गुरुवार, 18 जून 2009

मुझे आधार नहीं चाहिए


भारती परिमल
ढलती दोपहर को जब माया घर पहुँची, तो घर के आसपास सन्नाटा पसरा पड़ा था। वैसे भी झुलसाने वाली गरमी में कौन सी चहल-पहल होगी। चहल-पहल तो घर के अंदर ही होगी। कई बार घर के लोगों से कहा है कि दोपहर को सो जाया करो, लेकिन नहीं कोई नहीं मानता। उनके दोपहर के आराम में अवरोध न हो, इसलिए वह घर की एक चाबी अपने पास ही रखती है और जैसे ही इंटरलॉक खोलने की कोशिश करती है, कि उसके पहले ही दीपा को दरवाजा खोलकर सामने खड़ा पाती है। माँ-बाबूजी और दीपा तीनों ही उसके इंतजार में ड्रॉईंगरूम में बैठे रहते हैं। दीपा चहकते हुए उसका स्वागत करती है। बाबूजी पेपर की ओट से उसे देखते हैं और देखने के बाद 'आ गई बेटीÓ कहते हुए फिर से निश्चिंत होकर पेपर पढऩे में लग जाते हैं। माँ उसके हाथों से पर्स और अन्य सामान ले लेती है और दो मिनट बाद उसके हाथ में पानी का गिलास थमा देती है।
आज हकीकत कुछ और थी। भीतर से कोई शोर सुनाई नहीं दिया। इंटरलॉक खोलकर ही उसे अंदर आना पड़ा। ड्रॉईंगरूम एकदम सूना पड़ा था। चहकते हुए स्वागत करने वाली दीपा कहीं दिखाई नहीं दी। बाबूजी की कुर्सी खाली पड़ी थी। माया का मन अनजानी आशंका से काँप उठा। दो दिन से बाबूजी की तबियत कुछ खराब थी। सुबह कॉलेज जाते हुए उसने डॉक्टर के पास चलने की बात कही, तो उन्होंने यह कहते हुए टाल दिया कि अब तबियत ठीक है, मगर आवाज की कमजोरी कुछ और ही कह रही थी। उसने सुबह ही तय कर लिया था कि शाम को बाबूजी कितना भी ना-नुकुर करे, वह उन्हें डॉक्टर के पास ले ही जाएगी। ड्रॉईंगरूम में पसरे सन्नाटे को देखकर वह अनजानी आशंका से घिर गई और पर्स व फाईलें लगभग फेंकते हुए बाबूजी के कमरे में दौड़ती हुई पहुँची। देखा तो बाबूजी आराम से सो रहे थे और माँ उनके सिरहाने बैठी हुई कोई किताब पढ़ रही थी। उसे देखते ही उठ खड़ी हुई और थोड़ी देर बाद चुपचाप उसके सामने एक गिलास पानी रख दिया। माँ के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं थी। माया पानी पीकर अपने कमरे में चली गई।
ड्रेस बदलकर जैसे ही बाथरूम से निकली तो दीपा को सामने खड़ा पाया। तुम कहाँ थी अब तक? प्रत्युत्तर में दीपा ने उसके हाथ में एक पत्र पकड़ा दिया और दूसरे कमरे में चली गई। माया ने महसूस किया कि रोज उसके सामने बक-बक करने वाली दीपा आज बातें करते हुए कतरा रही है।
पत्र हाथ में लेते ही भेजने वाले का नाम पढ़कर उसे आश्चर्य हुआ। जिस अध्याय को खत्म हुए पूरे दो साल बीत गए थे, उसी अध्याय का एक अंश आज पत्र के रूप में उसके सामने था। पत्र मनोज के पिताजी का था। वही मनोज जिसे लेकर उसने भविष्य के सपने सजाए थे। दो साल पहले इसी लिखावट ने उसके दिल को गुदगुदा दिया था। उसी मीठास को महसूस करते वह अतीत में पहुँच गई। उस समय पत्र उसके हाथ में ही आया था और पिताजी के कहने पर उसने ही पढ़ा था। लिखा था- कैलाश बाबू, आपकी लड़की हमें पसंद है। बस औपचारिकता ही बाकी है। लड़के के चाचा होने वाली बहू को देखना चाहते हैं, इसलिए मैं, मनोज और उसके चाचा हम तीनों ही अगले सोमवार को आपके घर आ रहे हैं।
