कंपनी को आगे बढ़ाने में अपना अमूल्य योगदान दे. अब ऐसा समूह तैयार कैसे हो? तो ऐसे लोगों को खोज-खोजकर इकट्ठा किया जाता है, जो प्रतिभावान हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा है. वे छटपटा रहे हैं अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए. या फिर वे अपनी प्रतिभा का पूरा इस्तेमाल कर तो रहे हैं, लेकिन उसका पूरा प्रतिफल उन्हें नहीं मिल पा रहा है. सारा लाभ कंपनी को हो रहा है. ऐसे लोगों को इकट्ठा कर उनसे काम लेना ही आधुनिक मैनेजमेंट है. तो ऐसे प्रतिभावान लोगों के निराश होने के दिन लद गए, अब तो वे विभिन्न कंपनियों की जासूसी और खोजी निगाहों से बच नहीं सकते. उनकी प्रतिभा निश्चित ही रंग लाएगी.
उद्योग जगत में आजकल एक लतीफा विशेष रूप से प्रचलित है, जिसमें यह कहा जाता है कि यदि आपको रिलायंस में अच्छे पद पर नौकरी चाहिए, तो मुकेश या अनिल अंबानी के मित्रों का मित्र बनना होगा. इस पर यदि गहराई से विचार करें, तो यह केवल लतीफा ही नहीं, बल्कि एक सच्चाई है. आशय यह है कि अंबानी बंधुओं का एक विशाल मित्र समुदाय है. ये लोग लगातार अपने विविध क्षेत्रों के मित्रगणों से विभिन्न तरह की सलाह लेते रहते हैं. कई मामलों में उनसे मशविरा भी लेते हैं. इससे यह बात विशेष रूप से उभरकर आती है कि किस क्षेत्र में कौन व्यक्ति अधिक प्रतिभावान है. उसके बाद मशक्कत शुरू होती है, उस व्यक्ति को अपनी कंपनी से जोड़ने की. आपने साथियों को यह कह दिया जाता है कि उसकी चाहे जो भी कीमत हो, उसे हमारी कंपनी में होना चाहिए. इस तरह से शुरू होता है, प्रतिभा के सही मूल्यांकन का सिलसिला. आजकल रिलायंस और हिंदुस्तान लीवर का नाम इस क्षेत्र में विशेष रूप से लिया जा रहा है. यह कंपनियाँ अपनी कर्मचारी की क्षमता के विषय में अधिक चिंतित रहती है, क्योंकि ये जानती हैं कि इनकी क्षमता पर ही कंपनी की प्रगति टिकी हुई है. अतएव क्षमतावान व्यक्ति ही इस कंपनी को संभाल सकते हैं.
रिलायंस कंपनी का मापदंड व्यक्ति की दूरदर्श्ािता और जोखिम उठाने की उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति है. ऐसे व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में हों, उसे किसी भी हालत में अपने स्टॉफ में लेकर ही दम लेती है. दोनों ही कंपनियों की कार्यपद्यति अलग-अलग है. जहाँ एक ओर रिलायंस साहसिकता पर जोर देती है, वहीं हिंदुस्तान लीवर व्यावसायिकता पर. हिंदुस्तान लीवर भी प्रतिभावान कर्मचारियों को अपने यहाँ लाने में किसी भी हद तक जा सकती है, किंतु केवल शुरुआत में ही. क्योंकि वह उस कर्मचारी को अपने यहाँ लाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाती, बल्कि उसे अपने यहाँ लंबे समय तक सेवाएँ लेने के लिए प्रशिक्षित करती है. ताकि उसकी प्रतिभा को और अधिक तराशा जा सके.
दुनिया में जिस कंपनी ने आधुनिक मैनेजमेंट की यह पद्यति अपनाई, उसे निश्चित रूप से सफलता मिली और उसने प्रगति के कई सोपान तय किए. ऐसा नहीं है कि इसका लाभ केवल कंपनी को ही मिला, बल्कि कर्मचारी वर्ग भी इस सफलता से अछूता नहीं रहा. यह वर्ग भी इतना बलशाली हो गया कि कंपनी कंपनी के शेयर लेने में भी पीछे नहीं रहा. आज सफलता का यही मूलमंत्र है. अच्छी कंपनी को अच्छे व्यक्ति चाहिए और निश्चित रूप से अच्छे व्यक्ति को अच्छी कंपनी की ही चाहत होती है. अब वह जमाना गया जब कोई व्यक्ति पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही कंपनी से जुड़ा रहता था. अब तो घाट-घाट का पानी पीने वाला व्यक्ति अनुभवी माना जाता है.
प्रतिभावान व्यक्ति उस सूरज के समान है, जिसे हर हालत में अपनी रोशनी बिखेरनी ही है. उसे नौकरी खो जाने का दु:ख नहीं होता. वह निश्चिंत हो कर अपना काम करता रहता है. उसके लिए हर काम एक चुनौती है और हर रास्ता एक चौराहा है. प्रतिभा कहाँ खींच ले जाए, इसका उसे भी भान नहीं होता. ऐसे लोग तभी आगे बढ़ पाते हैं, जब उन्हें उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हो.
सवाल यह है कि आखिर ऐसी प्रतिभा आती कहाँ से है? और उसका विकास कैसे होता है? तो यह प्रतिभा शुरूआत में एक सद्गुण के रूप में व्यक्ति में मौंजूद रहती है, जो धीरे-धीरे पुष्पित और पल्लवित होती है. जो व्यक्ति छोटी-छोटी भूलों की ओर ध्यान दे कर उसे न दोहराने का संकल्प लेता है, वह प्रगति के पथ पर सबसे तेज कदमों से आगे बढ़ता है. केवल अपनी ही नहीं, बल्कि दूसरों की भूलों से भी सीखने वाला व्यक्ति और महान होता है. ऐसे लोगों के पास अनुभव का ंखजाना भरा होता है. ऐसे लोगों के पास केवल एक ही कमी होती है, वह है- खुद को प्रकाशित न कर पाना. अर्थात अपनी मार्केटिंग न कर पाना. ऐसे लोगों के जीवन में हताशा का दौर काफी लम्बा होता है. लेकिन पारखी निगाहें उन्हें ढूंढ ही लेती है.
हीरे का ही उदाहरण लें. जमीन के भीतर न जाने कितनी गहराई में कितने दबाव में वह पड़ा होता है. वर्षों तक उसी स्थिति में रहता है. एक घनघोर लम्बी प्रतीक्षा के बाद वह स्थिति आती है, जब उसकी पहचान होती है, उसका वजन होता है, उसका मूल्यांकन होता है, फिर शुरू होता है उसे तराशने का काम. यह काम इंसान के हाथों होता है और हीरा निखर उठता है. संघर्ष का एक लंबा दौर, जिसे गुमनामी का दौर भी कहा जा सकता है, हर किसी के जीवन में आता ही है, पर इस जीवन से न घबराकर यदि पूरे संयम के साथ अपने भीतर ऊर्जा समेट ली जाए, तो समय आने पर वही ऊर्जा काम आती है. धैर्य की कोई उम्र नहीं होती. यदि आपने यह तय कर ही लिया है कि पानी को काटना ही है, उसके बर्फ बनने तक तो प्रतीक्षा करनी ही होगी. हीरे को तो निकलना ही है, ठीक प्रतिभा की तरह. आज भले ही उसका न हो, पर कल निश्चित रूप से उसका होता है.
तो एक बार फिर उन साथियों को एक संदेश यही है कि प्रतिभा है तो निराश न हों. इसे तो उभरना ही है, पर थोड़े धैर्य के साथ उन क्षणों की प्रतीक्षा करें. क्योंकि खोजी निगाहों से वे बच नहीं सकते. अपने पर विश्वास रखें और पूरी ईमानदारी से अपना काम करते रहें, बस एक क्षण होगा और आप अपने को बहुत ही अच्छी स्थिति में पाएँगे.
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

