सोमवार, 31 अगस्त 2009

मेरी 500वीं पोस्ट

साथियो
दो वर्ष 5 दिन पहले यानी 26 अगस्त 2007 को ब्लॉगर्स की दुनिया के सांता क्लॉज यानी श्री रवि रतलामी जी ने मेरा ब्लॉग शुरू किया। बस तब से उन्हीं की प्रेरणा की एक छोटी सी किरण लेकर चलता रहा। आज कई ब्लॉगर साथी मुझे मेरी रचनाओं से पहचानते हैं, यही मेरी उपलब्धि है। समय समय पर अपनी प्रतिक्रियाओं से मेरा उत्साहवर्धन होता रहता है। इससे अधिक मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं। अधिक क्या कहूँ, मुझे कहना नहीं, लिखना आता है।
डॉ महेश परिमल
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मेरी अजन्मी बेटी अन्यूता
एक आहट सी सुनाई दे रही है नन्हें कदमों की. शायद यह तुम हो! क्यों तुम ही हो न! तुम्हारे नर्म, नाजुक पाँव और उन पाँवों की हल्की सी आहट मेरे दिल के तारों को छेड़ रही है. मैं जानती हूँ तुम आओगी, जरूर आओगी. यह आहट यकींन है मेरा. मगर तुम्हारे आने में इतनी देर क्यों? मन के ऑंगन में तो तुम कब से चिड़िया बन कर फुदक रही हो. फिर इस धरती के ऑंगन में अपने पैरों की थाप कब छोड़ोगी? देखो ज्यादा विलंब ठीक नहीं. अपनों को ज्यादा नहीं सताते. और फिर तुम तो एक इंसान के घर में जन्म लोगी. उसकी सूनी जिंदगी में उजाला करोगी. तो फिर अब जल्दी से आ जाओ इंसानियत की परिभाषा जानने. यह परिभाषा तुम जितनी जल्दी जान लो तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा है. मगर याद रखो कि केवल खुशियों की आशा ही लेकर न आना. यहाँ तुम्हें जिंदगी के बहुत से रूप देखने को मिलेंगे. कांटों के बीच कली की तरह खिलोगी तुम. घने अंधेरों के बीच एक नन्हीं किरण बनकर चमकना होगा तुम्हें. यानि कि तुम्हें खुद अपने संघर्ष के द्वारा जिंदगी के सागर में से खुशियों की सीप तलाश करनी होगी. तभी तुम पा सकोगी मुस्कराहट का मोती. डरना नहीं, हम सब तुम्हारे साथ होंगे. होंगे क्या!! हम सभी तुम्हारे साथ हैं. हम तो अभी से तुम्हारे साथ ही हैं. बस एक बार तुम आ तो जाओ. फिर अपनी ऑंखों से देखना कि कैसे तुम्हें ले कर हमारा प्यार छलकता है. खास कर एक इंसान का प्यार. यह इंसान तुम्हें बहुत प्यार देगा. इतना प्यार कि तुम उसके प्यार में डूब जाओगी. जानती हो इतना प्यार कौन दे सकता है? वही जिसने जिन्दगी के किसी मोड़ पर प्यार की कमी महसूस की हो. वही चाहता है कि यह कमी दूसरों को महसूस न हो. और फिर तुम पराई कहाँ? अपनी और सिर्फ अपनी हो. तुम्हें तो यह इंसान प्यार से सराबोर कर देगा. बदले में तुम उसे देना उसका बचपन. जो बहुत पीछे छूट गया है, मगर उसकी याद अब भी बाकी है दिल के किसी कोने में! तुम खुद खिलखिलाकर उसे उसका बचपन लौटा देना. उस इंसान की सारी हँसी, शरारतें, खिलखिलाहट देखना चाहती हूँ मैं. तुम मुझे यह सब दिखाओगी ना? तुम्हें दिखाना ही होगा क्योंकि इस धरती पर तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करने वाला वही इंसान होगा. जो तुम्हें अपना नाम देगा. और उससे नाम पाकर तुम कहलाओगी- अन्यूता परिमल.

फूल सी अन्यू, प्यारी सी अन्यू
हर एक की चाहत, नाजुक सी अन्यू
सबको हँसाती, खुद भी हँसती
सभी की प्यारी, फूल सी अन्यू

अन्यूता....। कैसा लगा तुम्हें यह नाम? अच्छा है ना? बहुत ही प्यारा नाम है यह. इस नाम में जो अपनापन है, वह मेरे व्यवहार में नहीं. इस नाम में जो प्यार है, वह मेरी ऑंखों में नहीं. इस नाम में जो मिठास है, वह मेरे शब्दों में नहीं. यह अपनापन, प्यार, मिठास सभी कुछ तुम्हारे डैडी की अमानत है. मेरे और डैडी की ऑंखोें का सपना हो तुम. जागती ऑंखों का खुबसूरत सपना. पहले मेरी ऑंखें इस सपने से अनजान थी. केवल तुम्हारे डैडी की ही ऑंखों का सपना थी तुम. मगर एक दिन हरे भरे पेड़ों के झुरमुट तले हम दोनों बैठे थे, तभी ठंडी हवा का हल्का सा झौंका आया और तुम्हारे डैडी की ऑंखों का सपना उड़ते-उड़ते मेरी ऑंखों में समा गया. मैंने जल्दी से पलकें बंद कर ली ताकि हवा का दूसरा झौंका फिर उसे उड़ा न ले जाए. बस तभी से हमारी ंजिंदगी का एक ख्वाब बन गई तुम.
मैं जानती हूँ कि तुम यहाँ नहीं हो. यहाँ क्या अभी तो तुम कहीं भी नहीं हो, मगर तुम्हारा अहसास हमें हर पल होता है. जब कभी धूप का टुकड़ा ऑंगन में आता है, तो इंतजार करती हूँ कि अभी अपने नन्हें कदमों से चल कर तुम आओगी और इस टुकड़े को पकड़ने की एक नाकाम कोशिश करोगी. चिड़िया की चहक सुनकर यूं लगता है कि तुम बोल रही हो. बहुत कुछ, जो न तो तुम समझ सकती हो और न ही मैं. मैं समझने की कोशिश भी करती हूँ, तो तब तक तुम इस पेड़ से उस पेड़ तक पहुँच जाती हो.
आज याद आ रहा है वह दिन जब हमारी बगिया में नन्हा-सा अंकुर फूटा था. उफ मैं तो रो पड़ी थी कि मुझे नहीं चाहिए यह अंकुर. यह जानते हुए भी कि यही अंकुर कली के रूप में तुम्हें सामने पाएगा. मैं जिम्मेदारियों के बोझ से डर कर तुम्हें पाना तो चाहती थी मगर कुछ आजादी के बाद. यूँ ही तुम्हारे सपनों के साथ खेलते हुए जब उकता जाती तब तुम्हें उचक कर, मचल कर पकड़ना चाहती थी. तुम्हारा एकाएक यूँ बिना सोचे-समझे हकीकत बन जाना मुझे स्वीकार न था. मैं चाहती थी कि जोरशोर से तुम्हारा स्वागत करूँ, तुम्हारी राहों में फूल ही फूल बिछाऊँ, रजनीगंधा के फूल, जिसकी महक बचपन से ही तुम्हारी साँसों में समा जाए. मगर यह फूल तो बहुत महँगे होते है ना? कहाँ से लाती मैं? इसीलिए तुम्हें जल्दी नहीं पाना चाहती थी. पहले इसका इंतजाम करना चाहती थी. बस मेरी इसी ख्वाईश ने मुझे इस अंकुर का स्वागत उमंग और उल्लास से नहीं करने दिया. दिन गुजरते गए, अंकुर बढ़ता गया. साथ ही मेरा स्वभाव भी बदलता गया. मैं अब जल्द से जल्द तुमसे मिलना चाहती थी. मगर तुम्हें तो याद था मेरा रूखा व्यवहार. शायद इसीलिए तुम मुझसे मुख मोड़ गई. तुम न आई, मगर फिर भी बगिया महकी आरुणि के साथ. हाँ, आरुणि के नन्हें कदम पड़े. उसके नन्हें हाथ-पाँव, कोमल शरीर, निर्दोष चेहरा देखकर एक क्षण को तुम्हारा न होना भूल ही गई. मगर दूसरे ही क्षण यँ लगा- तुम होती तो अच्छा होता. और मैं तुम्हारा इंतजार पहले से भी ज्यादा बेताबी से करने लगी.
आरुणि बड़ा प्यारा लड़का है. तुम कहोगी कि अब मुझे छोड़कर उसकी तारीफ करने लगी. मगर सच कहूँ, तो मैं तुलना नहीं कर सकती कि सबसे प्यारा कौन है. अभी तो वही मेरे सामने है. इसलिए वही मुझे प्यारा है. हाँ, मगर तुम न होने पर भी मुझे उतनी ही प्यारी हो.
कभी ममता की ऑंखों से देखना अपने आपको. एक नया ही चेहरा पाओगी तुम खुद का. बहुत सी आशाएँ, बहुत से सपने पल रहे होंगे नन्हीं सी ऑंखों में. जो बाहर आने को व्याकुल होंगे. हाँ, अन्यू, मेरी ममतामयी ऑंखों में बहुत से सपने हैं. मगर मैं अपने सपने, अपनी इच्छाएँ तुम पर लादूँगी नहीं. मैं चाहती हूँ कि तुम खुद सपने देखो और उन्हें साकार करो. अपनी ंजिंदगी को ऐसी हकीकत बनाओ जो सपनों से भी सुंदर हो. एक बात कहूँ, सपने, सपने ही बने रहे तो अच्छे लगते हैं. हकीकत बनने पर उनकी सुंदरता खत्म हो जाती है और हकीकत यानि कि हमारी सोच यदि हकीकत न बने तो आदमी कायर कहलाता है, कमजोर कहलाता है. क्या ये शब्द तुम्हारे शब्दकोष में भी शामिल होंगे? यदि ऐसा हुआ तो मुझे अपने विश्वास की परिभाषा बदलनी होगी.
अन्यूता, कभी-कभी सोचती हँ कि आज अनजाने, अनदेखे ही तुम्हें इतनी खुशियाँ दे रही हूँ, मगर हकीकत में जब तुम सामने होओगी तब तुम्हें इन्हीं खुशियों की कुछ बूँदे भी दे पाऊँगी या नहीं? मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हें खुशियों से सराबोर कर पाऊँगी क्योंकि इंसान वही तो देगा जो उसके आसपास होगा. भला मेरे आसपास खुशियों का पुँज कहाँ? कोरे कागज पर जब कोई अक्षर ही नहीं तो शब्द कैसा और बिना शब्दों के कोई सुंदर और सुदृढ़ वाक्यों की कल्पना कैसी? नहीं, अन्यूता बहुत पछताओगी तुम मुझे अपनी मम्मी बनाकर. एक काम करो रिश्तों में थोड़ा फेर-बदल कर लो और एक नया रिश्ता हम कायम कर लें तो कैसा रहे?
रिश्ते कायम हो ही जाते हैं, नियति ऐसा खेल रचती है कि अच्छे से अच्छा खिलाड़ी भी मात खा जाता है. फिर मैं तो पहले से ही हारी हुई हूँ. तुम्हारी चाहत में, तुम्हारे कोमल स्पर्श की कल्पना में. सो नियति ने मुझे तुम्हारी माँ कहलाने का हक दे ही दिया. 4 मार्च सन् 1997 मेरे लिए एक नया खुशियों और सच्चाई भरा दिन लाया. जानती हो अन्यूता, तुम्हें विश्वास नहीं होगा, पर यह सच है. ऑपरेशन थियेटर पर आधी बेहोशी की हालत में भी मैं तुम्हें ही पुकार रही थी. ईश्वर से तुम्हें ही माँग रही थी. ईश्वर ने हमेशा मेरे मन की मुराद देर-सबेर पूरी की है. एक दफा मुझे वक्त की गोद में डाल दिया और मेरा माथा सिंदूरी आभा से चमक उठा तो दूसरी दफा तुम्हें मेरी गोद में डाला जिससे मैं पूरी की पूरी खुशियों से पूरम्पर हो गई. हाँ, बीच में ईश्वर ने एक और मेहरबानी मुझ पर की, आरुणि को भेजकर. पापा कहते हैं कि आरुणि ऐसा सितारा है, जो चमकेगा तो सिर्फ हमें ही नहीं, सारी दुनिया को उस पर गर्व होगा. मैं नहीं जानती कि वह ऐसा सितारा है भी या नहीं, मगर मेरी यह जबरदस्त चाहत है कि आरुणि ऐसा सितारा जरूर बने और मैं उसकी चमक से चौंधियाई हुई इस दुनिया की हजारों-लाखों ऑंखों को देख सकूँ. यह तो हुई आरुणि की बात. और तुम? कहते हैं कि सितारों से आगे जहाँ और भी है. तुम उसी जहाँ से उतरी मेरे ऑंगन में ठहरी एक प्यारी सी शहजादी हो. जो कली बनकर सिर्फ मेरा घर ही नहीं पूरा संसार महकाएगी. तुम दोनों भाई-बहन हमेशा आगे बढ़ो, इसी उम्मीद पर तो जी रही हूँ मैं.
अभी तुम सो रही हो. दिन भर मुझे तंग करने के बाद अभी तुम आराम से सो रही हो. सिर्फ सो ही नहीं रही हो सपनों में भी खोई हुई हो. जिसमें तुम्हारी अपनी एक अलग दुनिया है. इस दुनिया से अनजान उस दुनिया में डूबी हुई तुम कभी मुस्करा रही हो, कभी रो रही हो. तुम्हारे मुस्कराने से मेरे होंठ भी मुस्कराते हैं और तुम्हारे रोते ही ये सिकुड़ जाते हैं. तुम सोते हुए सपना देख रही हो और मैं जागते हुए देख रही हूँ एक प्यारा सा सपना. तुम्हारे बड़े होने का सपना. तुम्हारी पहली मुस्कान नहीं भूली हूँ मैं. तुम्हारी खिलखिलाहट आज भी गुदगुदाती है मुझे. तुम्हारी एक-एक हरकत देखती ही रह जाती हूँ मैं. लेकिन जब तुम रोती हो, बहुत मनाने पर भी नहीं मानती हो, नींद होने पर भी जागती हो और मुझे सताती हो, तो झुंझलाहट होती है. चिढ़ने लगती हूँ तुमसे. नारांजगी झलक आती है मेरे व्यवहार में. आखिर क्यों सताती हो मुझे?
तुम्हारी प्रतीक्षा में
तुम्हारी माँ
भारती परिमल

