गुरुवार, 19 मार्च 2009

स्विस बैंकों में भारत के एक अरब करोड़ रुपए


डॉ. महेश परिमल
क्या आप जानते हैं कि स्विट्जरलैंड की बैंकों में भारत के नेताओं एवं उद्योगपतियों के कितने रुपए जमा हैं? आपको शायद विश्वास नहीं होगा, क्योंकि यह राशि इतनी बड़ी है कि हम पर जितना विदेशी कर्ज है, उसे हम एक बार नहीं, बल्कि 13 बार भुगतान कर सकते हैं। जी हाँ स्विस बैंकों में भारत के कुल एक अरब करोड़ रुपए जमा हैं। इस राशि को यदि भारत के गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले 45 करोड़ लोगों में बाँट दिया जाए, तो हर इंसान लखपति हो जाए। अन्य बैंकें जहाँ जमा राशि पर ब्याज देती हैं, वहीं स्विस बैंकें धन को सुरक्षित रखने के लिए जमाकर्ता से धन लेती हैं। आज हमारे पास सूचना का अधिकार है, तो क्या हम यह जानने का अधिकार नहीं रखते कि हमारे देश का कितना धन स्विस बैंकों में जमा है? क्या यह धन हमारे देश में वापस नहीं आ सकता? अवश्य आ सकता है। क्योंकि अभी नाइजीरिया यह लड़ाई जीत चुका है। नाइजीरिया के राष्ट्रपति सानी अबाचा ने अपनी प्रजा को लूटकर स्विस बैंक में कुल 33 करोड़ अमेरिकन डॉलर जमा कराए थे। अबाचा को पदभ्रष्ट करके वहाँ के शासकों ने स्विस बैंकों से राष्ट्र का धन वापस लाने के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ी। अंतत: वे सफल हुए और स्विस बैंकों से धन मिल गया। जब नाइजीरिया के शासकों ने ऐसा सोच लिया, तो हमारे शासक ऐसा क्यों नहीं सोच सकते?
देश में अब चुनाव की पदचाप सुनाई देने लगी है, तब हमारे द्वार पर आने वाले वोट के भिखारी से हमें पूछना चाहिए कि स्विस बैंकों में हमारा कितना धन जमा है और उसे सुरक्षित रखने के लिए कितना धन देना पड़ रहा है? निश्चित रूप से यह धन भ्रष्टाचार और दो नम्बर का है। यह धन किस प्रकार उन्हें प्राप्त हुआ, यह हम सभी जानते हैं। तो फिर क्यों न हम इस चुनाव में उन्हें बता दें कि जब हमें वोट देने का अधिकार है, तो यह पूछने का भी अधिकार होना चाहिए कि हमारे देश का धन आखिर स्विस बैंकों में क्यों जा रहा है? वह धन हमारे देश की बैंकों में क्यों नहीं रखा जा सकता?
चुनाव के ठीक पहले आम आदमी की जरूरतों का ध्यान रखने वाली तमाम सरकारें कई वादे करती हैं, लेकिन यह सब दिखावा मात्र ही होता है। एक समय ऐसा था, जब लोग अपने घरों में देवी-देवताओं की तस्वीरों के साथ गांधीजी, नेहरु जी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, आजाद आदि सपूतों की तस्वीरें रखा करते थे। यही नहीं,उन तस्वीरों के आगे शीश नवाते थे। पर आज हमारे बीच ऐसा कोई भी नेता नहीं है, जिसके आगे सर अपने आप झुक जाए। मुम्बई में आतंकवादियों के हमले के बाद लोगों ने नेताओं पर काफी गुस्सा उतारा था। प्रजा की नाराजगी साफ झलकती थी। प्रजा के आक्रोश को देखते हुए नेताओं की बोलती ही बंद हो गई थी। आज यदि प्रजा के हाथ में पॉवर आ जाए, तो वह इन नेताओं का क्या हश्र करेगी, यह वह खुद नहीं जानती।
यह हमारा कमजोर लोकतंत्र ही है, जिसमें हमें किसी को चुनने का तो अधिकार है, किंतु उसे वापस बुलाने का अधिकार नहीं है। वोट देते ही हमारा उस नेता से संबंध टूट जाता है। वह हमारा आदमी होकर भी वीआईपी होता है। आम आदमी का प्रतिनिधि विशेष क्यों हो जाता है, यह प्रश्न आजादी के 60 वर्षों बाद भी अनुत्तरित है। एक ऍंगरेजी मैगजीन में एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया, जिसमें यह बताया गया कि आज लोगों को नेता बिलकुल भी नहीं सुहाते। उस समय तो लोग उन्हें बहुत ही धिक्कारते हैं,जब उनके आगमन पर शहर के रास्तों पर यातायात बंद कर दिया जाता है। इस सर्वेक्षण में भारत के 5 महानगरों से कुल 1022 नागरिकों प्रश्न पूछे गए थे। इनमें 46 प्रतिशत महिलाएँ भी थीं। इस सर्वे में भाग लेने वालों में से 79 प्रतिशत नागरिकों ने आज के नेताओं को धिक्कारा था। 84 प्रतिशत लोगों का मानना था कि नेता जो वादे करते हैं, उस पर उन्हें विश्वास नहीं है, क्योंकि वे कभी पूरे नहीं होते। 76 प्रतिशत लोगों का कहना था कि इन नेताओं के कारण हमारा लोकतंत्र बदनाम हो रहा है। 64 प्रतिशत मानते हैं कि ईमानदार आदमी राजनीति में कभी सफल नहीं हो सकता। 66 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपनी संतानों को भूलकर भी राजनीति में जाने की सलाह नहीं देंगे। इसके बाद भी हमारे देश की प्रजा लाचार है कि उन्हें साँपनाथ और नागनाथ में से किसी एक को चुनना है।
