गुरुवार, 30 जुलाई 2009

छत्तीसगढ़ की संस्कृति


विनोद वर्मा
पांच हजार वर्षों के इतिहास में छत्तीसगढ़ का निर्माण अलग-अलग जातियों, जनों और संस्कृतियों से हुआ. कालखंडों के हिसाब से देखें तो ३५०० ईसा पूर्व ऑस्ट्रिक समूह के लोग छत्तीसगढ़ पहुंचे. यह समूह ऑस्ट्रेलिया से आया. ये लोग पूर्वी भारत से होकर यहां पहुंचे. इसके बाद यानी २५०० ई.पूर्व द्रविड़ समूह के लोग आए. ये लोग सिन्धु क्षेत्र से यहां आए थे. इतिहासकार १५०० ईसा पूर्व को आर्यों के आगमन का समय मानते हैं. इन सबने मिलकर छत्तीसगढ़ का समाज तैयार किया.
ऑस्ट्रिक व द्रविड़ समूह के जो लोग बस्तर व सरगुजा के जंगलों में रह गए वे जनजाति के रूप में वर्ग विहीन समाज में रह गए. जो मैदानी हिस्सों में पहुंच गए, वे वर्ग विभाजित समाज में आ गए. इस सभ्यता में अपनी विसंगतियां थीं, अपने विरोधाभास थे. धार्मिक या जातीय कट्टरवाद छत्तीसगढ़ की संस्कृति का हिस्सा कभी नहीं रहा. वह आमतौर पर बाहरी तत्वों को आत्मसात करने की सहज प्रवृत्ति में रहा है.
इस खुलेपन का असर संस्कृति पर साफ़ दिखाई देता है. छत्तीसगढ़ में जैसी सांस्कृतिक विविधता है वैसी कम ही जगह दिखाई देती है. एक ओर जनजातीय सांस्कृतिक विरासत है तो दूसरी ओर जनजातियों से इतर जातियों के बीच पनपी संस्कृति है. एक ओर घोटुल है तो दूसरी ओर पंडवानी है, नाचा है, रहस है और पंथी नृत्य है. कबीर से लेकर गुरुघासीदास तक की एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा भी यहीं हैं.
छत्तीसगढ़ का समाज आमतौर पर एक नाचता गाता समाज है जो अपनी ज़िम्मेदारियों को भी इसी नाच-गाने के बीच सामूहिक रुप से उठाता रहा है. गीत इस समाज के लिए जीवन का हिस्सा है और नाच किसी अनुष्ठान की तरह पवित्र कार्य.
आमतौर पर छत्तीसगढ़ में ऐसी सांस्कृतिक गतिविधियाँ कम हैं जिनमें स्त्री और पुरुषों की भागीदारी बराबरी की न हो. संकोची प्रवृत्ति के होने के बावजूद आदिवासी भी हर गतिविधि में महिलाओं की भागीदारी को बराबर बनाए रखते हैं. मैदानी इलाक़ों में स्वाभाविक रुप से थोड़ा बदलाव आया है लेकिन स्त्रियाँ अभी नेपथ्य में नहीं गई हैं. राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ में महिलाओं को लेकर ज़्यादा खुलापन है और उन्हें बराबरी के स्वाभाविक अधिकार कमोबेश मिले हुए हैं. वह घूंघट में रहने और अपनी बात न कह पाने जैसी मजबूरियों में नहीं होती.

खान-पान में ऐसी विविधता है कि आश्चर्य होता है. हालांकि ये स्वाभाविक दिखता है क्योंकि एक बड़ा हिस्सा अभी भी जंगल के इलाक़ों में रहता है. आमतौर पर चावल और चावल से बने व्यंजनों से ही जीवन चलता है.आत्मसात करने वाला समाज
लोक कलाओं व लोक परंपराओं के बीच छत्तीसगढ़ की अपनी एक अलग सांस्कृतिक छवि है. इस छवि में वह जनजातियों के बीच शहर से आने वाले प्रजातियों को आत्मसात करता रहा है. आक्रांताओंठ ने इसे बार-बार दबाया, कुचला, उसकी छवि को बदलने की कोशिश की, परन्तु छत्तीसगढ़ ने अपना विरोध अत्याचार के विरोध तक सीमित रखा. आदिवासियों के भूमकाल को छोड़ दें तो कभी इस धरती से किसी को हटाने का प्रयास नहीं किया. चाहे वे दक्षिण से आए लोग हों या उत्तर से, जो आया उसे छत्तीसगढ़ने आत्मसात कर लिया.बहुत सी जातियां तो यहां की होकर रह गईं और कुछ ने आग्रह पूर्वक अपनी पुरानी पहचान बनाई रखी. यही कारण है कि छत्तीसगढ़की परंपराओं व खान-पान का संबंध देश के कई हिस्सों से जुड़ता है.
इन सबके बीच यह ज़रुर हुआ कि छत्तीसगढ़ के लोगों में निजता का भाव कभी पैदा न हो पाया और इसके चलते वे अपनी धरती से जुड़े होने का गौरव कभी नहीं हासिल कर सके. इससे वे अपने आपको शोषण का शिकार पाते रहे और उनमें हीनता की भावना आ गई. छत्तीसगढ़राज्य का आंदोलन जितनी बार उभरा चाहे वो 1967 हो या 1999 हर बार यह “छत्तीसगढ़िया” और “गैर-छत्तीसगढ़िया” के सवाल पर अटका. आज जब छत्तीसगढ़राज्य बन चुका है यह सवाल फिर समाज के सामने मुंह बाए खड़ा है. इसके पीछे राजनीतिक समीकरण भी हैं पर यदि राजनीतिक समाज ने सामाजिक समाज के समीकरणों को बदला तो यह कोई अच्छा परिवर्तन तो नहीं ही होगा.
विनोद वर्मा

बुधवार, 29 जुलाई 2009

यह दुर्भाग्यपूर्ण है?


प्रिय साथी,
हमारे मतबल पत्रकार के अस्तित्व को कभी आंच नहीं आ सकती क्योंकि मुफलिसी
का रास्ता हमने चुन लिया है किन्तु हमारे हक पर डाका डालने का उपक्रम लगातार किया जाता रहा है। खबर छपी है
कि लवगुरु मटुकनाथ पत्रकारिता करेंगे। यह खबर मुझे ठीक नहीं लगी। जो पुराने साथी हैं उन्हें यह जरूर पता होगा कि बैंकों और टीचिंग प्रोफेशन से जुड़े लोग किस तरह पूर्णकालिक पत्रकारों के हक पर डाका डालते रहे हैं। इन्हीं मुद्दों पर मेरी टिप्पणी आपके अवलोकनार्थ प्रेषित है। संभव हैं कि आप मेरी राय से सहमत हों या न भी हो। दोनों ही सूरत में मेरे आलेख पर
अपनी टिप्पणी जरूर भेजें।
मनोज कुमार
सम्पादक
समागम मीडिया साथियों की मासिक पत्रिका
भोपाल
मो. 09300469918
अभी अभी अखबार में खबर पढ़ रहा था कि लवगुरु के नाम से ख्यातिलब्ध प्रोफेसर मटुकनाथ को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है। यह रोजनामचा की खबर थी और इसके आगे की खबर चौंकाने वाली थी कि मटुकनाथ अब पत्रकारिता करेंगे। मैं समझता हूं कि पत्रकारिता में मुझ जैसे रोज घिसने वाले पत्रकारों को यह खबर पढ़कर पीड़ा हो रही होगी कि पत्रकारिता को मटुकनाथ और उन जैसे लोगों ने सराय बना लिया है जो कहीं के नहीं हुए तो पत्रकारिता का रास्ता पकड़ लिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात मानता हूं कि पत्रकारिता के लिये न तो शिक्षा का बंधन है और न अनुभव की कोई समयसीमा। जब चाहा
पत्रकारिता का रास्ता पकड़ लिया और जब चाहा छोड़ दिया। इस मुद्दे के बरक्स मेरे दिमाग में कुछ सवाल कौंधे कि आखिर पत्रकारिता क्या है? क्या वह पेशा है अथवा मिशन? पत्रकारिता रोजगार है अथवा पेशन? पत्रकार कौन हो सकता है?
किसी भी क्षेत्र से नाकामयाब हो गये लोग या कहीं से हटाये गये लोग या फिर वो जिसने तय कर लिया है कि उसे फिकरापरस्ती मंजूर है? ये सवाल अचानक नहीं उठे हैं बल्कि पत्रकारिता की सीमा को लेकर, उसके आचरण को लेकर और उसकी मर्यादा को लेकर समय समय पर सवाल उठाया जाता रहा है और जब जरूरत होती है पत्रकारिता की छांह में अथवा उसकी आड़ में खुद को महफूज़ कर लिया जाता है।
मटुकनाथ के पत्रकारिता में प्रवेश को लेकर हमारे एक दोस्त सहमत हैं। उन्हें लगता है कि इस पर कोई बहस नहीं होनी चाहिए। वे पत्रकारिता की शिक्षा के रास्ते अखबारों से होते हुए प्रोफेसरी कर रहे हैं। शायद इसलिये वे मटुकनाथ के पत्रकारिता में आने में कोई दिक्कत नहीं देखते हैं बल्कि वे उन्हें सेलिब्रेटी की नजर से देखते हैं लेकिन पत्रकारिता को
सेलिब्रेटी की जरूरत नहीं है बल्कि एक संजीदा पत्रकार की जरूरत है जो दिल की सुनता है जो परायों के दर्द को अपना समझता है। इस दर्द को अपनाने में उसे सिर्फ और सिर्फ तकलीफ मिलती है और इस तकलीफ में भी वह खुश रहता है। मटुकनाथ क्या ऐसा दर्द झेल पाएंगे? क्या उन्हें मुफलिसी मंजूर होगी? इस सवाल का जवाब तो खुद मटुकनाथ दे सकते हैं।
एक मौजू सवाल यह भी है कि मंदी के बहाने को लेकर रोज-रोज अखबारों और टेलीविजन में छंटनी हो रही है। तनख्वाह में कटौती हो रही है। ऐसे में मटुकनाथ जैसे लोगों के आने से कुछ और साथियों के हक पर डाका नहीं डलेगा?
आप सबको यह तो पता होगा ही कि अखबारों में अंशकालिक उपसम्पादक और मैग्जीन सेक्सन में ऐसे अनेक लोग काम करते हैं जो पहले से किसी बैंक अथवा टीचिंग प्रोफेशन में हैं। ये वो लोग हैं जिन्हें पत्र प्रबंधन कम वेतन देकर रख
लेता है और वे उसे मंजूर कर लेते हैं और इससे एक प्रोफेशन जर्नलिस्ट बेरोजगार हो जाता है। यह सिलसिला अभी बंद नहीं हुआ है। बहुत सारे काबिल साथियों को अपने परिवार चलाने के लिये मारामारी करनी होती है और ये अंशकालिक लोग अपनी स्थायी नौकरी की मोटी तनख्वाह के बाद भी एक पत्रकार को बेकार रहने पर मजबूर करते हैं और ऐसे में मटुकनाथ जैसे लोगों के आने के बाद स्थिति बिगड़ेगी ही।
एक और बात। मटुकनाथ के सवाल पर तर्क यह भी दिया जाता है कि व्यवसायी से लेकर अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी पत्रकारिता में आ रहे हैं। मैं उन लोगों को बताना चाहूंगा कि वे लोग पत्रकारिता में नहीं आ रहे हैं बल्कि वे इस मीडियम में आ रहे हैं और वे मालिक हैं न कि पत्रकार। किसी अखबार पत्रिका का प्रकाशन करना अथवा टेलीविजन चैनल शुरू करने का अर्थ पत्रकारिता करना नहीं है बल्कि उस मीडियम का स्वामी बनना है।
मनोज कुमार

सोमवार, 27 जुलाई 2009

न सावन, न सावन के झूले


डॉ महेश परिमलअपनी पूरी मस्ती और शोख अदाओं के साथ सावन कब हमारे सिरहाने आकर चुपचाप खड़े हो गया, हमें पता ही नहीं चला। हमारी आँखों का सावन तो कब का सूख चुका। हाँ बिटिया कॉलेज जाने की तैयारी करते हुए कुछ गुनगुनाती है, तब लगता है, उसका सावन आ रहा है। कई आँखें हैं, जिनमें हरियाला सावन देखता हूँ, पर उससे भी अधिक सैकड़ों आँखें हैं, जिनमें सावन ने आज तक दस्तक ही नहीं दी है। उन्हें पता ही नहीं, क्या होता है और कैसा होता है सावन?
सावन कई रूपों में हमारे सामने आता है। किसान के सामने लहलहाती फसल के रूप में, व्यापारी के सामने भरे हुए अनाज के गोदामों के रूप में, अधिकारी के सामने नोटों से भरे बैग के रूप में और नेता के सामने चुनाव के पहले मतदाता के रूप में और चुनाव के बाद स्वार्थ में लिपटे धन के रूप में। सबसे अलग सावन होता है युवाओं का। प्रेयसी या प्रिय का दिख जाना ही उनके लिए सावन के दर्शन से कम नहीं होता। इनके सावन की मस्ती का म$जा तो न पूछो, तो ही अच्छा!
इस सावन को अपनी मस्ती में सराबोर देखना हो, तो किसी भी गाँव में चले जाएँ, जहांँ पेड़ों पर झूला डाले किशोरियाँ, नवयुवतियाँ या फिर महिलाएँ अनायास ही दिख जाएँगी। सावन के ये झूले मस्ती और अठखेलियों का प्रतीक होते हैं। यही झूला हम सबको मिला है माँ की बाँहों के रूप में। कभी पिता, कभी दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, भैया-भाभी या फिर दीदी की बाँहों का झूला। भला कौन भूल पाया है?
बचपन का सावन याद है आपको? मुझे याद है, मेरे सामने जातियों में बँटी देश की सामाजिक व्यवस्था के सावन का चित्र है। पूरे गाँव में आम, नीम, इमली के पेड़ों पर कई जगह झूले बाँधे जाते थे, हम सब उस पर झूलते थे। ऐसा नहीं था कि केवल किशोरियाँ या स्त्रियाँ ही झूलती हों। किशोर, अधेड़, बच्चे सभी झूलते थे। विशेष बात यह थी कि सभी जाति के लोग झूलते थे। जिस झूले पर ब्राह्मण का छोरा झूलता, उसी पर पहले या बाद में हरिजन की छोरी या छोरा भी झूलता था। एक बात अवश्य थी, सब साथ-साथ नहीं झूलते थे। जातिगत दूरी बनी ही रहती थी। यह दूरी झूले, रस्सी, पेड़ और स्थान को लेकर नहीं थी, व्यक्ति को लेकर थी। कुछ लोग हमें अपने समय पर झूलने का आनंद नहीं लेने देते थे। हम साथियों के साथ उन्हें झूलता देखते रहते। दिन में तो हमें झूुलने का अवसर कम ही मिलता। पर रात को, उस वक्त तो मैदान साफ मिलता। हम कुछ लोग रात में ही झूलते। खूब झूलते।

