सोमवार, 20 अप्रैल 2009

जूता: एक मौलिक पीएचडी प्रस्ताव



अनुज खरे
हाल ही में पत्रकारों ने अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से लेकर भारतीय
गृहमंत्री चिदंबरम तक पर जूते चलाएं हैं। कुछ अन्यों ने भी इसी माध्यम से
हल्के-फुल्के ढंग से दूसरों को कूटा है। जूते के इसी बढ़ते प्रयोग को
लेकर मुझे कई तरह की संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं।
इस निरीह सी वस्तु के बारे में सबकुछ जान लेने की इच्छा मन में खदबदाने
लगी है। पीएचडी तक के लिए यह विषय मुझे अत्यंत ही उर्वर नजर आने लगा है।
एक जूते का चिंतन, चिंतन में जूता परंपरा, उसका निर्धारित मूल कर्म, दीगर
उपयोग, इतिहास में मिलती गौरवशाली परंपरा, आख्ययान, उसमें छुपी
संभावनाएं, अन्य क्षेत्रों से जूते का निकट संबंध, समाज के अंगों के बीच
इसका प्रयोग, जूते का इतिहास में स्थान, वर्तमान की आवश्यकता, भविष्य में
उपयोगिता।
अर्थात् जूते के रूप में मुझे पीएचडी के लिए इतना जबर्दस्त विषय हाथ लगा
गया है कि अकादमिक इतिहास में मौलिक पीएचडी करने वालों में मेरा नाम
स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना तय सा ही दिखाई देता है। चूंकि यहां यह बात
अलग से भी उपयोगी साबित होगी कि पूरे प्रकरण में की गई रिसर्च के दौरान
जूतों से स्थापित तदात्म्य के चलते बाद में परीक्षक या आलोचक अपनी बातों
के कितने भी जूते चलाएंगे वे सब मेरे ऊपर बेअसर ही साबित होंगे। तो इस
तरह 350 पन्नों की चिंतन से भरी जूता पीएचडी मेरी आंखों के सामने चमकने
लगी है। शोध तक का प्रस्ताव मैंने तैयार कर लिया है। आप भी चाहें तो जरा
नजर डाल लें..।
जूता खाना-जूता चलाना, जूतम पैजार, जूते का नोंक पर रखना, जूता देखकर
औकात भांप लेना, दो जूते लगाकर कसबल निकाल देना.. आदि-आदि.. अर्थात जूता
हमेशा से ही भारतीय जनसमाज के अंतर्मन में उपयोग और दीगर प्रयोग की
दृष्टि से मौलिक चिंतन का केंद्र रहा है। प्राचीन काल से ही जूते के
स्वयंसिद्ध प्रयोग के अलावा अन्य क्रियाकलापों में उपयोग का बड़ी शिद्दत
से मनन किया गया है।ऋषि-मुनि काल की ही बात करें तो तब जूतों की
स्थानापन्न खड़ाऊं का प्रचलन था, तब इसका उपयोग न सिर्फ कंटीली राहों से
पैरकमलों की रक्षा के लिए किया जाता था अपितु संक्रमण काल में खोपड़ा
खोलने के लिए भी कर लिया जाता था। चूंकि खड़ाऊं की मारकता-घातकता चमड़े
के जूते के मुकाबले अद्भुत होती थी इसी कारण कई शांतिप्रिय मुनिवर केवल
इसी के आसरे निर्भय होकर यहां से वहां दड़दड़ाते घूमते रहते थे।
हालांकि खड़ाऊं प्रहार से कितने खोपड़े खोले गए, इस बावत कितने प्रकरण
दर्ज हुए, किन धाराओं में निपटारा हुआ, कौन-कौन से श्राप, अनुनय-विनय की
गतिविधियां हुईं, इस विषय में इतिहास मौन ही रहा है। चूंकि हम अपने
इतिहास में छांट-छांटकर प्रेरणादायी वस्तुएं रखने के ही हिमायती रहे हैं
सो ऐसे अप्रिय प्रसंगों को हमने पीट-पीटकर मोहनजोदाड़ो के कब्रिस्तान में
ही दफना रखा है। और नहीं तो क्या? लोग मनीषियों के बारे में क्या
सोचेंगे? इस भावना को सदैव मन में रखा है।
जिसके चलते हमें हमारी ही कई बातों की जानकारी दूसरे देशों के इतिहास से
पता चली है, उन्होंने भी जलन के मारे ही इन्हें रखा होगा ऐसा तो हम जानते
ही हैं इसलिए उन प्रमाणों की भी ज्यादा परवाह नहीं करते। तो हम बात कर
रहे थे जूते के अन्यत्र उपयोगों की।
चूंकि हम शुरू से ही मितव्ययी-अल्पव्ययी, जूगाडू टाइप के लोग रहे हैं, इस
कारण किसी चीज के हाथ आते ही उसके मूल उपयोग के अलावा अन्योन्याश्रित
उपयोगों पर भी तत्काल ही गौर करना शुरू कर देते हैं। जैसे बनियान को ही
लें, पहले खुद ने पहनी फिर छोटे भाई के काम आ गई फिर पोते के पोतड़े बनी
फिर पोंछा बन गया। यानि छिन-छिनकर मरणोपरांत तक उससे उसके मूल कर्म के
अलावा दीगर सेवाएं ले ली जाती हैं। ऐसी जीवट से भरपूर शोषणात्मक भारतीय
पद्धती भी आद्योपांत विवेचन की मांग तो करती ही है ना, ताकि अन्य राष्ट्र
तक प्रेरणा ले सकें।
चूंकि हमारे पास प्रेरणा ही तो प्रचुर मात्रा में है, सदियों से हम
प्रेरणा ही तो बांट रहे हैं तो अब एक और प्रेरणादायी चीज कुलबुला रही है,
प्रेरित करने के लिए, बंट जाने के लिए। फिर प्रेरणा के अलावा प्रयोगों के
कितने अवसर पैदा हुए हैं जूते की विभिन्न वैराइटियों देखकर ही अंदाजा
लगाया जा सकता है। स्थानीय स्तर पर मारपीट जैसे महत्वपूर्ण कार्यो के समय
जूते नहीं खुले तो तत्काल ही बिना फीते की जूतियों का आविष्कार कर डाला
गया। अत: यहां इस अन्वेषण की मूल दृष्टि की विवेचना भी जरूरी है।
इसी तरह जूते चलाने के कई तरीके श्रुतिक परंपरा से प्राप्त होते हैं। कुछ
वीर जूते को ऐड़ी की तरफ से पकड़कर चाकू की तरह सामने वाले पर फेंकते हैं
ताकि नोंक के बल सीने में घुप सके। तो कुछ सयाने नोंक वाले हिस्से को
पकड़कर फेंकते हैं ताकि ऐड़ीवाले हिस्से से मुंदी चोट पहुंचाई जा सके।
इस तरह जनसामान्य में जूते के उपयोग की अलग राजनीति है, जबकि राजनीति में
जूते के प्रयोग की अलग ही रणनीति है। यहां दूसरे के कंधे पर पैर रखकर
जूते चलाए जाते हैं, जबकि कुछ नौसिखुए खुलेआम आमने-सामने आकर जूते चलाते
हैं, जबकि कुछ ऊर्जावान कार्यकर्ता हाथ से ही पकड़कर दनादन खोपड़ी पर बजा
देते हैं, इस तरह नेता के नेतापने से लेकर कार्यकर्तापने तक के निर्धारण
में जूते की विशिष्ट भूमिका एवं परंपरा के दिग्दर्शन प्राप्त होते हैं।
इसी तरह कुछ हटकर चिंतन की परंपरा के अनुगामी जूते को तकिया बनाकर बेहतर
नींद के प्रति उम्मीद रखते हुए बसों- ट्रेनों में पाए जाते हैं। इन आम
दृश्यों में भी करुणा का भाव छिपा होता है। सिर के नीचे लगा जूता बताता
है कि सामान भले ही चला जाए लेकिन जूता कदापि ना जाने पाए, यानि हम अपने
पददलित को कितना सम्मान देते हैं यहां नंगी आंखों से ही निहारा जा सकता
है, सीखा जा सकता है, परखा जा सकता है। तो इस तरह यहां जूता, जूता न होकर
आदर्श भारतीय चिंतन की परंपरा की जानकारी देने वाली कड़ी बन जाता है।
इसी तरह जहां मंदिरों के बाहर से जूते चोरी कर लोग बिना खर्चा कई
ब्रांड्स पहनने का लुत्फ उठाकर समाजवाद के निर्माण का जरिया बन जाते हैं।
सर्वहारावादी प्रवृतियां इन्हीं गतिविधियों के सहारे तो आज तक अपनी
उपस्थिति दर्ज करवाती आ रही हैं। शादी के अवसर जूता चुराई के माध्यम से
जीजा-साली संवाद जैसी फिल्मी सीन को वास्तविक जीवन में साकार होते देखने
का सुख उठाया जाता है।
वहीं, हर जगह दे देकर त्रस्त लड़कीवाले इस स्थान से थोड़ा बहुत वसूली कर
अपने आप को धन्य पाते हैं। अर्थात् जीवन के हर पक्ष में भी जूते की
उपस्थिति और महत्व अगुणित है। इस कारण भी यह विषय पीएचडी हेतू अत्यधिक
उपयुर्क्त सारगर्भित-वांछनीय माना जा सकता है।
इस तरह ऊपर दिए पूरे विश्लेषण का लब्बोलुआब यह कि पूरी राजनीतिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक परंपरा को समग्र रूप से खुद में संजोए एक
प्रतीक पूरे अनुशीलन, उद्खोदन, खोजबीन, स्थापन, विवरण की विशाद मांग रखता
है। अत: अपनी पीएचडी के माध्यम से मैं यह दायित्व लेना चाहता हूं कि
परंपरा के इतने (कु)ख्यात प्रतीक के बारे में पूरा विवरण निकालूं ताकि
भविष्य में पीढ़ियों को इस दिशा में पूर्ण-प्रामाणिक और उपयोगी ज्ञान
प्राप्त हो सके।
अत: आशा है कि चयन कमेटी मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर इस पर शोध करने की
अनुमति प्रदान करेगी।. हालांकि जल्दी ही मैं अपना यह प्रस्ताव किसी
विश्वविद्यालय में जमा कराने वाला हूं, डरता हूं कि इसी बीच किसी और
जागरूक ने भी इसी विषय पर पीएचडी करने की ठान ली तो फिर तो निश्चित ही
जूता चल जाएगा..तय मानिए।

