सोमवार, 29 दिसंबर 2008

क्रेडिट कार्ड से मोहभंग


डॉ. महेश परिमल
हाल में एक फिल्म आई 'इएमआई', इस फिल्म में यही बताने की कोशिश की गर्इ्र है कि बैंक से रुपया लिया है, तो चुकाना ही पड़ेगा। अब यह बैंक पर निर्भर करता है कि वह किस तरह से अपना रुपया वसूल करे। इस दिशा में सुप्रीमकोर्ट का भी आदेश आ गया है कि लोन लेने वाले उपभोक्ता को किसी भी तरह का मानसिक या शारीरिक कष्ट न दिया जाए। पर मध्यमवर्गीय परिवार अच्छे से जानता है कि बैंक का एक नोटिस ही घर के सारे सदस्यों को तनावग्रस्त कर देता है। इस बात को गाँठ बाँधकर रख लो कि र्का से आप सब-कुछ खरीद सकते हैं, पर सुख नहीं। कर्ज से तनाव ही घर पर आएगा, धन तो रास्ते में ही खत्म हो जाएगा।
कुछ समय पहले तक क्रेडिट कार्ड का होना रसूखदार होना माना जाता था। लोग बड़ी से बड़ी खरीददारी आसानी से कर लेते थे। कई बार तो वे केवल अपनी शान बघारने के लिए ही ऐसी चीजें खरीद लेते थे, जो उनके किसी काम की नहीं होती थी। पर अब समय के साथ इसकी भी परिभाषा बदलने लगी है। अब तो लोगों का इस कार्ड के प्रति मोहभंग हो रहा है। अब यह सुविधा दु:खदायी होने लगी है। अब तो लोग किसी भी तरह इससे मुक्ति पाना चाहते हैं। अब यह चीज शान और रसूखदार होने की निशानी नहीं, बल्कि तनाव बढ़ाने वाली चीज बनकर रह गई है।
हमारे बुजुर्ग कह गए हैं कि देनदारी और कचरे में कोई अंतर नहीं है, दोनों ही तेजी से बढ़ते हैं। गहरे अर्थों वाली यह सीख लोगों को रास नहीं आई और लोग आसानी से मिलने वाले पर्सनल लोन और क्रेडिट कार्ड के चंगुल में मध्यमवर्ग फँसकर रह गया है। अब तो हालत यह हो गई है कि लोग अब पर्सनल लोन और के्रडिट कार्ड के बाकी की किस्तें भरने के लिए लोन लेने लगे हैं। इसमें में कोई फायदा नहीं है, यह तो वही बात हुई कि एक गङ्ढे से निकली मिट्टी उपयोग करने के लिए दूसरा गङ्ढा खोदना।
यह ध्यान में रखें कि क्रेडिट कार्ड देते समय उपभोक्ता और बैंक के बीच में एक एजेंसी होती है। एजेंसी अपना काम कमीशन के लिए करती है। उपभोक्ता को लोन मिलने के बाद एजेंसी बीच में से हट जाती है, रह जाते हैं ग्राहक और बैंक। इस सौदेबाजी में जो कुछ भी वादे होते हैं, वे एजेंसी की तरह से दिए गए होते हैं, बैंक का उन वादों से कोई लेना-देना नहीं होता। एजेंसी के हटते ही वे सारे वादे हवा में लुप्त हो जाते हैं। बैंक के वादे उसके स्टेटमेन कंप्यूटर में दाखिल किए गए साफ्टवेयर के अनुसार होते हैं। इसी कारण आज लेट पेमेंट का विवाद कई बैंकों के साथ क्रेडिटकार्डधारियों का हो रहा है। यदि बैंक के 25 रुपए भी बाकी हैं, तो आपके स्टेटमेन में 250 रुपए लेट फी की एंट्री कर दी जाती है।
आजकल की बैंके बहुत ही चालाक हो गई हैं। वह मध्यमवर्ग की मानसिकता को अच्छी तरह से समझती है। लोन और क्रेडिट कार्ड देते समय वह इसी मनोविज्ञान पर काम करती है। मध्यमवर्ग भी यह अच्छी तरह से जानता है कि अपनी इात की खातिर कुछ भी करके वह किस्तें भरेगा ही। इस वर्ग की इसी मानसिकता का बैंक लाभ उठाती हैं। नेता की तरह लुभावने वादे तो बैंक और ग्राहक के बीच सेतु बनती है एजेंसी। जो लोन मिल जाने के बाद दिखाई तक नहीं देती। उसे तो कमीशन चाहिए, जो उसे मिल जाता है। लोगो को दोनों हाथों से लूटने वाली बैंक आज अपने को कंगाल बता रही हैं। हाल में आई विश्व आर्थ्ािक मंदी में ये बैंकें अपने आपको यह बताने में तुली हुई हैं कि अब हमारे पास धन नहीं है, पर आज भी यदि कोई उपभोक्ता उनसे लोन लेने या क्रेडिट कार्ड लेने जाए, तो वह पलक पावड़े बिछाकर उसका स्वागत करती है। एक बार यदि ग्राहक इन की बातों में फँस जाए, तो फिर उसका छुटकारा मुश्किल है। यदि हम अपने घर के करीब किसी दुकानदार से सामान लेते हैं, यदि सात तारीख तक उसका भुगतान नहीं कर पाते, तो वह समझ जाता है कि कोई परेशानी होगी। वह आठ दिन और इंतजार कर लेता है। पर बैंक के कंप्यूटर को इस तरह की कोई आदत नहीं सिखाई गई है। वह अपना काम बखूबी जानता है और ग्राहक पर बोझ बढ़ा देता है। ग्राहकों को लूटने के लिए उसके पास कई साधन हैं।
बिना विचार किए लिए जाने वाले लोन और के्रडिटकार्ड पर खर्च पर तगड़ा ब्याज देना पड़ता है, इसे कभी न भूलें। एक बार अपने क्रेडिट कार्ड से प्राप्त सुविधा और उस पर लगने वाले ब्याज पर नजर डाल लें, तो आपको समझ में आ जाएगा कि सुविधा तो कम मिली, पर ब्याज अधिक लग गया। अपने तमाम स्टेटमेन का बारीकी से अध्ययन करें, आप देखेंगे कि उसमें कई ऐसे पेंच होंगे, जिसमें आप कभी भी फँस सकते हैं। के्रडिट कार्ड या लोन की जानकारी अपने घर के सदस्यों को अवश्य दें, ताकि समय पर उनसे सहायता ली जा सके। किसी एजेंसी के कहने या फिर दोस्त की देखादेखी में लोन या क्रेडिट कार्ड कदापि न लें, अन्यथा आप मुश्किल में पड़ सकते हैं।
क्रेडिट कार्ड लेने वाले यह ध्यान में रखें कि क्या वास्तव में उन्हें उसकी आवश्यकता है? जब आवश्यकता ही है, तो उसके नखरे उठाने की क्षमता क्या आपमें है? कहीं आप किसी के कहने पर या अपनी इात में चार चाँद लगाने के लिए तो ऐसा नहीं कर रहे हैं? अक्सर लोग अपनी शान बढ़ाने के लिए ऐसा करते हैं, जो भविष्य में उनके लिए अभिशाप बनकर सामने आता है। भौतिक सुख प्राप्त करने के ये सभी साधन तनाव लेकर आते हैं, यह सच है, इनसे मानसिक शांति नहीं खरीदी जा सकती है। सच्चा सुख तो घर की सूखी रोटी और चटनी में भी मिल सकता है, यदि आपमें उस सुख को समझने की समझ है तो ................
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

मोबाइल मेसेज और डिप्रेशन की शिकार युवापीढ़ी


भारती परिमल
बीप... बीप... बीप... मोबाइल पर मेसेज का सिगनल आया और मोबाइलधारी जो कुछ समय पहले बाहरी दुनिया से जुड़ा हुआ था, वह एकदम से उससे कट गया और पहुँच गया मोबाइल से जुड़ी एक छोटी सी दुनिया में। मोबाइल की दुनिया छोटी इसलिए कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नति करता जा रहा है, लोगों से हमारा जुडाव कम से कमतर हाो चला जा रहा है। एक समय था, जब हमारे पास अपने स्नेहीजनों से मिलने के लिए सशरीर उनके पास पहुँचने के सिवाय और कोई उपाय न था। लोग तीज-त्योहार पर ही नहीं यूँ ही इच्छा होने पर एक-दूसरे के हालचाल जानने के लिए समय निकाल कर घर मिलने के लिए जाते थे। घंटों साथ बैठकर दु:ख-सुख की बातें करते थे। गप्पों की थाली में अपने अनुभवों की वानगी एक-दूसरे को परोसते थे। फिर समय ने करवट ली और पत्र लिखने का दौर आया। अब जब मिलने जाना संभव न होता, तो लोग लम्बे-लम्बे पत्रों के माध्यम से अपने दिल का हाल सामने वाले को सुनाते थे और उसकी खैर-खबर पूछते थे। स्नेह की पाती पर अपनेपन के उभरे हुए अक्षर और अंत में स्वयं के स्वर्णिम हस्ताक्षर से सुसाित पत्र जब अपनों के द्वार पर पहुँचता था, तो ऑंखों में दूरी का भीगापन भी होता था और दूर होकर भी पास होने की चमक भी झलक आती थी।
पत्रों की यह दुनिया अपनी धीमी रफ्तार से आगे बढ़ ही रही थी कि विकास का एक और साधन हमारे घर की शोभा बन गया। टेलिफोन ने घर-घर में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। अब लोगों को एक-दूसरे के हालचाल पूछने के लिए मिलने जाने या पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं थी। फोन के माध्यम से ही वे एक-दूसरे से बातें कर लिया करते थे। स्वजनों से मिलने का सिलसिला कम होता चला गया। पत्र लिखना तो मानों छूट ही गया। जबकि पत्र अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। पत्र में जिस तरह से अपनी भावनाओं को उँडेला जा सकता है, वह फोन में संभव नहीं है। पत्र को लम्बे समय तक सहेजकर रखा जा सकता है। पत्र में लिखे गए अक्षर व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। लोगों ने इस बात को महसूस भी किया, किंतु समय की कमी और व्यस्तता के बीच इस प्रगति को स्वीकार करना ही विवशता थी।
आज भी फोन का अपना महत्व है। फोन से लाभ है, तो नुकसान भी। फोन पर की जानेवाली बातचीत में आमने-सामने मिलने जैसी आत्मीयता नहीं होती, किंतु उसके बाद भी ध्वनि के माध्यम से एक-दूसरे की भावनाओं को समझा जा सकता है। अपनी खिलखिलाहट से खुशी जाहिर की जा सकती है, तो सिसकियों के द्वारा अपने दु:ख को भी महसूस करवाया जा सकता है। फोन के माध्यम से अपनेपन को बाँटा जा सकता है, किंतु इससे मिलने वाली खुशी को देखा नहीं जा सकता।
आज है एसएमएस का जमाना। संदेश संप्रेषण का सबसे आधुनिक माध्यम- मोबाइल द्वारा एसएमएस करना और अपनी बात सामने वाले तक पहुँचाना। बात पहुँचने के बाद उस पर उसकी क्या प्रतिकि्रया हुई इस बात से बिलकुल अनजान रहना। क्योंकि यह संप्रेषण का एकतरफा माध्यम है। मोबाइल द्वारा एसएमएस भेजना भावनाओं को व्यक्त करने के बजाए उन्हें छुपाना है। किसी को सॉरी कहने के लिए उसे महसूस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस, मैसेज बॉक्स में सौरी लिखा और भेज दिया। एक सेकन्ड में यह मैसेज सामने वाले तक पहुँच जाएगा। मैसेज का आदान-प्रदान वन-वे ट ्रेफिक है। आप सामने वाले को आघात तो पहुँचा सकते हैं, पर उसके प्रत्याघात से बचा जा सकता है। एसएमएस के माध्यम से किसी का दिल एक पल में तोड़ा जा सकता है, किंतु उसके टूटने की आवाज को सुना नहीं जा सकता।
एसएमएस का फैशन जिस तेजी से बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से आत्मीयता खत्म होती जा रही है। मोबाइल के द्वारा एसएमएस से विवाह हो रहे हैं, तो एक ही क्षण में तलाक भी लिए जा रहे हैं। एसएमएस की आकर्षक दुनिया लोगों को करीब ला रही है, तो उनके बीच दूरियाँ भी बढ़ा रही है। हॉलीवुड अदाकारा ब्रिटनी ने मोबाइल मैसेज के माध्यम से एक तरफ मोबाइल का महत्व बढ़ा दिया, तो दूसरी ओर वैवाहिक जीवन के महत्व को भी क्षण भर में कम कर दिया। टेक्स्ट मैसेज का उपयोग बातचीत करने के लिए कम और बातचीत टालने के लिए अधिक किया जाता है। कॉलेज के युवा तो अपने मित्राें से केवल एसएमएस के माध्यम से ही बातें करते हैं। भावनाओं की अभिव्यक्ति को इसने बिलकुल निष्प्राण बना दिया है। आपको आश्चर्य होगा, किंतु सच यह है कि आज की युवापीढ़ी को भावनाओं की अभिव्यक्ति के प्रति रूचि भी नहीं है। वे इसे समय बरबाद करने के अलावा और कुछ नहीं मानती।
इस व्यस्त दिनचर्या और एसएमएस में सिमटी दुनिया युवापीढ़ी को मानसिक रूप से बीमार बना रही है। मोबाइल से भेजे जानेवाले एसएमएस इतने छोटे होते हैं कि उसमें भाषा की दरिद्रता साफ झलकती है। साथ ही विचारों और भावनाओं की दरिद्रता भी छुप नहीं सकती। इसे न तो प्रिंट के माध्यम से अपने पास फाइल में सुरक्षित रखा जा सकता है न ही मैसेज बॉक्स में लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता है।
आज के आधुनिक उपकरण मानवीय शक्तियों को बढ़ा रहे हैं, किंतु साथ ही उसकी भावनाओं को कुंठित कर रहे हैं। एक-दूसरे को यूं तो मोबाइल के माध्यम से कुछ सेकन्ड में ही सुन सकते हैं, मैसेज के माध्यम से वैचारिक रूप से मिल भी सकते हैं, किंतु अपनेपन की खुशी या गम बाँटने में ये माध्यम बिलकुल निरर्थक है। एसएमएस के इस क
्रांतिकारी अविष्कार ने युवाओं को अकेलेपन का ऐसा साम्राय दिया है कि उसके मालिक वे स्वयं हैं। इसकी खुशी बाँटने के लिए भी आसपास कोई नहीं है। नीरवता का यह संसार उन्हें लगातार डिप्रेशन की ओर ले जा रहा है। तनाव का दलदल उन्हें अपनी ओर खींच रहा है और युवापीढ़ी है कि मानसिक रोगी बनने के कगार पर पहुँचने के बाद भी हथेली में सिमटी इस दुनिया से बाहर ही नहीं आना चाहती। बीप..बीप.. की यह ध्वनि भविष्य की पदचाप को अनसुना कर रही हैं। फिर भी युवा है कि इस बात से अनजान अपनेआप में ही मस्त है। समाज में बढ़ते इन मानसिक रोगियों के लिए कौन जवाबदार है वैज्ञानिक या स्वयं ये मानसिक रोगी बनाम आज की युवापीढ़ी? जवाब हमें ही ढूँढ़ना होगा।
भारती परिमल