मुझे याद है, कुछ हरिजन छोरे भी मेरे दोस्त थे। दिन में तो झूले जातियों में बँट जाते थे, पर रात में यह दायरा हम तोड़ देते थे। उस वक्त सारे भेदभाव अंधेरे में डूब जाते। हम दो-दो या तीन-तीन दोस्त साथ-साथ झूलते। झूलने का म$जा तब तक नहीं आता, जब तक कोई लोकगीत न हो। हम बच्चे थे, लोकगीत तो याद नहीं थे, सो पाठ्यपुस्तक की कोई कविता, कोई फिल्मी गीत या फिर कबीर, रसखान, सूर-तुलसी के पद, मीरा के दोहे या फिर झाँसी की रानी के गीत ही गाने लगते। बड़ा अच्छा लगता। रात गहराती, बिजली चमकती, बादल गरजते, तो हम चुपचाप माँ के पास आकर दुबक जाते। ऐसा होता था हमारा सावन।
आज सावन बदल गया है। आने के पहले खूब तपिश देता है, अपने आगमन का विज्ञापन करता है। छतरी, बरसाती, रेनकोट, तालपत्री के रूप में। पर जब कभी यह रात में आ धमकता है, तो सारे विज्ञापन धराशायी हो जाते हैं। न तालपत्री काम आती है, न पन्नियाँ, और न ही रेनकोट। गृहस्थी की पूरी झाँकी तैरती रहती है, ढहने की तैयारी करती झोपड़ी में। सावन अमीरों के यहाँ भी आता है, पर रात में ही कुछ म$जदूर लग जाते हैं, बंगले का पानी उलीचने में। नाली खोद दी जाती है, पानी झोपड़पट्टी की तरफ जाने लगता है। रात में बिजली धोखा न दे जाए, इसलिए नया इन्वर्टर खरीदा जाता है। बच्चों के झूलने के लिए एक सीट वाला आधुनिक झूला हॉल में लगा दिया जाता है, पर इसमें वह म$जा कहाँ? जो उस झोपड़पट्टी के सामने एक पेड़ पर साइकिल के खराब टायरों से बने झूले में है। बच्चे उस पर झूलते हैं, मस्तियाते-बतियाते हैं और फिर गिरने पर रो-रोकर घर चले जाते हैं।
सावन... कभी पनीली आँखों का सावन, सूखी आँखों का रेगिस्तानी सावन, खाली बैठे शहरी म$जदूर का सावन, लोकगीतों के साथ खेतों में बुवाई करती महिलाओं का सावन, बीज के लिए क$र्ज देते व्यापारी का सावन, बाइक पर सरपट भागते युवाओं का सावन, घर में कैद होकर खेलते बच्चों का सावन... कितने रूप हैं सावन तुम्हारे... ? तुम्हारे रंग की भी कोई सीमा नहीं। सावनी रंग जिस चेहरे पर है, समझो उसके पौ-बारह। यूँ ही हर किसी के चेहरे पर नहीं खिलता सावनी रंग।
रंगों की रंगत में सावनी झूलों की डोर अब भीगने लगी है। टूटते लोगों का सहारा भी बनता है सावन और तिनका-तिनका लोगों को तोड़ भी देता है सावन। हम तुम्हें सर-आँखों पर बिठा सकते हैं, पर तबाही का मंजर लेकर मेरे देश के किसी शहर में मत आना सावन। नहीं तो न बाँहोंं के झूले होंगे, न मस्ती, न अठखेलियाँ। खुशियों को लेकर आओ, तो स्वागत है तुम्हारा मेरे देश के हरियाले-मस्त सावन......
डॉ महेश परिमल

शनिवार, 25 जुलाई 2009

जांच पर हंगामा कितना उचित


नीरज नैयर
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को सुरक्षा जांच से क्या गुजरना पड़ा पूरे मुल्क में बवाल हो गया, धड़ाधड़ प्रतिक्रियाएं आनें लगी, अमेरिकी एयरलाइंस को दोषी करार दिया जाने लगा. संसद में तो तो कुछ माननीय सांसदों ने एयरलाइंस का लाइंसेंस रद्द करने और तलाशी लेने वाले अमेरिकी को देश से निकालने तक की मांग कर डाली. जबकि जिसकी तलाशी ली गई यानी कलाम साहब की वो पूरी तरह खामोश हैं, उन्होंने न तो जांच के वक्त वीवीआई होने का कोई रुबाव झाड़ा और न ही अब कुछ बोल रहे हैं. वो शायद इस बात से सहमत हैं कि सुरक्षा से समझैता नहीं किया जाना चाहिए. कांटिनेंटल एयरलाइंस को अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी डिमार्टमेंट के ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन यानी टीएस की तरफ से स्पष्ट निर्देश दिए गये हैं कि विमान में सवार होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जांच की जाए. उन्होंने अति विशिष्ट, विशिष्ट लोगों के लिए के लिए अलग से कोई दिशा निर्देश नहीं बनाए हैं. ऐसे में जांच करने वाले अधिकारी महज अपनी नौकरी कर रहे थे, उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कलाम साहब किस श्रेणी में आते हैं. रुतबे-रुबाब के आगे नियम-कायदे ताक पर रखने की परंपरा सिर्फ हमारे देश में है, दुबई जैसी खाड़ी मुल्क में भी अति विशिष्ट, विशिष्ट माननीयों को हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ता है, बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि उन्हें आम लोगों की तरह लाइन में नहीं लगना होता. उनके लिए अलग से व्यवस्था की जाती है. यह बात सही है कि पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते अब्दुल कलाम को जांच से छूट मिली है और उनकी जांच नागरिक उड्डयन ब्यूरों के सर्कुलर का सरासर उल्लघंन है. लेकिन कांटिनेंटल एयरलाइंस जिस मुल्क से ताल्लुक रखती है उसके भी अपने कुछ नियम हैं, कहने वाले बिल्कुल ये कह सकते हैं कि भारत में आने के बाद वह यहां के नियम-कानून मानने के लिए बाध्य है. पर जनाब गौर करने वाली बात ये भी है कि एयरलाइंस सुरक्षा के अपने मानकों के ऊपर किसी भी देश के नियमों को हावी नहीं होने देती. इतना सब हो जाने के बाद भी कांटिनेंटल की तरफ से महज खेद जताया गया है, उसने ये कतई नहीं कहा कि फिर ऐसा नहीं होगा, मतलब सुरक्षा उसके लिए सर्वोपरि है. 11 सितंबर 2001 के बाद अमेरिका ने सुरक्षा संबंधि बहुत से कदम उठाए हैं और इसतरह की जांच उसी का एक हिस्सा मात्र हैं, लिहाजा इस पर बेफिजूल का हो-हल्ला करना तर्कहीन ही लगता है. हमारे देश में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व उपराष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस, लोकसभा अध्यक्ष समेत 32 श्रेणियों में आने वाले अतिविशिष्ट लोगों को एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच में छूट मिली हुई है. छूट के दायरे में लोकसभा के स्पीकर, केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, लोकसभा व राज्यसभा में विपक्ष के नेता, भारत रत्न से सम्मानित हस्तियां, सुप्रीम कोर्ट के जज, मुख्य निर्वाचन आयुक्चत और धर्मगुरु दलाई लामा भी आते हैं. कुछ वक्त पहले तीनों सेनाओं के प्रमुखों को भी इस श्रेणी में शामिल किया गया था, यानी उन्हें भी सुरक्षा जांच के लिए नहीं रोका जा सकता, सरकार ने ये फैसला उस वक्त लिया था जब प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वॉड्रा को थलसेना अध्यक्ष के ऊपर रखने पर हंगामा मचा था. रॉबर्ट किसी संवैधानिक पद पर न होते हुए भी अति विशिष्टजनों को मिलने वाली छूट का लाभ इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि वो कांग्रेसाध्यक्ष के दामाद हैं. वीवीआईपी, वीआईपी तो दूर की बात हैं, हमारे देश में तो थोड़ी सी ऊंचाई पाने वाला हर व्यक्ति अपने आप को राजा समझने लगता है, मसलन प्रेस का तमगा लगने के बाद पत्रकार पुलिस वालों को कुछ नहीं समझते. सामान्य चेकिंग के दौरान अपने आप को रोका जाना उनकी शान में गुस्ताखी करने जैसा होता है. वो अपने आप को आमजन से ऊपर समझते हैं और चाहते हैं कि उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए. जो लोग वैश्रो देवी अक्सर जाते रहते हैं उन्होंने गौर किया होगा कि वहां आने वाले आर्मी के जवान सुरक्षा जांच चौकियों पर तैनात पुलिसकर्मियों से अमूमन उलझे रहते हैं, उन्हें यह गंवारा नहीं होता कि कोई पुलिसवाला उनकी तलाशी ले. पुलिसवाले खुद नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाने से पीछे नहीं रहते, उन्हें लगता है कि उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है. महज कुछ लोग नहीं बल्कि पूरे मुल्क की मानसिकता ही ऐसी हो गई है कि हम हमेशा अपने आप को निर्धारित नियमों से ऊपर रखना चाहते हैं. अब्दुल कलाम ने जांच में सहयोग करके और बेवजह मामले को तूल न देकर एक उदाहरण पेश किया है, उन्होंने इस संबंध में कोई शिकायत तक नहीं की. वह विदेश यात्रा के दौरान सुरक्षा घेरों का हमेशा पालन करते हैं, दरअसल इस मामले को इतना ऊछालने वाले इस बात को लेकर आशंकित हैं कि कहीं अगर उनके साथ ऐसा कुछ हो गया तो सारा रुबाब धरा का धरा रह जाएगा, इसलिए वो चाहते हैं कि अमेरिकी एयरलाइंस को सुरक्षा से समझौता न करने का सबक सिखाए जाए. एयरलाइंस के खिलाफ जांच के आदेश दे दिए गये है और उसे ये सिखाने की पूरी कोशिश की जाएगी कि भारत में वीवीआईपी देश, उसकी सुरक्षा और हर लिहाज से सबसे ऊपर होते हैं, इसलिए अगर उसे भारत में काम करना है तो अपनी प्राथमिकताओं की सूची में सुरक्षा को दूसरा स्थान देना होगा क्योंकि पहले स्थान पर सिर्फ और सिर्फ वीवीआईपी ही आ सकते हैं.
नीरज नैयर

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

लिखो पाती प्यार भरी


डॉ. महेश परिमल
प्रे्रेम पत्र! वही प्रेम पत्र जो शकुंतला ने कदम्ब के पत्तों पर नाखून से लिखकर दुष्यंत को दिया। वाटिका मेें कंगन में पड़ रही परछाई में सीता ने पढ़ा और एकांत में बाँसुरी की मीठी तान में राधा ने सुना। वही प्रेम पत्र या प्रेम संदेश, जो कैस ने रेगिस्तान की गर्म रेत पर ऊँगलियों की पोरों से लैला को लिखा। पानी की डूबती-उतराती लहरों के साथ सोहनी ने महिवाल को दिया। खेत की हरी-हरी लहलहाती फसलों को पार करते राँझा ने हीर तक पहुँचाया।
यह थी भावनाओं और संवेदनाओं की एक अनोखी दुनिया, जहाँ प्रेम और अपनापे की गुनगुनी धूप पत्तों से छनकर धरा तक पहुँचती थी। हृदय से हृदय के तार जुड़े होते थे। तब पत्र में अक्षरों के बीच लिखने वाले की छवि उभरती थी। पत्र पढ़ते हुए कभी आँखें भर आती थी, तो कभी मन खुशी से झूम उठता था। बिन पंखों के मन मयूर कल्पनाओं की ऊँची उड़ानें भर लिया करता था। अपने प्रेमी या प्रेमिका के हाथों लिखा वह पहला खत तो आप भी नहीं भूले होंगे। कितने ही बार उसके नाम को ऊँगलियों के पोरों से सहलाया होगा। अपने होठों से चूमा होगा। पढ़ा तो इतनी बार होगा कि लिखावट आँखों में नहीं, दिल में बस गई होगी। पत्र सिर्फ प्रेमी या प्रेमिका का ही नहीं होता, पत्र माता-पिता, भाई-बहन, स्नेहीजन, मित्रों सभी को एक डोर में बाँधे रखते हैं। माता-पिता के पत्रों में जहाँ संतान के लिए लाड़-दुलार और आशीर्वाद होता है, तो वहीं स्नेेहीजनों के पत्र कुछ संदेश देते हैं, अपनापन लिए हुए होते हैं। माँ की प्यार भरी पाती पढ़ते हुए भला हम अपने बचपन से दूर कैसे रह सकते हैं? पाती पढ़ते हुए, शब्दों की पगडंडियों पर पैर रखते हुए मन का हिरण कभी कुलाँचे भरता है, तो कभी आँखें अनायास ही बचपन की यादों में खो जाती हंै।

सच-सच बताएँगे आप, कितने दिन हो गए आपने अपने प्रियजनों को एक चिट्ठी तक नहीं लिखी? काफी दिन हो गए ना। अब तो याद भी नहीं कि आखिरी बार कब चि_ïी लिखी थी? अब तो सारी बातें फोन या मोबाइल पर हो ही जाती हैं। रही सही कसर एसएमएस और ई-मेल से पूरी हो जाती है। हाल-चाल मालूम चल जाता है। क्या जरूरत है चि_ïी लिखने की? सच कहा आपने, आप कतई गलत नहीं हैं। फोन पर कितना भी बतिया लें, पर जो प्यार स्नेेह भरे पत्रों में उमड़ता है, वह भला फोन की मीठी वाणी में कहाँ? इसे महसूस किया कभी आपने? हम कितने भी 'एडवांसÓ क्यों न हो जाएँ, पत्रों की पवित्रता को नकार नहीं सकते। पत्र हृदय का दर्पण होते हैं। उसकी लिखावट हमें एक आत्मिक संतोष देती है, उससे हम भलीभाँति परिचित होते हैं। लिखावट सामने आते ही डूब जाते हैं, अतीत की सुखद स्मृतियों में। आज भी हमारे पास ऐसे कई पत्र होंगे, जो अनमोल धन की तरह सुरक्षित होंगे ही। उसका एक-एक अक्षर हमें याद होगा। फिर भी हम उसे बार-बार पढऩा चाहेंगे, आखिर क्यों? याद करो, जब हमें अपनी प्रेयसी या प्रेमी का पहला प्यार भरा, खुशबू में सराबोर पत्र मिला था, तब मन में कितनी उमंगें थीं। आज भले ही वह पत्र ढूँढ़े न मिल रहा हो, पर उसकी खुशबू से आप अब भी महक जाते होंगे। पत्र पाते ही उसे चूमा तो होगा ही। सहलाया भी होगा। रात में तकिये के नीचे रखकर सुखद नींद भी ली होगी। खैर छोड़ो, कभी जीवन के क्षेत्र में विफलता भी प्राप्त की होगी, तब माँ-पिताजी, भैया या भाभी, दीदी या छोटी बहना या किसी प्यारे से दोस्त का सांत्वना भरा पत्र तो मिला ही होगा आपको? सच बताएँगे, सम्बल देने वाले उस पत्र को पढ़ते हुए क्या आपकी आँखें नहीं डबडबाई होंगी? कोई गरीब माँ अपने अमीर बेटे को पत्र लिखती होगी या लिखवाती होगी, तो पत्र पाते ही बेटा स्वयं को व्यस्त बताते हुए पत्नी के सामने खीझते हुए कुछ रुपए मनीऑर्डर करने के लिए कह देता होगा, पर रात को चुपचाप अकेले में माँ की अनगढ़ लिखावट को गीली आँखों से चूमते हुए उस बेटे को देखा है भला? उस समय पत्र की संवेदना सीधे माँ-बेटे के बीच होती है। उस वक्त माँ से दुलार पाता है बेटा। तब बेटे को लगता होगा कितना गरीब हूँ मैं, चाँदी के इन चंद सिक्कों के बीच और कितनी अमीर है, मेरी माँ, इन अनगढ़ अक्षरों के साथ। क्या आज ई-मेल, एसएमएस या चेटिंग के माध्यम से संवेदनाओं के तार इस तरह से जुड़ सकते हैं भला?

पत्र आत्मा की आवाज होते हैं, पत्र जीवन बदल देते हैं, पत्रों में केवल विचार ही नहीं होते, उसमें कोमल भावनाएँ भी होती हैं, जो संवेदनाओं के माध्यम से हमारे भीतर तक पहुँचती है। पत्र का एक-एक शब्द हमारे लिए मोती हो जाता है, जब वह किसी बेहद अपने का होता है। पत्र खोलते ही प्रेषक की जानी-पहचानी तस्वीर भी सामने आ जाती है। क्या एक जाने-अनजाने पत्र ने हमें तस्वीरों का चितेरा नहीं बना दिया? कई बार पत्र चुनौती देते से लगते हैं। उसका एक-एक शब्द हमें मुँह चिढ़ाता-सा लगता है। आवेश में हम उसे फाड़कर निकल भी पड़ते हैं, चुनौती को पूरा करने के लिए। शाम हताश हो कर लौटते हैं, देर रात चुपचाप पत्र के एक-एक टुकड़े को जोडऩे का प्रयास करते हैं, शब्दों की इबारत समझने की कोशिश करते हैं, पत्र में प्यार ढूँढ़ते हैं।
ऐसा केवल पत्रों में ही संभव है। पत्र में प्यार छुपा होता है, ममता की घनी छाँव होती है, माँ का दुलार होता है, पिता का आशीष, भैया का स्नेेह, दीदी का प्यार और छोटे भाई-बहनों की चंचलता भी छिपी होती है। रही बात प्रेयसी या प्रेमी के पत्रों की, तो उसमें छलकता है, प्यार-प्यार और केवल प्यार। क्या आप भी आना चाहेंगे पत्रों की इस प्यार भरी दुनिया में? तो आइए .. स्वागत है। तो उठाइए कलम और लिखें एक पाती प्यार भरी....
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 22 जुलाई 2009

दो महापुरुषों का चिर-स्मरण

23 जुलाई यानी दो महापुरुषों को याद करने का दिन। दोनों ही अपनी अदम्य वीरता के कारण अलग से ही पहचाने जाते हैं। एक तरफ 'स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगाÓ की हुंकार करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हैं, तो दूसरी तरफ बचपन से अपने आपको आजाद कहने वाले चंद्रशेखर आजाद हैं। दोनों की वीरता के अनेक किस्से हैं। एक जेल में रहकर 'गीता रहस्यÓ लिखते हैं, तो दूसरे अपने शरीर पर पडऩे वाली आततायी की हर बेंत पर 'भारत माता की जयÓ बोलने वाले आजाद हैं। इन दोनों का पूरा जीवन ही देश सेवा में बीता। साहस का अदम्य परिचय देने वाले इन दोनों महापुरुषों को शत-शत नमन......