अनुज खरे

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

आत्महत्या समाधान नहीं, जीवन का अन्त है

डॉ. महेश परिमल
जब से वैश्विक मंदी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया है, तब से केवल देश ही नहीं, बल्कि महानगरों, शहरों एवं कस्बों में आत्महत्या का सिलसिला शुरू हो गया है। हर रोज अखबारों में हम पढ़ते हैं कि फलां शहर में एक व्यक्ति ने घर के सभी सदस्यों को मारकर स्वयं आत्महत्या कर ली। कहीं कोई अपने कार्यालय में ही आत्महत्या कर रहा है, तो कोई घर पर ही इस कार्य को अंजाम दे रहा है। बेकारी से तंग आकर या कर्जदारों की धमकियों से डरकर भी आत्महत्या करने वालों की संख्या कम नहीं है। कई लोग नौकरी से निकाले जाने पर आत्महत्या कर रहे हैं, तो गुजरात में हीरा बाजार में छाई मंदी से बेरोजगार बने कारीगर आत्महत्या कर रहे हैं। इस मंदी ने अब तक हजारों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। आश्चर्य इस बात का है कि सभ्रांत और शिक्षित लोगों में यह अधिक देखा जा रहा है। कई लोग तो केवल किसी दोस्त ने आथर््िाक सहायता नहीं की, इसलिए आत्महत्या कर रहे हैं, तो कुछ को यह भ्रम सता रहा है कि परिवार की बरबादी के लिए वे ही पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं। मौत को आसानी से गले लगाने वालों की मनोदशा क्या होती है,आखिर क्यों वरदान में मिले जीवन को अभिशाप मानते हैं? किस तरह से आता है उनमें नैराश्य का भाव। आइए इसका विश्लेषण करें।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 1 लाख लोगों में से 98 लोग आत्महत्या करते हैं। चीन में आत्महत्या का प्रतिशत एक लाख में 99 है। यह देखते हुए भारत आत्महत्या के मामले में दूसरे नंबर पर आता है। 1995 में 89 हजार लोगों ने आत्महत्या की थी। यह संख्या 1997 में बढ़कर 96 हजार हो गई। 1998 में 1 लाख 4 हजार से भी अधिक लोगों ने आत्महत्या का सहारा लिया था। हमारे स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष सवा लाख लोग आत्महत्या कर मृत्यु को प्राप्त करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि भारत में खुदकुशी करने वालों में 37.8 प्रतिशत लोग 30 वर्ष से कम उम्र के होते हैं। जबकि 71 प्रतिशत 44 वर्ष से कम उम्र के होते हैं। हाल ही मेें बढ़ रहे आत्महत्या के मामलों में इस दु:खद सच्चाई को स्वीकार किया गया है।
खुदकुशी का सहारा लेने वाले कोई अलग से नहीं होते। वे अपनों में से ही होते हैं। आत्महत्या की धमकी देने वाले तो आत्महत्या नहीं करते, पर जो हमेशा दूसरों को जीने की प्रेरणा देते रहते हैं, कभी-कभी वे स्वयं भी अपने उपदेशों को भूलकर आत्महत्या का सहारा ले लेते हैं। इसके पीछे हैं कुछ आर्थिक और कुछ सामाजिक कारण। समाज में हमने ही कुछ ऐसे सिद्धांत बना रखे हैं कि अगर वे कुछ नहीं करेंगे, तो समाज क्या कहेगा, हमारी प्रतिष्ठा का क्या होगा? इस भाव से ग्रस्त लोग बहुत ही जल्दी आत्महत्या का सहारा लेते हैं। एक साहब को एक बड़ी कंपनी छोडऩी पड़ी, तो उनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह आ गई कि अब उन्हें कार के लिए ड्राइवर कंपनी से नहीं मिलेगा, अब तक जो कंपनी के नाम से विदेश यात्राएँ होती थी, वे अब नहीं होंगी। यही खयाल उन्हें डिपे्रशन की ओर ले गया और उन्होंने अपना जीवन समाप्त कर लिया। उनके लिए सामाजिक प्रतिष्ठा मौत से भी अधिक प्रिय थी। प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसी प्रतिष्ठा के कारण ही कई लोग समाज विरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं।
सुशिक्षित और सभ्य समाज के सक्षम आदमियों को स्वयं ही जिंदगी के सफर को आधे रास्ते पर छोड़ देने का और अंतिम विदा लेने का अमंगल विचार आखिर क्यों आता है? इस संबंध में मनोवैज्ञानिक कारण बताते हुए दिल्ली के आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एम्स) के मनोचिकित्सक प्रोफेसर मंजू मेहता कहती हैं कि हमारी पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में धनोपार्जन के लिए घर से बाहर निकलते परिवार के कमाऊ पुरुष इतने मशीन हो जाते हैं कि वे कमाने के सिवाय और कुछ नहीं सोचते। इस स्थिति के वे इतने आदी हो चुके होते हैं कि घर की आथर््िाक स्थिति खराब होने पर वे हताशा में घिर जाते हैं, उन्हें लगता है कि इसके लिए केवल वे ही जिम्मेदार हैं। उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। यह स्थिति भयावह है, इसके लिए सामाजिक व्यवस्था को दोषी मानना चाहिए।
जो आत्महत्या करने वाले होते हैं, कभी-कभी वे इसका हलका-सा संकेत भी देते हैं। हमें इसका ध्यान रखना होगा। कोई व्यक्ति एकाएक जब सभी मित्रों-संबंधियों से उत्साह से लबरेज होकर मिले, भूतकाल में संतानों या मित्रों के साथ किए गए झगड़े या विवाद को भूलकर सुलह करना चाहे। इससे बढ़कर यदि वह अपनी सबसे पसंदीदा चीज को भेंट के रूप में किसी को देने के लिए तैयार हो जाए, तो यह समझना चाहिए कि वह किसी कार्य को अंजाम देने की पूर्व तैयारी कर रहा है। ऐसा कई बार हो चुका है। जो आत्महत्या का संकल्प कर लेते हैं, वे अक्सर अपनों से मिलकर खूब बतियाते हैं। अंत में अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेते हैं। ऐसे लोगों पर आए इस तरह के अचानक बदलाव को हमें ध्यान देना होगा। यदि समय रहते इस दिशा में सचेत हो जाए, तो उसे व्यक्ति को बचाया जा सकता है।
सबसे बड़ी बात है अपनों के बीच अपना रहने की कला। कई लोग हमेशा दुत्कार प्राप्त करते हैं। कुछ लोगों को दुत्कार का पहला अनुभव होता है, वे बहुत ही जल्द निराशा से घिर जाते हैं। कुछ लोग खुशियों में भी दु:ख की झलक पाते हैं, तो कुछ लोग दु:ख में भी खुशियों के पलों को एक तरह से चुरा ही लेते हैं। आत्महत्या का प्रयास करने वाले वास्तव में मरना नहीं चाहते, अपनी हरकतों से वे मदद के लिए आर्तनाद करते हैं। ऐसे लोग भले ही जीवन से आशा छोड़ चुके हों, पर हमें उन्हें विषम परिस्थितियों में या रामभरोसे नहीं छोडऩा है। ऐसे लोगों से इस तरह का व्यवहार किया जाए, जिससे उनके मन में ' आज फिर जीने की तमन्ना हैÓ का विचार आए। हताशा से घिरे युवाओं को खुदकुशी के विचार से ही दूर रखने के लिए परिवारजनों को स्नेहभरे वातावरण, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार और तटस्थ व्यवहार की आवश्यकता होती है। जो खुदकुशी के कश्मकश से लगातार जूझते रहते हों, ऐसे लोगों को सांत्वना और हिम्मत देनी चाहिए, ताकि वे जीवन को समाप्त करने के पहले सौ बार सोचें।
अकसर ऐसा होता है कि जिनके मन में आत्महत्या का विचार आ जाता है, वे अपने दिमाग से काम लेना बंद कर देते हैं। वे एकांत में रहना पसंद करते हैं। लगातार कुछ न कुछ बुरा सोचते रहने से वे स्वभाव से चिड़चिड़े हो जाते हैं। उन्हें न तो अपनों का साथ अच्छा लगता है और न ही वे किसी का साथ चाहते हैं। यह स्थिति बहुत ही खतरनाक होती है। ऐसे लोगों के सामने निराशा की बातें तो करनी ही नहीं चाहिए। उसे अपनों के बीच रखने की कोशिश करें। अगर संतानें उसके करीब हों, तो बुरे विचारों का आना रुक सकता है। उसके सामने उसी के जीवन की उन घटनाओं का जिक्र करें, जिसमें उसने साहस का प्रदर्शन किया था। उन बुरे हालात का जिक्र करें, जिसका सामना उसने डटकर किया। उसके जीवन की उपलब्धियों को गिनाना शुरू कर दें, तो उसे लगेगा कि उसमें साहस तो है, जो आज खो गया है। अंधकार भरे जीवन में ऊर्जा और साहस की किरण बनकर उनके जीवन में प्रवेश करें।
यह अच्छी तरह से जान लें कि जीवन एक बार ही मिलता है। यह बहुत ही कीमती है। जीवन लेना सरल है, किंतु जीवन देना मुश्किल है। मुश्किलें तो आती ही रहती हैं, वह हमें तराशने का काम करती हैं। जीवन में मुश्किलें जितनी अधिक आएँगी, इंसान भीतर से उतना ही मजबूत बनता है। आत्महत्या किसी समस्या का समाधान कतई नहीं है। यह निराशा के क्षणों में लिया जाने वाला एक कायराना फैसला है। ईश्वर और माता-पिता की ओर से दिया गया एक तोहफा है, यह जीवन। इसे इस तरह से तो न गँवाया जाए, जिससे मानवता को भी रोना आ जाए। याद रखे, जीवन एक बार ही मिलता है और मौत बार-बार हमारी परीक्षा लेने आती है। जीवन को उससे जीतना ही है, तभी तो मौत को मात देने की हिम्मत पैदा होती है। अंत में एक बात.. अगर आप ईमानदार हैं, तो खुदकुशी नहीं कर सकते।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