साथियो
अन्यूता आज12 वर्ष की है। सातवीं कक्षा की छात्रा है। बहुत ही प्यारी है। बिलकुल अपनी माँ की कल्पना को साकार करने वाली। खूब चंचल, पर काम के प्रति गंभीर। मैं तो यही कहूँगा कि उसके अपनी माँ के सारे सपने को साकार कर दिया है। उससे जो भी मिलता है, प्रभावित हो जाता है। उसके बिना तो हम अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते। वह हमारी प्राण-वायु है। हमारे जीवन का आधार। उसकी माँ की भावनाओं को बिटिया के जन्म के 12 वर्ष बाद आपके सामने ला रहा हूँ। इसके लिए अभी उसकी माँ से अनुमति नहीं ली है। पहले अपने साथियों की प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा, फिर सारी प्रतिक्रियाएँ उसकी माँ को सौंप दूँगा, अनुमति की आवश्यकता ही नहीं होगी।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 29 अगस्त 2009

खूब अवसर हिंदी में


अब हिंदी केवल राजभाषा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक बाजार में भी अपनी जगह बना रही है। चाहे वह अध्यापन का कार्य हो या कॉल सेंटर्स, टूरिज्म और इंटरप्रेटर का, सभी में अवसर ही अवसर हैं।
आवश्यक गुण
जहां तक स्किल का सवाल है, तो छात्र को हिंदी ऑनर्स या एमए करते समय भाषा की अच्छी समझ जरूरी है। हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन एक गहन पठन-पाठन की प्रक्रिया है। पढने-लिखने, विचार करने और किसी भी सिद्धांत और उसके व्यावहारिक पक्ष को समझने का भरपूर मौका इस क्षेत्र में मिलता है।
इस संबंध में दिल्ली के सत्यवती कॉलेज के प्रोफेसर मुकेश मानस का कहना है कि इसमें कविता, कहानी के अलावा मीडिया, अनुवाद और रचनात्मक लेखन जैसी कई चीजें हैं, जो करियर बनाने में मदद करती हैं। हिंदी से ऑनर्स करने वालों को नौकरी के लिए कोई दिक्कत नहीं होती। वे विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में हो सकते हैं। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां छात्र अपनी किस्मत आजमा सकते हैं, जैसे -
अध्यापन
हिंदी से बीए व बीएड करने के बाद स्कूलों में हिंदी अध्यापक की नौकरी मिल जाती है। कॉलेज के स्तर पर अध्यापन करने वाले छात्रों को एमए के बाद एमफिल और पीएचडी करने के बाद कॉलेज में प्रवक्ता का पद मिल जाता है। पीएचडी होल्डर कॉलेज व विश्वविद्यालय स्तर पर देश में कहीं भी लेक्चरर की नौकरी पा सकते हैं। अध्यापन के लंबे अनुभव पर वे रीडर व प्रोफेसर भी बन सकते हैं।
मीडिया
हिंदी से स्नातक करने वालों के लिए मीडिया एक बडा अवसर लेकर आया है। देश-विदेश में फैला यह जाल हिंदी के छात्रों को कई तरह से काम करने का अवसर प्रदान करता है। हिंदी भाषा पर अच्छी पकड होने के कारण छात्रों को पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करने में आसानी होती है। स्टूडेंट्स बीए य एमए के बाद पत्रकारिता का डिप्लोमा या सर्टिफिकेट कोर्स कर सकते हैं। यह कोर्स करने के बाद किसी भी पत्र-पत्रिका में रिपोर्टर या उप संपादक बन सकते हैं।
भारत सरकार का करीब हर संस्थान अपने यहां से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करता है। इन पत्रिकाओं में प्रकाशन से लेकर संपादन तक में हिंदी के छात्रों की जरूरत पडती है। प्रिंट मीडिया के अलावा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी हिंदी जानने वालों को प्राथमिकता दी जाती है। इसके अलावा रेडियो में भी रोजगार के अनेक अवसर हैं।
पर्यटन
पर्यटन के क्षेत्र में भी इनके लिए रोजगार के अवसर हैं। इस क्षेत्र में बेहतर करने के लिए कल्चरल टूरिज्म मैनेजमेंट में भी डिप्लोमा कर सकते हैं।
फिल्म
फिल्म और टीवी सीरियल में भी आप अपनी किस्मत आजमा सकते हैं। यदि आपको शब्दों से खेलने में मजा आता है, तो आपको यहां भी काम मिल सकता है और आपकी कल्पना उडान भरती है, तो स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर आप यहां कोशिश कर सकते हैं। इसके अलावा आप गीतकार भी बन सकते हैं।
हिंदी अधिकारी
हिंदी के छात्रों के लिए विभिन्न बैंक राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति करते हैं। हिंदी भाषा अधिनियम का प्रावधान है कि सभी संस्थानों में हिंदी अधिकारी को रखना पडेगा। भारत सरकार व निजी संस्थान में हिंदी अधिकारी के रूप में काम करने का अवसर सामने आता है। देश-विदेश में सरकारी संस्थानों में हिंदी सलाहकार के रूप में भी काम करने का अवसर भी मिल सकता है।
अनुवादक
यदि आप किसी दूसरी भाषा पर पकड रखते हैं, तो अनुवादक भी बन सकते हैं। विभिन्न ट्रेवल एजेंसियां और सरकारी व निजी संस्थान ऐसे लोगों को मौका देते हैं। मीडिया के क्षेत्र में भी ऐसे लोगों की काफी डिमांड होती है।
हिंदी का ज्ञान होने के साथ-साथ आपको अंग्रेजी का भी ज्ञान होना चाहिए। कर्मचारी चयन आयोग हर साल हिंदी अनुवादकों की भर्ती करता है।
विभिन्न प्रतियोगी परीक्षा
हिंदी से स्नातक करने के बाद विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होकर बैंक, न्यायिक सेवा, सिविल सर्विस और स्टेट सर्विस के अलावा रेलवे व बैंक आदि में भी नौकरी के बेहतर अवसर हो सकते हैं।
अन्य क्षेत्र
हिंदी भाषा और साहित्य के छात्र लिंग्विस्टिक का भी कोर्स कर सकते हैं और अच्छी नौकरी पा सकते हैं। इसके साथ ही अगर हिंदी में अच्छी पकड है, तो क्रिकेट कमेंटरी से लेकर फैशन जगत व एड एजेंसी और एनजीओ में भी करियर बनाया जा सकता है।
संध्या रानी

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

बच्‍चे मन के सच्‍चे

साथियो
बच्‍चे मन के सच्‍चे होते हैं। इनके भोलेपन पर न जाने कितने नाराज चेहरे कुर्बान हो जाते हैं। इनमें सबसे बड1ी बात यह होती है कि ये सब को एक जैसा समझते हैं। इनक पास बताने के लिए कई बातें हैं, पर आज के पालकों के पास इतना समय ही नहीं है कि इनकी बातें सुनें। इसलिए ये कभी कभी भगवान को अपना मित्र ामनकर उन्‍हें पत्र लिखने बैठ जाते हैं। वे पत्र भगवान तक पहुँचे या नहीं, पर कही और पहुँच गए। आप उन पत्रों की बानगी देखे और बालपन को समझने की कोशिश करें। सारे पत्र अंग्रेजी में हैं, इसका आशय यह कदापि नहीं कि ईश्‍वर को हिंदी नहीं आती। खैर, पत्र पढ़ें-----
डॉ महेश परिमल















डॉ महेश परिमल

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मौसम की भविष्यवाणियों में खामियां


प्रमोद भार्गव
हमारे देश में मानसून ने औसत वर्षा कर हरियाली की स्थिति तो कमोबेश स्थगित ही कर दी है। अब कभी वह मुसीबत का मानसून बन कर आता है तो कभी सूखे का! आखिरकार मौसम की भविष्यवाणी करने वाले पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भी मान ही लिया है कि कभी अति सक्रिय तो कभी खंडित और इस साल अवर्षा के मानसून चक्र का सही आंकलन करने के सटीक पूर्वानुमान वह नहीं लगा पाया। मंत्रालय के सचिव शैलेश नायक ने स्पष्ट तौर से स्वीकारा है कि भारत में मौसम की भविष्यवाणी करने वाले तंत्र में खामियां हैं।

प्रकृति की चाल से जुड़े मानसून और जलवायु परिवर्तन बड़े विषय होने के साथ जटिल रहस्यलोक भी हैं। इसलिए मौसम का सही-सही पूर्वानुमान लगा पाना कंप्यूटरी युग में भी मुश्किल व असंभव बना हुआ है। फलस्वरूप 13 जून से पहली वर्षा की जो भविष्यवाणी मौसम विभाग ने की थी, वह कई मर्तबा बदलने के बाद अगस्त बीतने तक सटीक नहीं बैठीं। भविष्यवाणी के मुताबिक इस साल औसत वर्षा के अनुमान लगाए जा रहे थे। लेकिन 83 साल बाद सबसे कम वर्षा का आंकड़ा 2009 का है। अगस्त तक जितनी बारिश होनी चाहिए थी उससे 25 प्रतिशत कम बारिश हुई है। 2002 में इस समय तक 19 फीसदी कम बारिश हुई थी। खासतौर से उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी राज्यों समेत बिहार में अवर्षा के कारण सूखे के हालात निर्मित हो चुके हैं। नतीजतन देश के 626 जिलों में से अब तक 177 जिले तो सूखाग्रस्त घोषित कर ही दिए गए।

मौसम की भविष्यवाणियों की ओर देश इसलिए टकटकी ताकता रहता है क्योंकि औसत मानसून आए तो देश में हरियाली और समृध्दि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धारती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती हैं। वर्षाऋतु के दो माह बीत जाने के बावजूद अवर्षा की स्थिति बनी हुई है, जो जबरदस्त सूखा और अकाल के पूर्व संकेत हैं। इन संकेतों का हवाला देते हुए एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउण्डेशन के प्रोफेसर पी. सी. केशवन ने कहा है कि भारत को आज अपनी 1.3 अरब आबादी के लिए 21.5 करोड़ टन अनाज की जरूरत है और इसमें लगभग 1.8 करोड़ आबादी हर साल जुड़ रही है। ऐसे भयावह हालात में खराब मानसून और पर्याप्त खाद्यान्न की कमी देश के समक्ष चिंता का विषय हैं।

ऐसी जटिल स्थिति ही वह दौर है जिसमें देश का जनमानस मौसम विभाग से सटीक भविष्यवाणी की अपेक्षा रखता है,लेकिन मौसम विभाग है कि प्रकृति के रूठ जाने की आज तक सही जानकारी नहीं दे पाया।आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्न संकटों की क्यों सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते ? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधान कम हैं अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं...? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्धा से भूमध्य रेखा के निकट से हवाऐं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धारती की परिक्रमा सूरज के गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्धा से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाए भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाऐं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाऐं आनध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाऐं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रूख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसाती रूप में भारतीय धारती पर गिरता है।

महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाईयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़ें इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधानों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधाशालायें, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधाशालायें, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्द्र हैं, 8 उपग्रह चित्र प्रेषण और ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र 214 पेड़ पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्वीकरण को मापने वाले, 35 तथा 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधाशालाऐं हैं। अब तो अंतरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों के माध्यम से सीधो मौसम की जानकारी कम्प्यूटरों में दर्ज हो रही है।

बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाऐं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापे तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे पाया गया। यही परत ध्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है। और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथवी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और बर्षा के रूप में धारती पर टपकना शुरू होते हैं। जलवायु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रदूषण के चलते प्रदूषित गैसों की जो तीन किलोमीटर मोटी परत बन गई है वह पानी के बाष्पीकरण की प्राकृतिक प्रक्रिया को सोख लेती हैं नतीजतन अवर्षा अथवा अतिवृष्टि की स्थिति पूरी दुनियां में निर्मित होने लगी है।

दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है जितना कि भारत में, इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायदीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और ऊपर हिमालय के शिखर। इस कारण हमारे देश का जलवायु विविधातापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इसीलिये पूरे दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने में अपनी बुध्दि लगाते रहते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धारती पर क्या पड़ेगा इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्यों अक्षम रहते हैं इस सिलसिले में प्रसिध्द वैज्ञानिक डॉ. राम श्रीवास्तव का कहना है कि सुपर कम्प्यूटरों का बड़ा जखीरा हमारे मौसम विभाग के पास होने के वावजूद सटीक भविष्यवाणियां इसलिये नहीं कर पाते क्योंकि हम कम्प्यूटरों की भाषा ''अलगोरिथम'' नहीं पढ़ पाते। वास्तव में हमें सटीक भविष्यवाणी के लिये दो सुपर कम्प्यूटरों की जरूरत है, लेकिन हमने करोडों रूपये खर्च करके एक्स.एम.जी. के-14 कम्प्यूटर आयात किये हैं। अब इनके 108 टर्मिनल काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इनमें दर्ज आयातित भाषा अलगोरिथम पढ़ने में हम अक्षम हैं। कम्प्यूटर भले ही आयातित हों लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्मृति में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो, हमें सफल भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी क्योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में है, अमेरिका अथवा ब्रिटेन में नहीं। लिहाजा जब हम बर्षा के आधाार श्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाऐंगे तो मौसम की भविष्यवाणी सटीक बैठेगी।
प्रमोद भार्गव

मौसम की भविष्यवाणियों में खामियां

प्रमोद भार्गव
हमारे देश में मानसून ने औसत वर्षा कर हरियाली की स्थिति तो कमोबेश स्थगित ही कर दी है। अब कभी वह मुसीबत का मानसून बन कर आता है तो कभी सूखे का! आखिरकार मौसम की भविष्यवाणी करने वाले पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने भी मान ही लिया है कि कभी अति सक्रिय तो कभी खंडित और इस साल अवर्षा के मानसून चक्र का सही आंकलन करने के सटीक पूर्वानुमान वह नहीं लगा पाया। मंत्रालय के सचिव शैलेश नायक ने स्पष्ट तौर से स्वीकारा है कि भारत में मौसम की भविष्यवाणी करने वाले तंत्र में खामियां हैं।