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक ने देश सेवा तथा समाज सुधार का बीड़ा बचपन में ही उठा लिया था। उनका जन्म 23 जुलाई, 1856 को हुआ था। पहले उनका नाम बलवंत राव था। वे अपने देश से बहुत प्यार करते थे। उनके बचपन की एक ऐसी ही घटना है, जिससे उनके देशप्रेम का तो पता चलता ही है, साथ ही यह भी पता चलता है कि छोटी-सी अवस्था में ही तिलक में कितनी सूझ-बूझ थी।
बाल गंगाधर तिलक भारत के एक प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे। इन्होंने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वराज की माँग उठाई। इनका कथन "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" बहुत प्रसिद्ध हुआ। इन्हें आदर से "लोकमान्य" (पूरे संसार में सम्मानित) कहा जाता था। इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है।
उस समय भारत अंगरेजों का गुलाम था, लेकिन देश में कुछ व्यक्ति ऐसे भी थे, जो उनकी गुलामी सहने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने छोटे-छोटे दल बनाए हुए थे, जो अंगरेजों को भारत से बाहर निकालने की योजनाएं बनाते थे और उन्हें अंजाम देते थे। ऐसा ही एक दल बलवंत राव फड़के ने भी बनाया हुआ था। वह अपने साथियों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग देते थे, ताकि समय आने पर अंगरेजों का डटकर मुकाबला किया जा सके। गंगाधर भी उनके दल में शामिल हो गए और टे्रनिंग लेने लगे। जब वह अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में सिध्दहस्त हो गए, तो फड़के ने उन्हें बुलाया और कहा कि अब तुम्हारा प्रशिक्षण पूरा हुआ। तुम शपथ लो कि देश सेवा के लिए अपना जीवन भी बलिदान कर दोगे। इस पर गंगाधर बोले, 'मैं आवश्यकता पड़ने पर अपने देश के लिए जान भी दे सकता हूं, लेकिन व्यर्थ में ही बिना सोचे-समझे जान गंवाने का मेरा इरादा नहीं है। अगर आप यह सोचते हैं कि केवल प्रशिक्षण से ही अंगरेजों का मुकाबला हो सकता है, तो यह सही नहीं है। अब तलवारों का जमाना गया। अब बाकायदा योजनाएं बनाकर लड़ाई के नए तरीके अपनाने होंगे।' यह कहकर गंगाधर तेज कदमों से वहां से चले आए। फिर उन्होंने योजनाबध्द तरीके से देश के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ी।
तिलक ने भारतीय समाज में कई सुधार लाने के प्रयत्न किए। वे बाल-विवाह के विरुद्ध थे। उन्होंने हिन्दी को सम्पूर्ण भारत की भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। महाराष्ट्र में उन्होंने सार्वजनिक गणेश पूजा की परम्परा प्रारम्भ की ताकि लोगों तक स्वराज का सन्देश पहुँचाने के लिए एक मंच उपलब्ध हो। भारतीय संस्कृति, परम्परा और इतिहास पर लिखे उनके लेखों से भारत के लोगों में स्वाभिमान की भावना जागृत हुई। उनके निधन पर लगभग 2 लाख लोगों ने उनके दाह-संस्कार में हिस्सा लिया।
एक अगस्त, 1920 को उनका निधन हो गया।
चंद्रशेखर आजाद

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई सन्1906 को मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भावरा गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। भावरा के स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद वे उच्च अध्ययन के लिए वाराणासी गए।
वाराणासी में वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए थे। 1921 में मात्र तेरह साल की उम्र में उन्हें संस्कृत कॉलेज के बाहर धरना देते हुए पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। पुलिस ने उन्हें ज्वाइंट मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।
जब मजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा, उन्होंने जवाब दिया- आजाद। मजिस्ट्रेट ने पिता का नाम पूछा, उन्होंने जवाब दिया-स्वाधीनता। मजिस्ट्रेट ने तीसरी बार घर का पता पूछा, उन्होंने जवाब दिया- जेल।
उनके जवाब सुनने के बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें पन्द्रह कोड़े लगाने की सजा दी। हर बार जब उनकी पीठ पर कोड़ा लगाया जाता वे महात्मा गाँधी की जय बोलते। थोड़ी ही देर में उनकी पूरी पीठ लहू-लूहान हो गई।
उस दिन से उनके नाम के साथ 'आजाद' जुड़ गया। वे चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आजाद बन गए। असहयोग आंदोलन समाप्त होने के बाद चंद्रशेखर आजाद की विचारधारा में बदलाव आ गया और वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए।
वे हिंदुस्तान सोशल रिपब्लिकन आर्मी में शामिल हो गए। उन्होंने कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे काकोरी कांड, सांडर्स-हत्या को अंजाम दिया। आजाद और उनके साथियों की छोटी-सी टोली ने अँग्रेज सरकार की नाक में दम कर रखा था। पुलिस ने आजाद पर पाँच हजार रुपए का इनाम घोषित किया था ,पाँच हजार रुपए उन दिनों एक बड़ी रकम मानी जाती थी।
चंद्रशेखर आजाद वेष बदलने में माहिर थे। वे वेष बदल कर अपने काम को अंजाम देते रहे। आखिरकार 27 फरवरी 1931 को इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। आजाद पुलिस की कैद में नहीं आना चाहते थे। इसलिए वे अपनी कनपटी पर स्वयं गोली चलाकर हमेशा के लिए आजाद हो गए।
आजाद इतने लोकप्रिय थे कि जिस पेड़ के नीचे वे शहीद हुए थे, वहाँ पर लोगों श्रद्धापूर्वक फूल चढ़ाना प्रारंभ कर दिया था। चंद्रशेखर आजाद के प्रति लोगों के मन में श्रद्धा देखकर सरकार ने वह पेड़ कटवा दिया, जिसके नीचे चंद्रशेखर आजाद ने मौत को गले लगाया था।
चंद्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

जहर उगलती मशीनें हमारे आसपास


डॉ. महेश परिमल
बचपन में 'विज्ञान: वरदान या अभिशापÓ पर निबंध लिखने को कहा जाता था। जिसमें हमें विज्ञान से मिलने वाली सुविधाओं के बाद उससे होने वाली हानियों के बारे में बताना होता था। निबंध की शैली ही हमें अधिक अंक मिलते थे। बाकी तथ्य तो वही रहते थे। उस समय विज्ञान की हानियों पर भी विचार किया जाता था। आज जब इसी विज्ञान को नए सिरे से समझने की कोशिश की, तब पता चलता है कि आज विज्ञान निश्चित रूप से हमारे ही लाभकारी है, पर इसके विनाशक रूप पर चर्चा तक नहीं होती। हर कोई इसे सहजता से स्वीकार कर रहा है। पर इसके विनाशक रूप को अनदेखा कर रहा है। अब कितने लोगों को यह पता है कि फोटो कॉपी मशीन, ए.सी.,फेक्स मशीन, लेजर प्रिंटर ये सब स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। इसे समझते हुए ऑफिस का कोई कर्मचारी अपने बॉस से यह कहे कि सर ऑफिस से इस जेराक्स मशीन से मेरी आँखों में जलन होती है, सर दर्द करता है, आप इस मशीन को यहाँ से हटा दें, तो क्या बॉस उस कर्मचारी की बात मानेंगे? निश्चित रूप से इस तरह की शिकायत करने वाले कर्मचारी की छुट्टी हो जाएगी। पर यह सच है कि यदि एक कर्मचारी को इस तरह की शिकायत है, तो निश्चित रूप से उस ऑफिस का वातावरण ऐसा है, जिसमें हवा बाहर जाने की व्यवस्था नहीं होगी।
हाल ही में अँगरेजी पत्रिका 'सेमिनारÓ द्वारा विज्ञान के तमाम शोधों के विपरीत असर पर एक परिसंवाद आयोजित किया गया। इस परिसंवाद में यह विचार किया गया कि विज्ञान के नए-नए शोध विश्व में किस तरह से समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। विज्ञान की न जाने कितने अविष्कार ऐसे हैं, जो पहली नजर में हमें अत्यंत लाभकारी दिखाई देते हैं। उससे होने वाली हानियाँ तो उसके इस्तेमाल के बाद ही पता चलती हैं। आज मोबाइल से होने वाली हानियों के बारे में लोग सतर्क हुए हैं। अब वे इससे होने वाली नुकसान से बचने की कोशिश भी करने लगे हैं। अब मोबाइल कंपनियाँ ऐसे फोन बाजार में ला रही हैं, जिससे शरीर पर कम से कम नुकसान होता है। पर क्या एक-एक व्यक्ति को यह बताने जाना होगा कि उनके आसपास जो वातावरण है,उससे भी उसके शरीर को नुकसान पहुंच रहा है। अब शायद ही कोई ऐसा ऑफिस होगा, जहाँ फेक्स मशीन और लेजर प्रिंटर का इस्तेमाल न होता हो। अब तो यह सामान्य बात हो गई है। पर इससे होने वाले नुकसान की बात सामान्य नहीं है। यह मशीनें हमारे शरीर को किस तरह से नुकसान पहुँचाती हैं, आइए जानें:-
पहले हम प्लेन पेपर फोटोकॉपियर की बात करें। इस मशीन में ओरिजनल दस्तावेज के ऊपर लाइट फेंकी जाती है, इस प्रतिबिम्ब फोटोरिसेप्टर पर पड़ता है, जो विद्युत चार्जयुक्त ड्रम के बेल्ट के स्वरूप में होता है। इस ड्रम का निचला भाग प्रकाश के प्रति संवेदनशील होता है। उस पर जब कोई प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब उसके ऊपर विद्युत के चार्ज के पेटर्न में बदलाव होता है, जिससे आकृति उत्पन्न होती है। यह आकृति इलेक्ट्रॉनिक चार्ज टोनर को आकर्षित करती है। जो उष्णता और दबाव के साथ कागज पर उसकी छाप छोड़ती है।
फोटो कॉपियर, एक्स रे मशीन, वेल्डिंग मशीन जब काम करती हैं, तब ओजोन नामक जहरीली गैस पैदा करती हैं। ऑक्सीजन वायु में ऑक्सीजन के दो परमाणु होते हैं, जबकि ओजोन में तीन परमाणु होते हैं। ओजोन बहुत ही अस्थायी वायु है और ऑफिस के वातावरण में उसकी हाफ लाइफ 6 मिनट ही होती है। अर्थात 6 मिनट में ही ओजोन के आधे अणुओं का विघटन हो जाता है। ओजोन वायु की सुगंध बहुत ही मीठी होती है। यह वायु ऑफिस या घर के वातावरण में हर दस लाख अणुओं के एक से अधिक होती है। इससे स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न होता है। फोटोकॉपियर में ही अल्ट्रावायलेट बल्व होता है, उसके कारण ड्रम के चार्जिंग और डिस्चार्जिंग की प्रक्रिया के कारण ओजोन गैस पैदा होती है। आकृति ड्रम में से टोनर में जाती है, तब ओजोन पैदा होती है।
यदि बरामदे में फोटोकॉपियर मशीन है और वहाँ हवा के आने-जाने की समुचित व्यवस्था नहीं है, तो वहाँ पर ओजोन गैस की मात्रा बढ़ जाती है। हवा में ओजोन की मात्रा 25 पीपीएम (दस लाख अणुओं में ओजोन का अणु) जितना बढ़ जाए, तो उससे आँखों में जलन होने लगती है, यही नहीं गले, साँस की नली और फेफड़ों को भी नुकसान पहुँच सकता है। दूसरे अन्य नुकसानों में सरदर्द, साँस लेने में तकलीफ, बेचैनी भी हो सकती है। कुछ समय के लिए हृदयगति पर भी असर होता है। ओजोन गैस की मात्रा 10 पीपीएम के ऊपर पहँुच जाए, तो भी स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुँच सकता है।

हमारे देश में कई स्थानों पर जेराक्स मशीन ऐसे स्थानों पर रखी गई हैं, जहाँ जगह छोटी है, सामान फैला हुआ है, हवा के आने-जाने की समुचित व्यवस्था नहीं है, ऐसे स्थानों पर ओजोन की मात्रा अधिक हो जाती है, जो वहाँ पर उपस्थित लोगों के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। मशीन के पास खड़े रहने वाले व्यक्ति को यह ओजोन गैस बुरी तरह से प्रभावित करती है। ऐसे लोग अल्पायु होते हैं। इन्हें त्वचा कैंसर का भी खतरा बढ़ जाता है। ड्रायकॉपियर में पॉवरयुक्त टोनर का इस्तेमाल किया जाता है। यह पावडर अनेक प्रकार के कार्बन में से बनाया जाता है। इस पावडर में 10 प्रतिशत कार्बन ब्लेक होता हैऔर उसे पोलिस्टर रेजिन के साथ मिलाया जाता है। फोटो कॉपियर यदि पूरी तरह से सुरक्षित न हो, तो उसका पावडर बाहर आकर हवा में फैल जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। टोनर के बारीक कण साँस नली में जाकर अटक जाते है, जिससे खाँसी शुरू हो जाती है और जलन होने लगती है, छीकें आने लगती हैं। कुछ टोनरों में नाइट्रोपाइरिंस और ट्राइनाइट्रोफ्लोरीन जैसे जहरीले रसायन होते हैं। ऐसे रसायनों के सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति को कैंसर की संभावना बढ़ जाती है। इन दिनों जिस तरह के टोनर इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं, उसमें पॉलिमर प्रकार का प्लास्टिक रेजिन का इस्तेमाल होता है। इन रसायनों के कारण चमड़ी पर फफोले पड़ जाते हैं और आँखों में जलन होने लगती है।
फोटो कापियर में लाइट के लिए फ्लोरोसेंट बल्व या क्वाट्र्ज लेम्प का इस्तेमाल किया जाता है, यदि इस प्रकाश को सीधा देखा जाए, तो आँखों में जलन होने लगती है, सर दर्द भी हो सकता है। इस मशीन से गर्मी भी निकलती है। यदि इस गर्मी को बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था न हो, तो उस क्षेत्र का तापमान बढ़ सकता है। कई बार पेपर फँस जाने पर जब मशीन को खोला जाता है, तो उसकी गर्मी से खोलने वाला जल भी जाता है। यही हाल फेक्स मशीन, लेजर प्रिंटर का है, इसमें भी टोनर, बल्व का उपयोग होने से ओजोन गैस, कार्बन के रजकण, अल्ट्रावाइलेट लाइट, गर्मी आदि की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। आखिर इन समस्याओं को लेकर हम कितने जाग्रत हैं। यह सोचने की बात है। कितने लोग हैं, जो इन तमाम मशीनों के उपयोग के बाद उससे होने वाले नुकसान से वाकिफ हैं। कितने लोग ऐसे हैं, जो इन मशीनों पर कुशलता के साथ काम कर सकते हैं? किसी भी मशीन के पास खड़े होकर इसका अंदाजा आराम से लगाया जा सकता है।
इस तरह से देखा जाए, तो हमारे आसपास न जाने कितनी ही चीजें ऐसी हैं, जिनसे हमारे स्वास्थ्य को गंभीर खतरा है, पर उस खतरे से अभी तो हम वाकिफ नहीं हैं, पर यदि हम इस दिशा में सचेत नहीं हुए, तो निश्चित रूप से ये विज्ञान के ये तमाम अविष्कार हमें और अधिक नुकसान पहुँचाएँगे, इसमें कोई शक नहीं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 20 जुलाई 2009