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

ये तो होना ही था



नीरज नैयर
जार्ज डब्लू बुश ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में उन्हें यूं जलालत झेलनी पड़ेगी. इराक में जो कुछ भी हुआ उसने न सिर्फ बुश को बल्कि पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है. इराकी प्रधानमंत्री मलिकी की मौजूदगी में एक पत्रकार उठता है, बुश को गालियां देता है, अपना जूता निकालकर अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ फेंकता और पल भर में ही इतना प्रसिद्ध बन जाता है कि उसकी रिहाई के लिए सड़कों पर प्रदर्शन होने लगते हैं. इस घटना ने भले ही बुश विरोधियों को ताउम्र हंसने का मौका दे दिया हो मगर इसने इराकियों के उस दर्द और बेबसी को भी बयां किया है जो वो बरसों से झेलते आ रहे हैं. यह घटना इस बात का सुबूत है कि सद्दाम की मौत के इतने समय बाद भी बुश और अमेरिका के प्रति इराकियों के दिल में णनफरत कायम है. कहने को तो इराक में चुनी हुई सरकार है, लोगों को अपने हक की आवाज उठाने का अधिकार है मगर इसे सिर्फ कहने तक ही कहा जाए तो अच्छा बेहतर होगा. इराक में अब भी करीब 14,9,000 अमेरिकी और ब्रितानी सैनिक जमे हुए हैं, खून-खराबा वहां आम बात हो गई है. कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है. हर इराकी को दुश्मन के नजरीए से देखा जाता है. पैदा होने से पहले ही बच्चा गोलियों की इतनी आवाज सुन लेता है कि दुनिया में आने के बाद उसे ये सब खेल लगने लगता है. ऐसे मुल्क में रहने वालों से जूता फेंकने की नहीं तो और क्या उम्मीद की जा सकती है. सद्दाम के तनाशाही शासन के खात्मे के वक्त इराक में थोड़ा गुस्सा जरूर था मगर लोगों को इस बात की आस भी कि शायद अब उन्हें बेहतर जिंदगी नसीब होगी, उन्हें दूसरे मुल्कों के आवाम की तरह खुला माहौल मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा उनकी जिंदगी बद से बदतर हो गई है. मानवीय हालात वहां हर रोज बिगड़ते जा रहे हैं. इराकियों की रोजमर्रा की जरूरतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा. उन्हें न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही पानी. हालात ये हो चले हैं कि लोगों को अपनी कमाई का एक तिहाई यानी करीब 150 डॉलर महज पानी खरीदने के लिए ही खर्च करना पड़ रहा हैं. स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी बिगड़ती जा रही है. जो सेवाएं उपलब्ध हैं वो इतनी मंहगी है कि आम आदमी की पहुंच में नहीं आती. सरकारी अस्पतालों में सिर्फ 30 हजार बिस्तर हैं जो 80 हजार की जरूरतों के आधे से भी कम हैं. लोगों का आर्थिक स्तर इतना गिर गया है कि कई-कई दिन घर में चूल्हा नहीं जल पाता. अमेरिका ने पहले कहा था कि लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद वो इराक से पूरी तरह हट जाएगा लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. हालात को काबू करने के नाम पर उसने सेना को वहीं बसा दिया. ब्रिटेन ने भी उसका भरपूर सहयोग दिया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी खामोशी साधे रहा. इराक पर अमेरिका के हमले की शुरूआती दिनों में जमकर तारीफ हुई थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी अमानवीय तस्वीरों के सामने आने के बाद अधिकतर लोगों की सोच बदल गई. अबू गरेब जेल में यातनाओं के फुटेज ने पूरी दुनिया को अमेरिकी सेना का खौफनाक चेहरा दिखाया. कहा जाता है कि बसरा के नजदीक बक्का में अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में अब भी 20 हजार इराकी हैं, जिनमें सबसे ज्यादा तादाद पुरुषों की है. अतंरराष्ट्रीय संस्था रेडक्रास भी इराक के हालात पर ंचिंता जता चुकी है. उसका कहना है कि इराक के बदतर मानवीय हालात केवल तभी ठीक किए जा सकते हैं जब इराकी नागरिकों को रोजमर्रा की जरूरतों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाए. इराक में सद्दाम हुसैन के वक्त जो हालात थे उन्हें मौजूदा हालातों से बेहतर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा. संयुक्त राष्ट्र डवलपमेंट प्रोग्राम की रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही बयां करती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध के बाद इराकियों का जीवन स्तर खतरनाक तरीके से गिरता जा रहा है. पानी-भोजन, बिजली और सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतें भी वहां गंभीर समस्या बन गई हैं. इराक में 39 प्रतिशत आबादी 15 साल से कम उम्र के लोगों की है, जिनकी स्थिति सर्वाधिक दयानीय है. छह महने से पांच साल तक के अधिकतर बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं. साक्षारता का ग्राफ भी ऊपर चढ़ने के बजाए पिछले कुछ सालों में बहुत तेजी से नीचे आया है. इराक में जो एक और समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है वह है बेरोजगारी. करीब 37 फीसदी पढ़े-लिखे लोग नौकरी की तलाश में हताशा के शिकार बन बैठे हैं. और हर साल इन आंकड़ों में इजाफा हो रहा है. इसके साथ-साथ भ्रष्टाचार भी वहां तेजी से पैर पसार चुका है. कुछ महीनों में ही इसने तीन गुने से ज्यादा की रफ्तार पकड़ ली है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इराक बर्बादी के ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां से बेहतरी की कोई उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आती. ऊपर से अमेरिका भी अब अपने वादों से मुकरने लगा है. इराकी नेतृत्व खुद यह आरोप लगा चुका है कि वाशिंगटन की तरफ से जिस तरह का आश्वासन दिया गया था वैसी मदद नहीं मिल पा रही है. अमेरिका ने इराक की स्थिति सुधारने के लिए सात प्रोजेक्ट चलाए थे जिनमें से अधिकतर बंद किए जा चुके हैं. इराक की णआर्थिक जरूरतों से भी अमेरिका ने पीछा छुड़ा लिया है. जबकि जापान आदि देशों से इराक के पुर्नउद्धार के लिए सहायता मिल रही है. दरअसल इराक अब अमेरिका के गले की हड्डी बन गया है. दिन ब दिन वहां खराब होते हालात से उसकी स्थिति भी बिगड़ती जा रही है. इराक को फिर से पैरों पर खड़ा करने का खर्चा उठाने में अब वो कानाकानी दिखा रहा है. हालांकि ये बात अलग है कि इराक में बने रहने के लिए अब तक वो बेशुमार पैसा बहा चुका है. इराक में जहां अमेरिका और ब्रिटेन की सेना डेरा डाले हुए हैं वहां आमजन की सुरक्षा व्यवस्था के सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में उबरकर आना अपने आप में यह साबित करता है कि अमेरिका की इराकी जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं उसे केवल वहां जमें रहने से मतलब है. कुछ वक्त पहले किए गये एक सर्वेक्षण में करीब 80 प्रतिशत लोगों का मानना था कि सुरक्षा व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि घर में भी लोग खुद को महफूज नहीं समझते. भले ही अमेरिका और उसके सहयोगी अपनी इराक नीति कोआज भी वाजिब ठहरा रहे हो मगर वहां की जनता उन्हें इसके लिए कभी माफ नहीं करने वाली. दाने-दाने को मोहताज लोग, बिलखते बच्चे, अपनों की शवों पर मातम करती महिलाएं इराक की पहचान बन कर रह गई है. ऐसे में इराकी जनता की बुश के प्रति नारजागी का जो मुजाएरा बुश-मलिकी की प्रेस कांफ्रेंस में देखने को मिला उसे कतई गलत नहीं ठहराया जा सकता.
नीरज नैयर
9893121591

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

इस हमले से हमने आखिर क्या सीखा?