प्रकृति की चाल से जुड़े मानसून और जलवायु परिवर्तन बड़े विषय होने के साथ जटिल रहस्यलोक भी हैं। इसलिए मौसम का सही-सही पूर्वानुमान लगा पाना कंप्यूटरी युग में भी मुश्किल व असंभव बना हुआ है। फलस्वरूप 13 जून से पहली वर्षा की जो भविष्यवाणी मौसम विभाग ने की थी, वह कई मर्तबा बदलने के बाद अगस्त बीतने तक सटीक नहीं बैठीं। भविष्यवाणी के मुताबिक इस साल औसत वर्षा के अनुमान लगाए जा रहे थे। लेकिन 83 साल बाद सबसे कम वर्षा का आंकड़ा 2009 का है। अगस्त तक जितनी बारिश होनी चाहिए थी उससे 25 प्रतिशत कम बारिश हुई है। 2002 में इस समय तक 19 फीसदी कम बारिश हुई थी। खासतौर से उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी राज्यों समेत बिहार में अवर्षा के कारण सूखे के हालात निर्मित हो चुके हैं। नतीजतन देश के 626 जिलों में से अब तक 177 जिले तो सूखाग्रस्त घोषित कर ही दिए गए।

मौसम की भविष्यवाणियों की ओर देश इसलिए टकटकी ताकता रहता है क्योंकि औसत मानसून आए तो देश में हरियाली और समृध्दि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धारती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती हैं। वर्षाऋतु के दो माह बीत जाने के बावजूद अवर्षा की स्थिति बनी हुई है, जो जबरदस्त सूखा और अकाल के पूर्व संकेत हैं। इन संकेतों का हवाला देते हुए एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउण्डेशन के प्रोफेसर पी. सी. केशवन ने कहा है कि भारत को आज अपनी 1.3 अरब आबादी के लिए 21.5 करोड़ टन अनाज की जरूरत है और इसमें लगभग 1.8 करोड़ आबादी हर साल जुड़ रही है। ऐसे भयावह हालात में खराब मानसून और पर्याप्त खाद्यान्न की कमी देश के समक्ष चिंता का विषय हैं।

ऐसी जटिल स्थिति ही वह दौर है जिसमें देश का जनमानस मौसम विभाग से सटीक भविष्यवाणी की अपेक्षा रखता है,लेकिन मौसम विभाग है कि प्रकृति के रूठ जाने की आज तक सही जानकारी नहीं दे पाया।आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्न संकटों की क्यों सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते ? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधान कम हैं अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं...? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्धा से भूमध्य रेखा के निकट से हवाऐं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धारती की परिक्रमा सूरज के गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्धा से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाए भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाऐं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाऐं आनध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाऐं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रूख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसाती रूप में भारतीय धारती पर गिरता है।

महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाईयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़ें इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधानों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधाशालायें, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधाशालायें, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्द्र हैं, 8 उपग्रह चित्र प्रेषण और ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र 214 पेड़ पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्वीकरण को मापने वाले, 35 तथा 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधाशालाऐं हैं। अब तो अंतरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों के माध्यम से सीधो मौसम की जानकारी कम्प्यूटरों में दर्ज हो रही है।

बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाऐं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापे तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे पाया गया। यही परत ध्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है। और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथवी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और बर्षा के रूप में धारती पर टपकना शुरू होते हैं। जलवायु परिवर्तन से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रदूषण के चलते प्रदूषित गैसों की जो तीन किलोमीटर मोटी परत बन गई है वह पानी के बाष्पीकरण की प्राकृतिक प्रक्रिया को सोख लेती हैं नतीजतन अवर्षा अथवा अतिवृष्टि की स्थिति पूरी दुनियां में निर्मित होने लगी है।

दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है जितना कि भारत में, इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायदीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और ऊपर हिमालय के शिखर। इस कारण हमारे देश का जलवायु विविधातापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इसीलिये पूरे दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने में अपनी बुध्दि लगाते रहते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धारती पर क्या पड़ेगा इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्यों अक्षम रहते हैं इस सिलसिले में प्रसिध्द वैज्ञानिक डॉ. राम श्रीवास्तव का कहना है कि सुपर कम्प्यूटरों का बड़ा जखीरा हमारे मौसम विभाग के पास होने के वावजूद सटीक भविष्यवाणियां इसलिये नहीं कर पाते क्योंकि हम कम्प्यूटरों की भाषा ''अलगोरिथम'' नहीं पढ़ पाते। वास्तव में हमें सटीक भविष्यवाणी के लिये दो सुपर कम्प्यूटरों की जरूरत है, लेकिन हमने करोडों रूपये खर्च करके एक्स.एम.जी. के-14 कम्प्यूटर आयात किये हैं। अब इनके 108 टर्मिनल काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इनमें दर्ज आयातित भाषा अलगोरिथम पढ़ने में हम अक्षम हैं। कम्प्यूटर भले ही आयातित हों लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्मृति में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो, हमें सफल भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी क्योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में है, अमेरिका अथवा ब्रिटेन में नहीं। लिहाजा जब हम बर्षा के आधाार श्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाऐंगे तो मौसम की भविष्यवाणी सटीक बैठेगी।
प्रमोद भार्गव


बुधवार, 26 अगस्त 2009

देश में बढऩे लगे पत्नी पीडि़त


डॉ. महेश परिमल
पत्नी पीडि़तों पर काफी जोक्स अक्सर हमारा मनोरंजन करते हैं। किटी पार्टियों में इस तरह के जोक्स सुनाकर महिलाएँ अपने आप पर गर्व करती हैं। जो महिला अपने पति को जितने अधिक तरह की प्रताडऩा देती है, वह उतनी ही अधिक प्रशंसनीय होती है। ऐसा इस तरह की पार्टियों में होता है। पर आजकल एक बहुत ही खतरनाक सच हमारे समाज में पसर रहा है। यह सच है पत्नी पीडि़त पुरुषों की बढ़ती संख्या। इस समय जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उसके अनुसार इस समय देश में कुल 40 हजार पत्नी पीडि़त पुरुष हैं। आज महिलाएं लगातार आत्मनिर्भर बन रहीं है, इस बात की खुशी है। पर वे और अधिक आक्रामक भी होने लगी हैं, यह दु:ख की बात है। आक्रामकता यदि केवल आत्म सुरक्षा को लेकर नहीं, बल्कि अपने पति को प्रताडि़त करने में बढ़ रही है। इन दिनों इस तरह के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। 2007 में पत्नी से परेशान 57 हजार 593 पुरुषों ने आत्महत्या का सहारा लिया। ऐसे में इनके पास तलाक के सिवाय और कोई रास्ता भी नहीं है। इनका परिवार बिखर रहा है। पहले इस तरह के मामले केवल बेडरूम तक ही सीमित रहते थे, अब ये मामले बाहर निकल रहे हैं। जो महिलाएँ केवल पुरुषों के अत्याचारों से पीडि़त थीं, अब उनके लिए यह सुखद आश्चर्य हो सकता है कि क्या ऐसा भी हो सकता है?
कुछ माह पहले भोपाल में भी एक उच्च अधिकारी ने यह शिकायत की थी कि उनकी पत्नी उन्हें कई तरह से प्रताडि़त करती हैं। घर का काम करवाती हैं और बच्चों के सामने ही उन्हें पीटती हैं। जो अधिकारी अपनी ऑफिस में सम्मान पाता हो, उसके नीचे के अधिकारी उसे 'सरÓ कहकर पुकारते हों, वही अधिकारी जब घर के तमाम कार्य करे, तो कितनी जिल्लत उठानी पड़ती होगी उसे? यह सोच इंसान को भी यदि आक्रामक बना दे, तो फिर समाज का चलना ही मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि यहाँ एक नहीं दोनों आक्रामक होंगे, तो परिमाम दु:खद ही होंगे। कुछ उदाहरणों से आगे बढ़ते हैं:- ये हैं दिवाकर भाई, इन्हें जब भी अपने माता-पिता को फोन करना होता है, तो बाहर एसटीडी जाकर फोन करते हैं। बाहर जाने का कोई न कोई बहाना बना ही लेते हैं। इसकी यही वजह है कि पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने देती। यदि उसे पता भी चल गया कि आज पति ने अपने माता-पिता से फोन पर बात की है, तो पति की खूब पिटाई होती है। वह भी बच्चों के सामने। कुछ ऐसा ही हाल प्रदीप का है, यदि ऑफिस से आकर वे घर का काम न करें, तो पत्नी उन्हें खूब मारती हैं। ऐसी बात नहीं है कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं, आफिस में वे एक उच्च अधिकारी हैं, लोग उन्हें 'सरÓ कहकर संबोधित करते हैं। अच्छा वेतन प्राप्त करते हैं। लेकिन घर आते ही वे घर के कामों में लग जाते हैं। इस काम में सब कुछ शामिल है, झाड़ू-पोंछा, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना आदि। यदि कभी वे ऐसा न कर पाएँ, तो पत्नी उन्हें खूब मारती हैं। अब उनकी क्या मजबूरी है, ये तो वही जानें। एक कार ड्राइवर हैं रामप्रसाद, वे सरकारी कार चलाते हैं। उसकी पत्नी अक्सर उनकी झाउ़ू से पिटाई करतीं हैं। राम प्रसाद ने इसकी शिकायत पुलिस थाने में की। पहले तो पुलिस इसे मानने को ही तैयार न थी, पर जब राम प्रसाद ने मोबाइल कैमरे से खींची गई तस्वीर बताई, तो पुलिस को विश्वास हुआ। उसका दोष केवल इतना ही था कि उसकी पत्नी एक अच्छी बिल्डिंग में शानदार फ्लैट लेने को कह रही थी, जो उसके बस में नहीं था। जब उसने रहने के लिए एक चाल में किराए पर एक खोली ली, तो आगबबूला होकर पत्नी ने राम प्रसाद की पिटाई कर दी।
अब तक हम यही सुनते आ रहे हैं कि पति हमेशा पत्नी को प्रताडि़त करते हैं। उससे मारपीट करते हैं। पति से मानसिक रूप से प्रताडि़त कई महिलाओं ने आत्महत्या का भी सहारा लिया। कई महिलाएँ तो अवसाद की स्थिति में भी पहुंच चुकी हैं। अब जमाना बदल रहा है। महिलाएँ न केवल स्वतंत्र, बल्कि आत्मनिर्भर बन रहीं हैं। यही वजह हे कि अब पुरुष महिलाओं के अत्याचार के शिकार हो रहे हैं। 'सेव इंडिया फेमिली फाउंडेशनÓ के काउंसलर कहते हैं कि घरेलू हिंसा की शिकार केवल महिलाएँ ही हो रहीं हैं, ऐसी बात नहीं है। इस संस्था में हर वर्ष करीब एक लाख पुरुष फोन पर बताते हैं कि किस तरह पत्नी उन्हें प्रताडि़त करती हैं। काउंसलर कहते हैं कि हमारे देश में पत्नी द्वारा प्रताडि़त पतियों की संख्या किसी भी रूप में कम नहीं है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।
स्वांचेतन नामक एक अन्य संस्था के डायरेक्टर कहते हैं कि हम हर वर्ष पत्नी द्वारा प्रताडि़त 350 पुरुषों की काउंसिलिंग करते हैं। हमारे पास आने वाले अधिकांश पुरुषों की यही शिकायत होती है कि पत्नी द्वारा हमें मानसिक और शारीरिक प्रताडऩा दी जाती है। यही नहीं परिवार से कोई संबंध न रखने की धमकी भी पत्नी द्वारा दी जाती है। कई पुरुष तो पत्नी द्वारा पहुँचाई गई शारीरिक पीड़ा का सुबूत देते हैं। 'नेशनल क्राइम रेकाड्र्स ब्यूरोÓ(एनसीआरबी) के आँकड़ों पर नजर डालें, तो वर्ष 2007 में पुरुषों द्वारा किए गए अत्याचारों से तंग आकर 30 हजार 64 विवाहित महिलाओं ने आत्महत्या की, इसकी तुलना में महिलाओं द्वारा किए गए अत्याचार से पीडि़त होकर आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या 57 हजार 593 थी।
इसी संस्था ने वर्ष 2006 में महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए 'डोमेस्टिक वायलेंस एक्टÓ के खिलाफ देश भर में 7 रैलियाँ निकाली थीं। इस्रमें उच्च मध्यम वर्गके 1650 शहरी पुरुषों का आनलाइन सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण से पता चला कि उक्त 1650 में से 97 प्रतिशत पुरुष पत्नी द्वारा किए जा रहे अत्याचार और घरेलू हिंसा के शिकार हुए हैं। यह भी पता चला कि इन पुरुषों को भावनात्मक, शारीरिक, मानसिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी प्रताडि़त किया गया। इसमें भी आर्थिक प्रताडऩा के शिकार पुरुषों की संख्या अधिक थी। कई लोग इन आँकड़ों को गलत बताते हैं। उनका आरोप है कि यह सर्वेक्षण वैज्ञानिक तरीके से नहीं किया गया है, क्योंकि संस्था ने पुरुषों से संपर्क किया था, पत्नी से प्रताडि़त पुरुषों ने संस्था से संपर्क नहीं किया था। उधर 'आल इंडिया डेमोके्रटिक वूमंस एसोसिएशनÓ के अधिकारी बताते हैं कि एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक दहेज से होने वाली मौतों का आँकड़ा लगातार बढ़ रहा है। वर्ष 2007 में दहेज मौतों की संख्या 8 हजार 93 तक पहुँच गई थी।
परंतु उड़ीसा स्टेट वूमन कमिशन के अनुभव के अनुसार महिलाएँ अक्सर दहेज पर कानून की कड़ी नजर को देखते हुए ही पुरुषों पर इस तरह का आरोप लगाती हैं। इस बहाने महिलाएँ कानून से खेलने लगती हैं। इस संबंध में मयंक गुप्ता नाम के एक मैनेजमेंट स्नातक का किस्सा काफी चर्चा में आया। मयंक मूल रूप से कालिकट के हैं, परंतु जब वे मुंबई की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करते थे, तब उन्होंने अपनी सहकर्मी के साथ शादी की। विवाह के 6 महीने बाद ही उनमें विवाद शुरू हो गया। दोनों को ही लंबे समय तक काम करना पड़ता था। दोनों ही यह चाहते थे कि घर का काम मैं नहीं करुँ। मयंक के पिता एम आर गुप्ता ने देखा कि जब दोनों के बीच विवाद होता है, तो मयंक की पत्नी मयंक को खूब मारती है। मयंक के पिता को यह नागवार गुजरा। वे बताते हैं कि पति-पत्नी के बीच झगड़े तो होते ही रहते हैं, पर पत्नी जब पति की बुरी तरह पिटाई करती है, तो पति के आत्मसम्मान का क्या? अंतत: उन्होंने 'प्रोटेक्ट इंडिया फेमिली फाउंडेशनÓ(पीक)से संपर्क किया। अभी वे मयंक का उसकी पत्नी से तलाक के लिए प्रयास कर रहे हैं।
मैसूर में रहने वाले वेंकेटेश्वर को भी पत्नी से छुटकारा चाहिए। इसके लिए उन्होंने पुरुषों के लिए काम करने वाली संस्था 'पीपल्स अर्ज फॉर राइट्स एंड इक्वाालिटीÓ (प्योर) के काउंसलरों से संपर्क किया। उसने बताया कि घर में आते ही उसकी पत्नी रास्ता रोक लेती है और उसे आने नहीं देती। बार-बार उसका शाब्दिक अपमान करती है। उसे मारती है, चिमटी काटती है, नाखून से हमला करती है। एक शिक्षक के रूप में काम करने वाले वेंकेटेश्वर अपनी पत्नी द्वारा लगातार किए जा रहे अत्याचार से अपना आत्मसम्मान खो बैठा है। अब वह अपनी पत्नी से तलाक चाहता है।
आखिर क्या कारण है, इन सबके पीछे। कुछ संस्थाओं ने निष्कर्ष निकाला है कि इन विवादों के पीछे सबसे बड़ा कारण आर्थिक है। अधिकांश पत्नियाँ अपने पति की आवक से संतुष्ट नहीं होतीं। दूसरी ओर पति अपनी पत्नि द्वारा लगातार की जा रही आभूषणों की माँग को पूरा नहीं कर सकता। बस यहीं से होती है झगड़े की शुरुआत। इसके बाद कर्कश पत्नी यही चाहती है कि उसका पति अपने माता-पिता या भाई-बहनों की आर्थिक सहायता न करे। दहेज प्रताडऩा को लेकर अपने पति के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने में महिलाओं की संख्या कम नहीं है। बेंगलोर की एक संस्था के पास रोज ऐसे 20 मामले आते हैं। संस्था का अनुभव है कि पिछले तीन वर्षों में पतियों द्वारा की जा रही शिकायतों में यह पाया गया है कि पत्नी ने ही अपनी खीझ उतारने के लिए बेवजह दहेज प्रताडऩा का झूठा मामला बनाकर उनके माता-पिता को परेशान किया है।
सुप्रीम कोर्ट के जज आर.पी. चग की संस्था 'क्राइम अगेन्स्ट मेनÓ के अनुसार अभी 40 हजार पत्नी पीडि़त पुरष उनकी संस्था के सदस्य हैं। यह संख्या हर महीने बढ़ती ही जा रही है। यह सोचनीय है कि आज भारतीय नारी भले ही स्वतंत्र और आत्मनिर्भर हो रहीं हैं, पर कहीं न कहंी उनमें यह भाव भी है कि आखिर हम कब तक पुरुषों की गुलामी सहेंगे? हमारे भी अधिकार हैं, हमें भी जीना आता है। आखिर हम भी तो परिवाररूपी गाड़ी का एक पहिया हैं। मतलब यही कि अब तक जो पुरुष सोच रहे थे, वही अब आत्मनिर्भर होकर नारी सोच रही है। तब फिर अंतर ही कहाँ रहा दोनों में। पहले पुरुष ने सदियों तक किया, अब नारी को कुछ साल तक तो करने दो। समाज का दूसरा अर्थ समझ है। यदि समाज में रहना है, तो समझ बढ़ानी होगी, दोनों को ही। नहीं तो वैवाहिक जीवन की बात तो दूर, ऐसा भी समय आ सकता है, जब दोनों ही अपनी-अपनी बात पर दृढ़ रहें, अलगाव रखें,बात न करें। बस फिर क्या होगा, यह कुछ समय बाद ही पता चल जाएगा। दोनों को अपने-अपने अहम् त्यागने होंगे। अहंकार से केवल परिवार ही नहीं, बल्कि समाज और वंश का ही नाश होता है। दोनों को ही समाज की आवश्यकता है। समाज भी दोनों से ही चलेगा। इसे दोनों ही समझ लें।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

