शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

प्रगतिवादी बन रहा है मुस्लिम समाज

डॉ. महेश परिमल
मुस्लिम वर्ग से जुड़ी तीन घटनाएँ मेरी आँखों के सामने से गुज़रीं। तीनों ही घटनाएँ उस दकियानूसी और कट्टर समझे जाने वाले समाज की प्रगतिशीलता की ओर इशारा करती हैं। यह सच है कि इस समाज को आज कई देशों में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। सच यह है कि मात्र कुछ लोगों के कारण पूरा समाज ही बदनाम हो रहा है। इनमें में एक नहीं अनेक लोग हैं, जिन्हें भारतीय प्रजातंत्र पर पूरा विश्वास है। वे यहाँ रहकर यहीं के कानून को मानते हैं। यहाँ की परंपराओं ओर रीति-रिवाजों में घुलमिल गए हैं। कई जगहों पर तो इन्हें केवल नाम जानने के बाद ही पहचान होती है कि ये मुस्लिम हैं। बाकी रहन-सहन, खान-पान और संस्कृति को पूरी तरह से अपने में ढाल लेने वाले ये लोग कितने प्रगतिशील हे, यह जानने की जरूरत है।
पहली घटना: हैदराबाद की यह घटना है। एक युवत कहीं जा रही थी। उसके पीछे एक मनचला लग गया। वह फिकरे कसता, मजाक उड़ाता उसे लगातार छेड़ रहा था। एक सहज शर्म हया के बीच वह युवती भी उसे अनदेखा कर रही थी। यह उसकी एक की समस्या नहीं थी। आए दिनों उस रास्ते पर मनचले उन्हें अक्सर छेड़ते ही रहते। युवती आगे बढ़ती जा रही थी। युवक का हौसला बढ़ रहा था। बात काफी आगे पहुँच गई, युवती की खामोशी देखकर युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। बस यही हो गई गलती। उस युवती ने उस युवक को पकड़ा और इतने घूंसे मारे की, वह अधमरा हो गया। उसकी हालत ही खराब हो गई। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि छेड़छाड़ का यह सिला मिलेगा। वह कराह रहा था। युवती खामोश थी। जब वहाँ से गुजरने वाले लोगों ने घायल युवक को देखा और पास खड़ी युवती को देखा, तो दंग रह गए। वह युवती उस जिले की मुक्केबाज चैम्पियन थी। संयोग से उक्त युवती मुस्लिम थी।
दूसरी घटना: हाल ही में एक पुस्तक के लोकार्पण अवसर पर छ: सगी मुस्लिम बहनों ने वंदेमातरम्, सरफरोशी की तमन्ना जैसे राष्ट्रभक्ति गीतों का शमां बाँध दिया। कानपुर की इन छ: सगी मुस्लिम बहनों ने वन्देमातरम् एवं तमाम राष्ट्रभक्ति गीतों द्वारा क्रान्ति की इस ज्वाला को सदैव प्रज्जवलित किये रहने की शपथ ली है। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, बन्धुत्व एवं सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव से ओत-प्रोत ये लड़कियाँ तमाम कार्यक्रमों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती हैं। वह 1857 की 150 वीं वर्षगांठ पर नानाराव पार्क में शहीदों की याद में दीप प्रज्जवलित कर वंदेमातरम् का उउ्घोष हो, गणेश शंकर विद्यार्थी व अब्दुल हमीद खान की जयंती हो, वीरांगना लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस हो, माधवराव सिंधिया मेमोरियल अवार्ड समारोह हो या राष्ट्रीय एकता से जुड़ा अन्य कोई अनुष्ठान हो,ये बहनें वहाँ मुक्त मन से गीत गाती हैं और देशभक्ति की अलख जगाती हैं। इनके नाम नाज मदनी, मुमताज अनवरी, फिरोज अनवरी, अफरोज अनवरी, मैहरोज अनवरी व शैहरोज अनवरी हैं। इनमें से तीन बहनें-नाज मदनी, मुमताज अनवरी व फिरोज अनवरी वकालत पेशे से जुड़ी हैं। एडवोकेट पिता गजनफरी अली सैफी की ये बेटियाँ अपने इस कार्य को खुदा की इबादत के रूप में ही देखती हैं। पहली बार इन्होंने 17 सितम्बर 2006 को कानपुर बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित हिन्दी सप्ताह समारोह में वंदेमातरम का उद्घोष किया। उसके बाद इन बहनों ने 24 दिसम्बर 2006 को मानस संगम के समारोह में पं0 बद्री नारायण तिवारी की प्रेरणा से भव्य रूप में वंदेमातरम गायन प्रस्तुत कर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। तिरंगे कपड़ों में लिपटी ये बहनें जब ओज के साथ एक स्वर में राष्ट्रभक्ति गीतों की स्वर लहरियाँ बिखेरती हैं, तो लोग सम्मान में स्वत: अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं।
तीसरी घटना : दाऊद खाँ, जो एक सेवानिवृत्त शिक्षक हैं और छत्‍तीसगढ़ के धमतरी में रहते हैं। शिक्षकीय कार्य के अलावा उन्होंने पूरा जीवन गाँव-गाँव जाकर रामायण पाठ में अपना जीवन गुजार दिया। समाज के विरोध के बाद भी उन्होंने रामायण पाठ नहीं छोड़ा। काफी मुश्किलें झेलने के बाद भी वे अपने काम में डटे रहे। दाऊद खाँ विचारों से प्रगतिशील हैं। वे कहते हैं कि रामायण के लिए जमात से अलग होना मुझे मंजूर है। उनका मानना है कि अगर जमात निंदा नहीं करती तो मैं आज इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाता। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपके समाज ने रामायण पाठ के लिए आप पर पाबंदी नहीं लगाई? इस पर उन्होंने कहा कि समाज के लोगों ने तो बहुत विरोध किया, पर मैंने रामायण पाठ नहीं छोड़ा। साथ ही उन्होंने यहां तक कहा कि रामायण छोड़ो, नहीं तो जमात से बरतरब (बर्खास्त) कर दिए जाओगे, तो उन्होंने कहा कि मैं जमात में हूं कहाँ? जो मुझे बरतरब करोगे। फिर भी मैंने समाज वालों से कहा कि रामायण को हम छोडऩा तो चाहते हैं, मगर रामायण हमको नहीं छोड़ती। इस पर उन्होंने बच्चों की शादियों के लिए सामाजिक दिक्कतें आने की भी बात बताई, लेकिन मैं इन बातों से घबराया नहीं। मैं तो यह मानता हूं जो पैदा करता है, वह लड़के-लड़कियों का इंतजाम भी करता है और इसी बात को समाज को महसूस कराना चाहता था और मैंने अपनी दो बेटियों और एक बेटे की शादी करके दिखा दिया। हालांकि मेरे बच्चों की शादियों में समाज के 25 प्रतिशत लोग ही शामिल हुए थे। मैं इससे भी संतुष्ट था। मैंने अपने बच्चों की शादी के दौरान उनके ससुराल वालों से यह भी कह दिया था कि मैं खाना नहीं खिला सकता, भोजन कराऊँगा और मेरे बच्चों के ससुराल वालों ने इस बात को स्वीकार किया और बच्चों की शादी भी हो गई। मेरी दो बेटियां और एक बेटा है जिसमें से एक बेटी के. खान रायपुर में अपर कलेक्टर है, तो दूसरी बेटी बगरू निशा सागर में एसडीएम है। लड़का अयूब खां को इंसपेक्टर की नौकरी मिली थी और उसकी पदस्थापना भी धमतरी में ही हुई थी। लेकिन उसने यह नौकरी छोड़ दी, अब वह एक दुकान का संचालन कर रहा है। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपकी पत्नी ने भी कभी इसका विरोध नहीं किया? इस पर उन्होंने कहा कि न तो मेरी पत्नी को कभी कोई आपत्ति थी और न ही शादी से पहले मेरे ससुर को। शादी के पूर्व मेरे ससुर को इन सब बातों की जानकारी थी। इसके बाद भी उन्होंने अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में दिया।
जब उनसे पूछा गया कि आप नमाज अदा करते हैं या नहीं? इस पर उन्होंने कहा कि मौलाना साहब ने भी यही बात मुझसे कही थी कि कम से कम नमाज तो पढ़ लिया करो। तब मैंने उनसे कहा कि नमाज होती है, पढ़ी नहीं जाती। मैं तो साल में सिर्फ दो बार नमाज अदा करता हूँ, पहली ईद में और दूसरी बकरीद में। परिवार के बच्चों ने कभी आपके इस कार्य का विरोध नहीं किया? तब उन्होंने कहा कि जब मेरी पत्नी विरोध नहीं कर पाई तो मेरे बच्चे कैसे विरोध करते? मैं अपना धर्म निभाता हूं बच्चे अपना धर्म निभाते हैं। रामायण की जिज्ञासा आपमें कैसे जागी? इस पर 1983 में शिक्षकीय कार्य से सेवानिवृत्त हुए दाऊद खां ने कहा कि मेरे गुरु शालिग्राम द्विवेदी और पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की प्रेरणा से मेरी जिज्ञासा रामायण में जागी। उन्होंने कहा कि जब मैं एम.ए हिंदी के प्रथम वर्ष में था, तब मेरे गुरु ने मुझे रामायण की एक गुटका दी और कहा कि इसे रात में पढऩा। अगर समझ में आए तो ठीक वरना वापस कर देना। मैंने पुस्तक का जैसे ही पृष्ठ खोला उसमें सबसे पहला शब्द शंभु, प्रसाद, सुमति, हीय, हुलसी इन पांचों शब्दों को पढ़ा। इन पाँचों शब्दों में शंभु का अर्थ शंकर, प्रसाद का अर्थ प्रसाद, सुमति का अर्थ अच्छी बुद्धि या सलाह ये तो समझ में आ गया लेकिन हीय और हुलसी ये शब्द का अर्थ समझ नहीं आया और मैंने पुस्तक बंद कर रख दी। लेकिन रात भर मुझे नींद नहीं आई। मैं अपनी कल्पना में खोया रहा और सोचता रहा कि मुझे शिक्षक बनना है और मैं दो शब्दों का अर्थ नहीं खोज पा रहा हूँ, तो फिर शिक्षक बनकर बच्चों को क्या पढ़ाऊँगा। यह सोचकर मैं रात भर जागता रहा और फिर जब मैंने पुस्तक वापस की तो मैंने अपने गुरुजी से कहा कि मुझे सब कुछ तो समझ में आ गया, लेकिन दो शब्दों का अर्थ नहीं समझ पाया। गुरुजी ने 'लेकिनÓ शब्द को पकड़ लिया और कहा जिसके मन में 'लेकिनÓ की जिज्ञासा हो, वह सब कुछ कर सकता है और वह जिज्ञासा तुममें नजर आ रही है। गुरुजी ने हीय और हुलसी की परिभाषा बताते हुए कहा हीय यानी हृदय और हुलसी का अर्थ आनंद से है। इसके बाद गुरुजी ने रामायण की तीन परीक्षाएं दिलवाई प्रथमा, मध्यमा और उत्तम। जिसमें मुझे इलाहाबाद से रामायण रत्न की डिग्री भी मिली।
उक्त घटनाएँ ये बताती हैं कि मजहब के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले दूसरे लोग हैं, जो भटके हुए हैं। यह समाज भी इन्हें हिकारत की नजरों से देखता है। कुछ मुट्ठीभर लोग ही ऐसे हैं, जिनकी बदौलत ये अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त कर इस समाज के लोग आज देश में बड़े पदों पर विराजमान हैं। विचारों से ये हमसे भी कहीं अतिआधुनिक हैं। पर इसका कुछ बोलना ही हमारे लिए असह्य हो जाता है। अब उन मुस्लिम बहनों पर जब दारुउलम ने फतवा दे दिया। तब कई ऐसे मुस्लिम सामने आए, जिन्होंने इस फतवे का विरोध किया। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने तो ऐसे फतवों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यहाँ तक कह दिया कि वन्देमातरम् गीत गाने से अगर इस्लाम खतरे में पड़ सकता है, तो इसका मतलब हुआ कि इस्लाम बहुत कमजोर मजहब है। प्रसिद्ध शायर अंसार कंबरी ने कहा कि मस्जिद में पुजारी हो और मंदिर में नमाजी हो। यह किस तरह फेरबदल है। ए.आर. रहमान तक ने वन्देमातरम् गीत गाकर देश की शान में इजाफा किया है। ऐसे में स्वयं मुस्लिम बुद्धिजीवी ही ऐसे फतवे की व्यावहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता ए.जेड. कलीम जायसी कहते हंै कि इस्लाम में सिर्फ अल्लाह की इबादत का हुक्म है, मगर यह भी कहा गया है कि माँ के पैरों के नीचे जन्नत होती है। चूंकि कुरान में मातृभूमि को माँ के तुल्य कहा गया है, इसलिए हम उसकी महानता को नकार नहीं सकते और न ही उसके प्रति मोहब्बत में कमी कर सकते हैं। भारत हमारा मादरेवतन है, इसलिए हर मुसलमान को इसका पूरा सम्मान करना चाहिए।
इस तरह के विचार ही यह बताते हैं कि जो मुस्लिम देश की बेहतरी के लिए सोच रहे हैं, वे देश के दुश्मन कदापि नहीं हैं। वे हमारे मित्र हैं। हमें उनसे ठीक वैसा ही व्यवहार करना है, जैसा पहले करते थे। वे हमसे अलग नहीं, बल्कि हमने ही उन्हें अलग कर दिया है। मनचले को घूँसा मारकर, मुस्लिम होकर भी रामायण पाठ कर और वंदे मातरम् गाकर ये मुस्लिम परिवार आखिर अपनी प्रगतिशीलता ही बता रहा है। हमें इनका सहयोग करना चाहिए, तभी हमें इनका सहयोग मिलेगा।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 23 सितंबर 2009

सिस्टम’ बन चुका है भारत में भ्रष्टाचार


फिल्म धूप में जब एक शहीद फौजी अफसर का पिता ओमपुरी अपने स्व. बेटे के नाम पर आवंटित पेट्रोल पंप की जमीन लेने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटता है तो एक भ्रष्ट अधिकारी उससे कहता है कि वो तो चीज क्या है। अगर आज गांधी जी भी वापस आ जाते तो बिना रिश्वत दिए अपना साबरमती आश्रम भी वापस नहीं ले पाते।
आजादी के इन बासठ सालों में हमने कितना विकास किया है, विश्व में हमारी साख कितनी बनी है, प्रति व्यक्ति आय में कितना इजाफा हुआ है, शिक्षा का कितना विकास हुआ है? इन विषयों पर मतभेद हो सकते हैं, लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था के तीनों अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, जिन पर संविधान ने देश चलाने की जिममेदारी डाली है, भ्रष्टाचार की दल-दल में धंस चुके हैं, इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती। यह भ्रष्टाचार अब हमारे देश का सिस्टम बन चुका है। आज भारत का हर सामान्य बुजुर्ग नई पीढ़ी को यही सलाह देता नजर आ रहा है कि इसी सिस्टम में रहने में समझदारी है। अगर उससे उलझेगा तो परेशानी में पड़ जायेगा या टूट कर बिखर जायेगा। कई फिल्मों में नायक को इस सिस्टम से लड़ कर विजयी होता दिखाया गया है लेकिन उस लड़ाई में उसे जो मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं और जो कुर्बानियां देनी पड़ती हैं क्या आम आदमी वैसा कर सकता है? ये फिल्में नायक के जुझारूपन से कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार के सिस्टम की भयावहता का प्रदर्शन करके उसका खौफ फैलाने का काम करती हैं। कई विज्ञापनों में दिखाया जाता है कि अगर आप रिश्वत नहीं देंगे तो कोई ले कैसे लेगा लेकिन वे इस वास्तविकता को भूल जाते हैं कि क्या कोई अपनी मर्जी से रिश्वत देता है? नहीं, यह सिस्टम उसे रिश्वत देने पर मजबूर कर देता है।
जब भी कोई नई सरकार बनती है, उसका प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री किसानों, आदिवासियों, पिछड़ों, गरीबों और बेरोजगारों की मदद के लिए ऐसी-ऐसी योजनाओं की घोषणा कर देता है जिसे देख कर लगने लगता है कि इस सरकार के पांच साल पूरा होने से पहले ही इनकी समस्याओं का निदान हो जायेगा लेकिन सौ दिन पूरे होते-होते वह यह भी मान लेता है कि उसकी सारी योजनायें भ्रष्टाचार के इस सिस्टम की भेंट चढ़ गई हैं। उसके बाद इसे आम जनता की किस्मत मान कर वो सब कुछ सिस्टम के सहारे छोड़ कर अपना कार्यकाल पूरा करने में लग जाता है क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि इसी सिस्टम की नाव पर चढ़ कर वह यहां तक पहुंचा है और अगली बार भी यही सिस्टम उसे यहां वापस ला सकता है।
अभिनेताओं से बड़े कलाकार हमारे नेता आये दिन जनता की परेशानियों का कारण भ्रष्टाचार बता कर घड़ियाली आंसू बहाते दिखाई देते हैं जबकि यह सम्पूर्ण सिस्टम उन्हीं की देन है। वे ही इसके सृजक, पालक और पोषक हैं। अब राजनीति एक धंधा बन गया है और नेता धंधेबाज। उनका एक ही सिद्धांत रह गया है कि चुनाव में 10 करोड़ लगाओ और कुर्सी पर बैठ कर 100 करोड़ कमाओ। पूरे देश में ऐसे दलाल पैदा हो गए हैं जो पैसा लेकर इन नेताओं के लिए चुनाव में जनता को ठगने के नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। इनमें मीडिया और धर्म के धंधेबाज भी शामिल हैं।