मोटापे से परेशान हैं


अगर आप मोटापे से परेशान हैं, तो वजन घटाने के लिए वेट मैनेजमेंट में ट्रेंड फिजिशियन के पास ही जाएं, वरना इसके
घातक नतीजे भी हो सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने मोटापे को बीमारी करार दिया है। ऑॅस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुई दसवीं इंटरनैशनल कांग्रेस में इसे डायबेसिटी का नाम दिया गया, क्योंकि डायबीटीज की बीमारी मोटापे से ही होती है। दुनिया भर के डॉक्टर लोगों को वजन कम करने की सलाह दे रहे हैं। मोटापे से डायबीटीज ही नहीं, ब्लड प्रेशर, हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक, कैंसर और नींद न आने की बीमारी होती है। अक्सर लोग वजन कम करने के लिए ब्यूटी क्लिनिक में जाते हैं। इस तरह के क्लिनिक चलाने वाले लोगों को वेट मैनेजमेंट का कोई अनुभव नहीं होता। अनाड़ियों की देखरेख में वजन कम करने की कोशिशें आपको नुकसान पहुंचा सकती हैं।
शरीर से अतिरिक्त वजन कम करने के लिए हमेशा चर्बी ही घटानी चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि लीन बॉडी मास (मसल्स और सॉफ्ट टिश्यूज) को कोई नुकसान न पहुंचे। शरीर से वजन धीरे-धीरे कम करना चाहिए। अगर आप एक ही बार में वजन घटाने की कोशिश करेंगे तो इससे कमजोरी आ सकती है।
क्लिनिक २००० में वेट मैनेजमेंट में ट्रेंड फिजिशयन, प्लास्टिक सर्जन, एनड्रॉकनॉलजिस्ट, न्यूट्रीशियन और ब्यूटी थेरेपिस्ट लोगों का ट्रीटमेंट करते हैं। यहां मेडिकल एक्सपटर्स खास ट्रीटमेंट से किसी व्यक्ति के शरीर से एक्सट्रा फैट कम करते हैं। यहां लोगों का वजन जल्दी और सुरक्षित तरीके से कम होता है। इसमें सेलोथर्म तकनीक का भी प्रयोग किया जाता है। यहां बॉडी कंपोजिशन एनालिसिस टेस्ट कंप्यूटराइज्ड तरीके से लिया जाता है। यह टेस्ट ट्रीटमेंट से पहले और बाद में किया जाता है। इलाज के बाद यह टेस्ट करने से लोगों को पता चल जाता है कि उन्हें अपने शरीर से वजन घटाने में कितनी सफलता मिली। Óसेलोथर्मÓ ट्रीटमेंट के कोर्स में १२ से ज्यादा सेशन होते हैं, जिसमें ट्रीटमेंट कराने वाले व्यक्ति का वेट १० से १२ किलो तक घट जाता है। इससे पूरे शरीर से भी वजन कम किया जा सकता है या बॉडी के जिस हिस्से में ज्यादा मांस हो, वहां से चर्बी घटाई जा सकती है। इस इलाज के बाद किसी भी व्यक्ति की फिगर और पर्सनैलिटी निखर कर सामने आती है। ट्रीटमेंट के बाद स्किन में भी कसावट आ जाती है। क्लिनिक २००० में इलाज करने के बाद न तो वजन कम करने वाले उपकरण की जरूरत पड़ती है और न ही किसी दूसरे ट्रीटमेंट की जरूरत रह जाती है। क्लिनिक २००० में वेट मैनेजमेंट के लिए केवल शरीर की चर्बी ही कम होती है। इसलिए यहां डायबीटीज, हाई ब्लडप्रेशर, दिल की बीमारियों और हाइपोथायराइड से पीड़ित लोग भी अपना वजन कम कर सकते हैं। बाईपास सर्जरी करा चुके पेशेंट भी वजन कम करने के लिए इस क्लिनिक का सहारा ले सकते हैं। यहां मरीजों को यह भी जानकारी दी जाती है कि कैसे इस वेट लॉस को लंबे समय तक मेंटेन रखा जा सके।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

कश्मीर पर यह नासमझी क्यों


नीरज नैयर
अमेरिकी नेतृत्व की पाक पसंदगी का पैमाना इस कदर भर गया है कि उसके राजनेता-अधिकारी अब हमारे पड़ोसी मुल्क के नुमाइंदों की तरह ज्यादा पेश आने लगे हैं, हाल ही में अमेरिकी विदेश उप मंत्री विलियम बन्र्स के दिए बयान से तो यही प्रतीत होता है. बन्र्स ने अपनी भारत यात्रा के दौरानबहुत कुछ ऐसा कहा जिसकी उम्मीद नई दिल्ली ने भी नहीं की होगी. अमेरिकी मंत्री ने भारत को पाक के साथ बिना शर्त बातचीत की समझाइश तो दी ही साथ ही कश्मीर पर यह कहते हुए नया शिगूफा छोड़ दिया कि समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों की इच्छा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. कश्मीर भले ही भारत-पाक का आपसी मसला हो मगर उसमें अमेरिका की दखलंदाजी हमेशा से ही रही है, इसका एक कारणदोनों देशों का बार-बार अमेरिका पर निर्भरता जाहिर करना भी है. पाकिस्तान शुरू से अमेरिका के सहारे कश्मीर फतेह की नापाक कोशिशों को अंजाम देता रहा है और भारत महज जुबानजमाखर्ची के वाशिंगटन को अब तक कोई सख्त संदेश देने में नाकाम रहा है. बन्र्स के मौजूदा बयान पर भी भारतीय नेतृत्व ने कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दी जिससे अमेरिका को भविष्य के लिए सबक मिल सके. बराक हुसैन ओबामा के सत्ता संभालने से पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि कश्मीर पर उनका रुख पाक के पक्ष में ही जाएगा, ओबामा ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कश्मीर के समाधान के लिए एक विशेष दूत नियुक्त करने की बात कही थी और वो अब इसी दिशा में बढ़ते दिखाई दे रहे हैं.
कश्मीर को लेकर पाक की पैंतरेबाजी को ऐसे कथित बुद्धिजीवियों के कथनों से भी बल मिला है जो घाटी को आजाद रूप में देखने की हसरत रखते हैं. प्रख्यात लेखिका अरुन्धति राय भी ऐसे ही बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हैं. कुछ वक्त पूर्व जब कश्मीर में आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहे थे उस वक्त आउटलुक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कश्मीर को स्वतंत्र करने पर बल दिया था. उनका मानना था कि घाटी में जो आक्रोश व्याप्त है वो केवल अलगाववादियों की ही देन नहीं बल्कि आम कश्मीरियों का वो गुस्सा है जो कई वर्षों से भारतीय प्रशासन के खिलाफ पनप रहा है. उनके मुताबिक कश्मीरियों में अब यह धारणा घर कर चुकी है कि उनका हित भारत से अलग होने में ही है. अरुन्धति राय ने महज बुजुर्गों-नौजवानों और महिलाओं की भीड़ से निकलकर आ रहे भारत विरोधी नारों से यह अंदाजा लगा लिया कि घाटी का आवाम 1947 की तरह ही स्वतंत्रता के लिए आंदोलित है. पर वो शायद भूल गईं कि भीड़ में शामिल होने वाले हर शख्स का उद्देश्य उसकी अगुवाई करने वाले से मेल खाए ऐसा जरूरी नहीं होता. राम मंदिर आंदोलन के वक्त सैंकड़ों लोग भीड़ का हिस्सा बने पर क्या सभी मस्जिद तोडऩा चाहते थे, अगर ऐसा होता तो शायद एक भी मस्जिद आज सुरक्षित नहीं बचती. राजनेताओं की रैलियों में हजारों लोग बढ़-चढ़कर सम्मलित होते हैं तो यह मान लिया जाए कि सब एक ही विचारधारा से हैं, अगर ऐसा होता तो भीड़ ही जीत का आधार मानी जाती. भीड़ का हिस्सा बनना महज क्षणिक भर का जोश मात्र भी हो सकता है, जिसका नशा पलभर में ही काफुर हो जाता है. लिहाजा प्रदर्शन करने वालों की तादाद देखकर यह समझ लेना कि पूरी की पूरी जमात ही इसमें शामिल है, सरासर ग़लत है. लालचौक से लेकर सोनमर्ग-गुलमर्ग तक पत्रकार और आम पर्यटक की तरह जब मैने लोगों के दिलों को टटोलने की कोशिश की तो मुझे कहीं से भी उनके भीतर दबे हुए उस गुस्से का अहसास नहीं हुआ जिसका जिक्र अरुन्धति राय ने किया था. जहां तक बात रही थोड़ी बहुत शिकन की तो वह मुल्क के हर नागरिक के चेहरे पर किसी न किसी बात को लेकर दिखाई पड़ ही जाती है. कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है, केंद्र में आने वाली हर सरकार के एजेंडे में कश्मीर सबसे ऊपर होता है. हर साल एक मोटी रकम घाटी के विकास के लिए स्वीकृत की जाती है. इतने सब के बाद भी अलग होने की भावना कैसे जागृत हो सकती है, दरअसल पाक की जुबान बोलने वाले हुर्रियत जैसे संगठन कश्मीरियों को लंबे वक्त से बरगलाने में लगे हैं, वह उन्हें सुनहरे सपने दिखाकर अपनी तरफ करने की कोशिश करते हैं, मगर आम कश्मीरियों को शायद इस बात का इल्म है कि अगर भारत से अलग हुए तो उनका हाल भी पाक अधिकृत कश्मीर में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं की माफिक हो जाएगा. यही वजह है कि आजादी की मांग वाले प्रदर्शन यदा-कदा ही होते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो घाटी हर रोज शोर में डूबी रहती. इस लिहाज से देखा जाए तो न तो अमेरिका और न ही कथित बुद्धजीवियों के लिए यह तर्कसंगत है कि वो कश्मीर पर भारत के रुख को कमजोर करने की कोशिश करें, खासकर अमेरिका के लिए तो बिल्कुल नहीं. ओबामा खुद को बड़ा साबित करने की चाह में उसी स्टैंड पर कायम हैं जिसपर पूर्ववर्ती अमेरिकी शासक चलते रहे हैं. 1947-48 में भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू कश्मीर मुद्दे पर पहला युद्ध हुआ था जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में युद्धविराम समझौता हुआ. इसके तहत एक युद्धविराम सीमा रेखा तय हुई, जिसके मुताबिक जम्मू कश्मीर का लगभग एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास रहा जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहते हैं. और लगभग दो तिहाई हिस्सा भारत के पास है जिसमें जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख शामिल हैं. 1972 के युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते के तहत युद्धविराम रेखा को नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया. हालाकि भारत पूरे जम्मू कश्मीर को अपना हिस्सा बताता है, लेकिन कुछ पर्यवेक्षक यह भी कहते हैं कि वह कुछ बदलावों के साथ नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा
के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में है. अमेरिका और ब्रिटेन भी नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के हिमायती रहे. पर पाकिस्तान इसका विरोध करता है क्योंकि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने से मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी भी भारत के ही पास रह जाएगी. अमेरिका ने कश्मीर में पूर्णरूप से 1950 के दौरान ही दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था, और 1990 तक आते-आते उसमें पाक की हिमायती का पक्ष साफ-साफ दिखाई देने लगा. अमेरिका कहीं न कहीं ये चाहता है कि कश्मीर को स्वतंत्र घोषित कर दिया जाए ताकि वो अफगानिस्तान और इराक की तरह अपनी सेना को वहां बैठाकर एशिया में मौजूदगी दर्ज करवा सके, शायद इसी लिए उसके दिल में कश्मीरियों के प्रति दर्द उमड़ रहा है. अमेरिका के इस तरह के हिमायत भरे कदम पाकिस्तान और कश्मीर में बैठे उसके खिदमतगारों के लिए पावर बूस्टर का काम करते हैं. इसलिए भारत सरकार को अमेरिकी दबाव में आकर नासमझ व्यवहार करने की बजाए बन्र्स के बयानों की गंभीरता को भांपते हुए माकूल जवाब देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए.
नीरज नैयर

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

मोबाइल का मानसून से मौत का रिश्ता


डॉ. महेश परिमल
चौंकाने वाले इस शीर्षक के साथ यह बताना आवश्यक हो गया है कि जिस तेजी से हमारे देश में मोबाइलधारकों की संख्या बढ़ रही है, उसी तेजी से उन पर मौत का खतरा भी मंडराने लगा है। वैसे बारिश का होना और मोबाइल पर बात करना इन दोनों का मतलब है मौत को दावत देना। अब यह बहुत ही छोटी-सी बात है, जो समझ में नहीं आएगी। मोबाइल पर अभी उतने शोध हमारे देश में नहीं हुए हैं, जितनी मौत इससे विदेशों में हो चुकी है। अभी तो हम मोबाइल से बतियाना ही सीख रहे हैं। यही हाल रहा तो मोबाइल पर बतियाते-बतियाते हम कब मौत से बतियाने लगेंगे, हमें पता ही नहीं चलेगा। इस मोबाइलधारी पर कब आकाश से मौत बरस सकती है, इसका अंदाजा न तो मोबाइल बेचने वाली कंपनियों को है, न सरकार को।
इन दिनों पूरे देश में मानसून सक्रिय हो गया है, खूब तेज बारिश हो रही है। बिजली के चमकने के साथ ही बादलों का गर्जन अच्छों-अच्छों की हालत खराब कर देता है। बारिश के दौरान मोबाइल पर बात करना भी अच्छा लगता है। ऐसे में इन्हें कौन समझाए कि बारिश के समय मोबाइल अपने पास रखना कितना खतरनाक है। इन दिनों महानगरों ही नहीं, बल्कि शहरों और कस्बों में एफएम का चलन है। लोग अपने मोबाइल से एफएम सुनते हुए वाहन चालन करने लगे हैं। इस तरह से इस मौसम में वे किस तरह से अपनी जान को जोखिम में डाल रहे हैं, यह उन्हें नहीं पता और न ही मोबाइल बेचने वाली कंपनियों को। बारिश के समय मोबाइल से बात करने वालों का अचानक बेहोश होना, बहरापन आना या फिर मृत्यु को प्राप्त होना, इस तरह की घटनाएँ सभी देशों में हो रही हैं। हमारे देश में भी हो रही होंगी, पर इसकी जानकारी अभी लोगों को नहीं है, विदेशों में इस तरह की घटनाएँ सामने आने लगी हैं, इसके पीछे मोबाइल भी एक कारण है, इसे अभी उन्होंने समझा है। हमने नहीं समझा है, हमें इसे समझने में अभी वक्त लगेगा। आइए जानें कि मोबाइल किस तरह आकाशीय बिजली को अपनी ओर आकर्षित करता है।
पिछले साल ही ब्रिटेन में एक किशोरी मोबाइल से बात कर रही थी, उस समय खूब तेज बारिश हो रही थी, बादल गरज रहे थे, बिजली चमक रही थी और हवा भी काफी तेज चल रही थी। उक्त किशोरी मोबाइल के आकाश से गिरने वाली बिजली के संबंध में कुछ भी नहीं जानती थी। अचानक ही आकाश में बिजली कौंधी और वह बेहोश हो गई। बाद में जाँच में पता चला कि किशोरी के कान और मस्तिष्क को काफी क्षति पहुँची है। ब्रिटिशमेडिकल जर्नल में प्रकाशित यह घटना मोबाइल के आकाशीय बिजली के रिश्ते का उजागर करती है। यदि बारिश हो रही हो साथ ही बिजली भी कौंध रही हो, तो उस समय मोबाइल से बात करना अपनी जान को जोखिम में डालना है। यहाँ तक कि स्वीच ऑफ किया हुआ मोबाइल भी बारिशके समय अपने पास रखना खतरनाक है। भारत में मोबाइल बेचने वाली कंपनियाँ अपने उपभोक्ताओं को कभी नहीं बताती कि बारिश होती हो और बिजली चमकती हो, तब मोबाइल का उपयोग न करें, किंतु ऑस्टे्रलिया सरकार ने मोबाइल उपभोक्ताओं के लिए एक मार्गदर्शिका बनाई है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि तेज हवा चल रही हो, बादल गरज रहे हों और बिजली की चमक दिखाई दे रही हो, तो मोबाइल अपने पास न रखें, यदि आप मोबाइल रखते हैं, तो आपकी जान को खतरा है।
मोबाइल में धातु के अलग-अलग भाग होते हैं। ये धातु बिजली को अपनी ओर आकर्शित करते हैं। मोबाइल की संवेदनशीलता के ही कारण उसे पेट्रोल पम्प में उपयोग करने नहीं दिया जाता। उसमें व्याप्त तमाम धातु बिजली को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम होते हैं। शहरों में बिजली गिरने की घटनाएँ इसलिए कम होती हैं, क्योंकि यहाँ आकाशीय बिजली को तुरंत जमीन में दाखिल कर देने की व्यवस्था होती है। शहरों में बिजली के सुचालक लगे होते हैं। लोगों ने अपने घरों में बिजली का मीटर लगाते समय देखा होगा कि मीटर से एक तार किस तरह से जमीन से जोड़ दिया जाता है, इस गङ्ढे में काफी नमक भी डाला जाता है। इसका आशय यही है कि आकाशीय बिजली सीधे उस माध्यम से जमीन पर चली जाती है। इसे लाइटनिंग अरेस्टर कहते हैं। आकाश में विचरण करने वाले परिंदों पर जब भी बिजली गिरती है, तो वह उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त होता है। अब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि उड़ते विमान में बिजली गिरे, तब क्या होगा। जिन्हें विमान की तकनीक के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी है, वे जानते हैं कि सभी विमानों के ऊपर अलग-अलग भागों में ऐसे सेंसर लगे होते हैं, जो बिजली को एक सिरे से दूसरे सिरे तक धकेलकर बाहर की ओर भेज देते हैं। यूँ तो बारिश में लोहे की डंडी वाली छतरी लेकर बाहर निकलना भी खतरनाक है। इसमें भी बिजली का वही नियम लागू होता है, जिसमें वह अपने सुचालक को खोजती है और उसके माध्यम से वह जमीन में चली जाती है। यह माध्यम यदि किसी इंसान के हाथ में है, तो उसे भी बुरी तरह प्रभावित करने से नहीं चूकती। बिलकुल यही गणित मोबाइल के साथ भी है। बिजली के स्वभाव से हम सभी परिचित हैं, पर वह मोबाइल के माध्यम से हमें प्रभावित कर सकती है, यह हमें अभी नहीं मालूम।
विश्व में आकाश में हर सेकंड 1800 से 2000 बादलों की गर्जना होती है। आकाश से बिजली पृथ्वी पर 22,400 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गिरती है। इस संबंध में वैज्ञानिकों का मानना है कि आकाश में रोज 44,000 बार बिजली चमकती है, किंतु सभी बिजलियों की चमक धरती पर मनुष्यों को दिखाई नहीं देती। इसका कारण बिजली और हमारे बीच बादलों की मोटी परत का होना है। ऐसा माना जाता है कि बादलों में जो बिजली होती है, उसका दबाव करोड़ों वोल्ट तक हो सकता है। जब पृथ्वी और बादलों के बीच विद्युत क्षेत्र की तीव्रता 36000 हजार वोल्ट प्रति सेंटीमीटर पहुँच जाती है, तभी वायु में अणु आयनित हो जाते हैं और बादलों की उग्रता पृथ्वी में समा जाती है। हमारे देश में हर वर्शबिजली गिरने से 900 से 1000 लोगों की मौत होती है। दूसरी ओर अमेरिका में मात्र 150 लोग ही मौत का शिकार होते हैं। इसका कारण यही है कि वहाँ बिजली के सुचालक अधिक लगे हैं। यह तय है कि आकाशीय बिजली को जमीन में जाने के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। फिर यह माध्यम कोई पेड़ भी हो सकता है और इंसान भी। गाँवों में जिस पेड़ पर बिजली गिरती है, वह एकदम ही काला हो जाता है। फिर उसमें संवेदना नाम की कोई चीज नहीं रहती। मानो उसे जला दिया गया हो। आकाशीय बिजली तत्क्षण ही किसी को भी जला देने में सक्षम होती है।
हमारे देश में जब सिगरेट के पैकेट और गुटखे के पाऊच पर यह सूचना अंकित होती है कि यह यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो फिर मोबाइल कंपनियों को भी अपने मोबाइल सेट पर आकाशीय बिजली से दूर रहने की सलाह देनी चाहिए। तभी मोबाइलधारक यह समझेंगे कि आकाशीय बिजली उनके लिए किस तरह उनकी जान भी ले सकती है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 15 जुलाई 2009