टीवी, हम और जंकफूड लेने वाले हिंसक बच्चे


डॉ. महेश परिमल
हम लगातार देख, पढ़ और सुन रहे हैं कि आजकल बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कुछ लोग जमाने को दोष देकर चुप हो जाते हैं, कुछ इसे संस्कारों का दोष मानते हैं, कुछ लोग इसके लिए पालकों को दोषी ठहराते हैं। समाजशास्त्री कुछ और ही सोचते हैं। वैज्ञानिक इसे जींस या हार्मोन में बदलाव की बात करते हैं। पर सबसे आवश्यक और गंभीर ेबात पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा रहा है। कहाँ से आई बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति? क्यों होते हैं वे आक्रामक? आखिर क्या बात है कि वे अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाते? कहीं कुछ तो है, जो हमें दिखाई देते हुए भी नहीं दिख रहा है। आखिर क्या है ऐसा, कौन है दुश्मन, जो सामने होकर भी हमें दिखाई नहीं दे रहा है और हम उसका प्रहार झेल रहे हैं। आइए एक प्रयास तो करें कि आखिर कौन है हमारा दुश्मन...
एक तो घर में आकाशीय चैनल से जो ज्ञान वर्षा हो रही है, वह हमारी कमजोरी बनती जा रही है। जी हाँ घर में केबल के माध्यम से आजकल टीवी पर जो कुछ परोसा जा रहा है, वह चिंतनीय है। इससे बच्चों का ज्ञान इतना अधिक बढ़ गया है कि कई बार माता-पिता को भी शर्मसार होना पड़ता है। दूसरी ओर जिस पर कम लोग ही ध्यान दे पाते हैं, वह है बच्चों का खान-पान। बच्चे दिन भर कुछ न कुछ खाते रहते हैं। उन्हें खाने से तो कोई रोक नहीं सकता। पर वे क्या खा रहे हैं, इस ओर तो ध्यान दिया ही जा सकता है। घर में अक्सर माताएँ बच्चों को बार-बार कुछ देने में आलस कर जाती हैं और उन्हें कभी मेगी, तो कभी पेस्टीज, कभी चिप्स, कभी कुरकुरे, कभी कुछ आदि खरीदकर लाने को कहती हैं, बस यही उनसे चूक हो जाती है। यही वे चीजें हैं,जो बच्चों के स्वभाव को बदल रहीं हैं। इन चीजों में स्वाद तो है, पर सात्विकतता नहीं है। बच्चे केवल स्वाद ही देख रहे हैं, सात्विकता की जाँच कर पालकों का काम है। जो वे नहीं कर पा रहे हैं। बच्चे इन्हीं चीजों के आदी हो रहे हैं और हम उनके हिंसक होने का कारण खोज रहे हैं।
ब्रिटिश जरनल हमें याद दिलाता है कि आज बच्चों के हिंसक होने के पीछे उपरोक्त कारण जवाबदार हैं। इसलिए कुछ संवेदनशील पालकों ने अपने बच्चों को टीवी के हिंसक कार्यक्रमों से दूर रखने की कोशिश की है। वे उन्हें कार्टून नेटवर्क देखने की छूट देते हैं। यहाँ भी यही छूट जी का जंजाल बन जाती है। कार्टून कार्यक्रमों के दौरान बीच-बीच में जो विज्ञापन दिखाए जाते हैं, उनमें अधिकांश विज्ञापन फास्ट फूड एवं जंक फूड के होते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के कारण कोई बच्चा मेग्गी तो कोई मेकडोनाल्ड का दीवाना बन जाता है। यही जंक फूड है, जो उसे लगातार हिंसक बना रहा है। ब्रिटेन के 'आर्काईव्स ऑफ पेडियाट्रिक्स एंउ एडोलसंट मेडिसीनÓ के एक सर्वेक्षण के अनुसार बच्चे एक घंटे टीवी देखते हैं, तो उसके एवज में वे 167 किलोकेलोरी जितना अधिक आहार ग्रहण करते हैं। यह अधिक केलोरी अधिकांश जंक फूड के रूप में होती है। विदेशों में सइ तरह से टीवी देखकर लेने वाले आहार को 'टीवी डायटÓ कहा जाता है। यही डायट है, जो बच्चों को हिंसक बना रही है। अब तो वैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। ब्रिटेन के 11 से 15 वर्ष की उम्र के 24 प्रतिशत लड़के और 27 प्रतिशत लड़कियां मोटापे का शिकार हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि ये सभी बड़े होकर डायबिटिस के शिकार होंगे और कदाचित 50 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मर भी जाएं।
जर्नल ऑफ एन्वायर्नमेंटल न्यूट्रीशल मेडिसीन नाम के सामयिक में प्रकाशित एक आलेख में बताया गया है कि आहार और मन के बीच संबंध जानने के लिए अमेरिका की एक जेल में बाल कैदियों पर एक प्रयोग किया। अमेरिका की सरकार द्वारा 13 से 17 वर्ष तक के बाल कैदियों को जो खुराक दी जाती थी, वह करीब जंकफूड की तरह ही होती थी। उसमें शरीर के पोषण के लिए आवश्यक लौह, मैग्नेशियम, जस्ता, विटामिन बी जैसे 12 तत्व पर्याप्त मात्रा में थे। उसके कारण इन बालकैदियों का व्यवहार अत्यंत हिंसक हो जाता था। वे जेल के अंदर में अपनों से झगडऩे लगते थे। मनोचिकित्सकों ने इनमें से 50 प्रतिशत बाल कैदियों को इन सारे तत्वों की गोलियाँ दीं और शेष 50 प्रतिशत को प्लेसिबो के रूप में पहचानी जाने वाली नकली गोलियाँ दी गईं। जिन बच्चों को असली गोली दी गईं थी, उसमें से 80 प्रतिशत बच्चों के हिंसक व्यवहार में असरकारक सुधार दिखाई दिया। दूसरी ओर प्लेसिबो लेने वाले 56 प्रतिशत बच्चों में सुधार के लक्षण दिखाई दिए। इसके विपरीत जिन बच्चों ने यह गोलियाँ लेने से इंकार किया था, उनके व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं देखा गया।
इस प्रयोग से मनोचिकित्सक इस नतीजे पर पहुंचे कि जो बच्चे जंकफूड ग्रहण करते हैं, उन्हें आवश्यक खनिज नहीं मिलने से उनका व्यवहार हिंसक हो जाता है। ब्रिटिश जर्नल ऑफ साइक्रियाट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार ब्रिटेन की जेल में बंद अपराधियों को जब विटामींस, मिनरल्स और फेटी एसिड के सप्लिमेंट वाला आहार दिया गया तब उसमें से 26 प्रतिशत अपराधियों के व्यवहार में सुधार के लक्षण दिखाई दिए।
इंसान के मस्तिष्क को जब तक आवश्यक तमाम पौष्टिक तत्व नहीं मिलेंगे, तब तक उनका दिमाग ठीक से काम नहीं करेगा। आज हमारे समाज में जो मानसिक बीमारी बढ़ रही है, उसके पीछे यही बिगड़ी हुई आहार नीति दोषी है। आज जो महिलाएँ अपना वजन कम करने के लिए जिस तरह से भूखे रहतीं हैं, उससे उनके शरीर को आवश्यक तत्व नहीं मिल पाते। इसलिए वे महिलाएँ बहुत ही जल्द डिपे्रशन का शिकार बनतीं हैं। जंकफूड खाने वाली और डायटिंग करने वाली कई मॉडलों और टीवी अभिनेत्रियों की मौत की खबर कुछ माह पहले सुर्खियों में थीं। अपनी आहार की आदतों के कारण आज हमारा समाज एक विशाल पागलखाने के रूप में रूपांतरित हो रहा है। यदि हमें सही आहार चाहिए, तो वह हमें हमारे रोज के भोजन जैसे दाल, भात, रोटी, सब्जी में ही मिलेगा। इसी में हैं वे सारे आवश्यक तत्व, जो शरीर को चाहिए। हम नाहक ही अन्य खाद्य सामग्री की ओर भाग रहे हैं। इसे भोजन के रूप में लेने से शरीर को आवश्यक तत्व मिल जाते हैं। इससे शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ रहता है। इसके खिलाफ आज हम पावभाजी, पिज्जा, हेमबर्गर, सेंडविच, आइस्क्रीम, कोला डिकंस, बे्रड, बिस्किट्स, चॉकलेट, वेफर्स, चिप्स, केक आदि बिना कार्बोहाईड्रेड वाली चीजें ग्रहण करते रहे हैं, इससे शरीर को पूरा पोषण नहीं मिलता और मस्तिष्क बात-बात में उत्तेजना की ओर बढ़ता है।
आजकल टीवी में जितनी भी चीजों का विज्ञापन दिखाया जा रहा है। उसमें से अधिकांश नुकसानदेह ही है। जो इंसान इन चीजों के बिना जी सकता है, उससे सुखी इंसान कोई नहीं हो सकता। साबुन, शेम्पू, टूथपेस्ट, फ्रीज, वाशिंग मशीन, पेनकीलर्स, मोबाइल, अगरबत्ती, कार, टू व्हीलर्स, माइक्रोवेव, होम थिएटर, डीवीडी प्लेयर, इम्पोर्टेट फर्नीचर, डिटर्जेंट, मच्छर कास्मेटिक्स, बीमा पॉलिसी, एस्प्रो की गोली, टेलल्कम पावडर, डियोडरंट, अंडरगारमेंट्स आदि चीजें न हों, तो आज हमारी बहुत ही ज्यादा सुखमय हो जाए। स्वस्थ और सुखी जीवन जीने के लिए जिन चीजों की हमें आवश्यकता है, उसका विज्ञापन कभी कहीं नहीं देखने को मिलता। टीवी पर बेकार की चीजें बार-बार दिखाकर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि यह हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसे खरीदना हमारा धर्म है, इसके बिना हमारा जीवन कभी सुखी नहीं रह सकता। जिसे इन चीजों की आवश्ययकता नहीं, वही इंसान सबसे अधिक सुखी है।
इस प्रयोग से मनोचिकित्सक इस नतीजे पर पहुंचे कि जो बच्चे जंकफूड ग्रहण करते हैं, उन्हें आवश्यक खनिज नहीं मिलने से उनका व्यवहार हिंसक हो जाता है। ब्रिटिश जर्नल ऑफ साइक्रियाट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार ब्रिटेन की जेल में बंद अपराधियों को जब विटामींस, मिनरल्स और फेटी एसिड के सप्लिमेंट वाला आहार दिया गया तब उसमें से 26 प्रतिशत अपराधियों के व्यवहार में सुधार के लक्षण दिखाई दिए।
इंसान के मस्तिष्क को जब तक आवश्यक तमाम पौष्टिक तत्व नहीं मिलेंगे, तब तक उनका दिमाग ठीक से काम नहीं करेगा। आज हमारे समाज में जो मानसिक बीमारी बढ़ रही है, उसके पीछे यही बिगड़ी हुई आहार नीति दोषी है। आज जो महिलाएँ अपना वजन कम करने के लिए जिस तरह से भूखे रहतीं हैं, उससे उनके शरीर को आवश्यक तत्व नहीं मिल पाते। इसलिए वे महिलाएँ बहुत ही जल्द डिपे्रशन का शिकार बनतीं हैं। जंकफूड खाने वाली और डायटिंग करने वाली कई मॉडलों और टीवी अभिनेत्रियों की मौत की खबर कुछ माह पहले सुर्खियों में थीं। अपनी आहार की आदतों के कारण आज हमारा समाज एक विशाल पागलखाने के रूप में रूपांतरित हो रहा है। यदि हमें सही आहार चाहिए, तो वह हमें हमारे रोज के भोजन जैसे दाल, भात, रोटी, सब्जी में ही मिलेगा। इसी में हैं वे सारे आवश्यक तत्व, जो शरीर को चाहिए। हम नाहक ही अन्य खाद्य सामग्री की ओर भाग रहे हैं। इसे भोजन के रूप में लेने से शरीर को आवश्यक तत्व मिल जाते हैं। इससे शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ रहता है। इसके खिलाफ आज हम पावभाजी, पिज्जा, हेमबर्गर, सेंडविच, आइस्क्रीम, कोला डिकंस, बे्रड, बिस्किट्स, चॉकलेट, वेफर्स, चिप्स, केक आदि बिना कार्बोहाईड्रेड वाली चीजें ग्रहण करते रहे हैं, इससे शरीर को पूरा पोषण नहीं मिलता और मस्तिष्क बात-बात में उत्तेजना की ओर बढ़ता है।
आजकल टीवी में जितनी भी चीजों का विज्ञापन दिखाया जा रहा है। उसमें से अधिकांश नुकसानदेह ही है। जो इंसान इन चीजों के बिना जी सकता है, उससे सुखी इंसान कोई नहीं हो सकता। साबुन, शेम्पू, टूथपेस्ट, फ्रीज, वाशिंग मशीन, पेनकीलर्स, मोबाइल, अगरबत्ती, कार, टू व्हीलर्स, माइक्रोवेव, होम थिएटर, डीवीडी प्लेयर, इम्पोर्टेट फर्नीचर, डिटर्जेंट, मच्छर कास्मेटिक्स, बीमा पॉलिसी, एस्प्रो की गोली, टेलल्कम पावडर, डियोडरंट, अंडरगारमेंट्स आदि चीजें न हों, तो आज हमारी बहुत ही ज्यादा सुखमय हो जाए। स्वस्थ और सुखी जीवन जीने के लिए जिन चीजों की हमें आवश्यकता है, उसका विज्ञापन कभी कहीं नहीं देखने को मिलता। टीवी पर बेकार की चीजें बार-बार दिखाकर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि यह हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसे खरीदना हमारा धर्म है, इसके बिना हमारा जीवन कभी सुखी नहीं रह सकता। जिसे इन चीजों की आवश्ययकता नहीं, वही इंसान सबसे अधिक सुखी है।
वास्तव में टीवी के माध्यम से यह बताने की कोशिश हो रही है कि उसमें विज्ञापित करने वाली चीजें आपके पास नहीं हैं, तो आप प्रगति की दौड़ में सबसे पीछे हैं। आप ही सोचें कि आज से 50 वर्ष पूर्व जब ये चीजें नहीं थीं, तो क्या हम दु:खी थे? विज्ञापनों में दिखाई देने वाली कई चीजें हमारे लिए अनुपयोगी हैं। फिर भी इनका बार-बार दिखाया जाना हमें मानसिक रूप से इनका गुलाम बना रहा है। हम विज्ञापन देखकर चीजें खरीदने के शौकीन हो गए हैं। हमारे बे्रनवॉश हो गया है। यदि गहराई और गंभीरता से इस दिशा में विचार करें, तो कुछ और ही नजारा दिखाई देगा। एक बार विचार की ओर एक कदम तो बढ़ाएँ...
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 24 अगस्त 2009

