मंगलवार, 30 जून 2009

शिक्षारूपी अंधेरी गुफाओं के साथी, आज के विद्यार्थी


डॉ. महेश परिमल
स्कूल-कॉलेज खुलने के दिन करीब आ गए। इसी के साथ शुरू हो गई बच्चों और पालकों की जद्दोजहद। यह बड़े ही दु:ख की बात है कि आज की शिक्षा किसी भी रूप में बच्चों को आत्मनिर्भर नहीं बनाती, फिर भी पालक अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देने के लिए विवश है। देश में शिक्षा माफिया इतना अधिक बलशाली है कि सत्ता किसी की भी हो, इनका काम कभी नहीं रुकता। यह तंत्र बेखौफ अपना काम कर रहा है और सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। आज की शिक्षा के बोझ तले देश के मासूम कुचले जा रहे हैं, उनका भविष्य चौपट हो रहा है और सरकार तमाशा देख रही है। यह बताते हुए शर्म आती है कि सीबीएससी बोर्ड की परीक्षा में हर वर्ष 6 लाख विद्यार्थी शामिल होते हैं, इसमें से 4 हजार आत्महत्या कर लेते हैं। आत्महत्या की वजह वे स्वयं नहीं, बल्कि वे व्यवस्थाएँ हैं, जो हमारे देश को खोखला कर रही हैं। इसके अलावा जो बच्चे आत्महत्या नहीं कर पाते हैं, वे तनावग्रस्त होकर मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
मामला एक, स्थान-कोलकाता, यहाँ की एक छात्रा पिंकी ने एसएससी की परीक्षा में इतिहास के परचे में मात्र 11 अंक मिले। पिंकी के पालकों ने पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया, तो जवाब मिला कि जितने अंक दिए गए हैं, वे सही हैं। इस जवाब से पिंकी के पालक संतुष्ट नहीं हुए, क्योंकि पिंकी मेघावी छात्रा थी, उसके अंक इतने कम हो ही नहीं सकते। अब पालकों ने हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश बारिन घोष ने अपने सामने पिंकी के परचे की जाँच करवाई। उसमें पिंकी के अंक 70 हो गए।
मामला दो, स्थान कोलकाता, पिंकी के मामले से उत्साहित होकर कई पालकों ने हाईकोर्ट में आवेदन किया, इसमें फिरोज हुसैन के भूगोल में केवल 16अंक थे, जो बढ़कर 64 हो गए। एक विद्यार्थी को बंगला भाषा में केवल 0 अंक मिले थे, उसके अंक बढ़कर 47 हो गए।
मामला 3, स्थान महाराष्ट्र: यहाँ एचएससी बोर्ड की परीक्षा में निकुंज गांधी को जर्मन भाषा में 64 अंक मिले थे। उसने पुनर्मूल्यांकन करवाया, तो अंक बढ़कर 93 हो गए। केवल इसी अंक के आधार पर निकुंज विज्ञान शाखा में प्रावीण्य सूची में तीसरे स्थान पर पहुँच गया।
ये कुछ मामले हैं, जो आज की शिक्षा प्रणाली पर कई सवालिया निशान दागते हैं। कामचोर और आलसी परीक्षक, अल्पशिक्षित अध्यापक और अफसरशाही के बीच आज की शिक्षा एकदम पंगु हो गई है। इस दिशा में कई बार गंभीर प्रयास करने की घोषणा तो हुई, पर शिक्षा माफिया के दबाव में सरकार कुछ नहीं कर पाई। हमारे देश में मेकाले की शिक्षा पध्दति की शुरुआत नहीं हुई थी, तब लिखित परीक्षा का चलन नही था। विद्यार्थियों से जो परीक्षा ली जाती, उसका स्वरूप मौखिक होता। वह भी उसी शिक्षक द्वारा ली जाती, जिसने उसे पढ़ाया हो। इसके बाद भी यदि कोई बालक किसी विषय में कमजोर होता है, तो इसे बालक का दोष नहीं, बल्कि शिक्षक का दोष माना जाता। विद्यार्थी को हर विषय में होशियार बनाना शिक्षक की जिम्मेदारी होती। यही कारण है कि उस समय विद्यार्थियों को किसी प्रकार का भय नहीं रहता। वे हँसते-खेलते परीक्षा देते थे। हमारे देश में 19 सदी में होरेस मेन नाम ब्रिटिश अधिकारी ने लिखित परीक्षा की प्रणाली शुरू की थी,जो आज भी जारी है। हमारे यहाँ परीक्षा की जो पध्दति प्रचलित है, वह बिलकुल ही अवैज्ञानिक है। मान लो एक विद्यार्थी को गणित में 91 अंक मिले और दूसरे को 92, तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि जिसने 91 अंक प्राप्त किए है, वह 92 अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी से कमतर है। बिलकुल नहीं। विद्यार्थियों की प्रतिभा ऑंकने की यह प्रणाली सही नहीं है। लेकिन यह प्रणाली हमारे देश में जारी है। आज कल परीक्षा की जो प्रणाली है, वह अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने की कवायद भर है। इसी को आधार बनाकर तमाम गाइड तैयार होती है। अब बोर्ड परीक्षा में लिखित प्रश्नों की जो पध्दति होती है, उसमें विद्यार्थी के विश्लेषण करने, प्रयोग करने या समीक्षा करने की क्षमताओं की कोई कीमत नहीं होती। इसलिए विद्यार्थी केवल रट्टू तोता बनकर रह जाते हैं।
स्वतंत्रता मिलने के बाद डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। 1948-49 में इसने जो रिपोर्ट दी, उसमें शैक्षणिक रूप से किए जाने वाले सुधारों विशेषकर परीक्षा पध्दति में सुधार पर जोर दिया। इसके बाद शिक्षा में सुधार के लिए कोठारी कमीशन ने भी परीक्षा पध्दति में सुधार पर जोर दिया। 1964-66में गठित की गई कोठीरी समिति के अध्यक्ष डॉ. डी.एस. कोठारी ने एक सेमिनार में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा था कि विद्यार्थियों के ज्ञान का स्तर भी उसके अंक से ऊपर नहीं जा सकता। हमारी परीक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यही है कि यहाँ विद्यार्थी परीक्षार्थी की भूमिका में होता है और शिक्षक न्यायाधीश की भूमिका में। सच्चाई तो यह है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी की बराबर की भागीदारी होती है। कोई विद्यार्थी जब अनुत्तीर्ण होता है, तो विद्यार्थी नहीं, बल्कि उसे पढ़ाने वाला शिक्षक अनुत्तीर्ण होता है। परीक्षा का परिणाम घोषित होते ही शिक्षा की प्रक्रिया पूर्ण मानी जाती है। वास्तव में शिक्षा की यह प्रक्रिया तो परीक्षा के बाद ही शुरू होनी चाहिए। आज तो परीक्षा प्रणाली का उपयोग विद्यार्थियों के माथे पर पास-फेल की मुहर लगाने के लिए ही हो रहा है।
परीक्षा के इस चक्रव्यूह में पालक जहाँ स्कूल-कॉलेजों में धन दे-देकर परेशान हैं, वहीं विद्यार्थी पढ़ाई कर-कर परेशान हैं। दोनों के पास एक-दूसरे की समस्याओं को समझने का वक्त नहीं है। पालक बच्चे पर अधिक से अधिक अंक लाने का दबाव डालते हैं, उन्हें पता होता है कि यदि अच्छे अंक नहीं आए, तो उसका एडमिशन कॉलेज में नहीं हो पाएगा। फिर बिना कॉलेज के पढ़ाई कैसी? आज स्कूल-कॉलेज के नाम पर जो दुकानें सजी हैं, जरा एक नजर उन पर डालें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि किसी ने भी विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए स्कूल-कॉलेज नहीं खोला है। यहाँ तो केवल धन का ही बोलबाला है। जितना अधिक धन लगाओगे, उतनी ही बेहतर शिक्षा दी जाएगी। सरकारी स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं है। शिक्षा माफिया सरकार पर इस कदर हावी है कि सरकार के सारी अच्छी नीतियाँ ताक पर रह जाती हैं। कहीं कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती। एक अंधेरा, स्याह अंधेरा, जिस रास्ते पर हमारी भावी पीढ़ी को जाना है। कहाँ से लाएं वह रोशनी, जो हमारे देश के नेताओं के मस्तिष्क के स्वार्थी अंधेरे को दूर कर सके। क्या हम अपने बच्चों को इस अंधेरे रास्ते से गुजरने देंगे भला!
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बडिया जानकारी भरा आलेख है इस समस्या पर चिन्तित तो हर कोई है मगर कोशिश कोई करता है उसे उजागर करने की आपकी समाज के प्रति निष्ठा और स्म्वेदना की दाद देनी होगी बधाई

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