सफलता के लिए आवश्यक है व्यवहार कुशलता

डॉ. महेश परिमल
कहा जाता है कि कल और आज के बीच की ंजिदगी को जो अच्छी तरह से जी गया, वही असली इंसान है. ऐसे क्षणों में वह ऐसा यादगार काम कर जाता है कि एकांत के पलों में उसे खुद को ही अपने इस काम पर आश्चर्य होता है. बस ंजरूरत है, समय के उस पल के महत्व को समझने की. जिसने उस पल का मूल्य जान लिया, वह समय के सागर से सफलता के मोती चुन लाया और जिसने इसका महत्व नहीं समझा, वह सागर के किनारे की रेत को पैरों तले सरकता हुआ महसूस करता रहा या मुट्ठी में बंद रेत की तरह समय को सरकता हुआ देखता रहा. समय बीत जाने के बाद किया गया पछतावा भविष्य में कुछ कर दिखाने का सबक ंजरूर देता है, किंतु उस वक्त ऑंखों से छलके पश्चाताप के ऑंसुओं का खारापन सागर के खारेपन से भी कहीं अधिक होता है.
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि हम पश्चाताप के ऑंसुओं का या उसके खारेपन का स्वाद चखें ही क्यों? क्यों न हम समय को एक चुनौती के रूप में स्वीकारें और सफलता के पथ पर आगे बढ़ें! सफलता के मूल मंत्रों में अनेक बिंदु ह,ैं किंतु यहाँ हम सबसे पहले मुख्य दो बिंदुओ की चर्चा करेंगे, जो कि सफलता की शुरुआत में अपनी मुख्य भूमिका निभाते हैं. ज्ञान और व्यवहार कुशलता का मेल सफलता के मार्ग में व्यक्ति को आगे ले जाता है.
जीवन की तंग और छोटी गलियों में कई उलझनों में से होकर गुजरने के बाद भी ज्ञानी कई बार वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, जबकि व्यवहार कुशल अपनी चालाकी और चपलता की छड़ी थामे, कूदते-फाँदते कुछ ही समय में बहुत आगे निकल जाते हैं.
अनुभव यह दर्शाता है कि ज्ञानवान व्यक्ति की अपेक्षा व्यवहार कुशल व्यक्ति जीवन में अधिक सफल होते हैं, क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि सामने वाले से अपना काम किस तरह निकलवाना है. जबकि ज्ञानवान व्यक्ति तो इस संबंध में केवल सोचता ही रह जाता है. इसे इस तरह समझा जा सकता है - एक बार एक प्रतियोगिता हुई, जिसमें एक अंडे को खड़ा रखना था. वह भी बिना किसी सहारे. कई लोग आए और उसे विभिन्न तरीके से खउा करने की कोशिश करने लगे. पर अंडे को खड़ा नहीं होना था सो वह नहीं हुआ. अब क्या किया जाए? सभी ऐसा सोच ही रहे थे, कि एक व्यक्ति आया और उसने अंडे को फोड़कर खड़ा कर दिया. उसने प्रतियोगिता जीत ली. लोगों ने कहा- ऐसा तो हम भी कर सकते थे. ये सभी ज्ञानवान थे, जो अंडे को विभिन्न तरीके से अपना ज्ञान लगाकर खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे. पर जिसने अंडे को फोड़कर खड़ा किया, वह व्यवहार कुशल था. उसने अंडे को खड़ा करने में अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं किया, बल्कि उसने व्यावहारिकता बताई और प्रतियोगिता जीत ली. वहाँ जितने भी लोग से वे अंडे को खड़ा करने में अपना ज्ञान लगा रहे थे, पर इस व्यवहार कुशल व्यक्ति ने अपनी बुद्धि का परिचय दिया.
इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ज्ञानवान है, किंतु व्यवहार कुशल नहीं, वह अपनी इस कमी के कारण जीवन में पीछे रह सकता है. उसी प्रकार व्यवहार कुशल व्यक्ति भी अपने ज्ञान क्षेत्र की कमी के कारण पीछे रह सकता है, लेकिन इसके अवसर बहुत ही कम होते हैं, क्योंकि व्यवहार कुशल व्यक्ति यदि थोड़ा सा भी सजग हो, तो अपनी बुध्दि और चतुरता से ज्ञान प्राप्त कर दोनों को अपना सकता है. दूसरी ओर ज्ञानवान व्यक्ति में इस तरह के चातुर्य का अभाव होता है, क्योंकि उसका अहम् इसमें आड़े आता है. इसी अहं भाव के कारण वह व्यवहार में पिछड़ जाता है. यह सच है कि ज्ञान की दूरदर्शिता की जहाँ-जहाँ ंजरूरत होती है, वहाँ-वहाँ उस व्यक्ति को याद अवश्य किया जाता है, किंतु व्यवहार कुशलता के अभाव में एवं अपने अहं के कारण वह अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाता. तब बीता हुआ समय फिर उसे देता है - पश्चाताप के ऑंसुओं का खारापन.
जो व्यक्ति सफल हैं, निश्चित ही वह असफलता का सामना कर चुका है. तभी वह सफलता के मुकाम तक पहँच पाया है. वह जब-जब अपनी असफलता को भुलता है, तब-तब सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए वह क्षण भर के लिए अटक जाता है. इसीलिए किसी को अपने असफलता के दिन और उन दिनों में किए गए प्रयत्नों को भुलना नहीं चाहिए. यदि असफलता के दिनों में किए गए प्रयत्न उसके दिलो-दिमाग में छाए होंगे, तो वह निश्चित ही सफलता के मार्ग पर अटकेगा नहीं. उसका यह लगातार प्रयास उसे एक ऐसे शिखर पर पहँचाएगा, जहाँ उसकी एक अलग पहचान होगी.
आज का युवाजोश से भरा हुआ है. उनमें उमंग और उल्लास भरा हुआ है. वे हर पल कुछ नया कर गुजरने की तमन्ना रखते हैं और जीवन में आई हर चुनौती को एक टाइम-पास के रूप में स्वीकारते हैं. यही कारण है कि हर परेशानियों से वे अपनी व्यवहार कुशलता से बाहर निकल आते हैं. जब वे व्यवहार कुशलता में थोड़े से भी पीछे रह जाते हैं, तो प्रतिस्पर्धा में से ही बाहर हो जाते हैं. आज के दौर में समय बेलगाम घोड़े की तरह सरपट नहीं भागता, बल्कि चीते की तरह बियाबान पार करता है, या बाज की तरह आकाश चूमता है. यह मशीनी युग है और इस युग में जिसने भी समय के साथ चलने में थोड़ी सी भी लापरवाही या आलस किया, वह समय के हाथों इतनी दूर पछाड़ खा कर गिरता है कि यदि वह प्रतिस्पर्धा के मैदान से ही पूरी तरह आऊट हो जाए, या कर दिया जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
बुध्दिमता और व्यवहार कुशलता यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. इन दोनों की समानता ही व्यक्ति को सफलता के मार्ग पर आगे ले जाती है. जिस प्रकार ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति और पुरुष एक नई रचना के द्वारा इस संसार को आगे बढ़ाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य के स्वप्रयत्नों के द्वारा रचित बुध्दिमता और व्यवहार कुशलता सफलता को जन्म देती है और जीवन को आगे बढ़ाती है.
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 10 नवंबर 2008