ये हैं अंधेरे के राही

उद्यमिता की यात्रा दरअसल जोखिम एवं संकट के प्रबंधन का तरीका ढूंढने से जुड़ी है , लेकिन 40 वर्षीय दिनाज वेरवेटवाला के लिए यह आग के खतरे से जूझने वाली साबित हुई। 2005 में एक खतरनाक दुर्घटना में दिनाज करीब 80 फीसदी तक झुलस गईं और उनका फिटनेस कारोबार एक बार को तो ठप्प पड़ गया। वह कहती हैं , ' जिन लोगों को मैं फिटनेस का प्रशिक्षण दे रही थी , उन्होंने दोबारा सेंटर में दाखिला नहीं कराया। मेरी आय का एकमात्र स्त्रोत असफल साबित होने लगा था। '
इसके बाद दिनाज का परिवार अस्पताल के दस लाख रुपए चुकाने के लिए भी मुश्किल में पड़ गया। इससे उनके यहां काम करने वाले लोगों को वेतन देने पर भी संकट खड़ा हो गया। दिनाज कहती हैं , ' मैंने खुद से कहा कि इस तरह की चुनौतियां मेरा रास्ता नहीं रोक सकतीं। जब मैं बहुत गंभीर हालत में थी , तब भी मुझे भरोसा था कि मैं इस संकट से बाहर निकलने का रास्ता खोज निकालूंगी। ' करीब एक साल के बाद उनका कारोबार फिर से रास्ते पर आ गया।
मशहूर बिजनेस इतिहासकार प्रोफेसर द्विजेंद त्रिपाठी कहते हैं कि संकट के दौर से बाहर निकलने का जज्बा ही उद्यमियों की सफलता की दास्तां बनता है। वह बताते हैं, ' इससे निकलने के बारे में भी वे तब तक नहीं बता सकते जब तक कि वे संकट की स्थिति में नहीं पड़े हों। ' कुटोन्स रीटेल के प्रमोटर डीपीएस कोहली आज 793 करोड़ रुपए की कंपनी के स्वामी हैं। दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगों में कोहली का सब कुछ तबाह हो गया। 25 वर्ष के कोहली उस समय टेलीविजन बनाने की एक फैक्ट्री लगाने के लिए उड़ीसा से दिल्ली आए थे। उत्तर प्रदेश सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी अपट्रॉन के लिए कुछ दिनों तक टीवी सेट बनाने के बाद 19.82 में कोहली ने अपोलो नाम से अपना उत्पाद लॉन्च किया। दंगा शुरू होने के एक दिन बाद ही कोहली की फैक्ट्री और शोरूम को जमींदोज कर दिया गया। कोहली उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ' हमारे पास कंपनी को बंद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। ' कोहली ने दंगों में कम से कम चार करोड़ रुपए का नुकसान उठाया। कर्ज चुकाने के क्रम में कोहली और उनके परिवार के लिए सब कुछ बदल चुका था। वे तीन हजार रुपए प्रति महीने से भी कम रकम पर गुजारा कर रहे थे। मेकैनिकल इंजीनियर होने की वजह से कोहली को एक बीमा कंपनी में मोटर इंश्योरेंस सर्वेयर की नौकरी मिल गई। इस नौकरी ने कोहली को अगले छह साल तक सहारा दिया। 1991 में कोहली ने अपने चचेरे भाई बी एस साहनी के साथ मिलकर दो कमरे वाले दफ्तर से युवाओं पर केंद्रित ब्रांड चार्ली जीन्स को लॉन्च किया। वह कहते हैं , ' पैसे जुटाने के लिए मैंने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रख दिए। ' धीरे-धीरे जब ऑफिस जाने वाले युवाओं में फैशन का क्रेज बढ़ने लगा और उन्होंने डेनिम से चिनोज और खाकी का रुख करना शुरू कर दिया , तो दोनों ने मिलकर 1999 में कुटोन्स ब्रांड लॉन्च किया। आज देश भर में कुटोन्स के 465 जगहों पर कम से कम 1438 स्टोर हैं और यह ब्रांड एक जाना-माना नाम बन चुका है।
संकट से निपटने में क्या उम्र का कोई संबंध है ?
गिरीश मिनोचा कहते हैं , ' जब आप युवा होते हैं , तो आप तीस वर्ष से अधिक के बारे में सोचते भी नहीं हैं। ' दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से 24साल की उम्र में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर चुके मिनोचा ने हैवेल्स में मार्केटिंग इंजीनियर के रूप में ज्वाइन किया। मिनोचा इलेक्ट्रिकल स्विचगियर की इस कंपनी में सरकारी कंपनियों को उत्पाद की बिक्री करने से जुड़े थे। 1989 में जनवरी की एक सर्द सुबह देर से दफ्तर पहुंचने पर बॉस ने उनसे जवाब तलब किया। गरमागरम बहस के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया और वापस अपने घर शिमला पहुंच गए। वह बताते हैं , ' मेरे पिता इस फैसले से काफी खफा थे और उन्होंने कहा कि जो समझ में आए करो। ' मिनोचा ने इसके बाद अपना कारोबार शुरू करने का फैसला किया। कॉलेज के दिनों से लेकर नौकरी करने तक बचाए 40000 रुपए और दादाजी से 60000 रुपए उधार लेकर उन्होंने शिमला से तेरह किलोमीटर दूर शोगी में जमीन खरीदी। यहां उन्होंने वेल्डिंग इलेक्ट्रोड बनाने के लिए एक फैक्ट्री लगाई।
फैक्ट्री लगाने के दौरान ही भूस्खलन की वजह से फैक्ट्री की दीवार गिर गई। इसके बाद मिनोचा ने हिमाचल सरकार द्वारा फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री को दी जाने वाले राहत की खबर से इसी क्षेत्र में हाथ आजमाने की सोची। फ्लेवर्ड ड्रिंक्स,जैम,नेचुरल जूस, सीरप,सॉस और अचार बनाने के लिए मिनोचा ने फैक्ट्री लगाई। शुरुआत के तीन साल तक कारोबार में फायदा नहीं हुआ, लेकिन उसके बाद फ्रूट वाइन के कारोबार में उनकी गाड़ी चल निकली। पिछले वर्ष उनका कारोबार दो करोड़ रुपए को पार कर गया है।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

श्रेष्ठ कौन?

भारती परिमल
एक राजा था।उसके तीन बेटे थे। तीनों ही राजकुमार अपने आपको एक-दूसरे से बहादुर, होषियार और बुद्धिमान मानते थे।वे खेल-खेल में हमेषा एक-दूसरे को नीचा दिखाते हुए अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते थे। एक दिन इसी बात को लेकर उनमें बहुत समय तक बहस होती रही। जब कोई नतीजा नहीं निकला, तो आपस में तय किया कि क्यों न रानी माँ के पास जाकर इस बात का निर्णय लिया जाए!
तीनों राजकुमार रानी माँ से मिले और अपनी बात उनके सामने रखते हुए प्रष्न पूछा- बताओ माँ हम तीनों में से श्रेष्ठ कौन है? यह सुनकर रानी माँ भी कुछ देर के लिए मौन हो गई, क्योंकि उनके तीनों ही बेटे एक-दूसरे से बढ़कर पराक्रमी और होषियार थे।वे स्वयं ही सोच में पड़ गई कि इन तीनों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है?
रानी माँ ने तीनों ही पुत्रों को शांत करते हुए एवं प्यार से समझाते हुए कहा कि मेरे लिए तो तुम तीनों ही होषियार और श्रेष्ठ हो। तुम तीनों ही मेरे लिए बराबर हो। किंतु वे तीनों तो ठहरे राजकुँवर। भला वे इस बात से कैसे एक क्षण में ही सहमत हो जाते! वे तीनों तो जिद पर आ गए और हठ करते हुए बोले- नहीं, नहीं, आपको कहना ही होगा कि हम तीनों में से कौन सबसे अधिक श्रेष्ठ है।
अब तो रानी माँ सचमुच ही परेषानी में पड़ गई। थोड़ी देर सोचने के बाद वे बोली- ठीक है, बच्चों! एक काम करो, एक महीने में तुम तीनों में से जो भी सबसे अधिक उपयोगी चीज मेरे लिए ले आएगा, वही मेरी नजरों में श्रेष्ठ होगा।
तीनों राजकुमारों को रानी माँ की यह बात जँच गई। वे तीनों ही दूसरे दिन रानी में के लिए उपयोगी चीज लाने के लिए राज्य से बाहर परदेस के लिए निकल पड़े। पहला राजकुमार जिस देष में गया, वहाँ घूमते-घूमते उसे बाजार में जादुई चष्मा बिकते हुए देखा। इस चष्मे की विषेषता यह थी कि इसे पहनकर जिसे देखने की इच्छा हो, उसे देखा जा सकता था। राजकुमार को यह चीज बहुत अच्छी लगी और उसने उसे खरीद लिया।
दूसरा राजकुमार जिस देष में गया, वहाँ उसे बाजार में एक ऐसा जादुई कालीन दिखाई दिया, जिस पर बैठ कर जहाँ जाने की इच्छा हो, वहाँ जाया जा सकता था। उसने वह बेषकीमती जादुई कालीन खरीद लिया।
तीसरे राजकुमार को परदेस में एक जादुई फल मिला, जिसे सूँघने मात्र से ही मरणासन्न व्यक्ति भी बिस्तर से उठ खड़ा होता था। राजकुमार को यह फल सबसे अधिक उपयोगी लगा और स्वर्णमुद्राएँ देकर उसने वह फल खरीद लिया।
इस तरह से तीनों ही राजकुमार ने अपनी-अपनी बुद्धिमानी से श्रेष्ठ वस्तुओं का चयन कर उसे खरीद लिया। तीनों ने अलग होते समय एक-दूसरे से वादा किया था कि एक निष्चित दिन और समय पर वे आपस में मिलेंगे।वे लोग तय किए गए समय पर उस स्थान पर पहुँच गए। तीनों ने अपनी-अपनी चीजों की विषेषताओं के बारे में बताया। उसके बाद पहले राजकुमार ने चष्मा पहनकर रानी माँ को देखने की इच्छा प्रकट की। देखा तो पता चला कि रानी माँ बहुत अधिक बीमार है और मरणासन्न स्थिति में बिस्तर पर लेटी हैं। उसने दोनों भाइयों को ये बात बताई। दूसरा राजकुमार बोला- चिंता की कोई बात नहीं। हम तीनों इस जादुई कालीन पर बैठ कर अभी राजमहल पहुँच जाते हैं। वे तीनों ही कालीन पर बैठ गए और पल भर में ही रानी माँ के पास थे। वहाँ पहुँचकर तीसरे राजकुमार ने अपनी जेब से जादुई फल निकाला और रानी माँ को सूँघाया। फल सूँघते ही रानी माँ तो बिस्तर से उठ बैठी, जैसे कुछ हुआ ही न हो। सामने देखा तो तीनों राजकुमार खड़े मुस्करा रहे थे। रानी माँ और राजा तीनों बेटों को देखकर बहुत खुष हुए। रानी माँ ने तीनों बेटों को गले लगा लिया और खूब प्यार किया। तीनों राजकुमार ने फिर अपना पुराना प्रष्न उनके सामने रख दिया।
रानी माँ बोली- मुझे क्या मालूम कि तुम तीनों कौन-सी वस्तु लेकर आए हो? उसके बारे में जाने बिना मैं कोई निर्णय कैसे ले सकती हूँ? तब पहले राजकुमार ने अपने जादुई चष्मे के बारे में बताया कि किस प्रकार उसे पहनकर उसने रानी माँ के बीमार होने का पता लगाया और फिर हम तीनों यहाँ आ पहुँचे। दूसरा राजकुमार शीघ्र ही बोला- ना, ना, वो तो मेरे जादुई कालीन पर बैठ कर हम तीनों कुछ ही पलों में यहाँ पहुँचे हैं।
इतनी देर से चुप खड़ा तीसरा राजकुमार बोल पड़ा- ये तो सच है कि बड़े भाई और मँझले भाई के कारण आपकी बीमारी का पता चला और शीघ्र ही यहाँ आना संभव हो पाया, किंतु मेरे द्वारा लाए गए जादुई फल का ही प्रभाव था कि आप उसको सूँघते ही तुरंत बिस्तर से उठ खड़ी हुई। अत: इन तीनों में श्रेष्ठ तो मैं ही हुआ।
रानी माँ ने तीनों बेटों की तरफ मुस्कराते हुए देखा और बोली- मुझे ठीक करने में तुम तीनों का ही बराबर का हाथ है। यदि जादुई चष्मे से देखा न जाता, तो मेरे बीमार होने का पता ही न चलता। यदि जादुई कालीन न होता तो शीघ्र ही राजमहल पहुँचना संभव ही न था और यदि ये जादुई फल ही न होता तो आज मेरा जीवित बचना संभव ही न था, क्योंकि वैद्य तो उपचार करते हुए हार गए थे और निराष हो चुके थे। इसलिए मेरे जीवित होने में तुम तीनों के द्वारा लाई गई वस्तुओं की बराबर की हिस्सेदारी है। वैसे भी माँ के लिए तो बेटे ऑंखों के तारे के समान हैं। तुम तीनों ही मेरी ऑंखें हो। क्या किसी एक ऑंख को श्रेष्ठ कहा जा सकता है भला? फिर श्रेष्ठ तो वह होता है, जो दूसरों को श्रेष्ठ समझे। इस दृष्टि से तुम तीनों ही श्रेष्ठ हो। मेरे प्यारे बेटों, मेरी नजरों में तो तुम तीनों ही मेरे अनमोल रतन हो, ऐसा कहते हुए रानी माँ ने तीनों राजकुमारों को फिर से गले लगा लिया।
रानी माँ की बातें सुनकर तीनों राजकुमारों का अहंकार नष्ट हो गया और वे जीवन में सदैव स्वयं को श्रेष्ठ न मानकर दूसरे को श्रेष्ठ मानने लगे।
भारती परिमल