प्रेम दो, प्रेम लो


डॉ महेश परिमल
ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की, तब से प्रेम शुरू हुआ। प्रेम कई तरह का होता है। माँ अपने बच्चों को करती है। पिता भी बच्चों को प्रेम करते हैं। बहन-भाई भी एक दूसरे को प्रेम करते हैं। प्रेम अनमोल है। यह संसार की सबसे खूबसूरत वस्तु है, जो दिखाई नहीं देती, इसे केवल महसूस किया जा सकता है। कहते हैं हम जो कुछ भी करते हैं, प्रकृति हमें वैसा ही लौटाती है। पौधा रोपने के बाद उसकी देखभाल की जाए, तो आगे चलकर वह पेड़ बनता है और फल देता है। ठीक इसी तरह अपने बच्चों को प्रेम देकर बड़ा करने वाले माता-पिता को भी बच्चे बड़े होकर उनकी देखभाल करते हैं। इस तरह का लेन-देन बरसों से चला आ रहा है। अगर हम किसी को प्रेम से बुलाते हैं, उनसे बातचीत करते हैं, तो वह भी हमसे प्रेम से बातवीत करेगा। प्रेम से बड़े से बड़े काम आसानी से हो जाते हैं।
प्रेम किसी से भी किया जा सकता है। इंसान जानवर को भी प्रेम करता है। जानवर भी प्रेम की भाषा खूब समझते हैं। हर कोई प्रेम का भूखा होता है। ईश्वर ने हर किसी को प्रेम करना सिखाया है। प्रेम के बिना दुनिया एक पल भी नहीं रह सकती। पूरी दुनिया में हर कोई किसी न किसी तरह से प्रेम करता है। किसी को पेड़-पौधों से प्रेम होता है, किसी को प्रकृति से। कोई मशीनों से प्रेम करता है, तो कोई पुस्तकों से। किसी को दिन-रात प्रयोगशाला में बैठना अच्छा लगता है, तो किसी को समुद्र या नदी किनारे बैठना अच्छा लगता है।
प्रेम के हमारे जीवन में अनेक रंग हैं। इन सबसे बड़ा प्रेम है, वह है देशप्रेम। देश को प्रेम करना ही चाहिए। जो अपने देश को प्रेम नहीं करता, वह मूर्ख है। देश को प्रेम करने वाला कभी दु:खी नहीं रहता। देश इंसान को बनाता है। देश के लिए जान लुटाने वाले शहीद कहे जाते हैं। जब हम देश को प्रेम करते हैं, तो देश हमें प्रेम करता है। हम जो कुछ भी देश को देंगे, देश उससे दस गुना हमें देगा। प्रेम ऐसी वस्तु है, जिसे जितना बाँटो, उतना ही बढ़ता जाता है। जो प्रेम करते हैं, वे कभी निराश नहीं होते। प्रेम करना अच्छी आदत है। हम किसी को प्रेम देंगे, तभी हमें प्रेम मिलेगा। इसीलिए कहते हैं कि प्रेम दो, प्रेम लो।
प्रेम के बिना कोई भी कभी भी कहीं भी जिंदा नहीं रह सकता। आज पूरी दुनिया प्रेम पर ही टिकी है। प्रेम से आज तक कोई वंचित नहीं रहा। पशु-पक्षी भी अपने बच्चों को प्रेम करते हैं। प्रेमे से प्रेमबड़ी कोई चीज नहीं है। प्रेम की भाषा वही समझता है, जो प्रेम करता है। प्रेम के आगे नफरत हमेशा हार जाती है। प्रेम से ही नफरत का अंधेरा दूर किया जा सकता है। प्रेम संबल देता है। मां का प्रेम भरा हाथ सर पर फिरता है, तो बेटा दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत से टकरा जाता है। प्रेम शैतानों को भी सुधार देता है। हर किसी को प्रेम की आवश्यकता होती है। प्रेम के बिना न तो इंसान की कल्पना की जा सकती है और न ही दुनिया की। प्रेम के बिना संसार में कुछ भी नहीं हो सकता। यदि हमें सचमुच अच्छे से जीना है, तो प्रेम करना सीखना होगा। तभी हम बहुत सारा प्रेम पाएँगे और सबको प्रेम लुटाऍंगे।
डॉ महेश परिमल

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

जरूरी है सूचना के अधिकारों का इस्तेमाल

राजेश आर सिंह
सरकारी कार्यालयों में अक्सर लोगों का काम अटकाने का मामला सामने आता रहता है आम आदमी को इस समस्या से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से भारत सरकार नें वर्ष २००५ में राइट्स टू इन्फार्मेशन एक्ट ( आर. टी. आई ) कानून बनाया । जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर यह कानून देश के सभी हिस्सों में लागू है । देश का कोई भी नागरिक इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है । इस कानून के जरिये अपने काम से सम्बंधित जानकारी पा सकता है इस विषय में कुछ खास जानकारियां इस प्रकार है ।
आरटीआई कानून का मकसद :- इस कानून का मकसद सार्वजनिक विभागों के कामों की जवाबदेही तय करना और पारदर्शिता लाना ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके । इसके लिए सरकार नें केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों का गठन भी किया है ।
आरटीआई कानून के दायरे में आने वाले विभाग :- सरकारी दफ्तर, पीएसयू, अदालतें, संसद व विधानमंडल, स्थानीय संस्थाए, सरकारी बैंक, सरकारी अस्पताल, बीमा कम्पनियाँ, चुनाव आयोग, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति कार्यालय आदि आरटीआई कानून के दायरे में आते है । इनके आलावा वैसे एनजीओ जो सरकार से फंडिंग प्राप्त करते हों, पुलिस, सीबीआई व सेना के तीनों अंगों की सामान्य जानकारी भी इस कानून के तहत ली जा सकती है ।
इनपर आरटीआई कानून नहीं लागू होता :- किसी भी खुफिया एजेंसी की वैसी जानकारियां जिनके सार्वजनिक होने से देश की सुरक्षा व अखंडता को खतरा हो, को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है । लेकिन मानवाधिकार उल्लंघन होने व इन संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की जानकारी ली जा सकती है । अन्य देशों के साथ भारत के सम्बन्ध से जुड़े मामलों की जानकारी को भी इस कानून से अलग रखा गया है साथ ही साथ निजी संस्थाओं को भी इस दायरे से बाहर रखा गया है । लेकिन इन संस्थाओं की सरकार के पास उपलब्ध जानकारी को सम्बंधित विभाग के माध्यम से हासिल किया जा सकता है ।
क्या है थर्ड पार्टी :- आरटीआई कानून में थर्ड पार्टी का जिक्र है । इसके तहत वैसी प्राइवेट कंपनियां आती है, जो सरकार से मदद नहीं लेती है और जो सूचना के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आती । इन कंपनियों के बारे में जानकारी सिर्फ़ सरकारी विभागों के माध्यम से मांगी जा सकती है, लेकिन वे कंपनिया सीधे जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं है ।
कहां करे अप्लाई :- सम्बंधित विभागों में पब्लिक इन्फारमेंशन आफिसर को एक ऍप्लिकेशन देकर इच्छित जानकारी मांगी जा सकती है . इसके लिए सरकार नें सभी विभागों में एक पब्लिक इन्फार्मेशन आफिसर यानी पीआईओ की नियुक्ति की है . उसकी सहायता के लिए एपीआईओ भी होता है .
कैसे करें अप्लाई :- सादे कागज पर हाँथ से लिखी हुई या टाईप की गई अप्लिकेशन के जरिये से जानकारी मांगी जा सकती है । वैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर सभी राज्यों में इसके फार्म मुफ्त में मिलते है । आरटीआई अप्लिकेशन के साथ १० रूपये की फीस भी जमा करानी होती है ।
अप्लिकेशन में क्या लिखें :- क्या सूचना चाहिए, कितनी अवधि की सूचना चाहिए, अपना नाम, पता, फ़ोन या मोबाईल नम्बर, ताकि सूचना देने वाला विभाग आपसे संपर्क कर सके । इसके अलावा फीस का विवरण भी देना होता है । अगर सूचना मांगने वाला गरीबी रेखा के नीचे आता है तो उसे कोई फीस नहीं देनी पड़ती, लेकिन ऍप्लिकेशन के साथ बीपीएल कार्ड की कॉपी अटैच करनी पड़ती है ।
कैसे जमा कराएँ फीस :- केन्द्र व दिल्ली से संबंधित सूचना आरटीआई के तहत लेने की फीस है १० रूपये । वैसे ज्यादातर राज्यों में भी १० रूपये ही है, पर कुछ राज्य ज्यादा भी चार्ज कर रहे है । फीस कैश, बैंक ड्राफ्ट, या पोस्टल ऑडर के रूप में दी जा सकती है ।
इन भाषाओँ का इस्तेमाल करें :- हिन्दी, अंग्रेजीया किसी भी स्थानीय भाषा में ऍप्लिकेशन दी जा सकती है ।
सूचना मिलने में देरी होने पर क्या करें :- आमतौर पर सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी तीस दिन में मिल जानी चाहिए । थर्ड पार्टी यानी प्राइवेट कंपनी के मामले में ४५ दिन और जीवन और सुरक्षा से संबंधित मामलों में ४८ घंटों में सूचना मिलनी ही चाहिए । ऐसा न होने पर संबंधित विभाग के संबंधित अधिकारी पर एक केस के लिए २५० रूपये प्रतिदिन के हिसाब से २५ हजार रूपये तक का जुर्माना हो सकता है ।
इसके अंतर्गत कौन आते है :- यह अधिनियम ज़म्मू-कश्मीर राज़्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू है (एस। 12)।
सुचना का क्या मतलब होता है :- सूचना का मतलब है- रिकार्डों, दस्तावेज़ों, ज्ञापनों, ई-मेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लॉग पुस्तिकाएँ, ठेके, टिप्पणियाँ, पत्र, उदाहरण, नमूने, डाटा सामग्री सहित कोई भी सामग्री, जो किसी भी रूप में उपलब्ध हों। साथ ही, वह सूचना जो किसी भी निजी निकाय से संबंधित हो, किसी लोक प्राधिकारी के द्वारा उस समय प्रचलित किसी अन्य कानून के अंतर्गत प्राप्त किया जा सकता है, बसर्ते कि उसमें फाईल नोटिंग शामिल नहीं हो। (एस।-2 (एफ))
इसके अंतर्गत निम्न चीजें आती है :-
(1) कार्यों, दस्तावेज़ों, रिकार्डों का निरीक्षण,
(2) दस्तावेज़ों या रिकार्डों की प्रस्तावना/सारांश, नोट्स व प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना,
(3) सामग्री का प्रमाणित नमूने लेना,
(4) रिंट आउट, डिस्क, फ्लॉपी, टेपों, वीडियो कैसेटों के रूप में या कोई अन्य ईलेक्ट्रॉनिक रूप में जानकारी प्राप्त करना (एस- 2(ज़े))
लोक अधिकारी के कर्तव्य :-
1. इस कानून के लागू होने के १२० दिन के भीतर निम्न सूचना प्रकाशित कराना अनिवार्य होगा,
2. सरकार द्वारा अपने संगठनों, क्रियाकलापों और कर्त्तव्यों के विवरण
3. अधिकारियों और कर्मचारियों के अधिकार और कर्त्तव्य
4. अपने निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनाई गई विधि, पर्यवेक्षण और ज़िम्मेदारी की प्रक्रिया सहित
5. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके द्वारा निर्धारित मापदण्ड
6. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके कर्मचारियों द्वारा उपयोग किए गए नियम, विनियम, अनुदेश, मापदण्ड और रिकार्ड
7. इनके द्वारा धारित या इनके नियंत्रण के अंतर्गत दस्तावेज़ों की कोटियों का विवरण
8. इनके द्वारा गठित दो या अधिक व्यक्तियों से युक्त बोर्ड, परिषद्, समिति और अन्य निकायों के विवरण। इसके अतिरिक्त, ऐसे निकायों में होने वाली बैठक की ज़ानकारी आम जनता की पहुँच में है या नहीं
9. इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की निर्देशिका
10. इसके प्रत्येक अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा प्राप्त की जाने वाली मासिक वेतन, इसके विनियमों के अंतर्गत दी जाने वाली मुआवज़े की पद्धति सहित
11. इसके द्वारा संपादित सभी योजनाएँ, प्रस्तावित व्यय और प्रतिवेदन सहित सभी का उल्लेख करते हुए प्रत्येक अभिकरण को आवंटित बज़ट विवरण
12. सब्सिडी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की विधि, आवंटित राशि और ऐसे कार्यक्रमों के विवरण और लाभान्वितों की संख्या को मिलाकर
13. इसके द्वारा दी जाने वाली रियायत, अनुमतियों या प्राधिकारियों को प्राप्त करने वालों का विवरण,
14. इनके पास उपलब्ध या इनके द्वारा धारित सूचनाओं का विवरण, जिसे इलेक्ट्रॉनिक रूप में छोटा रूप दिया गया हो
15. सूचना प्राप्त करने के लिए नागरिकों के पास उपलब्ध सुविधाओं का विवरण, जनता के उपयोग के लिए पुस्तकालय या पठन कक्ष की कार्यावधि का विवरण, जिसकी व्यवस्था आम जनता के लिए की गई हो
16। जन सूचना अधिकारियों के नाम, पदनाम और अन्य विवरण (एस. 4 (1)(बी))
लोक अधिकारी का क्या मतलब है :- इसका अर्थ है कोई भी स्थापित या गठित प्राधिकारी या निकाय या स्वशासी संस्थान [एस-२(एच)] जिसका गठन निम्न रीति से हुआ है-
* संविधान द्वारा या उसके अंतर्गत
* संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा
* राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून के द्वारा
उपयुक्त शासन द्वारा जारी अधिसूचना या आदेश द्वारा जिसमें निम्न दो बातें शामिल हों-
1. वह सरकार द्वारा धारित, नियंत्रित या वित्त पोषित हो
2. उक्त सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धन ग्रहण करता हो
राजेश आर सिंह