लिफाफों में बंद खुशियाँ


डॉ. महेश परिमल
बचत एक मानवीय प्रवृत्ति है. यह विशेषकर महिलाओं में पाई जाती है. लेकिन कई बार वह भी उलझ जाती है कि उसके हाथ से कितना धन निकल गया. इसका हिसाब भी उसके पास नहीं होता. हमें यह तो पता होता है कि धन आया कहाँ से, पर धन के जाने का रास्ता हमें मालूम नहीं होता. जबकि वह हमारे ही हाथों से होकर गुजरता है. ऐसे में कैसे रोका जाए, इस चंचला लक्ष्मी को? आइए इस पर विचार करें-
बचत हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है. सब जानते हैं कि बचत जीवन के लिए आवश्यक है. 'बूँद-बूँद से घट भरे' मुहावरा ऐसे ही नहीं बन गया. आज इसी बचत के सिध्दांत को लेकर न जाने कितनी योजनाएँ बन रही हैं. कई कंपनियाँ केवल बचत को ही आधार बनाकर ऐस-ऐसे सपने बेच रही है कि लगता है हम सब-कुछ आसानी से प्राप्त कर लेंगे. वास्तव में ऐसा नहीं है. सब कुछ हमारी बचत पर ही निर्भर है.
उस दिन पत्नी से इसी बात पर विवाद हो गया कि इस महीने इतने अधिक रुपए कैसे खर्च हो गए. हम दोनों की पूरी तनख्वाह निकल गई, पर कहाँ कितने खर्च हुए, कोई बता नहीं पाया. एक महीने में अतिरिक्त खर्च हुए पूरे दस हजार रुपए, हिसाब लगाने बैठे, तो पाँच हजार के खर्च का पता चला. शेष पाँच हजार कहाँ गए? इस पर हम दोनों ही मौन थे. आश्चर्य इस बात का है कि घर में राशन, मसाला, और तेल सब वर्ष भर के लिए एक साथ ले लिया जाता है. बाकी कहाँ खर्च हुए? यह एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए शोध का विषय हो सकता है, पर हम सबके लिए यह आवश्यक है कि धन के आने का स्रोत तो हमें मालूम है, लेकिन जाने का स्रोत नहीं मालूम. ऐसा कैसे हो सकता है. यह सच है कि धन अपने साथ जाने का रास्ता लेकर आता है, पर जाने का रास्ता हमारे हाथ से ही होकर गुजरता है ना, तो फिर हमें ही क्यों नहीं मालूम कि हमारा धन कहाँ जा रहा है?
काफी सोच-समझकर हम दोनों ने एक उपाय सोचा. उपाय भी ऐसा, जो हम इसी बचत के लिए पहले से अपनाते आए हैं. वह उपाय था लिफाफा संस्कृति. लिफाफा संस्कृति से हम सब वाकिफ हैं. पर यही संस्कृति यदि हमारी बचत में काम आए, तो इसे बुरी नहीं कहा जा सकता. हमने भी उसे अपनाया. कुछ महीनों तक ऐसा किया, इससे यह तो पता चला कि हमारा वेतन जाता कहाँ है. फिर इससे यह भी पता चला कि अब हमें इत्मीनान से यह बता सकते हैं कि किस मद पर कितना खर्च हुआ और पिछले माह कितने रुपए बचे या अतिरिक्त खर्च हुए. हम अपने खर्च पर काबू पाना सीख चुके थे. इन लिफाफों से इतना तो पता चल जाता था कि हम कितने पानी में हैं?
आप भी यदि अपनी महीने भर की हाड़-तोड़ मेहनत को लिफाफों में विभाजित कर दें तो मेरा विश्वास हे कि आप भी अपने बेकाबू खर्च पर कुछ तो नियंत्रण पा ही सकते हैं. यदि आप लिफाफे बनाना चाहें तो उन लिफाफों पर मकान किराया, राशन, सब्जी, दूध, बिजली बिल, गैस, स्कूल फीस, बस फीस, आटो, पेट्रोल, टेलीफोन, अखबार, इंश्यारेंस, बच्चों की पाकिट मनी, बड़ों की पाकिट मनी, अचानक और बचत के लिफाफे बनाए जाएँ. इसमें से कुछ खर्च तो कॉमन हैं, जिसे होना ही है. हमारा वेतन इन लिफाफों में विभाजित हो गया. अब सावधानी यह रखनी होगी कि कब किस काम के लिए धन चाहिए, तो उसी लिफाफे से रुपए निकालें. कभी भी किसी भी लिफाफे से रुपए निकालकर बाद में रख देंगे, यह कहकर अपना काम चलाने लगें, तो यह युक्ति काम नहीं आएगी. जब जिस मद के लिए रुपयों की आवश्यकता हो, उसी मद से रुपए निकालें. आप स्वयं अनुभव करेंगे कि यह काम आसान है, बस इसे दिल से करने की जरूरत है.
लिफाफों के ऊपर नाम लिखे जाएँ, पर उपरोक्त नामों में से कुछ नाम आपको हैरत में डालेंगे. इसमें अचानक और बचत के लिफाफे कैसे? क्या होता है, जब कोई अचानक ही खर्च आ जाता है, जिसकी अपेक्षा ही नहीं थी, जैसे कोई बीमार पड़ गया या फिर अचानक कहीं जाना पड़ जाए. ऐसी स्थिति में यही लिफाफे काम आते हैं. यह आवश्यक नहीं कि ऐसी स्थिति हमेशा या हर महीने आए. कभी-कभी ही आती है, ऐसी स्थिति, पर उससे जूझने के लिए हिम्मत इसी धन से मिलेगी. घर का मुखिया एक सप्ताह के लिए यदि बाहर जाए, तो पेट्रोल तो बच गया, अब उसके रुपए लिफाफे में ही रह गए, वह अगले महीने काम आएँगे. इसी तरह बिजली बिल कभी कम आया, तो शेष रुपए उसी लिफाफे में ही रह जाएँ, तो बुरा क्या है? इस तरह यदि गैस दो महीने चलती है, तो एक बार आधी रकम रखे, दूसरी बार यह रकम पूरे गैस खरीदने के बराबर हो जाएगी. टेलिफोन बिल यदि दो माह में आता है, तो उसे भी इसी तरह संचालित किया जाए. लिफाफों में रकम है, तो वह बाद में बहुत काम आएगी, एकदम से बोझ आप पर नहीं आएगा. इस तरह से हाथ के खुले होने पर नियंत्रण रखा जा सकता है. धीरे-धीरे इसे आदत में शुमार कर लिया जाए, तो हम एक अच्छी आदत के स्वामिनी बन सकती हैं.
इसे तय मानें कि महँगाई बढ़ती ही रहेगी, इसे कम होना नहीं आता. इस दौरान वेतन तो नहीं बढ़ेगा, अलबत्ता नए खर्च आते रहेंगे. इसे इसी तरह 'मैनेज' किया जा सकता है. जिन लिफाफों से आप शादी-समारोहों में खुशियाँ बाँटते हैं, उन लिफाफों से घर की खुशियाँ नहीं खरीद सकते. आप एक बार घर में इन लिफाफों में अपना वेतन विभाजित करके तो देखें, आप पाएँगी कि आप एकाकार हो गई हैं. सबको साथ लेकर चलने लगी हैं. आप आगे होंगी, पीछे घर के सदस्य. हो सकता है बाद में पूरा मोहल्ला ही आपसे जानना चाहे, आपकी खुशियों का रांज. आपकी, ईमानदारी आपकी दूरदर्शिता काम आ सकती हैं, अनजाने में आप कई लोगों की प्रेरणा बन सकती हैं.
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 8 नवंबर 2008