इस हमले से हमने आखिर क्या सीखा?
डॉ. महेश परिमल
मुम्बई नहीं यह देश पर हमला है। ऐसा कहने वाले आज हमारे बीच कई लोग हैं। अब तो रोज ही हमारी नाकामियों की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। कोई कहता है 'हाँ हमसे चूक हुई', तो कोई कहता है कि कमांडो भेजने में दो घंटे की देर हमारी अफसरशाही के कारण हुई। उधर तुकाराम आम्बोले ने हिम्मत दिखाकर आतंकवादी के ए के 47 की नाल ही पकड़कर अपने साथियों को बचा लिया, आज वही एकमात्र आतंकवादी जीवित आतंकवादी बचा है। दूसरी ओर पुलिस के उच्च अधिकारी हेमंत करकरे, विजय सालस्कर आदि शहीद हो गए। देखा जाए, तो इन सबको हमारी नाकामियों ने ही शहीद बनाया है।
कुछ समय पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर मुशीरुल हसन ने यह कहा था कि इतने वर्षों बाद भी क्या हमें देशप्रेम का सुबूत देना होगा? यह बात तब कही गई, जब दिल्ली के जामिया नगर के बटला हाउस एनकाउंटर में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों का हाथ होने की जानकारी मिली थी। जब ये विद्यार्थी पकड़े गए, तब इनका मुकदमा लड़ने का खर्च यूनिवर्सिटी करेगी, ऐसा श्री हसन ने कहा था। इसकी काफी आलोचना हुई थी। उसी समय एक ऍंगरेजी दैनिक को दिए एक साक्षात्कार में मुशीरुल हसन ने कहा था कि क्या इतने वर्षों बाद हमें अपने देशप्रेम का सुबूत देना होगा?
उनके इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि हाँ जनाब, आप अपने सीने पर हाथ रखकर खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर यह कह दें कि मुम्बई पर हमले में आतंकवादियों की सहायता करने वाला स्थानीय नागरिक नहीं था। लानत है ऐसे गद्दारों पर, जो इस देश की माटी में जन्म लेकर उसी माटी के साथ गद्दारी कर रहे हैं। यह गददारी देश की माटी के साथ नहीं, बल्कि अपनी माँ के दूध के साथ कर रहे हैं। माँ के दूध को उन्होंने लजाया है। दुश्मन देश के आतंकवादियों से मिलकर उन्होंने बेगुनाहों के खून से होली खेली है, इससे यदि उन्हें जन्नत भी नसीब होती है, तो हम सब थूकते हैं, उस जन्नत पर। ऐसी जन्नत उन्हें और खून के प्यासे लोगों को ही मुबारक।
देश की आर्थिक राजधानी पर हुए आतंकवादी हमले से हमें बहुत कुछ सीखना है। सबसे पहले तो यही कि देश की सीमा खुली पड़ी है। विशेषकर समुद्री सीमा। गुजरात की 1600 किलोमीटर लम्बी समुद्री सीमा की हालत तो बहुत ही खराब है। इस समुद्री तट पर यदि बड़ी मात्रा में व्यापार हो रहा है, तो दूसरी तरफ आतंकवादियों की घुसपैठ की संभावना भी प्रबल है। इसे हमें नहीं भूलना चाहिए।
अभी मुम्बई के जिस स्थान पर आतंकवादी हमला हुआ, उसके आसपास भारतीय सेना की वेस्टर्न कमांड की बड़ी यूनिट है। वहीं पर भारतीय नौका दल का बहुत बड़ा अड्डा है। सेना का गुप्तचर विभाग, कोस्ट गार्ड, देश के केंद्रीय गुप्तचर विभाग, रॉ और सीबीआई, इन सभी का पानी एक झटके में आतंकवादियों ने उतार दिया। मुम्बई पुलिस और सीबीआई तो पूरी तरह से निष्फल ही साबित हुई है। इसका पूरा खामियाजा भी भुगतना पड़ा, हेमंत करकरे और विजय सालस्कर जैसे जाँबाज अफसरों को खोकर। मुम्बई पुलिस ने मछुआरों की बात पर भरोसा न कर अपना पुलिसियापन दिखा ही दिया। एक साधारण सा नागरिक भी यदि पुलिस में किसी प्रकार की शिकायत करता है, तो इसे गंभीरता से लेना चाहिए। पुलिस इस बात को कभी नहीं भूले, तो कुछ बेहतर की गुंजाइश हो सकती है।
यहाँ एक और बात समझने लायक है, वह यह कि विदेशी धरती पर दो-चार महीने प्रशिक्षण लेकर मुम्बई में पूरे 72 घंटे तक आतंक मचाकर सवा करोड़ की आबादी को बुरी तरह से भयभीत कर दिया, इसे निपटने में आतंकवाद को जड़ से खतम करने का संकल्प करने वाली हमारी सरकार बुरी तरह से विफल साबित हुई है। एक वोट बैंक की खातिर एक वर्ग विशेष को अल्पसंख्यक आखिर कब तक माना जाएगा? एक तरफ यह वर्ग सरकार की तरफ से अधिक से अधिक सुविधाएँ प्राप्त कर रहा है, दूसरी तरफ इसी वर्ग का एक बहुत ही छोटा या कह लें बड़ा भाग दुश्मन देश से मिलकर हमारी ही पीठ पर छुरा घोंप रहा है। ऐसा आखिर कब तक सहन किया जा सकता है?
इतने दिन हो गए, क्या अभी तक हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर के किसी मुस्लिम नेता, उद्योगपति या शिक्षाशास्त्री ने इस आतंकवाद का खुलकर विरोध किया है? क्यों इसके लिए सीधे पाकिस्तान पर आरोप नहीं लगाया जाता? क्या ये सब आतंकवादियों से डर रहे हैं? याद रखें, ऐसे हमले का विरोध न कर चुपचाप रहना यानी आतंकवाद को अपनी मौन सहमति देना है।
अंतिम बात यही कही जा सकती है कि हिंदू यदि स्वयं ही संगठित हो जाएँ, तो कोई ताकत ऐसी नहीं है, जो उनकी आत्मा पर इस तरह के हमले कर सके। आज जो तमाम हिंदू संगठन आपके सामने दिखाई दे रहे हैं, ये सब आपत्ति के समय दुम दबाकर भाग जाएँगे। तमाम नेता, पार्टी और परिषद कुछ भी काम नहीं आने वाली। आज हम कई मोर्चे पर मार खा रहे हैं, क्योंकि हममें एकता नहीं है। इस एकता पर एक ऐतिहासिक घटना याद आ रही है, जो आज की कथित एकता पर एक सवालिया निशान छोड़ती है:5
हुआ यूँ कि भूतकाल में एक बादशाह ने भारत पर आक्रमण किया। उन दिनों सूर्योदय से सूर्यास्त तक लड़ाई चलती थी। उसके बाद घायलों की सेवा और आराम होता था, उसके बाद सुबह तक आराम। लड़ाई की पहली शाम को एक ऊँचे टीले पर बादशाह ने भारतीयों के शिविर की ओर देखा, वहाँ पर जगह-जगह आग जल रही थी। बादशाह ने अपने खबरची से पूछा-ये क्या हो रहा है? तब खबरची ने बताया कि ये सब अपना-अपना खाना पका रहे हैं। बादशाह को आश्चर्य हुआ। ये सब अपना खाना अलग-अलग क्यों पका रहे हैं? बादशाह सलामत-खबरची ने कहा- ये सब हिंदू हैं, ये एक-दूसरे का पकाया खाना नहीं खाते। बाह्मण की रसोई अलग, क्षत्रिय की रसोई अलग, शूद्र और वैश्य की रसोई अलग होती है। बादशाह ने तुरंत ने अपने सेनापति को बुलाकर कहा कि हमारे आधे सैनिक वापस भेज दो। जो कौम एक साथ खाना नहीं खा सकती, वह एक साथ युध्द कैसे कर सकती है? इन्हें जीतना बहुत ही आसान है।
हम इसीलिए लगातार मार खा रहे हैं। या तो संगठित होकर आतंकवाद का मुकाबला करो, या फिर मार खाओ और मुम्बई जैसी आतंकवाद की घटना को झेलकर विश्व में हँसी का पात्र बनो। हमारे ही धन से ब्लेक कमांडो से घिरे हुए बेशर्म और नपुंसक नेता जब स्वयं की रक्षा नहीं कर सकते, वे हमारी रक्षा भला क्या करेंगे? अब समय आ गया है कि कुछ ऐसा किया जाए, जिसमें हमारी एकता भी कायम रहे और हमारी जातिगत सुरक्षा भी अपनी पहचान बना सके। अब किसी पर विश्वास करने के बजाए अपने हाथों पर विश्वास करने के दिन आ गए हैं।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

प्रिय प्रीति के नाम प्रेम की पाती


शादी की सालगिरह की कोटिश: बधाइयाँ

एक ओस पाती पर रखी
अलसभोर की सगी सखी
जमी पर ठहरा बादल या कुहासा
फिर भी दिखती तुम मेरी खुशी
टप टप टपकती सूरज की किरण में तुम
निर्झर बहती चाँद की रोशनी में तुम
होले-हौल चलते झरनों में तुम
मेरे अनुलोम-विलोम सांसों में तुम
मेरी मदहीन मदमाती रातों में तुम
हर गम और खुशी
की बातों में तुम
मेरे सुर और बेसुर रागों में तुम
पतझड़ और बागे बहारों में तुम
न भूलने वाली और भूली यादों में तुम
मेरी जागते और सोते ख्वाबों में तुम
सिर्फ तुम और सिर्फ तुम ही तुम
खुशाल राठौड़10-12- 2008


मेरी एक अन्य कविता

आस-निराशा

मैं मुतमइन हूँ पत्थर भी पिघल सकता है
पहले इस पानी को बर्फ तो बनने दो
वो कहते हैं कुछ भी याद नहीं मुझे
अतीत की यादों को भूलने तो दो
आग का दरिया पार किया है मैंने
मुझे इस आग में तपने तो दो
एक तरल विश्वास बहता है मेरे भीतर
तुम छूकर इसे पनपने तो दो
अब नहीं चला जाता इस डगर पर
तुम इन साँसों को चलने तो दो
बहुत जी लिया किनारे रहकर
अब तो इस नाव को डूबने तो दो
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सामुदायिक रेडियो : एक नए युग की शुरुआत


राकेश ढौंडियाल
मीडिया विस्फोट के इस दौर में जहाँ एक ओर भारतीय उपग्रह चैनल आपसी प्रतिस्पर्धा में सिर्फ बाज़ार को दृष्टिगत रखते हुए, कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर निजी एफएम चैनलों की भीड़ फिल्संगीत और पॉप म्यूज़िक का प्रसारण कर राजस्व कमाने की होड़ में जुटी है। आकाशवाणी अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को स्वीकारता है किन्तु राजस्व अर्जन के बढ़ते दबाव के चलते आकाशवाणी ज़बरदस्त बदलाव के दौर से गुज़र रहा है । आम भारतीय की स्थानीय समस्याओं और हितों को दृष्टिगत रखते हुए आकाशवाणी द्वारा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के प्रसारण के साथ- साथ देश भर में स्थानीय स्तर पर कई 'लोकल रेडियो स्टेशन' आरम्भ किए गए । देश भर में बिछे रेडियो चैनलों के जाल के बावजूद लगातार यह महसूस किया जाता रहा कि कुछ है जो छूट रहा है, छोटे समुदायों के प्रसारण हितों और अधिकारों का पूर्णतया संरक्षण नहीं हो पा रहा है। सम्भवत: इसीलिए भारत में सामुदायिक रेडियो को वैधानिक मान्यता मिलते ही कई समुदायों का ध्यान इस ओर गया है।

सामुदायिक रेडियो को किसी एक परिभाषा में बाँधना सम्भव नहीं है। प्रत्येक देश के संस्कृति सम्बन्धी क़ानूनों में अन्तर होने के कारण देश और काल के साथ इसकी परिभाषा बदल जाती है। किन्तु मोटे तौर पर किसी छोटे समुदाय द्वारा संचालित कम लागत वाला रेडियो स्टेशन जो समुदाय के हितों, उसकी पसंद और समुदाय के विकास को दृष्टिगत रखते हुए ग़ैरव्यावसायिक प्रसारण करता है, सामुदायिक रेडियो केन्द्र कहलाता है। ऐसे रेडियो केन्द्र द्वारा कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण, सामुदायिक विकास, संस्कृति सम्बन्धी कार्यक्रमों के प्रसारण के साथ-साथ समुदाय के लिए तात्कालिक प्रासंगिता के कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा सकता है। सामुदायिक केन्द्र का उद्देशय समुदाय के सदस्यों को शामिल कर समुदाय के लिए कार्य करना है।

