शनिवार, 30 मई 2009

मंदी में है क्या-क्या सस्ता !

ग्लोबल मंदी में हर कोई बुरी खबरों की बात कर रहा है। लेकिन इस ओर कम लोगों का ध्यान गया है कि इस दौरान कई चीजों के दाम घट गए हैं। अगर लोगों के पास पैसे कम हैं तो कई सारी चीजें उनकी पहुंच के अंदर भी आ गई हैं। यानी कंज्यूमर को लिए ये मिलीजुली खबरों का समय है। आइए जानते हैं कि मंदी में क्या सस्ता हो गया है।
चलो सैर सपाटे पर, होटल भी सस्ते
मंदी की वजह से एक और चीज जो सस्ती हो गई है वो है सैर सपाटा। अपने ट्रेवल एजेंट से चेक कीजिए। एक साल पहले की तुलना में ज्यादातर पैकेज इस समय सस्ते मिल रहे हैं। दिल्ली के फाइव स्टार होटलों में 12 हजार से 24 हजार के रूम इस समय 8 हजार से 18 हजार रुपए में मिल रहे हैं।
कंज्यूमर ड्यूरेबल खरीदने का समय है मंदी

कंज्यूमर ड्यूरेबल प्रोडक्ट्स भी हाल के दिनों में सस्ते हुए हैं। ज्यादातर कंपनियों ने एक्साइज ड्यूटी कट का फायदा कस्टमर्स को दिया है। मिसाल के तौर पर सैमसंग ने अपने एलसीडी टीवी और फ्रिज के दाम घटाएं हैं। कंपनी का 52 इंच का एलसीडी टीवी 10,000 रुपए सस्ता हो गया है। एलीजी ने भी अपने प्रोडक्ट्स की कीमत में 1.5 से 2 परसेंट की कटौती की है। सोनी भी कीमतें घटा सकती हैं।
होम लोन सस्ता हुआ

2004 के निचले लेवल के बाद होम लोन पर इंटरेस्ट रेट, इस साल दो गुना तक बढ़ चुका था। लेकिन अब होम लोन सस्ता होने लगा है। कम से कम नए कस्टमर्स को तो सस्ते होम लोन का फायदा मिलने भी लगा है। सरकारी बैंकों ने होम लोन रेट नए कस्टमर के लिए सस्ते कर दिए हैं। 5 लाख रुपए से कम का होम लोम अब 8.5 परसेंट पर मिल रहा है जबकि 5-20 लाख रुपए का होम लोन 9.25 परसेंट की रेट पर मिल रहा है।
अभी इस मामले में और अच्छी खबरें आ सकती हैं क्योंकि महंगाई दर अब सात परसेंट से भी नीचे आ चुकी हैं। साथ ही रियायती रेट की लिमिट भी 20 से बढ़ाकर 30 लाख की जा सकती हैं।
कार-बाइक चलाने का खर्च घटा
कच्चे तेल की कीमत इंटरनेशनल मार्कट में जमीन को छू रही है। जुलाई के 147 डॉलर प्रति बैरल से कीमतें एक तिहाई से भी नीचे हो चुकी हैं। ऐसे में सरकार ने पिछले दिनों पेट्रोल 5 रुपए प्रति लीटर और डीजल 2 रुपए प्रति लीटर सस्ता किया है। इस बात के पूरे आसार हैं कि चुनाव नजदीक होने की वजह से पेट्रोल-डीजल और सस्ता होगा। यानी गाड़ी के बाद अब गाड़ी चलाने का खर्च भी कम होगा।
प्रॉपर्टी की कीमतें जमीन पर
ये कहना मुश्किल है कि ये प्रॉपर्टी खरीदने का सही समय है या नहीं। लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पिछले एक साल में ज्यादातर जगहों पर प्रॉपर्टी के दाम कम हुए हैं। अब तो गिरावट और ठहराव उन जगहों पर आ रहा है, जो अब तक बचे थे। इंडस्ट्री में स्लोडाउन की वजह से कई बिल्डर स्कीमें लेकर आए हैं। रेट में कटौती हुई हैं और प्लाज्मा टीवी से लेकर एक फ्लैट पर एक फ्लैट फ्री तक के ऑफर दिए जा रहे हैं।
ड्रीम कार का सही समय

शुक्रवार, 29 मई 2009

व्यंग्य युधिष्ठिर का कुत्ता दिल्ली पहुंचा

डा. रामकुमार रामरिया
सरदारया दी दिल्ली
प्रिय भारत !
मैं बड़े मजे से दिल्ली पहुंच गया ।
लोग कहते हैं -दिल्ली बहुत दूर है ,दिल्ली दूर का ढोल है ,दिल्ली भारत की पोल हैं, नक़ली सियार का खोल है ,दिल्ली में नैतिकता गोल है ,दिल्ली में कौन अपना है ? दिल्ली तो सपना है , दिल्ली बकवास है , दिल्ली में प्रेतों का वास है ,दिल्ली की नाक के नीचे संविधान सोता है ,अपराध जागता है , गीदड़ की मौत आती है तो वह दिल्ली की ही तरफ भागता है ,आदि इत्यादि बातें दिल्ली के रास्ते में ट्रकवाले सरदारों ने मुझसे कहीं थीं। वे भी दिल्ली जा रहे थे और मुझे भी दिल्ली ले जा रहे थे। परन्तु आष्चर्य यह था कि न वे गीदड़ थे और न मैं। वे सरदार थे और मैं तो बस श्वान था। आज की भाषा में कहूं तो कुत्ता था। हम किसी किंवदन्ती या मुहावरे से मुक्त थे और दिल्ली जा सकते थे। उनके लिए दिल्ली क्या थी मुझे नहीं मालूम मगर मेरे लिए दिल्ली एक बादषाही मकसद थी। मैने दिल्ली की राजषाही को नज़दीक से देखा था। मैं कोई मामूली कुत्ता नहीं था। एक पौराणिक अभूतपूर्व कुत्ता था। एक सम्राट्वंषी कुत्ता,एक बादषाह कुत्ता।
तो दिल्ली पहुंचने में मुझे बादषाही सुविधा ही प्राप्त हुई औेर दिल्ली पहंुचकर प्रारंभिक दृष्टि से राजनयिक संतोष ही मिला। आषा है तुम मेरी बात अच्छी तरह समझ रहे होगे। हो सकता है कि कुछ कन्फयूज़न भी तुम्हे हो। कन्फयूज़न दिल्ली के नाम को लेकर हो सकता है। वास्तव में शुरुआत में ही मुझसे गल्ती हुई। असल में मुझे पहले ही बताना था कि दिल्ली कोई नई जगह नहीं है। इसे तुम जानते हो। यहां तुम रह चुके हो। यहां राज्य कर चुके हो ।
प्रिय पुत्र !दिल्ली को हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का नया नाम समझ लो। मुग़लों ने बतौर दिल्लगी यह दिल्ली बसाई और इसके मुहल्लों ,रास्तों और गलियों को इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर में तब्दील कर दिया। नये भारत की अंग्रेज जेनेरेषन इसे ’न्यू डेल्ही ’ कहती है। कुछ लोगों ने इसे देह’ से जोड़कर ’देहली’ बना लिया है। चूंकि इस नगरी से मेरे संबंध पुराने भी हैं और भावनात्मक भी, अतः मुझे दिल्ली को पहचानने में ज़रा भी देर नहीं लगी । जबकि सुनते हैं,नई पीढ़ी अब भी जे.एन.यू.में इस पर रिसर्च कर रही है। ये सारी बातें वास्तव में सरदारों ने ही नषे की हालत में रास्ते में मुझसे कहीं थी।
पुत्र ! मैं बार बार दिल्ली के मामले में सरदारों का जिक्र कर रहा हूं,, और तुम खामखां टेंषन में आ रहे होगे कि ये सरदार आखिर हैं कौन ? कौन्तेय ! ये बड़े ही मजेदार लोग हैं। इन्हें दिलदार ,मालदार,रौबदार,पायादार और असरदार भी कहा जाता है। इतने सारे ’दार’ लगे होने से ही ये सरदार कहाए। कुछ इन्हें यार या यारों के यार भी कहते हैं। इसकी वजह यह है कि इनके पास ’यार’ लगी हुई कुछ खूबियां भी है...ये कृपाण नामक धार्मिक हथियार रखते हैं , ये जां पर खेल जाने को तैयार रहते हैं ,अपना मयार ये हमेषा ऊंचा रखते हैं । ये होषियार भी हैं। इनकी होषियारी से जलकर कुछ लोगों ने इनपर हंसी उड़ानेवाले चुटकुल भी बनाए हैं । वे लोग भूल जाते हें कि ये बिगड़ जाएं तो खूंख्वार भी हैं ।
पार्थ! सेनानायक होने के नाते तुम जानते ही होगे कि सेना में सरदार नामक प्राणी भी होते हैं। सैनिकों की एक टुकड़ी के सरगना। पूरी टुकड़ी का संचालन उसी के जिम्मे होता है। षायद उन्हीं सरदारों के ये वंषज हैं। सरदारों के बेटे पहले सरदार हुए ,बाद में पूरी कौम सरदार हो गई। जो पान की दूकान चलाता है वह भी सरदार। जो ट्रक चलाता है वह भी सरदार । षराब बेचकर घर चलाने वाला भी सरदार है और गुरुदारा चलानेवाला भी। आजकल ऐसा होता है कि पटवारी का बेटा पटवारी होता है, वही उसकी जात होती है। पनवाड़ी ,पायलट,गोमास्ता ,मुंषी ,कानूनगो, बख्षी, राय, प्रधान षास्त्री आदि उपाधियां पुष्तदरपुष्त प्रवाहित होती चली जाती हैं। इसलिए पंडित का बेटा पंडित और सूत का बेटा सूत हो जाता है। जुलाहे का जुलाहा तो महासचिव का बेटा परंपरा से महासचिव हो जाता है। उसके लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पहले से तैयार रहती है।
जो भी हो सरदार होते बहुत अच्छे हैं। बिलकुल सरदारों की तरह। सर की हिफाजत कोई उनसे सीखे। वे हमेषा पगड़ी से सर को असरदार बनाए रखते हैं । सर भले ही छोटा हो पगड़ी उनकी बड़ी होती है। उनका कौमी गीत है -’’पगड़ी सम्हाल जट्टा..’’ जट्टा भी सरदार को कहते हैं। जैसे दिलदार को दरियादिल भी कहते हैं। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैंेंने इनकी दरियादिली देखी है। इन्होंने मुझ रिष्तों की तरह प्यार और दुलार दिया। खाना और षराब दी। मेरी तरह थके हुए, भूखे ,प्यासे और कत्र्तव्य की भावना से भरे हुए कुत्ते से कौन ऐसे पेशआता है ? खींचकर लात मारता है और फेंककर पत्थर। इन्सान भी इन्सानों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता जैसा इन सरदारों ने मेरे साथ किया। मुझे तो लग रहा था जैसे स्वर्ग के लोग रूप बदलकर जमीन पर उतर आएं हैं और ट्रक चला रहे हैं ।
हुआ यह कि मैं धीरे धीरे इन्द्रप्रस्थ यानी दिल्ली के रास्ते पर पैदल ही बढ़ रहा था । पहाड़ी जंगली ,रास्ते पर बिल्कुल अकेला। न पट्टा ,न जंजीर ,न मालिक ,न मल्लिका । मुझे न शेरों का भय था ,न भालुआंे का डर। न सोनकुत्तों की परवाह ,न खरगोषों का लोभ। मैं अपने दिमाग से उन हाथियो को भी निकाल चुका था ,जिनके बारे में कहा जाता है कि वे जब बाज़ार जाते हैं ,तब हम कुत्ते उन पर भौंकते हैं। वैसे भी मैं इस समय बाज़ार के रास्ते पर नहीं था, कामनवेल्थ की पसंद-दिल्ली के रास्ते पर था। फिल्हाल मैं बिल्कुल अकेला था ओर मेरी स्थिति धोबी के उस कुत्ते की तरह थी ,जो घर का होता है ,न घाट का । मैं बुरी तरह थक चुका था और मेरे मन में इतना अवसाद था कि सच कहता हूं ,अपनी जाति की निष्ठागत परम्परा से जुड़ा न होता तो तुमको सैंकड़ों गालियां देता और किसी भी गांव में घुसकर अपना पेट पाल लेता। बहरहाल,में एक सच्चे और स्वाभिमानी कुत्ते की तरह तुम्हारे प्रति निष्ठा का पालन करते हुए ,किसी तरह दिल्ली की तरफ बढ़ रहा था। जैसे पार्टी के निर्णय पर लगी लगाई नौकरी छोड़कर कोई षिक्षक चुनाव के मैदान में डमी प्रत्याषी बनकर दिल्ली के सपने देखने लगता है। मैं भी तुम्हारी इच्छापर तुम्हारे खोए हुए भाई और स्वनामधन्य पांचाली की खोज में दिल्ली के रास्ते पर फिसल रहा था। मेरे लिए यह जीवन मरण का प्रष्न था और प्रण भी ।
तभी अचानक तेज ऱतार से आता हुआ भारी वाहन बिल्कुल मेरे पास आया और किंकिंयाकर खड़ा हो गया। मैं डर गया और ज़ोर ज़ोर से भौंकने लगा जैसे हर डरा हुआ आदमी भौंकता है। जैसे कुत्ते हाथी और शेरों पर भौंकते हैं। तभी वाहन से एक आदमी लड़खड़ाता हुआ उतरा । वह बिल्कुल तुम्हारे सेनापतियों की तरह दढ़मुच्छ था और मुकुट की जगह पगड़ी पहने हुए था । वह मेरे भौंकने की परवाह किए बिना मेरी तरफ बढ़ते हुए बोला -’’ ओय शेर दे पुत्तर ...क्या बाडी साडी है तेरी ..साले हम तो डर गय थे। दूर से तू हमें शेर लग रहा था । अब तो तुझसे यारी करनी पड़ेगी ...हम भी शेर ,तू भी शेर ..’’
इसके पहले कि मैं कुछ सोच पाता उस शेर ने मुझे गोद में उठा लिया । मुझे बहुत अच्छा लगा । ईष्वर ने मेरी सुन ली थी और मेरी निष्ठा का प्रतिफल दे दिया था। एक शेरदिल आदमी ने मुझे ’शेर का पुत्तर’ कहा था । इसे ही कहते हैं -’ खग जाने खग ही की भाषा ’। वह शेरदिल आदमी मुझे लेकर वाहन में चढ़ गया। परली तरफ बैठे आदमी ने चिल्लाकर कहा: ’’ ओय सरदारया ! की कीत्ता ओय..ऐस कुत्ते दे पिल्ले नूं ट्राक बिच कित्थे ले आंदा तुसी..’’
मुझे थामे हुए सरदारया नाम के उस आदमीनुमा प्राणी ने ट्राक के अंदर मुझे लगभग फेंकते हुए कहा: ’दारजी ठंड राख तुसीं..असी तो ये कोई करामाती लंगदा से..वेखते रयां...’’ दूसरा आदमी दारजी था। मैं मन ही मन हर घटती हुई चीज़ को अपनी कौत्तिक बुद्धि से सूंघ रहा था। चैकन्नापन कुत्तों में अपने आप आता है।
पहले आदमी सरदारया ने मेरी खस्ता हालत देखी तो बोला:’’पानी पीवेंगा... थका लगता है तू....इस जंगल बिच...न गांव न शहर...तू कित्थे भटकदा फिरदा है यार ? ले दो घूंट अंगूर दी मार...’’ऐसा कहते हुए उसने मेरे मुंह में बाटली लगा दी। मैं हर अवसरवादी की तरह दो की जगह ़मज़े में चार घूंट पी गया। मुझे इस समय उसकी जरूरत थी। राजभवनों में रहते हुए ,खासकर अंतःपुर के इतने करीब होते हुए मैं अंगूर और बेषकीमती सोमरसों से परिचित था। उनके प्रभावों को जानता था। कई बार तो तुमने ही नषे में मेरे मुंह में प्याला ढठूंस दिया था, तुम्हें याद है?
अस्तु, उन चार घूंटों का तत्काल प्रभाव हुआ ..मेरे बेजान शरीर में जान आ गई। जिन्दगी की एक लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई। आंखों में सितारे जगमगा उठे। यह क्या ...क्या मैं पलक झपकते ही स्वर्ग पहुंच गया..ऐसा मैंने सोचा....
कुन्तिपुत्र ! तुम्हें वह दिन याद होगा जब स्वर्ग से आए वाहन को तुमने केवल मेरे कारण ठुकरा दिया था। तुम्हारी परीक्षा के लिए कुछ देर के लिए वह वापिस भी चला गया। उतनी देर में तुमने तय भी कर लिया कि अपने प्रियजनों के बिना स्वर्ग जाना बेकार है...तुम धर्मपुत्र थे न.. इसलिए धर्मसंकट में पड़े हुए तुम मुझे लेकर एक देवदारु के नीचे सरक आए ताकि दोबारा अगर विमान आए तो भटक जाए और इतनी देर में तुम अपने भाइयों को साथ में स्वर्ग ले जाने पर विचार कर सको। हुआ भी वैसा ही। विमान भटक गया और हम दोनों देवदारु यानी देवताओं के वृक्श1 के नीचे खड़े खड़े ठिठुरने लगे। तभी तुमने यह भी सोच लिया कि राजरानी द्रोपदी और बंधुगण -भीम , अर्जुन , नकुल और सहदेव ,जो बीच रास्ते में ही ढेर हो गए थे ,वे हो न हो बदले हुए हालातों में अपने अस्तित्व या अपनी अस्मिता के पुनर्मूल्यांकन के लिए वापस भारत यानी हस्तिनापुर के इंद्रप्रस्थ लौट गए हैं। भाइयों का दिल ऐसा ही सोचता है। तुमने तुरंत तय भी कर लिया कि मैं लौटकर जाऊं और उन लोगों की जासूसी करूं। मैं निष्ठावान रिसर्च स्कालर की तरह लौट पड़ा। मेरे वफादार मन में एक पल के लिए भी यह संदेह नहीं हुआ कि मुझे धरती पर छोड़ देने का समझौता तुम कर लोगे और मुझे भटकाकर स्वर्ग चले जाओगे। मैंने यह भी कल्पना नहीं की थी कि कोई वाहन सुख तुम्हें छोड़ने के बाद मुझे मिलेगा। लेकिन वाहन पर सवार होकर इस तरह के भव्य ख्याल आने लगे..मै सोचने लगा कि मेरी परीक्षा के लिए तुम उस स्वर्गीय यान पर वापस आ गये हो ...सरदारों का रूप लेकर । मैं सोचने लगा कि तुम्हारे आदर्षों और धर्माचरण के साथ साथ मेरी निष्ठा का प्रतिफल यह भव्य वाहन है। मैं अंदर ही अंदर खुशहोने लगा कि ईमानदारी सचमुच पुरस्कृत होती है। परन्तु तत्काल मैं सम्हल गया ..नषे की हालत में भी लगा कि मुझे चढ़ रही है ।
तभी गड्डी ने हल्का सा टर्न लिया और लुड़कते हुए रुक गई। सरदारया ने मुझे थपककर कहा:’’ओय उट्ठ बड़वाग्या....ढाबा आ गया... पंजाबी दा ढाबा..पंजाब नंे क्या नहीं दिया इस मुल्क को ..खाने वास्ते ढाबे दिए...पीने वास्ते पटियाला पैग दिए..’’
अब तक मेरे नथुनों में अब तक रोटी ओर तरकारी की गंध घुंस चुकी थी..सूंघते ही मेरी आंतें मरोड़ खाने लगी। कान खड़े हो गए ,जीभ लपलपाने लगी और दुम डगमगाने लगी।
’’भुक्खा है शेरदा...चल तुझे परौंठे खिलाएं ,राजमें के साथ..’’ सरदारया ने कहा और वे मुझे कुदाकर कूद गए। मैं हवा में उड़ रहा था। ..हवाओं में संगीत बज रहा था... वातावरण अनेक गंधों से महक रहा था। सरदारया और दारजी खाली पड़ी खटियों की तरफ बढ़ गए और उन पर बैठ गए...मैं भी राजकुल की मर्सादा और आदत के मुताबिक बगल की खाट पर चढ़ गया। सरदारया खुशहोकर चिल्लाया,’’ ओय , खुश कर दित्ता मेरे यार ! किसी ऊंचे घर का मालूम पड़ता है तू ? श्षब्बास...’’
फिर ज़ोर से आवाज लगाई:’’लगा ओ छोकरे...दाल फ्राई, शाही राजमा ,चिकन तंदूरी और मक्खन दे परौंठे...आज हमारा शेर ऐश करेगा...’’
मगर दारजी ने डांटकर कहा:’’ होषकर ओय बंत्या ! तू कुत्ते को मक्खन के परौंठे खिलावेंगा ? पागल हो जाते हैं कुत्ते मक्खन और घी खक्के...’’
बंत्या तुरंत होश में आ गया। आश््चर्य से मंुह फाड़कर बोला:’’ ऐसा ? तो ठीक है ...छोकरे... दो तंदूरी रोटी देना अलग से.. कुत्ते नाल....’’
जिस गति से मैं कुत्ते से शेर हुआ था उसी गति से कुत्ता हो गया। ठीक सरदारया की तरह जो होश में आते ही बंत्या हो गया था। बहरहाल मक्खन के परौंठे के स्थान पर मुझे सूखी मगर गरम और कड़क नमकदार रोटियां मिलीं। बंत्या ने उस पर बोटियां रख दीं। मुझे ज़ोर की भूख लगी थी इसलिए मक्खन के परौठे ओर तंदूरी रोटियों में फर्क,तुलना या भेद करना मैंने मुनासिब नहीं समझा। वैसे भी दारजी ठीक ही कह रहे थे -विष्वासपात्र ,निष्ठावान और कत्र्तव्यपरायण कुत्तों को मक्खन और घी नहीं खाना चाहिए। इससे उनकी स्वामीभक्ति में फर्क आ जाता है। चिकनी चुपड़ी का चष्का तो कुत्तों को आदमी बना देता है। इन सब विचारों के साथ साथ रोटियां मेरे पेट में जा रहीं थीं। जैसे जैसे रोटियां पेट में जा रहीं थीं, नषा बढ़ रहा था। थोड़े बहुत नषें में मैंने सुना सरदारया कह रहा था:’’ कयों शेरू मजा आ रहा है न ....तू भी क्या याद रखेगा कि किसी सरदार से पाला पड़ा था...तू जंगल से दिल्ली आ गया है .. यह दिल्ली सरदारों की मिल्कियत है...तू ऐश करेगा यहां...’’ मै कुछ समझा ,कुछ नहीं समझा। नींद और नषे के बीच गहरी दोस्ती हो चुकी थी। मै शायद खाटपर ही लुढ़क चुका था।
सुबह होते ही दो घटनाएं एक साथ घटीं- होश आया और नींद खुली। आमतौर पर नींद खुलती है तब भी हम किसी न किसी नषे में होते हैं। होश आने पर भी हम किसी न किसी नींद में गाफिल होते हैं। किंतु मैं जब जागा तो होश में था। क्या देखता हूं कि सुबह हो गई है और चिड़ियां चहचहाने लगी हैं। सरदारया और दारजी गायब हैं। आसपास की खटियों पर लोग सो रहे हैं। केवल ढाबे का बोर्ड जाग रहा है जिस पर लिखा है-’ पंजाब दा ढाबा...दिल्ली’..यानी मैं दिल्ली में हॅंूं.... ।
मैं उठा ,अंगड़ाया और षरीर को झटकाकर ,दुम उठाकर दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ा ।
शेष फिर
तुम्हारा कुत्ता
-कुकुर मोती प्रताप सिंह ’स्वर्गवर्गीय’