सोमवार, 13 जुलाई 2009

समस्त धाराओं को बौना साबित करते दलितों पर अत्याचार


डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में दलित उद्धार की बातें बहुत सुनी जाती हैं। सरकारी घोषणाओं को सुनकर ऐसा लगता है कि अब दलितों पर अत्याचार होना बंद हो जाएगा। दलित उद्धार के जुमले नेताओं के लिए वाणी विलास बनकर रह गए हैं। देखने में तो यहाँ तक आ रहा है, जो नेता जितनी जोर से दलितों पर अत्याचार खत्म करने की दुहाई देता है, उसी के राज में दलितों पर अत्याचार होते हैं। देश के दो बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों पर जिस तरह से अत्याचार बढ़ रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि अपराध की सारी धाराएँ वहाँ जाकर खामोश हो जाती हैं।
जिस देश में सत्तारुढ़ दल की नेता एक महिला हो, जिस देश की प्रथम नागरिक एक महिला हो, जिस देश में लोकसभा अध्यक्ष एक महिला हो, वह भी दलित, इसका लाभ सत्तारुढ़ दल से खूब उठाया, इसके बाद भी उस देश में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार की सूची लंबी से लंबी होती हो, उस देश का क्या कहना? सबसे बड़ी बात तो यह है कि दलितों के उद्धार के नाम पर मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती के राज में ही महिलाओं पर होने वाले अत्याचार लगातार बढ़ रहे हों, तो उस देश को क्या कहा जाए। विदेश में संभ्रांत परिवारों के बच्चों पर होने वाले हमले को लेकर चिंताग्रस्त होने वाली सरकार अपने ही देश की महिलाओं पर होने वाले अत्याचार पर किस तरह से खामोश हो जाती है। समझ में नहीं आता कि चुनाव जीत जाने के बाद दलितों पर होने वाले अत्याचार क्यों दिखाई नहीं देते? या इस पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं होते?
अब आते हैं सच्चे आँकड़ों की दुनिया में। नेशल क्राइम ब्यूरो के अनुसार 2008 में दलितों पर सबसे अधिक अत्याचार उत्तर प्रदेश में हुए। यह शायद बहन जी मायावती को नहीं मालूम कि 2007 में उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार की 6628 घटनाएँ हुई। 2008 में यह आँकड़ा बढ़कर 6942 हो गया। यदि प्रधानमंत्री बनने का मायावती का सपना पूरा हो जाता, तो देश दलितों के अत्याचार के मामले में कितना आगे बढ़ जाता। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमिशन यानी मानवाधिकार आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 21 प्रतिशत भाग दलितों के हिस्से है। यहाँ अधिकांश झगड़े जमीन को लेकर होते हैं। वहाँ के सवर्ण लोग को यह अच्छा नहीं लगता कि एक दलित किसी तरह भी जमीन का मालिक बने। भले ही उसकी जमीन काफी छोटी हो या फिर बंजर ही क्यों न हो। दूसरी ओर यदि कोई दलित व्यक्ति सवर्ण के इलाके में सज-धजकर कहीं निकलता है, तो यह भी सवर्णों को गवारा नहीं। बात यहाँ तक होती, तो समझ में आ सकता है। इस प्रजातांत्रिक देश में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि किसी दलित की शादी ाहे रही हो, तो उसकी बरात सवर्णों के इलाके से नहीं गुजर सकती। यही नहीं, उस इलाके में दलित डांस नहीं कर सकते। वहाँ पटाखे नहीं चला सकते। उस स्थान पर खुशियाँ नहीं मना सकते। इसके बाद भी सरकार की ओर से कभी कोई ऐसी कार्रवाई नहीं होती, जिससे लोगों को सबक मिले। हद तो तब हो गई, जब एक दलित विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आया। माता-पिता खुशी से झूम उठे। यह खुशी तब और दोगुनी हो गई, जब यह पता चला कि समीप के जिले में उनका बेटा कलेक्टर हो गया है। तब वे मिठाई लेकर लोगों का मुँह मीठा करने निकल पड़े। खुशी के मारे वे वहाँ के जमींदार के घर पहुँच गए। जिनके खेत में जिसने कभी मजदूरी की हो, वही मजदूर आज उनके सामने मिठाई का डिब्बा लेकर उनका मुँह मीठा करने के लिए आए हों, तो यह एक जमींदार के लिए शर्म की बात थी। बस फिर क्या था... हवेली में मिठाई देने की तेरी हिम्मत कैसे हुई? अपनी औकात तो देख लेते। इस जुमले के साथ मिठाई का डिब्बा तो फेंका ही, उसके बाद उन दलितों की जो धुनाई हुई, उससे किसी फिल्मी जमींदार के अत्याचार जीवंत हो उठे। ऐसे मिली उस दलित माता-पिता को खुशियाँ बाँटने की सजा!
ऐसा केवल उत्तर प्रदेश में ही होता है, ऐसी बात नहीं है। बिहार की स्थिति भी काफी भयावह है। वहाँ नीतिश कुमार के राज में भी अत्याचारों का सिलसिला थमा नहीं है। 2008 में वहाँ दलितों पर अत्याचार के 2786 हुए। उत्तर प्रदेश हो या फिर बिहार। इंडियन पेनल कोड की सभा धाराएँ यहाँ के अपराध के आगे खामोश हो जाती हैं। हत्या, बलात्कार, मारपीट, लूटपाट, झोपड़े जलाना, जल आपूर्ति रोक देना, इतने अधिक ब्याज पर कर्ज देना कि पीढिय़ों तक न चुका सके। इस संबंध में बिहार महादलित संघ के अध्यक्ष विश्वनाथ ऋषि कहते हैं कि सामान्य रूप से दलितों पर जो अत्याचार होते हैं, तब अत्याचार निवारण की धारा 1989 के तहत एफआईआर दर्ज होनी चाहिए, पर पुलिस के तटस्थ न रहने से वह इसमें फेरबदल कर देती है और मामला साधारण बन जाता है। यदि सब कुछ सही तरीके से हो, तो अत्याचारी को उस कानून के तहत अत्याचार सहन करने वाले को मुआवजा दिया जाना चाहिए। पर पुलिस ऐसा होने कहाँ देती है।
उत्तर प्रदेश और बिहार के बाद यदि आंध्र प्रदेश चला जाए, तो वहाँ तो पूरा इतिहास ही काला है। सन 2007 में वहाँ दलितों पर होने वाले अत्याचारों का आँकड़ा 3383 था, इसमें 103 बलात्कार के और 46 हत्या के मामले थे। यहाँ याद रखने वाली बात यह है कि ये आँकड़े नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार हैं। पुलिस की डायरी में जो गुनाह दर्ज हैं, उसका जिक्र इसमें नहीं है। कई मामले तो पुलिस अपने तईं ही रफा-दफा कर देती है। इस मामले में पुलिस की भूमिका अहम है। अत्याचार के मामले में वह भी कम नहीं है। फिर बिहार की पुलिस का क्या कहना। दलितों के पास सहन करने के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। जिस दिन दलित अत्याचारों के सही आँकड़े संसद में रख दिए जाएँगे, तो एक प्रलयंकारी स्थिति पैदा हो जाएगी। खामोश हो जाएगा, नेताओं का वाणी विलास। मौन हो जाएगी, मानवता। विशाल से विशालतम हो जाएगी, दरिंदगी। इतना कुछ होने पर भी क्या हम गर्व से कह पाएँगे, मेरा भारत महान्!
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 11 जुलाई 2009

स्वीटी को मिली सीख


भारती परिमल
एक थी शरारती लड़की। नाम था स्वीटी। उसकी शरारतों से घर के सभी लोग परेशान थे। मम्मी तो सबसे ज्यादा परेशान थी। आखिर छह साल की नन्हीं लड़की सभी की नकल करे और सबका मजाक उड़ाए, तो यह तो वास्तव में परेशानी की ही बात थी। मम्मी ने उसे प्यार से कितनी ही बार समझाया- बेटा, ऐसा नहीं करते। किसी की नकल करना बुरी बात होती है। लेकिन शरारती स्वीटी अपनी मम्मी की बात एक कान से सुनती और दूसरे से निकाल देती। वह हमेशा पापा के पेपर पढऩे के तरीके, मम्मी की साड़ी पहनने का ढंग, दादाजी के बोलने, दादीजी के पूजा करने और चाचा के उठने-बैठने की नकल उतारती थी और बदले में सभी से डाँट भी खाती थी।
स्वीटी को एक दूसरा शौक था- टी.वी. देखना। पापा समझाते हुए कहते- स्वीटी, ज्यादा समय तक टी.वी. नहीं देखते, अधिक पास से टी.वी. नहीं देखते, यह अच्छी बात नहीं है। स्वीटी जवाब देती- लेकिन पापा, कार्टून नेटवर्क तो मेरा प्यारा शो है। मुझे तो इसे देखना बहुत अच्छा लगता है। आप भी देखिए, आपको भी खूब मजा आएगा। पापा को गुस्सा आ जाता, वे कहते- तो फिर पढ़ोगी कब? तुम्हें बाहर खेलने जाना चाहिए। खेलने से शरीर की कसरत होती है। शरीर में स्फूर्ति आती है। दिन भर टी.वी. के सामने बैठे रहने से आँखें और शरीर दोनों ही खराब हो सकते हैं।
स्वीटी पर न तो पापा की बातों का असर होता, न ही मम्मी के समझाने का। बहुत हुआ तो पापा के घर में रहते समय वह होमवर्क कर लेती और फिर जैसे ही पापा घर से बाहर गए कि स्वीटी बैठ जाती टी.वी. के सामने। स्वीटी को घूमना भी खूब अच्छा लगता था। वह हमेशा बाहर जाने की जिद करती। जब पड़ोस की कोई आंटी या अंकल उससे कहते कि चलो स्वीटी हमारे साथ घूमने चलना है? तो स्वीटी तुरंत तैयार हो जाती, पर यहाँ मम्मी उसकी एक न सुनती और उसे जिद करके घर में ही रहने को कहती। क्योंकि उसे मालूम था कि यदि एक बार स्वीटी को बाहर घूमने-फिरने की आदत लग गई, तो वह हमेशा घूमना ही पसंद करेगी। घर में रहते हुए तो उसे डाँट-डपट कर अपनी मर्जी से कुछ करवाया जा सकता है, लेकिन यदि उसे बाहर घूमने की आदत हो गई तो फिर तो उसे घर में रहना जरा भी अच्छा नहीं लगेगा। साथ ही घूमने-फिरने से चॉकलेट-टॉफी या अन्य चटपटा खाने की आदत भी पड़ जाएगी। फिर तो स्वीटी को संभालना बड़ा मुश्किल होगा। यह सोचकर स्वीटी की मम्मी उसकी बाहर घूमने जाने की जिद कभी पूरी नहीं करती थी।
एक बार स्वीटी स्कूल की छुट्टी होने पर स्कूल से बाहर निकल ही रही थी कि उसके सामने एक कार आकर खड़ी हो गई। कार के अंदर से एक आदमी बाहर आया और स्वीटी से बोला- चलो बेटे, तुम्हें घर तक छोड़ दूँ। एक अनजाने आदमी को इस तरह प्यार से बोलते देख स्वीटी को आश्चर्य हुआ, वह बोली- नहीं, मेरी वैन अभी आ जाएगी।
आदमी ने कहा- अरे तो क्या हुआ? उस वैन में दूसरे बच्चे चले जाएँगे। तुम्हें, तुम्हारे घर छोड़ते हुए मुझे बहुत खुशी होगी। हम आपस में रास्ते में बातचीत करेंगे, कुछ खाएँगे-पीएँगे और इतने में तुम्हारा घर आ जाएगा। तुम घर चली जाना। स्वीटी को लगा- वाह, नई-नई कार में बैठने में कितना मजा आएगा। वैन वाले अंकल तो हम सभी बच्चों को कितना ठूँस-ठूँस कर भरते हैं। कभी-कभी तो जगह ही नहीं मिलती, एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते, धक्का खाते हुए घर जाना पड़ता है। यहाँ तो कार में सिर्फ मैं ही बैठूँगी, पूरी सीट मेरी होगी। फिर अंकल भी तो बहुत प्यारे लग रहे हैं। रास्ते में चॉकलेट-टॉफी भी दिलाएँगें। वह तो झट से कार में बैठ गई। उसने पूछा- आपका नाम क्या है अंकल? मेरा नाम सुरेश है। तुम्हारा घर कहाँ है?
स्वीटी बोली- सुंदरनगर के लक्ष्मी कॉटेज में।
अंकल बोले- अरे वाह! यह तो बहुत अच्छी बात है। मुझे भी तो वहीं जाना है। ऐसा कहते हुए अंकल ने जेब से चॉकलेट निकालकर स्वीटी के हाथों में पकड़ाई। चॉकलेट खाने के थोड़ी देर बाद ही स्वीटी को लगा कि मुझे इतनी ज्यादा नींद कैसे आ रही है? मैं तो कभी दिन में सोती ही नहीं हूँ। मम्मी तो बोल-बोल कर परेशान हो जाती है और मैं तो टी.वी. के सामने बैठी रहती हूँ। सीधा रात को ही बिस्तर में जाती हूँ। आखिर मुझे इतनी नींद क्यों आ रही है? इसके आगे वह कुछ और सोचे कि नींद के कारण उसकी आँखें ही बंद हो गई।
सुरेश ने कार की स्पीड बढ़ा दी। थोड़ी देर बाद उसे लगा कि दूसरी कार उसका पीछा कर रही है। उसने अपनी कार को हाई-वे की तरफ मोड़ दिया। पीछे वाली कार भी हाई-वे की ओर चल पड़ी। अब तो उसे यकींन हो गया कि सचमुच उसका पीछा किया जा रहा है। वह अपनी कार की स्पीड बढ़ाता उसके पहले ही पीछे वाली कार तेज स्पीड के साथ उसके सामने आकर खड़ी हो गई। अब सुरेश को अपनी कार रोकनी पड़ी। उसे पता नहीं था कि कार में कौन है?
क्यों, क्या बात है? कार कोई रूकवाई? उसने गुस्से से पूछा। कार में से स्वीटी के पापा बाहर निकले और उन्होंने भी तेज आवाज में पूछा- यह आपकी कार में जो लड़की सो रही है, वह कौन है? सुरेश ने कहा- जो भी है, आपको इससे क्या मतलब? आप अपने रास्ते पर आगे जाइए।
स्वीटी के पापा ने सुरेश का कॉलर पकड़ लिया और उसे कार से बाहर निकलने पर विवश कर दिया। स्वीटी के पापा के साथ उसके छोटे भाई यानी स्वीटी के चाचा भी थे। दोनों ने मिलकर उस अकेले आदमी को खूब मारा और फिर मोबाइल की मदद से पुलिस को भी बुला लिया। सुरेश गिड़गिड़ाने लगा- मुझे छोड़ दो, परंतु उसकी एक न सुनी गई और पुलिस उसे पकड़ कर ले जाने लगी।
अब तक स्वीटी की नींद खुल गई थी। उसे कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने पुलिस को देखा, पापा को देखा और उस अनजाने अंकल को पुलिस से घिरे देखा तो वह तो डर ही गई। बस, पापा को देखकर वह उनसे लिपटकर रो पड़ी। पापा बोले- तुझे कुछ पता भी है? यह आदमी तुम्हें उठाकर ले जा रहा था! यदि हमने तुम्हें स्कूल में उसकी कार में बैठेते समय न देखा होता, तो न जाने क्या होता?
अब स्वीटी को समझ में आया कि उसने एक अनजाने आदमी पर विश्वास कर कितनी बड़ी गलती की थी। उसे मम्मी की बात याद आई कि वह उसे कभी भी किसी के भी साथ जाने से क्यों मना करती थी। उसे पापा की हिदायतें भी सच्ची लगने लगी। मम्मी की समझाइश को भी वह एक-एक कर याद करने लगी। पापा और चाचा के साथ घर की ओर लौटते हुए उसने मन ही मन फैसला कर लिया था कि अब वह हमेशा मम्मी-पापा की बात मानेगी और कभी भी गलत बात के लिए जिद नहीं करेगी।
भारती परिमल