सामुदायिक रेडियो की शुरूआत अमरीका में बीसवी सदी के चौथे दशक में हो गई थी। इसके पूर्व तीसरे दशक में, डेविड आर्मस्ट्राँग, एफएम प्रसारण का अविष्कार कर रेडियो प्रसारण के एक नए युग का सूत्रपात कर चुके थे। अपने शुरूआती दिनों में अमरीकी रेडियो का स्वरूप मुख्यतया व्यावसायिक था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन द्वारा एफएम बैंड की निचली आवृतियों (881 मेगा हर्ट्ज़ से 919 मेगा हार्ट्ज़ तक) शैक्षणिक रेडियो के लिए सुरक्षित रखने का प्रावधान किया गया। एफएम रेडियो की संभावनाओं को पहचानने का यह पहला प्रयास था। एफएम रेडियो तकनीक की सुविधाजनक प्रणाली और इसकी कम लागत को देखते हुए भविष्य दृष्टाओं को इसमें एक ओर संभावना नज़र आई सामुदायिक रेडियो केन्द्र की संभावना । सामुदायिक रेडियो की कल्पना ने जब साकार रूप लिया तो यह संचार के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी क़दम सिद्ध हुआ
पहला सामुदायिक रेडियो केन्द्र 'वेस्ट कोस्ट' में लुइस हिल नाम के मशहूर पत्रकार द्वारा आरम्भ किया गया। 1946 में इससे जुड़े प्रसारणकर्ताओं ने ''पेसिफिका फाउंडेशन'' की स्थापना की। विश्व युद्ध के पश्चात् उस समय विभिन्न राष्ट्रों के बीच समझ पैदा करने को आवश्यकता महसूस की जा रही थी।
इसी उद्देश्य से पेसेफिका फाउंडेशन ने सामुदायिक रेडियो प्रसारण आरम्भ किया। इस फाउंडेशन से जुड़े शांतिप्रिय बुद्धिजीवी इस बात से भली भाँति परिचित थे कि रेडियो के प्रायोजक इसके कार्यक्रमों को अपने हितों के अनुरूप प्रभावित कर सकते हैं अत: यह निर्णय लिया गया कि श्रोताओं की सहायता से ही केन्द्र का व्यय वहन किया जाएगा। आवश्यक राशि जुटाने के बाद फाउंडेशन ने बर्कले, कैलिफोर्निया से 15 अप्रैल 1949 को प्रसारण आरम्भ कर दिया। इस रेडियो केन्द्र से आज भी प्रसारण हो रहा है और अपनी तरह का यह सबसे पुराना रेडियो केन्द्र है। लेटिन अमरीकी देश बोलीविया में खदान श्रमिकों द्वारा 1949 में आरम्भ किया गया रेडियो केन्द्र, सामुदायिक रेडियो का अनूठा उदाहरण है। बोलीविया अपनी चाँदी एवम् टिन की खानों के लिए एक समय विश्व प्रसिद्ध था। शहरों से मीलों दूर इन खानों में हज़ारों श्रमिक कार्य करते थे। इनके लिए मनोरंजन और संचार के माध्यमों का नितांत अभाव था। इन श्रमिकों ने अपने वेतन का एक भाग संचित कर उस राशि से एक रेडियो केन्द्र स्थापित किया । प्रसारण की लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि इसने स्थानीय पत्र और तार सेवा के महत्व को तक कम दिया। श्रमिकों के संदेश सांस्कृतिक गतिविधियों की सूचना आपातकालीन उदघोषणाएं , सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों सम्बन्धी जानकारियों के साथ-साथ ट्रेड यूनियन और सरकार के बीच संवाद के समाचार प्रसारित होने लगे। कुछ ही वर्षों में बोलीविया में ऐसे 26 सामुदायिक रेडियो केन्द्रों से प्रसारण आरम्भ हो गया। सैन्य शासन के दौरान कई बार इन केन्द्रों को कुचल दिया गया किन्तु इस विचार में इतनी शक्ति थी कि ये बार-बार उठ खड़ा हुआ । इंग्लैंड में कम्युनिटी रेडियो का विचार उन अवैधानिक रेडियो स्टेशनों से आरम्भ हुआ जो सत्तर के दशक में बरमिंघम, बिस्टल, लंदन और मैनचेस्टर में ऐफ्रो-कैरिबियाई अप्रवासियों द्वारा आरम्भ किए गए। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने इन्हें 'पाइरेट रेडियो' की संज्ञा दी थी किन्तु अवैधानिक होने के बावजूद इन केन्द्रों ने कम्युनिटी रेडियो की शक्ति को सिद्ध कर दिया था।
भारत में सामुदायिक रेडियो की आधारशिला सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में रखी जब उसने अपने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में यह कहा कि 'रेडियो तरंगे लोक सम्पति हैं'। अन्नामलाई विश्वविद्यालय , चेन्नई का 'अन्ना एफएम' भारत का पहला कैम्पस कम्युनिटी रेडियो केन्द्र बना, जिसका प्रसारण 01 फरवरी 2004 से आरम्भ हुआ। इसे ई अम आर सी ।द्वारा संचालित किया जाता है। 16 नवम्बर 2006 को भारत सरकार द्वारा एक नई कम्युनिटी रेडियो नीति को अधिसूचित किया गया । इसके अनुसार ग़ैरव्यावसायिक संस्थायें, जैसे स्वयंसेवी संस्थायें, कृषि विश्वविद्यालय ,सामाजिक संस्थायें, भारतीय कृषि अनुसंधान की संस्थायें, कृषि विज्ञान केन्द्र तथा शैक्षणिक संस्था कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए आवेदन कर सकती हैं । ऐसी कोई भी संस्था, जो व्यावसायिक, राजनैतिक, आपराधिक गतिविधियों से सम्बद्ध हो या जिसे केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा अवैध घोषित किया गया हो, कम्युनिटी रेडियो खोलने की हक़दार नहीं है। व्यष्टि या व्यक्ति विशेष को भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है। ऐसी पंजीकृत संस्थायें जो कम से कम तीन वर्षों से सामुदायिक सेवा के क्षेत्र में कार्य कर रही हों, कम्युनिट रेडियो के लाइसेंस के लिए आवेदन कर सकती हैं । इसके लिए कोई लाइसेंस फीस देय नहीं है । आवेदक को रु 2500- क़े मामूली प्रोसेसिंग शुल्क के अतिरिक्त रु 25,000- क़ी बैंक गारंटी जमा करनी होती है । लाइसेंस मिलने पर इन्हें 100 वॉट के एफएम ट्रांसमिटर के ज़रिए प्रसारण करने की अनुमति मिलती है । इसका एंटेना अधिकतम 30 मीटर ऊँचाई तक स्थापित किया जा सकता है । ऐसे ट्रांसमीटर की पहुँच 12 किमी क़े घेरे तक सीमित होती है । केन्द्रों को अपने आधे कार्यक्रम यथासंभव स्थानीय भाषा या बोली में, स्थानीय स्तर पर ही बनाने होते हैं। भारत में निजी एफएम और कम्युनिटी रेडियो पर अब तक समाचारों के प्रसारण की अनुमति नहीं हैं। एक घंटे के प्रसारण समय में पाँच मिनट के विज्ञापन बजाए जा सकते हैं। प्रायोजित कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं है किन्तु राज्य अथवा केन्द्र सरकार से प्रायोजित कार्यक्रम प्राप्त होने की दशा में इन्हें प्रसारित किया जा सकता है । आने वाले कुछ वर्षों में भारत भर में लगभग चार हज़ार कम्युनिटी रेडियो केन्द्र खोले जाने का अनुमान है ।

मीडिया का निजीकरण और पूर्णत: स्वतंत्र मीडिया आम भारतीय के लिए मायने नहीं रखता। आज भी भारत, गाँव में बसता है और भारतीय ग्रामीणों की प्रसारण आवश्कताओं की पूर्ति बड़े प्रसारक नहीं कर सकते। जिस देश में बहुत कम दूरियों पर लोगों की ज़रूरतें, भाषा और संस्कृति बदल जाती हो वहाँ यह संभव भी नहीं है। सामुदायिक रेडियो, सामुदायिक कल्याण, पर्यावरण जागरूकता, विविधता में एकता ओर समग्र विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकता है। यही नहीं कुछ और स्वतंत्रता मिलने पर यह छोटे-छोटे केन्द्र प्रजातंत्र को उसका सही अर्थ प्रदान कर सकते हैं।
राकेश ढौंडियाल

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

हमने अमेरिका से कुछ क्यों नहीं सीखा

नीरज नैयर
मुंबई में जो कुछ भी हुआ उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. आतंकवादी समुद्र के रास्ते प्रवेश करते हैं, सड़कों पर अंधाधुंध गोलियां चलाते हैं, धमाके करते हैं. स्टेशन पर, अस्पताल में कहर बरपाते हैं और आसानी से ताज-ओबरॉय और नरीमन हाउस पर कब्जा कर लेते हैं और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती. कहते हैं मुंबई कभी थमती नहीं, लेकिन गुरुवार 27 नवंबर को मुंबई थमी-थमी नजर आई. स्कूल-कॉलेज पूरी तरह बंद रहे, सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा. लोग अपनों की खैरियत की दुआएं करते रहे. तीन दिन तक आतंकवादी खूनी खेल खेलते रहे और सरकार शब्दों की आड़ में अपनी नपुंसकता छुपाने की कोशिश करती रही. दिल्ली धमाकों के बाद से ही ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि आतंकी मुंबई को निशाना बना सकते हैं बावजूद इसके लापरवाही बरती गई. गृहमंत्री कपड़ों की चमकार में उलझे रहे और खुफिया एजेंसियां खामोशी की चादर ताने सोती रहीं. इस वीभत्स हमले ने मुंबई पुलिस और स्थानीय खुफिया तंत्र की मर्दानगी की हकीकत भी सामने ला दी है. कहा जा रहा है कि आतंकवादी करीब दो महीने तक नरीमन हाउस इलाके में रहकर अपनी तैयारियों को अंजाम देते रहे मगर तेज तर्रार कही जाने वाले एटीएस और हमेशा सजग रहने का दावा करने वाली पुलिस को पता ही नहीं चला. और तो और पुलिस को कोलाबा-कफरोड़ के मच्छी नगर समुद्र तट पर अंजान लोगों की मौजूदगी की खबर भी दी गई, लेकिन नाकारान यहां भी हावी रहा. अगर पुलिस उस खबर को गंभीरता से लेती तो शायद तस्वीर इतनी खौफनाक नहीं होती. मुंबई पर हमला देश पर सबसे बड़ा हमला है. आतंकियों ने गुपचुप बम धमाके करके कायरता नहीं दिखाई बल्कि सामने आकर फिल्मी अंदाज में नापाक इरादों को अंजाम दिया. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकी इतने बड़े हमले की साजिश के लिए साजो-सामान कैसे जुटाते रहे, इसे स्थानीय तंत्र की विफलता के साथ-साथ कहीं न कहीं इससे उसकी संलिप्तता के तौर पर भी देखा जाना चाहिए. सरकार को अब यह स्वाकीर कर लेना चाहिए कि न तो उनका गृहमंत्री किसी काम का है और न ही इतना लंबा-चौड़ा खुफिया तंत्र. सितंबर में दिल्ली के हुए बम धमाकों के बाद कैबिनेट की विशेष बैठक में पाटिल ने खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए एक विशेष योजना पेश की थी पर शायद उस पर काम करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा. पिछले तीन सालों में विभिन्न आतंकी घटनाओं में तीन हजार निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और करीब 1185 सुरक्षा जवान शहीद हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ऐसी रणनीति नहीं बनाई गई जो आतंक फैलाने वालों को माकूल जवाब दे सके. भारत में दुनिया भर के मुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली सबसे ज्यादा एजेंसियां मौजूद हैं इसके बाद भी आतंकी अपनी मनमर्जी के मुताबिक मासूमों की बलि चढ़ा रहे हैं. जयपुर, बेंगलुरू, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, असम और अब मुंबई में जेहादी आतंकवाद का जो खौफजदा मंजर देखने को मिला है, उसके बाद देश को चलाने और आतंकवाद पर सियासत करने वालों के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए. अमेरिका से परमाणु करार पर जश् मनाने वालों को इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि आखिर अमेरिका में 911 के बाद कोई आतंकी हमला क्यों नहीं हुआ. जबकि इस्लामी कट्टरपंथ में भारत से ज्यादा अमेरिका के दुश्मन शुमार हैं. अमेरिका ओसामा बिन लादेन के निशाने पर है बावजूद इसके वहां के बाशिंदे इस इत्मिनान के साथ सोते हैं कि 911 की पुनरावृत्ति नहीं होगी. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां पर आतंकवाद के नाम पर सियासत के बजाय आतंकवादियों को सिसकियां भरने पर मजबूर करने की रणनीति पर काम किया जाता है. वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को धर्म और संप्रदाय, समुदाय के नजरिये से नहीं देखा जाता. 911 के बाद आतंकवाद से लड़ाई के लिए अमेरिका ने खास रणनीति बनाई थी, जिसमें फौजी हमले के साथ-साथ आतंकवादियों के धन स्त्रोत को सुखाना प्रमुख था. हालांकि फौज कार्रवाई को लेकर उसे आलोचना का सामना करना पड़ा था.
इसके साथ ही खुफिया संस्थाओं सीआईए और एफबीआई को ज्यादा अधिकार दिए गये. आंतरिक और सीमा सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का एक पद निर्मित किया गया, जिसका काम सभी खुफिया एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष से राष्ट्रपति को अवगत कराना है. नेशनल काउंटर-टेररिम सेंटर नाम की एक राष्ट्रीय संस्था खड़ी की गई, जिसका काम सभी खुफिया सूचनाओं की लगातार स्कैनिंग करके काम की सूचनाओं को क्रमबध्द रूप देना है. डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी नाम से बाकायदा आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय खड़ा किया गया, जिसका काम सभी रायों की पुलिस और कोस्टल गार्ड के बीच तालमेल बिठाना है. अमेरिका में भी यह काम आसान नहीं था लेकिन वहां की सरकार ने आतंकवाद को कुचलने की प्रतिबध्ता पर किसी को हावी नहीं होने दिया. हमारे यहां सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों पर है, केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सरकार होने की वजह से आतंकवाद पर भी सियासत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. ऊपर से खुफिया एजेंसियां भी एक दूसरे को तवाो देने की आदत अब तक नहीं सीख पाई हैं. रॉ की सूचना को आईबी तवाो नहीं देती और आईबी की सूचना को राज्य के खुफिया तंत्र हवा में उड़ा देते हैं. आतंकवादियों के वित्तीय स्त्रोतों को सुखाने की दिशा में भी कोई खास काम नहीं किया गया है. कुछ वक्त पहले ही खबर आई थी कि शेयर बाजार में आतंकवादियों का पैसा लगा है. बावजूद इसके सरकार ना-नुकुर करती रही मगर पर्याप्त कदम नहीं उठाए गये और अब आतंकवाद का मुंह-तोड़ जवाब देने की बातें कही जा रही हैं. कहा जा रहा है कि आतंकवादी भारत के हौसले को नहीं डिगा पाएंगे. ऑपरेशन पूरा होने पर जय-जयकार के नारे लगाए जा रहे हैं. खुशियां मनाई जा रही हैं लेकिन इस बात का भरोसा नहीं दिलाया जा रहा है कि अब ऐसे हमले नहीं होंगे. साफ है कि सरकार महज कुछ दिनों की जुबानी कसरत की अपनी आदत को दोहरा रही है.
नीरज नैयर
9893121591