डा. रामकुमार रामरिया

गुरुवार, 28 मई 2009

साबुन ने तय किया 110 साल का सफर


भारत में साबुन और डिटर्जेंट ने लंबा सफर तय किया है। ब्रिटिश शासन के दौरान लीवर ब्रदर्स इंग्लैंड ने भारत में पहली बार आधुनिक साबुन पेश करने
का जोखिम उठाया। कंपनी ने साबुन आयात किए और यहां उनकी मार्केटिंग की। हालांकि नॉर्थ वेस्ट सोप कंपनी पहली ऐसी कंपनी थी जिसने 1897 में यहां कारखाना लगाया।
उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में पहला साबुन कारखाना खड़ा हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान साबुन उद्योग बुरे दौर से गुजर रहा था लेकिन इसके बाद देश भर में उद्योग खूब फला-फूला। साबुन की कामयाबी की एक अहम कड़ी में जमशेदजी टाटा ने 1918 में केरल के कोच्चि में ओके कोकोनट ऑयल मिल्स खरीदी और देश की पहली स्वदेशी साबुन निर्माण इकाई स्थापित की। इसका नाम बदलकर टाटा ऑयल मिल्स कंपनी कर दिया गया और उसके पहले ब्रांडेड साबुन बाजार में 1930 की शुरुआत में दिखने लगे।

1937 के करीब साबुन धनी वर्ग की जरूरत बन गया। साबुन को लेकर ग्राहकों की पसंद अलग-अलग रही है। इसे हम क्षेत्रवार वर्गीकरण के तहत समझ सकते हैं। उत्तर भारत में उपभोक्ता गुलाबी रंग के साबुन को तरजीह देते हैं जिसका प्रोफाइल फूल आधारित होता है। यहां साबुन की खुशबू को लेकर ज्यादा आधुनिक प्रोफाइल चुने जाते हैं जो उनकी जीवनशैली का अक्स दिखाएं। नींबू की महक के साथ आने वाले साबुन भी खासी लोकप्रियता रखते हैं क्योंकि उत्तर भारत में मौसम बेहद गर्म रहता है और नींबू के खुशबू रखने वाले साबुन को तरो-ताजा होने के लिए अहम माना जाता है। साबुन को लेकर पूर्वी भारत ज्यादा बड़ा बाजार नहीं है और यहां साबुन तथा डिटर्जेंट की खुशबू को लेकर ज्यादा संजीदगी नहीं दिखाई जाती। पश्चिमी भारत में गुलाब की महक रखने वाले साबुन पसंद किए जाते हैं।
देश के दक्षिणी हिस्से में हर्बल-आयुर्वेदिक और चंदन आधारित साबुन की मांग ज्यादा है। यहां का ग्राहक किसी ब्रांड विशेष को लेकर ज्यादा लॉयल नहीं होता और दूसरी कंपनी का साबुन इस्तेमाल करने को लेकर खुला रुख रखता है। साबुन की मार्केटिंग करते वक्त महिलाओं को खास तवज्जो दी जाती है, क्योंकि कौन सा साबुन खरीदना है, यह फैसला परिवार में काफी हद तक उन पर निर्भर करता है। इसके अलावा परिवारों को प्रभावित करने के लिए कीटाणु मारने वाले एंटी-बैक्टीरियल और शरीर की दुर्गंध दूर करने वाले साबुन पेश किए जाते हैं।

बुधवार, 27 मई 2009

क्यों महंगी होती हैं डीजल कारें


क्यों महंगी होती हैं डीजल कारें
डिजाइनिंग के पेशे से जुड़े प्रयास गुप्ता एक दिन अपने मुंबई ऑफिस में बैठे बड़े ध्यान से कार की प्राइस लिस्ट देख रहे थे। इसके ठीक एक दिन पहले उनकी पत्नी ने उन्हें याद दिलाया था कि उनकी कार छह साल पुरानी हो चुकी है और अब इसे बदलने की जरूरत है। अपनी कार की मौजूदा हालत को देखते हुए उन्होंने इस बार नई डीजल कार खरीदने की सोची, हालांकि डीजल कार खरीदने का फैसला करने के बाद वह ज्यादा संशय की स्थिति में पहुंच गए।
गुप्ता ने एक बार फिर कार की कीमतों की सूची देखी। इस सूची में स्विफ्ट वीएक्सआई (एबीएस) की कीमत 5,25,801 रुपए थी, वहीं इसके डीजल मॉडल स्विफ्ट वीडीआई (एबीएस) की कीमत 5,98,736 रुपए थी। इन दोनों कार मॉडलों के बीच 72,935 रुपए का बड़ा अंतर प्रयास गुप्ता को देखने को मिला। गुप्ता यह जानने को उत्सुक थे कि आखिर क्यों डीजल वर्जन की कीमत पेट्रोल वर्जन से इतनी ज्यादा है और अपनी इसी उत्सुकता को उन्होंने अपने रीटेलर के सामने रखा।
मारुति सुजुकी के इंजीनियरिंग डिवीजन के चीफ जीएम सी वी रमन के पास इसका जवाब है। उन्होंने बताया, 'जब डीजल और पेट्रोल वर्जन की बात आती है तो अधिकतर मामलों में एक ही मॉडल की कार की इंजन क्षमता में काफी अंतर होता है। आमतौर पर डीजल इंजन अधिक क्षमता वाला होता है।' अगर हम गौर करें तो पता चलता है कि हिंदुस्तान एबेंसडर में 1.8एल एमपीएफआई का पेट्रोल इंजन होता है, जबकि डीजल इंजन की क्षमता 2.0 एल होती है।
हालांकि, कार की नई कीमतें बताती हैं कि यह कोई जरूरी नहीं है कि अगर इंजन की क्षमता अधिक हो, तो उसकी कीमत भी अधिक होगी। रमन ने बताया कि आमतौर पर डीजल इंजन में पेट्रोल इंजन की तुलना में ज्यादा महंगे उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
रमन ने बताया, 'पेट्रोल की तुलना में डीजल ज्यादा गर्मी पैदा करता है। इसके अलावा डीजल इंजन में फ्यूल-एयर मिक्सचर चालू करने के लिए कोई स्पार्क प्लग नहीं होता है। डीजल इंजन में गाड़ी तभी स्टार्ट होती है, जब यह हवा लेता है और इसमें दबाव पैदा होता है। कम्प्रेस्ड हवा की गर्मी से डीजल इंजन चालू होता है।'
जानकारों का कहना है कि हाई ऑपरेटिंग टेम्परेचर इस बात को सुनिश्चित करता है कि डीजल इंजन का रिस्पांस बेहतर रहे। डीजल इंजन वाले कार मॉडल्स में महंगे उपकरणों के अलावा टर्बोचार्जर के साथ ऑयलबर्नर भी लगे होते हैं, जिससे इसकी कीमत बढ़ जाती है। टर्बोचार्जर एक ऐसा इंडक्शन सिस्टम है, जो वजन में ज्यादा बढ़ोतरी किए बगैर इंजन की क्षमता में इजाफा करता है। यह उस हवा पर तेजी से दबाव बनाता है, जो इंजन के अंदर बहती है।
इसका मतलब है कि सिलेंडर में अधिक हवा आ सकती है और ज्यादा हवा का मतलब है कि जब गाड़ी चलती है, तो इसे ज्यादा क्षमता हासिल होती है। इसके अलावा गुप्ता के रीटेलर ने उन्हें यह भी बताया कि ईंधन की क्षमता के लिहाज से भी स्विफ्ट का डीजल वर्जन ज्यादा बेहतर होगा। हालांकि, ईंधन क्षमता की बात आने पर खरीददार के मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसा कैसे होगा?
हालांकि, इस सवाल का उत्तर पूरी तरह से डीजल की बेहतर गुणवत्ता पर निर्भर करता है। पेट्रोल की तुलना में डीजल ज्यादा ऑयली और भारी होता है। इसके अलावा डीजल से कार्बन परमाणु की लंबी श्रृंखला तैयार होती है, जो पेट्रोल की तुलना में इंजन को ज्यादा क्षमता मुहैया कराती है।
पर्यावरण के लिहाज से भी पेट्रोल की तुलना में डीजल बेहतर होता है, क्योंकि इससे काफी कम हाइड्रोकार्बन, कार्बन डाई आक्साइड और कार्बन मोनो आक्साइड का उत्सर्जन होता है। ये सभी रासायनिक तत्व ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार होते हैं। हालांकि, डीजल की खामी यह है कि इसमें से अधिक मात्रा में नाइट्रोजन कम्पाउंड निकलते हैं। इन सब बातों पर गंभीरता से विचार करने के बाद गुप्ता ने आखिरकार स्विफ्ट वीडीआई खरीदने का फैसला लिया।

मंगलवार, 26 मई 2009

देश के दो महान नेता


ममता दी की सादगी
ममता बनर्जी भारतीय राजनीति की उन गिनी-चुनी महिलाओं में हैं जिन्होंने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए अपना अलग मुकाम बनाया है। आज पूर्वी भारत की वह सबसे शक्तिशाली महिला राजनेता हैं। बनर्जी की राजनीति की तरह ही उनका व्यक्तित्व भी बेहद रोचक है। अपने रूखे स्वभाव के लिए मशहूर ममता के बारे में कम लोगों को पता है कि वह एक संवेदनशील चित्रकार और कवियित्री हैं। शास्त्रीय संगीत में भी उनका अ'छा दखल है।
मंत्रालय का चाय-बिस्कुट भी स्वीकार नहीं

ममता बनर्जी की सादगी एक मिसाल है। वह अब भी कोलकाता के कालीघाट इलाके की झु'गी वस्तियों में एक कमरे के मकान में रहती हैं। दिल्ली भी आती हैं तो जूनियर सांसदों के लिए बने छोटे फ्ïलैट में रहती हैं। एनडीए सरकार के दौरान रेल मंत्रालय का जिम्मा संभालने वाली बनर्जी ने उस समय मंत्रालय के सभी कर्मचारियों को चकित कर दिया जब वह हर चाय के कप और बिस्कुट के पैसे का भुगतान अपनी जेब से करने लगीं। पार्टी में बनर्जी के सबसे करीबी सिपाही और उनका दाहिना हाथ समझे जाने वाले रतन मुखर्जी का कहना है कि ममता ने कभी एक कप चाय के पैसे का खर्च भी मंत्रालय पर नहीं डाला।
तुनुकमिजाज
उनके तुनुकमिजाजी के किस्से भी अनेक हैं। इसकी मिसालें भी कम नहीं हैं कि अपनी पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेताओं को उभरने नहीं देतीं। इसकी बड़ी मिसाल वरिष्ठ नेता सुब्रत मुखर्जी खुद हैं।