खबर सुनकर सभी के चेहरे पर रौनक आ गई थी। दीपा तो उसे चिढ़ाती हुई बोली- दीदी, मेरे होनेवाले जीजाजी से मिलने की तैयारी कर लो, बस तीन दिन ही बाकी है। सभी लोग मेहमानों के स्वागत की तैयारी में जुट गए थे। माया ने माँ-बाबूजी और दीपा के लिए नए कपड़े खरीदे। नए परदे, कुशन, बोनचाइना के कप, सभी कुछ दो दिनों में नया आ गया। नाश्ते ओर खाने का मेनू दो बार तय करके फाड़ चुकी थी। वह सोचने लगी माँ अपनी पसंद की खीर तो बनाएगी ही। फिर मीठे में और क्या बनाया जाए? तभी दीपा बोली- दीदी, जीजाजी को अपने हाथ का बनाया लौकी का हलवा जरूर खिलाना। वो तो ऊँगलियाँ ही चाटते ही रह जाएँगे। रात को एकांत में उसने मनोज की तस्वीर निकाली और मुस्कराते हुए पूछा- क्यों डॉक्टर साहब, लौकी का हलवा खाएँगे? सागर की लहरों के समान उसके मन में भी लहरें उठने लगीं। उसने अपनी कल्पना में ही मनोज के साथ ढेरों बातें कर लीं।
निश्चित दिन को तीनों घर आए। सभी ने मिल बैठकर हँसी-मजाक के बीच बहुत सारी बातें की। नन्हीं दीपा बहुत चालाक थी। बोली - दीदी, जीजाजी को आपने अपना बगीचा तो दिखाया ही नहीं। चलो, हम उन्हें बगीचा दिखाते हैं। यह कहते हुए दोनों को ही हाथ पकड़कर बाहर ले गई। वहाँ पहुँचकर खुद किसी बहाने से चली गई। रह गए मनोज और माया। एकांत के क्षणों में मनोज ने शालीनता के साथ माया से कहा- माया, तुम्हें एक बार देख लेने के बाद भूलना मुश्किल है। वह मूर्ख ही होगा, जो तुमसे मिलने के बाद अलग होना चाहेगा। इस छोटी सी बातचीत में मनोज ने अपने मन की बात कह दी थी। जाते हुए मनोज के पिता बोले- कैलाश बाबू, हम लोग मुंबई पहुँचते ही शादी की तारीख तय कर आपको सूचना देंगे। दिन बीतते गए। सप्ताह महीने में बदल गए, पर कोई सूचना नहीं मिली। इस बीच माँ-बाबूजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें बनती-बिगड़ती। करीब तीन महीने बाद एक पत्र आया, जिसमें लिखा था- कैलाश बाबू, हमने घर-परिवार, लड़की सभी कुछ देख लिया। बातचीत भी कर ली, पर आपस में लेनदेन की बात तो की नहीं। यहाँ आने के बाद मुंबई का ही एक रिश्ता मनोज के लिए आया। वे लोग मनोज की पढ़ाई में हुआ पूरा खर्च देने के लिए तैयार हैं। सो हमने मनोज की शादी उसी परिवार में करना तय किया है। इसी महीने की 20 तारीख को शादी है। हमें खेद है कि हम आपके यहाँ रिश्ता नहीं जोड़ सके। ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी बेटी का भी रिश्ता किसी अच्छे घर में तय हो जाए।