एनडीए के भूतपूर्व अध्यक्ष जार्ज फर्नाण्डीस ने कुछ समय पहले एक रहस्योद्धाटन किया था कि जब वे रक्षा मंत्री थे, तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें बोफोर्स की फाइल को हाथ लगाने से भी मना कर दिया था। कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर एनडीए सत्ता पर आ गई। इसके बाद वह आसानी से बोफोर्स के सच से प्रजा को वाकिफ करा सकती थी, पर अपने 6 वर्ष के कार्यकाल में वह ऐसा नहीं कर पाई। इसका मतलब यही हुआ कि कांग्रेस के पास भी भाजपा नेताओं की पोल पट्टी है, जिसे वह जब चाहे, खोल सकती है। इसलिए सत्ता पर कोई भी काबिज हो, सब परस्पर सहयोग करते हुए अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। हमारे देश की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि यहाँ जितनी भ्रष्ट सत्तारूढ़ पार्टी है, उतनी ही भ्रष्ट विरोधी पार्टी है। इसलिए सत्ता पर कोई भी रहे, एक-दूसरे की बुराइयों को छिपाने का भरपूर प्रयास होता ही रहता है। हमारी इसी कमजोरी का लाभ विदेशी ताकतें उठाती रहती हैं। उन्होंने अरबों डॉलर देकर हमारे नेताओं को खरीद लिया है। यही वह धन है, जो आज स्विस बैंकों में जमा है।
स्विस बैंकों से धन वापस निकालने की तीन शतर्ें हैं पहला क्या वह धन आतंकवादी गतिविधियों को चलाने के लिए जमा किया गया है? दूसरा क्या वह धन मादक द्रव्यों के धंधे से प्राप्त किया गया है और तीसरा क्या वह धन देश के कानून को भंग करके प्राप्त किया गया है? इसमें से तीसरा कारण है, जिससे हम स्विस बैंकों में जमा भारत का धन वापस ले सकते हैं, क्योंकि हमारे नेताओं ने कानून को भंग करके ही वह धन प्राप्त किया है। हमारे खून-पसीने की कमाई को इन नेताओं ने अपनी बपौती समझकर विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, उसका इस्तेमाल हमारे ही देश की भलाई में होना चाहिए। पर क्या यह संभव है?
आज नेताओं में जो धन को विदेशी बैंकों में जमा करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसके पीछे हमारे देश का कमजोर आयकर कानून है। इसी आयकर से बचने के लिए ही तो ये नेता, अधिकारी और सभी भ्रष्ट लोग अपने धन को काले धन के रूप में रखते हैं। यदि आयकर कानून को लचीला बना दिया जाए, तो इस पर अंकुश लगाया जा सकता है। अभी हमारे देश में 10 लाख करोड़ रुपए काले धन के रूप में प्रचलित है। इस दिशा में कोई भी पार्टी कानून बनाने की जहमत नहीं उठाएगी। क्योंकि यदि किसी पार्टी ने इस दिशा में जरा भी हरकत की, तो विदेशी कंपनियाँ उसे सत्ताच्युत कर देंगी। ये कंपनियाँ हमारे नेताओं को अपनी ऊँगलियों पर नचा रही हैं। यदि प्रजा जागरूक हो जाती है और नेताओं को इस बात के लिए विवश कर सकती है कि वह स्विस बैंकों में जमा भारतीय धन को वापस ले आएँ, तो ही हम सब सही अर्थों में आजाद देश के नागरिक माने जाएँगे। इस धन के देश में आ जाने से न तो हमें किसी से भीख माँगने की आवश्यकता होगी और न ही हमारा देश पिछड़ा होगा, इस धन की बदौलत भारत का नाम पूरे विश्व में एक विकसित देश के रूप में गूँजेंगा। आज इस देश को शक्तिशाली और ईमानदारी नेतृत्व की आवश्यकता है।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. कांग्रेस और भाजपा इस मामले में मौन क्यों साधे बैठे हैं? उन्हे घोषणा करनी चाहिये कि स्विस बैंक के भारतीय खातों का चिट्ठा वे सार्वजनिक करने के लिये कटिबद्ध हैं।

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  2. अधिकांश धन या तो राजनेताओं का है या फिर नौकरशाहों का। अत: बिना जनक्रान्ति के यह सम्‍भव नहीं है। कोई प्रधानमंत्री यदि निर्णय ले भी ले तो उसे संसद में पास नहीं होने दिया जाएगा और यदि जनता के दवाब से वहाँ पास भी हो गया तो ये नौकरशाह कभी भी फाइल को आगे नहीं खिसकने देंगे।

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