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

गांवों को रोशन करेगी सोलर लालटेन


एक ऐसे समय में जब ऊर्जा के लिए परमाणु के रास्ते को सबसे कारगर बताया जा रहा है और चारों ओर भारत - अमेरिका परमाणु सौदे के फायदे गिनाए जा रहे हैं, अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों पर चल रहा काम परवान चढ़ रहा है।
इसी क्रम में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने और रात्रि विद्यालयों को स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिए अप्लाइड मैटेरियल्स और नेशनल एनर्जी फाउंडेशन( एनईएफ )ने ग्रामीण इलाकों में संयुक्त रूप से सोलर लालटेन बांटने का फैसला किया है। बिजली की कमी से जूझ रहे उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में लोगों को सौर ऊर्जा के इस्तेमाल से रूबरू कराने के लिए यह पहल की गई है।
दिलचस्प बात यह है कि तमिलनाडु के कांचीपुरम में 25 और आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में रात्रि विद्यालयों में पहले ही ये लालटेन दिए जा चुके हैं। अप्लाइड मैटेरियल्स बेंगलुरु की आईटी और बिजनेस प्रोसेस सल्यूशंस कंपनी है। अप्लाइड मैटेरियल्स के प्रेजिडेंट डॉ . मधुसूदन अत्रे ने अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों पर ध्यान देने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा , ' तेल के अंतरराष्ट्रीय संकट को देखते हुए हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत का इस्तेमाल करने के प्रयास करने चाहिए। ' अभी सौर ऊर्जा के विकास में उच्च लागत और उपकरण के रखरखाव पर खर्च होने वाली भारी राशि बाधा बनी हुई है।
ऊर्जा एवं पर्यावरण संतुलन पर ध्यान केंद्रित करते हुए सेमीकंडक्टर निर्माता कंपनियां वैकल्पिक ऊर्जा के स्त्रोत से ऊर्जा पाने वाली तकनीक को आम आदमी की पहुंच में लाने के प्रयास कर रही हैं। अभी सोलर लालटेन बांटने का प्रोजेक्ट पिछली योजना का विस्तार है। गौरतलब है कि पिछले वर्ष 40 लालटेन बांटे गए थे और उस योजना को भारी सफलता मिली थी।
अत्रे ने कहा,' हमने ये लालटेन बेंगलुरु की वैकल्पिक ऊर्जा कंपनी कोटक ऊर्जा से हासिल किए हैं। इस बार लिए गए लालटेन की कीमत 17-20 लाख रुपए के बीच आई है। हमने कर भुगतान पूर्व आय का एक फीसदी सामाजिक कार्यों के लिए खर्च करने का फैसला किया है।

एनईएफ के प्रेजिडेंट और आईआईटी मुंबई में प्रोफेसर चेतन सोलंकी कहते हैं, ' ग्रामीण इलाके में सोलर लालटेन बहुत उपयोगी हैं। दिन में बच्चे अपने माता - पिता के साथ काम में हाथ बंटाते हैं और ज्यादातर वे शाम को स्कूल जाते हैं। इसके इस्तेमाल से 2 फायदे हैं - एक तो वातावरण साफ रहता है और दूसरा, छात्रों एवं शिक्षकों के लिए यह आकर्षण का केंद्र होता है। '
वैकल्पिक ऊर्जा के स्त्रोत और उनके इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने भी कई कदम उठाए हैं। ताजा फैसले में सरकार ने मिट्टी के तेल पर दी जा रही सब्सिडी का कुछ हिस्सा सौर ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए बांटने का फैसला किया है। प्रोफेसर सोलंकी कहते हैं कि सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास शुरू करने में देर हुई और प्रयासों को लागू किए जाने में अब भी गंभीरता नहीं बरती जा रही है।
उन्होंने कहा' सरकारी प्रयास कभी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचते, जबकि इन्हें बनाने का उद्देश्य काफी मददगार साबित हो सकता है।'गौरतलब है कि देश में सौर, पवन और अन्य अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों से पैदा हो रही बिजली कुल उत्पादन का 8 फीसदी है जबकि परमाणु ऊर्जा से अब तक महज 3 फीसदी ही उत्पादन हासिल किया जा सका है।

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

फ्लॉप शो साबित हुआ आम बजट


नीरज नैयर
इस आम बजट को आमजन की अपेक्षाओं के अनुरूप तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सरकार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के इसमे सारे गुण मौजूद हैं. वित्तमंत्री प्रणव
मुखर्जी ने भविष्य में राजनीतिक लाभ से संबंधित योजनाओं को अत्याधिक प्रमुखता दी है. बजट में टैक्सों की हेराफेरी और थोड़ी बहुत छूट प्रदान करके लोकलुभावन बनाने की कोशिश की है लेकिन वो भी कारगर होती नजर नहीं आती. बजट में आयकर छूट सीमा जो पहले 1,50,000 तक थी उसे अब 1,60,000 कर दिया गया है, ऐसे ही महिलाओं के लिए इसे 1,80,000 से बढ़ाकर 1,90,000 किया गया है, हालांकि वरिष्ठ नागरिक इस मामले कुछ ज्यादा फायदे में रहे हैं उनके लिए छूट सीमा पहले के 2,25,000 से बढ़ाकर 2,40,000 कर दी गई है. यानी वरिष्ठ नागरिकों को छोड़कर अधिकतम रियायत दी गई महज 10,000. बजट में जीवन रक्षक दवाएं, बड़ी कारें, एलसीडी, मोबाइल फेान,
सीएफएल,वाटर प्यूरीफायर, खेल का सामान आदि सस्ता किया गया है. जबकि डॉक्टर-वकील की सलाह, सोना-चांदी, कपड़े आदि के लिए अब ज्यादा दाम चुकाने होंगे.
नफे -नुकसान के गुणा-भाग में उतरने से पहले बजट के बाकी हिस्सा पर भी प्रकाश डालाना बेहतर रहेगा, प्रणव मुखर्जी ने किसानों का खास ख्याल रखने की बात कही है, उन्हें अब सस्ते दर से कर्ज दिया जाएगा. खाद सब्सिडी अब उनके हाथ तक पहुंचाई जाएगी. 2014-15 तक गरीबी उन्नमूलन की दिशा में उल्लेखनीय काम करने का प्रावधान बजट में है, इसके अलावा अल्पसंख्यकों पर दरियादिली की बरसात की गई है, एससी-एसटी और ओबीसी में आने वाले बच्चों की शिक्षा पर अत्याधिक ध्यान केंद्रित किया गया है. अब बात शुरू करते हैं आयकर छूट से जिसको सरकार की तरफ से बहुत बड़ा कदम बताया जा रहा है, अगर दो हफ्ते पहले ये बजट आता और ये प्रावधान किया गया होता तो कुछ हद तक इसे बड़ा कदम करार दिया जा सकता था लेकिन मौजूदा वक्त में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं. बजट से ठीक पहले सरकार पेट्रोल पर चार और डीजल पर दो रुपए बढ़ा
चुकी, उस लिहाज से इस छूट को ऊंट के मुंह में जीरा समान कहा जा सकता है. छूट की सच्चाई को विस्तार से समझने के लिए हम इसको ऐसे देख सकते हैं, अगर आपकी सालाना कमाई 500,000 से 9,90,000 के आसपास है तो आपकी सालाना बचत हुई करीब 1030, अगर 10,00,000 है तो 21530, 20,00,000 पर 51530, और 50,00,000 पर तकरीबन 1,41,530 के आसपास. पहले वाली श्रेणी यानी 500,000 से 9,90,000 को लेकर आगे चलते हैं, इतनी कमाई पर बचत का आंकड़ा सालाना हजार रुपए से थोड़ा सा ज्यादा है और महीने की बात की जाए तो यह पहुंचता है करीब 85.83 के इर्द-गिर्द. अब जरा सोचें की मेट्रो सीटी में रहने वाला एक व्यक्ति जो प्रति माह 100 लीटर के आस-पास पेट्रोल खर्च करता है, उसे तेल की कीमत में मौजूदा वृद्धि के बाद चार रुपए ज्यादा चुकाने होंगे यानी पहले अगर वो 42 रुपए देता था तो अब उसे 46 देने पड़ेंगे.
इस हिसाब से 100 गुणा चार मतलब कुल भार बढ़ा 400 और बचत हुई महज 85.83. यानी अगर सही मायनों में देखा जाए तो सरकार ने जितना दिया नहीं उससे
ज्यादा वसूल कर लिया. छूट के रूप में सरकार ने केवल एक झुनझुना पकड़ाया है जिसे देखकर बच्चा तो मुस्कुरा सकता है लेकिन पेशेवर व्यक्ति नहीं. अब यह तो केवल प्रणव
मुखर्जी और मनमोहन सिंह की आर्थिक विशेषज्ञों की टीम ही बता सकती है कि इस बजट में उदारता जैसे शब्द कहां हैं. बजट में राष्ट्रीय ग्रामीण जैसी योजनाओं पर पैसे की बरसात की गई है जबकि यह कई बार उजागर हो चुका है कि यह योजना भ्रष्टाचार की गिरफ्त में है. कहीं-कहीं तो काम करने के बाद भी मजदूरों को उनका मेहनताना नहीं
मिलता. ऐसे में ज्यादा जरूरत इस तरह की योजनाओं के व्यापक क्रियान्वयन की थी ताकि जिनके लिए योजनाएं बनाई गई हैं उन तक लाभ पहुंच सके. जहां तक बात
अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों को लुभाने की है तो ये पूरा वोट बैंक को रिझाने वाला स्टंट है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत का इजाफा किया गया है. इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, बैंक आदि की व्यवस्था पर भी सरकार ने नजरें इनायत की हैं. यह धनराशि खास तौर से नौ योजनाओं पर खर्च की जाएगी. ज्यादा ध्यान 20 प्रतिशत से अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों में मल्टी सेक्टोरल योजना के कार्यों पर दिया जाएगा. अल्पसंख्यक छात्रों की तालीम के मद्देनजर पूर्व मैट्रिक छात्रवृत्ति, मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति के साथ ही उच्च स्तर पर व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों के लिए योग्यता सह-युक्ति छात्रवृत्ति को भी प्राथमिकता में शामिल किया गया है. इसके साथ ही पश्चिम बंगाल व केरल में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैंपस खोले जाने के लिए 25-25 करोड़ की योजना अलग से है. बजट में अनुसूचित जाति के छात्रों को मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति के मद में ही करीब 750 करोड़ खर्च करने का एलान किया गया है, इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति एवं पिछड़े वर्ग को विशेष केंद्रिय सहायता में 450 करोड़ अगल रखें गये हैं. पिछड़े वर्ग के छात्रों की मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति योजना के लिए 135 करोड़ा का प्रावधान है, जबकि इस
समुदाय के मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति के लिए 30 करोड़ और रखे गये हैं. सरकार का मानना है कि इससे करीब 11 लाख पिछड़े विधार्थियों का भला होगा. ठीक ही है, इतनी रकम से किसी का भी भला हो सकता है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि सामान्य वर्ग की झोली में क्या डाला गया. क्या सामान्य जाति के बच्चों को छात्रवृत्ति की खास जरूरत नहीं
पड़ती, क्या गंदगी और अव्यवस्थाओं का आलम केवल अल्पसंख्यक बहुल जिलों में ही होता है. बजट में सामान्य वर्ग की जरूरतों पर कोई ध्यान केंद्रित नहीं किया गया. माना जा रहा था कि सरकार बजट में महंगाई से राहत दिलाने के लिए कुछ कदम उठा सकती है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा तेल मूल्यों के लिए एक टास्क फोर्स यानी स्टडी ग्रुप बनाने की बात कही गई है. पिछले एक साल में देश में 65 फीसदी परिवारों का जीवन स्तर पहले के मुकाबले खराब हुआ है. इसकी वजह खाद्य और अन्य वस्तुओं की कीमतें बढऩा है. हालांकि यह बात अलग है कि मुद्रास्फीति की दर दिसंबर 2008 से ही 3 फीसदी से नीचे बनी हुई है. कुल मिलाकर कहा जाए तो यह आम बजट पूरी तरह फ्लॉप शो साबित हुआ है और इससे ये संकेत मिलते हैं कि आने वाले दिनों में आयकर में दी गई नाममात्र छूट के एवज में सरकार और कुछ और भार बढ़ा सकती है.
नीरज नैयर

बुधवार, 8 जुलाई 2009

बादल और झरना


एक था बादल। छोटा-सा बादल। एकदम सूखा और रूई के फाहे सा कोमल। उसे लगता - यदि मैं पानी से लबालब भर जाऊँए तो कितना मजा आए! फिर मैं धरती पर बरसूँगा, मेरे पानी से वृक्ष ऊगेंगे, पौधे हरे-भरे होंगे, सारी धरती पर हरियाली छा जाएगी... खेत अनाज की बालियों से लहलहाएँगे... ये सभी देखने में कितना अच्छा लगेगा! लेकिन इतना पानी मैं लाऊँगा कहाँ से?एक बार वो घूमते-घूमते पहाड़ पर पहुँचा। वहाँ उसे एक झरना बहता हुआ दिखाई दिया। उसे बहता झरना देखना बहुत अच्छा लगा। उसे लगा क्यों न मैं इस झरने से दोस्ती करूँ? हो सकता है वह मुझे थोड़ा-सा पानी दे दे। वह झरने के नजदीक आया।
- प्यारे झरने, क्या तुम मेरे दोस्त बनोगे?
- मैं तो सभी का दोस्त हूँ, झरना बोला।
- वो तो ठीक है, पर आज से हम दोनों पक्के दोस्त।
झरना भी खुश हो गया। बादल से हाथ मिलाते हुए बोला- ठीक है, पर मेरी एक शर्त है। तुम्हें मेरे साथ ही रहना होगा। मुझसे रोज बातें करनी होगी। कहीं छिप मत जाना। बोलो है मंजूर?
- हाँ, मुझे मंजूर है। मुझे तुम और तुम्हारी दोस्ती दोनों पसंद है।
फिर तो झरना और बादल दोनों पक्के दोस्त बन गए। झरना कूदते-फाँदते नीचे की ओर बहता, तो बादल भी उसके साथ दौड़ने की कोशिश करता। कभी-कभी वो झरने के साथ दौड़ लगाने में हाँफ जाता, तो झरना उसे हाथ पकड़कर खींच लेता। दोनों मिल कर देर तक खूब बातें करते। आसपास ऊगे फूल, पौधे, बेल, पेड़ सभी उनकी बातें सुनते। उनकी प्यार भरी बातें उन्हें बहुत अच्छी लगतीं।
एक दिन बादल ने कहा- प्यारे दोस्त, मुझे तुमसे कुछ चाहिए।
झरना बोला- कहो, क्या चाहिए? हम तो पक्के दोस्त हैं। तुम जो कहोगे, वो मैं तुम्हें दूँगा।
बादल ने कहा- मैं एकदम सूखा हूँ। मेरे भीतर का खालीपन मुझे उदास कर देता है। क्या तुम मुझे अपना पानी दे सकते हो?
झरना बोला- इसमें क्या है? ये तो तुम्हें दे सकता हूँ, पर कुछ दिन ठहर जाओ, इतने पानी से तुम्हारा कुछ न होगा, इसलिए मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें बहुत सारा पानी दिलवाऊँगा।