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

इस बार नहीं


' तारे ज़ंमीं पर ' और 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्मों के बेहद भावुक और दिल को छू लेने वाले गीत लिखने वाले गीतकार प्रसून जोशी ने मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक बेहतरीन कविता लिखी है, जो हिलाकर रख देती है।

इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊंगा
पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूंगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूंगा
उतरने दूंगा गहरे
इस बार नहीं

इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा
ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे
और ना ही कहूंगा कि तुम आंखे बंद करलो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूं
देखने दूंगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं

इस बार जब उलझनें देखूंगा,
छटपटाहट देखूंगा
नहीं दौड़ूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूंगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औज़ार
नहीं करूंगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूंगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूंगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूंगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूंगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूंगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूंगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं

इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है

प्रसून जोशी

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

नीली ऑंखों का जादूगर राज कपूर


राज कपूर, यह वो नाम है, जो पिछले आठ दशकों से फिल्मी आकाश पर जगमगा रहा है और आने वाले कई दशकों तक भुलाया नहीं जा सकेगा। वैसे भी भूला तो उसे जाता है, जो दिमाग में हो। दिल में बसे लोगों को भला कैसे भुलाया जा सकता है। राज कपूर की यादें तो दिलों में गहराई तक बसी हुई हैं। उनकी ऑंखों का भोलापन ही उनकी फिल्मों की पहचान रहा है। पृथ्वीराज कपूर के सबसे बड़े बेटे राज कपूर का जन्म 14 दिसम्बर 1924 को पेशावर में हुआ था। उनका बचपन का नाम रणबीर राज कपूर था। कोलकाता में उनकी स्कूली शिक्षा हुई, लेकिन पढ़ाई में उनका मन कभी नहीं लगा। यही कारण था कि उन्होंने 10 की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इस मनमौजी ने अपने विद्यार्थी जीवन में किताबें बेचकर खूब केले, पकोड़े और चाट खाई। माँ से नई किताबें खरीदने के लिए पैसे माँगते और दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाते।
1929 में जब पापा पृथ्वीराज कपूर मुंबई आए, तो उनके साथ मासूम राज कपूर भी मायानगरी के सपने ऑंखों में लिए साथ आ गए। पापाजी सिद्धांतों के पक्के थे। उन्होंने राज कपूर को साफ कह दिया था कि - राजू, नीचे से शुरुआत करोगे तो ऊपर तक जाओगे। पिता की यह बात उन्होंने गाँठ बाँध ली और सत्रह वर्ष की उम्र में जब उन्हें रणजीत मूवीटोन में साधारण एप्रेंटिस का काम मिला, तो उन्होंने वजन उठाने और पोंछा लगाने के काम से भी परहेज नहीं किया। काम के प्रति उनकी लगन पंडित केदारशर्मा के साथ काम करते हुए रंग लाई, जहाँ उन्होंने अभिनय की बारीकियों को समझा। एक बार गलती होने पर उन्होंने केदारशर्मा जी से चाँटा भी खाया था। उसके बाद एक समय ऐसा भी आया, जब केदार शर्मा ने अपनी फिल्म नीलकमल (1947) में मधुबाला के साथ उन्हें नायक के रूप में प्रस्तुत किया। इसके पहले बाल कलाकार के रूप में राज कपूर इंकलाब (1935)और हमारी बात (1943), गौरी (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। फिल्म वाल्मीकि (1946) में नारद और अमरप्रेम (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावजूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फिल्म का निर्माण करे। उनका सपना 24 साल की उम्र में फिल्म आग (1948)के साथ पूरा हुआ। इसके बाद उनके मन में अपना स्टूडियो बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ जमीन लेकर वहाँ आर.के. स्टूडियो बनाया। जिसमें सबसे पहले फिल्म आवारा की शूटिंग हुई।
राज कपूर को अभिनय विरासत में ही मिला था। पिता पृथ्वीराज अपने समय के मशहूर रंगकर्मी और फिल्म अभिनेता हुए हैं। अपने पृथ्वी थियेटर के जरिए उन्होंने पूरे देश का दौरा किया। राज कपूर भी उनके साथ जाते थे और रंगमंच पर काम भी करते थे। पृथ्वीराज कपूर को मरणोपरांत दादासाहेब फालके अवार्ड दिया गया।
राज कपूर और रंग : राज कपूर को बचपन में ही सफेद साड़ी पहने स्त्री से मोह हो गया था। इस मोह को उन्होंने जीवन भर बनाए रखा। उनकी फिल्मों की तमाम हीरोइनों- नरगिस, पद्मिनी, वैजयंतीमाला, जीनत अमान, पद्मिनी कोल्हापुरे, मंदाकिनी ने सफेद साड़ी परदे पर पहनी है और घर में पत्नी कृष्णा ने हमेशा सफेद साड़ी पहनकर अपने शो-मेन के शो को जारी रखा है।
राज कपूर और संगीत : राजकपूर को संगीत की अच्छी समझ थी। गीत बनने के पहले उन्हें एक बार अवश्य सुनाया जाता था। आर.के. बैनर तले अपने संगीतकार-शंकरजय किशन, गीतकार- शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, विट्ठलभाई पटेल, रविन्द्र जैन, गायक- मुकेश, मन्ना डे, छायाकार- राघू करमरकर, कला निर्देशक- प्रकाश अरोरा, राजा नवाथे आदि साथियों की टीम तैयार की। फिल्मी दुनिया में उन्होंने संगठन का जो उदाहरण दिया है, वह बेजोड़ है।
राज कपूर और गायन : राज कपूर ने अपना प्लेबैक पहली बार खुद दिया था, फिल्म थी- दिल की रानी। 1947 में बनी इस फिल्म के संगीत निर्देशक थे- सचिनदेव बर्मन। इस फिल्म की नायिका थी मधुबाला। गीत का मुखड़ा है- ओ दुनिया के रखवाले बता कहाँ गया चितचोर। इसके अलावा राजकपूर ने फिल्म जेलयात्रा में भी एक गीत गाया था।
राज कपूर का प्रेम : राज कपूर और नरगिस ने 9 वर्ष में 17 फिल्मों में अभिनय किया। अलगाव के बाद दोनोें ही खामोश रहे। उनकी गरिमामयी खामोशी उस युग का संस्कार थी। 1956 में फिल्म जागते रहो का अंतिम दृश्य नरगिस की विदाई का दृश्य था। रात भर के प्यासे नायक को मंदिर की पुजारिन पानी पिलाती है। फिल्म की वह प्यास सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक थी। राजकपूर और नरगिस के बीच अलगाव की पहली दरार रूस यात्रा के दौरान आई। तब तक 'आवारा' रूस की अघोषित राष्ट्रीय फिल्म हो चुकी थी। मास्को के ऐतिहासिक लाल चौराहे पर राज कपूर का नागरिक अभिनंदन किया गया। उसी रात राज कपूर ने नरगिस से कहा- आई हैव डन इट। इसके पूर्व हर सफलता पर राज कपूर कहते थे- वी हैव डन इट। दोनों के पास समान अहम था और अनजाने में कहे गए एक शब्द ने उनके संबंधों में दरार डाल दी। वर्षों की अंतरंगता पर एक शब्द भारी पड़ गया। राज कपूर और नरगिस जिस तरह अपने प्रेम में महान थे, उसी तरह अपने अलगाव में भी निराले थे।
25 वर्ष बाद ऋषिकपूर के विवाह में नरगिस अपने पति और पुत्र के साथ आर.के. आई थीं। उस यादगार मुलाकात में राज कपूर मौन रहे। यहाँ तक कि उनकी बहुत कुछ बोलनेवाली ऑंखें भी मौन ही रही। नरगिस ने कृष्णाजी से कहा कि आज पत्नी और माँ होने पर उन्हें उनकी पीड़ा का अहसास हो रहा है। किंतु गरिमामय कृष्णाजी ने उन्हें समझाया कि मन में मलाल न रखें, वे नहीं होती तो शायद कोई और होता। राज कपूर के सफल होने में बहुत-सा श्रेय कृष्णाजी को जाता है। आज भी वह महिला फिल्म उद्योग में व्यवहार का प्रकाश स्तंभ है।
1987 को दादा साहेब फालके पुरस्कार की घोषणा होते ही राज कपूर को बेहद खुशी हुई, लेकिन 2 मई को पुरस्कार लेते समय ही उन्हें अस्थमा का दौरा पड़ा। जिंदगी और मौत के बीच वे एक माह तक संघर्ष करते रहे। अंत में 2 जून 1988 को उनका देहावसान हो गया। इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है कि 3 मई 1980 को नरगिस का देहांत हुआ और राज कपूर को अस्थमा का दौरा 2 मई को पड़ा। साल भले ही अलग हों, पर तारीखें तो काफी करीब थीं। है न अजीब संयोग!
राज कपूर स्वयं हाईस्कूल पास नहीं कर पाए थे, तो क्या हुआ। आज उनकी बनाई पुणे की लोनी हाई स्कूल में हजारों बच्चे हर साल उत्तीर्ण हो रहे हैं। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह एक ऐसा परिवार है, जिसे फिल्म का सर्वोच्च दादा साहेब फालके पुरस्कार दो बार मिला है। इस परिवार की चार पीढ़ियाँ फिल्मी क्षेत्र में अपनी सेवाएँ दे रही हैं। ऋषिकपूर के बेटे रणवीर कपूर, रणधीर कपूर की बेटियाँ करिश्मा और करीना ने इस परंपरा को बनाए रखा है। आर.के.स्टूडियो भले ही परिस्थितिवश बदहाली में हो, किंतु भाई शशिकपूर ने पृथ्वी थियेटर को अपने बच्चों के हाथों सौंपकर पिता की विरासत को सहेजे रखा है।
भारती परिमल