दुर्गा के अनन्य भक्त हैं प्रणब दा

कांग्रेस के सबसे अनुभवी नेता प्रणब मुखर्जी की विद्वता तो जगजाहिर है, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि वह देवी के अनन्य उपासक हैं। चाहे कड़ाके की सर्दी हो या दिल्ली की जानलेवा गर्मी, प्रणब दा हर रोज सुबह चंडी पाठ की स्तुति करके ही निकलते हैं। दुर्गा की स्तुति से जुड़े सभी श£ोक उन्हें कंठस्थ हैं। एक दिन इसकी बानगी संसद में भी देखने को मिली जब भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा दुर्गा पर छपी किसी विवादास्पद किताब का मुद्ïदा उठा रहे थे। प्रणब मुखर्जी ने मल्होत्रा को बीच में टोकते हुए दुर्गा शप्तशती का श£ोक सुनाया और यह जाहिर कर दिया कि धर्म ग्रंथों के बारे में उनकी जानकारी कितनी मजबूत है।
प्रणब दा के व्यक्तित्व का दूसरा पहलू है उनका क्षण में गुस्सा आना। छोटी-छोटी बातों पर नाराज होना उनका स्वभाव है, जिसके चलते उनके करीबी अक्सर डरते हैं। लेकिन वह यह भी कहते हैं कि जिस तेजी से उन्हें गुस्सा आता है उतनी ही तेजी से उतर भी जाता है।

सोमवार, 25 मई 2009

शरीर के लिए खतरनाक है कोका-कोला का सेवन


लंदन।अति हर चीज की बुरी होती है। ऐसा ही कोला के अधिक सेवन के साथ भी है। विशेषज्ञों का कहना है कि कोका कोला और पेप्सी जैसे शीतल पेय के अत्यधिक सेवन से खून में पोटेशियम की मात्रा खतरनाक स्थिति तक कम हो जाती है। नतीजतन, मामूली शारीरिक कमजोरी से लेकर मांसपेशियों के लकवाग्रस्त होने तक का खतरा बढ़ जाता है।
'इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्लीनिकल प्रैक्टिसÓ में प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट में यह बात कही गई है। प्रमुख शोधकर्ता और ग्रीस की आयोनिना यूनिवर्सिटी के डॉ. मोजेस एलिसाफ ने बताया कि कोला आधारित शीतलपेय में आमतौर पर मौजूद तीन तत्वों-ग्लूकोज, फ्रक्टोज और कैफीन के अधिक मात्रा में शरीर में जाने के कारण हाइपोकैलेमिया (खून में पोटाशियम का स्तर कम होना) की शिकायत होती है।
कंपनियों का आक्रामक प्रचार :
अमेरिका के ओहियो में स्थित लुइस स्टोक्स क्लीवलैंड वीए मेडिकल सेंटर के डॉ. क्लीफोर्ड पैकर ने कहा, 'हमारे पास इस बात पर विश्वास करने के पूरे कारण हैं कि शीतल पेय बनाने वाली कंपनियों की आक्रामक मार्केटिंग, लोगों में कैफीन की लत आदि के कारण विकसित देशों में लाखों लोग प्रतिदिन दो से तीन लीटर कोला का सेवन करते हैं।Ó
दो उदाहरण :
अध्ययन रिपोर्ट में दो लोगों के उदाहरण दिए गए हैं, जिन्हें कोला के अधिक सेवन के कारण स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याएं हुर्ईं।
पहला :
हर रोज 4 से 10 लीटर कोला पीने वाले आस्ट्रेलिया के एक व्यक्ति को फेफड़ों में लकवे की शिकायत हो गई। हालांकि इलाज के बाद वह पूरी तरह से स्वस्थ हो गया और डाक्टरों ने उसे कोला कम पीने की हिदायत दी।
दूसरा :
21 वर्ष की एक गर्भवती युवती को कमजोरी, उलटी और भूख न लगने की शिकायत पर अस्पताल में भरती कराया गया। वह बीते छह साल से हर रोज करीब तीन लीटर कोला का सेवन कर रही थी। जांच में पता चला कि उसके दिल की धड़कनें भी अनियमित चल रही हैं।
जो पहले से पता है :
कोला के अधिक सेवन से मोटापा, डायबिटीज और दांतों व हड्डियों की समस्या होने की बात पहले से ही पता है।

शनिवार, 23 मई 2009

हिट हो गया जूजू, मिला पेटा अवॉर्ड



टेलीकॉम ऑपरेटर वोडाफोन के जूजू विज्ञापन को पेटा (पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट फॉर एनिमल्स) ने भारत का पहला ग्लिटर बॉक्स पुरस्कार दिया है।

लेकिन, क्यों मिला ये अवॉर्ड?

पेटा का कहना है कि यह पुरस्कार विज्ञापनों में वास्तविक जानवरों की जगह मानव विकल्पों का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों को दिया जाता है। पेटा ने इससे पहले वोडाफोन के पुराने विज्ञापनों में जानवरों के इस्तेमाल को लेकर आपत्ति जताई थी।
पेटा की चीफ फंक्शनरी अनुराधा साहनी का कहना है कि इस विज्ञापन की लोकप्रियता से यह साबित होता है कि जानवरों के इस्तेमाल के बिना भी संदेश को पहुंचाने के बहुत से अन्य रास्ते मौजूद हैं।


वोडाफोन के ऐड कैरेक्टर 'जूजू'


इन छोटे-छोटे सफेद चेहरे हैं 'जूजू', जो इन दिनों वोडाफोन के ऐड में नजर आ रहे हैं। वोडाफोन अपनी वैल्यू ऐडेड सर्विसेज के ऐड में इन्हें पेश कर रही है। ऐड फिल्म्स बनाने वाली कंपनी निर्वाण फिल्म्स ने जूजू कैरेक्टर्स के साथ ये ऐड बनाए हैं, जिन्हें दर्शक खूब पसंद कर रहे हैं। इससे पहले वोडाफोन का कुत्ते (पग) वाला ऐड भी निर्वाण फिल्म्स ने ही बनाया था।

रीयल कैरेक्टर हैं जूजू

आपको यह देखकर लगता होगा कि ये एनिमेटेड कैरेक्टर्स हैं, जो मानवीय संवेदनाएं दिखाते हैं। पर ऐसा नहीं है। ये मुंबई के लोकल थिएटर से लिए गए स्लिम वुमन एक्टर्स हैं, जिन्हें सफेद कपड़े पहनाकर जूजू का रूप दिया गया है।

जूजू का क्रेज जबर्दस्त

जूजू का क्रेज इतना ज्यादा है कि वोडाफोन के ऐड यूट्यूब पर सबसे ज्यादा वॉच किए जाने वाले विडियो हैं। फेसबुक पर जूजू के 1 लाख 30 हजार से ज्यादा फैन्स हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है।

क्यों आए जूजू?

दरअसल वोडाफोन अपने कुत्ते वाले 6 साल पुराने विज्ञापन को बदलना चाहती थी और कुछ नया भी करना चाहती थी। इसके बाद वोडाफोन ने निर्वाण फिल्म्स को इस तरह का कोई ऐड बनाने को कहा और जूजू का कॉन्सेप्ट भी हिट कर गया।
क्या है वोडाफोन का प्लान?वोडाफोन आईपीएल सीरीज के दौरान 30 अलग-अलग तरह के जूजू ऐड पेश कराना चाहती है। हर ऐड कंपनी की किसी न किसी वैल्यू ऐडेड सर्विस को प्रमोट करने के लिए होगा।

शुक्रवार, 22 मई 2009

पाइरसी का मुफ्त इलाज



आशीष पांडे

म्यूजिक पाइरसी को रोकने के लिए नया फंडा सामने आ रहा है। जी हां, अगर चोरी नहीं रोक सकते तो मुफ्त में दीजिए, कुछ इसी फॉर्म्युले को अपना रही हैं कंपनियां। यानी आप डिवाइस खरीदिए और डाउनलोड का अधिकार फ्री में पाइए। मोबाइल फोन इंडस्ट्री की कुछ सबसे बड़ी कंपनियां (जिनमें नोकिया भी शामिल है) जल्द ही इस तरह के पैकिज का ऐलान करने वाली हैं, लेकिन भारत में इसकी धमाकेदार शुरुआत वर्जिन मोबाइल ने कर दी है। आप वर्जिन का हैंडसेट खरीदेंगे तो एक लाख गानों के ऑनलाइन स्टोर के दरवाजे आपके लिए खुल जाएंगे। एक साल तक आप यहां से देसी-विदेशी कोई भी गाना डाउनलोड कर सकते हैं, बिल्कुल मुफ्त। वी-बाइट्स (वर्जिन मोबाइल डेटा पोर्टल) से फुल लेंग्थ गाना डाउनलोड करने के लिए फोन पर एक हॉट-की दी गई है। करीब सवा चार हजार रुपये के फोन पर आपको एक जीबी का कार्ड मिलेगा यानी खूब गाने स्टोर कीजिए।
क्या है फंडा
आपको फ्री में पैकिज देने के लिए म्यूजिक कंपनियां पैकिज प्रवाइडर्स के साथ आगे भी इस तरह की डील करेंगी। ऐसा वे गानों की पाइरसि रोकने के लिए करेंगी। इस वजह से इस पैकिज में मिलनेवाले मुफ्त गाने डीएमआर (डिजिटल म्यूजिक राइट) प्रोटेक्टेट होंगे। यानी इन गानों को आप अपने हैंडसेट पर लोड तो कर सकते हैं लेकिन दोस्तों को आगे फॉरवर्ड नहीं कर पाएंगे। इसी तरह, कार्ड से गाने को अपने पीसी में भी नहीं डाल पाएंगे। यानी मुफ्त का माल सिर्फ आपके लिए, आगे बांटने के लिए नहीं।
किसके लिए फायदेमंद
म्यूजिक अब सीडी से निकलकर फाइल्स में आ गया है। मोबाइल फोन और डिजिटल प्लेयर ने इसे काफी हद तक बदला है। ऑनलाइन स्टोर या दूसरी जगहों से पूरा गाना डाउनलोड करने पर 30-40 रुपये तक देने पड़ते थे या फिर दूसरा रास्ता होता था मुफ्त में गाना देने वाली पाइरटेड साइट्स का। ऐसे में फ्री का यह फंडा आज के यूथ को गिल्ट-फ्री मजा दे सकता है। आनेवाले वक्त में अगर नोकिया जैसे बड़े प्लेयर इस रास्ते पर नजर आएंगे तो पाइरसि पर काफी हद तक लगाम कसी जा सकेगी।
टीवी में एलईडी की चमक
एलसीडी और प्लाज्मा अब गुजरे दौर की बात हुई। ड्रॉइंगरूम में रखा टीवी सेट अगर आपके लिए स्टेटस सिंबल है तो एलईडी टीवी खरीदें। भारत में सैमसंग ने सबसे पहले एलईडी टीवी सेट की रेंज उतारी है और माना जा रहा है। एलईडी एक तरह से अडवांस्ड एलसीडी टीवी है। अंतर बस इतना है कि एलसीडी टीवी में बैकलाइट के लिए फ्लोरसंट लैंप इस्तेमाल किया जाता है, जबकि एलईडी टीवी में लाइट एमिटिंग डायोड। टीवी में बैकलाइट की वजह से ही आपको तस्वीर दिखती है। इंडस्ट्री का अनुमान है कि 2012 तक एलईडी का मार्किट शेयर 12 फीसदी तक हो सकता है।
क्या है नया
एलईडी टेक्नॉलजी ज्यादा स्मार्ट और इको फ्रेंडली है। एलईडी से ज्यादा ब्राइट पिक्चर आती है। इसके अलावा टीवी सेट की मोटाई भी महज दो इंच तक समेटी जा सकती है। एलसीडी और प्लाज्मा टीवी के मुकाबले एलईडी में बिजली की खपत कम होती है और यह गर्म भी कम होता है। इनमें मरकरी का भी इस्तेमाल नहीं होता।
क्या है भविष्य
फिलहाल तो एलईडी टीवी बेहद महंगे हैं और हर किसी की पहुंच से बाहर हैं। सैमसंग की सीरीज ही 1.25 लाख से शुरू होती है। लेकिन इस फील्ड की एजंसी विट्सव्यू का अनुमान है कि आगे रेट कम होंगे। माना जा रहा है कि आनेवाले वक्त में छोटे साइज के एलईडी टीवी सेट भी आएंगे, जिनकी कीमत कम होगी।

गुरुवार, 21 मई 2009

नेताओं की सम्पत्ति में 9 हजार प्रतिशत बढ़ोत्तरी

डॉ. महेश परिमल
अभी कुछ दिनों पहले ही हम सबने अपने घर के सामने या आमसभा के मंच से अपने प्रतिनिधियों को वोट की भीख माँगते देखा था। आपने जिसे अपना कीमती वोटै दिया, क्या जीता हुआ आपका वह प्रतिनिधि इसके लिए धन्यवाद देने के लिए आपके द्वार आया? नहीं ना! आप देखते रहें, वह तो फुर्र हो गया है पूरे 5 साल के लिए। अब तो वह नहीं आने वाला। हाँ इसके बजाए, आपके पास वह हारा हुआ प्रत्याशी बार-बार आएगा और आपको उलाहने देगा। वह यही कहेगा, देख लिया अपना कीमती वोट उसे देने का नजीता। संभव है जिस पार्टी पर आपने विश्वास किया हो, उसी के प्रतिनिधि को आपने वोट दिया, पर वही आज सरकार बनाने के लिए अपना दल बदल देगा, यह तो आपने नहीं सोचा था।
यह है आज के नेताओं की वह हकीकत, जिसे हम सब जानते हैं और हर बार 5 वर्ष के लिए मूर्ख बन जाते हैं, पर क्या आपको पता है कि यही नेता आजकल इतना अधिक कमाने लगे हैं कि उनकी संपत्ति में बेशुमार वृद्धि हो रही है। जनता की सेवा से इतना अधिक लाभ! भला हो भारतीय जनता का। जो अपने साधारण से जनप्रतिनिधि को एकदम से ऊपर उठाकर इतने ऊँचे पर बिठा देती है कि वह 5 साल तक नीचे उतरता ही नहीं। आपको शायद मालूम नहीं होगा कि नेताओं की संपत्ति के बारे में हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि इनकी संपत्ति में 9 हजार प्रतिशत तक वृदधि पाई गई है। सियासत के रास्ते लक्ष्मी दर्शन का यह एक अनोखा ही वाकया है, जो केवल भारत में ही देखा जा सकता है।
भारतीय लोकतंत्र में राजनीति से बेहतर कमाई का कोई और धंधा नहीं हो सकता। यह बात उजागर हुई है पिछले पाँच सालों के दौरान सांसद रहे उन 229 नेताओं की संपत्ति के विश्लेषण से जिन्होंने इस बार दोबारा चुनाव लड़ा। नेशनल इलेक्शन वॉच के विश्लेषण में यह तथ्य सामने आए हैं। इन नेताओं ने यह ब्योरा अपने नामांकन के साथ दिए हलफनामों में दिया है। यह निष्कर्ष उनके पिछले हलफनामों का विश्लेषण करके निकाला गया है। संपत्ति में सर्वाधिक वृद्घि उत्तर प्रदेश के मोहम्मद ताहिर की रही, जो पिछले चुनाव की तुलना में इस बार 9137 फीसदी ज्यादा है। पश्चिम बंगाल की सुष्मिता बाउरी की संपत्ति में 3151.52 फीसदी, महाराष्ट्र के सुरेश गणपतराव वाघमारे की संपत्ति में 2159.64 फीसदी, उ.प्र के ही अक्षय प्रताप सिंह गोयल की संपत्ति में 1841 फीसदी और राजस्थान के सचिन पायलट की संपत्ति में 1746 फीसदी की वृद्घि केवल पिछले पाँच सालों में हुई है। फिर से चुनाव लडऩे वाले सांसदों की औसत व्यक्तिगत संपत्ति में 298 फीसदी या 2.67 करोड़ रुपए की बढ़त है।
संपत्ति में वृद्घि के मामले में पहला स्थान कर्नाटक के सांसदों का है, जो पाँच साल के भीतर पिछली बार की तुलना में औसतन 693 फीसदी अमीर हुए हैं। उ.प्र के सांसद पांच सालों में 559 फीसदी, छत्तीसगढ़ के 433, असम के 411, पं. बंगाल के 386, मणिपुर के 352, दादरा व नगर हवेली एवं झारखंड़ के 254, राजस्थान के 253, उड़ीसा के 236, मध्यप्रदेश के 221, महाराष्ट्र के 211, गुजरात के 198, आंध्र प्रदेश के 194, एनसीटी दिल्ली के 185, त्रिपुरा के 178, केरल के 144, अरूणाचल के 131, गोआ के 118, बिहार के 108, लक्षद्वीप के 37, हरियाणा के 24 और जम्मू कश्मीर के औसत सांसदों की संपत्ति में पिछले पांच सालों में औसतन 11 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गई है। कुछ सांसदों ने अपनी संपत्ति को बिना मूल्य के घोषित किया है जिसे अध्ययन में शून्य माना गया है।
आईआईएम बंगलौर के डीन प्रो. त्रिलोचन शास्त्री का कहना है कि राजनीति देश में पैसा बनाने का सबसे बड़ा जरिया बन गई है। वे कहते हैं कि यहाँ कमाई की कोई सीमा नहीं है और ये नेता किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं है। राजनीति ही एकमात्र ऐसा व्यवसाय है जिस पर मंदी की कोई मार नहीं है। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व निदेशक प्रो. जगदीश छोक्कर की टिप्पणी और ज्यादा कड़ी है। वे कहते हैैं कि इन आंकड़ों से साफ है कि ये नेता आम लोगों की सेवा के बजाए अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में लगे हैं। इन निर्वाचित प्रतिनिधियों की संपत्ति में हो रही बेतहाशा वृद्घि क्यों और कैसे हो रही है वे इसमें पारदर्शिता लाने की वकालत करते हैं। नेशनल इलैकशन वॉच के राष्ट्रीय समन्वयक अनिल कहते हैं कि जब देश की आर्थिक स्थिति निरंतर कमजोर हो रही हो तो नेताओं की संपत्तियों का आकाश छूना चिंता का विषय है। नेताओं को इस बारे में जनता को जवाब देना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि नेताओं की संपत्ति बढ़ती ही जा रही है। हर बात का दूसरा पहलू भी होता है। मजे की बात यह है कि जहाँ अधिकांश सांसदों की आय में जोरदार बढ़त दर्ज की गई है वहीं कुछ ऐसे भी सांसद हैं जो पाँच साल के कार्यकाल के बाद गरीब हो गए हैं। इनमें अधिकतम कमी कर्नाटक के एस बंगारप्पा की रही जिनकी संपत्ति में पिछले पांच साल में 79 फीसदी की कमी आई है। जम्मू कश्मीर के लाल सिंह की संपत्ति में 67.44 फीसदी और उड़ीसा के प्रसन्ना कुमार पटसनी की संपत्ति में 66.74 फीसदी की कमी आई है।
तो देखा आपने हमारे धन बटोरु नेताओं का चमत्कार। मंदी की मार से इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर वे ऐसा क्या करते हैं कि सम्पत्ति में लगातार इजाफा ही होता रहता है। क्या सचमुच जनता की सेवा करने से इतना अधिक लाभ होता है। शायद इसीलिए लोग राजनीति में आना चाहते हैं। तभी तो उन्हें वोट माँगने में भी शर्म नहीं आती, उसके बाद अपने वादों से मुकर जाना भी उन्हें अच्छी तरह से आता है। हमारे मतदाता अभी भी नहीं जागे, तो निश्चित रूप से हमारे द्वारा ही चुने गए हमारे प्रतिनिधि इस देश को रसातल में ले जाएँगे। आज दुष्यंत कुमार की पंक्ति बरबस ही याद आ रही है
हो गई है पीर पर्वत से पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।

डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 20 मई 2009

इन 10 देशों में ब्लॉगिंग 'खतरनाक'

इन 10 देशों में ब्लॉगिंग 'खतरनाक'

एएनआई
न्यू यॉर्क की एक समिति ने ब्लॉगिंग और ऑनलाइन गतिविधियों पर पाबंदी के लिहाज से 10 सबसे खराब देशों की लिस्ट जारी की है। इस लिस्ट में बर्मा यानी म्यांमार को पहले नंबर पर रखा गया है।

आइए बाकी कौन-से 9 देश शामिल हैं इस लिस्ट में...
ईरान में एक यंग ब्लॉगर की पिछले महीने जेल में मौत हो गई। ब्लॉगिंग के लिहाज से इस देश को दूसरा सबसे खराब देश बताया गया है।
सीरिया
यहां इंटरनेट कैफे मालिकों को ग्राहकों को रिपोर्ट करने का आदेश दिया गया है।
क्यूबा
इस देश में 21 ब्लॉगर्स जेल में है।
सउदीअरब
इस देश में करीब 4000 साइट्स पर सरकारी पाबंदी लगी है।
वियतनाम
में ऑनलाइन गतिविधियों पर व्यापक सरकारी सख्ती है।

ट्यूनिशिया
ट्यूनिशिया में ऑनलाइन गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण है।

चीन
चीन में भी ऑनलाइन गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण है।
तुर्कमेनिस्तान

मंगलवार, 19 मई 2009

नेताओं की भाषा करती है चरित्र उजागर


डॉ. महेश परिमल
यह हमारे लोकतांत्रिक देश के लिए कितनी शर्मनाक बात है कि चुनाव आयोग को यह कहना पड़ रहा है कि नेता अपनी जुबान पर लगाम रखें। एक तरफ जनसैलाब देखकर नेताओं के भीतर खुशी का सागर उमड़ता है, वहीं दूसरी तरफ इस खुशी के मारे उनकी जबान फिसलने लगती है। यही कारण है कि इन दिनों अखबारों और टीवी पर नेताओं की फिसलती जबान सुखर््िायाँ बनने लगी हैं। उधर चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के आचरण पर चुनाव आयोग ने खासी नाराजगी जताई है। आयोग ने सभी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय व प्रादेशिक दलों के प्रमुखों व महासचिवों को पत्र लिखकर आचार संहिता की याद दिलाते हुए इसका पालन सुनिश्चित करने को कहा है।
आयोग की सर्वाधिक नाराजगी इस बात को लेकर है कि प्रमुख पार्टियों के बड़े नेता चुनावी सभाओं में विरोधियों पर कथित रूप से न केवल गैरजरूरी और अमर्यादित टिप्पणियां कर रहे हैं, बल्कि जाति व धर्म के आधार पर भड़काऊ भाषण भी दे रहे हैं। स्थानीय रिवाजों के नाम पर खुलेआम पैसे बाँटने पर भी उसे आपत्ति है। आयोग का मानना है कि राजनेताओं का यह आचरण धीरे-धीरे परंपरा बनता जा रहा है, जो कि भविष्य के लिए चिंताजनक है। पत्र में आयोग ने सभी राजनैतिक दलों को आचार संहिता के प्रावधानों की याद दिलाते हुए कहा है कि उसे रोजाना बड़े पैमाने पर इसके उल्लंघन की शिकायतें मिल रही हैं। चुनाव प्रचार के दौरान सामाजिक वैमनस्य फैलाने की कोशिशों पर चिंता जताते हुए आयोग ने सभी दलों को सुप्रीमकोर्ट के एक फैसले का हवाला भी दिया है। आयोग ने उम्मीद जताई है कि निष्पक्ष एवं भयमुक्त चुनाव सुनिश्चित करने के लिए भविष्य में सभी राजनैतिक दल अपने प्रचार अभियान में उच्च मानदंड स्थापित करेंगे।
आजकल हमारे नेताओं की भाषा उनका असली चरित्र उजागर कर रही है। यह उनके भीतर की एक खीज है, जो शब्दों के रूप में बाहर आ रही है। कोई ऐसा मुद्दा तो है नहीं, जिससे वे आक्रामक हो सकें, इसलिए भाषा के माध्यम से वे अपने आप को महान बताने में तुले हुए हैं। उन्हें शायद नहीं मालूम कि इस तरह के संवाद केवल फिल्मों और नाटकों में ही अच्छे लगते हैं। जहाँ एक ओर फिल्म वाले राजनीति में जा रहे हैं, वहीं फिल्मों के संवाद राजनीति में आने लगे हैं। नेताओं का यह वाणी विलास उनके लिए किस तरह के खतरे पैदा कर सकता है, यह तो 16 मई को ही पता चलेगा। पहली इस तरह की भाषा केवल दूसरे या तीसरे स्तर के नेता ही प्रयुक्त करते थे, प्रथम दर्जे के नेताओं की वाणी पर नियंत्रण रहता था। वे धीर-गंभीर होकर अपनी बात कहते थे। पर अब तो प्रथम दर्जे के नेता भड़काऊ भाषण करने लगे हैं। एक तरफ विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री को कमजोर प्रधानमंत्री बताने पर तुले हुए हैं, तो वहीं मनमोहन सिंह की तरफ से भी तीखे कटाक्ष किए जा रहे हैं।
गुजरात के विधानसभा चुनाव के दौरान कांगे्रसाध्यक्ष का केवल एक वाक्य 'नरेंद्र मोदी मौत के सौदागर हैंÓ उन्हें महँगा साबित हुआ। क्योंकि नरेंद्र मोदी ने केवल इसी एक वाक्य को बार-बार सभाओं में दोहराकर लोगों से यही पूछा कि क्या मैं आपको मौत का सौदागर दिखाई देता हूँ? बस यहीं कांगे्रस मात खा गई और उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस बार फिर नरेंद्र मोदी कांगे्रस को बूढ़ी बताकर चर्चाओं में हैं। इसके जवाब में प्रियंका गांधी ने उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान पत्रकारों से पूछा- क्या मैं आपको बूढ़ी दिखाई देती हूँ? इसके जवाब में नरेंद्र मोदी ने कांगे्रस को गुडिय़ा कहा है। अब प्रियंका ने कहा है कि भाजपा के बूढ़े नेताओं को अरब सागर में डूबा देना चाहिए। क्या ऐसे लोगों के हाथों पर हम देश की सत्ता सौंपने जा रहे हैं, जो इस तरह की ओछी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं?
इस बार चुनावों में पहले से ही कांगे्रस की तरफ से सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी का नाम सुनने को मिल रहा था, अचानक मेनका गांधी के पुत्र वरुण गांधी का नाम सामने आया, जब उन्होंने एक सभा में कहा-'' इन लोगों के नाम भी खूब डरावने होते हैं, यदि आप इनके नामों को रात के समय सुनो, तो घबरा ही जाओगे। यदि कोई हिंदुओं के सामने ऊँगली उठाए या सोचे कि हिंदू कमजोर हैं, तो मैं गीता की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं वह हाथ ही काट डालूँगा।ÓÓ माफिया वाले भी इस तरह की भाषा का प्रयोग नहीं करते, जो आजकल राजनेता कर रहे हैं। वरुण गांधी के भाषण की प्रतिक्रिया स्वरूप हमारे रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने कहा कि ''यदि मैं गृहमंत्री होता, तो परिणामों की ङ्क्षचता किए बिना मुसलमानों के खिलाफ भाषण करने वाले वरुण गांधी को रोलर के नीचे कुचल डालता।ÓÓ इस बयान के खिलाफ जब पुलिस में रिपोर्ट की गई, तब लालू ने यू टर्न मारते हुए कहा था कि मेरा आशय कानून का रोलर था। इसके जवाब में राम विलास पासवान ने कहा कि 'यदि मैं रेल मंत्री होता, तो लालू प्रसाद के ऊपर टे्रन का इंजन चला देता।Ó भाजपा के इस नेता का बिहार में भले ही महत्व हो, पर राष्ट्रीय राजनीति में उनका महत्व थोड़ा कम है, इसलिए उनके इस बयान पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। सत्ता की कुर्सी पर बैठकर प्रजा की समस्याओं का समाधान करने वाले हमारे नेता अब डायलागबाजी से लोगों को भरमाकर वोट बटोरने का काम करने लगे हैं।
सभी नेता सोच-समझकर भाषण नहीं करते। कभी आवेश में आकर तो कभी हताशा के कारण उनके मुँह से कसैले शब्द फिसलने लगते हैं। उधर बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने कह दिया कि ''ये नीतिश कुमार कौन हैं? नीतिश कुमार (डाकू) लल्लन सिंह का साला है।ÓÓ हमेशा संयत वाणी का प्रयोग करने वाली सुषमा स्वराज भी कभी-कभी असंयत हो जाती हैं। एक बार संसद में ही उन्होंने शरद पवार को ललिता पवार कहा था। अब उन्होंने लालू यादव पर कड़ा प्रहार करते हुए कहा है ''लालू प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं, वे बिहार जेल के जल्लाद बन गए हैं, इसकी उन्हें जानकारी नहीं है।ÓÓ इसके जवाब में लालू यादव ने अपने इतिहास ज्ञान को बघारते हुए कहा ''यदि सुषमा स्वराज मुझे जल्लाद कहती हैं, तो वे पूतना मौसी हैं।ÓÓ हमारे नेता इस प्रकार की बयानबाजी से ही चुनाव जीतने की आशा रखते हैं।
हमारे नेता यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आज की जनता अब गंभीर बातों पर दिलचस्पी नहीं लेती, उन्हें मजाकिया भरे शब्दों वाली भाषा अच्छी लगती है, इसलिए वे इस तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। देश की आर्थिक नीतियों या सामाजिक सुधारों पर उनके विचारों को सुनने वाला कोई नहीं है। आज भी भारतीय मतदाताओं के लिए चुनाव एक तमाशा है। जो मतदाताओं का सबसे अधिक मनोरंजन कर सके, उन्हें ही अधिक वोट मिलते हैं। शायद इसीलिए मायावती ने मेनका गांधी पर कटाक्ष करते हुए कहा ''मेनका ने वरुण तंदुरुस्त लालन-पालन किया होता, तो उसे जेल में न जाना होता।ÓÓ इसका जवाब भी मेनका ने उसी तेवर के साथ कुछ इस तरह से दिए ''मायावती माँ होती, तो माँ की वेदना समझ सकती।ÓÓ
वास्तव में हमारे नेता चुनाव को एक लोकशाही प्रक्रिया न समझते हुए इसे एक युद्ध मानते हैं। जिस तरह से युद्ध और प्रेम में 'सब चलता हैÓ की तर्ज पर किसी भी तरह से जीत हासिल करना चाहते हैं। अब उनके शब्दकोश से विचारधारा और शालीनता जैसे शब्द ही गायब हो गए हैं। उधर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे कभी कहते हैं ''मराठी माणुस को भी प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए। दूसरी ओर वे फिर कहते हैं कि किसी भी मराठी माणुस में प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत ही नहीं है।ÓÓ आखिर ये क्या है? हमारे नेता यह न भूलें कि जो प्रबुद्ध हैं, उन्होंने तो चार दिन की छुट्टी के मजे लेने के लिए घूमने जाने का मन बना लिया है। अब तो केवल दलित, गरीब, लाचार, बेबस, हरिजन और आदिवासी मतदाता ही घर पर रहेंगे, वे ही वोट डालने जाएँगे। इन हालात में किसी प्रबुद्ध और ईमानदार प्रत्याशी के चुने जाने की संभावना बहुत ही कम है। जैसे मतदाता वैसे नेता, शायद यही है भारतीय मतदाताओं की नियति।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 18 मई 2009

पिघल गई 26/11 की संवेदनाएँ


डॉ. महेश परिमल
हम सभी को याद होगा कि मुम्बई पर हुए हमले के बाद बुद्धिजीवियों में देश के नेताओं के खिलाफ काफी आक्रोश देखा गया था। लोगों ने कई तरह की रैली निकाली थी। कहीं मौन रैली, तो कहीं मोमबत्ती रैली। इस रैली में बुद्धिजीवियों ने संकल्प किया था कि देश की इज्जत को दाँव पर लगाने वाले नेताओं को सबक सिखाया जाएगा। इस माध्यम से बुद्धिजीवियों ने अपना एक स्वस्थ स्वरूप को दर्शाने की कोशिश की थी। उनके इस मौन आंदोलनों को कई लोगों ने सराहा था। तब ऐसा लग रहा था कि इस बार का चुनाव देश की दशा निर्धारित करेगा। निश्चित रूप से यह चुनाव एक मोड़ साबित होगा। पर केवल 5 महीनों में ही वह आक्रोश और सारी संवेदनाएँ मोम की तरह पिघल गई। इस बार भी चुनाव आम चुनाव की तरह रहा। धन का खुलेआम खुल्ला खेल खेला गया। आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ी, चुनाव आयोग ने इसे स्वीकारा भी और अपनी लाचारगी भी व्यक्त की। जहाँ चुनाव आयोग ही लाचार हो, तो फिर उस देश में स्वस्थ चुनाव की कल्पना ही कैसे की जा सकती है?
इस बार लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के सामने कुछ ईमानदार कहे जाने वाले लोगों ने भी अपनी किस्मत आजमाई थी। लोगों के सामने एक अवसर आया था कि लीक से हटकर चलने वालों को वोट दिया जाए और संसद में भेजा जाए। ताकि संसद और सांसद की गरिमा बनी रहे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस बार दक्षिण मुंबई से एक महिला प्रत्याशी लोगों के सामने आईं, यह हैं मीरा सान्याल। बैंकिंग के क्षेत्र में एक उच्च अधिकारी का पद सँभालने वाली मीरा सान्याल में एक सांसद बनने की पूरी योग्यता है। मायानगरी में जीने वाले लोगों को एक अवसर मिला था कि वे इतिहास रच सकें। पर शायद नेताओं के आश्वासन उन्हें इतने अधिक भाते हैं कि उनकी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बँध जाती है। मुझे या किसी को नहीं लगता है कि मीरा सान्याल जीत पाएँगी। पर मतदाता चाहते तो यह संभव हो सकता था। यही बुद्धिजीवी मतदाता, जिसने संकल्प लिया था कि देश की आबरु को नीलाम करने वाले नेताओं को इस बार सबक सिखाया जाएगा। इन्हीं उदासीन मतदाताओं के कारण ही ऐसे नेता संसद पहुँच जाते हंै, जो संसद की गरिमा को नहीं जानते। इसीलिए वे नागरिकों की अपेक्षा पर भी खरे नहीं उतर पाते। यही होता है कुछ लोग यह मानते हैं कि जो प्रत्याशी हमारे सामने हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो हमारी अपेक्षाओं को पूरा कर सके। उनकी इसी विचारधारा के कारण वे वोट नहीं देते और ऐसे लोग संसद में पहुँच जाते हैं, जिन्हें वे नहीं चाहते।
मतदान का एक छोटा सा गणित यदि आपको समझ में आ जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि ऐसा कैसे होता है कि जिसे हम हराना चाहते हैं, वह जीत क्यों जाता है? वास्तव में कुछ लोग मतदाताओं की उदासीनता का ही लाभ उठाकर संसद तक पहुँच जाते हैं। मान लो, किसी मतदान क्षेत्र में 50 प्रतिशत मतदान हुआ। इसमें कोई प्रत्याशी 40 प्रतिशत मत पाकर जीत जाता है, तो इसका आशय यही हुआ कि उस क्षेत्र के 80 प्रतिशत लोग उस जीते हुए प्रत्याशी को नहीं चाहते। फिर भी वह जीत गया। इसे मतदाताओं की उदासीनता ही कहा जाएगा कि जिसे वे नहीं चाहते, वह जीत जाता है। ये लोकतंत्र है, जिसमें जिसे 80 प्रतिशत लोग नहीं चाहते, फिर भी वह जीत की खुशियाँ मनाता है।
अक्सर होता यह है कि चुनाव के ठीक एक दिन पहले सभी दलों के कार्यकर्ता शराब की नदियाँ बहा देते हैं, इसके साथ ही नोटों की गड्डियाँ भी बाँटी जाती है। इसका मतलब यह कतई नहीं होता है, जिसने उपरोक्त दोनों सुविधाएँ प्राप्त की हैं, वह उसे उपकृत करने वाले को वोट देगा। ऐसा नहीं है, इसके पीछे का गणित यही है कि सभी दल के लोग यही चाहते हैं कि इस क्षेत्र के लोग निश्चित रूप से प्रतिस्पर्धी को वोट देंगे, तो उन्हें इतनी शराब पिलाई जाए कि दूसरे दिन वह वोट देने जाने की भी स्थिति में न हो। जितना कम मतदान, उतना ही अधिक फायदा। हर दल अपने चुनावी भाषण में यही कहता है कि अधिक से अधिक संख्या में मतदान करें। जिस दिन मतदान का आँकड़ा शत-प्रतिशत होगा, उस दिन तो निश्चित रूप से प्रलय ही आ जाएगा, क्योंकि वे सभी प्रत्याशी जो अब तक लोगों का खून चूसने का काम करते आए हैं, उनका नामो-निशान ही मिट जाएगा।
मतदान न करके लोग अपनी नाराजगी का ही इजहार करते हैं। पर यह गुस्सा जायज नहीं है। यदि सचमुच प्रत्याशियों से नाराजगी है, तो उसे वोट न देकर अपने गुस्से को बाहर निकाला जाए। हमारे लोकतंत्र में ही कहीं खामी है, जिसके तहत हमें सही प्रत्याशी चुनने का अवसर नहीं मिलता। अभी हमारे पास बेहतर विकल्प नहीं हैं। इसके लिए यही हो सकता है कि मतपत्र में एक कॉलम ऐसा भी होना चाहिए कि इसमें से कोई भी प्रत्याशी ऐसा नहीं है, जिस पर हम विश्वास कर सकें। यदि उस पर अधिक लोगों ने अपनी मुहर लगाई है, तो उस क्षेत्र के प्रत्याशी बदले जाएँ, ताकि ईमानदार लोग सामने आ सकें। अब चुनाव जीतना बलशाली लोगों का काम हो गया है। आम आदमी चुनाव में खड़ा भी नहीं हो सकता। धन और बाहुबल से चुनाव जीता जा सकता है, यह इस चुनाव से सिद्ध भी हो गया है। यही बुद्धिजीवी वर्ग है, जो सजग है, इसीलिए वह वोट नहीं देता, पर जब अच्छे अवसर सामने आते हैं, तब वह सजग नहीं हो पाता। अकसर बुद्धिजीवी क्षेत्र में ही कम मतदान क्यों होता है, यह जानने की कोशिश की कभी किसी ने? आज भले ही वे वोट न डालकर अपने को बुद्धिजीवी कहलवा लें, लेकिन भविष्य में यदि मुगालता उन्हें कहीं का नहीं रखेगा, यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 15 मई 2009