सौंदर्य प्रसाधनों पर आश्रित नहीं है सुंदरता


भारती परिमल
सुंदरता सभी को अच्छी लगती है और सुंदरता का सानिध्य भी. जब बाहरी सौंदर्य को अधिक महत्व दिया जाता है, तब यह बात विचारणीय हो जाती है कि क्या सफल और लोकप्रिय होने के लिए सुंदर होना ंजरुरी है? सही मायनों में सुंदरता, सौंदर्य प्रसाधनों पर निर्भर नहीं रहती. आज खूबसूरती की परिभाषा बदल गई है. केवल सुंदर नैन-नक्श, गोरा रंग, ऊँचा कद, पतली कमर ही सुंदरता की परिधि में नहीं आते. आज सुंदरता का पैमाना आकर्षक व्यक्तित्व, बुध्दिमता, हांजिर जवाबी, आत्मविश्वास आदि को माना जाता है. ंजरुरी नहीं कि ये सभी गुण व्यक्ति में जन्म से ही हो. लेकिन यह भी सच है कि इन सभी गुणों को अपने अंदर प्रयासों से विकसित किया जा सकता है. यहाँ हम कुछ ऐसे उपाय दे रहे हैं, जिन्हें अपनाकर साधारण नैन-नक्श वाले भी बिना सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग के सभी के बीच आकर्षण का केन्द्र बन सकते हैं-
1. आपका व्यक्तिगत दृष्टिकोण-सबसे पहले आप स्वयं के बारे में अपना एक दृष्टिकोण बनाएँ. फिर कल्पना करें कि आप अपने आप में क्या परिवर्तन देखना चाहते हैं. अपने मस्तिष्क में स्वयं की एक छवि बना लें, उसके बाद उसे साकार करने का प्रयत्न करें. किसी अभिनेत्री या मॉडल से प्रेरित होकर कभी भी स्वयं के विषय में ऐसी कल्पना न करें, जो संभव ही न हो. हमेशा यथार्थ के धरातल पर रहते हुए सटीक कल्पना करें. जैसे यदि आप मोटी हैं, तो छरहरी काया की, और साँवली हैं, तो निखरी त्वचा की कल्पना कर सकती हैं, क्योंकि यह सभी प्रयत्नों के द्वारा संभव है.
2. दर्पण बढ़ाए प्रोत्साहन - दर्पण में वास्तविकता झलकती है. कहा भी जाता है कि दर्पण झूठ न बोले. आप जैसे हैं, आपका प्रतिबिम्ब वैसा ही दर्पण में स्पष्ट झलकता है. दर्पण आपकी कल्पना को साकार करने में आपका सच्चा मित्र साबित हो सकता है. जब भी दर्पण में अपना चेहरा देखें, स्वयं मे किए जा सकने वाले परिवर्तनों की कल्पना करें. इसकी सहायता से ही आप स्वयं में हुए सकारात्मक परिवर्तनों के बारे में जान सकते हैं. यह भी ध्यान रखें कि कभी भी विकृत, धव्बेयुक्त या टूटे हुए दर्पण का प्रयोग न करें, क्योंकि इसमें बनने वाला प्रतिबिम्ब भी विकृत ही होगा. परिणामत: आप स्वयं के बारे में वैसी ही धारणा मन में बिठा लेंगे. आपके आत्मविश्वास में भी कमी आएगी और उसी के अनुरूप आपके व्यवहार और विचारों में नकारात्मकता आएगी.
3. स्वयं के लिए समय निकालें- आप चाहें कामकाजी हो, या गृहिणी. सप्ताह में एक दिन स्वयं के लिए समय अवश्य निकालें. कभी बालों को हिना करें, कभी मेनिक्योर, पेडिक्योर या फेशियल, वेक्सिंग करें. कभी चेहरे पर लेप लगाकर सूखने तक ऑंखें बंद कर आराम करें. इस प्रकार आप अपने दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर स्वयं को देंगी, तो निश्चित ही आपके सौंदर्य के साथ-साथ आत्मविश्वास में भी वृध्दि होगी. सुंदरता आपके अंदर ही छिपी होती है. आवश्यकता है, केवल उसे निखारने की. आपका आकर्षक लगना यह साबित करता है कि आप अपने शरीर एवं त्वचा का कितना ध्यान रखती हैं.
4. आत्मविश्वासी बनें- आप जो भी पहनें, जैसा भी पहनें, परंतु अपने भीतर आत्मविश्वास की कमी न आने दें. यदि आप समयाभाव या अन्य किसी कारण से कपड़ो पर प्रेस करना भूल गए हों, परिधान के अनुरूप श्रृंगार न कर पाए हों, तो इसके लिए अधिक व्यग्र होने की ंजरूरत नहीं. आपकी व्यग्रता से दूसरों का ध्यान सहज ही आपकी ओर केंद्रित हो जाएगा. इसकी अपेक्षा यदि आप इस ओर ध्यान न देते हुए अपना काम पूरे आत्मविश्वास के साथ करेंगे, तो लोगों को अपनी ईमानदारी से आकर्षित कर पाएंगे और प्रशंसा के पात्र भी बनेंगे. दूसरों के द्वारा प्राप्त प्रशंसा को दिल से स्वीकारें, क्योंकि यह प्रशंसा आपके आत्मविश्वास को बढ़ाती है, इसके विपरित यदि आप अपनी प्रशंसा सुनकर उसे अनसुनी कर देंगें, तो सामने वाला इसे अपना अपमान समझेगा और भविष्य में आपकी प्रशंसा करना तो दूर, आपसे दो बातें करने में भी दो पल सोचेगा. इससे बेहतर है कि अपनी प्रशंसा सुनकर हल्की मुस्कराहट के साथ उसका धन्यवाद करें और इस गरिमामय प्रशंसा को स्वीकार करें. आत्मविश्वास की राह में प्रशंसा एक सीढ़ी का काम करती है. इस पर चढ़कर आपको अहंकार को नहीं छूना है, वरन् सौम्यता को अपने व्यवहार में स्थान देकर एक नया सफर तय करना है.
5. प्रतिदिन एक कार्य आत्मसंतोष के लिए करें- किसी असहाय की मदद करना, बीमार की सेवा करना, भूखे को खाना खिलाना, निरीह पशु-पक्षी का ध्यान रखना आदि छोटे-छोटे कामों में असीम आनंद एवं संतोष मिलता है. इसके अतिरिक्त ज्ञानवर्धक पुस्तक पढ़ना या अपनी अभिरुचि के अनुसार नृत्य, संगीत, पेंटिंग या ऐसा कोई काम जो आपको आत्मिक संतोष देता हो, उसे करें. दूसरों की भावनाओं का ध्यान तो रखें ही साथ ही अपनी भावनाओं को भी ठुकराएँ नहीं. दूसरों की तरह आपका भी अस्तित्व है, यह बात कभी न भूलें. इसलिए ऐसे काम दिन में कोई एक अवश्य करें, जिससे स्वयं को आत्मसंतोष मिलें. उपर बताए गए तरीकों में से आप जो भी चुनें, उसे अपनाकर स्वयं में होने वाले परिवर्तनों को, भावनाओं को और अनुभवों को डायरी मेें कलमबध्द करना न भूलें. फिर देखें आपके चेहरे पर आत्मसंतोष का कैसा निखार आता है.
6. सहयोगी मित्र बनाएँ- ऐसे सहयोगी मित्रों की तलाश करें, जो आपको यह बताने में बिल्कुल न झिझकें कि किस प्रकार के वस्त्र, आभूषण आदि आप पर खिलते हैं और किस प्रकार के नहीं. यदि आप स्वयं में कुछ नया परिवर्तन करना चाहें, तो आपको हतोत्साहित करने की अपेक्षा प्रोत्साहित करें. साथ ही आपकी तारीफ में दो शद्व कहने से भी न चूकें. उनके द्वारा की गई प्रशंसा से प्रोत्साहित हो कर आप नए सिरे से स्वयं को निखारने का प्रयत्न करें. यह प्रशंसा आपके लिए एक उत्प्रेरक का कार्य करेगी और आपके लक्ष्यप्राप्ति में सहायक होगी. ध्यान रखें, ऐसा ही व्यवहार सहयोगी मित्र के प्रति आप भी अपनाएं.
7. अपने अंतर्मन की आवाज सुनें- प्रत्येक व्यक्ति,अपनी आत्मा की आवाज सुन सकता है. यही आवाज उसे सही और गलत में भेद समझाकर सही दिशा में प्रेरित करती है, किंतु या तो हमारे पास इस आवाज को सुनने का समय नहीं होता, या हम उसे नजरअंदाज कर देते हैं. यदि हम इसे सुनें तो कभी भी स्वयं के प्रति लापरवाह नहीं हो सकते. उदाहरणस्वरूप - आइस्क्रीम, वेफर्स, फास्टफुड, कोल्डड्रिंक, नशीले पदार्थ आदि हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक हैं. यह हम अच्छी तरह से जानते हैं. कई बार हमारी अंतरात्मा हमें इससे रोकती भी है, किंतु हम इसकी आवाज को जिव्हा लोलुपता के कारण अनसुनी कर देते हैं. परिणामत: मोटापा, बैडोल शरीर, मधुमेह, केन्सर आदि अनेक व्याधियों के शिकार बन जाते हैं. इसीलिए अंतर्मन की आवाज को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए. हमेशा उससे प्रेरित होकर सही मार्ग चुनें.
8. सुंदरता को व्यक्त करना सीखें- स्वयं के प्रति आप जैसी भावना रखेंगे, वैसी ही भावना अन्य लोग के मन में आपके प्रति उत्पन्न होगी. यदि आप स्वयं को सुंदर और आकर्षक महसूस करेंगे, तो दूसरे भी आपके प्रति ऐसा ही सोचेंगे और यदि आप स्वयं को बदसूरत एवं आकर्षणहीन समझेंगे, तो निश्चित ही यही भाव सामने वाले के मन में आपके प्रति उत्पन्न होंगे. इसलिए स्वयं को दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करने का तरीका बदलें. स्वयं को नया और बेहतर लुक देने के लिए हमेशा कुछ अलग हटकर और नया करने का प्रयास करें. कभी अपना हेयर स्टाइल बदलें, परिधान में कभी रंगों का चयन अलग हो. स्वयं के लिए मन में कभी नकारात्मक विचार न आने दें. कहीं निकलने के पूर्व एक क्षण को रूकें, स्वयं को दर्पण में निहारें, ऑंखें बंद करके गहरी साँस लें और स्वयं को दिनभर के लिए ऊर्जावान महसूस करें, फिर आत्मविश्वास के साथ निकल पड़े लक्ष्य की ओर.
व्यक्तित्व निखार के ये टिप्स आप में एक नई ऊर्जा भर देंगे, यह मानकर चलें कि बदसूरती हमारे ही भीतर होती है, उसे हमारा आत्मविश्वास ही खूबसूरत बनाता है. इन टिप्स को अपनाकर आप लोगों के बीच खूबसूरती की एक नई परिभाषा देंगे.
भारती परिमल