फिल्में, नाटक और पुस्तकें समकालीन समाज का दर्पण कहलाती हैं। एक फिल्म में जब एक शहीद फौजी अफसर का पिता अपने स्व. बेटे के नाम पर आबंटित पैट्रोल पंप की जमीन लेने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटता है तो एक भ्रष्ट अधिकारी उससे कहता है कि वो तो चीज क्या है। अगर आज गांधी जी भी वापस आ जाते तो बिना रिश्वत दिए अपना साबरमती आश्रम भी वापस नहीं ले पाते। उसी तारतम्य में फौज का ही एक बड़ा अफसर उसे सलाह देता है कि भलाई इसी में है कि सिस्टम के अनुसार ही काम करो, यानी ले दे कर ही काम चलाओ। ये केवल एक फिल्म के डायलाग नहीं हैं बल्कि हमारे देश में चल रही भ्रष्ट व्यवस्था को दर्शाने वाला ऐसा आईना है जिसे हम सब जानते भी हैं और मानने को मजबूर भी हैं।
एक पुरानी कहावत है कि जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो उसे कौन बचा सकता है। कुछ ऐसा ही हाल अब हमारे देश का हो रहा है। आजादी के बाद बने हमारे संविधान के निर्माताओं को संभवत: इस बात का पहले से ही संदेह था कि अंग्रेजों के द्वारा प्रशिक्षित और पोषित नौकरशाही और आने वाले जन प्रतिनिधि सत्ता का स्वाद चखने के बाद बेईमान हो सकते हैं और इस देश की व्यवस्था भ्रष्टाचार के दरिया में डूब सकती है, अत: इन पर नियंत्रण रखने के अधिकार न्यायपालिका को दे दिये लेकिन वे यह भूल गए कि काजल की कोठरी में कोई साफ रह कैसे सकता है और वही हुआ। दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार के इस फैलते दावानल से न्यायपालिका भी अपना दामन नहीं बचा सकी।
जजों की नियुक्ति और पदोन्नतियों को लेकर सरकार चलाने वालों ने ऐसा मकड़जाल फैलाया कि जज भी उसमें फंसते गए। न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है कहने पर भले ही दंड मिल सकता हो लेकिन इसे अब नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि परोक्ष रूप से ही सही, स्वयं जुडीशरी ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि कहीं न कहीं दाल में काला है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। जजों द्वारा अपनी सम्पत्ति को सार्वजनिक करने से इंकार करना। यह चोर की दाढ़ी में तिनका होने वाली बात है। अगर उन्होंने, रिश्वत बेईमानी और भ्रष्टाचार के माध्यम से पैसा नहीं कमाया है तो उसे उजागर करने में एतराज क्यों? सचाई तो यह है कि कुछ गिनती के चालाक लोगों ने पूरे देश में ऐसा सिस्टम बना दिया है कि आम आदमी अपने और अपने परिवार के जीवन यापन के लिए ही इस तरह के भंवर में फंस गया है कि उसके पास न तो इस सिस्टम से उलझने का वक्त है और न ही ताकत। आम आदमी की इस मजबूरी का पूरा फायदा इस सिस्टम के संरक्षक उठा रहे हैं। हालांकि इस समस्या को लेकर चर्चा तो आम है लेकिन इसका निदान अभी तक कोई नहीं निकाल पाया है।
(महामेधा से साभार)

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

सपना सुनसान संसार का.....


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों सभी शहरों का ध्वनि प्रदूषण बुरी तरह से बढ़ गया है। शोर....शोर.......और केवल शोर। न जाने लोग शोर में आखिर क्या ढँूढ़ते हैं? ऐसा क्या है शोर में, जो हमें प्रसन्नता देता है? हर कोई अधिक से अधिक शोर करने के लिए उतावला है। उसने दुर्गा पूजा में दस स्पीकर लगाएँ हैं, तो हम क्यों पीछे रहें, हम तो बीस लगाएँगे। ये कैसी स्पर्धा है, जिससे लोगों का चैन ही छिन गया है। दुर्गा जी की प्रतिमा की स्थापना कर दी, बस हो गया काम। स्पीकरों से निकलने वाली ध्वनि हमें किस तरह से नुूकसान पहुँचा रही है, जानने की कोशिश की है कभी किसी ने? सौ-सौ मीटर की दूरी पर एक प्रतिमा। वहाँ तक पहुँचने का रास्ता ऊबड़-खाबड़, पर इससे क्या, जिसे आना है, वह तो आएगा ही। रास्ता बनाने की जिम्मेदारी हमारी तो है ही नहीं। हमें तो केवल शोर करना आता है। हम तो शोर करेंगे, कर लो जो करना है। इतने स्पीकर के लिए बिजली भी हमने सीधे खंभे से ले ली है, आप क्या कर लेंगे। विद्युत विभाग के अधिकारी दुर्गा जी के भक्त हैं, वे कुछ नहीं करेंगे।
मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब हम कव्वाल भक्ति गीत गाने लगते हैं। इस गीत में भक्ति कहीं नहीं होती, होती है तो केवल चीख और चिल्लाहट। कैसे सुन लेते हैं, हम इन भक्ति गीतों को। बच्चों की परीक्षाएँ हैं, घर में बीमार माँ हैं, दादा भी इस शोरगुल से परेशान हैं। पिताजी को शोर से एलर्जी है। थोड़ा सा भी शोर उन्हें विचलित कर देता है। अभी कुछ दिनों पहले ही वे एक थेरेपी लेने जा रहे थे। थेरेपी से उन्हें लाभ भी हो रहा था। पर मुश्किल भी काफी थी। थेरेपी से लाभांवित लोग रोज वहाँ माइक पर अपने अनुभव सुनाते थे, जो पिताजी को पसंद नहीं था। एक सप्ताह में उन्हें अपनी पीड़ा से आराम तो लग रहा था, पर शोर के कारण सरदर्द बढ़ गया। उन्होंने वहाँ जाना ही छोड़ दिया। पिताजी कह रहे थे कि यदि कुछ दिन और गया होता, तो निश्चित रूप से मैं पागल हो गया होता।
क्या शोर करने वालों को मालूम नहीं है कि उनके द्वारा उत्पन्न शोर किसी को हानि भी पहुँचा रहा है। ऐसे में भक्ति नहीं जागती, इन शोर करने वालों की पिटाई करने की इच्छा होती है। पुलिस कुछ नहीं कर सकती। मामला धार्मिक है। सरकार कुछ नहीं कर सकती, मामला वोट का है। तो फिर कौन करेंगा? मोहल्ले के वरिष्ठ लोग भी उक्त दुर्गोत्सव समिति में हैं। पार्षद तो स्वयं चंदा माँगने आए थे। वे भला क्या कर सकते हैं। आप को शोर पसंद नहीं आपकी बला से। ध्वनि प्रसारक यंत्रों पर सरकार ने रोक लगाई होगी, हमें तो नहीं मालूम। यदि पुलिस आती है, तो उससे हम निपट लेंगे, आपका काम केवल चंदा देना है। आप कान में रुई ठूँस लीजिए। शोर आपको परेशान नहीं करेगा।
ऐसे लोगों के लिए एक उपाय सूझा है। अब गणेशोत्सव या दुर्गोत्सव आने के पहले उस इलाके की सभी उत्सव समिति के अध्यक्षों और सचिवों को चंदे के प्रलोभन से एक निश्चित स्थान पर बुलाया जाए। उन 10-15 लोगों को एक हाल में बंद कर दिया जाए। वहाँ पर एक हाल में कई स्पीकर रख दिए जाएँ, उनके आने के बाद हाल को बंद कर स्पीकर पर तेज गति वाले गाने लगा दिए जाएँ। पूरे एक घंटे तक उन सबको ऐसे ही रहने दिया जाए। उसके बाद उनके सामने जाएँ और ससम्मान पूछें कि कितना चंदा चाहते हैं आप? निश्चित रूप से उनकी हालत कुछ भी बोलने की नहीं होगी। शायद उनकी श्रवण शक्ति ही खराब हो गई हो। उसके बाद उनसे कहा जाए कि गणशोत्सव में 11 दिन और दुर्गोत्सव में 9 दिनों तक आप आम जनता को इस तरह से शोर की घुट्टी पिलाते हैं, तो क्या उन पर असर नहीं होता होगा? संभव हो, आपका यह जवाब सुनकर उनमें कोई आक्रामक हो जाए। इसके लिए आपको तैयार रहना होगा। उसके बाद तो उनमें से कोई भी आपके पास चंदे के लिए तो नहीं आएगा, अलबत्ता वे सभी आपके दुश्मन बन जाएँगे। जीवन में दुश्मनों की भी आवश्यकता पड़ती है।

इन मूर्खों को कौन बताए कि शोर उत्पन्न करके वे अपनी पीढ़ी को ही नुकसान पहुँचा रहे हैं। आज तो वे अपने बच्चों की आवाज सुन रहे हैं, यही हाल रहा, तो उनके बच्चे अपने बच्चों की आवाज नहीं सुन पाएँगे, यह तय है। आजकल जहाँ संगीत की स्वर लहरियों से बीमारियों का इलाज किया जा रहा है, वहीं कानफाड़ संगीत लोगों को बीमार भी कर रहा है। ऐसा कौन होगा, जिसे जगजीत सिंह का गीत 'तू ही माता, तू ही पिता है, तू ही तो है राधा का श्याम, हे राम हे रामÓ पसंद नहीं है। इसका धीमा संगीत मन को किसी दूसरे लोक में ले जाता है। तेज संगीत लोगों को मानसिक रोगी बना रहा है, इसे कोई क्यों समझने को तैयार नहीं है?
लोगों को भूलने की बीमारी हो रही है, कान से कम सुनाई देने लगा है, आँखें कमजोर हो रही हैं, मोटापा बढ़ रहा है, चलना नहीं हो पा रहा है, साँसे उखडऩे लगी हैं, इन सबके पीछे कहीं न कहीं शोर ही है। लोग कब सचेत होंगे, इस शोर को लेकर? क्यों कोई सोच नहीं रहा है, इस दिशा में? क्या भावी पीढ़ी बहरी होगी। वैसे भी मोबाइल ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, लोगों को बहरा बनाने में। पैदा होने वाले बच्चे तिरछी गर्दन वाले हो रहे हैं। क्या अब भी नहीं समझे, तो चेत जाओ, ऐ मूर्खों, तुम तो सुन रहे हो, सब कुछ, तुम्हारी पीढ़ी कुछ भी नहीं सुन पाएगी। कल्पना करो, कैसा होगा वह सुनसान संसार.....
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 21 सितंबर 2009

ये पत्रकारिता है?



मनोज कुमार
मीडिया को लेकर इन दिनांे ब्लाॅग्स की दुनिया बेहद सक्रिय है। देश के हर
कोने में बैठे हुए पत्रकार साथी को एक-दूसरे की खबर मिल ही जाती है
किन्तु दुर्भाग्य से लगातार जो खबरें मिल रही हैं, वह चैंकती नहीं बल्कि
शर्मसार करती हैं। अलग अलग जगहों से खबरें मिल रही हैं कि फलां पत्रकार
फलां मामले में पकड़ा गया। खबरें आने के बाद भी इस तरह की करतूतें नहीं
रूक रही हैं। इसे शर्मनाक कहा जाने में कोई अफसोस नहीं होना चाहिए।
पत्रकार होने का अर्थ मुफलिस होना होता है जो अपना सबकुछ दांव पर लगाकर
जनहित में काम करें लेकिन अनुभव यह हो रहा है कि अपना सब कुछ बनाकर
स्वहित में पत्रकारिता की जा रही है। यहां सवाल यह नहीं है कि जो लोग
बेनकाब हुए, वे वास्तव में थे या नहीं लेकिन पकड़े गये हैं तो बात जरूर
कुछ है। इस बारे में मेरा सबसे पहले आग्रह होगा कि ऐसे लोगों के साथ
पत्रकार पदनाम का उपयोग ही न किया जाए बल्कि लिखा जाए कि आरोपी फलां ने
पत्रकारिता के नाम पर। जो लोग खबरों को बेच रहे हों या खबरों के माध्यम
से धोखा दे रहे हों, वह भला पत्रकार कैसे हो सकते हैं? मेरा खयाल है कि
आप भी सहमत होंगे। कई बार यह देखने में आया है कि ऐसे ही कथित पत्रकार
किसी मामले में मार दिये जाते हैं तो लिखा जाता है कि पत्रकार की हत्या।
यहां भी यही सवाल उठता है कि क्या उसकी हत्या किसी खबर को लेकर हुई है?
वह किसी कव्हरेज के दौरान मारा गया है? यदि नही ंतो यहां पत्रकार पदनाम
का उपयोग निरर्थक होगा। हां, किसी दुर्घटना में , बीमारी में या किसी ऐसे
प्राकृतिक कारणों से उसकी मौत हुई तो हमें गर्व से लिखना चाहिए।
व्यक्तिगत रूप् से मुझे लगता है कि जिनका जीवन सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता
पर निर्भर है, उन्हें यदि ऐसे किसी व्यक्ति की भनक लगती है तो तत्काल उसे
पत्रकार बिरादरी से बाहर करने का प्रयास करना चाहिए। यह मैं जानता हूं कि
ऐसा कर पाना सहज नहीं है लेकिन कोशिश तो की जानी चाहिए अन्यथा पत्रकारिता
के चाल, चरित्र और चेहरे पर अभी तो सवाल उठ रहे हैं और यही हाल रहा तो
विश्वास भी उठने लगेगा। ऐसा हो, इसके पहले हमें चेतना होगा।
मनोज कुमार
k.manojnews@gmail.com

शनिवार, 19 सितंबर 2009

छोटे छोटे बच्‍चों की बड़ी-बड़ी बातें


डॉ महेश परिमल
मेरी बिटिया ने अपने स्कूल की एक घटना बताई। उसका कहना था कि उसकी क्लास में एक लड़के ने एक लड़की को Óआई लव यूÓ कहा और उसका चुम्मा ले लिया। पालक जरा ध्यान दें, क्लास है पहली और बच्चों के हैं ये हाल। यह एक चेतावनी है हम सब पालकों के लिए। अगर आकाशीय मार्ग से होने वाली इस ज्ञानवर्षा को न रोका गया, तो संभव है संतान और भी छोटी उम्र में वह सब समझने लगे, जो आज बड़े भी नहीं समझ पा रहे हैं।
आज जिसे हम पैराटीचर के नाम से जानते हैं, वह भविष्य में निश्चित ही हमें तो नहीं, पर हमारे बच्चों को भटकाएगा ही, यह तय है। आज टी.वी. हमारे मनोरंजन का साधन है, पर यही मनोरंजन हमें बहुत ही जल्द हमारी औकात बता देगा। वैसे कुछ पालक इस खतरे को समझ रहे हैं, पर समझने के बाद भी कुछ न करने की स्थिति में हैं। दूसरी ओर बहुत से पालक ऐसे हैं, जो इस खतरे को जानना ही नहीं चाहते। मत जानें, उनकी बला से। पर जो जानना चाहते हैं, वे यह भी जान लें, बहुत जल्द यह हमें अपनी गिरफ्त में ले लेगा और हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे।
आज खबरें ही नहीं, बल्कि ज्ञान भी भागने-दौडऩे लगा है। ज्ञान के किसी भी रास्ते को हम चाह कर भी नहीं रोक सकते। इसलिए यह समझना मूर्खता होगी कि हमारा बच्चा कुछ नहीं जानता-समझता। बच्चा कुछ नहीं जानता, यह हमारी गलतफहमी है। वह सब जानता है, केवल आप ही उसे नहीं जानते। वह हमसे ही सीख रहा है। हमारी एक-एक हरकत पर उसकी निगाह है। यही नहीं वह अपने टी.वी. को ही अपना सबसे प्यारा दोस्त समझता है। उसी से वह बहुत कुछ सीख रहा है। हम तो खुश हो लेते हैं कि चलो अच्छा हुआ इस बुध्दू बक्से से हमारा बच्चा कुछ तो सीख रहा है। आपकी यही सोच उसे क्या-क्या सीखा रही है, यह शायद आप नहीं जानते।
आपने कभी ध्यान दिया, घर में जितने नल नहीं है, उससे ज्यादा चैनल हैं। इसे शायद आप हँसी में उड़ा दें, पर यह सच है कि नलों से तो पानी ही आता है, जो हमारा जीवन है, इसमें पानी के सिवाय और क्या आ सकता है? अधिक से अधिक गंदा पानी या फिर केंचुएँ। पर चैनलों में बहुत कुछ आ रहा है और जो भी आ रहा है, वह आपके बच्चे की निगाह में है। अगर आप सामने नहीं है, तो उनकी ऊँगलियाँ तय करती हैं कि उसे क्या देखना है। चैनलों से ऐसा ज्ञान आ रहा है, जिससे हमारा जीवन ही खतरे में पड़ सकता है। अब हमारी संवेदनाएँ मरने लगी हंै। कोई भी दुर्घटना अचरज में अवश्य डालती है, पर हमारी ऑॅंखें नहीं भिगोती। हम रोना ही भूल रहे हैं। कभी बच्चे को रोता देख भी लेते हैं, तो हमें गुस्सा आने लगता है। यही गुस्सा हमें उस मासूम से कुछ देर के लिए दूर कर देता है। यही दूरी बढ़ती रहती है। उस मासूम के अकेलेपन को यही बुद्धू बक्सा दूर करता है, तो क्यों न हो, वह उसका सच्चा दोस्त! वही दोस्त उसे ले जाता है, मायावी संसार में, जहाँ गरीबी होती ही नहीं। सब अमीर होते हैं। वे हजारों की बातें नहीं करते, बल्कि करोड़ों में खेलते हैं। वे रोमांस करते हैं, बड़ी-बड़ी होटलों में जाकर पैसा पानी की तरह बहाते हैं, खूबसूरत युवतियों के साथ डांस करते हैं और रात के अँधेरे में भाई को सुपारी देते हैं। यह सब उस मासूम का अकेलापन दूर करते हैं। उसे यही अच्छा लगता है। तब फिर क्यों न उसे वह अपना आदर्श माने? क्योंकि गरीबी तो उसने नहीं देखी या उसके पालक ने देखने की नौबत ही नहीं दी, तो भला वह क्या जाने कि गरीबी क्या होती है? वैसे भी अधिकांश लोगों का मानना है कि गरीबी का यह जीवन सदैव कष्ट ही देता है, उसे जानने की भी कोशिश क्यों की जाए?
इस मायावी दुनिया के संवाद उसे अच्छे लगते हैं, तभी तो वह उसे अपनी जिंदगी में उतार लेता है। छोटी उम्र में Óआई लव यूÓ कहने में उसे जरा भी संकोच नहीं होता। उस बच्चे ने वही कहा जो उसने घर में सुना या टी.वी. पर देखा-सुना। इसमें उनका कोई दोष भी नहीं। वेलेंटाइन डे ने उसे बता दिया है कि लाल गुलाब से क्या संदेश निकलता है, पीला गुलाब क्या कहता है और यदि काला गुलाब किसी लड़की को दिया जाए, तो लड़की की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या आप जानते हैं इन गुलाबों के रंगों का अर्थ? नहीं जानते ना, पर इतना तो बता दीजिए कि आप जब अपने बच्चे की उम्र के थे, तो वेलेंटाइन डे को किस रूप में जानते थे? शायद आप यह भी नहीं जानते। आज यदि आपका बच्चा यह सब जानता है, तो आपको उस पर ऐतराज नहीं होना चाहिए।
अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों के पालक ही नहीं, बल्कि उनके दोस्त भी बनें। इससे कई फायदे हैं। पालक बने रहने से हम उनसे दूर हो जाएँगे, उनके करीब जाने का सबसे आसान रास्ता यही है कि हम उन्हें अपना दोस्त मानें। इससे वे हमारे करीब होंगे और अपनी बातें हमें बताएँगे। यही समय है जब हम उनके मन की बात जान सकते हैं। वे अपना ज्ञान ही नहीं, बल्कि अपना अज्ञान भी बताएंगे। इस वक्त हमने उन्हें जान लिया, तो कोई बात ही नहीं रह जाती कि हम उनके लिए कुछ न करें।
अब अधिक से अधिक चैनल के लिए अधिक रुपए लगने लगे हैं, तो क्यों न हम चुनिंदा चैनल ही देखें। जिससे मनोरंजन भी हो और ज्ञान भी बढ़े। यहाँ पालकों को समझना होगा कि वे जो कुछ भी करें, उससे मासूम के मन में किसी प्रकार की ग्रंथि न बन जाए। उससे खुलकर बातचीत करें। यह अनुकरण की अवस्था होती है। जैसा वह अपने से बड़ों को करता देखेगा, वैसा ही करने लगेगा। अतएव आपने जो कुछ किया, वही आपका बच्चा आपके सामने करने लगे, तो आपको गुस्सा नहीं होना चाहिए, क्योंकि आपने जो कुछ किया, उसी का प्रतिरूप ही आपके सामने आया।
उनके कोमल हृदय पर सच्चाई की इबारत लिखें। उसके भीतर के बालपन को समझने की कोशिश करें। उसे सदैव बच्चा ही न समझें। अपना बचपन कभी उस पर थोपने की कोशिश न करें। उसकी भावनाओं को कभी कुचलने का प्रयास न करें। उसके बारे में जब भी सोचें, तो थोड़ी देर के लिए ही सही, पर बच्चा बनकर सोचें। तभी आपका बच्चा आपका बनकर रहेगा और भविष्य में एक-एक कदम पर आपके साथ चलने को तैयार होगा।
डॉ महेश परिमल