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

ख्यातनाम शिक्षा मंदिर: नाम बड़े और दर्शन छोटे

डॉ. महेश परिमल
शिक्षा के नाम पर हमारी सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, इसके बाद भी शिक्षा के स्तर पर कोई उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। दूसरी ओर सरकार पर हावी शिक्षा माफिया की हालत तो और भी बदतर है। आज निजी स्कूलों की मनमानी पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है। यहाँ तक की चंदे के नाम पर लाखों रुपए वसूलने वाली महानगरों की कई शालाओं की हालत इतनी खराब है कि कुछ कहना ही मुश्किल है। इसका पता तो तब चला, जब देश के आईटी उद्योग में उच्च स्थान रखने वाली विप्रो कंपनी ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के लिए एक अभियान चलाया।
इस कंपनी ने एजुकेशनल इनिशिएटिप्स नाम की एक गैर सरकारी संस्था के साथ मिलकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में देश के पाँच महानगरों की 142 प्रतिष्ठित शालाओं के 32 हजार विद्यार्थ्ाियों को अपने संरक्षण में लिया। ये सभी शालाएँ ऐसी थीं, जहाँ डोनेशन के नाम पर पालकों से लाखों रुपए वसूले जाते हैं। इन शालाओं के विद्यार्थी एसएससी बोर्ड की परीक्षा में मेरिट लिस्ट में आते हैं। सभी शाालाएँ ऍंगरेजी माध्यम की थीं। इन शालाओं में करोड़पतियों की संतानें शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। विप्रो ने जब इन शालाओं के विद्यार्थ्ाियों की ऍंगरेजी, गणित और विज्ञान की परीक्षा ली गई, तब यह सामने आया कि ये सारे बच्चे केवल रटने के कारण ही परीक्षा में अपना स्थान बनाते थे। बुद्धि का उपयोग कर शिक्षा प्राप्त करने में इनकी कोई रुचि नहीं थी। कहाँ तो विप्रो कंपनी अपनी शिक्षा में सुधार के लिए सर्वेक्षण करने निकली थी और कहाँ इस तरह की चौंकाने वाली जानकारी मिली।
हमें दूर से जो पहाड़ बहुत ही खूबसूरत नजर आते हैं, वास्तव में वे वैसे होते नहीं हैं। ठीक इसी तरह अधिक डोनेशन लेने वाली न जाने कितनी शालाएँ महानगरों में ऐसी हैं, जिनका नाम तो बहुत है, पर अंदर से पोलमपोल है। वहाँ के विद्यार्थी भले ही वातानुकूलित कमरों में बैठकर पढ़ते हों, साथ ही सभी कक्षाओं में इंटरनेट कनेक्शन हों, वहाँ कंप्यूटर लेबोरेटरी हो, परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करते हों, पर यह सब रटंत विद्या का कमाल है। वास्तव में यहाँ के विद्यार्थ्ाियों को इस तरह की कोई शिक्षा नहीं दी जाती, जिससे उसका आत्मिक विकास हो। सुविधाओं से विद्यार्थ्ाियों की पढ़ाई की गुणवत्ता सुधरती है, इसे महानगरों की ये शालाएँ झुठलाती हैं। विप्रो और एजुकेशनल इनिसिएटिव्स संस्था का उद्देश्य प्रतिष्ठित स्कूलों में शिक्षण की गुणवत्ता कितनी सुधरी है, इस पर शोध करना था, पर यहाँ तो कुछ और ही नजारा देखने को मिला।
आज की प्रतिष्ठित स्कूलों के विद्यार्थी एसएससी बोर्ड में 90 प्रतिशत या उससे भी अधिक अंक हासिल करते हैं, इससे शिक्षक और पालक अतिप्रसन्न हो जाते हैं। वे समझते हैं कि उनके स्कूल का शिक्षण अन्य स्कूलों की अपेक्षा बेहतर है। जो विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक लाता है, उसका यह आशय कतई नहीं है कि वह उस विषय की गहराई से जानकारी रखता है। विषय की पूरी समझ और उसकी उपयोगिता प्राप्त किए बिना ही रटंत विद्या से वे अपने विषय में अधिक से अधिक अंक प्राप्त कर लेते हैं। विप्रो और एजुकेशनल इनिशिएटिव्स की ओर से आयोजित परीक्षा में 142 शालाओं के 32 हजार विद्यार्थ्ाियों ने भाग लिया। इस परीक्षा का उद्देश्य यही था कि विद्यार्थ्ाियों की समझशक्ति, तर्कशक्ति, बुद्धिशक्ति और मौलिकता से विचारने की शक्ति की जाँच की जाए। इस परीक्षा के जो चौंकाने वाले परिणाम सामने आए और चार महानगरों की प्रतिष्ठित कहलाने वाली स्कूलों के अधिकांश विद्यार्थी अनुत्तीर्ण घोषित किए गए।
विप्रो कंपनी ने इस सर्वेक्षण में यह चालाकी की कि सभी प्रश्नों को घुमा फिराकर पूछा जाए। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिसमें दिमाग लगता है, वह सवाल किस तरह से हल किए जाते हैं। विद्यार्थ्ाियों को तो टेस्ट बुक या गाइड का ही सहारा था, जिसमें सीधे-सादे प्रश्नों के उत्तर भी सीधे तरीके से दिए जाते हैं। इसी कारण इन स्कूलों के तेजस्वी बच्चों को विप्रो के गुगली सवालों के उत्तर देने में नानी याद आ गई और वे बोल्ड हो गए। एक सवाल की बानगी देखें :- एक फीट की स्केल पर एक पेंसिल रखी गई, इस पेंसिल का बायाँ सिरा एक सेंटीमीटर के निशान पर था और दायाँ सिरा 6 सेंटीमीटर पर था। विद्यार्थ्ाियों को इस पेंसिल की लम्बाई निकालनी थी। इस सवाल का जवाब केवल 11 प्रतिशत विद्यार्थ्ाियों ने ही सही दिए, अधिकांश विद्यार्थ्ाियों ने पेंसिल की लम्बाई 6 सेंटीमीटर बताई।
इसी तरह विज्ञान के विद्यार्थ्ाियों को भी भरमाया गया। उनसे शुद्ध भाप का केमिकल फार्मूला पूछा गया। इस सवाल का जवाब देने में 63 प्रतिशत विद्यार्थी गच्चा खा गए। मात्र 37 प्रतिशत विद्यार्थी ही इस सवाल का समझ पाए। 51 प्रतिशत विद्यार्थ्ाियों का यह कहना था कि भाप का कोई केमिमल फार्मूला होता ही नहीं। इन स्कूलों के विद्यार्थी विज्ञान को भी बिना समझे पढ़ रहे हैं, यह इसका सुबूत था। इस सर्वेक्षण ने कई राजनीतिज्ञों, शिक्षाशास्त्रीयों, समाजशास्त्रियों और पालकों के होश उड़ा दिए। सर्वेक्षण के दस्तावेज हमारी शिक्षा पद्धति में खामियों को उजागर करते हैं।
1. आजकल शालाओं में सच्ची परीक्षा नहीं ली जा रही है। विद्यार्थ्ाियों को रटंत विद्या से दूर करे और उनकी समझ को बढ़ाए, ऐसे प्रश्न नहीं पूछे जा रहे हैं। इन प्रतिष्ठित स्कूलों में बच्चों को रट्टू तोता बनाकर रख दिया है।
2. विद्यार्थी यह मानते हैं कि आज उन्हें जो ज्ञान दिया जा रहा है, उसका जीवन में कोई अर्थ नहीं है, इसलिए इसे तो रटकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए वे रटने को अधिक प्राथमिकता देते हैं। विद्यार्थ्ाियों को दी जाने वाली शिक्षा का जीवन में किस तरह से अधिक से अधिक उपयोग में लाया जाए, यह नहीं बताया जा रहा है। इसलिए विद्यार्थी भी केवल रटने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
3. आज स्कूलों में जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, वह न्यू थ्योरीकल नॉलेज होता है। किसी भी विषय में विद्यार्थ्ाियों को कोई ज्ञान नहीं दिया जाता। विज्ञान जैसे विषय को भी प्रयोगशाला के बजाए ब्लेकबोर्ड पर समझाया जा रहा है। भूगोल को पढ़ाने के लिए शाला की तरफ से किसी प्रवास का आयोजन नहीं किया जाता है। इतिहास पढ़ाने के लिए किसी तरह के नाटक का मंचन नहीं किया जाता। फलस्वरूप विद्यार्थी उत्तीर्ण होने के लिए रटंत विद्या का सहारा लेते हैं। इससे उनके मस्तिष्क में दोहरा भार पड़ता है और वे मानसिक तनाव के शिकार हो जाते हैं। इससे उनका बौद्धिक विकास रुक जाता है।
4. इस सर्वेक्षण ने बोर्ड द्वारा ली जाने वाली तमाम परीक्षाओं की पोल खोलकर रख दी है। जो विद्यार्थी इन परीक्षाओं में 90 प्रतिशत अंक लाते थे, वे ऍंगरेजी, विज्ञान और गणित की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। इस कारण यही है कि ये विद्यार्थी गाइड पढ़कर और उसे रटकर ही परीक्षा पास कर लेते थे। इन परीक्षाओं में विद्यार्थ्ाियों की रटंत विद्या प्रतिभा की कसौटी होती थी। उनके ज्ञान के कौशल की परीक्षा नहीं होती थी।
इन सर्वेक्षणों के आधार पर मुम्बई के होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन के प्रोफेसर डॉ. के सुब्रमण्यम का कहना था कि इससे यह स्पष्ट होता है कि जिन प्रतिष्ठित शालाओं में जिस तरह से शिक्षा दी जा रही है, वह संतोषकारक नहीं है। विद्यार्थी अपने मस्तिष्क का उपयोग नहीं कर रहे हैं। कुछ दोष तो शिक्षा पद्धति का भी है, जिसमें विद्यार्थ्ाियों की समझ बढ़े, उनके विचारों को गति मिले, उनके विश्लेषण की क्षमता बढ़े, ऐसा कोई प्रयास इस पद्धति में दिखाई नहीं देता। अधिक अंक पाने के लिए अधिक दबाव से ऐसे हालात बन रहे हैं। शिक्षा का सही उद्देश्य पाठयक्रम पूरा करना नहीं, बल्कि बच्चों को ज्ञान देना होना चाहिए। क्या हमारे शिक्षाशास्त्री शिक्षा की कोई ऐसी पद्धति विकसित कर सकते हैं, जिसमें बच्चे की बुद्धि और प्रतिभा का समुचित विकास हो?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