जरूरी है सूचना के अधिकारों का इस्तेमाल

राजेश आर सिंह
सरकारी कार्यालयों में अक्सर लोगों का काम अटकाने का मामला सामने आता रहता है आम आदमी को इस समस्या से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से भारत सरकार नें वर्ष २००५ में राइट्स टू इन्फार्मेशन एक्ट ( आर. टी. आई ) कानून बनाया । जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर यह कानून देश के सभी हिस्सों में लागू है । देश का कोई भी नागरिक इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है । इस कानून के जरिये अपने काम से सम्बंधित जानकारी पा सकता है इस विषय में कुछ खास जानकारियां इस प्रकार है ।
आरटीआई कानून का मकसद :- इस कानून का मकसद सार्वजनिक विभागों के कामों की जवाबदेही तय करना और पारदर्शिता लाना ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके । इसके लिए सरकार नें केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों का गठन भी किया है ।
आरटीआई कानून के दायरे में आने वाले विभाग :- सरकारी दफ्तर, पीएसयू, अदालतें, संसद व विधानमंडल, स्थानीय संस्थाए, सरकारी बैंक, सरकारी अस्पताल, बीमा कम्पनियाँ, चुनाव आयोग, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति कार्यालय आदि आरटीआई कानून के दायरे में आते है । इनके आलावा वैसे एनजीओ जो सरकार से फंडिंग प्राप्त करते हों, पुलिस, सीबीआई व सेना के तीनों अंगों की सामान्य जानकारी भी इस कानून के तहत ली जा सकती है ।
इनपर आरटीआई कानून नहीं लागू होता :- किसी भी खुफिया एजेंसी की वैसी जानकारियां जिनके सार्वजनिक होने से देश की सुरक्षा व अखंडता को खतरा हो, को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है । लेकिन मानवाधिकार उल्लंघन होने व इन संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की जानकारी ली जा सकती है । अन्य देशों के साथ भारत के सम्बन्ध से जुड़े मामलों की जानकारी को भी इस कानून से अलग रखा गया है साथ ही साथ निजी संस्थाओं को भी इस दायरे से बाहर रखा गया है । लेकिन इन संस्थाओं की सरकार के पास उपलब्ध जानकारी को सम्बंधित विभाग के माध्यम से हासिल किया जा सकता है ।
क्या है थर्ड पार्टी :- आरटीआई कानून में थर्ड पार्टी का जिक्र है । इसके तहत वैसी प्राइवेट कंपनियां आती है, जो सरकार से मदद नहीं लेती है और जो सूचना के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आती । इन कंपनियों के बारे में जानकारी सिर्फ़ सरकारी विभागों के माध्यम से मांगी जा सकती है, लेकिन वे कंपनिया सीधे जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं है ।
कहां करे अप्लाई :- सम्बंधित विभागों में पब्लिक इन्फारमेंशन आफिसर को एक ऍप्लिकेशन देकर इच्छित जानकारी मांगी जा सकती है . इसके लिए सरकार नें सभी विभागों में एक पब्लिक इन्फार्मेशन आफिसर यानी पीआईओ की नियुक्ति की है . उसकी सहायता के लिए एपीआईओ भी होता है .
कैसे करें अप्लाई :- सादे कागज पर हाँथ से लिखी हुई या टाईप की गई अप्लिकेशन के जरिये से जानकारी मांगी जा सकती है । वैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर सभी राज्यों में इसके फार्म मुफ्त में मिलते है । आरटीआई अप्लिकेशन के साथ १० रूपये की फीस भी जमा करानी होती है ।
अप्लिकेशन में क्या लिखें :- क्या सूचना चाहिए, कितनी अवधि की सूचना चाहिए, अपना नाम, पता, फ़ोन या मोबाईल नम्बर, ताकि सूचना देने वाला विभाग आपसे संपर्क कर सके । इसके अलावा फीस का विवरण भी देना होता है । अगर सूचना मांगने वाला गरीबी रेखा के नीचे आता है तो उसे कोई फीस नहीं देनी पड़ती, लेकिन ऍप्लिकेशन के साथ बीपीएल कार्ड की कॉपी अटैच करनी पड़ती है ।
कैसे जमा कराएँ फीस :- केन्द्र व दिल्ली से संबंधित सूचना आरटीआई के तहत लेने की फीस है १० रूपये । वैसे ज्यादातर राज्यों में भी १० रूपये ही है, पर कुछ राज्य ज्यादा भी चार्ज कर रहे है । फीस कैश, बैंक ड्राफ्ट, या पोस्टल ऑडर के रूप में दी जा सकती है ।
इन भाषाओँ का इस्तेमाल करें :- हिन्दी, अंग्रेजीया किसी भी स्थानीय भाषा में ऍप्लिकेशन दी जा सकती है ।
सूचना मिलने में देरी होने पर क्या करें :- आमतौर पर सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी तीस दिन में मिल जानी चाहिए । थर्ड पार्टी यानी प्राइवेट कंपनी के मामले में ४५ दिन और जीवन और सुरक्षा से संबंधित मामलों में ४८ घंटों में सूचना मिलनी ही चाहिए । ऐसा न होने पर संबंधित विभाग के संबंधित अधिकारी पर एक केस के लिए २५० रूपये प्रतिदिन के हिसाब से २५ हजार रूपये तक का जुर्माना हो सकता है ।
इसके अंतर्गत कौन आते है :- यह अधिनियम ज़म्मू-कश्मीर राज़्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू है (एस। 12)।
सुचना का क्या मतलब होता है :- सूचना का मतलब है- रिकार्डों, दस्तावेज़ों, ज्ञापनों, ई-मेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लॉग पुस्तिकाएँ, ठेके, टिप्पणियाँ, पत्र, उदाहरण, नमूने, डाटा सामग्री सहित कोई भी सामग्री, जो किसी भी रूप में उपलब्ध हों। साथ ही, वह सूचना जो किसी भी निजी निकाय से संबंधित हो, किसी लोक प्राधिकारी के द्वारा उस समय प्रचलित किसी अन्य कानून के अंतर्गत प्राप्त किया जा सकता है, बसर्ते कि उसमें फाईल नोटिंग शामिल नहीं हो। (एस।-2 (एफ))
इसके अंतर्गत निम्न चीजें आती है :-
(1) कार्यों, दस्तावेज़ों, रिकार्डों का निरीक्षण,
(2) दस्तावेज़ों या रिकार्डों की प्रस्तावना/सारांश, नोट्स व प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना,
(3) सामग्री का प्रमाणित नमूने लेना,
(4) रिंट आउट, डिस्क, फ्लॉपी, टेपों, वीडियो कैसेटों के रूप में या कोई अन्य ईलेक्ट्रॉनिक रूप में जानकारी प्राप्त करना (एस- 2(ज़े))
लोक अधिकारी के कर्तव्य :-
1. इस कानून के लागू होने के १२० दिन के भीतर निम्न सूचना प्रकाशित कराना अनिवार्य होगा,
2. सरकार द्वारा अपने संगठनों, क्रियाकलापों और कर्त्तव्यों के विवरण
3. अधिकारियों और कर्मचारियों के अधिकार और कर्त्तव्य
4. अपने निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनाई गई विधि, पर्यवेक्षण और ज़िम्मेदारी की प्रक्रिया सहित
5. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके द्वारा निर्धारित मापदण्ड
6. अपने क्रियाकलापों का निर्वाह करने के लिए इनके कर्मचारियों द्वारा उपयोग किए गए नियम, विनियम, अनुदेश, मापदण्ड और रिकार्ड
7. इनके द्वारा धारित या इनके नियंत्रण के अंतर्गत दस्तावेज़ों की कोटियों का विवरण
8. इनके द्वारा गठित दो या अधिक व्यक्तियों से युक्त बोर्ड, परिषद्, समिति और अन्य निकायों के विवरण। इसके अतिरिक्त, ऐसे निकायों में होने वाली बैठक की ज़ानकारी आम जनता की पहुँच में है या नहीं
9. इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की निर्देशिका
10. इसके प्रत्येक अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा प्राप्त की जाने वाली मासिक वेतन, इसके विनियमों के अंतर्गत दी जाने वाली मुआवज़े की पद्धति सहित
11. इसके द्वारा संपादित सभी योजनाएँ, प्रस्तावित व्यय और प्रतिवेदन सहित सभी का उल्लेख करते हुए प्रत्येक अभिकरण को आवंटित बज़ट विवरण
12. सब्सिडी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की विधि, आवंटित राशि और ऐसे कार्यक्रमों के विवरण और लाभान्वितों की संख्या को मिलाकर
13. इसके द्वारा दी जाने वाली रियायत, अनुमतियों या प्राधिकारियों को प्राप्त करने वालों का विवरण,
14. इनके पास उपलब्ध या इनके द्वारा धारित सूचनाओं का विवरण, जिसे इलेक्ट्रॉनिक रूप में छोटा रूप दिया गया हो
15. सूचना प्राप्त करने के लिए नागरिकों के पास उपलब्ध सुविधाओं का विवरण, जनता के उपयोग के लिए पुस्तकालय या पठन कक्ष की कार्यावधि का विवरण, जिसकी व्यवस्था आम जनता के लिए की गई हो
16। जन सूचना अधिकारियों के नाम, पदनाम और अन्य विवरण (एस. 4 (1)(बी))
लोक अधिकारी का क्या मतलब है :- इसका अर्थ है कोई भी स्थापित या गठित प्राधिकारी या निकाय या स्वशासी संस्थान [एस-२(एच)] जिसका गठन निम्न रीति से हुआ है-
* संविधान द्वारा या उसके अंतर्गत
* संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा
* राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून के द्वारा
उपयुक्त शासन द्वारा जारी अधिसूचना या आदेश द्वारा जिसमें निम्न दो बातें शामिल हों-
1. वह सरकार द्वारा धारित, नियंत्रित या वित्त पोषित हो
2. उक्त सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धन ग्रहण करता हो
राजेश आर सिंह

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

बादलों में आर्टिफिशियल बारिश का बिजनेस



आशीष आगाशे

इसे कहते हैं तबीयत से पत्थर उछालना और आसमान में सुराख कर देना। मानसून की बारिश कम होने की चिंताओं को अवसर में बदलते हुए कुछ लोग बादलों से कह रहे हैं, रुको, हमारी जमीन पर बारिश करो। सॉफ्टवेयर क्षेत्र से जुड़े 27 साल के कारोबारी निशांत रेड्डी बादलों से कृत्रिम तरीके से बारिश करवाने के कारोबार में लग गए हैं। बादलों से कृत्रिम तरीके से बारिश करवाने का चलन 40 देशों में है। बारिश कराने का फलता-फूलता कारोबार
अब भारत में भी इसका चलन बढ़ रहा है। इस साल महाराष्ट्र के अलावा कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के कुछ इलाकों में इस तरीके से बारिश कराई गई है।
आखिर कैसे होती है क्लाउड सीडिंग?हवा में बादलों से बारिश करवाने के इस उद्यम में एक आधुनिक विमान, जमीन पर स्थित रेडार, एक कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, कुछ मौसम वैज्ञानिकों, पायलटों और अन्य कर्मचारियों की जरूरत होती है। जमीन पर सिर्फ एक आदमी की जरूरत पड़ती है जो मौसम विभाग के आंकड़ों को भेजता रहे ताकि बादलों की स्थिति का पता लगाया जा सके। इसमें इस्तेमाल होने वाले विमान किसी और काम में नहीं लगाए जा सकते और इन्हें खासतौर से अमेरिका या इजराइल से मंगाना करना पड़ता है।