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

आप की बोली


एक तो बुढ़िया नाचनी, दूजे घर भा नाती. (बुंदेली)
बुढ़िया एक तो वैसे ही नाचने वाली थी, इस पर जब उसके घर नाती हुआ, तो फिर भला वह नाचने से कैसे बाज आती?
मतलब यह कि जब किसी काम के दो-दो कारण उपस्थित हो जाएँ, तब तो फिर बात ही क्या है?

बापानुं व्हाण, बेसवानी ताण. (गुजराती)
मतलब यह कि पिता के जहाज पर पुत्र को ही बैठने का स्थान नहीं मिला अर्थात् अपने ही घर में खुद के लिए सुविधा न हो.

वारया न वरे, हारया वरे. (गुजराती)
समझाने पर नहीं समझते, पर भुगतने पर सब कुछ समझ जाते हैं.

राम राखे एने कोण चाखð (गुजराती)जिसका रखवाला ईश्वर होता हैे,उसका बाल बाँका नहीं हो सकता.

इंडा एना मिंडा, कान एना थान. (गुजराती)जो अंडे देते हैं, उनके कान नहीं होते, कान के स्थान पर केवल गोले बने होते हें, जिनके कान होते हैं, वे स्तनपायी होते हैं.

एवुं सोनु शुं पहरीये, के कान तूटे. (गुजराती)मतलब यह कि अच्छी वस्तुओं को भी आवश्यकता से अधिक नहीं पहनना-खाना चाहिए, वरना वे लाभ से अधिक हानि पहुँचाती हैं.
इसी लोकोक्ति को पंजाबी में कहते हैं- इन्ना सोणा न पाओ की कन टुटण.

मन होय तो मांड़वे जवाय
मन हो तो मंजिल मिल ही जाती है.

खींचा खाली ने भभका भारी
जेब भले ही खाली हो, पर दिखावे में सबसे आगे.


ऊंट बहाइल जाय गदहा कहे, केतना पानी (भोजपुरी)
इसे ही अवधि में कहते हैं- ऊंटवा बहा जाय, गदहवा थाह लेय.
मतलब यह कि जब कोई कार्य समर्थ व्यक्ति से भी न हो और असमर्थ उसे करने का प्रयत्न करे.

हियांरा रो हाको, सो कोस तक जाय. (मालवी)इसे ही पंजाबी में कहा जाता है- गिदड़ रोण सारे सुनण.
मतलब यह कि जो व्यक्ति एक-दूसरे का बहुत साथ देते हों, उनके प्रति व्यंग्य से कहते हैं कि इनमें से एक बोला, तो उसकी आवांज सौ कोस तक पहुँच जाएगी.

कब बबा मरही, कब बरा खाबोन . (छत्तीसगढ़ी)मतलब यह कि हमें समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए. बस अपना काम ही करते रहना चाहिए.