आंचलिक भाषाई सांप्रदायिकता के संकट

प्रमोद भार्गव
अब तक सांप्रदायिकता को उन्मादित धार्मांधाता और जातीय विद्वेष के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाता रहा है। लेकिन महाराष्ट्र में दो उत्तर भारतीयों की हत्या के बाद इस भाषाई जघन्यता को हम आंचलिक भाषाई सांप्रदायिकता के विंधवसक रुप में भी देखने को विवश हैं। सत्ता के लिए राजनीतिज्ञों का यह संधीय सोच ही सास्कृतिक राष्जमीअत ने आतंकवाद के खिलाफ प्रस्ताव लाने के अलावा पुरजोर तरीके से इस बात का ऐलान भी किया कि वह किसी भी तरह के आतंकवाद के खिलाफ है और मुल्क में इसके खिलाफ लड़ रहे लोगों के साथ कांधो से कांधा मिलाकर लड़ने के लिए तैयार है। उलेमा ने साफ तौर से कहा कि अगर कोई मुसलमान दहशतगर्दी में शामिल पाया जाए, तो उसे सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए।राष्ट्रीय अखंडता को विभाजन के संदर्भ में खंडित करने का कारण बना था और अब फिर से स्थानीय राजनीतिक नेतृत्वों में उभार के चलते यह संकट गहरा रहा है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि राज ठाकरे उनकी मनसे और महाराष्ट सरकार किसी को भी देश की एकता को खण्डित करने वाली हरकतें करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। लेकिन स्वयंभू 'मराठी मानुष' है कि मानता ही नहीं।
राष्ट्र या किसी क्षेत्र विशेष के प्रति मोह, चिंता और उसके विकास व रोजगार के प्रति स्वप्नदृष्टि जब आंचालिक भाषावाद, जातिवाद या संप्रदायवाद में तब्दील हो जाती है तो यह अतिवाद की संभावनाओं को जन्म देती है जिसकी परिणति राज्य की प्रतिस्पधारी राजनीति क्रूर व विस्फोटक रुपों में सामने आकर स्थानीय राष्ट्रीयताओं को उभारती है, जो संघीय भारत के खतरों को बढ़ाती हैं क्योंकि भारत एक राष्टीय इकाई जरुर हैं लेकिन उसमें अनेक सास्कृतिक राष्ट्रीयताएं बसती हैं।
शिवसेना से अलग होने के बाद राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में अपनी स्वतंत्र राजनीति की स्थापना के दृष्टिगत तथाकथित महाराष्ट्र व मराठी भाषियों को लुभाने के प्रति जो आक्रामक बयानेबाजियों की मुहिम चला रखी है यह बेलगाम स्थिति और इससे उपजी प्रतिक्रियाएं संकीर्ण राज्यवाद को जन्म देने वाली हैं। आंचलिक भाषाई संप्रदायवाद के आधार पर समाज के एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुध्द खड़ा करने की ये जघन्य राजनीतिक हरकतें सामाजिक समग्रता और सांस्कृतिक चेतना के लिए खतरा हैं। इसी का प्रतिफल रहा कि मुबंई में जब रेलवे की परीक्षा देने गए अभ्यार्थियों को शिवसेना और मनसे के बाहुबलि गुर्गे खदेड़ते हैं तो बिहार में इनका प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रोश राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट करने के रुप में सामने आता है। हांलाकि ये प्रति-घटनाएं केवल स्व - स्फूर्त नहीं होतीं बल्कि राज्य की प्रतिस्पधारी राजनीति और उससे जुड़ी ताकतें अंदरुनी स्तर पर इन्हें उकसाने का काम करतीं हैं।
दरअसल आजादी के साठ साल बाद भी हम औपनिवेशिक मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं, इसी कारण हम एक देश के रुप में राष्ट्रीय इकाई होने के बावजूद हम पर क्षेत्रीय राष्ट्रीयताएं भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद व संप्रदायवाद अन्यान्य रुपों में हावी हैं, नतीजतन जैसे ही किसी भी वाद को हौवा बनाने के उपक्रम शुरु होते हैं वह क्षेत्रीय राजनीति के फलक पर उभर आता है। आंचलिक या स्थानीयता के इन्हीं उभारों के चलते शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, तृण-मूल कांग्रेस, गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी और बहुजन समाजपार्टी अस्तित्व में आई। दरअसल आंचलिकता का उभार ही जन जागरण से जुड़ा होता है। स्थानीयता क बहाने ही दलित और पिछड़ों के बहुजन राष्टीय राजनीति के मुख्य फलक पर उभरे हैं। भूमण्डलीयकरण के प्रभाव और बाजारवाद की आंधी में यह भ्रम होने लगा था कि स्थानीयता के मुद्दे कमजोर पड़ जाएगें। वैश्वीकरण की अवधाारणा में स्थानीयता का विलोपीकरण हो जाएगा। अमेरिकी पूँजीवादी एकरुपता जैसे दुनिया के बहुलतावाद को खत्म कर देगीं ? हालांकि ये शंकाये पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ढहने के बाद स्वयं समाप्त हो गईं। पर आजादी के समय जो सवाल अनुत्तरित थे वे आज भी कमोबेश अनुत्तरित ही हैं। बहुजन का उभार और उसका सत्ता में पर्याप्त हस्तक्षेप भी इन सवालों के व्यापक अर्थ अथवा राष्टीय परिप्रेक्ष्य में उत्तर तलाशपाने में असफल ही रहा।
स्थानीयता के मुद्दे ने ही कश्मीर के सवाल को चिर-प्रश्न बनाया हुआ है। जबकि कश्मीर का सवाल भी शिवसेना या मनसे के सवाल की तरह 'मुबंई सिर्फ मराठी-भाषियों के लिए है ' की तर्ज पर मुस्लिम या इस्लाम के लिए नहीं हैं वह भारत की अखंडता और सार्वभौमिकता से जुड़ा है। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने सामंतवादी राज्यों के भारत में विकीनीकरण के दौरान अभिलेखों पर हस्ताक्षर कर राज्य सत्ता का हस्तातंरण भारत की प्रभुता के लिए किया था। कमोबेश इसी तरह की प्रक्रियाओं को अमल में लाने के साथ ही तमाम बड़ी रियासतें भारत का संवैधाानिक अंग बन गई थीं। लेकिन कालांतर में पाकिस्तानी शह और सहयोग से कश्मीर में मुस्लिम हित और इस्लाम का राग अलापा जाने लगा। हिंदुओं को अलगाववादी निशाना बनाकर खदेड़ने लगे। स्थानीय नेतृत्व ने प्रांतवाद के ऐसे ही सोच को उभारकर भारत को 'संघीय भारत' के रास्ते पर डाल दिया। क्योंकि राष्ट्रीय इकाई और क्षेत्रीय राष्टीयताओं के बीच बेहद बारीक विभाजन रेखा है जिसे स्थानीय सरोकारों से बरगलाकर उभारना किसी भी विघटनकारी नेतृत्व के लिए सरल व सहज है। खालिस्तान, नागालैण्ड, बोडोलैण्ड, गोरखालैण्ड, मराठालैण्ड इन्हीं क्षेत्रीय राष्ट्रीयताओं की उपज हैं।
यहां सवाल यह भी उठता है कि आंचलिकता अथवा स्थानीयता जब मानवीय सभ्यता और संस्कृति की इतनी मजबूत विरासत के रुप में अवचेतन में बैठी अवधाारणा है तो इन्हें गंभीरता से क्यों नहीं लिया जाता ? इंदिरा गांधी पंजाब में अकालियों की राजनीति खत्म करने के लिए भिंडरावाले को राजनीतिक सरंक्षण देकर खड़ा करती हैं और वह स्वयंभू तथाकथित आतंकवाद के बूते खालिस्तान का राष्ट्रधयक्ष बन बैठता है। ठीक इसी तर्ज पर शिवसेना को कमजोर करने के दृष्टिगत राज ठाकरे और उनकी स्थानीय अस्मिताओं को उभारने का भरपूर मौका महाराष्ट्र सरकार देती हैं, जिससे कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी फायदे में रहें। अन्यथा राष्ट्रद्रोह की बयानबाजी करने वाले राज ठाकरे के विरूध्द कोई कठोर कारवाई करने से मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख क्यों हिचकिचाते रहें ? दल व व्यक्तिगत मंशाओं की पूर्ति के दृष्टिगत दायित्व निर्वाह में शिथिलता व लापरवाही बरतना भी एक तरह राष्टीय अनैतिकता है, जिसे अपराधा के दायरे में लाना चाहिए ? वैसे भी किसी भी सत्ताधारी को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि अतिवाद उनके हितों के लिए लाभकारी सिध्द होगा। मुंबई में 1992 में हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण कांग्रेस से मुसलमान अलग हुआ और अब राज ठाकरे का मराठी अतिवाद उत्तर भारतीयों को अलग कर दे तो कोई हैरानी नहीं ?
दरअसल अकेले गांधाी ने व्यक्तिगत स्थानीयता और राष्ट्रीयता के परस्पर सामंजस्य को समझने की कोशिश की थी। उन्होने मार्गदर्शन करते हुए इसीलिए लघु परंपराओं के महत्व को बार-बार उल्लेखित किया है क्योंकि वे स्थानीयता या आंचलिकता की आधाारशीला हैं। निम्न वर्गों, वर्णों, जातियों और समुदायों की मानसिक स्थितियों की समझने की कोशिश करतें हैं। जबकि बृ्रहत परंपराओं के तहत उपरोक्त स्थितियों को समझा ही नहीं गया।
दलित और पिछड़ों के सामूहिक रुप से सत्ता में आने के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि अब तमाम अनुत्तरित सवालों के हल ढ़ूढ़ लिए जाएंगें ? परतुं ठीक इसके विपरीत 1990 के बाद से संसद में गरीब, अल्पसंख्यक और महिलाओं की चर्चा को नकारते हुए भूख, असमानता और सामाजिक न्याय के मुद्दे भी संसद से गायब हो गए। अब वहां जाति, अपराधाी और पूंजी के माफिया तंत्र का बोलबाला है। जिसकी ताकत में लगातार इजाफा हो रहा है। करीब एक सौ पूंजीपति राज्यसभा में हैं। लिहाजा अब राष्टीय व सर्वजन हितैषी मुद्दों की बजाय बाजार, सेंसेक्स फेरा की चर्चा होती है। जबकि संसद से सामाजिक समरसता का ऐसा संदेश जाना चाहिए था कि कश्मीर में हिंदुओं को रक्षा के लिए मुस्लिम सामने आएं, गुजरात मुस्लिमों की और कंधामाल में ईसाइयों की सुरक्षा को हिंदू आगे आएं, इस तारतम्य में महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हो रहें हमलों को रोकने के लिए सामंजस्य स्थापना की बागडोर मराठी समाज मुखर होकर सामने आए ? अन्यथा अलगाव व वैमन्स्यता के इस जहरवाद के परिणाम घातक ही निकलेंगें।
प्रमोद भार्गव