अनावश्यक खर्चों के चक्रव्यूह में फँसता मध्यम वर्ग

डॉ. महेश परिमल
आज हमारे देश में हर समस्या के समाधान के लिए कंसल्टेंट की व्यवस्था है। घरेलू झगड़े, व्यापारिक झगड़े, आदि के लिए आपको कंसल्टेंट मिल जाएँगे। पर क्या आप जानते हैं हमारे देश में कंसल्टेंट की सबसे अधिक आवश्यकता मध्यमवर्गीय परिवारों को है, जिससे वे यह समझ सकें कि पैसों को किस तरह से खर्च किया जाए। यह सच है कि पैसा हाथ में आता है, उससे पहले ही उसके खर्च करने का रास्ता तैयार हो जाता है, लेकिन यदि अनावश्यक रूप से पैसों को खर्च किया जाए, तो इसे स्टेटस मेंटेन ही कहा जा सकता है। स्टेटस मेंटेन की सबसे अधिक आवश्यकता मध्यमवर्गीय परिवारों को ही होती है, क्योंकि वे दोहरी मानसिकता के साथ जीते हैं। एक तो अपने बराबर के स्तर के लोगों से ऊपर उठने की स्पर्धा और दूसरी अपने से निम्न वर्ग को नीचा दिखाने की लालसा। इस मानसिकता के चलते स्टेटस मेंटेन करना आवश्यक हो जाता है और यही आवश्यकता तनाव को जन्म देती है। लिहाजा बात घूम-फिर कर वहीं आ जाती है- तनाव मुक्ति के लिए कंसल्टेंट की मदद लेना।
मंदी की पीड़ा भोग रहे मध्यम वर्ग के लोग जब यह कहते हैं कि आजकल खर्च बहुत अधिक बढ़ गया है और घर चलाना मुश्किल हो रहा है, तो इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं लगाया जाना चाहिए कि अनाज और सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं, इसलिए उन्हें आर्थिक परेशानी से जूझना पड़ रहा है। ऐसा केवल शहरी लोगों में ही देखा जा रहा है। गाँव वाले आज भी अपनी कमाई का काफी बड़ा हिस्सा अपने भोजन पर खर्च करते हैं। शहरी लोग आजकल अनाज पर होने वाले खर्च को कम करके अन्य सुविधाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं। मसलन घर में आने वाले गेहूँ, चावल, दाल, घी-तेल एवं सब्जी पर खर्च कम कर मोबाइल एवं अन्य इलेक्ट्रानिक सामानों पर खर्च कर रहे हैं।
यह जानकारी हाल ही में साल्मोन एसोसिएटस की तरफ से केएसए टेक्नोपेक कंज्यूमर आउटलुक सर्वे में सामने आई। इस सर्वेंक्षण में देश भर के 20 शहरों करीब 60 हजार उपभोक्ताओं को लिया गया। इसमें यह बात खुलकर सामने आई कि शहरी लोग अपने अनाज और किराना सामान में लगातार कटौती कर रहे हैं और सेलफोन, घर के नौकर जैसे स्टेटस सिंबॉल के पीछे काफी खर्च कर रहे हैं। इस तरह से आज की पीढ़ी अभी से कुपोषण को आमंत्रित करने में लगी है। इस कंपनी के सीनियर कंसल्टेंट अक्षय चतुर्वेदी का कहना है कि पिछले दो वर्षों में मध्यम वर्ग के किराना के बिल में 6 प्रतिशत की कमी आई है, दूसरी ओर मोबाइल फोन, इंटरनेट के खर्च में 200 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। मध्यम वर्ग आज शुद्ध घी के बजाए वनस्पति से काम चलाने लगा है। भोजन में दाल, सब्जी और फलों की मात्रा कम होने लगी है। गाँव के किसान आज भी अपनी आवक का 90 प्रतिशत भोजनादि पर खर्च करते हैं, जबकि शहर मध्यम वर्ग आहार पर मात्र 28 प्रतिशत ही खर्च कर रहे हैं। इस वर्ग का फैशन और लाइफस्टाइल पर अधिक से अधिक खर्च हो रहा है।
अभी दस वर्ष पहले तक शहरी जो भी कमाते थे, उसका एक निश्चित हिस्सा बचा लेते थे। बचत की यह प्रवृत्ति अब कमी आने लगी है। इस सर्वेक्षण के अनुसार सन् 2002-2003 में शहरीजनों ने अपनी आवक का लगभग 3.7 प्रतिशत बचत करते थे। एक साल के भीतर ही इस बचत में 24.3 प्रतिशत की कमी आ गई। इस वर्ष उनके खर्च में थिएटर जाकर फिल्में देखने का खर्च बढ़ गया। इस तरह से मनोरंजन पर कुल आवक का 2.7 प्रतिशत खर्च होने लगा। इसके ठीक एक साल बाद यह खर्च 3.1 प्रतिशत बढ़ गया।
नीतिशास्त्र यह कहता है कि इंसान को अपनी आवक का 50 प्रतिशत भाग घर खर्च पर लगाना चाहिए। 25 प्रतिशत दान-धर्म पर और शेष 25 प्रतिशत राशि बचत करनी चाहिए। हमारे देश के शहरीजन इसे नकारते हुए आवक का 25 प्रतिशत बचाने के बजाए अब मात्र 2.8 प्रतिशत बचा पा रहा है। इसके अलावा कई ऐसे परिवार है, जो आवक से अधिक खर्च कर अपनी नींदें ही उड़ा रहा है। अब काफी चीजें किस्तों में मिलने लगी हैं, इसलिए वह कर्ज लेकर भी इन चीजों को खरीद लेता है। वह यह भूल जाता है इन चीजों पर वह जितना खर्च कर रहा है, उसका मूल ब्याज समेत कई गुना बढ़ जाता है। शहरीजन एक से अधिक के्रडिट कार्ड यह सोचते हैं कि हमने अपना खर्च बचा लिया। यहाँ भी उनकी मूर्खता सामने आती है, के्रडिट कार्ड पर कितना अधिक ब्याज देना होता है, यह तो तभी पता चलता है, जब उनके सामने खर्च का ब्यौरा आता है।
आज अधिकांश हाथों पर मोबाइल देखा जा रहा है। अब यह आवश्यकता से अधिक फैशन बनता जा रहा है। एक घर में यदि 5 सदस्य हैं, तो हर सदस्य का अपना मोबाइल होता है। इस दृष्टि से मोबाइल पर होने वाला खर्च लगातार बढ़ रहा है। 5-6 वर्ष पहले मोबाइल पर आवक का एक प्रतिशत ही खर्च होता था, अब यह खर्च 70 प्रतिशत बढ़ गया है। इन सबके पीछे देखा-देखी की भावना ही है, जिसके कारण इंसान लगातार खर्च को प्रोत्साहन देता रहता है। इसके लिए टीवी और अखबारों पर आने वाले विज्ञापन भी कम दोषी नहीं हैं, जो व्यक्ति को उत्पाद को खरीदने के लिए लगातार प्रेरित करते रहते हैं।
स्टेेटस मेंटेन एक मृग-मरीचिका की तरह है। इसके पीछे दौडऩे का कोई अर्थ नहीं है। पड़ोसी के पास बाइक देखकर हम अपनी साइकिल बेचकर जब तक बाइक खरीदते हैं, तब तक पड़ोसी एक कार खरीद लेता है। जब हम कार तक पहुँचते हैं, तब तक पड़ोसी एक और महँगी कार खरीद लेता है। हमारा फ्लैट कितना भी आलीशान और पॉश कालोनी में हो, पर पड़ोसी जब बंगला खरीदेगा, तो उसके सामने हमारा फ्लैट फीका ही लगेगा। हमारे हाथ में सादा मोबाइल होगा, तो उसके हाथ में कैमरे और ब्ल्यू टूथ वाला कैमरा होगा। इस तरह से यदि हम पड़ोसी से अपनी तुलना करेंगे, तो पीछे ही रह जाएँगे, यह तय है।
आज मध्यम वर्ग के सामने सबसे बड़ी समस्या घर के सदस्यों का स्वास्थ्य और बच्चों की पढ़ाई है। शिक्षा के क्षेत्र में भी आज प्रतिष्ठित शाला या कॉलेज, अँगरेजी माध्यम, ट्यूशन, कंप्यूटर आदि मामलों में गलत मापदंडों के कारण बेकार के खर्च खूब बढ़ रहे हैं। 5 लोगों के परिवार में यदि 3 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं, तो उस घर की 33 प्रतिशत आय शिक्षा पर ही खर्च होती है। इतना खर्च करने के बाद भी यह गारंटी नहीं है कि बच्चा बेहतर से बेहतर शिक्षा प्राप्त कर रहा है और उसका भविष्य उज्ज्वल है। यही हाल है स्वास्थ्य का। आज एलोपेथी प्रणाली को देखें, तो यह प्रणाली मरीज का बेसब्री से इंतजार करती पाई जाती है। मरीज डॉक्टर के द्वार पर पहुँचा नहीं कि केमिस्ट, पैथालॉजी, अस्पताल, डॉक्टर आदि की फौज खड़ी हुई होती है। मरीज तो लुट जाने के बाद अच्छा होता है, यह जानने की हिम्मत खुद मरीज को भी नहीं होती। इन सबके बीच दान-धर्म की बात करना ही बेकार है। इसलिए यही कहा जा रहा है कि आज मध्यम वर्ग किस तरह से अपना खर्च कम से कम करके सुखी रह सके, यह बताने के लिए अनेक कंसल्टेंट की आवश्यकता है। क्या आपकी जानकारी में है ऐसा कोई कंसल्टेंट?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