एक सीजन में तीन माह के लिए विमान मंगाने और रेडार का खर्च करीब 10 करोड़ रुपए आता है, लेकिन इस कारोबार में अच्छा मुनाफा होता है। जमीन पर सिल्वर आयोडाइड जलाकर उसके कणों को हवा में भेजा जाता है।
40% तक ज्यादा बारिश हो सकती है...
निशांत रेड्डी ने सॉफ्टवेयर क्षेत्र की अपनी नौकरी छोड़कर अपने कई दोस्तों के साथ मिलकर सिरी एविएशन शुरू किया। आर्टिफिशियल तरीके से बरसात कराने के बाजार में सिरी एविएशन के मुकाबले में सिर्फ एक दूसरी कंपनी अग्नि एविएशन है। मानसून की हालत खराब रहने की वजह से सरकार अब फसलों को बचाने के लिए बादलों से बारिश कराने की जुगत में शामिल हो सकती है।
यह मौसम में बदलाव करने का एक ऐसा तरीका है जिसके तहत वायुमंडल में विभिन्न तरह के पदार्थ प्रवाहित करके बादलों से बारिश कराने की कोशिश की जाती है। जब वायुमंडल में प्रवाहित पदार्थ बादलों के संपर्क में आते हैं तो वे बादलों के भीतर की प्रक्रिया में बदलाव ला देते हैं जिससे बारिश शुरू हो जाती है। इस तरह के प्रयोगों से देखा गया है कि बारिश में 25 से 40 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो जाती है।
कई राज्य सरकारों ने की 'बारिश' की पहल

भारत में आर्टिफिशियल तरीके से बारिश कराने का प्रयास 2003 में शुरू हुआ, जब कर्नाटक और आंध्र प्रदेश सरकारों ने कम वर्षा वाले क्षेत्रों में बादलों से बारिश करवाने का प्रयास किया। इस साल वृहन मुंबई नगर निगम ने इस तरह का प्रयास शुरू किया है। मुंबई की हालत यह है कि शहर के लोग ज्यादा बारिश से परेशान हैं, जबकि उन क्षेत्रों में बारिश नहीं हो रही है, जहां शहर को वाटर सप्लाई करने वाले जलाशय हैं। नगर निगम गंभीरता से कृत्रिम बारिश कराने की कोशिश में लगा है ताकि जरूरी जगहों पर बारिश हो सके। इसी प्रकार बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, असम, मध्य प्रदेश और राजस्थान सरकार भी सूखे जैसी स्थिति का मुकाबला करने के लिए ऐसी कंपनियों के संपर्क में हैं जो कृत्रिम बारिश करवाती हैं।
भारत में बढ़ रहा है आर्टिफिशियल बारिश की चलन

आर्टिफिशियल बारिश के नए उद्यम में करीब 45 करोड़ रुपए के निवेश की तैयारी कर रहे रेड्डी ने बताया, 'इस साल बारिश बहुत कम हुई है और अगले सालों में भी ऐसा लगता है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बारिश पर प्रभाव पड़ेगा जिससे कृत्रिम तरीके से बारिश कराने वाली कंपनियों की मांग बढ़ेगी।' अमेरिका के चार निवेशकों ने रेड्डी को शुरुआती लागत का 50 फीसदी तक देने का वादा किया है। शेष हिस्से के लिए रेड्डी कर्ज लेने की संभावना देख रहे हैं।
विशाखापट्टनम के गीतम विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एनवायरमेंटल स्टडीज के प्रोफेसर टी शिवाजीराव ने भारत में कृत्रिम बारिश पर एक पुस्तक लिखी है और उनका कहना है कि अब हमारे नेताओं और अफसरशाहों को इस बारे में गंभीर होना चाहिए। शिवाजीराव का कहना है, 'इस साल भारत में कृत्रिम बारिश के लिए सिर्फ 30 से 35 करोड़ रुपए खर्च होने वाले हैं, जबकि चीन इससे कई गुना ज्यादा खर्च कर रहा है। हालांकि, मुझे अचरज नहीं होगा, यदि अगले साल भारत में इस पर करीब 100 करोड़ रुपए तक खर्च किए जाएं।'

बारिश कराने का फलता-फूलता कारोबार
इस बारे में भारत में सबसे पहले काम करने वाली कंपनी है, बंगलुरु की अग्नि एविएशन कंसल्टेंट्स। साल 1994 में एक फ्लाइट स्कूल खोलने के बाद कंपनी ने 2003 में पहली बार बादलों से बारिश करवाने का कारोबार शुरू किया और इसे लगातार सातवें साल आंध्र प्रदेश सरकार से इसके लिए ठेका मिला है। आंध्र प्रदेश सरकार इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर तक की कंपनियों से टेंडर मांगती है।

अग्नि एविएशन के सीईओ अरविंद शर्मा ने बताया, 'मैं एविएशन संबंधी उद्योगों को पसंद करता रहा हूं और विदेशों के अपने दौरे पर जो कुछ देखता हूं उसे भारत में लागू करने के बारे में गंभीरता से सोचता रहा हूं। ऐसे ही एक दौरे में मैने बादलों से बारिश करवाने का तरीका देखा और मुझे लगा कि हमारे देश में तो यह काफी उपयोगी हो सकता है। '

बुधवार, 19 अगस्त 2009

बुंदेली यातना गीत- मार्मिक गीत


दोस्तो,
हम सभी जानते हैं कि देश की गुलामी के दौरान अँगरेजों ने हमें किस तरह से प्रताडि़त किया। ये अत्याचारी आज भी हमारे आसपास ही हैं। पर उन्हें पहचानने के लिए हमारी दृष्टि ही खो गई है। मुझे इतिहास का वह मार्मिक पन्ना मिला, जिसमें बुंदेली के एक लोक कवि खान फकीरे ने किसी छद्म नाम से अँगरेजों के अत्याचार को लिपिबद्ध किया है। पढ़कर सचमुच रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इस अत्याचार से पीडि़त इंसान जब रोते थे, तब अँगरेजों के बच्चे हँसते थे। अत्याचार को कवि ने किस तरह से शब्दबद्ध किया है, यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंंकि उस समय स्थिति यह थी कि यदि अँगरेजों को इसका पता चल गया, तो वह उसे अपने तरीके से प्रताडि़त कर मरवा डालते थे। आप शब्दों की बानगी देखें:-
1. चूना मूडऩ पे बुझवा दये.....
हाथ पाँव में कीला ठोके
पाछे से संघवा दये।
तेरा दिना चार मइना लौ,
गौरन खून बहा दये।
जार दओ है विला बिलखुरा
लूटों जन भगवा दये।
अंग्रेजन खाँ बुला इनन ने,
बंटाधार करा दये।
खान फकीरे कां लौ कइये
ऐसे हाल करा दये


इसकी पहली पंक्ति को विस्तार से जानने का प्रयास करें। सर पर कपड़ा लपेट दिया जाता था, उसके भीतर चूना डाल दिया जाता था। फिर चूने पर पानी डाला जाता था। इससे इंसान के पहले तो बाल जल जाते थे, फिर चमड़ी, उसके बाद सर का मांस और फिर हड्डी। सोचो, कितना हृदय विदारक दृश्य होता होगा। इंसान तिल-तिलकर मरता होगा। कितनी पीड़ा होती होगी उसे?
2. डारे टुडिऩ बीच गुबरैला....
कठवा में संदवा के बादो, पेट बीच में पैला
चिचियाबो सुन हँसत रये अंगे्रजन के छैला,
फारो पेट घुसत गओ, भतर भरे रकत के घैला
ऐसे जुलम ढाये गोरन ने सुनत होये मन मैला
रामाधान जान सें जा ीाये, गोरन खां भओ खेला।।

गुबरैले कीड़े के माध्यम से किस तरह से इंसान को प्रताडि़त किया
जाता था। पहले आदमी की नाभी पर गोबर रखा जाता था, उस पर गुबरैला कीड़ा डाला जाता। इसके बाद उस पर गर्म पानी से भरा लोटा रखा जाता जाता। सभी जानते हैं कि गुबरैले कीड़े को ठंडी जगह पसंद है। इसलिए वह लोटे के गर्म पानी से दूर भागता है। उसे जगह नहीं मिलती, तो वह इंसान की नाभी को छेद कर पेट के अंदर चला जाता है। सोचो कितनी पीड़ा होती होगी?

देसी रियासतों में आम नागरिकों की छोटी-छोटी गलतियों पर जूतों से सरे आम पिटाई करवाई जाती थी। जूतोंं के नाम थे दिल बिगार और मनप्यारी। तत्कालीन छतरपुर रियासत से गीत प्राप्त हुआ, श्री अवधेश नारायण तिवारी के प्रयत्नों सेङङङङङ
1. चटके दिल बिगार, मनप्यारी
भौतऊ हैं हत्यारी
कर उघरारी पीछें इकझर
घल रई नौन बघारीं
ऐसों परे चटाकौ उनकी
सनुवै दुनिया सारी
खाल उधर कें रकत चुचाबै
सुद-बुद सबई बिसारी
चेत सीग इन पना, पनइयन
सें हारी संसारी

डॉ महेश परिमल

यह जानकारी मुझे आकाशवाणी भोपाल में कार्यरत सुरेंद्र तिवारी जी से प्राप्त हुई। अधिक जानकारी के लिए आप उनसे इन नम्बर पर बात कर सकते हैं ९४२५१३५९३५

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

स्वाइन फ्लू के खिलाफ जीती जंग!


स्वाइन फ्लू का नाम आते ही लोग भयग्रस्त हो जाते हैं। उनकी हालत खराब हो जाती है। लेकिन हमारे बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो पूरे धैर्य के साथ इसका मुकाबला करना जानते हैं। यहां के सिविल अस्पताल में एक मासूम स्वाइन फ्लू से पीडि़त होकर आई, इत्मीनान से इलाज करवाया और करीब एक सप्ताह बाद पूरी तरह से स्वस्थ होकर अपने घर चली गई।
यहां के एक पॉश इलाके में रहने वाले एक उच्चअधिकारी की बेटी अमेरिका से आई, वहां से आते ही उसमें स्वाइन फ्लू के लक्षण दिखाई देने लगे। इसके बाद उसके पालकों ने उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया। आज वह मासूम पूरी तरह से स्वस्थ है।
इस संबंध में उसके पिता ने कहा कि हमें जैसे ही पता चला कि बिटिया में स्वाइन फ्लू के लक्षण हैं, हमने बिना देर किए उसे अस्पताल में भर्ती कराया। वहां उसकी थ्ेराप्यूटिक इलाज शुरू किया गया, साथ ही अन्य दवाएं तेजी से असर दिखाएं, इसलिए उसे लगातार 5 दिनों तक टेमी फ्लू की दो गोलियां दी जाने लगी। इसके बाद उसके नाक और गले से निकलने वाले द्रव्य का नमूना लेकर उसे दिल्ली भेजा गया। 48 घंटे में उसकी पॉजीटिव रिपोर्ट आ गई। इसके बाद बच्ची को एक बार फिर टेमी फ्लू के डोज दिया जाने लगा। इस बीच घर के सदस्यों ने बाहर निकलना बंद कर दिया और रोग फैले नहीं, इसलिए मास्क पहनना शुरू कर दिया।
स्वाइन फ्लू से जंग जीतने के बाद बच्ची के पिता ने कहा कि तुरंत इलाज इस बीमारी से जीतने का पहला कदम है। पूरे धैर्य और सतर्कता से इस काम को संपादित किया जाना चाहिए। हड़बड़ी में कोई काम न करें, लोगों के लिए यही मेरा संदेश है।


तंद्रिक संन्निपात ज्वर अर्थात स्वाइन-फ्लू
- दोनों के लक्षण समान, रोकथाम संभव
- आयुर्वेद में प्रभावशाली उपचार
- सरकार से ओपीडी शुरू करने की अनुमति मांगी
अहमदाबाद के मणिबहन आयुर्वेद अस्पताल अक्षीधक एवं वैद्य टी एल स्वामी ने आयुर्वेद औषधियों से स्वाइन-फ्लू के प्रभावशाली उपचार का दावा किया है। इस दावे के साथ ही अधीक्षक ने स्वाइन-फ्लू रोगियों के उपचार हेतु सरकार से अनुमति मांगी है। इनका कहना है कि सरकार से अनुमति प्राप्त होने पर अस्पताल में ओपीडी शुरू की जाएगी।
स्वामी का कहना है कि स्वाइन-फ्लू और आयुर्वेद ग्रंथ में वर्णित तंद्रिक संन्निपात ज्वर दोनों के लक्षण समान हैं। हालांकि स्वाइन-फ्लू मिटाया नहीं जा सकता है लेकिन आयुवैदिक औद्याषियों में इसके कारक को मानव शरीर में फैलने से रोकने की शक्ति है।
रोकथाम इनसे :
स्वामी ने कहा कि स्वाइन-फ्लू से भयभीत होने की जरूरत नहीं है। वजह आयुर्वेद के गं्रथ 'भावप्रकाशÓ में गलसुआ व तंद्रिक संन्निपात ज्वर और स्वाइन-फ्लू दोनों के लक्षण समान हैं। तुलसी, अलसी, एरंडमूल, पिपली, हेमगर्भ पोट्टली रस, त्रिभुवन कीर्ति रस, महासुदर्शन घनवटी, एवं सितोपलादी चूर्ण रोग की पकड़ को कमजोर करने में सक्षम हैं। रोग से बचने हेतु लोगों को इनका प्रयोग करना चाहिए।
यह भी सहमत
स्वामी के दावे पर शहर के अन्य आयुर्वेदाचार्यों ने मुंहर लगाई है। आयुर्वेदाचार्या प्रवीणभाई हीरपरा ने बताया गला सूजना वाली बीमारी (गलसुंड) तथा स्वाइन-फ्लू लक्षणों के मद्देनजर समान लग रहे हैं। इन्हें रोकने में आयुवैदिक औषधियां कारगर हैं। साथ ही घरेलू उपचार भी प्रभावशाली हैं। मसलन तुलसी के 15 पत्ते, एक ग्राम सौंठ एवं पांच ग्राम गुढ़ का दृव्य मिश्रण तैयार कर कुल्ला करें। लाभ होगा।
आयुर्वेदाचार्य विपुल कानानी के अनुसार आंवला, जेठीशहद एवं अरडूसी (अलसी) जैसी बलदायक औषधियों का सेवन कर स्वाइन-फ्लू से सुरक्षित रहा जा सकता है। कारण यह रोगप्रतिरोधी शक्ति में वृध्दि करते हैं।