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

प्रथम नागरिक के भवन से निकलती ऊर्जा



डॉ. महेश परिमल
कुछ माह पहले ही जब राष्ट्रपति भवन का बिजली बिल लाखों रुपए में आया, तब सभी चौंक गए। चौंकना स्वाभाविक था। आखिर यह मामला देश के प्रथम नागरिक से जुड़ा था। इस घटना के साथ सकारात्मक बात यह हुई कि राष्ट्रपति भवन ने यह ठान लिया कि अब देश के प्रथम नागरिक के निवास से एक ऐसा संदेश पूरे देश में जाएगा, जिससे लोग ऊर्जा के अपव्यव के प्रति सचेत होकर सारी ऊर्जा देश के विकास में लगाएँ। अन्य विभागों के सहयोग से राष्ट्रपति भवन में पूर्व राष्ट्रपति द्वारा की गई अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए सौर ऊर्जा की दिशा में आवश्यक कदम उठाए गए। आज पूरा राष्ट्रपति भवन सौर ऊर्जा की रोशनी से जगमगा रहा है। यह गौरव की बात है।
बिजली हमारे जीवन के लिए एक ऐसी ऊर्जा है, जिसका होना अतिआवश्यक है। इसके बिना तो अब जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। बिजली की आपूर्ति और खपत में आज बहुत बड़ा फासला है। जिसे पाटना बहरहाल संभव नहीं है। बिजली न केवल जीवनस्तर के लिए बल्कि अब खेती के लिए भी अतिआवश्यक है। ऐसे में बिजली की बचत करना ही सबसे बड़ा धर्म माना जाएगा। यदि बचत की यह छोटी सी किरण यदि देश के प्रथम नागरिक के भवन से निकले, तो इसे सबसे बड़ी ऊर्जा कहा जाएगा। जीे हाँ, यह अच्छी खबर है कि 340 कमरों का भवन अब पूरी तरह से सौर ऊर्जा से चलेगा। यानी पूरे राष्ट्रपति भवन को बिजली सौर ऊर्जा से मिलेगी। इस तरह से हर महीने करीब एक करोड़ रुपए की बचत होगी।
पिछले वर्ष प.बंगाल के राज्यपाल राजमोहन गांधी ने बिजली की बचत करने के उद्देश्य से राजभवन की सारी बिजली शाम सात बजे के बाद बंद कर देते थे। उनकी इस आदत से वामपंथी उनका मजाक उड़ाया करते थे। यह भी कोई बचत हुई? वामपंथियों ने राज्यपाल को नाटकबाज कहा। उनकी बचत की प्रवृत्ति की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। आज जब कमजोर मानसून के चलते राष्ट्रपति भवन से यह संदेश जा रहा है कि बिजली की बचत की जाए, तो सभी बिजली संकट को स्वीकार रहे हैं और बिजली बचत के लिए संकल्प ले रहे हैं।
बिजली उत्पादन को लेकर हमारा देश अभी भी पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हुआ है। यह सच है कि हमें किसी अन्य देश से बिजली उधार लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी, पर हमें जितनी बिजली चाहिए, उतनी बिजली नहीं मिल पा रही है। 1800 मेगावॉट बिजली का उत्पादन करने वाले 5 प्लांट 2014 से काम करने लगेंगे। बिजली की कमी क्या होती है, इसे इस बार गर्मी में दिल्ली और मुंबई के लोग समझ गए हैं। इस बार मानसून कमजोर रहा, इसलिए बिजली उत्पादन भी निश्चित रूप से प्रभावित होगा ही। पवन चक्की से प्राप्त बिजली हमारे लिए काफी महँगी साबित होती है। यदि सौर ऊर्जा से बिजली प्राप्त करने की कोशिश की जाए, तो वह हमें काफी सस्ती पड़ेगी। इस दिशा में यह शुरू के खर्च को सहन कर लिया जाए, तो भविष्य में मिलने वाली बिजली हमें करीब-करीब मुफ्त ही पड़ेगी।

विश्व में भारत का राष्ट्रपति भवन सबसे बड़ा है। 340 कमरों और 600 स्टाफ रह सकें, ऐसा यह भवन एक हजार वर्गफीट जमीन पर फैला है। इसे पूरी तरह से एक ग्रीन हाउस में तब्दील करने का बीड़ा उठाया गया है। मजे की बात यह है कि ऐसा रेसीडेंट कम ऑफिस संकुल विश्व में यह पहला है, जिसे कार्बन के्रडिट्स के लिए क्लीन डवलपमेंट मेकेनिजम और पर्यावरण मेनेजमेंट के लिए आईएसओ 1400 के लिए आवेदन किया है।
रीन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय ने इस काम के लिए 3.2 करोड़ रुपए प्रस्तावित किए हैं। यह राशि केवल तीन साल में ही वसूल हो जाएगी। इस तरह से अब पूरा राष्ट्रपति भवन सौर ऊर्जा से चलने लगेगा। इसमें बिजली से चलने वाला शायद ही कोई प्रणाली दिखाई दे।
यह तो हुई बिजली की बात, एक और भी मजेदार बात यह है कि अब राष्ट्रपति भवन से निकलने वाले कचरे से खाद बनाने का संकल्प राष्ट्रपति भवन के स्टाफ की महिलाओं ने लिया है। इस खाद से सब्जियाँ ऊगाई जाएँगी। यही नहीं, जिस कचरे को जलाया जा सकता है, उसे म्युनिसिपल वालों को सौंप दिया जाता है। राष्ट्रपति भवन के लिए छोटी से छोटी वस्तु के लिए रि यूज का फार्मूला अपनाया जाता है।
वैसे भी राष्ट्रपति भवन को अपनी हरियाली के नाम से जाना जाता है। एक समय वहीं डॉ. श्ंाकर दयाल शर्मा ने भूत भगाने के लिए हवन कराया था। भवन में ही हवन कुंड की व्यवस्था की गई थी। डॉ. अब्दुल कलाम के आने के बाद सब कुछ बेहतर से बेहतर हो गया। अब प्रतिभा पाटिल ने तो राष्ट्रपति भवन में हमेशा हरियाली रहे, इसके लिए कदम उठा रहीं हैं। राष्अ्रपति भवन को ग्रीन हाउस में तब्दील करने के प्रोजेक्ट में 14 सरकारी संस्थाअें का भी समावेश होता है। अब इस ग्रीन हाउस में रहने वाले 600 परिवार ग्रीन इफेक्ट के लिए एलर्ट हैं।
आज मंत्रालयों और मंत्रियों के घर की हालत पर गौर किया जाए, जहाँ हमेशा एसी चलते रहते हैं। बिजली का दुरुपयोग हो रहा है। बिजली बचाने की तमाम घोषणाएँ केवल कागजों तक ही सीमित रहती हैं। बिजली के दुरुपयोग का ध्यान तब आता है, जब बिजली चली जाती है। हमारे देश में जिस तरह से बिजली का दुरुपयोग हो रहा है, उससे यही लगता है कि यदि हम बिजली की बचत करना सीख जाएँ, तो संभव है इस दिशा में काम कुछ किया जा सकता है। अब राष्ट्रपति भवन से यह संदेश जा रहा है कि इतना बड़ा भवन जब सौर ऊर्जा से चल सकता है, तो फिर साधारण मंत्रालय भी तो चल सकते हैं। बिजली का कम से कम उपयोग करना ही बचत की दिशा में पहला कदम है। हम यही कदम नहीं उठा रहे हैं। यदि राष्ट्रपति भवन का अनुशरण अन्य राजभवन एवं सरकारी कार्यालयों में हो, तो हम काफी बिजली बचा सकते हैं। जिस काम के लिए डॉ. अब्दुल कलाम से योजना बनाई, उसे प्रतिभा पाटिल ने आगे बढ़ाया, इसी का परिणाम है कि आज राष्ट्रपति भवन ग्रीन हाउस में तब्दील हो गया है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

बरसों से आखिर क्यों उपेक्षित है असम



डॉ. महेश परिमल
भारत के भाल पर कई ऐसे घाव हैं, जो किसी विदेशी के प्रहार से नहीं, बल्कि हमारे ही प्रहार से हुए हैं। देश में आतंकवादी घटनाएँ लगातार बढ़ रहीं हैं, आतंकवाद एक भयावह सपने के रूप में हमारे सामने ही पल-बढ़ रहा है। लेकिन देश का कानून इतना लचीला है कि आतंकवादी साफ बच निकलते हैं। आतंकवादी हमले में हमेशा आम आदमी मारे जाते हैं। लेकिन मूल समस्या पर किसी का ध्यान नहीं जाता। असम बरसों से जल रहा है, लेकिन हमारे नेताओं की उसकी याद केवल चुनाव के समय आती है। यह गर्व की बात है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री असम का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसके बाद भी असम अािखर उपेक्षित क्यों है?
देश के लिए इससे शर्मनाक बात और क्या होगी कि असम का एक कांगे्रस सांसद मूल रूप से बंगला देशी है। उसकी पत्नी कई बार सीबीआई को यह कह चुकी है कि उनके पति बंगलादेशी हैं, वे देशद्रोही गतिविधियों में संलग्न हैं। इसके बाद भी आज तक उक्त कांगे्रसी सांसद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। आखिर क्या कारण है, क्यों कानून के लंबे हाथ उस सांसद तक नहीं पहुँच पाते? कहाँ विवश है पुलिस और सरकार? इसका जवाब शायद हमारे प्रधानमंत्री के पास भी नहीं है।
असम में हर दूसरे या तीसरे दिन एक आतंकवादी हमला होता है। लोग मारे जाते हैं। पुलिस पूछताछ होती है, नेताओं के कथित बयान आते हैं। बस फिर सब कुछ पहले जैसा। केंद्र सरकार को इतनी फुरसत नहीं है कि बरसों से जल रहे असम की आग को शांत करने का प्रयास करे। इस राज्य में सन् 2007 के 365 दिनों में 248 आतंकवादी हमले हुए। 2008 में 207 आतंकवादी हमले हुए। इस वर्ष के शुरू के 5 महीनों में 221 आतंकवादी हमले हो चुके हैं। इस राज्य में हुए आतंकवादी हमलों में 2007 में 132, 2008 में 93 और इस वर्ष के शुरू के 5 महीनों में कुल 82 आम आदमी मारे गए हैं। इतने हमले और इतनी मौतों के बाद भी कहीं कोई जुंबिश नहीं, आंदोलन नहीं, धरना नहीं और न ही आतंकवादियों पर कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश। आखिर क्या हो गया है, इस देश के नेताओं और आम आदमी को?
अभी पिछले सप्ताह ही दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और राज्यों के डायरेक्टर जनरल्स ऑफ पुलिस की बैठक में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम दोनों ने एक खास बात कही कि पाकिस्तान में रहने वाले आतंकवादी गुट भारत में एक और आतंकवादी हमले की तैयारी में हैं। इन दोनों नेताओं ने यह भी कहा कि पाकिस्तान, बंगलादेश, चीन और नेपाल पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवादी गुटों को प्रश्रय दे रहे हैं। पाकिस्तान में बैठे जेहादी गुटों के बजाए पूर्वोत्तर राज्यों के असंतुष्ट अधिक खतरनाक साबित हो सकते हैं।
हमारे देश में जब भी कोई आततायी आया है, तो उसे देश में ही किसी न किसी जयचंद का सहारा मिला है। फिर चाहे वे मुगल हों या फिर अँगरेज। बाहर से आने वाले किसी भी बाहुबलि ने अपने शौर्य से दस देश में कब्जा नहीं किया है। कब्जा करने के पहले उसे हमारे ही देश के कुछ असंतुष्टों का सहारा मिला। हमला उसके बाद ही हुआ। यह इस बात की ओर ध्यान दिया जाए, तो स्पष्ट होगा कि पूर्वोत्तर राज्यों में जिस तरह से आतंकवाद पैर पसार चुका है। उससे यही लगता है कि इन आतंकवादी गुटों को अपने ही लोगों का संरक्षण प्राप्त है। हमारी सेना एक तरफ दुश्मनों से लड़ रही है, दूसरी तरफ इन घर के दुश्मनों से। असम में बंगलादेशी घुसपैठिए बरसों से अपना काम कर रहे हैं। उनके राशन कार्ड तक बन गए हैं, वोटर लिस्ट में भी उनका नाम आ गया है। फिर भी न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने इस ओर ध्यान दिया।
असम का सवाल काफी पुरानी है। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब फखरुद्दीन अली अहमद राष्ट्रपति थे। इन दोनों पर यह आरोप लगाया गया था कि असम समस्या की ओर इन्होंने ध्यान नहीं दिया। इंदिरा जी के समय ही उल्फा का गठन हो चुका था। उस समय शायद किसी ने कल्पना ही नहीं की होगी कि यह उल्फा एक दिन अल कायदा जेसे आतंकवादी गुट का प्यादा बन जाएगा। आज असम में करीब 8 आतंकवादी गुट सक्रिय हैं। उल्फा के बाद कई और गुट सामने आए हैं। जो इस प्रकार हैं:- कर्बी लोंगरी एनसी हिल्स लिबरेशन फ्रंट (एलएनएलएफ),ऑल आदिवासी नेशनल लिबरेशन फ्रंट, दीमा हालम दाओगा (ज्वेल) उर्फ ब्लेक वीडो, कुकी रिवोल्यूशन आर्मी, ह्मार पीपल्स कंवेंशन (डेमोके्रटिक), मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑप असम और हरकत उल मुजाहिदीन। इसके बाद दूसरे अन्य चार गुट हैं:- यूनाइटेड पीपल्स डेमोक्रेटिक सोलिडेरिटी, आदिवासी कोब्रा मिलटंट फोर्स, बिरसा कमांडो फोर्स और दिलीप नुनीसा फेक्शन (डीएचडी)।
ये आतंकवादी गुट हताश होकर हिंदीभाषी मजदूरों को मार डालते हैं। कए देशवासी दूसरे देशवासी को मार डालता है। सरकार खामोश है। वोट की राजनीति के चलते कोई कुछ नहीं कहता। जब हिंदीभाषी मजदूरों को मार डालने की घटनाएँ जोर पकड़ती हैं, तब मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे नेता अपने वोट बैंक की खातिर उग्र आंदोलन की धमकी देते हैं, अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर उत्तेजक भाषण करते हैं, लेकिन उसके बेाद कुछ ऐसा नहीं होता, जिससे उन हिंदीभाषी मजदूरों की रक्षा हो सके। आज तक असम के उग्रवादी गुटों से ऐसी कोई बातचीत नहीं हो पाई है, जिसे सफल कहा जा सके। एक तरफ पाकिस्तान, बंगला देश सरकार से बार-बार बातचीत की जाती है, पर देश के ही उग्रवादी गुटों की उपेक्षा की जाती है।
असम ही नहीं, आजकल देश के नेता इंटरनेट का सहारा लेकर कुछ भी बकवास करने लगे हैं। हाल में तेलंगाना के नेता चंद्रशेखर ने कहा है किे हम जम्मू-कश्मीर में हिंसक आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं। एक वेबसाइट में एक अनाम आलेख में यह कहा गया है कि भारत के 25-30 टुकड़े कर दिए जाने चाहिए। इस तरह के उत्तेजक बयानों और आलेखों को लेकर दिल्ली सरकार खामोश रहती है। आखिर क्यों होता है ऐसा? क्यों उपेक्षित है असम? क्यों कोई कुछ नहीं करता? क्या सब-कुछ ऐसे ही चलता रहेगा?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 16 सितंबर 2009