बुधवार, 5 नवंबर 2008

आज की शिक्षा पद्धति के खिलाफ बजाया बगावती बिगुल


डॉ. महेश परिमल
पिछले महीने ही स्वर कोकिला लता मंगेशकर जी का जन्म दिन था। इस दौरान रेडियो-टीवी पर उनके कई गीते बजाए गए। ऐसे ही एक कार्यक्रम में बताया गया कि लता जी अपने जीवन में केवल एक दिन ही स्कूल जा पाई। उसके बाद उन्होंने शाला के देहरी पर कदम नहीं रखा। इसके बाद भी अपने आपको शिक्षा से दूर नहीं किया। घर पर ही उन्होंने सारी शिक्षाएँ ग्रहण की। आज वह कई भाषाओं की ज्ञाता भी है और संगीत साधना के बारे में क्या कहा जाए? वह आज भी रियाज करती हैं, इससे ही स्पष्ट है कि उन्होंने स्वयं को संगीत के लिए ही समर्पित कर दिया है। यदि वे शाला जाकर शिक्षा प्राप्त करती, तो संभवत: इतनी सफलता उन्हें नहीं मिलती। आज शिक्षा की जो स्थिति है, उसे देखकर यही लगता है कि अपने बच्चों को शाला भेजना ही बंद कर दिया जा॥
आजकल हर पालक अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर च्ािंतित है। सभी ने अपने बच्चों पर अपेक्षाओं का बोझ लाद रखा है। इसके चलते स्कूलों के अपने नखरे, उस पर आज की शिक्षा पद्धति, जिसकी आलोचना हर कोई करता है, सुधार की बात भी करता है, पर इसकी आवश्यकता को समझते हुए भी कोई इसे पूरी तरह से अस्वीकार भी नहीं कर सकता। पालकों की इसी विवशता का पूरा फायदा उठा रहा है, आज का शिक्षा माफिया। आज की शिक्षा में आमूलचूल परर्िवत्तन की बात हर कोई कर रहा है, पर इसमें बदलाव किस तरह लाया जाए, इस पर कोई आगे नहीं आना चाहता। केंद्र और राय सरकारें अपने आप को बचाने में ही लगी हैं। इस दिशा में ध्यान देने के लिए शिक्षा के नाम पर खर्च होने वाले अरबों रुपए ही दिखाई देते हैं। इसी घोर अव्यवस्था को देखते हुए कुछ पालकों ने अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया है। यह एक आश्चर्यजनक निर्णय था, लेकिन आज की इस अव्यवस्था के खिलाफ कुछ तो कदम उठाना ही था, इसलिए उन लोगों ने हिम्मत की, उसके परिणाम भी अच्छे आए।
सूरत के 15 वर्षीय उत्कर्ष ने तीसरी कक्षा से स्कूल जाना छोड़ दिया। आज वह बड़े-बड़े प्रोफेसरों को ऍंगरेजी स्पीकिंग की शिक्षा दे रहा है। उत्कर्ष के पिता शिवकुमार गहलोत पर्सनल ट्रेइनर हैं और सूरत के बाद वापी में पर्सनालिटी डेवलपमेंट की क्लासेस चलाते हैं। स्कूल में तेजस्वी बच्चों के साथ अन्याय होने के कारण उन्होंने अपनी दोनों संतानों को घर पर ही शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। अमेरिका तो इस मामले में बहुत ही आगे है, वहाँ 25 वर्ष पहले से ही 'ग्रोइंग विदाउट स्कूल्ािंग' नामक एक अभियान चलाया गया, जो सफल रहा। इस अभियान के अंतर्गत 20 लाख बच्चे आज अपने पालकों के बीच ही रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इसके बाद भी वे सभी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों से अधिक स्मार्ट और तेजस्वी हैं।
अमेरिका के एक शिक्षक जॉन हाल्ट ने अपने वर्षों के अनुभव के आधार पर यह माना कि आज की शिक्षा पद्धति बच्चों की प्रतिभा को खिलाने के बजाए मुरझाने का काम कर रही है। इस कारण उन्होंने 1977 में 'ग्रोइंग विदाउट स्कूलिंग' नाम मैगजीन शुरू की। जॉन का मानना था कि स्कूल का वातावरण खराब है, क्योंकि वहाँ पढ़ने के बाद बच्चा छोटी आयु में ही लोगों की दुनिया से अलग हो जाता है। विजेता और पराजित का भाव उत्पन्न कर देती है। शिक्षा को अनिवार्य बना देने से बाकी की जिंदगी के साथ का अनुसंधान तोड़ डालता है। इसे ध्यान में रखते हुए यह विचार आया कि बच्चों को अनिवार्य शिक्षा के त्रास से छुटकारा दिलाने के लिए कुछ अलग किया जाना चाहिए। 1985 में जॉन हाल्ट का देहांत हो गया, उसके बाद भी यह अभियान जारी है और अब इसकी जरुरत सभी महसूस कर रहे हैं।
जॉन हाल्ट को सबसे पहले जब यह विचार आया कि बच्चों को स्कूल में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, तो उन्होंने इस विचार वाले पालकों को खोजना शुरू किया। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनके विचार को समर्थन देने वाले कई पालक उनके साथ थे। ऐसे कई पालक मिले, जो तत्कालीन शिक्षा पद्धति से नाराज थे, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया। अमेरिका में किसी बच्चे को स्कूली शिक्षा से वंचित रखना एक अपराध माना जाता है। तो इस काम को कई पालन चोरी-छिपे इसे अंजाम देते थे। इसे ध्यान में रखते हुए जॉन ने 1977 में चार पन्नों का न्यूसलेटर स्वरूप में 'ग्रोइंग विदाउट स्कूल' नामक मैगजीन शुरू की। अपने अनुभव के आधार पर जॉन हाल्ट ने बताया कि स्कूल में जब कोई बच्चा अच्छा प्रदर्शन नहीं करता या फिर गुमसुम-सा रहता, तो दूसरे शिक्षक यही समझते कि यह बच्चा आलसी है या दिमागी रूप से अस्वस्थ है। किंतु वे ऐसा नहीं सोचते, उनका मानना था कि बच्चा यदि अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है। उन्होंने देखा कि शाला में आने वाला हर बच्चा भयभीत रहता और आते ही परेशानी का अनुभव करता। इस कारण वे कुछ भी प्रसन्नता पूर्वक सीख नहीं पाता था। भय के कारण उनकी बुद्धि भी कुंठित हो गई थी। इस हालात को देखते हुए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भय विद्यार्थी का सबसे बड़ा दुश्मन है। दूसरी ओर शिक्षकों के मन में जब तक यह विचार नहीं आएगा कि बच्चों को क्या पढ़ाना है और कैसे पढ़ना है, जब तक यह बात साफ नहीं होगी, तब तक बच्चे कुछ भी नहीं सीखेंगे। इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने किताब लिखी 'विद्यार्थी फेल क्यों होते हैं?' यह किताब प्रसिद्ध हुई और जाून हाल्ट की बातों को लोग और भी गंभीरता से लेने लगे।
होम स्कूलिंग अभियान के समर्थक मानते हैं कि बच्चा बोलना और चलना कैसे सीखता है? इस दो मुश्किल कामों के लिए क्या उसे किसी स्कूल में जाने की आवश्यकता पड़ती है? उसके बाद घर में रहकर वह भाषाएँ सीखता है, इसके लिए भी क्या उसे स्कूल जाने की जरुरत पड़ती है? इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि बच्चे में अपने आप ही कुछ सीखने की प्रवृत्ति प्रकृति से मिली है। होम स्कूलिंग इसी प्राकृतिक शक्ति को खिलाने का काम करती है, जिससे बच्चा अपने आप ही कुछ नया सीख सके। होम स्कूलिंग में कक्षाएँ होती हें, टेक्स्ट बुक होती है, साथ ही परंपरागत शिक्षण पद्धति का भी उपयोग किया जाता है। पर कुछ भी विद्यार्थी पर थोपा नहीं जाता। विद्यार्थी स्वयं ही तय करते हैं कि इनमें से किसका, कब, कैसे उपयोग करना है। एक छोटे से उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि शाला की परंपरागत शिक्षा और होमस्कूलिंग में क्या अंतर है। यदि क्लास में मकड़ी के बारे में कुछ बताना है, तो शिक्षक मकड़ी का चित्र ब्लेकबोर्ड पर बनाकर उसके बारे में तमाम जानकारी दे देगा, दूसरी ओर होमस्कूलिंग में इसे बच्चा खुद आगे आकर सीखता है। जैसे बच्चा अपने पिता के साथ भोजन कर रहा है। अचानक उसकी नजर कमरे के कोने पर जाती है, जहाँ पर मकड़ी जाले बुन रही है। बच्चा खाना छोड़कर मकड़ी की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देखेगा। उसकी हरकतों को समझने की कोशिश करेगा, फिर इसके बारे में समझदार लोगों से चर्चा करेगा, फिर भी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, तो वह किताबों का सहारा लेगा और मकड़ी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करेगा। इस तरह से कुछ ही समय बाद वह मकड़ी के बारे में बहुत कुछ जान लेगा। उसका ये प्रयास प्रामाणिक होगा साथ ही स्कूल में परंपरागत रूप से पढ़ने वाले बच्चों से हटकर होगा।
होम स्कूलिंग पर विश्वास रखने वाले लोग क्लबों की स्थापना करते हैं, उसमें वे नियमित रूप से मीटिंग रखते हैं। ये क्लब कई तरह के हो सकते हैं, पक्षीविज्ञान, जादू विद्या, आकाशदर्शन, नाटय संगीत, काव्यपाठ, निबंध लेखन आदि विषयों से जुडे क्लब, जहाँ हर सप्ताह विशेषज्ञ आते हैं और बच्चों की विषय संबंधी जिज्ञासा को शांत करते हैं। इस तरह के क्लबों में किसी तरह की कोई परीक्षा नहीं होती और न ही अंक दिए जाते हैं, इसलिए बच्चे मन लगाकर अपनी तमाम जिज्ञासाओं को शांत करते हैं। इससे उनमें शिक्षा के प्रति आदर का भाव जागता है और जानने-समझने की राह आसान हो जाती है।
कोई भी पालक अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर जब घर पर ही पढ़ाने का संकल्प लेता है, तो वह एक अलग ही तरह के डर का शिकार हो जाता है। बच्चा बराबर पढ़ेगा या नहीं, स्कूल से निकालकर कोई गलत तो नहीं किया, अन्य बच्चों से मेरा बच्चा पिछड़ तो नहीं जाएगा, उसे कॉलेज में प्रवेश मिलेगा या नहीं, भविष्य में माता-पिता के साथ झगड़ा तो नहीं करेगा, बच्चा कभी पूछेगा तो नहीं कि मुझे स्कूल से क्यों निकाल दिया गया? पालकों की इन च्ािंताओं को ध्यान में रखते हुए जब घर पर ही शिक्षा प्राप्त करने वाले 53 विद्यार्थ्ाियों से पूछा गया, तो उनमें से 51 ने इसे सही बताते हुए कहा कि हमें अब जब भी स्कूल जाने का अवसर मिलेगा, तो हम घर पर रहकर पढ़ना चाहेंगे। दूसरी बात इनमें यह देखने में आई कि स्कूल-कॉलेजों में पढ़े हुए बच्चों में बेरोजगारी देखी गई, जबकि इन बच्चों को हमेशा अलग ही देखा गया। इन बच्चों का मानना था कि जो बच्चे स्कूल में अधिक अंक लाते हैं, उनका यह अर्थ कतई नहीं है कि वह जीवन में अधिक सफल होंगे या अधिक धन कमाएँगे।
अपने बच्चों को घर पर ही पढ़ाने वाले करीब सौ परिवारों से मिलकर एलन थॉमस ने एक किताब लिखी 'एयूकेटिंग चिल्ड्रन एट होम', इस लेखक का कहना है कि जब तक बच्चे में जानकारी का विश्लेषण करने की शक्ति होती है, तब तक वह पढ़ना-लिखना देर से सीखता है, इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। आज तीन-चार साल के बच्चे को रेम गाते हुए और एबीसीडी लिखते हुए देखना हमें भले ही अच्छा लगता हो, पर यह गलत है। इस पर गंभीरतापूर्वक सोचा जाना चाहिए। आज जैसे-जैसे स्कूली शिक्षा परेशानी का सबब बन रही है, वैसे-वैसे होम स्कूलिंग अभियान जोर पकड़ने लगा है। अमेरिका के लोगों ने समझ लिया है कि बच्चों को स्कूली की अव्यवस्था की चक्की में पिसने से बचाना है, तो उन्हें घर पर पढ़ाया जाए। राष्ट्रीय पाठयक्रम, कठिन परीक्षाएँ, स्कूल के अधिक घंटे, अधिक होमवर्क, पाठय पुस्तकों का बोझ, शिक्षा के लिए अधिक से अधिक धन, इन सारी बातों को देखते हुए यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है कि इससे शिक्षा के स्तर में सुधार होगा। आज बच्चों को स्कूल में प्रयोगशाला का प्राणी मानकर शिक्षा दी जा रही है। इसके बदले यदि उसे शिक्षा की प्रक्रिया में शामिल किया जाए, तो निश्चित रूप से इसमें सुधार हो सकता है।
विद्यार्थी के भीतर कई संभावनाएँ मौजूद होती हैं, उसकी क्षमताओं और कौशल को बाहर लाया जाए, ऐसे अवसर तैयार करने होंगे, वह जीवनोपयोगी चीजें सीख सके। आज देश के मेट्रोपोलिटन शहरों में अनेक पालक अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ा रहे हैं, इस तरह से घर पर रहकर पढ़ने वाले इतने अधिक स्वावलम्बी होते हैं कि वे रोजगार पाने के लिए कतार में खड़े नहीं होते। उन्हें अवसर मिलते जाते हैं और वे अवसर का लाभ लेने में जरा भी देर नहीं करते। तो आप कब निकाल रहे हैं अपने बच्चों को स्कूल के बोझिल वातावरण से......?
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

