सोमवार, 15 दिसंबर 2008

इस बार नहीं


' तारे ज़ंमीं पर ' और 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्मों के बेहद भावुक और दिल को छू लेने वाले गीत लिखने वाले गीतकार प्रसून जोशी ने मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक बेहतरीन कविता लिखी है, जो हिलाकर रख देती है।

इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊंगा
पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूंगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूंगा
उतरने दूंगा गहरे
इस बार नहीं

इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा
ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे
और ना ही कहूंगा कि तुम आंखे बंद करलो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूं
देखने दूंगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं

इस बार जब उलझनें देखूंगा,
छटपटाहट देखूंगा
नहीं दौड़ूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूंगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औज़ार
नहीं करूंगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूंगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूंगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूंगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूंगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूंगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूंगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं

इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है

प्रसून जोशी

1 टिप्पणी:

  1. क्या बात है परिमल जी ! इतनी अच्छी कविताओं के संकलन एक ही ब्लॉग पर पढ़्ने को मिल रहे है आप के कारण. बधाई.

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