जलवायु परिवर्तन और भारत का सच


नीरज नैयर
भारत सरकार ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़े पांच अध्ययनों के नतीजे जारी किए हैं, जिनके मुताबिक देश में वर्ष 2031 तक ग्रीनहाउस गैसों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2.77 से लेकर 5 टन के बीच हो जाएगा. लेकिन ज्यादा घबराने की बात इसलिए नहीं है क्योंकि यह आंकड़ा दुनिया के प्रति व्यक्ति औसत से काफी कम है. सरकार ने इन अध्ययनों को सार्वजनिक करने का जो वक्त चुना है वह कूटनीतिक लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि साल के अंत यानी दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होना है और अगर वहां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने के लिए भावी लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं तो भारत रिपोर्ट का हवाला देकर अपना पक्ष मजबूती के साथ रख सकता है. विकसित देश शुरू से ही इस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि भारत,चीन आदि विकाशसील देश विकसित बनने की होड़ में पर्यावरण को अत्याधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं. जबकि सच्चाई ये है कि इस समय भारत विश्व के कार्बन उत्सर्जन के केवल चार प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है, वहीं अमेरिका 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है. 2005 में दुनिया का प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 4.22 टन था जबकि भारत का औसत 1.2 टन है. इस लिहाज से देखा जाए तो विकसित देशों को सुख-सुविधाओं की कुर्बानी ज्यादा देनी चाहिए मगर वो विकासशील देशों पर दोषारोपड़ करने में अधिक विश्वास रखते हैं. ग्रीन हाउस गैसों के कारण ही पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है जिससे समुद्र का जलस्तर चढ़ रहा है एवं सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं में वृद्धि हो रही है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तानों का विस्तार होता जा रहा है. कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है तो कहीं नमी बनी हुई है. वैज्ञानिकों का तो यहां तक मानना है कि आए दिन समुद्र में पैदा होने वाले चक्रवृति तूफान ग्लोबल वार्मिंग की ही देन है. इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में साफ संकेत दिया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते तूफानों की विकरालता में वृद्घि होगी. आंकड़ों पर यदि गौर किया जाए तो पता चलता है कि ऐसा बाकायदा हो भी रहा है, 1970 के बाद उत्तरी अटलांटिक में ट्रोपिकल तूफानों में बढ़ोतरी हुई है तथा समुद्र के जलस्तर और सतह के तापमान में भी वृद्घि हो रही है. ग्लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के तापमान में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीट पर ही तापमान पहले ही अपेक्षा कहीं अधिक गर्म हो गया है. ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं. इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प मौजूद रहते है. ये गैसें खतरनाक स्तर से वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि ओजोन परत के छेद का दायरा बढ़ता भी जा रहा है. ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह काम करती है. इस कवच के कमजोर पडऩे का मतलब है, पृथ्वी का सूरज की तरह तप जाना. मौजूदा वक्त में ही हालात ये हो चले हैं कि अमूमन ठंडे रहने वाले इलाके भी गर्मी की मार से त्रस्त हैं. जहां कभी झमाझम बारिश हुआ करती थी, आज वहां सूखे जैसे हालात हैं. दरअसल तेजी से होता औद्योगीकरण, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्रोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और फ्रिज, एयरकंडीशनर आदि का बढ़ता चलन ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारण हैं. अब यहां जरा तुलनात्मक अध्ययन
किया जाए तो खुद ब खुद स्पष्ट हो जाएगा कि सीएफसी गैसों को उत्सर्जन करने वाले उपकरणों का उपयोग सर्वाधिक कहां होता है. फ्रिज, एयर कंडीशनर और दूसरी कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल भारत की अपेक्षा अमेरिका आदि देशों में ज्यादा होता है. हमारे देश में आज भी कुल आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा आर्थिक संपन्नता के उस स्तर तक नहीं पहुंचा है कि जहां एयरकंडीशनर, फ्रिज जैसी वस्तुएं आम होती हैं. जबकि विकसित देशों में लगभग हर दूसरे घर में इन वस्तुओं का प्रयोग होता है, कह सकते हैं कि इनके बिना उनकी जिंदगी चल ही नहीं सकती. हां ये बात अलग है कि अन्य देशों के मुकाबले हमारे यहां दूसरे माध्यम से ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया जा रहा है, मसलन कोयले और लकड़ी को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करना भारत में बदस्तूर जारी है. हमारे यहां जंगलों को विकास की भेंट चढ़ाने का काम भी पूरे शबाब पर है, लेकिन फिर भी जलवायु परिवर्तन में हमारी हिस्सेदारी का प्रतिशत उतना नहीं है जितना विकसित देशों का है. वाहनों से होने वाले प्रदूषण की बात की जाए तो हमारी तुलना में बड़े देशों में वाहनों की संख्या कहीं गुना ज्यादा है, एक बारगी ये मान भी लिया जाए कि वहां पर्यावरण मानकों का पालन सख्ती से कि या जाता है, फिर भी प्रदूषण फैलाने की संभावनाएं भारत की अपेक्षा वहां अधिक हैं. अमेरिका का तर्क है कि विकसित बनने की होड़ में भारत, चीन जैसे देश पर्यावरण को अंधाधुंध तरीके से नुकसान पहुंचा रहे हैं. उसकी सोच के अनुसार उसका यह तर्क जायज भी हो सकता है लेकिन उसे यह भी समझने की कोशिश करनी चाहिए कि कोई भी देश विकासशील से विकसित बनने की अपनी महत्वकांक्षाओं की बलि नहीं चढ़ा सकता. इस मुद्दे पर बेफिजूल की बयानबाजी और दोषारोपण की जरूरत नहीं है, जरूरत है तो मिलबैठकर कोई ऐसा प्रारूप तैयार करने की जिस पर आम सहमति से काम किया जा सके, अगर जबरदस्ती किसी पर बोझ लादने की कोशिश की जाएगी तो वह कभी दिल से उस काम में अपना सौ प्रतिशत नहीं दे पाएगा. जहां तक भारत का सवाल है तो वो अब तक जो दलीलें देता आया है वो बिल्कुल ठीक हैं, लेकिन फिर भी उसे एक जिम्मेदार देश होने के नाते अपने स्तर पर किए जा रहे प्रयासों में और तेजी लाने के प्रयास करने होंगे ताकि वह दूसरे के लिए उदाहरण पेश कर सके और आने वाले खतरे को कम कर सके. उसे उद्योगों और खासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी. पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर भी बल देना होगा. साथ ही अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानी अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाए तो हवा को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है.
नीरज नैयर

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

भ्रष्टाचार का पर्यावरण

प्रमोद भार्गव
कमजोर और शालीन दिखने वाले हमारे प्रधानमंत्री अपने नए कार्यकाल में मुखर होने के साथ कुछ कढ़े तेवर अख्तियार करते दिखाई दे रहे हैं। हाल हीं में उन्होंने पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं को मंजूरी दिए जाने में होने वाले भ्रष्टाचार पर नाराजगी जाहिर करते हुए इसे एक नए किस्म का लायसेंसी राज बताया। इसके पहले उन्होंने काला बाजारियों व जमाखोरियों के विरूद्व कारवाई करने के नजरिये से राज्य सरकारों को चेताया। गरीब तबके की फिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने उन फेरी वालों के प्रति भी चिंता जताई जो हस्त शिल्प और कुटीर व लघु उद्योगों में निर्मित सामान देश भर में बेचने जाते हैं। इस दौरान इन्हें कई मर्तबा पुलिस के अमानवीय व्यवहार और भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। चिंता के साथ यदि इन हालातों को बदलने में वाकई जोर दिया जाता है तो नए हालात निश्चित रूप से पर्यावरण व उर्जा सरंक्षण, गरीबों के उत्थान और खाद्य सुरक्षा के कारगर उपाय साबित हो सकते हैं।आज हमारे देश में पर्यावरण सरंक्षण वन अमले के लिए एक नए किस्म का लायसेंसी राज साबित हो रहा है। जो कि नाजायज कमाई का ठोस जरिया बना हुआ है। पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं की मंजूरी के साथ आरक्षित वनों, उद्यानों और अभ्यारण्यों के निकट आबाद क्षेत्रों में आवासीय बस्तियों व शस्त्र लायसेंस के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र देने के संबंध में भी वन अमला अकूत भ्रष्टाचार से जुड़ा है। खास तौर से बस्तियों और हथियार लायसेंस के सिलसिले में पर्यावरण मंजूरी की बाध्यता इसलिए कोई महत्व नहीं रखती, क्योंकि मध्यप्रदेश में जितने भी आरक्षित वनों से जुड़े जिले हैं उनमें लायसेंसी हथियारों में वृध्दि दर बेतहाशा बड़ी है। इससे जाहिर होता है कि पर्यावरण बाध्यता केवल भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली हैं। यही स्थिति आवासीय बस्तियों के संबंध में है, वन जिलों में शहरी बस्तियों के विस्तार ने आरक्षित वन भूमियां तक हड़प ली है। हालात इतने बदहाल है कि जिस पर्यावरण सरंक्षण की जिस बाध्यता को विकास और पर्यावरण की जरूरतों में संतुलन का आधार बनना चाहिए थी,वह बाध्यता असंतुलन की आधार बन रही है। जबकी पर्यावरण सरंक्षण संबंधी नीतियां पारदर्र्शी और परेशानी मुक्त होनी चाहिए। ऐसी नीतियां जब तक सामने नहीं आएंगी तब तक न वनों का धानत्व बढ़ने वाला है और न ही वनों में रहने वाले आदिवासी समुदाय संकट से मुक्त होने वाला हैं।हमारे यहाँ वन सरंक्षण संबंधी जितनी भी नीतियां बनी और जितना भी औद्योगिक विस्तार हुआ वह वन, वन्य जीव और वनवासियों के विनाश के कारण बने। क्योंकि सबसे ज्यादा विनाश विकास की आड़ में ही हुआ। वन विनाश में नौकरशाही की भूमिका तो रही ही उन पर्यावरण स्वीकृति देने वाली समितियों की भी रही जिनके सदस्य कंपनियों के आधिकारियों को बना दिया गया। पीं अब्राहम एक ऐसी ही मिसाल हैं। अब्राहम कई निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के विद्युत मण्डलों के सदस्य है। अब विरोधाभास देखिए यही महोदय पर्यावरण मंजूरी देने वाली सात विशेषज्ञ समितियों के कुछ समय पहले तक सदस्य थे और एक के अध्यक्ष भी थे। हाल ही में ऐसे सदस्यों के व्यवहारिक स्वार्थ को समझते हुए केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इनका इस्तीफा कराया है। यही हाल उस राष्ट्रीय जैव विविधाता प्रधीकरण से जुड़ी समिति का है जो जैव विविधाताओं के सरंक्षण के लिए अस्तित्व में लाई गई है, लेकिन विडंबना यह है कि इस समिति में उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइंदे शामिल हैं जो आनुवंशिक बीजों का निर्माण कर हमारे पारंपरिक बीजों को बरबाद कर पूरे फसल चक्र को ही प्रभावित करने में लगी हैं। जबकि इन समितियों के सदस्य स्वतंत्र पर्यावरण सोच रखने वाले व्यक्ति होने चाहिए।ऐसे ही कारण रहे है जिनके चलते पर्यावरण संबंधी योजनाओं में भ्रष्टाचार और पर्यावरण विनाश का सिलसिला अनवरत बना हुआ है। नतीजतन वनों की स्थिति चिंताजनक हो गई है। हाल ही में जो 'स्टेट ऑफ एनवायरमेंट रिपोर्ट इंडिया 2009' आई है, उसमें बताया गया है कि अब वन भूमि केवल छह करोड़ पचास लाख हेक्टेयर रह गई है। करीब इक्कीस फीसदी ऐसे सघन वन शेष हैं, जिनमें बाघ, तेंदुए और सिंह जैसे वन्य जीव विचरण कर सकते हैं। हमारे यहां दस प्रतिशत मध्यम घनत्व वाले वन हैं और नौ प्रतिशत निम्न श्रेणी के वन क्षेत्र हैं। ऐसे में जरुरत है कि ऐसी वन नीतियां लागू की जाएं जिनके अमल में आने से अगले दस साल में उच्च और मध्यम घनत्व के वन क्षेत्रों में वृध्दि दर्ज की जा सके। हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी ऐसे पैदल सिपाही हैं, जिनकी पर्यावरण संरक्षण में अह्म भूमिका है। इन्होंने ही हमारी वनों की सुरक्षा तो की ही है, प्रकृति के साथ मिलजुल कर रहने का नायाब व कामयाब तरीका भी अपनाया हुआ है। इसलिए आदिवासी अधिकार कानून जो वनवासियों के जायज अधिकारों की गारंटी देता है, उस पर सख्ती से अमल की जरुरत है। प्रधानमंत्री ने बात तो पते की कही है क्योकि प्रकृति का सरंक्षण करने वाला यही वह समूह है जो जंगल के घनत्व और गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक सिध्द हो सकता है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले 35 - 40 सालों में औद्योगिक विकास, बड़े बांधा और उद्यानों व अभ्यारण्यों के निर्माण व सरंक्षण के बहाने अब तक चार करोड़ वनवासी विस्थापित किए जा चुके हैं। यह आधुनिक विकास वनवासियों के लिए ऐसा अभिशाप बना हुआ है कि एक बार अपने पुश्तैनी अधिकार क्षेत्र, जल, जंगल और जमीन से उखाड़ दिया गया वनवासी का संतोषजनक पुनर्वास लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के चलते कभी नहीं हो पाया ? बल्कि पर्यावरण सरंक्षण के नाम पर एक पूरा ऐसा भ्रष्टाचार पनपाने वाला राजनीतिक अर्थशास्त्र विकसित हो गया जिसके बूते वन अमला जबावदेही और चौकस निगरानी से दूर होता चला गया। केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक इमदाद पाने वाले स्वयं सेवी संगठनों ने भी बुनियादी पहल करने की बजाय वन जागरुकता के केवल ऐसे सतही अभियान चलाये जिनकी पड़ताल करना भी मुश्किल है कि वे चले भी अथवा नहीं ?आज हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि अकेले मध्यप्रदेश में जो 19 हजार 908 परिवार आधुनिक विकास के लिए विस्थापित कर दिए गए हैं उनकी आमदनी 50 से 90 प्रतिशत तक घट गई है। यह हकीकत सतपुड़ा टाइगर रिजर्र्व फारेस्ट, कूनों - पालपुर अभ्यारण्य ;श्योपुर और माधाव राष्ट्रीय उद्यान,शिवपुरी से विस्थापितों पर किए गए 'आर्थिक आय और जीवन स्तर' का अध्ययन करने के बाद सामने आई है। कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर अभ्यारण्य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को तो दो दिन में एक ही मर्तबा भोजन नसीब हो रहा है।दरअसल हम उस अवधारणा को प्रचलन में लाने में लगे हैं जो यूरोपीय देशों में प्रचलित है। वहां 'विल्डरनेस' अवधारणा प्रचलन में है। जिसके मायने हैं मानव विहीन सन्नाटा, निर्वात अथवा शून्यता। जबकि हमारे पांच हजार साल से भी ज्यादा पुराने ज्ञात इतिहास में ऐसी किसी अवधारणा का उल्लेख नहीं है। इसी वजह से हमने जितने भी उदानों व अभयारण्यों से वनवासियों का विस्थापन किया है, वहां - वहां वन्य प्र्राणियों और वृक्षों की संख्या घटी है। इसलिए अब वह समय आ गया है जब हम ऐसी नीति और तकनीकियों को अमल में लाएं जो विस्थापन से जुड़ी न हों। हाल में ही उत्तराखण्ड में स्थानीय स्तर पर ऐसी तकनीकों का आविष्कार कर विस्तार किया जा रहा है, जिनके जरिये नदियों के पानी से बिजली लघु पैमाने पर बनाई जा रही है। इस यांत्रिक तकनीक से न तो किसी को उजड़ने का दंश झेलना पड़ता है और न ही प्रदूषण का संकट पैदा होता है। जिस अर्थ का उपार्जन होता है वह भी स्थानीय आर्थिकी को मजबूती देता है। जलवायु संकट से उबरने के लिए अब जरुरी है कि हम पर्यावरण की मंजूरी देने वाली समितियों की कमान उन तत्वदर्शियों को सौंपे, जो जल, उर्जा और कृषि के क्षेत्र में अपने देशज और पारंपरिक ज्ञान के चलते मिसाल बन चुके हैं। यदि इस सोच के चलते अण्णा हजारे, राजेन्द्र सिंह, अनुपम मिश्र, आर के पचौरी और दीप जोशी जैसे लोगों को इन समितियों से जोड़ा जाता है तो पर्यावरण सरंक्षण के साथ - साथ जलवायु संतुलन और खाद्य सुरक्षा के कारगर उपाय भी आप से आप सुधारते चले जाएंगें।
प्रमोद भार्गव