चुनाव सामने और मतदाता है कंफ्यूज

डॉ. महेश परिमल
जो राजनीति को अच्छी तरह से समझते हैं, क्या वे बता सकते हैं कि इन दिनों कौन-सा दल किसके साथ गठबंधन कर रहा है? वह कहाँ उसका विरोध कर रहा है और कहाँ समर्थन। मेरा विश्वास है कि यह तस्वीर अभी तक धुंधली ही है। जब इसे राजनीतिज्ञ नहीं समझ पा रहे हैं, तो फिर आम मतदाता की क्या बिसात? वह तो मूर्ख बनने के लिए ही तैयार बैठा है। लुभावने नारे, प्यारे-प्यारे वादों के साथ नेताओं ने अपने भाषणों से उनकी आँखों में एक सपना पलने के लिए छोड़ दिया है। अब मतदाता पालते रहे, उस सपने को, जिसे कभी पूरा नहीं होना है। उसे शायद नहीं मालूम कि मशीन का बटन दबाते ही उसका मत तो पहुँच गया किसी न किसी नेता के पास, पर उसका संबंध टूट गया पूरे 5 साल के लिए सभी नेताओं से।
अब देखो, देखते ही देखते प्रधानमंत्री पद के कितने दावेदार हमारे सामने आ गए हैं। उधर दिल्ली के एक सिख पत्रकार ने गृहमंत्री चिदम्बरम पर जूता क्या फेंका, दो नेताओं की टिकट ही कट गई। एक बॉल से दो आऊट। इससे चुनाव की हवा ही बदल गई है। इस चुनाव की जब रणभेरी बजी थी, तब किसी ने नहीं सोचा था कि वरुण गांधी और जनरल सिंह जैसी घटनाएँ होंगी। अब जब हो गर्ई हैं, तो राजनीति में भी उबाल आ गया है। सारे नेता जोड़-जुगत में लग गए हैं। पर शायद उन्हें नहीं मालूम की 16 मई को यही मतदाता एक नई इबारत लिखने जा रहे हैं, जो देश की तस्वीर बदल देगी। अभी साथ मिलकर चुनाव लडऩे वाले दल चुनाव के बाद भी साथ-साथ होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके विपरीत एक-दूसरे पर अनर्गल आरोप लगाने वाले चुनाव के बाद एक ही पंगत में भोजन के लिए बैठ जाएँ, तो इसे अनोखा न समझा जाए।
इस समय देश में जो गठबंधन की राजनीति चल रही है, उससे मतदाता तो चकरा गया है। पहले देश में दो ही प्रमुख दल थे, एक कांगे्रस और दूसरी भाजपा। अब तीसरे मोर्चे की बात सामने आ गई है। मतदाता इस तीसरे मोर्चे को हजम करें, इसके पहले ही लालू-मुलायम-पासवान का चौथा मोर्चा सामने आ गया है। संभव है मतदान के पूर्व कोई पाँचवाँ मोर्चा भी आ जाए। अभी जो चौथा मोर्चा है, वह केंद्र में यूपीए सरकार का घटक दल है। चुनाव में यही दल कांगे्रस के खिलाफ हैं। इसके बाद भी अमरसिंह यह कह रहे हैं कि सोनिया गांधी के बिना देश पर गैरसाम्प्रदायिक सरकार बन ही नहीं सकती। रामविलास पासवान कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी तरफ से मनमोहन सिंह ही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में यूपीए घटक दल कांगे्रस के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं, पर पश्चिम बंगाल मेें कांगे्रस यूपीए में नहीं है, ऐसा ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांगे्रस के साथ सीटों का बँटवारा कर रही है। इन हालात में मतदाताओं की क्या हालत होगी, यह पीड़ा वह किससे कहे? वह चकरा गया है, दिग्भ्रमित हो रहा है, क्या करुँ, कहाँ जाऊँ की स्थिति है। है कोई उसकी सुनने वाला?
अभी-अभी मराठा नेेता शरद पवार का बयान आया कि वे भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। बिगड़ती तबीयत और बढ़ती उमर के कारण प्रधानमंत्री बनने का यह आखिरी अवसर है। इनकी पार्टी ने केवल महाराष्ट्र में ही कांग्रेस के साथ सीटों का बँटवारा किया है। अन्य राज्यों में उनकी पार्टी कांगे्रस के खिलाफ खड़ी है। श्री पवार यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चुनाव परिणाम आने के बाद कांगे्रस के साथ रहकर किसी भी हालत में वे कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। इसीलिए उन्होंने चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे में शामिल होकर प्रधानमंत्री बनने के विकल्प खुले रखे हैं। यही कारण है कि आज कांगे्रस में शरद पवार का कोई विश्वास नहीं कर रहा है। कभी वे उड़ीसा में बीजेडी के नवीन पटनायक और वामपंथियों के साथ मंच पर बैठकर अपने स्वभाव का परिचय दे दिया है।
पिछली लोकसभा चुनाव के बाद वामपंथियों के बाहरी समर्थन से यूपीए ने केंद्र में सरकार बनाई थी। अमेरिका के साथ परमाणु-समझौते के मुद्दे पर वामपंथियों ने समर्थन वापस ले लिया। उसके बाद कांगे्रस ने समाजवादी पार्टी के सहयोग से सरकार बचा ली थी। अभी यही वामपंथी पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव के बाद वे एक बार फिर कांगे्रस के साथ सरकार बना लें, तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वामपंथियों का पहला विकल्प केंद्र में कांगे्रस और भाजपा की भागीदारी के सिवाय तीसरे मोर्चे सरकार बनाने की होगी। यदि यह संभव नहीं हो पाया, तो भाजपा नेताओं में से ही कुछ नेता अलग मोर्चा बनाकर केंद्र के करीब सरक रहे हैं। ऐसी आशंका वामपंथियों को होगा, तो साम्प्रदायिक परिबलों सद़भाव को दूर रखने के नाम पर यूपीए सरकार को समर्थन देकर या उसमें शामिल होने से भी पीछे नहीं रहेंगे। यदि केंद्र में वामपंथियों के सहयोग से सरकार बनी, तो सोचो वामपंथियों की कट्टर शत्रु ममता बनर्जी का क्या होगा?
उत्तर प्रदेश-बिहार में लालू-मुलायम-पासवान की तिकड़ी का गणित बहुत ही अधिक अटपटा है। यूपी में मुृख्य लड़ाई मुलायम-मायावती के बीच है। बिहार में मुख्य लड़ाई नीतिश कुमार और लालू प्रसाद के बीच है। इन दोनों राज्यों में कांगे्रस एक तरह से हाशिए पर ही है। लालू की व्यूहरचना नीतिश कुमार और कांगे्रस को पटखनी देने की है। मुलायम-लालू का गणित ऐसा है कि उनके हाथ में यदि 40-50 सांसद हो जाएँ, तो यूपी में वे तीसरे मोर्चे की मदद के बिना भी सरकार नहीं बना सकते। केंद्र में यदि मुलायम-लालू के समर्थन से यूपीए सरकार बनती है, तो वे उन 40-50 सांसदों के साथ भारी सौदेबाजी कर सकते हैं। यदि तीसरे या चौथे मोर्चे की सरकार बनती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के भी दावेदार हो सकते हैं।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रकाश करात की नजर भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। कम्युनिस्ट पार्टी को यदि 70-80 सीटें मिल जाती हैं, और तीसरे मोर्चे की सरकार बनती है, तो सबसे बड़े दल के रूप में प्रकाश करात, शरद पवार, लालू, मुलायम आदि को ठेंगा दिखाते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो सकते हैं। अभी तो वे कांगे्रस द्वारा परमाणु समझौते के मामले पर कांगे्रस द्वारा काटी गई नाक का बदला लेने के लिए सभी राज्यों में जितना हो सके, कांगे्रस को नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि तीसरे मोर्चे की सरकार न बने, तो भाजपा और मोर्चे को सत्ता से दूर रखने के लिए कांगे्रस के साथ एक बार फिर हाथ मिलाने की तैयारी कर रहे हैं। इस हालात में पहले की तरह यूपीए सरकार की लगाम अपने हाथ में रखने की तमाम कोशिशें प्रकाश करात करेंगे। लालू-मुलायम-पासवान और पवारकी चौकड़ी मिलकर कांगे्रस को घायल करना चाहती है। पर खत्म करना नहीं चाहती, क्योंकि यदि कांगे्रस खत्म हो गई, तो भाजपा आएगी। भाजपा के भय से ये चौकड़ी आखिर कांगे्रस को ही समर्थन देकर यूपीए सरकार रचने के लिए तैयार हो जाएगी।
इस चुनाव में कांगे्रस के दुश्मन बहुत हैं। पर उसका लाभ उठाने की स्थिति में भाजपा नहीं है। प्रधानमंत्री बनकर अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 दलों को साथ लेकर पूरे 6 साल तक सरकार चलाई। लालकृष्ट आडवाणी के पास इतना धैर्य नहीं है। चुनाव के पहले ही बीजेडी और टीडीपी जैसे दलों ने उनका साथ छोड़ दिया है। बिहार में जेडी यू भाजपा की साथी पार्टी होकर चुनाव लड़ रही है, पर जेडी यू के नेेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार आडवाणी के साथ एक मंच पर बैठने को तैयार नहीं है, क्योंकि उनके पास मुस्लिम वोट नामक बड़ी बैंक है। उधर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भाजपा के मोर्चे से अलग होकर कांगे्रस के सहयोग से चुनाव लड़ रही है। भाजपा तो स्पष्ट बहुमत की आशा ही नहीं रख रही है। इसे भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज पहले ही कह चुकी है। भाजपा के लिए श्रेष्ठ परिस्थिति यह हो सकती है कि उसे कांग्रेस की अपेक्षा कुछ अधिक सीटें मिले और सबसे बड़े दल के रूप में सरकार बनाए। इस सरकार को टिकाए रखने के लिए उसे उड़ीसा की बीजेडी, मायावती और जयललिता जैसी कद्दावर महिलाओं से सौदेबाजी करनी पड़े। इसके बाद फिर उनके नखरे सहने के लिए तैयार रहे।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा, इसकी आशंका के साथ ही कई दलों ने उसका साथ छोडऩा शुरू कर सकते हैं और अपने लिए हरियाली भूमि की तलाश कर सकते हैं। ये साथी पंजाब के अकाली, महाराष्ट्र के शिवसैनिकों और बिहार के नीतिश कुमार का समावेश होता है। भाजपा से छिटके कुछ दल मिलकर पाँचवें मोर्चे की तैयारी कर सकते हैं। इसमें असम के गण परिषद, जम्मू-कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस, आंध्र की तेलुगु देशम, ममत बनर्जी की तृणमूल कांगे्रस, उड़ीसा की बीजेडी, जयललिता के अन्नाद्रमुक, पंजाब के अकाली दल और महाराष्ट्र की शिवसेना आदि जुड़ सकते हैं।
संभावित पाँचवें मोर्चे को भाजपा बाहर से समर्थन देकर सत्ता में आ सकती है, ऐसा करने से कांगे्रसियों और वामपंथियों की चाल उलटी पड़ सकती है। पाँचवें मोर्चे की रचना करने का माद्दा केवल शरद पवार में ही है। यही एक ऐसे शख्स हैं, जिसने तमाम प्रादेशिक पार्टियों के साथ हाथ मिलाया है। पहले के चार मोर्चों में वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, तो पाँचवाँ मोर्चा तैयार करने में उन्हें समय नहीं लगेगा। इस तरह से एक नहीं बल्कि एक दर्जन नेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। खैर यह तो मतदाता को नहीं चुनना है। पर अभी दलों के गठबंधन का जो समीकरण है, वह किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है। ऐसे में मतदाता क्या करे? यह तो समय ही बताएगा।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