बेशुमार दौलत = तनाव और असुरक्षा


डॉ. महेश परिमल
दीपावली तो चली गई, पर अभी भी उपहार देने और लेने का सिलसिला जारी है। इस दौरान लोग आपस में मिलकर बधाई देना भी नहीं भूल रहे हैं। परस्पर शुभकामनाएँ देना और दीपोत्सव पर आपसी भाईचारे की मिसाल देकर सुखद जीवन की कामना भी कर रहे हैं। यह त्योहार मुख्य रूप से धन को अपनी ओर आकर्षित करने का होता है। धन यानि जिससे वैभव के संसाधन खरीदे जा सकें। जो जितना अधिक धनी, उसके पास उतनी ही अधिक वैभव और ऐश्वर्य की चीजें। लोगों का यही मानना है कि जिसके पास सम्पत्ति जितनी तेजी से बढ़ती है, उसी तेजी से उसके पास सुख बढ़ता है। उनके लिए पैसा ही सब-कुछ है। पर देखा जाए तो अब यह धारणा पूरी तरह से निर्मूल सिद्ध हो चुकी है कि पैसा ही सब-कुछ है। अब तो अरबपति भी यह मानने में कोई संकोच नहीं करते कि कई बार ऐसी स्थिति आई, जिसके समाधान के लिए पैसा कोई काम न आया। तो फिर काम क्या आया? यदि आप यह जानना चाहते हैं, तो इस आलेख को पूरा पढ़ना पड़ेगा।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स के अर्थशास्त्री रिचर्ड लेयार्ड कहते हैं कि हाल के दशकों में इकट्ठी की गई जानकारियों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति की आय 5 लाख रुपए वार्ष्ािक के पार हो जाती है, तो आय के अनुसार उनके सुख में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होती। उदाहरण के रूप में जापान में प्रति व्यक्ति आय 1958 से 1987 तक आय में पाँच गुना वृद्धि होने के बाद भी उनके सुख के स्तर में कोई खास वृद्धि नहीं हुई। बचपन में कभी पढ़ा था, जिसमें संतों की वाणी में कहा गया था कि ''जब आयो संतोष धन बाबा, सब धन सूरि समान रे! अर्थात् जीवन में सबसे बड़ा धन यदि कोई है, तो वह है संतोष, इंसान के पास सभी प्रकार की धन-दौलत आने के बाद भी सुख नाम के प्रदेश में पहुँचने का अहसास होता नहीं है। जिस क्षण मानव के भीतर संतोष की अनुभूति होती है, तभी उसे लगता है कि अब उसे धन की कतई आवश्यकता नहीं और अब वह भीतर से सुख का अनुभव कर सकता है। हमारे संतों की वाणी को अब विदेशों में भी स्वीकारा जाने लगा है।
धन के बारे में यह कहा गया है कि इंसान जितना इसके पीछे भागता है, यह उससे उतना ही दूर चला जाता है। यदि आता भी है, तो जाने के रास्ते निकालकर ही आता है। साथ ही अपने साथ ढेर सारे तनाव लेकर आता है। यानि जितना धन, उतना तनाव। इसके साथ धन के साथ एक बात और कही जाती है, वह यह कि इसे कमाने में जितना अधिक आनंद आता है, उससे अधिक आनंद उस धन को जरूरतमंदों को देने में आता है। तिजोरी में पड़े धन से किसी प्रकार का आनंद नहीं आता, दान से धन की वृद्धि तो होती है, पर दूसरे रूप में हमारे सामने आती है। यह आनंद सात्विक होता है। यही कारण है कि हमारी भारतभूमि में दानवीर कर्ण जैसे महापुरुष पैदा हुए हैं, जिन्हें अपना सब-कुछ देने में कोई संकोच नहीं होता था। धन असुरक्षा को जन्म देता है। जिसके पास जितना धन है, वह उतना अधिक असुरक्षित है। जिसके पास धन नहीं है, उसे किसका डर? वास्तव में धन अपने साथ तनाव ही नहीं, बल्कि असुरक्षा की भावना को अपने साथ लाता है। जिसके पास संतोष का धन है, आज वही सबसे अधिक धनी और सुखी व्यक्ति है।
किसी गरीब आदमी को एकाएक अकल्पनीय दौलत मिल जाए, तो वह खुशी से पागल हो जाता है। ऐसा हम सबने किसी न किसी को लॉटरी निकलने पर देखा ही होगा। हकीकत यह है कि यह खुशी अधिक समय तक नहीं टिकती। अर्थशास्त्री रिचर्ड लेयार्ड लॉटरी जीतने वाले लोगों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जब वे लॉटरी जीतते हैं, तब उनके आनंद की सीमा नहीं रहती। दिन बीतने के साथ-साथ उनके आनंद में कमी आ जाती है। कुछ समय बाद उनका आनंद पूरी तरह से समाप्त हो जाता है। उसके बाद भी लोग लॉटरी खरीदकर रातों-रात करोड़पति होने की लालसा क्यों रखते हैं? इसके जवाब में लेयार्ड कहते हैं कि उसका मुख्य कारण यही है कि इंसान की नजर हमेशा पास की चीजें देखने में रहती है, यदि वे दूर की और जिंदगी का विचार करें, तो लॉटरी लगते ही वे पागल न बन जाएँ।