सोमवार, 14 सितंबर 2009

क्यों हिन्दी पर शर्म

क्यों हिन्दी पर शर्म



बचा रहे इस देह में, स्वाभिमान का अंश।

रखो बचाकर इसलिए, निज भाषा का वंश॥

कथा, कहानी, लोरियां, थपकी, लाड़-दुलार।

अपनी भाषा के सिवा, और कहां ये प्यार॥

निज भाषा, निज देश पर, रहा जिन्हे अभिमान।

गाये हरदम वक्त ने, उनके ही जयगान॥

हिन्दी से जिनको मिला, पद-पैसा-सम्मान।

हिन्दी उनके वास्ते, मस्ती का सामान॥

सम्मेलन, संगोष्ठियां, पुरस्कार, पदनाम।

हिन्दी के हिस्से यही, धोखे, दर्द तमाम॥

हिन्दी की उंगली पकड़, जो पहुंचे दरबार।

हिंदी के 'पर' नोचते, बनकर वे सरकार॥

अंग्रेजी पर गर्व क्यों, क्यों हिन्दी पर शर्म।

सोचो इसके मायने, सोचो इसका मर्म॥

दफ्तर से दरबार तक, खून सभी का सर्द।

'जय' किससे जाकर कहे, हिन्दी अपना दर्द॥

[जय चक्रवर्ती]

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

यहां से कितना आगे जाएगी फुटबॉल


नीरज नैयर
हमारी फुटबॉल टीम ने अपने से कहीं गुना ताकतवर सीरिया को हराकर लगातार दूसरी बार नेहरू कप अपने नाम कर लिया, यह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस मैच को देखने उमड़ी भीड़. गौर करने वाली बात ये है कि लोगों का हुजूम पश्चिम बंगाल के किसी स्टेडियम में नहीं बल्कि दिल्ली के आंबेडकर स्टेडियम में देखने को मिला. बंगाल में तो फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी जगजाहिर है, मगर दिल्ली में ऐसा नजारा देखना थोड़ा आश्च्र्रयजनक प्रतीत होता है. स्टेडियम के भीतर-बाहर जमा भीड़ के कारण लोगों को अव्यवस्था की शिकायत करने का मौका भी मिला, अमूमन इस तरह की शिकायतें किसी क्रिकेट मैच के दौरान ही सुनने में आती हैं. पूरे मैच के दौरान दर्शक जिस तरह से भारतीय टीम की हौसला अफजाई कर रहे थे उसे देखकर कतई नहीं लग रहा था कि हमारे देश में फुटबॉल को दोयम दर्जे काखेल समझा जाता है. दोयम दर्जे का इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इतने सालों बाद भी यह खेल घर की चारदीवारी से निकलकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पूरी तरह अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाया है. फुटबॉल के हमारे देश में यूं अलग-थलग पड़े रहने के कई कारण हैं, जिनपर न तो कभी गौर किया गया और न ही कभी गौर करने की जरूरत समझी गई. यूं तो मौजूदा वक्त में कई क्लब मौजूद हैं जो फुटबॉल को जिंदा रखे हुए हैं लेकिन शायद ही लोगों ने जेसीटी फगवाड़ा और मोहन बगान के अलावा किसी तीसरे क्लब का नाम सुना हो. कम ही लोग इस बात का जानते होंगे कि भारतीय टीम 1950 के वल्र्ड कप के फाइनल में जगह बनाने में कामयाब हुई थी, 1951 एवं 1961 के एशियन खेलों में उसे गोल्ड मैडिल हासिल हुआ था, 1956 के मेलर्बोन ओलंपिक में वह चौथे स्थान पर रही, और 2007 में नेहरु कप पर कब्जे के बाद 2008 में उसने तजाकिस्तान को 4-1 से हराकर एफसी चैलेंज कप अपने नाम किया. पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए तो बमुश्किल एक-दो लोग ही ऐसे होंगे जो फुटबॉल टीम के खिलाडिय़ों से परिचित हों. अकेले भाई चुंग भूटिया ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें ज्यादातर लोग जानते हैं. पिछले दिनों एक टीवी कार्यक्रम में शिरकत करने से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ जरूर थोड़ा बहुत बड़ा होगा. लेकिन इसको लेकर उन्हें क्लब के पदाधिकारियों की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा. ये बात अलग है कि भाईचुंग ने दबने के बजाए खुलकर अपनी बात रखी और वह उल्टा दबाव बनाने में कामयाब भी रहे, मगर यह घटनाक्रम क्रिकेट और फुटबॉल के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. क्रिकेटर प्रेक्टिस सेशन बीच में छोड़कर विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त रहते हैं तो भी उनके खिलाफ कुछ नहीं किया जाता, शायद बोर्ड खुद भी खाओ और हमें भी खाने दो की पॉलिसी पर यकीन करता है. कायदे में तो किसी एक खेल की दूसरे के साथ तुलना कतई उचित नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए लेकिन जिस तरह से क्रिकेट के बरगद तले बाकी खेलों की आहूति दी जा रही है उससे तुलनात्मक विश्लेषण की परंपरा का जन्म हुआ है. क्रिकेट को लेकर हमारे देश में यह तर्क दिया जाता है कि ये खेल लोगों को सर्वाधिक पसंद है और वो इसके अलावा कुछ और देखना ही नहीं चाहते, अगर इस तर्क में तनिक भी सच्चाई होती तो अंबेडकर मैदान पर लोगों की हुजूम न उमड़ता. हकीकत ये है कि काफी हद तक लोग क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों का भी आनंद उठाना चाहते हैं लेकिन प्रोत्साहन की कमी से उन्हें क्रिकेट तक ही सीमित रहना पड़ता है. क्रिकेट के स्वरूप को बदलने और उसे अत्याधिक रोमांचित बनाने के लिए नित नए प्रयोग किए जाते हैं. इंडियान प्रीमियर लीग यानी आईपीएल बीसीसीआई का सफलतम प्रयोग है, हालांकि जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा को इसका जन्मदाता कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. सबसे पहले सुभाष चंद्रा ने ही भारत के कैरीपैकर बनते हुए आईसीएल का ऐलान किया था लेकिन बीसीसीआई के पैंतरों के आगे उनकी यह पहल सफल नहीं हो पाई और ललित मोदी ने आईसीएल की तर्ज पर आईपीएल खड़ा कर डाला जो आज कॉर्पोरेट घरानों और खुद बोर्ड के लिए कमाई का सबसे बड़ा जरिया बन गया है. खिलाड़ी भी इसमें करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे कर रहे हैं. बीसीसीआई के कहने पर ही दूसरे देशों के क्रिकेट बोर्ड ने आईसीएल को मान्यता नहीं दी और वह खड़े होनेसे पहले ही लडख़ड़ा गया. लेकिन इस तरह का प्रोत्साहन और प्रतिद्वंद्वता का नजारा फुटबॉल में राष्ट्रीय स्तर पर कभी देखने को नहीं मिला. क्रिकेटर जहां अलग-अलग राज्यों में विभाजित होने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर एक टीम की तरह दिखाई पड़ते हैं, ऐसा फुटबॉल टीम को देखकर कतई प्रतीत नहीं होता. मौजूदा दौर में तो ऐसा लगता है जैसे फुटबॉल महज अलग-अलग क्लब का ही खेल बनकर रह गया है. जिसके प्रोत्साहन और सुधार का जिम्मा सिर्फ उन क्लबों पर ही है. अगर फुटबॉल फेडरेशन या खेल मंत्रालय इस खेल को राष्ट्रीय स्तरीय खेल की तरह लेते तो शायद इसको ऊपर उठाने के लिए कुछ न कुछ प्रयास जरूर किए जाते. आईपीएलकी बेंगलुरु रॉयल चैलेंज टीम के मालिक विजय माल्या दो फुटबॉल क्लब के भी मालिक हैं, पर उनका ध्यान इस वक्त क्रिकेट की तरफ ज्यादा है क्योंकि क्रिकेट में उन्हें वो सब मिल रहा है जो फुटबॉल से नहीं मिल पाता. आईपीएल के एक मैच को देखने के लिए जितने टीवी सेट ऑन होते होंगे उतने तो फुटबॉल के 10 मैचों के लिए भी नहीं होते होंगे. इसका सीधा का कारण है प्रामोशन, बीसीसीआई क्रिकेट को बेचने के लिए सबकुछ कर रहा है, आईपीएल के शुरू होने से कई महीने पहले विज्ञापनों का सिलसिला शुरू हो जाता है, मगर फुटबॉल के मैच कब आते हैं और कब निकल जाते हैं किसी को पता ही नहीं चलता. यदि फुटबॉल को भी सही प्रमोशन दिया जाए तो दिल्ली में जुटने वाली भीड़ प्रत्येक मैच में दिखाई देगी. आईपीएल की तर्ज पर फुटबॉल में भी लीग बनाई जाए, नामी-गिरामी सितारों को टीम खरीदने के लिए आमंत्रित किया जाए. सलमान खान तो नेहरू कप में टीम का उत्साहवद्र्धन करते दिखाई भी दिए. अगर उन जैसे चंद स्टार फुटबॉल से जुडऩा पसंद करते हैं तो निश्चित ही अलग-थलग पड़ चुके इस खेल का चमकना तय है. लोगों ने तो यह जाहिर कर दिया है कि उन्हें क्रिकेट के अलावा अन्य खेल भी पसंद है, अब यह खेलमंत्रालय और फुटबॉल फेडरेशन पर निर्भर करता है कि यहां से फुटबॉल को कितना आगे ले जा सकते हैं.
नीरज नैयर

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

आधुनिकता की ओर.........


क्‍या आप इस एंबुलेंस में बैठना पसंद करेंगे।

ये मेरा वॉक‍मेन है

ऐसे भी आधुनिक बना जा सकता है

जापानी वाहन का भारतीयकरण

पेंट करने का एक तरीका यह भी

सोमवार, 7 सितंबर 2009

हाशिए पर झुर्रियाँ


डॉ. महेश परिमल
श्राद्ध पक्ष चल रहा है। हमें वे बुजुर्ग याद आ रहे हैं, जिनकी ऊंगली थामकर हम जीवन की राहों में आगे बढ़े। उनकी प्रेरणा से आज हम बहुत आगे बढ़ गए हैं, लेकिन हमारी इस प्रगति को देखने के लिए आज वे हमारे बीच नहीं हैं। घर के किसी कोने पर या मुख्य स्थान पर उनकी तस्वीर पर रोज बदलती माला हमें कुछ बाताती है। उन संतानों को शत-शत नमन, जिनहोंने अपनी धरोहर को नहीं भूला? उनकी संवेदनाएँ इसी तरह हरी-भरी रहे, यही कामना? पर उन संतानों के लिए मेरे पास कोइ्र शब्द नहीं है, जो अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजन में कोई संकोच नहीं करते। आज वे अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम की राह दिखा रहे हैं, कल उनकी संतान भी ठीक ऐसा ही करेगी, संभव है इससे भी आगे बढ़कर कुछ करे। इसलिए उन्हें आज संभलना है। यदि वे आज को सँभल लेते हैं, तो कल आपने आप ही सँभल जाएगा?
देश में लगातार बढ़ रही वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताती है कि बु$जुर्ग अब हमारे लिए 'अनवांटेडÓ हो गए हैं। उन्हें हमारी जरूरत हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है। बार-बार हमें टोकते रहते हैं, वे हमें अच्छे नहीं लगते। हम स्वतंत्रता चाहते हैं, इसलिए हमने उन्हें अपनी म$र्जी से जीने के लिए छोड़ दिया। अब वे वहाँ खुश रहें और हम अपने में खुश रहें, बस....
ये विचार हैं आज के इस कंप्यूटर युग के एक युवा के। उन्हें याद नहीं है कि उसके माता-पिता ने उसे किस तरह पाला-पोसा। याद नहीं, ऐसी बात नहीं, बल्कि याद रखना ही नहीं चाहते। उनका मानना है कि उन्होंने हम पर अहसान नहीं किया, बल्कि अपने कत्र्तव्य का पालन ही किया है। सभी माता-पिता अपने बच्चों का पढ़ाते-लिखाते हैं। उन्होंने कुछ अलग नहीं किया। येे हैं रफ-टफ दुनिया के युवा विचार। कुछ वर्ष बाद जब इन्हीं युवाओं पर परिवार की जिम्मेदारी आएगी, तब ये क्या सचमुच सोच पाएँगे कि हमारे माता-पिता ने हमें किस तरह बड़ा किया?
बड़े भाई के असामयिक निधन का दु:खद समाचार मिला, हृदय द्रवित हो उठा। मैं उनसे 14 घंटे दूर था। इसलिए उनकी अंत्येष्टिï में शामिल नहीं हो पाया। अब मुश्किल यह थी कि निधन की सूचना पाने के बाद मुझे क्या करना चाहिए? घर में हम केवल चार प्राणी, कोई बुजुर्ग नहीं। वे होते तो हम शायद उनसे कुछ पूछ लेते, आखिर वे ही तो होते हैं हमारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के जानकार। ऐसे में सहसा वह झुर्रीदार चेहरा हमारे सामने होता है, जिसकी गोद में हमारा बचपन बीता, जिनकी झिड़की हमें उस समय भले ही बुरी लगी हो, पर आज गीता के उपदेश से कम नहीं लगती। उनकी चपत ने हमें भले ही रुलाया हो, पर आज अकेलेपन में वही प्यार भरी हलकी चपत हमें फिर रुलाती है।
'वसुधैव कुटुम्बकम्Ó की अवधारणा खंडित हो चुकी है। एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोडऩा नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोडऩा चाहते हैं। पीढिय़ों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं। इसकी वजह भी हम हैं। हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते। इससे उस पोपले मुँह के अहम् को चोट पहुँचती है। उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता। भविष्य में जब कभी हमारा आज्ञाकारी पुत्र हमारी परवाह न करते हुए प्रेम विवाह कर लेता है और अपनी दुल्हन के साथ हमारे सामने होता है, हमसे आशीर्वाद की माँग करता है। तब हमेें लगता है कि हमारे बुजुर्ग भी हमारे कारण इसी अंतर्वेदना की मनोदशा से गुजरे हैं। तब हमने उन्हें अनदेखा किया था।
संभव है अपने बुजुर्ग की उस मनोदशा को आपके पुत्र ने समझा हो और आपको उनकी पीड़ा का आभास कराने के लिए ही उसने यह कदम उठाया हो। ऐसा क्यों होता है कि जब बुजुर्ग हमारे सामने होते हैं, तब आँखों में खटकते हैं। वे जब भी हमारे सामने होते हैं, अपनी बुराइयों के साथ ही दिखाई देते हैं। बात-बात मेंं हमें टोकने वाले, हमें डाँटने वाले और परंपराओं का कड़ाई से पालन करते हुए दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने वाले बुजुर्ग हमें बुरे क्यों लगते हैं? आखिर वही बुजुर्ग चुपचाप अपनी गठरी समेटकर अनंत यात्रा में चले जाते हैं, तब हमें लगता है कि हम अकेले हो गए हैं। अब वह छाया हमारे सर पर नहीं रही, जो हमें ठंडक देती थी, दुलार देती थी, प्यार भरी झिड़की देती थी।
यही समय होता है पीढिय़ों के द्वंद्व का। एक पीढ़ी हमारे लिए छोड़ जाती है जीने की अपार संभावनाएँ, अपने पराक्रम से हमारे बुजुर्गों ने हमें जीवन की हरियाली दी, हमने उन्हें दिए कांक्रीट के जंगल। उन्होंने दिया अपनापन और हमने दिया बेगानापन। वे हमारी शरारतों पर हँसते-हँसाते रहे, हम उनकी इच्छाओं को अनदेखा करते रहे। वे सभी को एक साथ देखना चाहते थे, हमने अपनी अलग दुनिया बना ली। वे जोडऩा चाहते थे, हमारी श्रद्धा तोडऩे में रही। घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना। साल में एक बार अचार या बड़ी का बनना या फिर बच्चों को रोज ही प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनाना, बात-बात में ठेठ गँवई बोली के मुहावरों का प्रयोग या फिर लोकगीतों की हल्की गूँज। यह न हो तो भी कभी-कभी गाँव का इलाज तो चल ही जाता है। पर अब यह सब कहाँ?
अब यह बात अलग है कि स्वयं बुजुर्गों ने भी कई रुढि़वादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नातिन या पोते की बाइक पर पीछे निश्ंिचत होकर बैठ जाते हैं। यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा। पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं। पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह $गलत है। पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है। कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का काँधा नहीं होता। बुजुर्ग या तो संसार छोड़ चुके होते हैं या गाँव में एकाकी जीवन बिताना प्रारंभ कर देते हैं।
आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। उनके पास अनुभवों का भंडार है, उनके दिन, रातों के कार्बन लगी एक जैसी प्रतियों से छपते रहते हैं। कही कोई अंतर नहीं। वे अपने समय की तुलना आज के समय के साथ करना चाहते हैं, उनके $फर्क को रेखांकित करना चाहते हैं, पर किससे करें? उनके अंिधकांश मित्र छिटक चुके होते हैं। यदि आप किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उसे अपनी बात कहने का अवसर दें और उसकी अभिव्यक्ति का आनंद महसूस करें, तो आप पाएँगे कि आपने बिना कुछ खर्च किए परोपकार कर दिया है। फिर शायद उन्हें कराहने की जरूरत नहीं पड़े और न बिना बात बड़बड़ाने की। दिन में आपने जिस बु$जुर्ग की बात ध्यान से सुनी हो, उसे रात में चैन की नींद लेते हुए देखें, तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपका छोटा-सा बच्चा नींद में मुस्करा रहा हो।
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं। उनके पोपले मुँह से आशीर्वाद के शब्दो को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएँ हैं। दादी माँ का केवल 'बेटाÓ कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं। यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दे, तो समझो हम निहाल हो गए। लेकिन वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात का परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं। हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं। इसके बाद भी इन बुजुर्गांे के मुँह से आशीर्वाद स्वरूप यही निकलता है कि जैसा तुमने हमारे साथ किया, ईश्वर करे तुम्हारा पुत्र तुम्हारे साथ वैसा कभी न करे। देखा... । झुर्रीदार चेहरे की दरियादिली?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 5 सितंबर 2009