झरने की बात सुनकर बादल खुश हो गया, उसके पैरों में नई स्फूर्ति आ गई। झरना और बादल दोनों ही पर्वत से होकर गुजरने लगे। दौड़ते-दौड़ते जब वे काफी नीचे आ गए, तब उन्हें वहाँ नदी मिली। झरना तो धम्म् से नदी में जा गिरा, उधर बादल अपने पास झरने को न पाकर परेशान हो गया, वह उसे इधर-उधर देखने लगा।
इतने में नदी से आवाज आई- देखो बादल, मैं यहाँ हूँ, इस नदी के भीतर। यहाँ बहुत सारा पानी है। तुम्हें जितना चाहिए, उतना पानी ले लो।
बादल की ऑंखों में ऑंसू आ गए, क्योंकि झरना तो उसे दिखाई ही नहीं दे रहा था, केवल उसकी आवाज़ ही सुनाई दे रही थी, वह नदी के भीतर झरने को खोजने के लिए नदी के साथ-साथ दौड़ने लगा।
नदी बोली- तुम दु:खी क्यों होते हो बादल, झरना तो मुझमें समा गया। पर तुम्हें तो पानी चाहिए ना, चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें बहुत सारा पानी दूँगी।,
बादल के पास अब कोई चारा न ािा, क्योंकि झरना तो नदी में खो गया था, इसलिए उसे तो नदी की बात माननी ही थी, वह चल पड़ा नदी के साथ। रास्ते में खेत, खलिहान, जंगल, शहर, गाँव, बाग-बगीचे सभी आते गए। इस तरह चलते-चलते एक दिन दूर से दिखाई दिया समुद्र। गरजता, उछलता, हिलोरें मारता, अपनी मस्ती में मस्त होता समुद्र। बड़ी-बड़ी लहरों के साथ अठखेलियाँ करते किनारों को देखकर नदी ने बादल से कहा- ले लो पानी, जितना चाहो उतना। ऐसा कहते हुए नदी भी समुद्र में समा गई।
बादल एक बार फिर परेशान हो गया, ये क्या हो रहा है? झरना नदी में खो गया, नदी समुद्र में खो गई! कोई बात नहीं, अब निराश होने से कुछ न होगा, चलो मैं भी अपने लिए पानी ले लूँ, ऐसा सोचते हुए बादल ने अपने भीतर खूब सारा पानी भर लिया।
समुद्र को धन्यवाद देते हुए वह उड़ चला। रास्ते में धरती पर जल बरसाता जाता, उसकी इस मीठी फुहार से जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, बाग-बगीचे, जंगल, खेत, खलिहान, बूढ़े, बच्चे, जवान सभी खुश हो गए।
उड़ते-उड़ते बादल फिर पहँचा, उसी पर्वत पर। नजर घुमाकर देखा, तो झरने को मुस्काता पाया। बादल को देखकर वह खिलखिलाकर हँसा और पूछने लगा- कहाँ थे तुम, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ?
बादल ने कहा- लेकिन तुम तो खो गए थे।
नहीं, मैं तो यहीं हूँ, इसी पर्वत पर, तुम्हारे साथ, इस तरह से झरना और बादल फिर एक हो गए।
भारती परिमल

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

विश्वास की डोर न हो कभी कमजोर


कहते हैं कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है। किसान बादलों पर विश्वास करता है और हम सीमा पर खड़े अपने जवानों पर विश्वास करते हैं। नेता मतदाताओं पर विश्वास करता है और नियोक्ता अपने कर्मचारियों पर विश्वास करता है। यदि कोई काम टीम वर्क द्वारा किया जा रहा हो तो टीम के सभी सदस्यों को एक-दूसरे की क्षमता पर विश्वास होना चाहिए। मतभेद होने पर उनके बीच झगड़े की नौबत आएगी, जो टीम को एकजुट बनाए रखने में बाधक बन सकता है।
विश्वास की यह डोर टीम के सभी सदस्यों के नैतिक आचरण और बर्ताव से भी जुड़ी है। एक भी सदस्य अगर गलत काम करता है तो या तो उसका विरोध होगा या वह टीम से बाहर कर दिया जाएगा। लेकिन यदि टीम मैनेजमेंट अच्छा है तो इसकी नौबत ही नहीं आएगी क्योंकि टीम मैनेजमेंट से विश्वास बढ़ता है और इसी विश्वास से सहकर्मियों की आस भी बढ़ती है। इसलिए विश्वास की डोर कभी भी कमजोर न पड़ने दें।
बेहतर टीम बेहतर परिणाम : क्या आपने कभी आसमान में उड़ते पंछियों का झुंड देखा है? क्या कभी आपने सोचा है कि वे समूहों में क्यों उड़ते हैं? यह भी शायद कभी आपके दिमाग में नहीं आया होगा कि वे रात के घने अँधेरे में अपना रास्ता कैसे ढूँढ लेते हैं? मैनेजेमेंट के पहलू से सोचा जाए तो यह सब बेहतर टीम वर्क और टीम मैनेजमेंट से संभव है।
कहते हैं कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है। किसान बादलों पर विश्वास करता है और हम सीमा पर खड़े अपने जवानों पर विश्वास करते हैं। नेता मतदाताओं पर विश्वास करता है और नियोक्ता अपने कर्मचारियों पर विश्वास करता है।
अकेला चना नहीं फा़ेड सकता है भाड़ : किसी भी काम को करने के लिए एक अच्छी टीम का होना उतना ही जरूरी है जिस तरह से किसी रथ को खींचने के लिए समान कद-काठी के एक ही दिशा में चलने वाले घा़ेडों का होना आवश्यक है, उसी तरह एक अच्छी टीम बनाने के लिए सभी सदस्यों में कुछ गुणों की समानता बहुत जरूरी है।
यह फलसफा ठीक उसी तरह का है जैसे पाँच घा़ेडे रथ को एक ही दिशा में तभी खींच सकते हैं जब उसके सारथी को सभी घा़ेडों को हाँकने की कला आती हो। यह कला और कुछ नहीं टीम मैनेजमेंट या लीडरशिप ही तो है। रथ की लगाम उसी व्यक्ति के हाथहो सकती है, जिसमें टीम मैनेजमेंट का गुण हो।

प्रेरणा से होते हैं काम आसान : प्रेरणा वह हथियार है जो निर्जीव वस्तुओं में जान डाल सकता है। यह आलसी लोगों को काम के लिए प्रेरित करता है तथा टीम को एक बेहतर संरचना प्रदान करता है। टीम में प्रेरणा अपने आप नहीं आती उसके लिए टीम में एक उत्प्रेरक और एक परफेक्शनिस्ट होना बेहद जरूरी है, ताकि बाकी सदस्यों का उत्साह बना रहे।
उत्प्रेरक का काम लोगों को टीम के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के लिए लगातार प्रेरित करते रहना और परफेक्शनिस्ट यानी आदर्श व संपूर्ण चरित्र वाले व्यक्ति को अपने कामकाज से मिसाल कायम करने की चुनौती होती है। अगर टीम मैनेजर में ये दोनों गुण हों और वह अपनी टीम को ठीक तरह से प्रेरित करने में कामयाब रहे तो सारे काम आसान हो जाते हैं। आपसी संवाद से बढ़ती है ताकत : आपसी समस्याओं और विचारों का आदान-प्रदान करना, अपनी राय रखना और इन विचारों को टीम लीडर तक पहुँचाना सभी टीम को एकजुट बनाने के लिए आवश्यक है। टीम मैनेजमेंट में मैनेजर को सहकर्मियों का सम्मान करना सिखाया जाता है क्योंकि मैनेजमेंट का एक फंडा यह भी है कि परस्पर सम्मान से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं। अगर टीम में आपसी भावना होगी तो सभी एक-दूसरे का सम्मान करेंगे। ऐसे में विरोध कम होगा तथा आमराय से फैसले होने से टीम की ताकत बढ़ेगी। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए टीम के सभी सदस्यों को आपस में संवाद बनाए रखना चाहिए। कभी न सोचें हार की बात : इन दिनो करियर निर्माण केवल जॉब प्लेसमेंट ही नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा के दौर में एक जंग की शक्ल भी अख्तियार कर चुका है। इस जंग में कभी भी हार की बात नहीं सोचना चाहिए। टीम मैनेजर को चाहिए कि टीम मैनेजमेंट करने के लिए हमेशा अपने सामने जीत का लक्ष्य लेकर ही टीम मैनेजमेंट के लिए उतरना चाहिए। यदि बेहतर टीम मैनेजमेंट द्वारा योग्य सहकर्मियों की सशक्त टीम बना ली तो टीम की स्किल डेवलप कर सभी जंग जीती जा सकती है।

सोमवार, 6 जुलाई 2009

बड़े खतरे के रूप में उभर रहा चीन


नीरज नैयर
पेंटागन की रिपोर्ट पर अगर यकीन किया जाए तो चीन भारत के लिहाज से बहुत बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है. रिपोर्ट में बताया गया है कि उन्नत हथियारों में लगातार इजाफा करके चीन एशिया के सैन्य संतुलन बिगाड़ रहा है. वह परमाणु, अंतरिक्ष और साइबर युद्ध के लिए तकनीक विकसित कर रहा है, जिसके कारण क्षेत्रीय संतुलन गड़बड़ा रहा है. इससे एशिया-प्रशांत क्षेत्र से बाहर भी असर होगा. एक आशंका यह भी व्यक्त की गई है कि चीन के साथ पड़ोसी देश (भारत) का टकराव हो सकता है क्योंकि वह इस क्षेत्र में अपने को एकमात्र शक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. ऐसे हालात में युद्ध की स्थिति से भी इंकार नहीं किया गया है. रिपोर्ट में पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के भी युद्ध में शामिल होने की सम्भावनाओं पर विचार किया गया है. चीन से पाकिस्तान की नजदीकी किसी से छिपी नहीं है, बांग्लादेश का झुकाव भी चीन के प्रति अधिक हुआ है और म्यांमार की सैन्य सरकार से ड्रैगन के अच्छे रिश्ते हैं. इस लिहाज से अगर भविष्य में युद्ध की स्थिति निर्मित होती है तो भारत को चौतरफा हमलों का सामना करना पड़ेगा. हालांकि यह मानना जरा मुश्किल है कि चीन भारत के साथ 1962 जैसा सुलूक दोहरा सकता है. समय बदल गया है और भारत मजबूत स्थिति में है. उसने न सिर्फ अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है बल्कि तकनीक में भी महारथ हासिल की है.
वो आज परमाणु शक्ति संपन्न देशों की जमात में खड़ा है. ऐसे में चीन को पुराना रुख अपनाने से पहले सौ बार सोचना होगा. मगर ड्रैगन की फितरत उस भेडि़ए की माफिक है जो रात के अंधेरे में चुपके से वार करता है. इसलिए वो कब क्या करेगा कोई जान सकता. अरुणाचल पर दावा ठोंकने के बीच अचानक 2007 में उसने एक स्थानीय प्रोफेसर को वीजा देकर सबको चौंका दिया था, उसके इस कदम को जानकारों ने सीमा विवाद सुलझाने के प्रति गंभीरता दिखाने के रूप में लिया था लेकिन ऐसा कुछ अब तक देखने को नहीं मिला. दरअसल चीन अरुणाचल को अपना बताता रहा है और कहता रहा है कि स्थानीय लोगों को वीजा की कोई जरूरत नहीं. उस परिपेक्ष्य में तो उसका वीजा जारी करने का फैसला लेना अप्रत्याशित घटना थी. यह तो महज एक उदाहरण मात्र है चीनसमय-समय पर अपनी कथनी और करनी में फर्क के नमूने पेश करता रहा है. उसकी शुरू से यही कोशिश रही है कि भारत पर दबाव बनाकर उसे नियंत्रण में रखा जाए. भारत की दोस्ती और भाईचारे की तमात कोशिशों को नजरअंदाज करते हुए चीन हमारे खिलाफ जो षणयंत्रकारी खेल खेलता रहा है उसे समझने के लिए इतिहास की किताब के कुछ पन्नें पलटने होंगे. दोनों देशों के बीच की कटुता को बहुत लंबा समय गुजर चुका है. हिंदी चीनी भाई-भाई वाला मैत्री का दौर तिब्बत को मुक्त कराने वाले चीनी अभियान के साथ 1950 में ही खत्म हो गया था. इन्हीं दिनों चीन ने कुछ ऐसे नक्शे छापे, जिनमें भारतीय भू-भाग पर चीनी दावा किया गया था. इसके बाद उपजा सीमा विवाद दोनों को रणभूमि तक ले आया. 1958 में लोंग जू और कोंगका दर्रा पर मुठभेड़ में 13 भारतीय सैनिकों के शहीद हो जाने के बाद रिश्तों में तल्खी और तेज हो गई. 1959 में जब दलाई लामा ने पलायन किया और भारत में शरण ली तो चीनी नेता आगबबूला हो गये, चीन के कब्जे से पहले तिब्बत स्वतंत्र था. 25 लाख वर्ग किलोमीटर वाला यह देश चीन तथा भारत के मध्य बसा एशिया के बीचों-बीच स्थित है.
तिब्बत और भारत संबंध बड़े धनिष्टï रहे थे. विशेषकर 7वीं शताब्दी से जब भारत से बौद्घ धर्म का तिब्बत में आगमन हुआ था. जब तिब्बत स्वतंत्र था तो तिब्बती सीमाओं पर भारत के केवल 1500 सैनिक रहते थे और अब अनुमान है कि भारत उन्हीं सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रतिदिन 55 से 65 करोड़ रुपए खर्च कर रहा है. 1950 के दौरान चीन ने तिब्बत के आंतरिक मामलों में दखल देना शुरू किया. चीन से लाखों की संख्या में चीनी तिब्बत में लाकर बसाए गये. जिससे तिब्बती अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएं और आगे जाकर तिब्बत चीन का अभिन्न अंग बन जाए. 1959 में जब तिब्बती जनता ने चीनी शासन के विरुद्घ विद्रोह किया तो चीन ने उसे पूरी शक्ति से कुचल दिया. दलाईलामा को प्राणरक्षा के लिए भारत आना पड़ा. इसके बाद तिब्बत की सरकार भंग कर दी गई और वहां सीधे चीन का शासन लागू कर दिया गया. 1960 में चीनी नेता चाऊ एन लाई की भारत यात्रा के दौरान भी जब सीमा विवाद नहीं सुलझा तो युद्घ के आसार सामने आने लगे. इसके बाद रही सही कसर नेहरू जी के उस भाषण ने पूरी कर दी जिसमें उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने चीनियों को भारतीय भूमि से खदेड़ निकालने का आदेश दिया था. चीनी जैसे इसी मौके के इंतजार में थे उन्होंने इसे अपनी शान के खिलाफ समझा और भारत को युद्घ की आग में झोंक दिया, इस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा था. इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद भी चीन की विस्तारवादी आदतों में कोई बदलाव नहीं आया है, वो नए-नए क्षेत्रों पर अपना अधिकार जताता रहा है. कुछ दिन पहले वायुसेना प्रमुख एयर चीफ
मार्शल फाली एच मेजर ने भी कहा था कि भारत को पाकिस्तान के मुकाबले चीन से कहीं अधिक खतरा है. चीन की सेना का आकार पाकिस्तानी सेना से करीब तीन गुणा बड़ा है, लेकिन चीन की सैन्य क्षमता के बारे में सटीक जानकारी का नहीं होना चिंता का विषय है. यह बात सही है कि चीन की सैन्य क्षमता के बारे में स्थिति पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कोई नहीं जानता कि उसकी ताकत किस हद तक है. चीन महज रक्षा समीकरण के लिहाज से ही नहीं बल्कि भौगोलिक दृष्टि में भी हमेशा कई गुना ज्यादा फायदे में है. वह तिब्बत से हम पर हमला कर सकता है, वैसी स्थिति में केवल 500 मीटर की दूरी होगी और बीजिंग दिल्ली के दरवाजे खटखटा रहा होगा. वह 1000 किमी. रेंज वाली अपनी मिसाइल से उत्तर भारत के किसी भी बड़े शहर को निशाना बना सकता है. जबकिभारत को ऐसा भौगोलिक लाभ ïनहीं मिल सकता. इसलिए भारत को पेंटागन की रिपोर्ट को गंभीरता से लेकर अपनी तैयारियां तेज कर देनी चाहिए.
नीरज नैयर

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