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

किस बिल में छिपे थे राज ठाकरे


नीरज नैयर
मुंबई में आतंकवाद की धुंध छटने के बावजूद हर किसी की जुबान पर बस एक ही नाम है राज ठाकरे. हर कोई बस यही जानना चाहता है कि मराठी हितों की दुहाई देने वाला यह मराठी मानुस आखिर तीन दिनों तक किस बिल में छिपा रहा. जब आतंकवादी मराठियों के खून से होली खेल रहे थे तब राज और उसकी बहादुर सेना मर्दानगी त्यागकर हाथों में चूड़ियां पहने क्यों बैठी रही. अगर राज और उसके गुंडे मराठियों के सच्चे पैरोकार थे तो उन्हें सड़कों पर गोलियां बरसा रहे आतंकियों से लोहा लेना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जब जान पर बन आई तो सारी मराठीगिरी पल भर में ही काफूर हो गई. जिस मुंबई में हमेशा कभी दक्षिण भारतीयों के नाम पर तो कभी उत्तर भारतीयों के नाम पर नफरत का जहर घोला जाता रहा है उसी मुंबई को बचाने के लिए सेना और एनएसजी के कमांडो ने बिना कुछ सोच-विचारे जान की बाजी लगा दी क्यों? क्योंकि वह जानते हैं कि मुंबई भी उसी देश का हिस्सा है जिसमें यूपी और बिहार आते हैं. लेकिन राज ठाकरे जैसी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के दिमाग में यह बात आसानी से नहीं आएगी. राज ठाकरे ने यह ऐलान किया था कि वो किसी भी उत्तर भारतीय को महाराष्ट्र में नहीं घुसने देंगे तो फिर उन्होंने कमांडो से उनकी जात-पात जाने बगैर मुंबई में कैसे उतरने दिया. राज को चाहिए था कि वो पहले उत्तर भारतीय कमांडो की पहचान करते, फिर उनके साथ भी वैसा ही सुलूक करते जैसा वो आमजन के साथ करते आए हैं. लेकिन राज ने ऐसा कुछ नहीं किया. दरअसल राज जैसे लोग कुछ करने के काबिल भी नहीं हैं. वैमनस्य फैलाते-फैलाते वह खुद ऐसी गंदी दीवार में परिवर्तित हो गये हैं जिस पर थूकना भी कोई पसंद नहीं करता. मुंबई भले ही आज आतंकी हमले को लेकर चर्चा में है, पूरा देश मारे गये लोगों के गम में सिसकियां भर रहा है लेकिन कुछ वक्त पहले तक मुंबई अपनी नपुंसकता छिपाने के लिए मर्दानगी का भौंडा प्रदर्शन करने वाले राज ठाकरे की ज्यादतियों को लेकर सुर्खियों में थी. राज के पालतू , लोगों को बीच सड़क पर मार रहे थे, सरकारी संपत्ति को स्वाहा कर रहे थे और सरकार कह रही थी कि बच्चा बस थोड़ा सा बिगड़ गया है. राज डंके की चोट पर चुन-चुनकर निर्दोष उत्तर भारतीयों पर हमले कर रहे थे लेकिन राज्य सरकार खामोश थी और केंद्र सरकार को इस ओर देखना भी मंजूर नहीं था. राजनीतिक अकर्मण्यता और खुद को बचाने की राजनीति के चलते ही राज जैसे लोगों का हौसला आज बुलंदी पर है. वरना क्या मजाल की एक अदना सा बौराया हुआ युवक 100-200 निठल्लों को लेकर पूरी सरकारी मिशनरी को जाम करने की हिम्मत दिखा सके. आज हालात यह हो गये हैं कि मुंबई में बसने वाला जो गैरमराठी कभी अपनेपन के साथ समुद्र के किनारे, सड़कों पर बेखौफ होकर टहला करता था वो आज घर से बाहर निकलने में भी घबराने लगा है. सबसे अजीब बात तो यह है कि राज के इस असभ्य तौर-तरीके पर राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ सभ्य समाज भी मौन धारण किए हुए है. शायद सभी राज के लिए इस कहावत को चरितार्थ करते हैं कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता. वैसे ऐसा नहीं है कि केवल राज ठाकरे ही क्षेत्रवाद और जात-पात के नाम पर घिनौना खेल खेलने में लगे हैं या मुंबई ही अकेली इस आग में जल रही है. असम भी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है और तमिलनाडु भी ऐसी लपटों से झुलस चुका है. मुंबई में करीब 40 साल पहले बाल ठाकरे ने भी मराठी माणुस का पत्ता खेलकर नफरत की सियासत से अपना घर सींचने की कोशिश की थी. उनकी बनाई शिवसेना ने हर वो काम किया था जो देश की एकता और अखंडता पर चोट करने वाला था. बस फर्क सिर्फ इतना था कि उस वक्त उनके निशाने पर दक्षिण भारतीय थे और आज उनके भतीजे के निशाने पर उत्तर भारतीय. 2006 में राज ने जब चाचा का दामन छोड़ा था तो बाल ठाकरे ने उन्हें बिना पतवार की नाव करार दिया था लेकिन आज राज उनसे आगे निकलने की होड़ में लगे और काफी हद तक निकल भी गये हैं. राज को मराठियों का काफी हद तक समर्थन मिल रहा है. पढ़े-लिखे लोग हालांकि राज के हिंसात्मक रवैये की निंदा जरूर कर रहे हैं मगर सिध्दांतत: वो राज से सहमत हैं. वो कहीं न कहीं समझते हैं कि बाहरी लोगों के आने से उनके अधिकारों में कटौती हुई है जबकि यह तर्कसंगत नहीं है. महाराष्ट्र में अब भी सबसे ज्यादा नौकरियां मराठियों के पास हैं. हाल ही में सार्वजनिक हुई एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है. लेकिन राज को ऐसी रिपोर्टों से कोई मतलब नहीं उन्हें मतलब है तो केवल इस बात से कि कैसे चुनाव से पहले मराठी वोट बैंक को अपने पक्ष में किया जाए, कैसे बाल ठाकरे को नीचा दिखाया जाए और कैसे मराठियों का देवता बना जाए. राज जो भी कर रहे हैं उसका गुस्सा कई बार देश के अन्य राज्यों में दिखलाई पड़ चुका है. गैर-मराठी मराठियों से नफरत करने लगे हैं, उन्हें अपना दुश्मन समझने लगे हैं. बिहार में जब मराठी पर्यटकों को पुलिस सुरक्षा में सीमा से बाहर तक छोड़ा गया, उनसे हिंदी में बात करने को कहा गया, पारंपरिक वेशभूषा न पहनने की हिदायत दी गई तो समझ आ जाना चाहिए कि नफरत अब महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रही. लोग राज से ज्यादा राज्य सरकार से खफा हैं. उन्हें लग रहा है कि सरकार खुद गैरमराठियों को बाहर करवाना चाहती है, इसलिए राज के खिलाफ कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. उन पर केवल मामूली धाराएं लगाई जा रही हैं, ताकि आसानी से उन्हें बेल मिल जाए. राज जब गिरफ्तार किए जाते हैं तो किसी अपराधी की तरह नहीं बल्कि किसी महाराजा की तरह जिनके साथ सैकड़ों सैनिक चल रहे होते हैं. अदालत से बाहर निकलने पर उनका बर्ताव किसी राजा से कम नहीं होता, पुलिस अधिकारी खुद उनकी कार का दरवाजा खोलते हैं, उन्हें सुलूट मारते हैं. यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें कोई असुविधा न हो. पूरा सरकारी तंत्र राज के इर्द-गिर्द दिखाई पड़ता है ऐसे में उत्तर भारतीयों की आवाज किस को सुनाई दे सकती है. मुंबई हमले के तुरंत बाद एक हिंदीभाषी पत्रकार को इतना मारना कि उसकी टांग टूट जाए, रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आ जाएं, खून रोकने के लिए कई टांके लगाने पड़ें तो राज के मानसिक दिवालिएपन का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकात है. राज भले ही तीन दिनों तक चूहा बने किसी बलि में छिपे रहे मगर अब फिर वो पागल कुत्ते की तरह गैरमराठियों को काटेंगे, सरकारी बाशिंदे फिर उन्हें पुचकारेंगे और फिर मुंबई नफरत की हिंसा में सुर्खियों बटोरती रहेगी.
नीरज नैयर
9893121591

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

आओ एड्स के खिलाफ एक हो जाएँ


डॉ. महेश परमिल
कुछ समय पहले अखबारों में पढ़ा था कि पश्चिम बंगाल के एक व्यक्ति के रक्त की जाँच में उसे एचआईवी पॉजीटिव पाया गया। इसके बाद तो उस व्यक्ति का जीना ही मुहाल हो गया। उसे अपने ही नाते-रिश्तेदारों की उपेक्षा सहनी पड़ी। उसे समाज से ही बहिष्कृत कर दिया गया। सभी उसे कटाक्ष भरी दृष्टि से देखते। लोग उससे दूर-दूर रहते। कई लोग तो उसे छूना भी पसंद नहीं करते। एक तरह से तो वह जीवित रहकर भी मरणासन्न हो गया था। कई दिनों बाद पता चला कि उसकी रिपोर्ट गलत थी। जाँच में गलती हो गई, किसी और के रक्त की रिपोर्ट को उसकी रिपोर्ट बता दिया गया। उस व्यक्ति को तो सही साबित कर दिया गया, पर इस बीच उसने जो कुछ सहा, वह मौत से बदतर था। वह अपने ही लोगों की ऑँखों के सामने गिर गया। आखिर तक उसे वह इात नहीं मिल पाई, जिसका वह हकदार था।
यह हमारे समाज की एक ऐसी सच्चाई है, जिसे हर कोई स्वीकार तो करता है, पर इसे दूर करने की दिशा में एक कदम भी नहीं उठाना चाहता। आजो विश्व एड्स दिवस है। तमाम अखबारों को पढने पर पता चला कि हमारे देश में एड्स रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसी के साथ बढ रहे हैं इस बीमारी की रोकथाम के उपाय। हम सभी जानते हैं कि एड्स एक जानलेवा बीमारी है। सावधानी ही इससे बचने का एकमात्र उपाय है। लोगों में यह आम धारणा है कि यह बीमारी केवल बड़ों को ही होती है। पर सच तो यह है कि इस रोग के संबंध में आवश्यक जागरूकता एवं सावधानी के अभाव में आज बच्चों में भी एड्स तेजी से फैल रहा है। विश्व में 15 साल से नीचे की उम्र के एक करोड़ बालक ऐसे हैं, जो एड्स के कारण अपने माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गए हैं। इन बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।
हाल ही में ऐसे तथ्य सामने आए हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि हमारे देश में अभी भी हजारों बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें यह बीमारी विरासत में मिली है। माता यदि एचआईवी पॉजीटिव हो, तो बालक जन्म के साथ ही यह बीमारी अपने साथ लाता है। सका वायरस उसके खून में पहले ही समा चुका होता है। यह एक चिंता का विषय है कि आजकल हमारे देश में कई बच्चे माता की कोख में ही इस बीमारी से ग्रस्त हो रहे हैं। अब तो माँ की कोख भी सुरक्षित नहीं रही। इस जानलेवा बीमारी को रोकने के लिए विश्व स्तर पर वैज्ञानिक शोधकार्य में लगे हुए हैं, निश्चित रूप से इसके अच्छे परिणाम सामने आएँगे, पर इसके लिए समय लगेगा। अभी तो इसके लिए बिना किसी की सहायता लिए अपनी ओर से एक कदम उठाना ही होगा। यह कदम क्या हो, इस पर कई लोगों के कई विचार हो सकते हैं। सबसे पहले तो यह हो सकता है कि इस बीमारी से ग्रस्त लोगों से प्यार से बातचीत करें। उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव न करें। उसके सामने ऐसी कोई हरकत न करें, जिससे उसे लगे कि उसकी उपेक्षा की जा रही है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि णसन तो रोगी के कपड़े पहनने से होता है, न हाथ मिलाने से होता है और न ही उसके साथ भोजन करने से होता है। यह सब करने से केवल प्यार ही बढता है। यदि हमें पता चल जाए कि किसी व्यक्ति को एड्स है, तो उससे इस तरह से व्यवहार करें, जिससे उसे अपनी जिंदगी से प्यार हो जाए और वह पूरी शिद्दत के साथ जिंदगी जीने की कोशिश करे।
यह आश्चर्य की बात है कि पूरे विश्व में अब तक 4 करोड़ लोग एचआईवी ग्रस्त हैं। इस बीमारी ने अभी तक 80 लाख लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। इसके बाद भी विश्व में अभी भी 80 प्रतिशत लोगों को यह मालूम ही नहीं है कि एड आखिर है क्या? यह अज्ञानता ही है, जो लोगों को इस बीमारी के करीब ला रही है। एक बार जो इसकी चपेट में आ गया, वह मौत के करीब पहुँच जाता है। पर सच तो यह है कि यदि रोगी के भीतर जीने की लालसा हो, तो इस बीमारी को भी अपने से दूर भगा सकता है। इससे ग्रस्त निराश लोगों में जीवन का संचार करने में हम सबको महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। एड्स रोगी भी यह तय कर ले कि चाहे कुछ भी हो, मुझे इस बीमारी से लड़ना ही है, तो उसका आत्मविश्वास ही उसे एड्स से छुटकारा दिला सकता है। हमारे ही समाज में ऐसे कई लोग हुए हैं, जो एड्सग्रस्त होने के बाद भी पूरी तरह से सामान्य जीवन जीया है।
जीवन जीने की कला यही है कि मौत से पहले मत मरो और दुऱ्ख आने से पहले दुऱ्खी मत हो, हाँ लेकिन सुख आने के पहले ही उसकी कल्पना में ही सुख का अनुभव करो, खिलखिलाहट के पहले ही अपने होठों पर मुस्कान खिला लो। सकारात्मक सोच का सफर काफी लम्बा होता है और नकारात्मक सोच का सफर शुरू होने के पहले ही तोड़कर रख देता है। यह सब कुछ निर्भर करता है हमारे व्यवहार पर। इस व्यवहार में सोच की परत जितनी अधिक जमेगी, जीवन की खुशियाँ उतनी ही परतों के नीचे दबती चली जाएगी। निर्णय हमें करना है कि एड्स रूपी राक्षस के बारे में अधिक सोच-सोच कर जीवन को भार बनाना है या उसका मुकाबला कर जीवन को फूलों की पंखुड़ी सा हल्का और सुकोमल बनाना है? क्योंकि एड्स की भयावहता निश्चित ही एक क्षण को हमें कमजोर बना देती है, किंतु आज आवश्यकता है इस चुनौती को स्वीकारने की और इससे लडने की। एक बार फिर हमें अपने आपको समर्पित करना होगा एचआइवी के विरुध्द दृढ़ होकर ख़डे रहने के लिए और साथ ही इस बात का भी संकल्प लेना होगा कि हम इस वायरस से पीड़ित लोगों के जीवन में आशा की एक नई सुबह लाएँगे और उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेंगे, ताकि वे अपना सामान्य जीवन जी सकें और हमारे साथ हँसी-खुशी से रहे सकें।
डॉ. महेश परिमल

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