वर्तमान धर्म-संकट


आज शिक्षक दिवस पर विशेष
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
यह कहना की मानव-जाति आज इतिहास के महत्तम संकट के बीच से गुज़र रही है, एक सामान्य सत्य है। हमारी यह संकटापन्न स्थिति मानवात्मा के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी की आश्चर्यजनक गति का समञ्जन न होने के कारण उत्पन्न हुई है। इस तथ्य के होते हुए भी कि महान् वैज्ञानिक आविष्कारों में हमें प्रकृति की दासता से मुक्त कर दिया है, हम एक प्रकार के मनोरोग से, एक प्रकार के सांस्कृति विघटन से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं। विज्ञान ने हमें पीसती हुई गरीबी के पंजे से कुछ अंश तक छुड़ा दिया है, और शारीरिक वेदना के उत्पीणन का शमन कर दिया है। फिर भी हम एक प्रकार के आन्तरिक एकाकीपन से पीड़ित हैं। समस्त विकास वेदना से आलोड़ित होता है; संपूर्ण संक्रमण दुःखान्तिका का क्षेत्र है। परन्तु यदि हमें जीवित रहना है तो आज जिस संक्रमण को क्रियान्वित करना है, वह एक ऐसी नैतिक एवं आध्यात्मिक क्रांति है जिसकी गोद में सम्पूर्ण विश्व आ जाता है।

हमने मानव-जाति के इतिहास में दूसरी क्रान्तियाँ भी देखी हैं; जब कि हमने आग जलाने की विधि का आविष्कार किया, जब हमने पहिए का अन्वेषण किया, जह हमने वाष्प का प्रयोग किया, जब हमने विद्युत का आविष्कार किया। किन्तु आणविक ऊर्जा के विकास के कारण हुई वर्तमान क्रान्ति की तुलना में ये सब अपेक्षाकृत महत्त्वहीन हो गई हैं। आणविक ऊर्जा के अविष्कार में न केवल मानवीय प्रगति की महती सम्भावनाओं को उपस्थित कर दिया है अपितु अव्यवहित एवं सम्पूर्ण विध्वंश के खतरे को भी सामने ला दिया है। यह सब पर्वतों को हिला सकती है; सुरंगें खोद सकती है; खाद्योत्पादन में वृद्धि कर सकती है; यह संसार के सम्पन्न एवं भूखे लोगों के बीच की खाई को पाट सकती है और कुछ ऐसे प्रमुख कारणों को भी दूर कर सकती है जिनको लेकर अब तक युद्ध होते रहे हैं; या फिर यह विश्व की मानव जातियों को मृत्यु और विनाश दे सकती है।

आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य की बुराई करने तथा बुराई रोकने-दोनों प्रकार की शक्तियों को बढ़ा दिया है। मानवता के सामने आज नियति की चुनैती उपस्थित है। हम इस चुनौती का सामना कर सकते हैं और एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं जिसमें सार्वदेशिक सत्ता द्वारा प्रचारित कानून के शासन में समस्त सम्बद्ध राज्यों को विकास की स्वतन्त्रता प्राप्ति हो, या फिर यह हो सकता है कि जो महती शक्ति हमारे हाथ में है वह शस्त्रसज्जित दलों के द्वन्द्व में हम सबको ही विनष्ट कर दे।

युद्ध का मूल कारण अधिकृत क्षेत्रों का लाभ नहीं, एक-दूसरे के प्रति भय एवं घृणा है। जब तक ये बने रहेंगे, नौसन्तरण की ज़रा-सी भूल से, राडार-प्रणाली पर एक गलत छाया दिखाई पड़ने के कारण, एक क्लान्त वैमानिक एक बीमार अफसर या किसी दूसरी घटना के कारण, युद्ध छिड़ जा सकता है। राष्ट्रों के एक परिवार के रूप में रहकर, शान्ति एवं स्वतन्त्रता के बीच, एक-दूसरे के साथ सहयोग करने के मानवता के लक्ष्य तथा इस वर्तमान प्रणाली के बीच, एक-दूसरे के साथ सहयोग करने के मानवता के लक्ष्य तथा इस वर्मान प्रणाली के बीच-जिसने हमें विश्व-युद्ध दिए हैं, यान्त्रिक समाज की ओर सार्वभौम प्रगति दी है और युयुत्स भौतिकवाद दिया है-एक संघर्ष है। भविष्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रति हमारी वृत्तियों में तीव्र परिवर्तन की माँग कर रहा है। यद्यपि हम समझते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों के निबटारे के लिए सैनिक समाधान के विचार का त्याग करना आवश्यक है और मानव-जाति के कल्याण के निमित्त हमें अपनी राष्ट्रीय निष्ठाओं पर अंकुश रखने की आवश्यकता है, फिर भी हमारे राजनीतिक नेता वही पुरानी दुरभिसन्धियों एवं धमकियों, सौदेबाजियों और छल-छद्म को जारी रखे हुए हैं, मानो धनुष-बाण, तोप-तलवार के जीर्ण अस्त्र-शस्त्र अब भी विजयी होंगे।

सत्ता की जो राजनीतिक अन्तरशासकीय सम्बन्धों की पारम्परिक प्रणाली का ध्रुव-सिद्धान्त रही है, अब भी चल रही है, यद्यपि उसने नाना प्रकार के छद्मवेश बना लिए हैं। आणविक युग में सत्ता की राजनीति का तार्किक परिणाम जागतिक आधिपत्य नहीं, वरन् जागतिक नर-संहार होगा। यदि समर न हो तो स्वयं आणविक परीक्षण ही मानव कल्याण के विनाशक है। हमारे कुकृत्य ही मानव के सम्पूर्ण भविष्य को नष्ट कर देंगे। हमको यह स्वीकार ही होगा कि हम सैनिक पथ के अन्तिम बिन्दु पर आ पहुँचे हैं। जब काल्विन ने सर्वीतस को जलाया था तब कोस्टले ने कहा था—‘‘किसी आदमी को जलाना धर्म का रक्षण नहीं, बल्कि मनुष्य की हत्या है।’’ हम अपने चतुर्दिक् के शत्रुओं से अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्रों का निर्माण कर रहे हैं किन्तु शत्रु तो हमारे ही अन्दर है।

राष्ट्रवाद अब भी एक बड़ी ताकत है। उच्छेदक आयामों वाले विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्र-संघ (लीग ऑफ नेशंस) का जन्म हुआ। जब तोपें पुनः दहाड़ने लगीं तो संघ समाप्त हो गया। जब द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् विजय हुई तो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर (शासन-पत्र) पर हस्ताक्षर हुए। अभी वह जीवित सत्य नहीं बन पाया है। संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में भी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाएँ चलती हैं। यद्यपि वह अपने सिद्धान्त-समूह एवं मूल्य-व्यवस्था द्वारा, समस्त मानवता की शक्तियों एवं हितों के अनुकूल, एक स्वतन्त्र एवं शान्तिमय विश्व लोक-सामज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील है, उसके कार्य में संघर्षशील सत्ता-समूहों द्वारा बाधा पड़ती है। सदियों से कोटि-कोटि मानवों का पथ-दर्शन इस नारे से होता रहा है—‘हमारा देश, सही हो या गलत’ जो लोग राष्ट्रसंघ संस्थान का निरीक्षण करते हैं और राष्ट्रीय भाव-प्रवणता और शस्त्रीकरण की दौड़ पर ध्यान देते हैं वे गंभीर रूप से निराश हो जाते हैं और अनुभव करते हैं कि हमारी सभ्यता गर्त की कगार पर खड़ी है। वे कहते हैं कि इस विचार में कुछ भी असाधारण नहीं है, कि कला एवं विज्ञान, साहित्य एवं दर्शन सम्बन्धी अपनी संपूर्ण आश्चर्यजनक उपलब्धियों के साथ भी, हमारी सभ्यता उसी प्रकार विलुप्त हो जायेगी जिस प्रकार कि अतीत में और भी कितनी ही सभ्यताएँ नष्ट हो गई हैं। इक्माइरोसिस के संयमवादी (स्टोक)1 सिद्धान्त में कहा गया है कि संसार अग्नि से नष्ट हो जाएगा, स्लेट पुँछकर साफ-सुथरी हो जाएगी और एक नवीन आरम्भ होगा।’ अनेक प्रमुख धर्मशास्त्री हमें विश्व के समाप्ति-सम्बन्धी धर्मशास्त्रीय विवरणों की याद दिलाते रहते हैं और कहते हैं कि यह भगवत्-इच्छा के ही अन्तर्गत है कि मानव-जाति समाप्त हो जाए।

दुर्भाग्यवश जो लोग वैज्ञानिकमना हैं वे मानवीय घटनाओं की अनिवार्यता की बात करते हैं। हमें विश्वास कराया जाता है कि आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों का दबाव संसार को ऐसी तबाही की ओर ले जा रहा है जैसे कि यूनानी दुःखान्तिका में निर्मम नियति द्वारा सम्पन्न होती है। इतिहास की धारा कारणों एवं परिणाम की एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें मानव अनुन्मोचनीय रूप से जकड़ा हुआ है। मानव सम्पूर्णतः इतिहास की दया पर निर्भर है। मानव की आशाओं, भयों और अपेक्षाओं का भविष्य पर कोई प्रभाव नहीं। कहा जाता है कि हम अपने से अधिक बलवती शक्तियों की पकड़ में हैं। हमें बताया गया है कि बड़े-बड़े मामलों में घटनाओं के भीतर उसके मन में, उससे कहीं अधिक होता है जितना उसके अभिनेताओं के मन में होता है। सामूहिक वातोन्माद (हिस्टीरिया) कोटि-कोटि मानवों के जीवन को विनष्ट कर देता है। प्रकृतिवाद की धारा मानव-प्राणियों को साहस और पहल की ओर प्रेरित नहीं करती।
पौराणिक नियतिवाद (थियौलाजिकल डिटरमिनिज़्म)
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

काग के भाग बड़े सजनी...


डॉ. महेश परिमल
श्राद्ध पक्ष आते ही कौवों की तलाश शुरू हो जाती है। हम अपने पुरखों की याद करते हैं। कौवों को खीर-पूड़ी देकर उन्हें व्यंजन खिलाते हैं। इस बहाने उन झुर्रीदार चेहरों को याद कर लेते हैं, जो एक समय हमारे घर के एक कोने पर भूखे-प्यासे सिमटे से पड़े रहते थे। खैर रसखान कह गए हैं कि काग के भाग बड़े सजनी, जिसे यह मौका मिला कि वह ईश्वर के हाथ की रोटी ले भागा। यह बात तब की है, जब इस देश में कौवे थे, आज वे कहाँ है़ं, किसे दे हम खीर-पूड़ी? कैसे मनाएँ उन्हें? हमने ही तो बरबाद कर दिया, अपने आसपास का पर्यावरण? साल भर तो उसकी याद तक नहीं आती, पर पुरखों को जब याद करना होता है, तब याद आती है कागा की। कागा जो हमारे साथी थे, हमारे आसपास रहते थे, आज हमने उसे नाराज कर दिया है। वे हमारे पास नहीं हैं। अब तो वे किसी के खत के आने का संकेत भी नहीं देते। क्यों भूल गए हम कागा को?
रसखान ने इस पंक्ति के माध्यम से कागा को श्रेष्ठï पक्षी की उपमा दी है। लेकिन आज का मनुष्य जीव कितना स्वार्थी है, श्राद्ध पक्ष में कौवों को ढँूढ-ढूँढ कर खीर-पुड़ी खिलाने की चाहत रखने वाला यही मानव बाकी समय यदि अपने आसपास किसी कौवे को देख भी लेता है, तो उसे तुरंत भगाने से नहीं चूकता। इसे अपशकुनी माना जाता है। पर इसकी विशेषता से शायद हम अभी तक अनभिज्ञ हैं। आज भी यदि हमारी मुँडेर पर कौवा काँव-काँव करे, तो घर के बड़े बुजुर्ग यही कहते हैं कि आज घर पर कोई चिट्ठी या मेहमान की आमद होने वाली है। आज ई-मेल के जमाने में यह बात हमें भले ही नागवार गुजरती हो, पर यह सच है कि आगत परिस्थितियों को पहचानने में कौवे में अद्भुत क्षमता होती है। हमारे समाज के लिए यह कतई अपशकुनी नही है, अपशकुनी तो हम हैं कि इन्हें वर्ष में मात्र कुछ ही दिन याद करते हैं। बाकी दिनों में इसे भुला दिया जाता है। इसे यदि हम पर्यावरण के रक्षक के रूप में देखें, तो हम पाएँगे कि यह मानव जाति का सच्चा सेवक है।
एक समय था जब कौवे सभी जगह आसानी से दिखाई दे जाते थे, किंतु आज स्थिति यह है कि ये कौए बड़ी मुश्किल से कभी-कभी ही दिखाई देते हैं। इनकी तेजी से घटती संख्या के कारण ही आज इनकी गणना एक दुर्लभ पक्षी के रूप में की जा रही है। इसे प्रकृति की मार कहें या पर्यावरण में आया बदलाव कि आज कौए की आधी से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। शेष बची प्रजातियों में से करीब 10 से 20 प्रतिशत कौए जंगलों में जाकर बस गए हैं। आज शहरी वातावरण में कौए बहुत कम पाए जाते हैं। ऊँची-ऊँची इमारतों की छत पर लगे टी.वी. एंटीना के कोने पर अब कौवे नहीं बैठते। उनकी काँव-काँव का शोर अब कानों को नहीं बेधता।

कौओं की लगातार कम होती संख्या के पीछे हमारी उपेक्षा ही जवाबदार है। हमने कभी कौओं के प्रति अपनी प्रीति दिखाई ही नहीं। कौओं के मामले में हमने यह बात सिद्ध कर दी कि मानव स्वभाव स्वार्थी होता है। श्राद्ध पक्ष के दिनों में जब हमें पितरों की याद आती है, तो कौओं के माध्यम से हम अपनी श्रद्धा उन तक पहुँचाते हैं। बस तभी कागवास हेतु हमें कौए याद आते हैं, वरना तो कौए को देखते ही हम हाथों में लकड़ी लिए उसे उड़ाने का ही प्रयास करते हैं।
कौआ एक घरेलू पक्षी है, उसके बाद भी हम हमेशा उसकी उपेक्षा ही करते हैं। किंतु हकीकत यह है कि यह काली चमड़ी का कर्कश आवाज वाला कुरूप पक्षी चिडिय़ा से भी अधिक मिलनसार है। बार-बार यह हमारे आँगन में या छत पर बैठ कर काँव-काँव की आवाज के साथ अपने होने का परिचय देता है। न केवल परिचय देता है बल्कि हमारे द्वारा दुत्कारे जाने पर भी फिर से वह आता है और हमारी तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाता है। इसे इसकी मिलनसारिता न कहें तो क्या कहे? आँगन में फुदकती चिडिय़ा तो दाना चुगकर अपने घोंसले में चली जाती है, पर यह पक्षी छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़ों को अपना भोजन बना कर घर के आसपास की गंदगी को भी साफ करते हैं और हमें कई संक्रामक रोगों से भी बचाते हैं।
हमारे देश में यह मान्यता है कि कौए में कई विशेषताएँ हैं, जिस पर हमने ध्यान नहीं दिया, पर यह सच है कि कौए को यह आभास हो जाता है कि लोक और परलोक में क्या होने वाला है। इन कौवों की अपनी भाषा होती है। काग विज्ञान के प्राचीन लेखकों ने काग भाषा की 32 पद्धतियों का वर्णन किया है। शकुन-अपशकुन पर कौवे का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि यदि कौवा दाहिनी तरफ से घूमते हुए चक्कर लगाए, तो इसे शुभ माना जाता है। यदि उसे किसी डाली या पत्थर पर सर रगड़ते हुए देखा जाए, तो इसे भी शुभ माना जाता है। कौवा यदि माथे पर या घोड़े पर बैठा दिखाई दे, तो तुरंत वाहन मिलने की संभावना रहती है। मंदिर के शिखर पर या अनाज के ढेर पर बैठा कौवा भी शुभ का संकेत देता है। युद्ध में जाते हुए सैनिक को यदि सामने से आते हुए कौए दिखाई दें, तो यह समझा जाता है कि युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ेगा। यदि घर के आसपास दिन भर कौवे की काँव-काँव सुनाई दे, तो समझो कोई विपत्ति आने वाली है। यदि कौवा बीट कर दे, तो बीमार पडऩे या मुसीबत में फँसने की संभावना हो सकती है।
पाश्चात्य देशों में यह मान्यता है कि यदि कौवा अकेले दिखाई दे, तो वह अशुभ है और यदि समूह में कौवे किसी एक व्यक्ति के आसपास उड़ते दिखाई दे, तो समझो उसका अंत समय निकट है। यदि कौवे सामूहिक रूप से जंगल से पलायन कर जाएँ, तो समझो अकाल की विभीषिका या कोई प्राकृतिक आपदा होने वाली है। भारतीय साहित्य मेें कहीं-कहीं कौवे के महत्व को दर्शाया गया है। तुलसी दास ने रामचरित मानस में श्री राम जी की बरात निकली, उस समय होने वाले शकुन का वर्णन करते हुए लिखा है-
दाहिन काग सुखेत सुहावा
राम चरित मानस के अनुसार राम की माता कौशल्या ने राम वन से सकुशल वापस आएँ, इसके लिए कौवे के मुँह में घी-शक्कर डालने की और कौवे की चोंच पर सोना चढ़ाने की इच्छा व्यक्त की थी।
कौवेे को पक्षी जगत का सबसे चालाक पक्षी माना जाता है। इसे आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। ये दिन में हमें भले ही यदा-कदा दिखाई दे जाएँ, पर रात होते ही ये जंगल या उपवन में पेड़ पर अपना बसेरा कर लेते हैं। आजकल सिमटते जंगलों के कारण इनकी संख्या में लगातार कमी हो रही है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 2 सितंबर 2009