जिनके पास धन की कमी होती है, वे हमेशा यह सोचते हैं कि यदि उनके पास करोड़ों रुपए आ जाएँ, तो उनके जीवन की सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा। जिसके पास सच में करोड़ों-अरबों रुपए हैं, उनका अनुभव कहता है कि जीवन में अनेक समस्याएँ ऐसी होती हैं, जिनके समाधान के लिए धन बिलकुल भी मदद नहीं करता। देखा जाए, तो जीवन की कई समस्याओं के पीछे मुख्य रूप से बेशुमार दौलत ही है। मुम्बई के जाने माने डीएनटी सर्जन डॉ. नवीन हीरानंदानी के पास मलाबार हिल जैसे वैभवशाली इलाके में 3 हजार वर्गफीट का फ्लेट था, जिसके कीमत करीब दस करोड़ रुपए है। इसके बाद भी उनकी पत्नी उनसे अलग रहती, वे स्वयं भी डिप्रेशन का शिकार हो गए। करोड़ो रुपए की सम्पत्ति होने के बाद भी उनके जीवन में सुख नहीं था। एक दिन उन्होंने अपनी नस काटकर अपनी जीवनलीला की खत्म कर दी। यदि सम्पत्ति बहुत अधिक हो, तो वह भी संतानों को किसी प्रकार काम नहीं आती। वह सम्पत्ति उन्हें बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अब एस. कुमार्स समूह के बिगड़े नवाब अभिषेक कासलीवाल को ही लें, अधिक धन ने उन्हें शराबी और वेश्यागामी बना दिया। एक बार नशे में ही उन्होंने एक 52 वर्षीया महिला का बलात्कार कर दिया, तब यह सम्पत्ति उस परिवार की इात बचाने में भी काम नहीं आई। प्रमोद महाजन की मृत्यु के बाद उनकी दो हजार करोड़ की छोड़ गए, ऐसा कहा जाता है। इतना अधिक धन होने के बाद भी ड्रग्स के सेवन के आरोप में राहुल महाजन को जेल की हवा खानी पड़ी। परिवार की बदनामी हुई, सो अलग। धन से बदनामी को नहीं टाला जा सका।
ब्रिटेन के प्रसिध्द 'साइंस' जर्नल में यह बताया गया है कि आखिर धनदौलत से लोगों को सुख क्यों नहीं मिलता? इसमें बताया गया है कि धन से खुशियाँ खरीदी जा सकती है, यह मान्यता सर्वव्यापी है, पर भ्रामक भी है। एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि औसत से अधिक आय प्राप्त करने वाले लोगों मध्यम वर्ग के लोगोें की अपेक्षा अधिक सुखी नहीं होते। इनमें से औसत लोग तनाव में जीते हैं, साथ ही आनंद देने वाली प्रवृत्तियों की ओर कम ही ध्यान दे पाते हैं। वजह सफ है, इन्होंने संतोष से अधिक ध्यान धन पर दिया। उसी धन ने उन्हें वह सब-कुछ नहीं दिया, जिसकी वे कल्पना करते थे। जिनके पास धन की कमी होती है, वे हमेशा अधिक धन कमाने की सोचते हैं। यदि एक बार वे अपनी गरीबी से ऊपर उठ जाते हैं, तो जितनी तेजी से उनकी आवक बढ़ती है, उतनी तेजी से उनके सुख में वृद्धि नहीं होती।
उपरोक्त कथन को उदाहरण से समझने की कोशिश की जाए, तो बेहतर होगा। किसी के पास 100 करोड रुपए है, इसके बाद वह 100 करोड़ रुपए या फिर 500 करोड़ रुपए कमा ले, इससे उसकी जीवन शैली पर क्या प्रभाव पड़ेगा? एक सीमा के बाद यदि इंसान धन कमाता भी है, तो अधिक सुख-सुविधा के लिए नहीं कमाता। इसके पीछे होता है, उसका अहंकार। इसी अहंकार के पोषण के लिए वह अधिक से अधिक धन कमाता है। इससे बड़ी बात यह है कि धन की वृद्धि के साथ-साथ उसमें असुरक्षा की भावना बलवती होती जाती है। इस असुरक्षा को दूर करने के लिए वह अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है। एक बात सच है, वह यह कि दुनिया का सबसे अधिक खरबपति है, वह उतना ही अधिक भयभीत इंसान है। जो भयभीत नहीं है, तो उसे इतना अधिक धन जमा करने का कोई कारण भी नहीं है। दूसरी ओर जो निर्भय है और जो जीवन की आवश्यकताओं को समझता है, साथ ही थोड़े में संतोष करना जानता है, वह उतना ही अधिक पुरुषार्थ करता है। एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति के वेतन में यदि एक हजार रुपए की वृद्धि होती है, तो वह आनंद की अनुभूति करता है। उधर बिल गेट्स की आय में यदि 100 करोड़ डॉलर की वृद्धि होती है, तो उसे क्या फर्क पड़ता है? मध्यम वर्ग का आदमी अपने परिवार के साथ रास्ते चलते हुए कहीं भुट्टा खा लिया, या फिर बच्चों के साथ आइसक्रीम खा लिया, इससे उसे जो आनंद मिला, इसे वह स्वयं ही जानता है। इसी आनंद को प्राप्त करने के लिए बिल गेट्स यदि पाँच करोड़ डॉलर भी खर्च कर दे, फिर भी उस आनंद को छू भी नहीं पाएगा, जिस आनंद को उस व्यक्ति ने पाँच रुपए के भुट्टे या 100 रुपए की आइसस्क्रीम खरीदकर प्राप्त की थी।
इंसान के पास यदि धन बढ़ता है, जो जीवन में मुफ्त में मिलने वाली कई चीजों का पूरी तरह से उपभोग नहीं कर सकता। हृदय के भीतर से उमड़ने वाली खुशियों को कभी धन से प्राप्त नहीं किया जा सकता। धन से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता, यह जानते हुए भी आज हर कोई भागा जा रहा है, धन के पीछे। अभी विदेशों में एक मजेदार सर्वेक्षण हुआ। कुछ लोगों से यह कहा गया कि आपका वेतन कम कर दिया जाएगा, बदले में आपकी जवाबदारी कम कर दी जाएगी, आपके काम के समय को भी कम कर दिया जाएगा, क्या आपको यह मंजूर है? अधिकांश लोगों का यही कहना था कि वेतन कम मत करें, बाकी सब कम कर दें, तो चलेगा। इससे यही सिद्ध होता है कि आज भी दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो यह मानते हैं कि पैसे से सब-कुछ खरीदा जा सकता है। लेकिन सच नहीं है। किसी आदिवासी इलाके में यदि आप फँस जाएँ, तो उनके लिए पैसा कुछ नहीं होता, वे तो व्यवहार को समझते हैं, यदि वहाँ किसी रईस ने अपने धन का प्रलोभन आदिवासियों को दिया, तो समझ लो, आदिवासी उसके शरीर नाश्ता बनाकर ही दम लेंगे। यदि धन से हटकर व्यवहार किया, तो संभव है, वे उसकी पूजा भी करने लगे। किसी करोड़पति व्यक्ति की माँ या फिर पिता को एक विशेष समूह के खून की आवश्यकता हो, पैसा पानी की तरह बहाने के बाद भी समय पर खून न मिले, तो फिर क्या काम की दौलत? शहर में जब बाढ़ का पानी घुस आया हो, तो क्या उसे अपनी दौलत से रोक पाएँगे, क्या काम की वह दौलत, जो भूकंप के समय भी काम न आई। उस समय तो एक करोड़पति भी बिना इलाज के अपनी जान गँवा बैठता है।
अंत में यही कि धन अपने साथ तनाव और असुरक्षा लेकर आता है, धन कई समस्याओं के समाधान में काम नहीं आता। सीमा से अधिक धन अहंकार का ही पोषण करता है। धन मुस्कान तो दे सकता है, पर भीतर की हँसी नहीं दे सकता। धन की महत्ता उसे दान करने में है, संग्रह में नहीं। जहाँ धन है, वहाँ कलह है। धनी व्यक्ति की इात केवल स्वार्थी लोग करते हैं। किसी फकीर के सामने जाने से सबसे अधिक डर धनी व्यक्ति को ही लगता है। धनी व्यक्ति कभी खिलखिलाकर नहीं हँस सकता।
डॉ. महेश परिमल

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