सबसे अधिक जूते लालू पर पड़े हैं........



डॉ. महेश परिमल
शीर्षक निश्चित रूप से आपको चौंका सकता है। पर सच यही है कि आज जिस तरह से लालू प्रसाद यादव बेलगाम होते जा रहे हैं, उनका व्यवहार उनकी वाणी में झलकने लगा है, उससे उनकी छवि लगातार धूमिल होती जा रही है। वैसे ये महाशय सदैव अपनी वाकपटुता के लिए जाने जाते रहे हैं। उनकी शैली ही आज उनकी दुश्मन बन गई है। लोग उन्हें सामने तो कुछ नहीं कहते, पर पीठ पीछे उनको उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वैसे चुनाव प्रचार के दौरान हर तरह के नेताओं पर जूते फेंके गए हैं, मानो जूता पहनने की वस्तु न होकर अपने आक्रोश को निकालने की वस्तु हो। यदि किसी के कहा जाए कि उसे कुछ देर के लिए यह वरदान मिल जाए कि एक निश्चित समय तक वह लोगों की ऑंखों से अदृश्य हो जाएगा, वह जो कुछ भी करेगा, किसी को दिखाई नहीं देगा, तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति अपने दुश्मन की पिटाई करना चाहेगा। गरीब होगा, तो वह किसी बैंक में जाकर काफी धन ले आएगा। लेकिन अधिकांश लोग यही चाहेंगे कि वह अपने दुश्मन की पिटाई करे और कोई देखे भी नहीं। लोग डब्ल्यूडब्ल्यूएफ शायद इसीलिए देखते हैं कि उसमें जो पिटता है, उसे देखने वाला अपने दुश्मन को देखता है और जो पीटता है, उसमें वह अपनी छबि देखता है।
मनुष्य की इसी भावना को ध्यान में रखकर एक भलेमानुस ने एक वेबसाइट तैयार की है, जिसमें कई नेताओं की तस्वीरों पर आप जूते मार सकते हैं। इस वेबसाइट को शुरू हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं और यह लगातार लोकप्रिय होते जा रही है। जानते हैं अब तक किसे सबसे अधिक जूते मारे गए हैं। जी हाँ शीर्षक तो यही बताता है। वह हैं हमारे बड़बोले लालू प्रसाद यादव। तो फिर जान लो, इस वेबसाइट का नाम। इसका नाम है (www.joote maro. com) यानी डब्ल्यूडब्ल्यू. जूते मारो डॉट कॉम। इसमें एक सुविधा यह भी है कि व्यक्ति किसी भी नेता को कितने भी जूते मार सकता है। अभी तक यह सुविधा किसी के पास नहीं थी कि जिस नेता को हम धिक्कारते हैं, उन्हें हम खुलेआम जूते मार सकते हों। वेबसाइट के माध्यम से लोगों को यह सुविधा मिल गई है। इस वेबसाइट को शुरू करने वाले से पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि इसे केवल निर्दोष मनोरंजन के लिए ही शुरू किया गया है। इसका संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं है, इसलिए इसमें सभी दलों के नेताओं की तस्वीरें हैं। आप जिसे चाहें, जूते मार सकते हैं और अपनी भड़ास निकाल सकते हैं।
जूते मारो डॉट कॉम पर नेताओं का बँटवारा तीन चरणों पर किया गया है। पहले चरण में सबसे अधिक जूते खाने वाले दस नेताओं की तस्वीरों को रखा गया है। उन्हें उनके स्कोर के मुताबिक घटते क्रम में रखा गया है। दूसरे चरण में उन दस नेताओें को रखा गया है, जिन्होंने उपरोक्त दस नेताओं से कम जूते खाए हैं। तीसरे चरण में उन नेताओं को शामिल किया गया है, जो अभी-अभी राजनीति में आए हैं। इसी में पहले चरण्ा में 11 हजार 7 सौ 32 हिट्स के साथ रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव सबसे आगे हैं। दूसरे नम्बर पर 10,655 हिट्स के साथ मनसेना के राज ठाकरे हैं। राज ठाकरे की पार्टी के प्रत्याशियों में से किेतने जीत पाएँगे, यह तो किसी को पता नहीं, पर इस जूते स्कोर में उन्होंने एक लंबा हाथ मार लिया है। जूते बटोरने में तीसरा नम्बर कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी का नम्बर आता है। इनके लिए कुल 7536 हिट्स किए गए। इसके बाद 7053 हिट्स के साथ लाल कृष्ण्ा आडवाणी, नरेंद्र मोदी 6226 हिट्स, मायावती 2770 हिट्स के साथ छठे क्रम पर आती हैं। आपको आश्चर्य होगा कि इसमें हमारे सीधे-सादे प्रधानमंत्री का कहीं कोई नाम क्यों नहीं है? सचमुच हमारे मनमोहन सिंह मन को इतना मोहते हैं कि उन्हें अधिक हिट्स नहीं मिले। उनके खाते में 2101 हिट्स ही आए हैं। इसके बाद मुलायम सिंह, करुणानिधि और सुषमा स्वराज का नम्बर आता है।
जिन दस नेताओं पर सबसे कम जूते मारे गए हैं, वे हैं भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी(341), दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित (277)। इस सूची में कई अन्य नेताओं के भी नाम हैं, इसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का समावेश होता है। जूते मारो डॉट कॉम एक खेल है, इसमें आप माउस क्लिक करके किसी भी नेता को जूते मार सकते हैं। आप जितने जूते कथित नेता को मारेंगे, उसके स्कोर में वृद्धि होती जाएगी। चुनाव के दौरान होने वाले शोर से मतदाता यदि बुरी तरह से बोर हो गए हों, उनके लिए यह साइट एक स्वस्थ मनोरंजन देगी, ऐसा कहा जा सकता है। इसे दृष्टिगत रखते हुए इंटरनेट पर आजकल राजनीति से संबध्द कुछ वेबसाइट शुरू की गई है। कई इंटरएक्टिव गेम भी शुरू किए गए हैं। इनकी संख्या करीब एक दर्जन है। इतने सारे गेम हों और उसमें हमारे लालू प्रसाद यादव न हों, ऐसा कभी हो सकता है? यह गेम खूब खेला जा रहा है। इस गेम में लालू यादव को रेलवे स्टेशन पर दिखाया गया है, जो रात की आखिरी टे्रन का इंतजार कर रहे हैं। ट्रेन आती है और छूट भी जाती है, पर लालू टे्रन पर नहीं चढ़ पाते हैं। टे्रन जा रही है, लालू दौड़ रहे हैं। टे्रने तेज होती जाती है, तो लालू की मशक्कत बढ़ जाती है। वे हिम्मत नहीं हारते। वे भी टे्रन को पकड़ने की जी-तोड़ मेहनत करते हैं। कई बाधाएँ आती हैं, लालू उनका सामना करते हैं, आखिरकार उन्हें टे्रन नहीं मिल पाती। वे चूक जाते हैं। इस गेम से यह बताने की कोशिश की गई है कि आज लालू की पार्टी की जो हालत है, उससे उससे वे प्रधानमंत्री तो नहीं बन पाएँगे, बल्कि उनसे रेल मंत्री का पद भी चूक जाएगा।
इंडिया वोटिंग डॉट कॉम नाम की एक वेबसाइट पर एक नेता गली में वोट माँगने के लिए निकलता है। वह एक मकान के पास आता है और वोट की भीख माँगता है। सभी नागरिक एक के बाद एक घर का दरवाजा खोलकर बाहर निकलते हैं और नेता की पेटी पर अपने वोट को फेंकते हैं। इससे कुछ वोट ही उसकी पेटी पर गिरते हैं। बाकी वोट पास की कचरापेटी पर गिरते हैं। कई नागरिक वोट देने के बजाए नेता को जूते मारते हैं। आखिर में नेता को भीख में मिले वोटों की गिनती होती हैं, जिसके आधार पर उन्हें पराजित माना जाता है। लोग खुशियाँ मनाते हैं। एक अन्य गेम में नेता मंच से आश्वासनों की झड़ी लगा देता है। लोग उसके आश्वासनों के आधार पर फूलमालाएँ लाकर उसे पहनाते हैं। अच्छा और ईमानदारीपूर्ण भाषण करने वाला नेता जीत जाता है।
आजकल लोग मतदान नहीं करना चाहते। मतदान का प्रतिशत लगातार गिर रहा है। इसका आशय यही हुआ कि लोग नेताओं की इात नहीं करते। सभी प्रत्याशियों के प्रति उनकी नाराजगी दिखाई देती है। इसी नाराजगी को देखते हुए इस तरह की वेबसाइट बनने लगी है, ताकि लोग अपना गुस्सा किसी तरह बाहर निकाल पाएँ। आज के नेता इसे भले ही मजाक के रूप में लें, पर इसमें लोगों की रुचि लगातार बढ़ रही है, इससे यह सिध्द हो जाता है कि अभी तो यह नाराजगी वेबसाइट पर माउस के माध्यम से निकल रही है, पर नेताओं ने यदि अपना चरित्र नहीं बदला, तो संभव है कि हर हाथ में जूता होगा और ऑंखों में होंगे अंगारे। अगर इससे बचना है तो नेताओं को अपने बारे में न सोचकर केवल देश के बारे में सोचना होगा।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 13 मई 2009

अपने होने का असर दिखाता पानी



डा. महेश परिमल
पानी ने अपने होने का असर दिखाना शुरू कर दिया है। अखबारों की सुर्खियाँ बता रही हैं कि पानी के लिए हाहाकार मचना शुरू हो गया है। अभी तो यह शुरुआत है, गली-मोहल्लों से केवल झगड़े के अब बंद हो गए हैंैं। अब तो सिर-फुटौव्वल की नौबत आ गई है। बहुत ही जल्द इसका विकराल रूप हमारे सामने होगा। पानी अभी भी हमारे लिए राशन जितना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है, लेकिन जब यही पानी पेट्रोल से भी महँगा मिलेगा, तब शायद हमें समझ में आएगा कि सचमुच यह पानी को हमारे चेहरे का पानी उतारने वाला सिद्ध हुआ।
हमारे देखते-देखते ही पानी निजी हाथों में पहुँचने लगा। पानी का निजीकरण पहले यह बात हम सपने में भी नहीं सोच पाते थे, लेकिन आज जब सड़कों के किनारे पानी की खाली बोतलें, पॉलीथीन आदि देखते हैं, तब समझ में आता है कि यह पानी तो सचमुच कितना महँगा हो रहा है। लोग तो अब यह भी कहने से नहीं चूकरहे हैं कि निश्चित ही अगला विश्वयुद्ध पानी के कारण लड़ा जाएगा। विश्व युद्ध की बात छोड़ भी दें, तो यह कहा ही जा सकता है कि पाकिस्तान से यदि युद्ध हुआ तो उसका एक प्रमुख कारण यह पानी ही होगा।
हमारे मध्यप्रदेश में पानी की कमी लगातार महसूस की जा रही है। धरती की छाती में अनेक छेद ऐसे हो गए हैं, जहाँ से पानी खींचखींचकर हमने उसे पूरी तरह से सुखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। अभी भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। यह हालत यदि आँकड़ों से देखा जाए, तो स्थिति और भी भयावह होगी। आबादी के बढ़ते दबाव के साथ-साथ भू-गर्भ जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है।
बात शुरू करते हैं ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हेडपम्पों से। मध्यप्रदेश में स्थापित तीन लाख 36 हजार 999 हेंडपम्पों में से 33 हजार 600 हेडपम्प खराब हैं। ये घोषित आँकड़ें हैं, पर अघोषित आँकड़ों के अनुसार तो सिंचाई और पेयजल के लिए जगह-जगह धरती की छाती पर छेद किए जा रहे हैं। गर्मी में तो यह सिलसिला और भी तेज हो जाता है। यही हाल देश के हर प्रदेश का है। लोग धरती से पानी निकाल तो रहे हैं, पर उसे रिचार्ज करने का कोई उपाय नहीं करना चाहते। हम कितने नाकारा हो गए हैं। धरती माता ने अपना कर्तव्य पूरा किया, पर हम अपना कर्तव्य भूल गए। लानत है हम पर, जो धरती माता के बेटे होने का दंभ भरते हैं। निश्चित रूप से धरती माँ हमें कभी माफ नहीं करेगी। हमने उसके प्यार के साथ छलावा किया है। उसका दोहन तो खूब किया, पर उसे फिर से सँवारने का काम नहीं कर पाए। आज धरती प्यासी है, वह हमें प्यासा बना रही है, पर हम अभी तक उसके संदेश को नहीं समझ पाए हैं। धरती माँ ने हम पर अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया और हमने उसे हरियाली तक नहीं दी।

हमने आज नहीं यह नहीं सोचा कि केवल बिजली के लिए हमने एक भरा-पूरा शहर हरसूद खो दिया। यानी पानी के भंडारण के लिए एक शहर दे दिया। फिर भी हमारी भूख कम नहीं हुई है, यह लगातार बढ़ रही है। आज शहरों में रोज ही धरती की छाती पर कई छेद हो रहे हैं, हमारी सरकार अब तक खामोश है। पानी उलीचने का काम हमारे प्रदेश में बखूबी होता है, लेकिन इस धरती के भीतर पानी डालने के काम में पूरा प्रदेश सुस्त है। पेड़ लगातार कट रहे हैं, ऐसे में पानी कैसे जमा हो पाएगा, यह हमने नहीं सोचा। प्रदेश में हजारों आरा मशीनें हैं, जो लगातार काम कर रहीं हैं, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पेड़ों की कटाई कितनी तेजी से हो रही है? वर्षा का पानी रोकना ही एकमात्र उपाय है, जिससे भू-गर्भ जल स्तर में बढ़ोत्तरी हो सकती है। लेकिन वर्षाजल रोकने के लिए अभी तक ऐसा कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हुख, जिसे उपलव्धि कहा जाए।
आज कोई भी पानी की गंभीरता को नहीं समझ पा रहा है। गलती इनकी नहीं, बल्कि उन लोगों की है, जिन्होंने उन्हें बताया ही नहीं कि पानी मूल्यवान है। जिन स्थानों में पानी नहीं मिलता या फिर पानी का संकट है, उनसे पूछो कि क्या होता है जल संकट? आज चाहे महानगर हो या फिर कस्बा, पानी की बरबादी हर ओर देखी जा रही है। ऐश्वर्यशाली लोग तो पानी का अपव्यय ऐसे करते हैं, मानो ये पानी उन्हें मुत में मिल रहा हो।
यह सच है कि पानी का उत्पादन कतई संभव नहीं है। कोई भी उत्पादन कार्य बिना पानी के संभव नहीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी की आवश्यकता बनी रहती है। पानी को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्षा जल को रोकना। इसे रोकने के लिए पेड़ों का होना अतिआवश्यक है। जब पेड़ ही नहीं होंगे, तब पानी जमीन पर ठहर ही नहीं पाएगा। अधिक से अधिक पेड़ों का होना याने पानी को रोककर रखना है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों ने जो विरासत के रूप में हमें नदी, नाले, तालाब और कुएँ दिए हैं, उन्हीं का रखरखाब यदि थोड़ी समझदारी के साथ हो, तो कोई कारण नहीं है कि पानी न ठहर पाए। पानी हमसे रुठ गया है। अभी तो यह धरती के 25 मीटर नीचे चला गया है, हमारी करतूतें जारी रहीं, तो यह और भी दूर चला जाएगा, इतनी दूर कि हम कितना भी चाहें, वह हमारे करीब नहीं आएगा।
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा। मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है। कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते। हाँ, मौका पडने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते। अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा। पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चैराहों पर आज आम है। संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं। हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता। हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है। पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं।
डा. महेश परिमल