कहीं इंतजार की इंतेहा न हो जाए

भारती परिमल
शाम को सभी कामों से फुरसत पाकर अपना बनाव- कर पिया की यादों में खोई कोई सजनी अपने पिया का इंतजार करती हो और पिया न आए, तो उस साजन की सजनी का क्या हाल होगा? $जाहिर है कि पहले तो वह नारा$ज होगी और मन ही मन पति को बुरा-भला कहेगी। सोचेगी कि आएँगे, तो अपनी नारा$जगी $जाहिर करते हुए डाटूँगी। मगर जब इंतजार लम्बा हो जाता है, तो इसी सजनी का मन आशंकाओं से घिर जाता है। पति के घर में कदम रखते ही डाँट से उनका स्वागत करने का सोचती सजनी ईश्वर से यह प्रार्थना करती है कि बस वे सही सलामत घर आ जाएँ।
शादी के तुरंत बाद अक्सर ऐसा होता है कि पति समय पर अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं और ड्यूटी पूरी होते ही घर का रू$ख करते हैं। इसे एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी कहा जा सकता है। यह सच भी है। शुरूआत में एक दूसरे को समझने की लालसा, एक दूसरे से बहुत कुछ पाने की चाहत होती है। बस इसी रूमानी प्यार में खिंचा पति ड्यूटी खत्म होते ही घर दौड़ा चला आता है। सजनी कभी खिड़की के पास खड़ी परदे की ओट से राह तकती है, तो कभी दरवाजे पर मूर्ति बनी खड़ी होती है। प्रियतम भी इस घड़ी का इंतजार करता हुआ दौड़ा चला आता है। मगर धीरे-धीरे इस दिनचर्या में बदलाव आने लगता है। सायं जल्दी घर लौटने वाला पति अब ड्यूटी खत्म होते ही अपनी शाम, फुरसत का समय यार-दोस्तों के साथ बिताना पसंद करता है। इसका अर्थ यह नहीं कि अब प्यार का जोश ठंडा हो गया या फिर पति-पत्नी के बीच अब पहले जैसा आकर्षण न रहा।
दोनों के बीच अब भी वही चाहत और अपनापन होता है। यदि बदल जाती है, तो बस दिनचर्या। पति अन्य बातों, अन्य जिम्मेदारियों पर भी ध्यान देने लगता है। यह अच्छी बात है। ऐसा होना भी चाहिए। मगर कभी-कभी वह अन्य कत्र्तव्यों की ओर इतना झुक जाता है कि घर की अन्य जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता है। ऐसे में पत्नी यह सोचती है कि अब पति उन्हें पहले सा प्यार नहीं करते। उनका रोज-रोज देर से घर लौटना उसकी सोच को यकीन में बदल देता है। फिर शुरू होती है छोटी-छोटी तकरार जो तनाव पैदा करती है। मानसिक तनाव से घिरे पति-पत्नी एक-दूसरे से दूर चले जाते हैं। घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है। इसका पहला प्रभाव स्वयं के स्वास्थ्य पर पड़ता है। ऐसे में यदि घर में दो-चार दिन के लिए मेहमान आ जाएँ, तो न तो उनका स्वागत करते बनता है, न ही स्थिति सामान्य हो पाती है। फिर लोगों की तो आदत होती है न तिल का ताड़ बनाने की।
अक्सर रात देर से घर लौटने पर मासूम लाडलों को भी सोता हुआ ही पाया जाता है। दिन भर खेलते-खेलते, मटरगश्ती करते, स्कूल का होमवर्क करते, मम्मी की डाँट और प्यार का परिचय पाते ये नन्हें, पापा के आने पर उनसे अपनी आपबीती कहने के सपने बुनते पापा से बिना मिले ही नींद की आगोश में सो जाते हैं। फिर सुबह स्कूल का स$फर तय करते हैं। ऐसे में उन्हें पापा से प्यार कम ही मिल पाता है। उन बच्चों की हालत तो और भी दयनीय होती है, जिनके पिता अक्सर दौरे पर रहते हैं। ऐसे में बच्चे पिता के प्यार से वंचित रह जाते हैं।
ये मासूम यह नहीं जानते कि उनके पिता की यह व्यस्तता उन्हीं के सुखद भविष्य के लिए ही है। भविष्य को सुंदर बनाने के लिए ही उनके पिता की आँखे कच्चे-पक्के सपने बुन रही है और वे उनके लिए दिन-रात एक कर मेहनत कर रहे हैं। दुनियादारी की यह कड़वी सच्चाई इन मासूमों की समझ से परे होती है। वे तो बस अपने बचपन में अपनों का साथ चाहते हैं। ये साथ माँ के रूप में तो उन्हें मिल जाता है, पर वे अधूरा साथ नहीं चाहते। वे तो अपनी मासूम मुस्कराहट, उन्मुक्त खिलखिलाहट में मम्मी-पापा दोनों का साथ चाहते हैं। पापा का रोज रात को देर से घर लौटना, कई दिनों तक घर से बाहर दौरे पर रहना, यह सब उन्हें भीतर से तोड़ देता है। फिर पापा के घर में रहने पर भी वे यह देखते हैं कि मम्मी पापा के बीच झगड़े हो रहे हैं, तो इस मानसिक तनाव के बीच बच्चे भी तनाव में घिर जाते हैं। ऐसे में बच्चा यदि एकाकी हो जाए या गलत राहों पर चला जाए, तो यह कोई आश्चर्य नहीं।
बात छोटी सी है मगर है बहुत गंभीर। दाम्पत्य जीवन पति-पत्नी के आपसी प्रेम और विश्वास के म$जबूत खम्भों पर टिका होता है। परिवार में होने वाली छोटी-छोटी तकरार और उनका बच्चों के दिमाग पर पड़ता प्रभाव आदि बातें इन खम्भों को खोखला करने में दीमक का काम करती है।
रेणु इस दिन शाम को राहुल का इंतजार करती रह गई। वह कहकर गया था कि शाम को कुछ खरीदारी करनी है, तो तुम तैयार रहना। रेणु अपने काम निपटा कर तैयार होकर राहुल का इंतजार करने लगी। उसका इंतजार रात 9 बजे खत्म हुआ। उसे राहुल पर गुस्सा भी आ रहा था और बुरी शंका से मन घबरा भी रहा था। ऊपर से राहुल न ऑफिस में था न ही उसका मोबाईल काम कर रहा था। अब रेणु करे तो करे क्या? इसी ऊहापोह में रात के 9 बज गए। मगर जब राहुल ने घर आते ही यह कहा कि मैं तो भूल ही गया था, तो वह खीज उठी। एक तो रेणु कई दिनों से फिल्म देखने या कहीं घूमने जाने का कह रही थी और ऊपर से राहुल की यह सफाई। उसका गुस्सा तो सातवें आसमान तक पहुँच गया। उसने राहुल को खूब बुरा-भला कहा। बदले में राहुल के अहम् पर चोट पहुँची, तो वह तिलमिला उठा। दोनों के बीच दो-दो बातें हो ही गई। रात का खाना यूँ ही पड़ा रहा और दोनों भूखे ही सो गए। मगर रेणु का गुस्सा इस पर भी शांत नहीं हुआ, उसने दो दिन तक राहुल से बात नहीं की। यहाँ गलती रेणु की है। उसे बात को रबड़ की तरह इतना नहीं खींचना चाहिए था कि चोट उसे ही लगे। क्योंकि राहुल तो फिर अपने यार-दोस्तों में घिर गया। अकेलापन तो रेणु को मिला।
शरद रोज देर रात घर लौटता और अपनी काम लोलुपता शांत कर सो जाता। उसे न बच्चों से मतलब था और न ही पत्नी की अन्य $जरूरतों से। ऐसे में गिरिजा ने उसे एक मतलबी इंसान समझा। उसे समझाने की कोशिश भी की मगर शरद को घर के प्रति उसका कर्तव्य समझा न सकी। फिर यह सोच कर कि शरद को घर के हालात को लेकर चिंता है, उसने भी सर्विस करना शुरू कर दिया। मगर शरद पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह तो दौलत को जमा करने में, अपने स्टेटस को बनाने के नशे में ही मदहोश था। इस मदहोशी में वह घर से दूर हो गया। इतना दूर कि सर्विस करती गिरिजा जब पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गई और उसे लगा कि वह बच्चों की जिम्मेदारी उठा सकती है, तो वह शरद से अलग हो गई और कानूनी तौर पर उसने शरद से तलाक ले लिया।
ये सब मात्र उदाहरण नहीं, हकीकत है - घरोंदों के तिनका-तिनका बन बिखरने की, परिवारों के टूटने की सच्चाई है। यह टूटन, बिखरन तनावों से शुरू होती है और पूरी जिंदगी को तनाव का सैलाब बना देती है। इस सैलाब में डूबती-उतरती जिंदगी एक बोझ बन जाती है, मगर इंसान इसे जीने पर लाचार रहता है।
जिस तरह बूँद-बूँद से सागर बनता है, पत्थर-पत्थर से पहाड़ बनता है, उस तरह छोटी-छोटी समस्याएँ तनावों का जाल बुनती हैं। इन जालों को काटकर फेंक दीजिए। किसी ने कहा है कि जिंदगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए। उसमें खुशियों का, प्रेम का, उदारता का, आपसी मेलजोल का बड़प्पन होना चाहिए। इसलिए कम जीयो मगर प्रेम से जीयो का मंत्र अपनाकर जिंदगी को खूबसूरत बनाना चाहिए। यही समय की मांग है। यदि इसे न स्वीकारा गया, तो सचमुच इंतजार की इंतेहा हो जाएगी।
भारती परिमल

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

हिन्दी पखवाड़े का महत्व

सितम्‍बर माह आते ही लोगों को हिंदी के बारे में सोचने का अवसर मिलता है। इसे याद करने के लिए हिंदी दिवस मनाया जाता है, ताकि भूल न जाऍं। श्रादध पक्ष के आसपास आने वाला हिंदी पखवाड़ा न जाने किस ओर संकेत करता है। हमारी सोच लगातार अंगरेजीपरस्‍त होती जा रही है। ऐसे में हिंदी पखवाड़े का आना कई सवाल खड़े करता है। पिछले 6 दशक में भारत सरकार के मंत्रालयों में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व जरूर बनाए रखा है। लेकिन विकास संबंधी योजना की सफलता में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, अगर राज्य सरकारें मुस्तैदी से केन्द्रीय योजना को हिन्दी या अपनी भाषाओं में न ढाले तो योजना फाइल के डोरों में बंधी रह जाती है।

डॉ. इंदिरा मिश्र
भारत को स्वतंत्र हुए 62 वर्ष हो गए और हिन्दी भाषा का पखवाड़ा मनाना जरूरी लगता है, क्योंकि भाषा एक अर्थ में मनुष्य की अस्मिता ही है। इस दृष्टि से हिन्दी के रूप में हमारी अस्मिता अब कितनी विकसित हुई, हिन्दी पखवाडे क़े बहाने अब यह देखना सुनना अच्छा लगता है।
हिन्दी मेरी मातृभाषा है। अपनी किसी चीज की, या आत्म-प्रशंसा करना बहुत सुसंस्कृत नहीं होता। फिर भी जब बात वस्तुनिष्ठ तथ्यों के आधार पर कहना हो तो, किसी को तो उसे कहना ही पडेग़ा अन्यथा उसका महत्व या संदर्भ स्पष्ट नहीं होगा।
हिन्दी पखवाड़ा सरकारी विभागों द्वारा मनाया जाता है, क्योंकि उन्हें ऊपर से निर्देश होते हैं, लेकिन हिन्दी के प्रचार की नीति पूरे भारत की अस्मिता से जुड़ी है। केवल यही भाषा पूरे भारत में एक संपर्क भाषा के रूप में चल सकती है, और यही नहीं, यह काफी अनुपात में चल भी रही है। जहां तक कुछ अहिन्दी माने जाने वाले प्रदेश जैसे पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र का संबंध है, यहां तो हिन्दी बोलने चालने में कोई दिक्कत ही नहीं है, परंतु दक्षिण के राज्य जैसे आन्ध्रप्रदेश व केरल के ग्रामीण इलाकों में भी उर्दू का चलन मुस्लिम समुदाय में होने के कारण हिन्दी समझने वालों की कोई कमी नहीं है।
पिछले 6 दशक में भारत सरकार के मंत्रालयों में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व जरूर बनाए रखा है। लेकिन विकास संबंधी योजना की सफलता में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, अगर राज्य सरकारें मुस्तैदी से केन्द्रीय योजना को हिन्दी या अपनी भाषाओं में न ढाले तो योजना फाईल के डोरों में बंधी रह जाती है। इसे मैंने खुद देखा है। ध्यान देने योग्य है कि प्रचार-प्रसार और शिक्षा के कई तंत्रों में जैसे कि दूरदर्शन, केन्द्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय के पाठयक्रम एवं भारतीय सिनेमा ने हिन्दी की लोकप्रियता को अभूतपूर्व तरीके से बढ़ाया है।
प्रतिवर्ष अखिल भारतीय सेवा में सैकड़ों लोग प्रवेश करते है और वे अपनी मातृभाषा अथवा अंग्रेजी से अलग किसी दूसरी भाषा में काम करना सीखते हैं और हिन्दी उन्हें अक्सर स्वयमेव आ ही जाती है। उन्हें राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में भी हिन्दी सिखाई जाती है। इसी प्रकार बैंक व सार्वजनिक उपक्रमों में भी भारत के 45 करोड़ हिन्दी-उर्दू भाषी लोगों की उपस्थिति के कारण हिन्दी संपर्क भाषा बन गई है। केवल इसको औपचारिक चोला पहनाना बाकी है। हिन्दी युवाओं में लोकप्रिय है
देखा गया है कि उड़ीसा, बंगाल तथा तमिलनाडु में भी बच्चों को हिन्दी सीखने में रुचि होती है। केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पाठयक्रमों में वे भाषा के रूप में हिन्दी को लेना काफी पसंद करते हैं, और इससे यह स्पष्ट होता है कि यही युवा वर्ग की भाषा है और भविष्य में इसका फैलाव और अधिक हो जायेगा। भारत सरकार के मंत्रलाय व संचालनालय तथा अधिकतर सार्वजनिक उपक्रमों के मुख्यालय हिन्दी भाषी प्रदेश दिल्ली में स्थित होने के कारण इसके कर्मियों को वहां जाना-आना पड़ता है। संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी जन सामान्य से व्यवहार के लिए हिन्दी का उपयोग लाजिमी है दूसरे अब भारत सन् 1947 वाला भारत नहीं रह गया है। प्रतिदिन सैंकड़ों हवाई उड़ानें, टे्रनें तथा बसें भाषारूपी नदियों का जल इधर-उधर आप्लावित करती रहती हैं। इसमें एक संपर्क भाषा अपनाई जानी लाजिमी है अब इसे थोपने की आवश्यकता ही नहीं रह गई है।
अंतरराष्‍ट्रीय संपर्क के लिए अंग्रेजी
हिन्दी की तुलना अंग्रेजी से करते हुए एक को अच्छा और दूसरे को बुरा बताने का कोई लाभ या औचित्य नहीं है, किन्तु जहां हिन्दी हमारी सांस्कृतिक एकरूपता को आत्मसात कर लेती है, वहीं अंग्रेजी विदेशी ज्ञान, प्रौद्योगिकी, नए आविष्कार एवं विश्व के वित्तीय परिदृश्य को हमारे सामने उद्धाटित करती है। यह अखिल विश्व के राजनैतिक और शोध संबंधी परिदृश्य को हमें बताती है तथा भौगोलिक, ब्रह्माण्डीय घटनाओं को मानव-स्वास्थ्य, मानव-स्वभाव, मनोविज्ञान संबंधी शोध व मीमांसाओं के नतीजों को हमारे सामने लाती है। अत: अगर हम उससे मुंह मोडेंग़े तो हम विकास की दौड़ में पिछड़ जाएंगे।
हिन्दी की खूबियां
हमारी भाषा में एक से एक खूबियां हैं तभी इसकी लोकप्रियता की कोई सीमा नहीं रह गई है। मानव कंठ से निकलने वाले बहुत कम ऐसे स्वर हैं, जिन्हें हिन्दी मेें नहीं लिखा जा सकता, उदाहरण के लिए 'ज' और 'श' के बीच का स्वर, जिसे फे्रन्च 'मैं' के लिए उपयुक्त किया जाता है, अथवा 'ह' का ऐसा शब्द छाती से अधिक वायु दबाव के साथ निकलता है, जैसे मोहम्मद में 'ह' का उच्चारण। इसी प्रकार गुजराती में 'ब' शब्द का उच्चारण 'ब्ब' के रूप में किया जाता है, या 'ख' जैसे उच्चारण वाला शब्द जिसे अंग्रेजी के 'जे' अक्षर से लिखा जाता है। परंतु इसके अलावा मुझे तो इसमें ऐसा कोई शब्द नहीं लगता, जो नहीं लिखा जा सकता। इसमें उड़िया या बंगाली के समान कोई 'ऑ' या 'ओ' या 'श' या 'स' ध्वनि के प्रति कोई विशेष आग्रह भी नहीं है, न तमिल के समान 'फ' या 'भ' जैसे शब्दों का लोप है। बंगाली में हवा को 'हवुया' करके लिखना पड़ता है और अंग्रेजी में 'द' शब्द को प्रमाणित रूप से लिखने का कोई जरिया नही है। दया को डया भी पढ़ा जा सकता है, डाया भी तथा डाय भी! हिन्दी में ऐसा कोई भ्रम नहीं होता।
हिन्दी की लोकप्रियता तो मुझे 1960 में ही काफी अह्लादकारी लगी। मसूरी में 'लैण्डहोर बाजार' पर चलते हुए, मैंने देखा कि किसी भारतीय ने सड़क के ऊपरी सिरे से चले आ रहे, एक अंग्रेज से पूछा ''व्हाट इज द टाईम''। अंग्रेज ने अपनी हाथ घड़ी पर नजर डालकर कहा ''ढाई बजे हैं।'' अक्सर मसूरी के लाल टिब्बे पर हिन्दी स्कूल में अंग्रेज लोग साफ-साफ शब्दों में कौंवें के पानी पीने की कहानी को लिखते नजर आते थे। हम माने या माने हमारी हिन्दी सभी भाषाओं की बिन्दी है। हिन्दी के कुछ शब्द और मुहावरे तो लाजवाब हैं, जिन्हें सुनने पर ही दोहराने का मन करता है। जैसे 'वाह', 'अरे, मर गए!' 'होश में आओ,' 'यह हुई न बात,' 'ईंट का जवाब पत्थर से, वारे न्यारे, लो कर लो बात, चने के झाड़ पर चढ़ाना, जंगल में मोर नाचा किसने देखा, आदमी बन जाओ, इन्सानियत, धंधा, चौपट, तस्वीर, ताल, भजन, कीर्तन, नाक में दम, लेने के देने, बेमतलब' आदि। अपनी भाषा में बोलने से लोगों में एक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। अगर हम दो भारतीय इटली या जर्मनी में मिले और अंग्रेजी में ही बात करना शुरू कर दें, तो अंग्रेज लोग आश्चर्य से हमारी मुंह की ओर देखेंगे। पूछेंगे, तुम्हारी अपनी कोई भाषा नहीं है? हम ऐसा क्यों कहेंगे, जबकि भारत के 45 करोड़ लोग हिन्दी भाषी है और शेष को हिन्दी पसन्द है।
प्रांतीय भाषाओं से कोई होड़ नहीं
यह बताना जरूरी है कि भारत में 45 करोड़ लोग हिन्दी, 8 करोड़ बंगाली, 6.5 करोड़ तमिल, 8 करोड़ तेलुगु, 5 करोड़ गुजराती, 7.5 करोड़ मराठी, 3.3 करोड़ उड़िया, 1.5 करोड़ असमिया, 40 लाख लोग कश्मीरी बोलते हैं। इन भाषाओं से हिन्दी की कोई होड़ नहीं है। भाषा तो किसी प्रांत की वैसी ही परिचायक है, जैसे किसी तरूणी के बालों का रंग उसका परिचायक होता है। हम तो यहां उस सुविधा और पहचान की बात कर रहे हैं, जो पूरे देश में एक संपर्क भाषा के होने से होती है। चूंकि अंग्रेजी केवल 2 प्रतिशत भारतीयों की भाषा है। अत: यह भारत में तो संपर्क भाषा कदापि नहीं हो सकती। बेशक, एक आम भारतीय के लिए अंग्रेजी बोल पाना, एक सुंदर स्वप् की तरह है, जो उसके अहम् को तुष्टि देता है। पर उसे तसल्ली अपनी भाषा में बोलकर ही मिलती है परंतु आज कई अहिन्दी भाषी लोगों के लिए हिन्दी फर्राटे से बोलना भी एक सुंदर स्वप् है। चूंकि इस भाषा में उसकी समूची संस्कृति झलकती है। उर्दू मिश्रित हिन्दी न केवल 45 करोड़ भारतीयों की भाषा है, बल्कि यह विशाल भारत के प्रभाव में आए, अनेक अन्य देशों के लोगोें की भी भाषा है, जैसे दुबई, दक्षिण यमन, पाकिस्तान, नेपाल, मॉरिशस, सुरीनाम, फिजी, ट्रिनीडाड। अमरीका में बसे 32 लाख लोगों में से आधों की यही भाषा होगी, ऐसा अनुमान है। भारतीय विदेश मंत्रालय हमारे विदेशों में बसे लोगों के लिए गगनांचल पत्रिका भी निकालता है।
हिन्दी का नवयुग
आज हिन्दी का वर्चस्व काफी बढ़ गया है। इन्डिया टुडे या आउटलुक पत्रिकाओं के हिन्दी और अंग्रेजी अंकों की तुलनात्मक बिक्री बतायेगी कि बाजार में हिन्दी की मांग कितनी तीव्र है। जहां तक अखबारों का सवाल है, अकेले रायपुर से 16 अखबार रोज निकलते है।
इनमें मात्र दो ही अंग्रेजी के है। शेष हिन्दी के हैं। हिन्दी साहित्य की कई वेबसाईट भी है। अब हमें हिन्दी के एक नवयुग का अभ्युदय समीप ही दिखाई देता है, जब संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्रवाईयों का भी स्थल पर हिन्दी में अनुवाद, सदस्यों को उपलब्ध होगा। (देशबंधु से साभार)
डॉ. इंदिरा मिश्र
हिन्दी पखवाड़े का महत्व
पिछले 6 दशक में भारत सरकार के मंत्रालयों में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व जरूर बनाए रखा है। लेकिन विकास संबंधी योजना की सफलता में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, अगर राज्य सरकारें मुस्तैदी से केन्द्रीय योजना को हिन्दी या अपनी भाषाओं में न ढाले तो योजना फाईल के डोरों में बंधी रह जाती है।