पाँच सामयिक कुंडलियाँ

हाथ उठाने चल पड़े , बिना रीढ़ बेपांव ।
जाग रहें हैं चोर सब , सोया सारा गांव ।
सोया सारा गांव ,सयाने खांस रहे हैं ,
युवक सभी ,मां के पल्लू से झांक रहे हैं ।
दुखिया दास कबीर , बात किस किस की माने ?

देश उठाने चले हैं ये, या हाथ उठाने ?
अपना देश महान है , अपने हृदय विशाल ।
गीदड़ पूजित हो रहे पहन शेर की खाल ।
पहन शेर की खाल , लकड़बग्गे भी हंसते ,
मगर हिरण खरगोश हैं भोले ,प्रायः फंसते ।
जंगल देखे , जंगल में मंगल का सपना ।
हासिलाई में केवल दंगा , अपना अपना ।


सिंह जहां है बादशा‘ , हाथी बस गजराज ।
उस जंगल का रोज ही होता सत्यानाश ।
होता सत्यानाश , नीलगायों सी जनता ,
हाहाकार करे ,पर इससे कब क्या बनता ?
दु£िया दास कबीर , अहिंसा जहां धर्म है ।
साधु साध्वी हिंसक! उनमें शर्म कहां है ?


पूंछ उमेंठी भैंस की ,भैंस हो गई रेल ।
चारा से भी चू पड़ा ,चमत्कार का तेल ।
चमत्कार का तेल, छछूंदर लगा रही है ,
खोटा सिक्का घिसकर सोना बना रही है।
हुए नारीमय पुरुष सब,कटा-कटाकर पूंछ ,
चली नचाती बंदरिया ,इक बंदर बेपूंछ।

पूछ रहा है रेल से , रोलर एक सवाल।
लौह-पांत ने क्यों भरी ,इतनी बड़ी उछाल ?
इतनी बड़ी उछाल, कि अपनी जगह गिर गए।
अभिमन्यु को घेर रहे थे ,स्वयं घिर गए।
सब अपराधी हंस रहे ,रहे अलावा कूद ।
कौन किसे है छल रहा ,देश रहा है पूछ।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