सोमवार, 11 मई 2009

अब ऑंकड़ों पर टिकी,देश की दशा और दिशा

डॉ. महेश परिमल
एक बार किसी से पूछा गया कि यदि आपके सामने शेर आ जाए, तो आप क्या करेंगे? जवाब था, उस समय मेरा कोई काम नहीं है, जो कुछ करेगा, शेर करेगा। यह करारा जवाब आज के मतदाताओं पर बिलकुल सटीक बैठता है। सभी मतदाताओं ने अपनेर् कत्तव्य का निर्वाह करते हुए मतदान कर दिया। अब उनके हाथ में कुछ भी नहीं है, अब जो कुछ भी होगा, वे विजयी प्रत्याशी करेंगे। मतदान यज्ञ पूर्ण हो गया, अब सभी हार-जीत के समीकरण में उलझ गए हैं। अब ऑंकड़े ही इस देश की दिशा और दशा तय करेंगे। कई अपनी थकान उतार रहे हैं, तो कई भक्ति में लग गए हैं। अब उन्हें मतदाताओं की कोई चिंता नहीं है। भविष्य का फैसला लोगों ने इवीएम मशीन में कैद कर दिया है। कई दिग्गजों के भाग्य का फैसला अब 16 मई को ही होगा।
यदि भारतीय मतदाताओं का दुर्भाग्य है कि जब-तक उनके पास मत देने का अधिकार रहता है, तब तक सभी दलों के नेता उसके आगे-पीछे घूमते हैं। जैसे ही वह अपने इस अधिकार को इस्तेमाल करता है, वैसे ही उससे वह अधिकार पूरे 5 वर्ष तक छीन जाता है। अब नेताओें के आगे-पीछे घूमने की बारी उसकी होती है। बहुत ही मूर्ख है भारतीय मतदाता, नेताओं के आश्वासनों पर वह इतना अधिक विश्वास करने लगता है कि अपने पास रखा एकमात्र अधिकार उसे सौंपने में देर नहीं करता। उसके बाद तो उसे कोई नहीं पूछता। ये नेता भी आम आदमी की समस्याओं पर चुनाव के पहले खूब बोलते हैं, पर चुनाव के बाद उन्हें इतना भी वक्त नहीं मिलता कि वे आम आदमी की समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक कुछ सोच सकें। सचमुच बहुत अभागे हैं हमारे नेता, इन्हें भी समय नहीं मिलता कि आम आदमी की समस्याओं पर कुछ सोच सकें। क्यों सोचें? चुनाव जीतने के बाद ये आम आदमी कहाँ रह जाते हैं। ये तो वीआईपी हो जाते हैं। सच यही है कि आम आदमी के बारे में आम आदमी ही सोचता है, वीआईपी नहीं। जिसने चुनाव जीता, वह तो अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर सोचेगा। उसके सामने क्या औकात है आम आदमी की?
नेताओं के पास यह भी सोचने का समय नहीं है कि आखिर मतदान का प्रतिशत लगातार क्यों गिर रहा है? मात्र 50 से 55 प्रतिशत मतदान पर ही पूरा गणित टिका है। क्या बाकी के मतदाता जागरुक नहीं हैं? क्या इन्हें अपनेर् कत्तव्यों का अहसास नहीं है? शेष मतदाता यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आज जो भी हमारे सामने हमारा सच्चा प्रतिनिधि होने का दावा करने वाला, हमारे दरवाजे पर वोट की भीख माँगने वाला याचक आया है, वह पूरी तरह से मायावी है। वह छल कर रहा है। उसका सच्चा स्वरूप तो संसद में देखा जा सकता है, जहाँ उसे बोलना होता है, वहाँ वह नहीं बोलता, इसके अलावा जहाँ उसे नहीं बोलना होता है, वहाँ वह इतना अधिक बोलता है कि उसे मार्शल द्वारा धक्के देकर बाहर निकालना पड़ता है। वोट देते समय हमने ऐसे किसी प्रतिनिधि की कल्पना नहीं की थी। फिर यह कौन आ गया, हमारे विचारों को खंडित करने वाला?
इधर कांग्रेस कितना भी गरज ले, लेकिन वह भी भीतर ही भीतर विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है। उधर भाजपा भी कितना भी दावा कर ले कि वह अपने बल पर सरकार बना लेगी, उसका भी दावा खोखला साबित होने वाला है। अब तो यह तय है कि बिना किसी तालमेल या खरीद-फरोख्त के सरकार बनाई ही नहीं जा सकती। अन्य दलों के दावे भी खोखले सिद्ध होंगे, यह तय है। इस बार मतदाता ने किसी लहर में आकर अपना वोट नहीं दिया है। अब उसे अपने वोट का महत्व समझ में आने लगा है। कई बार मतदाता भी सोचने लगता है कि उसके पास कोई भी बेहतर विकल्प नहीं है। उसे साँपनाथ-नागनाथ में से किसी एक को चुनना है। दोनों ही स्थितियों में फजीहत मतदाता की ही होनी है, इसलिए न चाहते हुए भी उसे उस व्यक्ति को वोट देना पड़ता है, जो कम बेईमान है। वैसे बेईमानी को उसके पास कोई मापदंड नहीं है। आज उसे जो कम बेईमान लग रहा है, कल वही उसे सबसे बड़ा बेईमान दिखाई देने लगेगा। इसलिए अब वह किसी एक दल पर भरोसा नहीं करता। अब वही मतदाता कुछ-कुछ जातिवाद से भी ऊपर उठने लगा है। अपने अधिकार के प्रति वह कुछ और सजग होने लगा है। फिर भी वह पूरी तरह से सजग नहीं है। उसकी सजगता अभी तो नहीं, पर भविष्य में अपना असर दिखाएगी, यह तय है।
अभी यह माना जा रहा है कि इस बार मतदान करने वाले दस प्रतिशत बढ़े हैं, इसका आशय यही हुआ कि इस बार युवाओं ने अपनी सक्रियता दर्शाई है। मतदान के दिन घर में ही घुसे रहने वाला युवाओं ने इस बार बाहर निकलकर अपनी ताकत का खुलासा किया है। अभी भी युवा इस दिशा में पूरी तरह सचेत नहीं हुआ है, पर यही युवा इसी तरह अपनी सक्रियता दिखाए, तो वह दिन दूर नहीं, जब चुनाव से अपराधियों का पूरी तरह से सफाया ही हो जाए। प्रत्याशियों ने भी इस बार मतदाताओं को जगाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए हैं। टीवी के माध्यम से बार-बार मतदाताओं को विभिन्न दलों ने अपनी उपलब्धियों का बखान किया है। कहीं-कहीं एसएमएस का भी इस्तेमाल किया गया। यही नहीं इस बार तो विभिन्न शहरों में चल रहे एफएम रेडियो के माध्यम से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की गई है। हिंदी के विशेषज्ञों से लिखवाए गए कई स्लोगनों ने युवाओं को आकर्षित किया। कई दलों ने डिस्काउंट कूपनों का सहारा लिया। कई स्थानों पर युवाओं ने नेताओं पर अपना गुस्सा भी जाहिर किया।
जिन स्थानों पर नेताओं के खिलाफ युवाओं ने अपनी नाराजगी दिखाई, वह एक संकेत है, नेताओं के लिए, जिसे समझने की आवश्यकता है। यदि नेताओं ने इसे नजरअंदाज किया, तो इसका परिणाम भी भुगतने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा। यह पीढ़ी और अधिक आक्रामक भी हो सकती है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मतदान के प्रति लोगों में अब रुझान बढ़ रहा है। अब नेताओं के झूठे और कोरे आश्वासनों से जनता मानने वाली नहीं है, उन्हें चाहिए ठोस प्रत्याशी, जो न केवल उन्हें सुरक्षा दे, बल्कि उनकी समस्याओं को गंभीरता से ले। केवल अपना घर भरने वाले सांसदों को अच्छा सबक सिखा चुकी है, यह जनता। बस इंतजार करें 16 मई का......
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 9 मई 2009

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार...


निदा फ़ाज़ली
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार...
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार

लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौल्वी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मेरे के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम

सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूका रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप

सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता वाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ग़्यान


माँ को समर्पित meri dusari कविता ...........................

माँ ममता का आँचल है
माँ आँखों का काजल है
माँ श्रद्धा की चुनर है
माँ ममता की मूरत है
माँ करुणा का सागर है
माँ गागर मे सागर है
माँ सुंदर सी मूरत है
माँ भोली सी सूरत है
माँ माथे की बिदियाँ है
माँ आँखों की निदियाँ है
माँ हाथो का कंगन है
माँ मस्तक का चंदन है
माँ भोर की रौशनी है
माँ रात की चांदनी है
माँ गंगा का पानी है
माँ पतित पावनी है
माँ संकट हरनी है
माँ करुणा की जननी है
माँ हर छन हर मन मे है
माँ धरती के कण - कण मे है

चक्रेश जैन
आगरा
9897596109





माँ…
निदा फ़ाज़ली

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी माँ

चिड़ियों के चहकार में गुँजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा,माथा,
आँखें जाने कहाँ गई
फटे पूराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
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कानों में गुनगुनातीं हैं वो माँ की लोरियाँ।
बचपन में ले के जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

लग जाये जो कभी किसी अनजान सी नज़र,
नजरें उतार जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

भटकें जो राह हमारा कभी अपनों के साथ से,
आके हमें मिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

हो ग़मज़दा जो दिल कभी करता है याद जब,
हमको बड़ा हँसाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

अफ़्सुर्दगी कभी हो या तनहाई हो कभी,
अहसास कुछ दिलाती है वो माँ की लोरियाँ।

पलकों पे हाथ फ़ेरके ख़्वाबों में ले गइ,
मीठा-मधुर गाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

दुनिया के ग़म को पी के जो हम आज थक गये,
अमृत हमें पिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

माँ ही हमारी राहगीर ज़िंदगी की है,
जीना वही सिखाती है वो माँ की लोरियाँ।

अय “राज़” माँ ही एक है दुनिया में ऐसा नाम,
धड़कन में जो समाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
रज़िया “राज़”

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माँ


माँ होती है प्यारी
खुशियाँ देती सारी
लोरियाँ सुनाती है
गोद में सुलाती है
रूठो तो मनाती है
रोओ तो बहलाती है
माँ को नही सताएँगे
हम दूध-मलाई खाएँगे
माँ जो रूठी यह जग रूठा
माँ ही सच्ची सब जग झूठा

**********************



माँ, मेरी माँ,

मेरी बिनपढी माँ,
तमाम विज्ञापनो
और नारीवादी नारों से दूर
सहज ही चूम लेती है
मेरे बच्चों का मुँह
हिलाती-दुलारती है
भावावेश में बार-बार
तान देती है, आँचल का बादल
सूरज देवता की नज़र न लगे
बच्चों के गालों पर काला टीका लगाती है
भोजपत्र और भालूदाँत वाली ताबीज़ बाँधकर
टोना टोटका से बचाती है
हजार यत्न करती है, बच्चों को हँसाने के लिए
थपकियों की जादू से, सुला देती है बच्चों को
अपनी गँवई बोली में / कुछ भी गुनगुनाकर
बच्चों के रूठने पर समझाती है -
" अन्न का अपमान नही करते बेटा,
नाराज़ होती है अन्नपूर्णा माई। ''
सौ-सौ बलाएँ लेती हैं, सिसक उठती है
मुझे और बच्चों को दूर होते देखकर
भभाकर रो देती है
माँ जो सदा माँ होती है।

डॉ. नंदन


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माँ मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ

कई बार मै सोचता हूँ
की मै तुमसे कहूं -
की माँ मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ
पर मै तुमसे कभी तो नही
कह पाता हूँ ।
और शब्दों से शायद
मै कह भी नही पाऊंगा ,
शब्दों में सामर्थ्य ही नही है
भावों को व्यक्त कर पाने की ।
पर मै जब भी अकेला
भावों में डूबा
तेरे आशीष , ममता
और स्नेह की गर्माहट
को महसूस करता हूँ ,
तब न जाने कब
दो बूँद मोटी
पलकों से टपक जाते है
और वो ही कर पाते है
मेरे भावों को व्यक्त ,
और वो कहते है -
की "माँ " , मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ ।
देवेश
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माँ के चेहरे पर

दु;खों के जंगल रहते हैं

फिर भी उसके आँचल में

सुख की

घनी छाया
किलकती है।
माँ की पथरायी आँखों में अब
न सागर लहराते हैं न सपने ।
सभ्यता की धूसरित दीवार से टँगी
वह एक जीवित तस्वीर है केवल
जहाँ तुम्हारे शब्दों से अलग
इतिहास के पन्ने फड़फडा़ते हैं
तुम्हें आगाह करते कि
माँ पृथ्वी है घूमती हुई
अँधेरे को उजास में बदलती हुई
जिसकी गुफ़ाओं में एक सूर्य उदीयमान है
रोम-रोम में जीवन की जोत जगाता हुआ,
तुम्हारे शब्दों और भाषाओं की गहरी
काली रात हरता हुआ ।
सुशील कुमार