डॉ. इंदिरा मिश्र
भारत को स्वतंत्र हुए 62 वर्ष हो गए और हिन्दी भाषा का पखवाड़ा मनाना जरूरी लगता है, क्योंकि भाषा एक अर्थ में मनुष्य की अस्मिता ही है। इस दृष्टि से हिन्दी के रूप में हमारी अस्मिता अब कितनी विकसित हुई, हिन्दी पखवाडे क़े बहाने अब यह देखना सुनना अच्छा लगता है।
हिन्दी मेरी मातृभाषा है। अपनी किसी चीज की, या आत्म-प्रशंसा करना बहुत सुसंस्कृत नहीं होता। फिर भी जब बात वस्तुनिष्ठ तथ्यों के आधार पर कहना हो तो, किसी को तो उसे कहना ही पडेग़ा अन्यथा उसका महत्व या संदर्भ स्पष्ट नहीं होगा।
हिन्दी पखवाड़ा सरकारी विभागों द्वारा मनाया जाता है, क्योंकि उन्हें ऊपर से निर्देश होते हैं, लेकिन हिन्दी के प्रचार की नीति पूरे भारत की अस्मिता से जुड़ी है। केवल यही भाषा पूरे भारत में एक संपर्क भाषा के रूप में चल सकती है, और यही नहीं, यह काफी अनुपात में चल भी रही है। जहां तक कुछ अहिन्दी माने जाने वाले प्रदेश जैसे पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र का संबंध है, यहां तो हिन्दी बोलने चालने में कोई दिक्कत ही नहीं है, परंतु दक्षिण के राज्य जैसे आन्ध्रप्रदेश व केरल के ग्रामीण इलाकों में भी उर्दू का चलन मुस्लिम समुदाय में होने के कारण हिन्दी समझने वालों की कोई कमी नहीं है।
पिछले 6 दशक में भारत सरकार के मंत्रालयों में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व जरूर बनाए रखा है। लेकिन विकास संबंधी योजना की सफलता में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, अगर राज्य सरकारें मुस्तैदी से केन्द्रीय योजना को हिन्दी या अपनी भाषाओं में न ढाले तो योजना फाईल के डोरों में बंधी रह जाती है। इसे मैंने खुद देखा है। ध्यान देने योग्य है कि प्रचार-प्रसार और शिक्षा के कई तंत्रों में जैसे कि दूरदर्शन, केन्द्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय के पाठयक्रम एवं भारतीय सिनेमा ने हिन्दी की लोकप्रियता को अभूतपूर्व तरीके से बढ़ाया है।
प्रतिवर्ष अखिल भारतीय सेवा में सैकड़ों लोग प्रवेश करते है और वे अपनी मातृभाषा अथवा अंग्रेजी से अलग किसी दूसरी भाषा में काम करना सीखते हैं और हिन्दी उन्हें अक्सर स्वयमेव आ ही जाती है। उन्हें राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में भी हिन्दी सिखाई जाती है। इसी प्रकार बैंक व सार्वजनिक उपक्रमों में भी भारत के 45 करोड़ हिन्दी-उर्दू भाषी लोगों की उपस्थिति के कारण हिन्दी संपर्क भाषा बन गई है। केवल इसको औपचारिक चोला पहनाना बाकी है। हिन्दी युवाओं में लोकप्रिय है
देखा गया है कि उड़ीसा, बंगाल तथा तमिलनाडु में भी बच्चों को हिन्दी सीखने में रुचि होती है। केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पाठयक्रमों में वे भाषा के रूप में हिन्दी को लेना काफी पसंद करते हैं, और इससे यह स्पष्ट होता है कि यही युवा वर्ग की भाषा है और भविष्य में इसका फैलाव और अधिक हो जायेगा। भारत सरकार के मंत्रलाय व संचालनालय तथा अधिकतर सार्वजनिक उपक्रमों के मुख्यालय हिन्दी भाषी प्रदेश दिल्ली में स्थित होने के कारण इसके कर्मियों को वहां जाना-आना पड़ता है। संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी जन सामान्य से व्यवहार के लिए हिन्दी का उपयोग लाजिमी है दूसरे अब भारत सन् 1947 वाला भारत नहीं रह गया है। प्रतिदिन सैंकड़ों हवाई उड़ानें, टे्रनें तथा बसें भाषारूपी नदियों का जल इधर-उधर आप्लावित करती रहती हैं। इसमें एक संपर्क भाषा अपनाई जानी लाजिमी है अब इसे थोपने की आवश्यकता ही नहीं रह गई है।
अंतरराष्‍टय संपर्क के लिए अंग्रेजी
हिन्दी की तुलना अंग्रेजी से करते हुए एक को अच्छा और दूसरे को बुरा बताने का कोई लाभ या औचित्य नहीं है, किन्तु जहां हिन्दी हमारी सांस्कृतिक एकरूपता को आत्मसात कर लेती है, वहीं अंग्रेजी विदेशी ज्ञान, प्रौद्योगिकी, नए आविष्कार एवं विश्व के वित्तीय परिदृश्य को हमारे सामने उद्धाटित करती है। यह अखिल विश्व के राजनैतिक और शोध संबंधी परिदृश्य को हमें बताती है तथा भौगोलिक, ब्रह्माण्डीय घटनाओं को मानव-स्वास्थ्य, मानव-स्वभाव, मनोविज्ञान संबंधी शोध व मीमांसाओं के नतीजों को हमारे सामने लाती है। अत: अगर हम उससे मुंह मोडेंग़े तो हम विकास की दौड़ में पिछड़ जाएंगे।
हिन्दी की खूबियां
हमारी भाषा में एक से एक खूबियां हैं तभी इसकी लोकप्रियता की कोई सीमा नहीं रह गई है। मानव कंठ से निकलने वाले बहुत कम ऐसे स्वर हैं, जिन्हें हिन्दी मेें नहीं लिखा जा सकता, उदाहरण के लिए 'ज' और 'श' के बीच का स्वर, जिसे फे्रन्च 'मैं' के लिए उपयुक्त किया जाता है, अथवा 'ह' का ऐसा शब्द छाती से अधिक वायु दबाव के साथ निकलता है, जैसे मोहम्मद में 'ह' का उच्चारण। इसी प्रकार गुजराती में 'ब' शब्द का उच्चारण 'ब्ब' के रूप में किया जाता है, या 'ख' जैसे उच्चारण वाला शब्द जिसे अंग्रेजी के 'जे' अक्षर से लिखा जाता है। परंतु इसके अलावा मुझे तो इसमें ऐसा कोई शब्द नहीं लगता, जो नहीं लिखा जा सकता। इसमें उड़िया या बंगाली के समान कोई 'ऑ' या 'ओ' या 'श' या 'स' ध्वनि के प्रति कोई विशेष आग्रह भी नहीं है, न तमिल के समान 'फ' या 'भ' जैसे शब्दों का लोप है। बंगाली में हवा को 'हवुया' करके लिखना पड़ता है और अंग्रेजी में 'द' शब्द को प्रमाणित रूप से लिखने का कोई जरिया नही है। दया को डया भी पढ़ा जा सकता है, डाया भी तथा डाय भी! हिन्दी में ऐसा कोई भ्रम नहीं होता।
हिन्दी की लोकप्रियता तो मुझे 1960 में ही काफी अह्लादकारी लगी। मसूरी में 'लैण्डहोर बाजार' पर चलते हुए, मैंने देखा कि किसी भारतीय ने सड़क के ऊपरी सिरे से चले आ रहे, एक अंग्रेज से पूछा ''व्हाट इज द टाईम''। अंग्रेज ने अपनी हाथ घड़ी पर नजर डालकर कहा ''ढाई बजे हैं।'' अक्सर मसूरी के लाल टिब्बे पर हिन्दी स्कूल में अंग्रेज लोग साफ-साफ शब्दों में कौंवें के पानी पीने की कहानी को लिखते नजर आते थे। हम माने या माने हमारी हिन्दी सभी भाषाओं की बिन्दी है। हिन्दी के कुछ शब्द और मुहावरे तो लाजवाब हैं, जिन्हें सुनने पर ही दोहराने का मन करता है। जैसे 'वाह', 'अरे, मर गए!' 'होश में आओ,' 'यह हुई न बात,' 'ईंट का जवाब पत्थर से, वारे न्यारे, लो कर लो बात, चने के झाड़ पर चढ़ाना, जंगल में मोर नाचा किसने देखा, आदमी बन जाओ, इन्सानियत, धंधा, चौपट, तस्वीर, ताल, भजन, कीर्तन, नाक में दम, लेने के देने, बेमतलब' आदि। अपनी भाषा में बोलने से लोगों में एक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। अगर हम दो भारतीय इटली या जर्मनी में मिले और अंग्रेजी में ही बात करना शुरू कर दें, तो अंग्रेज लोग आश्चर्य से हमारी मुंह की ओर देखेंगे। पूछेंगे, तुम्हारी अपनी कोई भाषा नहीं है? हम ऐसा क्यों कहेंगे, जबकि भारत के 45 करोड़ लोग हिन्दी भाषी है और शेष को हिन्दी पसन्द है।
प्रांतीय भाषाओं से कोई होड़ नहीं
यह बताना जरूरी है कि भारत में 45 करोड़ लोग हिन्दी, 8 करोड़ बंगाली, 6.5 करोड़ तमिल, 8 करोड़ तेलुगु, 5 करोड़ गुजराती, 7.5 करोड़ मराठी, 3.3 करोड़ उड़िया, 1.5 करोड़ असमिया, 40 लाख लोग कश्मीरी बोलते हैं। इन भाषाओं से हिन्दी की कोई होड़ नहीं है। भाषा तो किसी प्रांत की वैसी ही परिचायक है, जैसे किसी तरूणी के बालों का रंग उसका परिचायक होता है। हम तो यहां उस सुविधा और पहचान की बात कर रहे हैं, जो पूरे देश में एक संपर्क भाषा के होने से होती है। चूंकि अंग्रेजी केवल 2 प्रतिशत भारतीयों की भाषा है। अत: यह भारत में तो संपर्क भाषा कदापि नहीं हो सकती। बेशक, एक आम भारतीय के लिए अंग्रेजी बोल पाना, एक सुंदर स्वप् की तरह है, जो उसके अहम् को तुष्टि देता है। पर उसे तसल्ली अपनी भाषा में बोलकर ही मिलती है परंतु आज कई अहिन्दी भाषी लोगों के लिए हिन्दी फर्राटे से बोलना भी एक सुंदर स्वप् है। चूंकि इस भाषा में उसकी समूची संस्कृति झलकती है। उर्दू मिश्रित हिन्दी न केवल 45 करोड़ भारतीयों की भाषा है, बल्कि यह विशाल भारत के प्रभाव में आए, अनेक अन्य देशों के लोगोें की भी भाषा है, जैसे दुबई, दक्षिण यमन, पाकिस्तान, नेपाल, मॉरिशस, सुरीनाम, फिजी, ट्रिनीडाड। अमरीका में बसे 32 लाख लोगों में से आधों की यही भाषा होगी, ऐसा अनुमान है। भारतीय विदेश मंत्रालय हमारे विदेशों में बसे लोगों के लिए गगनांचल पत्रिका भी निकालता है।
हिन्दी का नवयुग
आज हिन्दी का वर्चस्व काफी बढ़ गया है। इन्डिया टुडे या आउटलुक पत्रिकाओं के हिन्दी और अंग्रेजी अंकों की तुलनात्मक बिक्री बतायेगी कि बाजार में हिन्दी की मांग कितनी तीव्र है। जहां तक अखबारों का सवाल है, अकेले रायपुर से 16 अखबार रोज निकलते है।
इनमें मात्र दो ही अंग्रेजी के है। शेष हिन्दी के हैं। हिन्दी साहित्य की कई वेबसाईट भी है। अब हमें हिन्दी के एक नवयुग का अभ्युदय समीप ही दिखाई देता है, जब संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्रवाईयों का भी स्थल पर हिन्दी में अनुवाद, सदस्यों को उपलब्ध होगा

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