ईमानदार प्रत्याशी यानी नक्कारखाने की तूती

डॉ. महेश परिमल

3 करोड़ खर्चकर संसद पहुँचने वाला ईमानदार रह सकता है?
भारत में चुनाव आते ही विदेशी बैंकों से काफी धन निकाला जाता है। देश में विदेश से धन की आपूर्ति शुरू हो जाती है। भारत के नेता जो लगातार 5 वर्ष तक भ्रष्टाचार के रूप में जो कुछ कमाते हैं, उसका कुछ हिस्सा ही एक बार फिर चुनाव में प्रत्याशी बनकर इनवेस्ट कर देते हैं। यह सभी जानते हैं कि एक प्रत्याशी सरकार द्वारा नीयत राशि से कई गुना अधिक खर्च कर चुनाव जीतता है, लेकिन इस पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग भी स्वयं को लाचार पाता है। आजकल ईमानदार प्रत्याशी का मतलब है कि यह नक्कारखाने में तूतीँ। अब राजनीति ईमानदारों का क्षेत्र नहीं रहा। क्योंकि संसद के चुनाव में कम से कम तीन करोड़ रुपए खर्च करने वाला प्रत्याशी क्या सचमुच ईमानदार रह सकता है? यह एक गंभीर प्रश्न है, जिसे इस बार हमें हल करना हैँ।
चुनाव में धन के बेपनाह खर्च पर लगाम रखने के लिए सन 1951 के लोकप्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 में यह कहा गया है कि यदि कोई प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में खड़ा हुआ है, तो वह अधिक से अधिक 25 लाख रुपए और विधानसभा चुनाव लडऩे वाला अधिक से अधिक 5 लाख रुपए खर्च कर सकता है। इस धारा मेें एक यह चालाकी की गई है कि सत्ता की ओर से चुनाव प्रचार के लिए जो कुछ भी खर्च किया जाएगा, उसका समावेश प्रत्याशी के खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। अभी यह हाल है कि सत्ता पक्ष की तरफ से प्रत्याशी के लिए पोस्टरों, बैनरों और पाम्पलेट्स आदि छापी जाती है, तो इसे प्रत्याशी के खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। इसके अलावा पार्टी की तरफ से उसे यदि प्रचार के लिए वाहन की व्यवस्था की जाती है, तो उसका खर्च भी प्रत्याशी के खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि कोई प्रत्याशी लोकसभा में जाने के लिए उम्मीदवार बनकर लोगों का प्रतिनिधित्व करना चाहता है, तो उसे चुनाव में 25 लाख रुपए भी खर्च करने की क्या आवश्यकता है? भारतीय कानून ने ही यह व्यवस्था दी है कि प्रत्याशी चुनाव में 25 लाख रुपए तक खर्च कर सकता है। इसका मतलब यही है कि जिसमें 25 लाख रुपए खर्च करने की कुब्बत हो, वह चुनाव में खड़ा हो। यही कारण है कि आज मध्यम वर्ग को कोई भी व्यक्ति चुनाव में खड़ा होने की सोच भी नहीं सकता।
यहाँ यह बात विचारणीय है कि यदि उम्मीदवार नि्िरश्चत रूप से ईमानदार, लायक और लोकप्रिय है और लोग उसके चरित्र और उसके काम को जानते-समझते हैं, तो फिर उस लायक उम्मीदवार को क्या आवश्यकता है पोस्टरों, बैनरों और पांपलेट्स की? अपना प्रचार करने के लिए उसे किराए के आदमियों की जरूरत क्यों पड़ती है? यदि वह सचमुच लायक है, तो वह नहीं उसका काम बोलेगा। उसे तो एक शब्द बोलने की जरूरत ही नहीं होगी। जिस उम्मीदवार में सांसद बनने की काबिलियत नहीं होती, उसे यह सब सहन करना पड़ता है। उसे पदयात्रा करनी पड़ती है। सभाओं को संबोधित करना पड़ता है। सभा के लिए किराए के आदमियों की व्यवस्था करनी पड़ती है। उन्हें धन भी देना पड़ता है। लोक प्रतिनिधित्व कानून ने ही यह व्यवस्था दी है कि प्रत्याशी 25 लाख रुपए खर्च कर सकता है। इसमें जो इतना धन खर्च कर सकता है, वह लोकप्रिय न भी हो, तो चलेगा। बस वही चुनाव में खड़ा हो जाता है।
आज कोई एक प्रत्याशी ऐसा बता दें, जिसमें अपने चुनाव प्रचार के लिए एक पैसा भी खर्च न किया हो और चुनाव जीत गया हो? भारतीय कानून ने ही यह व्यवस्था दी है कि प्रत्याशी बेपनाह खर्च कर मतों की खरीद-फरोख्त कर सकता है। उसी का दुष्परिणाम है कि चुनाव प्रचार के शोरभरे माहौल में यदि कोई ईमानदार प्रत्याशी खड़ा भी हुआ है, तो उसकी आवाजा नक्कारखाने में तूती की तरह होती है। उसे कोई सुन नहीं पाता। इसी कारण आजकल ईमानदार लोगों ने राजनीति को अलविदा कह दिया है। अब मैदान उनके हाथ में है, जो जीतने के लिए ऐन केन प्रकारेण बल का प्रयोग कर सकता हो। यदि यह कहा जाए कि जनता खुद अपना प्रतिनिधि चुने, तो उसके लिए हमारे कानून में ऐसी व्यवस्था है ही कहाँ?
चुनाव आयोग ने यह तय कर दिया कि लोकसभा प्रत्याशी 25 लाख रुपए खर्च कर सकता है। तो प्रश्न यह उठता है कि यह 25 लाख रुपए उसे कौन देगा? और क्यों देगा? यदि उम्मीदवार यह कहे कि यह खर्च मैं अपनी कमाई से कर रहा हूँ, तो उसे कर्ण का अवतार माना जाना चाहिए। उसे यह अच्छी तरह से पता होता है कि जितना खर्च वह चुनाव में करेगा, उससे कई गुना तो उसे भविष्य में भ्रष्टाचार के माध्यम से मिल जाएगा। इस तरह से वह चुनाव में खर्च कर अपने धन का इनवेस्टमेंट करता है। यदि कोई उम्मीदवार यह दावा करता है कि चुनाव जीतने के लिए उसने कोई खर्च नहीं किया है, जो भी किया है, उसके मित्र या फिर पार्टी की तरफ से किया गया है, तो इस दावे की गहराई में जाएँ, तो कई रहस्य अपने आप ही खुल जाएँगे।
पहले पार्टी की तरफ से मिलने वाले धन की चर्चा की जाए। यदि अपने प्रत्याशी को पार्टी धन देती है, तो फिर पार्टी के पास यह धन कहाँ से आया? पार्टी कोई बिजनेस तो करती नहीं? पार्टी के पास जो धन आता है, वह उद्योगपतियों, कालाबाजारियों, असामाजिक तत्वों, माफियाओं की तरफ से आता है। सूचना के अधिकार के तहत कोई इस खर्च को जानना चाहे, तो उसे समुद्र में जमी बर्फ की वह शिला ही दिखाई देगी, जो बाहर से काफी छोटी दिखाई देती है, पर भीतर से विशालकाय है। इस देश में एक धार्मिक संस्था को भी अपने खर्च का हिसाब सरकार को देना होता है, लेकिन राजनैतिक दलों को अभी तक इससे दूर रखा गया है। यदि राजनैतिक दलों के लिए भी यह नियम बना दिए जाएँ कि उन्हें भी अपना खर्च बताना होगा, तो सभी को पता चल जाएगा कि उन्हें धन कहाँ से प्राप्त होता है। प्रत्याशी को धन देने वाले जो मित्र होते हैं, वे कौन हैं? उन्होंने अपने किस स्वार्थ के कारण उसे धन दिया है, वह धन उन्हें किस तरह से वापस मिलेगा, यह जानने का अधिकार भारतीय जनता के पास है, अब समय आ गया है कि जनता अपने इस अधिकार का प्रयोग करे। अफसोस इस बात का है कि जनता के इस अधिकार की कोई इज्जत ही नहीं करता।
आखिर जनता कब तक ऐसे प्रत्याशियों का चुनाव करती रहेगी, जो उसे पसंद ही नहीं है। यदि उसे अपना मत देकर विजयी बना दिया, तो फिर उसके पास कौन सा अधिकार बचता है, जिसके आधार पर वह उस प्रत्याशी को वापस बुला सके, जिसने जनता के प्रतिनिधि होने का केवल सपना ही दिखाया। जनता का तो कोइ्र्र काम उसने नहीं किया। बस अपना ही घर भरा। अब तो मतपत्र में एक कॉलम और होना चाहिए, जिसमें यह लिखा हो कि इसमें से कोई नहीं। यदि इस पर अधिक लोगों की सहमति होती है, तो वहाँ पर दूसरे प्रत्याशियों को सामने लाकर चुनाव कराया जाए। इससे ईमानदार और काम करने वाले चेहरे सामने आएँगे। संभवत: लोकतंत्र का चेहरा ही बदल जाए। यही समय है जनता स्वयं को महत्वपूर्ण माने। अब यदि समय गया, तो समझो 5 साल की फुरसत। जनता की तरफ झाँकने वाला भी कोई नहीं होगा।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

इंटरनेट पर हिन्दी साहित्य के एक लाख पृष्ठ होंगे उपलब्ध

हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिशचंद्र की रचनाओं से लेकर अब तक के संपूर्ण श्रेष्ठ हिन्दी साहित्य के एक लाख रिपीट 100000 पृष्ठ इंटरनेट पर डाले जा रहे हैं ताकि देश-विदेश के हिन्दी प्रेमी घर बैठे पुस्तकों को पढ सकें। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मदद से पहली बार यह महत्वाकांक्षी योजना शुरू की है जिससे हिन्दी का संपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य कम्प्यूटर पर क्लिक करते ही उपलब्ध हो जाएगा। यह साहित्य विश्वविद्यालय की वेबसाइट हिंदी समय डाट काम पर देखा जा सकेगा। विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने रविवार को यहां बताया कि अंग्रेजी में क्लासिक रीडर डॉट काम ऐसा वेबसाइट है जिस पर क्लिक करते ही अंग्रेजी के किसी भी बडे लेखक की रचनाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हो जाती है। हिन्दी में अभी तक कोई ऐसी वेबसाइट नहीं है जिस पर सभी श्रेष्ठ हिन्दी साहित्य को इंटरनेट पर पढा जा सके। श्री राय विश्वविद्यालय की तीन पत्रिकाओं बहुवचन, पुस्तक वार्ता और ंिहंदी के लोकार्पण समारोह में भाग लेने कल यहां आए हुए थे। इन पत्रिकाओं का लोकार्पण विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी, वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुंवर नारायण ने किया। उन्होंने बताया कि इस योजना पर करीब पांच करोड रुपये खर्च आएंगे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हमें अभी करीब दो करोड रुपये दिए हैं। योजना के तहत जिन लेखकों की कॉपीराइट खत्म हो गई है। उनकी रचनाएं हम वेबसाइट पर डालेंगे। श्री राय ने बताया कि इसके अलावा आज के जो भी लेखक अपनी कृतियों को वेबसाइट पर देना चाहेंगे, वे भी दे सकेंगे। हम उनकी तथा प्रकाशक की अनुमति से उनकी पुस्तकों को भी वेबसाइट पर डाल देंगे जिससे दुनिया भर में बैठे हिन्दी प्रेमी हिन्दी साहित्य के विशाल भंडार से परिचित हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि इसके लिए हमने एक संपादकीय मंडल भी बनाया है जो इन रचनाओं का चयन करेगा। उन्होंने बताया कि बाद में इन रचनाओं को विभिन्न विदेशी भाषाओं में भी अनुदित करने की योजना है ताकि अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी, इतालवी, रूसी, चीनी भाषा में भी लोग हिन्दी साहित्य से परिचित हो सकें। उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय की हिन्दी पत्रिका पुस्तकवार्ता बहुवचन और हिन्दी साहित्य के बारे में अंग्रेजी पत्रिका हिन्दी को भी वेबसाइट पर डाला जा रहा है। इसके अलावा पिछले दिनों विश्वविद्यालय में हुई राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढे गए परचों और दिए गए वक्तव्यों को भी वेबसाइट पर डाला जा रहा है। हिन्दी के दिग्गज लेखकों की रचनाओं की संचयिता भी हम प्रकाशित कर रहे हैं।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

राम कुमार रामार्य की पाँच ग़ज़लें

1 . बोतलों में बंद पानी

पर्वतों चट्टान पर ठहरा नहीं ,स्वच्छंद पानी ।
लिख रहा बंजर पड़े मैदान पर ,नव-छंद पानी ॥

सभ्यता के होंठ पर दो बूंद तृप्ती छींटकर ,
बह नहीं सकता नदी सा ,बोतलों में बंद पानी ॥

है चमक आंखों में ,चेहरों में चमक है ,
इसलिए निर्मल कि रचता ,कुछ नहीं छल-छंद पानी ॥

आग की लपटों से लहरें ,होड़ ले लेकर लड़ें ,
जीत के इतिहास में रुतवा ,रखे बुलंद पानी ॥

रोज कितने फूटते हैं ,द्वेष के विष कूट-काले ,
डाल देता दहकते अंगार पर ,आनंद पानी ॥

जब जहां दिल चाहता बस फूट पड़ता है वहां ,
कब कहां करता किसी से ,कोई भी अनुबंध पानी ॥

2. भीड़ की भैंगी नज़र

क्यों भला अब दिल को मैं तड़पाऊँगा ?
याद तेरी आएगी तो गाऊँंगा ॥

भीड़ की भैंगी नज़र लग जाएगी ,
दर्द को एकांत में सहलाऊँंगा ॥

हर शहर में शोर है , बारूद है ,
किस जगह मैं प्यार को ले जाऊँंगा ॥

है बहुत बदला हुआ माहौल , उफ्
क्या पता मैं कैसा चेहरा पाऊँगा !!