शुक्रवार, 8 मई 2009

सोने के पिंजरे में छटपटाती व्योमबालाएँ


डॉ. महेश परिमल
व्योमबाला, हवाई परी यानी एयर होस्टेस, भला किस युवती की चाहत नहीं होती होगी कि वह एयर होस्टेस बने और देश-विदेश की सैर करे। आकाशीय मार्ग पर विचरना एक आल्हादकारी सपना है। इस सपने को पूरा करती हैं, अपनी मुस्कानें बिखेरकर देश की व्योमबालाएँ। विमान यात्री अपनी पूरी यात्रा भूल सकता है, पर विमान परिचारिका की मुस्कान उसे जिंदगीभर याद रहती है। यही मुस्कान उनके जीवन का अभिन्न अंग है। उसकी नौकरी का सबसे आवश्यक उपादान, प्यारी सी बिंदास मुस्कान के बिना इस व्योमबाला की नौकरी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हर पालक चाहता है कि उसकी बिटिया व्योमबाला बनकर देश की सेवा करे। युवतियों का दिल भी व्योमबाल बनने की चाहत पर एक-दो बार तो धड़क ही जाता है। पर यह पालकों और युवतियों के लिए एक चेतावनी है कि यह भी एक जानलेवा नौकरी साबित हो रही है। हाल ही में कुछ एयर होस्टेस ने जिस तरह से आत्महत्या का सहारा लिया है, उससे यही लगता है कि मुस्कान बिखरने वाली इन युवतियों के जीवन की मुस्कान उनसे रुठ गई है।
मुंबई में एक महीने के दौरान दूसरी एयर होस्टेस ने आत्महत्या कर ली। वेलेंटाइन डे पर किंगफिशर एयरलाइंस में नौकरी करने वाली अनुश्री दत्ता की आत्महत्या के पीछे यही कारण बताया जा रहा है कि उस दिन वेलेंटाइन डे था और उसके प्रेमी ने उसे घूमने ले जाने के लिए मना कर दिया। इसी तरह अंधेरी में रहने वाली 20 वर्षीय अनुपमा आचार्य की आत्महत्या का कारण यह है कि उसके प्रेमी ने उसे सिगरेट पीने के लिए मना किया। इससे आवेश में आकर उसने आत्महत्या कर ली। जब इस मामले में पुलिस ने गहराई से छानबीन की, तो पता चला कि अनुपमा को अपनी नौकरी जाने का भय सता रहा था, इसलिए उसने आत्महत्या कर ली।
एयर होस्टेस की नौकरी बाहर से खूब ग्लैमरेस मानी जाती है। उनका वेतन भी किसी बड़ी कंपनी के एक्जीक्यूटिव के वेतन के बराबर होता है। जब इस नौकरी में इतनी सुख-सुविधाएँ हैं, तो फिर एयर होस्टेस आत्महत्या का सहारा क्यों लेने लगी है। अभ 18 मार्च को ही अनुपमा ने पाँचवीं मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज हमारे सामने जो हजारों व्योमबालाएँ हैं, वे सभी कहीं न कहीं किसी न किसी तनाव से ग्रस्त हैं। वैसे ेदेखा जाए, तो ऐसी कोई भी नौकरी नहीं है, जिसमें तनाव न हो। पर एयर होस्टेस जैसे ग्लैमरस नौकरी के बारे में ऐसा नहीं सोचा जा सकता। हर हँसी के पीछे कहीं न कहीं वेदना छिपी होती है। विमान यात्री व्योमबाला की मुस्कान पर इस तरह से न्योछावर हो जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि इस हँसते-मुस्कराते चेहरे के पीछे कई वेदनाएँ छिपी हुई हैं। शुरुआत में यह नौकरी बहुत ही अच्छी लगती है। नए-नए शहर देखना, रोज ही नए-नए लोगों से मुलाकात होना, परिचय का दायरा बढऩा आदि सब कुछ बहुत ही अच्छा लगता है। बस एक दो साल बाद ही इस नौकरी में तनाव आना शुरू हो जाता है। रात्रि जागरण, परिजनों से दूर, भोजन की अनियमितता, अमीर यात्रियों के नखरों के बाद भी मुस्कान बिखेरते रहना, पुरुषों की पैनी निगाहों का सामना करना आदि ये सब तनाव को जन्म देने वाले कारक बन जाते हैं।
एयर होस्टेस की नौकरी ऐसी होती है कि इसमें कई दिनों तक घर से बाहर रहने, परिजनों से दूर रहने की स्थितियाँ आती हैं। इनका काफी वक्त पायलट साथियों के साथ गुजरता है। अनजाने शहरों में उनके रहने की व्यवस्था एक ही होटल में की जाती है, इससे ये इनके प्रेम में पड़ जाती हैं। इसके अलावा एयर होस्टेस की सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि उसका वजन नहीं बढऩे पाए। कहीं उसका फिगर बिगड़ गया, तो नौकरी जाएगी ही, नहीं तो संभव है उसे किसी अन्य काम पर लगा दिया जाए, जहाँ वेतन बहुत ही कम होता है। इसके साथ ही यदि किसी एयर होस्टेस ने शादी कर ली, तो उसे लूप लाइन में डाल दिया जाता है। इसलिए ये या तो शादी नहीं करती, या फिर शादी की बात को छिपाकर रखती हैं। इस दौरान भी वह अकसर बाहर रहती है, जहाँ उनका कई पुरुषों से मिलना होता है, इससे उनके दाम्पत्य जीवन में भी दरार आ जाती है।
एविएशन उद्योग में काम करने वाले लोग कहते हैं कि इस क्षेत्र में विवाहेत्तर संबंध खूब फलते-फूलते हैं। जो महिला अपने पति के साथ सुखी दाम्पत्य जीवन बिताना चाहती है, उसे कभी एयर होस्टेस नहीं बनना चाहिए। यदि कोई अविवाहित एयर होस्टेस अपने सहकर्मी पायलट के प्रेम में पड़ जाती है,पर उसके साथ शादी करना आसान नहीं होता। ये पायलट या तो विवाहित होते हैं, या फिर उनके संबंध अन्य एयर होस्टेस से भी होते हैं। इसके बाद भी यदि उनकी शादी हो जाती है, तो उनके सफल दाम्पत्य जीवन की कोई गारंटी नहीं होती। जिस युवती ने अपना दाम्पत्य जीवन अपने इस कैरियर में होम कर दिया,वही सफल मानी जाती है।
मुंबई के मनोचिकित्सकों के पास इलाज के लिए आने वाले मनोरोगियों में एयर होस्टेस की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे ही एक क्लिनिक में आई एक व्योमबाला ने बताया कि जब से उसने विमान में प्रवेश किया है, तब से वह इतनी दु:खी है कि वह जी-भरकर रोना चाहती थी, पर कहीं आई लाइनर बिगड़ न जाए, इस भय से वह ठीक से रो भी नहीं पाती है। ये नौकरी ऐसी है, जो एयर होस्टेस को जी भरकर रोने भी नहीं देती। कितनी विवशता है, इस नौकरी में। अपनी तमाम भावनाओं को छिपाकर केवल मुस्कान बिखेरने का काम करने वाली ये एयर होस्टेस आखिर क्या करे? इसी तनाव में आकर वह छोटी उम्र में ही व्यसनों का सहारा लेने लगती हैं। मन की व्यथा छिपाने का इससे बड़ा साधन और क्या हो सकता है भला?
एयर होस्टेस की नौकरी में नींद के घंटे तय नहीं होते। इसका पूरा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। स्वास्थ्य बिगड़ा कि बाहर का सौंदर्य भी बिगड़ा। इसे छिपाने के लिए फिर मेकअप का सहारा लेना पड़ता है। डिपे्रशन से बचने के लिए वे अधिक भोजन करना शुरू कर देती हैं, इससे उनका वजन बढऩे लगता है और फिगर बिगडऩे लगता है। इसे सँभालने के लिए डायटिंग करनी पड़ती है। परेशानियाँ इतने पर ही खत्म नहीं होती। नारी के लिए प्रकृति ने 5 दिन ऐसे दिए हैं, जिस दौरान वह आराम कर सकती हैं। जी हाँ मासिक स्राव के दौरान भी इन एयर होस्टस को अवकाश नहीं मिलता। ये नौकरी सोने के पिंजरे की तरह है। इसमें कैद होकर आज व्योमबालाएँ छटपटा रही हैं। अनुपमा की मौत ने इस नौकरी के कई ऐसे पहलुओं को सामने लाया है, जो पालकों एवं युवतियों के लिए एक चुनौती है। यदि कोई युवती एयर होस्टेस की नौकरी को अपना कैरियर बनाना चाहती है, तो उसे इस नौकरी के अन्य पहलुओं के बारे में अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए। हाँ यदि आज की युवतियाँ तलवार की तीखी धार पर चलना चाहती हैं, तो आगे बढ़कर वे इस परंपरा को तोडऩे में वे अहम भूमिका निभा सकती हैं।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 7 मई 2009

खो गई खुशबुओं की दुनिया



डॉ. महेश परिमल
आज आपको ले चलते हैं खुशबुओं की अनोखी दुनिया में, जिसे देखा तो नहीं जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता, हाँ, केवल महसूस किया जा सकता है। महसूस भी ऐसा कि दिलो-दिमाग दोनों ही ताजगी से लबरेज़ हो जाए। इतिहास में झाँककर देखें, तो खुशबुओं के इस खजाने को हम मुगल कालीन सभ्यता की विरासत के रूप में अपनी ही हथेली पर महसूस करेंगे। यादों में रूई का फाहा जब भी कानों से बाहर आएगा, तो खुशबु ही खुशबू बिखेर देगा। इतिहासकार कहते हैं कि मलिका मुमताज बेगम स्नान के समय अपने हौज में गुलाब की पंखुडिय़ाँ डालती थीं। कभी वह पानी में चंदन का तेल डालकर स्नान करती थीं। गुलाब का इत्र बनाने का खयाल पहली बार उनके दिमाग में आया। आज जहाँ चारों ओर ग्लोबल वार्मिग के कारण वातावरण गर्म हो रहा है, हवा में कार्बन डाईऑक्साइड का अनुपात बढ़ रहा है, तो आज से पाँच सौ वर्ष पहले जब इस तरह की कोई बात ही नहीं थी, तब भला मुगल कालीन बेगमें इन खुशबूदार पानी से स्नान करना क्यों पसंद करती थीं? बात केवल इन बेगमों की ही नहीं है, प्राचीन काल में इजिप्त की महारानियाँ भी सुगंधित पानी में काफी समय बिताती थीं। क्या कारण होगा इसके पीछे? कभी सोचा है आपने? चलिए राजा-महाराजाओं की बात छोड़ दें। वे तो होते ही हैं शान-ए-शौकत के साथ जिंदगी जीने वाले, लेकिन साधारण से साधारण इंसान भी खुशबू को अपने जीवन का अंग बनाना चाहता है। खुशबू उसे अनोखी खुशी देती है।
कल्पना कीजिए - आपकी ऑफिस से छुट्टी है और आप फुरसत से घर में बैठे हुए हैं, ऐसे में कीचन से किसी पकवान या मनपसंद सब्जी की खुशबू आई और आपकी भूख बढ़ गई। मुँह में पानी आ गया और आप खाने के लिए लालायित हो उठे। यह होता है खुशबू का तुरंत असर! शहनाईनवाज स्व. बिस्मिल्ला खान ने अपने जीवन की एक घटना का जिक्र करते हुए कहा था, कि जब वे शहनाई बजाते थे, तो सामने की पंक्ति पर बैठे हुए कुछ शरारती बच्चे उन्हें परेशान करने के लिए उनके सामने बैठकर इमली या संतरा खाते थे। जिसे देखते ही उनके मुँह में पानी आ जाता था। मँुह का पानी से भरना अर्थात शहनाई बजाने में अवरोध आना। फूँक से बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों में यही परेशानी आती है कि उन्हें बजाते समय मुँह मेें पानी नहीं भरना चाहिए वरना सुर को बेसुरा होते देर नहीं लगती।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तो खुशबू के इस अनोखे संसार को स्वास्थ्य का प्रभावी माध्यम मानता है। हमारे स्वास्थ्य पर इसका गहरा असर पड़ता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हर इंसान के शरीर की अपनी एक अलग खुशबू होती है। कितनी बार तो इंसान को उसकी खुशबू से ही पहचाना जाता है। खुशबू में जात-पात का भेद नहीं होता। वह तो हर किसी को अपना बना लेती है। तभी तो आज खुशबू के माध्यम से कितनी ही मानसिक और शारीरिक बीमारियों का इलाज संभव हो पाया है। आज की निरंतर दौड़ती-भागती जिंदगी में व्यक्ति हाइपर टेन्शन का शिकार हो जाता है, जिसके कारण अनेक साइको-सोमेटिक बीमारियाँ उसे अपने जाल में ले लेती हैं । सुगंध चिकित्सा के द्वारा इसका समाधान संभव है। आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सकों के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक बीमारियाँ मानसिक कारणों से होती हंै। गुलाब, मोगरा, चंदन, संतरे का अर्क, जास्मिन और ब्राह्मी की सुगंध में वह अद्भुत शक्ति है, जो मानसिक तनाव को दूर कर मन को शांत करती है। यानी कि बीमारी के इलाज की शुरुआत सुगंध के साथ हो जाती है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि नगरवधुओं के साथ काम करने वाले डॉक्टरों का कहना है कि ये महिलाएँ अपनी दूरदर्शिता का उपयोग करते हुए हमेशा अपने बालों मेें मोगरे का गजरा या फूल लगाती हैं, क्योंकि उनके पास आने वालों में अधिकतर शराबी या ट्रक ड्राइवर होते हैं, जो लोग पहले से ही तनाव से घिरे होने के कारण काफी उत्तेजित होते हैं और उसमें भी नशा उन्हें और अधिक उत्तेजित कर देता है। ऐसे में मोगरे का गजरा उनके तनाव को कुछ पल में ही शांत कर देता है।
हमारे यहाँ गर्मियों में खस, गुलाब या केवड़े का शरबत पिलाया जाता है, उसके पीछे का भी कारण यही है कि यह हमारे तनाव को शांत करता है। कई लोगों की यह आदत होती है कि वे रात को सोते समय सिर में भृंगराज के तेल से मालिश करना पसंद करते हैं। जिसके कारण मस्तिष्क को शीतलता मिलती है और गाढ़ी नींद आ जाती है। नींद आना अर्थात तनाव का गायब होना, जिससे दूसरे दिन की शुरुआत ताजगी से भरी होती है। अब तो सुगंध चिकित्सा यानी अरोमा थेरेपी के सेंटर जगह-जगह खुल गए हैं और लोग इसका लाभ लेने लगे हैं। यहाँ पहुँचने वालों से वहाँ बैठे खुशबुओं के जानकार बातों ही बातों में उनसे उनकी मनपसंद चीज़ों को जान लेते हैं, फिर बाद में उनकी पसंदीदा खुशबू का प्रिस्किप्शन लिख देते हैं।
भारतीय अत्तरों में वेज के रूप में चंदन का तेल और देशी-विदेशी स्पे्र में अल्कोहल वेज के रूप में इस्तेमाल होता है। कितने तो हरी चाय की सुगंध स्फूर्ति और ताजगी देती है, तो कितनों को एक विशेष ब्रांड की कॉफी उत्तेजित करती है। सुगंध का शास्त्र में यह मानव ही तय करता है कि उसे कौन से सुगंध पसंद है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें सुगंध से एलर्जी होती है। ओशो को परफ्यूम की एलर्जी थी। उनके शिष्य इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि कोई भी उनके पास जाए, तो किसी प्रकार का स्पे्र करके नहीं जाए। यह एक अपवाद है। गाँवों में आज भी मक्खी-मच्छरों को भगाने के लिए कड़वे नीम का धुआँ किया जाता है। शाम को गूगल या लोभान का धूप किया जाता है। यह धूप वातावरण को पवित्र करने के बाद एक प्रकार की शांति देता है। भीनी-भीनी सुगंध सीधे मस्तिष्क को प्रभावित करती है। ज्ञान तंतुओं को एक प्रकार की शांति देती है।
आजकल जो एयर फ्रेशनर के नाम से स्प्रे बेचे जा रहे हैं। इनमें कई ऐसे हैं, जिसे बनाने में हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। अच्छा यही होगा कि आप जब भी इस तरह का कोई इत्र या सेंट खरीदो, तो किसी जानकार मित्र से ही खरीदो, ताकि ठग जाने की संभावना कम से कम हो। अनजाने लोगों से परफ्यूम खरीदने का मतलब यही हुआ कि धन खर्च करने के बाद भी परेशान होना। कई बार तो ऐसा होता है कि आपने कोई स्पे्र खरीदा और उसके इस्तेमाल करने के कुछ मिनट बाद ही आपको सरदर्द होने लगा, या फिर बेचैनी महसूस होने लगे, तो तुरंत सावधान हो जाएँ, यह सुगंध आपके लिए बिलकुल नहीं है। प्रकृति ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग खुशबू तय की है। जिस सुगंध से आपको सब कुछ अच्छा लगने लगे, वही आपके लिए लाभकारी है। यही खुशबू आपकी पहचान है। एक दृष्टिहीन भी आपकी खुशबू से आपको पहचान जाता है। आज अराजकता के इस युग में जहाँ बारूदी गंध चारों ओर फैली हुई है, ऐसे में हम कहाँ ढूँढ पाएँगे सुगंध का संसार....
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 2 मई 2009