ठंडी जगह पर सक्रिय होते हैं स्वाइन फ्लू के वाइरस
स्वाइन फ्लू के डर से आजकल लोग मास्क लगाकर बाहर निकलने लगे हैं। इस तरह से लोग भले ही यह सोचते हों कि इससे हमने स्वाइन फ्लू को अपने से दूर कर लिया। वास्तव में देखा जाए, तो स्वाइन फ्लू ठंडी चीजें ग्रहण करने से होता है। आजकल डॉक्टर मरीजों को गर्म और ताजा भोजन लेने की सलाह इसीलिए दे रहे हैँ।
यदि सचमुच स्वाइन फ्लू से बचना है, तो ठंडी खुराक का त्याग करो। आइस्क्रीम, ठंडी बीयर, ठंडे पेय पदार्थ ही स्वाइन फ्लू के लिए जिम्मेदार हैं। स्वाइन फ्लू एच 1 और एन 1 के वाइरस ठंडे वातावरण में ही अधिक सक्रिय होते हैं। अभी भारत में इस वाइरस के फैलाव की गति अपेक्षाकृत काफी धीमी है। यह वाइरस ठंडे माहौल में विशेष रूप से सक्रिय होता है। यह सच है कि यह बीमारी सांस द्वारा फैलती है, पर इसका सीधा संबंध ठंडी चीजों को ग्रहण करने से है।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

जानलेवा हो सकती हैं नकली दवाएं

साथियो,
नकली दवाए लगातार हमारे स्‍वास्‍थ्‍य को नुकसान पहुंचा रहीं है, पर हम विवश है। आज तक हमारे देश में किसी भी नकली दवा के निर्माता को बहुत बड़ी सजा नहीं हुई है, इसी से पता चलता है कि सरकार दवा माफिया से किस तरह से खौफ खाती है। इनके लिए सरकार का रवैया हमेशा नरम रहा है। मौत तो गरीबों की होती है। आज तक नकली दवा से किसी अधिकारी या मंत्री की संतान की मौत नहीं हुई। आखिर ऐसा क्‍यों।
नकली दवाओं के इस्तेमाल से न सिर्फ कई तरह के साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं, बल्कि यह जानलेवा भी साबित हो सकती हैं, क्योंकि इस तरह की कुछ दवाओं में बीमारी से लड़ने वाले तत्वों की जगह पर खतरनाक पाउडर डले होते हैं तो कुछ दवाएं एक्सपायर्ड होती हैं।
- पुष्पांजलि क्रॉसले हॉस्पिटल के अध्यक्ष डॉ. विनय अग्रवाल कहते हैं कि सबसे पहले तो इन दवाओं से मरीज को कोई फायदा नहीं होता है, क्योंकि इनमें वे चीजें ही नहीं होतीं, जो बीमारी का इलाज करें। ऐसे में इमर्जन्सी में दवा देने के बावजूद मरीज की मौत हो सकती है।
- दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि सही तत्वों की जगह पर इन दवाओं में दूसरे मेटल या मिट्टी जैसे तत्व मिलाए जाते हैं, जिनका स्किन, पेट, किडनी, लीवर आदि पर गलत रिएक्शन होता है। कई बार एनाफायलेक्सिस (अचानक गंभीर रिएक्शन) से मरीज की मौत भी हो सकती है।
- इंडियन मेडिकल असोसिएशन (आईएमए) के प्रवक्ता डॉ. नरेंद्र सैनी कहते हैं कि कई नकली दवाओं में जरूरी तत्व सही मात्रा में नहीं होते हैं, खासतौर से एंटीबायटिक्स में। ऐसे में फायदा तो पूरा होता नहीं है, आगे चलकर शरीर में इनका रेजिस्टेंस भी डिवेलप हो जाता है, जिससे दवा असर नहीं करती।
- नकली दवाओं के सौदागर कई बार एक्पायर्ड दवाएं बेचते हैं, जिनमें से कुछ का असर खत्म हो चुका होता है तो कुछ में टॉक्सिक सब्स्टेंस डिवेलप हो चुका होता है। इसकी वजह से मरीज की मौत भी हो सकती है। इनकी वजह से इलाज के बावजूद मरीज ठीक नहीं होते और डॉक्टर की काबिलियत पर उंगली उठाई जाती है।
- आईएमए का कहना है कि समस्या की मुख्य वजह ड्रग कंट्रोल डिपार्टमंट का ऐक्टिव न होना है। अगर समय-समय पर छापे मार कर दवाओं की जांच की जाती और नकली कारोबार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होती तो ऐसा नहीं हो पाता।
बाजारों से जल्द हटेगी मर्ज बनी मलेरिया की दवा
सरकार ने देश भर से मलेरिया की दवाई आरटेमाइसीनिन हटाने का फैसला किया है, जिस पर दुनिया भर में पहली ही पाबंदी
लगाई जा चुकी है। कई ब्रांड के तहत देश में बेची जाने वाली यह दवा अगर सिंगल ड्रग के तौर पर इस्तेमाल होती है, तो यह मलेरिया के जीवाणुओं को प्रतिरोधी बना देती है। यह कदम विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की बाजार से इस दवा की मोनो-थेरेपी वापस लेने की सिफारिश जारी करने के दो साल बाद उठाया गया है, जबकि इसे दूसरी प्रभावशाली मलेरिया विरोधी दवाओं के साथ संयोजन के तौर पर उपयोग में लाया जा सकता है।

देश की शीर्ष दवा नियामक संस्था ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने हाल में सभी प्रदेश दवा नियामकों को जुलाई 2009 तक आरटेमाइसीनिन की सभी ओरल सिंगल ड्रग फॉर्मूलेशन और उसके डेरिवेटिव को हटाने के निर्देश दिए थे।
डीसीजीआई डॉ. सुरिंदर सिंह ने कहा, 'इस दवा को अब नया ड्रग नहीं माना जाता, इसलिए कंपनियां प्रदेश दवा नियामकों से दवा बनाने और बेचने के लिए लाइसेंस हासिल कर लेती हैं। इसलिए हमने सभी प्रदेश दवा नियामकों को निर्देश जारी किए हैं कि इस दवा के लिए नए लाइसेंस जारी न किए जाएं। साथ ही पहले बांटे गए लाइसेंस भी वापस ले लिए जाएं।'

डब्ल्यूएचओ ने जोर दिया था कि आरटेमाइसीनिन को किसी दूसरी मलेरिया रोधी दवा के साथ मिलाकर दिया जाना चाहिए, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता और इसे मोनोथेरेपी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो यह दवा जल्द ही मलेरिया के जीवाणुओं में प्रतिरोधी क्षमता पैदा कर देती है। मलेरिया रोधी दवा आरटेमाइसीनिन और उसके डेरिवेटिव आरटेसुनेट तथा आरटेमेथर को पहले देश में इंजेक्टेबल और टेबलेट, दोनों तरह से उत्पादन और बिक्री की इजाजत दी गई थी।
आईपीसीए लैबोरेट्रीज, जायडस कैडिला, पिरामल हेल्थकेयर और इंडस्विफ्ट जैसी फार्मास्युटिकल कंपनियों ने लारिथेर, पालुथेर, मालीथेर और मालथेर जैसे अपने लोकप्रिय ब्रांड के तहत आरटेमाइसीनिन दवा बेचती आई हैं। हालांकि, इनमें से ज्यादातर कंपनियों का दावा है कि उन्होंने डब्ल्यूएचओ की सिफारिश के बाद पहले ही एकल इंग्रीडिएंट के तौर पर यह दवा बनानी बंद कर दी गई है। केमिस्ट और फार्मासिस्ट के मुताबिक इनमें से ज्यादातर कंपनियों ने दूसरी मलेरिया रोधी दवा के साथ आरटेमाइसीनिन लॉन्च की थी, जबकि इनमें से कुछ ब्रांड अब भी बाजार में बने हुए हैं।
मेडिकल विशेषज्ञ सी एम गुलाटी ने कहा, 'जब तक आधिकारिक पाबंदी की घोषणा नहीं की जाती और रेगुलेटर मार्केटिंग लाइसेंस जारी करना नहीं रोकते, तब तक कंपनियां दवाएं बेच सकती हैं। एकल इंग्रीडिएंट के तौर पर इस दवा को इस्तेमाल करने से मरीजों को गंभीर नुकसान हो सकता है। भारतीय दवा नियामक को इस दवा पर काफी पहले पाबंदी लगा देनी चाहिए थी।'
मलेरिया सदियों से भारत की समस्या रही है। साठ के दशक में यह बीमारी लगभग पूरी तरह खत्म हो गई थी, लेकिन मेडिकल जानकारों का कहना है कि यह दोबारा सिर उठा रही है। भारत ने 1977 से 1997 के बीच स्वास्थ्य बजट का 25 फीसदी हिस्सा मलेरिया पर खर्च किया था और 1997 से देश ने मलेरिया की रोकथाम के लिए 4 करोड़ डॉलर खर्च करने की योजना बनाई है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कैसी आजादी, काहे की आजादी?


डॉ. महेश परिमल
आंजादी.... आंजादी.... और आंजादी, पिछले साठ वर्षों से यह सुनते आ रहे हैं, पर आज भी हम यदि इस आंजादी को ढूँढ़ने निकल जाएँ, तो वह कुछ हाथों में छटपटाती नजर आएगी। आंजादी कैद हो गई है, कुछ मजबूत हाथों में, वे हाथ जो खून से रँगे हैं, वे हाथ जो कानून को अपने हाथ में लेते हैं, वे हाथ जो पाँच वर्ष में आम लोगों के सामने एक बार जुड़ते हैं,। इन हाथों में छटपटाती आंजादी की सिसकियाँ किसने सुनी?सन् 1857 के पहले भी आंजादी का शंखनाद हुआ था। उसमें था आंजादी पाने का जोश, भारत माँ को जंजीरों की जकड़न से दूर करने का उत्साह। बच्चा-बच्चा एक ंजुनून की गिरफ्त में था। सभी चाहते थे – आंजादी। वह आंजादी केवल विचारों की नहीं, बल्कि इंसान को इंसान से जोड़ने वाली आंजादी की कल्पना थी, जिसमें बिना भेदभाव, वैमनस्यता के एक-दूसरे के दिलों में बेखौफ रहने की कल्पना थी।अनवरत् संघर्षो, लाखों कुर्बानियों एवं असंख्य अनाम लोगों के सहयोग से हमें रक्तरंजित आंजादी मिली, भीतर कहीं फाँस अटक गई, विभाजन की। एक सपना टूट गया- साथ रहने का। वह सपना कालांतर में एक ऐसा नासूर बन गया, जो रिस रहा है। असह्य वेदना को साकार करता शरीर का वही भाग आज आक्रामक हो चला है।हमें आंजादी मिली तो सही, पर हम उसे संभाल नहीं पाए, आंजादी मिलने की खुशी में हम भूल गए कि यह धरोहर है, हमारे पूर्वजों के पराक्रम की, इसे संभालकर रखना हमारा कर्त्तव्य है। इसे सहेज कर रखने से ही प्रजातंत्र जिंदा रह पाएगा। आज प्रजातंत्र जिंदा तो है, पर उसकी हालत मरे से भी गई बीती है। हमें चाहिए था, एक ऐसा प्रजातंत्र जो साँस लेता हुआ हो, जिसकी धमनियों में शहीदों का खून दौड़ता हो, पर हमने अपने हाथों से अपनी आंजादी खो दी। वह भी आंजादी मिलने के तुरंत बाद ही।इस आंजादी को पाने के लिए कई अनाम शहीदों ने भगीरथ प्रयास किए। आज बदलते जीवन मूल्यों के साथ वही आंजादी की गंगा कुछ लोगों की सात पीढ़ियों को तारने का काम कर रही है। पीढ़ियों को उपकृत करने वाली आंजादी की कल्पना तो हमने नहीं की थी। पूरे 60 बरसों से आंजादी का भोंपू हम सुन रहे हैं, पर इन वर्षो में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर । हाँ विकास के नाम पर देश इतना आगे बढ़ गया है कि हर हाथ को काम मिलने लगा है। हर गाँव रोशनी से जगमगा रहा है, प्रत्येक गाँव में सड़कें हैं, कोई भी बेरोजगार नहीं है, एक-एक बच्चा शिक्षित हो रहा है, यह सब हो रहा है, सिर्फ ऑंकडाें के रूप में, मोटी-मोटी फाइलों में।सच्चाई के धरातल पर देखें तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे उपलव्धि कहा जाए। रिक्शा चालक सुखरू या समारू के बेटे भी या तो रिक्शा चला रहे हैं या मंजदूरी कर रहे हैं। अलबत्ता उस वक्त एक ट्रक का मालिक आज कई ट्रकों के मालिक बनकर करोड़ों से खेल रहा है। महज एक रोटी का जीवंत प्रश्न सुलझाया नहीं जा सका है, पिछले 62 वर्षों में। रोटी की बात छोड़ भी दें, तो आज हम साफ पानी के भी मोहताज हैं।सामाजिक परिवेश में जीवनमूल्य बदल रहे हैं। भ्रष्टाचार शिष्टाचार का पर्याय बन गया है। बलात्कारी सम्मानित हो रहे हैं। घूसखोरों की हवेलियाँ बन रही है। बहुओं को जला कर वर्ष भर होली मनाने वाले नारी उत्पीड़न विरोधी समिति या नारी उत्थान संघ के संचालक बने बैठे हैं। कानून को हाथ में लेने वाले अपराधी सफेदपोशों के अनुचर हैं। इन सबके अलावा कलमकार के हाथों को खरीदने की भी प्रक्रिया शुरू हो गई है, इसलिए सच हमेशा झूठ का नकाब लगाकर सामने आ रहा है।आंजादी अब खेतों-खलिहानों में नहीं बल्कि कांक्रीट के जंगलों में सफेदपोशों के हाथों में या फिर ए। के। 56 या ए. के. 47 वाले हाथों में पहुँच गई है। आंजादी को इस कैद से हमें ही छुड़ाना है। इसके लिए हमेें आंजादी की सही पीड़ा को समझना पड़ेगा। त्रासदी भोगती इस आंजादी को खेतों, खलिहानों, खेल के मैदानों, शालाओं, महाविद्यालयों में पहुँचाने का संकल्प लेना होगा, ताकि सही हाथों में पहँचकर आंजादी ‘हाथों के दिन’ की उक्ति को चरितार्थ कर सके। ताकि हम सगर्व कह सकें, आ गए हाथों के दिन.... .... ।
डॉ. महेश परिमल

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