एक सच ,सौ मौत मरता है यहाँ ,
मैं भी इक दिन मुफ्त मारा जाऊँंगा ॥

आऊँगा ,मैं आऊँगा ,मैं आऊँगा ,
फिर वही कोरा हृदय मैं लाऊँगा ॥
-


3 . गुल्लक की पूँजी


पागलपन की हद तोड़ी तो होश में आया ।
यादों की डयोढी छोड़ी तो होश में आया ॥

उसके बोल , अदाएं उसकी , हीरे मोती ,
गुल्लक की पूंजी जोड़ी तो होश में आया ॥

बंधी रह गई अस्तबलों में भरी जवानी ,
उम्र हुई बूढ़ी घोड़ी तो होश में आया ॥

पकी हुई सूखी बल्ली दो टूक हो गई ,
इक दुखती उंगली तोड़ी तो होश में आया ॥

मेरे पीछे सूनापन था ,सन्नाटा था ,
आज यूँ ही गर्दन मोड़ी तो होश में आया ॥

आदर्शों के इन्द्रधनुष झूठे होते हैं ,
'ज़ाहिद' उम्र बची थोड़ी तो होश में आया ॥

4 . अक्ल के अंधे

नींद आती नहीं है ,ख्वाब दिखाने आए ॥
अक्ल के अंधे गई रात जगाने आए ॥

जिस्म में जान नहीं है मगर रिवाज़ तो देख ,
चल के वैशाखी मेें ये देश चलाने आए ॥

बीच चौराहे में फिर कोई मसीहा लटका ,
मुर्दे झट जाग उठे ,लाश उठाने आए ॥

जिसको बांहों में ,बंद मुट्ठियों में रखना है ,
ऐसी इक चीज़ को ये अपना बनाने आए॥

कुछ गए साल गए वक्त क़ा खाता लेकर ,
मेरे नामे पै चढ़ा क़र्ज़ बताने आए ॥

सर पै 'जाहिद'के हादिसों की यूं लाठी टूटी ,
जैसे अब सरफिरे की अक्ल ठिकाने आए ॥


5 . है हवा गर्म


अच्छे लगते हुए हर लम्हे बचाए कल के ।
आज तक हम सभी बस इस तरह आए चल के ॥

कुछ को छोड़ा किया ,पकडा किया ,अनदेखा किया ,
यूं परेशानी के पेशानी से साए ढलके ॥

तुमने कुछ अलहदा कुछ मैंने अलहदा पाए ,
दाने जो बालियों से हमने उठाए मल के ॥

दोस्त!क्यों रंज की ,शिकवे गिले की बात करें ,
शदमानी के तो लम्हे ही हैं आए पल के ॥

जिस तरफ से लगे अच्छा कि उधर से देखो ,
चेहरा ख्यालातो तसव्वुर के बजाए ढलके ॥

ज़िन्दगी तो वही 'ज़ाहिद' जहां ख़ुदाख्याली हो ,
है हवा गर्म ,सबा अब के ना आए जल के ॥

डॉ . रामकुमार रामार्य, सिवनी रोड , नैनपुर

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

कब तक छलोगे राम को


नीरज नैयर
कहने वाले ने सच ही कहा है, खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को इस सियासत से ये वो औरते हैं जो ताउम्र पेशा कराती हैं. वर्तमान में राजनीति का स्वरूप इतना विकृत हो चला है कि इससे ताल्लुकात रखने वाले भगवान को भी छलने का मौका नहीं चूकते. खुद को हिंदू हितों की सबसे बड़ी पैरोकार बताने वाली भाजपा सालों से ऐसा करती आ रही है. इस बार भी वेंटिलेटर पर पड़ी भाजपा खुद को पुन:जीवित करने के लिए राम की शरण में है, पार्टी राम मंदिर निर्माण के प्रति खुलकर प्रतिबध्दता जता रही है.
अभी कुछ दिन पहले जब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राम नाम के मार्ग पर लौटने की घोषणा की तो किसी को अचं भा नहीं हुआ, होना भी नहीं चाहिए था क्योंकि सब जानते हैं कि दुर्दिनों में ही भगवान की याद आती है और वैसे भी जिस पार्टी के पास न मुद्दे हों न एकजुटता उसका तो राम की शरण में लौटना स्व भाविक है. भाजपा रणनीतिकारों का मानना है कि लोकस भा चुनाव में रामनाम के सहारे हिंदुत्व की लहर पैदा करके ठीक वैसा ही माहौल तैयार किया जा सकता है जैसा 1999 में किया गया था. इसीलिए एक तरफ पार्टी मंदिर निर्माण की बात दोहरा रही है तो दूसरी तरफ वरुण गांधी जैसे उसके सिपहासलार समुदाय विशेष के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. वरुण गांधी ने जिस तरह से पीलीभीत में भड़काऊ भाषण दिए और उसके बाद जिस तरह से भाजपा ने उनसे पल्ला झाड़ा यह सब प्रायोजित नजर आ रहा है. राजनीति की दुनिया में पैर जमाने की कोशिश कर रहे वरुण के मुंह से जो कटु शब्द निकले हैं वो उनके कम पार्टी के कट्टरवादी नेताओं के ज्यादा नजर आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश विधानस भा चुनाव के वक्त भh भाजपा ने ऐसे ही जहरीली सीडी जारी करके मुस्लिमों को निशाना बनाया था.
यह बात सही है कि चुनाव में जात-पात, धर्म-समुदाय के हिसाब से वोट आज भी वि भाजित होते हैं लेकिन फिर भी स्थिति अब 10 साल पुरानी नहीं है. आज लोग समझने लगे हैं कि भगवान के नाम पर, समुदाय के नाम पर आपस में भिड़ाने वाले उनका कितना भला कर सकते हैं. शायद यही कारण हैं कि भगवा झंडा बुलंद करने वाली पार्टियो का वोट प्रतिशत लगातार कम होता जा रहा है. गुजरात में नरेंद्र मोदी जरूर अपवाद साबित हुए हैं परंतु बाकी राज्यों में हालात हालिया हुए विधानस भा चुनावों में सामने आ चुके हैं. राम नाप जपना या भगवान की शरण में लौटना गलत नहीं है, हर पार्टी की अपनी अलग विचारधारा होती है और उसे उस पर कायम रहने का पूरा अधिकार है, लेकिन जिस तरह का दोहरा रवैया भाजपा अपनाती रही है उसने लोगों को सोच को परिवर्तित किया है. बाबरी विध्वंस के बाद मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा ने जो अभियान चलाया था उसी की बदौलत उसे केंद्र की सत्ता में जगह बनाने का मौका मिला. पार्टी नेता लंबे समय तक मंदिर के प्रति प्रतिबध्दता जताते रहे. मगर सत्ता के मोहपाश ने उन्हें राम से दूर कर दिया. पूरे पांच साल न तो उन्हें राम का ही ख्याल आया और न उनके भक्तों का. 2004 के लोकस भा चुनाव में भाजपा को मिली करारी हार के पीछे यह सबसे बड़ा कारक रहा.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार ने जो शासन चलाया था उसे देखकर कोई भी यह नहीं सोच सकता था कि वाजपेयी पुन: प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे. संतुलित सरकार चलाने बावजूद राजग को हार का सामना करना पड़ा तो सिर्फ और सिर्फ विचारधारा से अलग चलने की वजह से. 1990 के दशक में भाजपा की पहचान कट्टरवादी हिंदू पार्टी के रूप में थी. कम से कम हिंदुवादी तो यही समझते थे कि केवल भाजपा ही है जो हमारे हितों के लिए खुलकर लड़ सकती है. लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने भी पार्टी की हिंदुवादी छवि को और पुख्ता किया. मगर जिस तरह से झोपड़ी में रहने वाले का मिजाज महल में पहुंचकर बदल जाता है ठीक वैसे ही सत्ता में पहुंचने के बाद भाजपा का मिजाज भी बदल गया. और अब फिर पार्टी सत्ता तक पहुंचने के लिए राम नाम को सीढ़ी बनाने में लगी है. पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी के बयान से साफ हो जाता है कि मंदिर निर्माण की बातें महज हिंदूवोट खींचने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं. नकवी कह चुके हैं कि भाजपा कोई कंसट्रक्शन कंपनी नहीं जो मंदिर का निर्माण करवाएगी. मतलब भाजपा पुन: राम को छलने की कोशिश में है लेकिन जिस तरह से जनता जागरुक हो गई है वैसे ही भगवान राम भी उतने उदारवादी नहीं रहे कि बार-बार छलावा करने वाली पार्टी का बेड़ा पार लगा दें.
राम नाम का सहारा लेकर राजनीतिक रोटियां सेंकेने वाली भाजपा अगर अन्य मुद्दों की तरफ ध्यान केंद्रित करती तो शायद उसे जनता का भी साथ मिलता और भगवान राम का भी. क्योंकि यूपीए सरकार के कार्यकाल में जनता ने खुशी से ज्यादा आंसू बहाए हैं. कमरतोड़ महंगाई और पूंजीवादियों की जेब भरने की यूपीए की नीतियों से जनता पूरी तरह त्रस्त हो चुकी है, ऐसे में भाजपा के पास दूसरा विकल्प बनने का सुनहरा मौका था जिसे अब वो काफी हद तक गवां चुकी है
नीरज नैयर