नेताओं के उड़न खटोले का खर्च गरीब जनता पर



डॉ. महेश परिमल
विश्व आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। लोगों की नौकरियाँ जा रही हैं, बेरोजगारी बढ़ रही है। कई आत्महत्याएँ हो रही हैं। महँगाई बढ़ रही है। जमाखोरों के पौ-बारह हैं। व्यापारी आम जनता को लूटने में लगे हैं। उधर आम जनता की सारी समस्याओं को एक बार में खत्म करने का नारा लेकर निकले हमारे देश के नेता चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। लोगों के पास पहुँचने के लिए ये नेता लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं। उडऩ खटोले पर आए नेता को देखने-सुनने के लिए आम जनता उमड़ पड़ती है। यह भारतीय जनता है, वह यह भूल जाती है कि नेता के इस उडऩ खटोले का खर्च आज नहीं, तो कल उसकी जेब से ही निकलेगा। मंदी के इस दौर में भी इन नेताओं को आड़े नहीं आती। उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि कल यदि चुनाव जीत गए, तो पूरे खर्च सूद समेत वसूल हो जाएँगे।
इन उडऩ खटोलों पर उडऩे का गणित यदि समझ लिया जाए, तो सचमुच हमें पता चल जाएगा कि ये नेता किस तरह से अपने भाषण के माध्यम से आम जनता को भ्रमित कर रहे हैं। यूँ तो सभी राज्यों का अपना एक उडऩ खटोला है। पर उस राज्य के मुख्यमंत्री आचार संहिता के चलते उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते, पर चुनाव आयुक्त या चुनाव अधिकारी बेखौफ उस उडऩ खटोले का इस्तेमाल कर सकते हैं। नेताओं द्वारा उडऩ खटोलों के इस्तेमाल ने इस वर्ष रिकॉर्ड तोड़ा है। इस बार विमान से अधिक हेलीकाप्टर का इस्तेमाल हुआ है। अब आपको बता दें कि इसका किराया कितना है? इन हेलीकाप्टरों में दो सीटर का एक घंटे का किराया 45 हजार से एक लाख रुपए तक होता है। उसमें भी यदि डबल इंजन वाला है, तो उसका किराया 70 हजार से डेढ़ लाख रुपए होता है। इसमें चार लोग ही बैठ सकते हैं। यदि हेलीकाप्टर दिन भर के लिए लिया गया है, तो एक घंटे का 5 से दस हजार रुपए वेटिंग चार्ज लिया जाता है। यदि कहीं रात रुकना हो गया, तो 30 हजार रुपए अतिरिक्त। यदि प्राइवेट जेट किराया पर लिया जाए, तो उसका एक घंटे का किराया डेढ़ से दो लाख रुपए होता है।
हमारे देश में हेलीकाप्टर किराए पर देने वाली छोटी-बड़ी 55 कंपनियाँ हैं। इन सबके पास कुल 180 हेलीकाप्टर हैं। इसमें से कांगे्रस ने ही कुल 10 विमान और 20 हेलीकाप्टर बुक किए हैं। इसके बाद भाजपा का नम्बर आता है, जिसने 8 विमान और 10 हेलीकाप्टर बुक किए हैं। इसी तरह सपा ने एक विमान और 2 हेलीकाप्टर, जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के लिए पूरा एक हेलीकाप्टर ही बुक किया गया है। हाल ही में इन्होंने अपना हेलीकाप्टर सीधे चुनावी सभा के पास ही उतारा, जिससे काफी विवाद हुआ। वैसे विवादास्पद हरकतें और विवादास्पद बयान इनकी कमजोरी हैं। इसके अलावा प्रजा का उद्धार करने के लिए उडऩ खटोले में घूमने वाले शरद पवार, जयललिता, उद्धव ठाकरे, करुणानिधि,नवीन पटनायक, नीतिश कुमार, रामविलास पासवान, ओमर अब्दुल्ला, अजीत सिंह, ममता बनर्जी, मायावती भी हैं। जो कभी विमान से या फिर हेलीकाप्टर से आम जनता को उनकी तमाम समस्याओं का समाधान के लिए पार्टी को जिताने की अपील करते हैं।
इसके अलावा बड़े उद्योगपतियों और फाइव स्टार होटलों के पास अपने विमान और हेलीकाप्टर हैं। चुनाव के समय ये लोग अपने विमान और हेलीकाप्टर नेेेताओं को इस्तेमाल करने के लिए देते हैं। चुनाव न हों, तो नेता इनके विमान का खुलकर इस्तेमाल करते हैं। हाल ही में कांगे्रसाध्यक्ष सोनिया गांधी रिलायंस के विमान से मास्को गईं थी, तब इस पर विवाद हुआ था, अंतत: कांग्रेस को इसका किराया देना पड़ा था। इसके अलावा एक बार सोनिया गांधी ने श्रीनगर जाने के लिए वायुसेना के विमान का इस्तेमाल किया था, तब भी विवाद हुआ था। वैसे वायुसेना के विमान का उपयोग प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, गृहमंत्री, सशस्त्र सेना के प्रमुख आदि ही कर सकते हैं। इसीलिए बाद में यह स्पष्टीकरण दिया गया कि इस विमान में सोनिया जी के साथ देश के गृहमंत्री भी थे।
इस बार चुनाव में जेट विमानों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम हुआ है। फिर भी इतना तो तय है कि चुनावों में यदि केवल विमानों का खर्चा इतना अधिक है, जिससे एक छोटे से राज्य का बजट ही बन सकता है। पार्टियों को तो इसका हिसाब देना ही नहीं है, क्योंकि इस देश में राजनैतिक पार्टियों के पास धन कहाँ से आता है और कहाँ खर्च किया जाता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है, क्या इस लोकतांत्रिक देश में ऐसा संभव है? एक पान वाले को अपने सालाना आय और खर्च का हिसाब देना होता है, तो फिर इन राजनैतिक दलों से इससे क्यों दूर रखा गया है? क्या पार्टियाँ किसी तरह का व्यापार करती हैं, आखिर उनकी आय कैसे होती है? क्या यह जानने का अधिकार जनता के पास नहीं है? क्या एक जनहित याचिका लगातार आम आदमी सरकार से पूछ सकता है? सूचना का अधिकार आखिर किसलिए है? गांधीजी की आरती उतारने वाले ये नेता शायद यह भूल गए कि गांधीजी ने लोगों से मिलने के लिए ट्रेन के तीसरे दर्जे डिब्बे का इस्तेमाल किया। उसके बाद अपने भाषण से जनता को आंदोलित कर दिया। उनकी सादगी को कौन नेता याद करता है। आज ये उडऩ खटोले में बैठकर जनता के सामने आते हैं और उन्हें आश्वासनों के पहाड़ पर खड़ा करके चले जाते हैं, 5 साल के लिए।
इन उडऩ खटोलों पर बैठने के खतरे भी कम नहीं हैं। आए दिनों हेलीकाप्टर खेत पर उतारने, इमर्जेंसी लेंडिंग, हेलीकाप्टर में खराबी आदि के समाचार मिलते ही रहते हैं। माधवराव सिंधिया का देहांत इसी विमान दुर्घटना में हुआ, जब वे एक चुनावी सभा को संबोधित करने के लिए जा रहे थे। दक्षिण भारत की अभिनेत्री सौंदर्या भी जब चुनावी सभा को संबोधित करने के लिए जा रही थीं, तब उसका हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उनकी मौत हो गई। फिर भी इन नेताओं की हिम्मत तो देखो, केवल अपनी जीत के लिए अपनी जान खतरे में डालकर लगातार हवाई यात्राएँ कर रहे हैं। क्या वास्तव में इनके दिल में जनता के लिए प्यार है? क्या सचमुच ये देश के लिए समर्पित हैं? क्या वास्तव में ये यह चाहते हैं कि देश की सारी समस्याओं का समाधान हो जाए? क्या कोई निजी स्वार्थ नहीं है इनका? क्या सचमुच ये देश की भलाई के लिए गंभीर हैं? इन सभी सवालों का जवाब देश की जनता एक नई इबारत के रूप में लिख रही है, जिसका पता 16 मई को ही चलेगा। तब तक इन नेताओं से हमें ईश्वर ही बचाए।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 1 मई 2009

जूतों की महायात्रा: शास्त्रयुग से शस्त्रयुग तक

-डा. आर .रामकुमार
रामायणकाल मे शास्त्र पोषित सम्राट् राम की कहानी में एक युगान्तर तब घटित हुआ जब अयोध्या के राजा भरत ने आग्रह किया था कि आपका अधिकार है आप राजा बनें। शास्त्रीय नैतिकता और मर्यादा को कठोर व्यावहारिकता में बदल देनेवाले राम ने नियति से प्राप्त वनवास को वरेण्य मानकर भरत का आग्रह अस्वीकृत कर दिया था। तब भरत ने राम कीह खड़ाऊ मांग ली और सर पर रख्कर लौट आए। राजसिंहासन पर उन खड़ाउओं को स्थापित कर वे पगतिनिधि राज्य की भांति राजकाज देखने लगे और कुटिया में कुशों के आसन पर पतस्वी जीवन बिजाने लगे। ऐसा आदर्श और कहीं दिखाई नहीं देता कि भाग्य से प्राप्त राज्य को गर्हित मानकर उसके पारंपरिक वास्तविक अधिकारी की वस्तु मानते हुए राजा तपस्वी हो जाए। आज तो राज्य और राज्य सिंहासन के लिए मारकाट ,छीना झपटी और षड़यंत्रों की बाढ़ सी आ गई है। हालांकि भारत के महाभारत-काल में इसका सूत्रपात हो गया था। कितना अंतर है - रामकाल की उन खड़ाउओं में और आज जो फेंकी जा रही हैं उनमें।
अध्यात्म के क्षेत्र में भी गुरु की खडाऊ का पूजन भारतीय मनीषा की अपनी मौलिक साधना है। हमारे देश मंे केवल शास्त्रों की ही पूजा नहीं होती, शस्त्रों की भी होती है और शास्त्रों के निर्माणकत्र्ता गुरुओं की चरण पादुका उर्फ खड़ाऊ उर्फ जूतों की भी। संतों की परंपरा में तो जूते गांठनेवाले संत रविदास या रैदास का समादर भी इसी देश में संभव हुआ। इतना ही नहीं राजपूताने की महारानी मीरांबाई अपने राजसी वैभव को छोड़कर उनकी चरणरज लेकर संन्यासिनी हो गई।
दूसरी ओर अपने आराध्य और श्रद्धेय के जूते सर पर धारण करने वाले देश में दूसरों को जूतों की नोंक पर रखने के अहंकार-घोषणा यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई देती है। आज के घोषणापत्रों में अपने विचारों के अलावा दूसरों को जूता दिखाने की खुली गर्जनाएं गूंज रही हैं। अपने विकास कार्यक्र्रमों के बजाय देसरों के सत्यानाश की ललकारों पर उनको भविष्य दिखाई दे रहा है। श्रद्धा की चरणपादुकाएं ,खड़ाऊ या जूते आक्रोश , प्रतिहिंसा और कलुषित मनोविकारों में रूपायित हो गए। यह हमारी मानसिकता का विकास है या अधोपतन ?
इतिहास के पन्नों में संभवतः 2009 ‘जूता वर्ष’ के रूप में जाना जाए। विश्व की सबसे बड़ी ताकत के रूप में सर्वमान्य अमेरिका के निवृत्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश पर बगदाद के एक पत्रकार ने साम्राज्यवाद के विरोध में अपना जूता चलाया था। जूते या तो समाज और राजनीति में या घर और संसद में चलते रहे हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी राष्ट्राध्यक्ष पर चलनेवाला यह पहला जूता था।सारा विश्व सकते मंे आ गया। इसे आंतरिक अव्यवस्था और युद्धाक्रांत देश की, दमन के विरुद्ध अभिव्यक्ति कहा गया। ताकतवर बंदूकों के शिकंजे में दबे प्रचारतंत्र द्वारा ईजाइ किया गया सूचना और संचार का, मासकम्युनिकेशन का नया तरीका था, अपेक्षाकृत नया असत्र था। अब ‘ जूता ’ समर्थों के खिलाफ अपनी बात कहने का नया वैश्विक-उपकरण बन गया।
ऐसा नहीं है कि यह गुस्सा साम्राज्यवाद , विश्पूंजीवाद और मुद्राबाजार के एकमात्र अधिनायक रा ष्ट्र तक ही सीमित रहा। कुछ दिनों बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ पर भी उनकी आक्सफोर्ड यात्रा के दौरान फेंका गया।
सन 2009 भारत का चुनावी व र्ष भी है। दिल्ली सहित कुछ महŸवपूर्ण राज्यों की विधानसभा के चुनाव परिणामों ने लोकसभा के चुनावों को हड़बड़ा दिया है। शायद इसी का नतीजा था कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् पर चुनावी दौर की शुरुआत पर ही पत्रकार-वात्र्ता के दौरान एक पत्रकार ने जूता फेंका। वैश्विक संघटनाओं का यह भारतीयकरण था। भारत की यही विडम्बना है कि वह सर्वौत्तम का सृजन करता है और भौंडा , और वीभत्स का अनुकरण घटिया का अनुकरध करता है। पी. चिदम्बर पर फेंके गए पहले भारतीय जूते की गूंज दूर तक हुई। बुश पर जूता फेंकनेवाले बगदाददी पत्रकार का हश्र बुरा हुआ, जेल हुई। हमारी भारतीय परम्परा क्षमाशील है। ईसामसीह से हमने यह गुण लिया है। गृहमंत्री ने इसका पालन करते हुए भारतीय पत्रकार को क्षमा कर दिया और पत्रकार ने भी खेद व्यक्त करते हुए कहा: ‘‘ मेरा उद्देश्य नुकसान पहुंचाना नहीं ,ध्यानाक र्षण था। मैंने हीरो बनने के लिए यह नहीं किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किया। जबकि अकालीदल ने तो जूता फेंकनेवाले पत्रकार जरनैल सिंह को भगतसिंह की उपाधि दे दी।
फिर तो जैसे जूते चलने का मानसून ही आ गया। 8 अप्रेल गुहमंत्री पी. चिदम्बरम् पर हमला अभी हमला ताजा ही था कि 11 अप्रेल सांसद नवीन जिंदल पर एक रिटायर्ड शिक्षक ने जूता फेंका , 17 अप्रेल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित लालकृ ष्ण आडवानी पर पार्टी कार्यकत्र्ता द्वारा खड़ाª फेंकी गई , 27 अप्रेल को भारत के वत्र्तमान प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह पर एक बेरोजगार कम्प्यूटर इंजीनियर ने चप्पल फेंकी ,28 अप्रेल को दोबारा आडवानी पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चप्पल फेंकी, और आज 29 अप्रेल को कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर एक युवक नेचप्पल फेंकी। इसी बीच सिने जगत के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र पर भी एक युवक ने चप्पल फेंकी। मजे की बात यह है कि इन सबसे बेपरवाह गुजरात के कलील शहर का नगरपालिका अध्यक्ष मुकेश परमार (भाजपा) अपने कार्यदिवस का काम निपटाकर अपनी पुश्तैनी चप्पल की दूकान पर नियमित मरम्मत और चप्पल निर्माण कर रहंे हैं। मुकेश परमार के दृष्टांत से हिन्दी उर्दू के प्रख्यात लोकप्रिय लेखक कृश्नचंदर की कहानी ‘ जूता ’ का बरबस स्मरण हो आता है. यह कहानी करीब 1965-70 के आसपास उनके कहानी संकलन ‘ जामुन का पेड़ ’ में संकलित थी. हंसी-हंसी में कृश्न चंदर मर्म पर चोट करने पर कभी नहीं चूकजे थे. ‘जूता’ कहानी के माध्यम से उन्होंने समाज की बेरोजगारी , डिग्री धारियों के मोहभंग , पैसों के पीछे भागने की समाज के प्रत्येक वर्ग की मूल्य विहीन लोलुपता पर उन्होंने तीखें कटाक्ष किए हैं. कहानी का प्रारंभ जामुन के पंड़ के नीचे बैठे एक मोची के जूते गांठने के दृश्स से होती है. बातों बातों में पता चलता है कि वह मोची पीछे खडत्रे आलीशान बंगले का मालिक था. उसने समाज के लोगों के चेहरों से पर्दा उठाने के लिए सौ जूते खानेवाले को दस हजार का इनाम देने की घो षणा कर दी. तीन दिन तक समाज के हर वर्ग के लोग छुपते छुपाते आए और जूते खाकर चले गए. तीसरे दिन वह कंगाल हो गया और वही सामने मोची की दूकान खोल ली. आज अगर यह ईनाम रखा जाए तो घटनाएं बताता हैं कि दस हजार के बदले जूते खाने के लिए लोग अधिकार के साथ आएंगे. पैसा कमाने में शर्म कैसी ? खासकर उस वक्त जब जूते-चप्पल खाने में देश विदेेश मंें लोकप्रियता हासिल हो.
भारत जितना अद्भुत देश है ,उतनी अद्भुत उसकी विरासतें है। साहित्य भी अद्भुत है। आज भी जूते चप्पलॅे फेंकने की घटनाओं पर पत्रकार अगर अपनी बात कह रहे हैं तो चित्रकार अपने कार्टून बना रहे हैं , व्यंग्यकार इसे अपनी दृ िष्ट से देख रहे हैं तो प्ररूज्ञासनिक अधिकारी बतौर लेखक अपने दिशा निर्देश दे रहे हैं। जहां पी. चिदम्बरम् पर फेंके गए जूते पर पत्रकार गोकुल शर्मा ने उसे ‘लोकतंत्र की निराशाा ‘ कहा तो आडवानी पर फेंके गए खड़ाऊ और के विषय में उन्होंने चेताया कि यह भाजपा को चेतावनी है कि कार्यकत्ताओं को नजर अंदाज न करें। आलोक पुराणिक ने ‘ जूता संहिता ‘ बनाने की व्यंग्यात्मक पहल की जा पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एम एन बुच ने आक्रोश को कानून की हदें पार न करने की तरबीयत की।
एक व्यंग्य चित्रकार हैं मंजुल । उन्होंने पहले भारतीय जूता कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ‘मास कम्युनिकेशन इंस्टीट्यूट’ के छात्रों को जूता फेंकने के हुनर का अभ्यास करते हुए चित्रित किया। वहीं 25 अप्रेल को उनके कार्टून में एक नेता अपने जूतों के , अपनी पत्नी के जूतों के तथा अपने बच्चों के जूतों के नाप और नम्बर बता रहा है। हर जूता प्रकरण के बाद हमारे राजनेता निर्विकार भाव से अपनी बात जारी रखते है। यह अद्भुत समभाव राजनीति की देन है या गीता की ?
यह लेख जब तक लिखा जा रहा है ( 29 अप्रेल ) तब तक लगभग प्रतिदिन जूता किसी बड़े राजनेता पर चल रहा है।येदुरप्पा पर आज की तारीख खत्म हुई है लेकिन यह अंत नहीं है। 2009 के समाप्त होते होते , चुनाव के बाद सरकार बनते तक और सरकार बनने के बाद संसद में अभी और न जाने कितने जूते चलेंगे कौन जानता है ? इन जूतों को कौन रोक सका है जो रोकेगा ?बस केवल विश्लेषण, लेख, टिप्पणियां ,व्यंग्य ,कार्टून और कविताओं का दौर चलेगा।
यह संयोग ही है केवल कि 2003 के अप्रेल माह में विदेशों की अकादमिक यात्रा से लौटे दो भारतीय विद्वानों ने जब ‘जूतों ’ को संबोधित मेरी कविता ‘ क्रियात्मक और सर्जनात्मक’ कहा था तब मुझे कहां पता था कि 2009 के अप्रेल को हमें जूतों के इतने कारनामे सुनने पढ़ने को मिलेंगे और वर्ष 2009 ’ जूतों का अभिनंदन वर्ष ’ कहलाएगा ? 2003 की यह कविता जरा 2009 के अप्रेल में देखी जाए..
जूतों !
पहने जाते हो पैरों परं,/मगर /हाथों में देखे जाते हो
जूतों ! /सच सच बताओ /यह जुगाड़ कैसे भिड़ाते हो ?
संसद की बदल जाती हैं /संवैधानिक प्रक्रिया
चलती नहीं आचार संहिता -/जब तुम चलते हो
स्तब्ध है विराट प्रजातंत्र /और दिव्य भारतीय संस्कृति
निकृष्ट जूतों !
तुम कितने रूप बदलते हो !
आओ, तुम्हें सिर पर धारण करें .........
-डा. आर .रामकुमार

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