पत्र पढ़कर तो उसके पैरों तले की जमीन ही सरक गई। एक जोरदार झटका लगा और उसकी कल्पनाओं का आकाश बेरंग हो गया। माँ-बाबूजी की खातिर उसने अपने आँसूओं को पलकों में ही कैद कर लिया। साथ ही एक निर्णय ले लिया कि अब वह कभी शादी नहीं करेगी। अब तक वह अपनी शादी के लिए धन जुटाने के प्रयास में कॉलेज की नौकरी कर रही थी और अब दीपा की शादी के लिए धन जुटाने में लग गई। कभी-कभी वह रात को तारों भरा आकाश देखकर मन ही मन कहती - क्यों डॉक्टर साहब, आप भी आ गए पैसों के लालच में और कभी भूल न पाने वाली माया को एक क्षण में ही भूल गए! इस बीच नन्हीं दीपा एकाएक बहुत बड़ी हो गई। जीजाजी के नाम से उसे छेडऩे वाली अब इस बात का ध्यान रखती कि कहीं उसके मुँह से गलती से भी ऐसी कोई बात न निकले जिससे उसकी दीदी को दुख पहुँचे।
इसी तरह दिन बितते गए। उसने स्वयं को परिस्थिति के अनुसार ढाल लिया। कॉलेज और घर के बीच ऐसा व्यस्त कर लिया कि माँ-बाबूजी जब भी उसकी शादी की बात करते वह उसे टाल जाती। वह मन ही मन शादी न करने का निर्णय तो ले चुकी थी, पर यह बात उन्हें बताकर दुखी नहीं करना चाहती थी।
आज दो साल बाद पत्र पाकर पुराना अध्याय आँखों के सामने तैर गया था। पत्र खुला हुआ था यानी पत्र पढ़ा जा चुका है और यही घर के लोगों की चुप्पी का कारण है। उसने पत्र पढ़ा और गुस्से से काँपने लगी। उसने तेज आवाज में दीपा से कहा- दीपा, मेरे हाथ में यह पत्र क्यों दिया? दीदी का ऐसा गुस्सा दीपा ने पहली बार देखा था। वह चुपचाप माँ के पास जाकर खड़ी हो गई। माया बाबूजी से बोली - बाबूजी, इसे पढ़ते ही फाड़कर क्यों नहीं फेंक दिया? वाह क्या पत्र लिखा है- कैलाश बाबू, हमने पैसों के लालच में मनोज की शादी एक अमीर घर में कर तो दी लेकिन अब बड़ी शर्म महसूस कर रहे हैं। पिछले साल नीता की प्रसव के दौरान मौत हो गई और वह अपनी निशानी एक बच्ची मनोज की गोद में छोड़ गई। मनोज दूसरी शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है। वह केवल आपकी बेटी से शादी करने के लिए ही तैयार हुआ है। हमने पता लगाया तो मालूम पड़ा कि आपकी बेटी अभी भी कुंवारी है। इसलिए हम पर उपकार कीजिए और अपनी बेटी की शादी मनोज के साथ कर दीजिए। वह इस घर की बहू बनकर मनोज और उसकी बेटी दोनों को ही संभाल लेगी। आपकी हाँ से मेरे बेटे का घर फिर से बस जाएगा।
नहीं, बाबूजी। बिलकुल नहीं। आप हाँ कह सकते हैं, पर मैं हाँ बिलकुल नहीं कह सकती। मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ। मुझे किसी भी आधार की जरूरत नहीं है।
'लेकिन बेटा.. Ó बाबूजी ने कुछ कहना चाहा, पर माया ने अपना निर्णय सुना दिया- बाबूजी, अब लेकिन की कोई गुंजाईश ही नहीं है। मैं अपने जीवन का निर्णय ले चुकी हूँ। मुझे कोई आधार नहीं चाहिए। उसके चेहरे पर स्वाभिमान का तेज था।
भारती परिमल

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