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

सियासत की हकीकत से हर कोई नहीं वाकिफ

डॉ. महेश परिमल
भारतीय प्रजातंत्र की जब भी बात होती है, हमारे देश के नेता इसे देश की आधारशिला निरुपित करते हैं। यहाँ बहुमत का बोलबाला है। बहुमत के नाम पर ऐसा बहुत कुछ हो जाता है, जो प्रजातंत्र की सीमा में नहीं आता। हमारे देश में अभी 15 वीं लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ चल रही हैं। इस चुनाव में जो भी प्रत्याशी विजयी होता है, तो उसका विजय जुलूस निकलता है। अपने भाषण में वह मतदाताओं का आभार मानता है कि उन्होंनें उसे बहुमत से विजयी बनाया। इसके साथ ही पराजित प्रत्याशी का कहना होता है कि लोगों ने अपने मत के माध्यम से जो आदेश दिया है, वह सर माथे पर। क्या हकीकत यही है? क्या विजयी प्रत्याशी या दल हमेशा ऐसा दावा करने की स्थिति में होता है कि अधिकांश मतदाताओं ने उन्हें पसंद किया है।
अब तक हमारे देश में हुए 14 लोकसभा चुनाव में कभी भी 60 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं से मतदान नहीं किया है। सत्ता प्राप्त करने वाले किसी भी दल ने कुल मतदान का 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त नहीं किया है। दूसरे शब्दों में अब तक जितने भी दल सत्ता पर काबिज हुए हैं, उन्होंने 30 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है। इसके बाद भी वे बहुमत का दावा कर सिंहासन पर आरूढ हुए हैं। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद जो सहानुभूति लहर चली और कांग्रेस ने सत्ता प्राप्त की, तब उसे 55 प्रतिशत नागरिकों ने मतदान किया था। कांग्रेस को कुल मतदान का केवल 37 प्रतिशत मत ही मिले थे। इस तरह से कुल मतदाताओं का केवल 20 प्रतिशत लोगों का समर्थन प्राप्त कर नरसिंह राव 5 वर्ष तक आराम से शासन करते रहे। जिन 80 प्रतिशत लोगों ने कांग्रेस को वोट नहीं डाला था, उन्हें भी पूरे 5 वर्ष तक कांग्रेस का शासन सहन करना पड़ा था।
1977 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल समाप्त कर नए चुनाव की घोषणा की थी, तब जनता पार्टी सत्ता पर काबिज हुई थी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे। इस जनता पार्टी के पास उस समय कुल मतदान का 41.03 प्रतिशत ही मत थे। भारतीय मतदाताओं ने सबसे अधिक समर्थन जिस दल को दिया है, वह 1984 में बनी राजीव गांधी कांग्रेस सरकार ही थी। उस समय कांग्रेस को 49.1 प्रतिशत मत मिले थे, शेष 50.9 ने कांग्रेस के खिलाफ ही वोट दिया था।
भारतीय संविधान में सरकार बनाने की जो पद्धति है, वह ब्रिटिश संविधान से प्रभावित है। यह पद्धति आज बिलकुल भी प्रासंगिक नहीं है। हर 5 वर्ष बाद हमारे देश में लोकसभा चुनाव होते हैं, इसमें जिस पार्टी को जितने अधिक प्रतिशत मत मिले, आवश्यक नहीं है कि सरकार उसी पार्टी की बने। 1998 के चुनाव में कुछ ऐसा ही हुआ था। इस चुनाव में भाजपा को कुल मतदान का 25.6 प्रतिशत मत ही मिले। दूसरी ओर कांग्रेस को इससे .2 प्रतिशत यानी 25.8 प्रतिशत मत मिले, इसके बाद भी सरकार भाजपा की बनी। अधिक मत मिलने का आशय यह कतई नहीं है कि अधिक सीटें मिले। भाजपा को इस चुनाव में कुल 182 सीटें मिली थीं, उधर अधिक मत प्राप्त करने वाली कांग्रेस को कुल 141 सीटें मिली थी। इस तरह से कम मत प्राप्त करने वाले दल अन्य दलों का सहारा लेकर सत्ता पर काबिज हो सकते हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि लोकसभा चुनाव में राजनैतिक दलों को जो सीटें प्राप्त होती हैं वह उन्हें प्राप्त हुए मतों के बराबर हो। 1984 के चुनाव में कांग्रेस को 49 प्रतिशत मत के साथ लोकसभा की 70 से भी अधिक सीटें मिली थी। इसके विपरीत 1977 में जनता पार्टी को 41.3 प्रतिशत मत मिले, पर सीटों की संख्या 60 थी। 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 28.3 मत मिले थे, इसके खिलाफ भाजपा को 23.75 प्रतिशत ही मत मिले, इसे यदि सीटों की दृष्टि से देखा जाए तो कांग्रेस को 114 और भाजपा को 182 सीटें मिली थी। इस तरह से देखा जाए, तो जितने मतदाता भारत में है, उसके मात्र 12 प्रतिशत मतदाताओं के समर्थन के साथ भाजपा ने 33 प्रतिशत सीटें प्राप्त की थी और भाजपा ने पूरे 5 साल तक शासन चलाया। 2004 के चुनाव में देखा जाए, तो कांग्रेस को मिले मतों के प्रतिशत में कमी आई थी, फिर भी कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो गई।
भारतीय लोकतंत्र में जनता के फैसले का अनादर किया जाता है, इसके बाद भी हमारे इसे बदलने के लिए हमारे राजनेता आतुर दिखाई नहीं देते। इस प्रणाली में मतदाताओं को मूर्ख बनाकर सत्ता पर कब्जा करना उनकी आदत में शामिल हो गया है। जहाँ भारतीय लोकतंत्र वर्षों से एक ही ढर्रे पर चल रहा है, वहीं विश्व के अनेक देशों में कुछ अलग ही तरह की चुनाव प्रक्रिया अस्तित्व में है। पश्चिम यूरोप के देशों में जो दल जितने प्रतिशत मत प्राप्त करता है, उतने प्रतिशत सीटें उसे संसद में प्राप्त होती है। इस प्रणाली को पी आर (प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन सिस्टम) कहा जाता है। जर्मनी में संसद की 50 प्रतिशत सीटें भारत की तरह बहुमत के आधार पर भरी जाती हैं। शर्त इतनी ही होती है कि ये 50 प्रतिशत सीटें किसके हिस्से जाएगी, इसके लिए सभी प्रत्याशियों की सूची राजनैतिक दल चुनावी मैदान में उतरने के पहले ही घोषित करनी पड़ती है। पश्चिम यूरोप, स्वीडन, नार्वे, डेनमार्क, फिनलैंड, बेल्जियम, इटली, स्विटजरलैंड, में तो 'अनुमानित प्रतिनिधित्व' की पद्धति से जितने प्रतिशत मत प्राप्त किए हैं, उतने प्रतिशत सीटें राजनैतिक दलों को प्रदान की जाती है। भारत में 1999 के चुनाव में यह प्रणाली अपनाई जाती, तो कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें लोकसभा में प्राप्त हुई होती। फ्रांस में संसद सदस्यों के चुनाव के लिए दो बार मतदान कराया जाता है। पहले चरण में जिन प्रत्याशियों को सबसे कम मत मिले हों, उनको हटाकर मुख्य प्रतिस्पर्धियों के बीच दूसरी बार मतदान कराया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में जितने उम्मीदवार चुनाव में खड़े होते हैं, उन्हें रेंक दे दिया जाता है। इस रेंक के आधार पर सबसे योग्य प्रत्याशी का चुनाव किया जाता है।
भारतीय प्रजातंत्र में ऐसी विचित्र परिस्थिति है कि मतदाता के सामने उनका सांसद भी होता है, जिसके मत से प्रधानमंत्री का चुनाव होता है। इसमें कई बार ऐसा होता है कि सांसद आपराधिक प्रवृत्ति का है, फिर भी वह जिस पार्टी के लिए खड़ा होता है, वह भी प्रधानमंत्री चुनने के लिए महत्वपूर्ण साबित होता है। इस परिस्थिति में अपना वोट किसे दिया जाए, मतदाता को यह उलझन होती है। केंद्र सरकार में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव आम मतदाता नहीं करता। जिसने कभी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा, फिर भी वह प्रधानमंत्री बन सकता है। अब राय की बात करें, तो राय में मुख्यमंत्री ही सब कुछ होता है। इसका चुनाव भी मतदाता नहीं करते। जिसने कभी विधानसभा चुनाव न लड़ा हो, वह भी मुख्यमंत्री बन सकता है। फिर 6 महीनों के अंदर उसे विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी के रूप में खड़े होकर विजयश्री हासिल करनी होती है।
अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव सीधे मतदान के माध्यम से होता है। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति कभी सेनेट के मोहताज नहीं होते। भारत में जिस तरह सांसदों की खरीद-फरोख्त कर प्रधानमंत्री की कुर्सी को खतरे में डाला जाता है, या फिर प्रधानमंत्री को कुर्सी छोड़ने के लिए विवश किया जाता है, ऐसा अमेरिका में कभी नहीं होता। क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति को सेनेटर नहीं, बल्कि आम मतदाता चुनता है।
भारतीय परिदृश्य में देखें तो अब समय आ गया है कि देश के प्रबुद्ध मतदाताओं और धर्मगुरुओं को जागरुक बनकर इस प्रणाली को बदलने के लिए अभियान चलाना चाहिए। देशसेवा के नाम पर मलाई मारते, विदेशी शक्तियों के दलाल बने ऐसे सांसदों की पकड़ से देश को मुक्त कराया जाए, तभी हमारा देश सच्चे अर्थों में 'स्वतंत्र' राष्ट्र कहलाएगा।
डॉ. महेश परिमल

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