बुधवार, 23 सितंबर 2009

सिस्टम’ बन चुका है भारत में भ्रष्टाचार


फिल्म धूप में जब एक शहीद फौजी अफसर का पिता ओमपुरी अपने स्व. बेटे के नाम पर आवंटित पेट्रोल पंप की जमीन लेने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटता है तो एक भ्रष्ट अधिकारी उससे कहता है कि वो तो चीज क्या है। अगर आज गांधी जी भी वापस आ जाते तो बिना रिश्वत दिए अपना साबरमती आश्रम भी वापस नहीं ले पाते।
आजादी के इन बासठ सालों में हमने कितना विकास किया है, विश्व में हमारी साख कितनी बनी है, प्रति व्यक्ति आय में कितना इजाफा हुआ है, शिक्षा का कितना विकास हुआ है? इन विषयों पर मतभेद हो सकते हैं, लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था के तीनों अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, जिन पर संविधान ने देश चलाने की जिममेदारी डाली है, भ्रष्टाचार की दल-दल में धंस चुके हैं, इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती। यह भ्रष्टाचार अब हमारे देश का सिस्टम बन चुका है। आज भारत का हर सामान्य बुजुर्ग नई पीढ़ी को यही सलाह देता नजर आ रहा है कि इसी सिस्टम में रहने में समझदारी है। अगर उससे उलझेगा तो परेशानी में पड़ जायेगा या टूट कर बिखर जायेगा। कई फिल्मों में नायक को इस सिस्टम से लड़ कर विजयी होता दिखाया गया है लेकिन उस लड़ाई में उसे जो मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं और जो कुर्बानियां देनी पड़ती हैं क्या आम आदमी वैसा कर सकता है? ये फिल्में नायक के जुझारूपन से कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार के सिस्टम की भयावहता का प्रदर्शन करके उसका खौफ फैलाने का काम करती हैं। कई विज्ञापनों में दिखाया जाता है कि अगर आप रिश्वत नहीं देंगे तो कोई ले कैसे लेगा लेकिन वे इस वास्तविकता को भूल जाते हैं कि क्या कोई अपनी मर्जी से रिश्वत देता है? नहीं, यह सिस्टम उसे रिश्वत देने पर मजबूर कर देता है।
जब भी कोई नई सरकार बनती है, उसका प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री किसानों, आदिवासियों, पिछड़ों, गरीबों और बेरोजगारों की मदद के लिए ऐसी-ऐसी योजनाओं की घोषणा कर देता है जिसे देख कर लगने लगता है कि इस सरकार के पांच साल पूरा होने से पहले ही इनकी समस्याओं का निदान हो जायेगा लेकिन सौ दिन पूरे होते-होते वह यह भी मान लेता है कि उसकी सारी योजनायें भ्रष्टाचार के इस सिस्टम की भेंट चढ़ गई हैं। उसके बाद इसे आम जनता की किस्मत मान कर वो सब कुछ सिस्टम के सहारे छोड़ कर अपना कार्यकाल पूरा करने में लग जाता है क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि इसी सिस्टम की नाव पर चढ़ कर वह यहां तक पहुंचा है और अगली बार भी यही सिस्टम उसे यहां वापस ला सकता है।
अभिनेताओं से बड़े कलाकार हमारे नेता आये दिन जनता की परेशानियों का कारण भ्रष्टाचार बता कर घड़ियाली आंसू बहाते दिखाई देते हैं जबकि यह सम्पूर्ण सिस्टम उन्हीं की देन है। वे ही इसके सृजक, पालक और पोषक हैं। अब राजनीति एक धंधा बन गया है और नेता धंधेबाज। उनका एक ही सिद्धांत रह गया है कि चुनाव में 10 करोड़ लगाओ और कुर्सी पर बैठ कर 100 करोड़ कमाओ। पूरे देश में ऐसे दलाल पैदा हो गए हैं जो पैसा लेकर इन नेताओं के लिए चुनाव में जनता को ठगने के नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। इनमें मीडिया और धर्म के धंधेबाज भी शामिल हैं।

फिल्में, नाटक और पुस्तकें समकालीन समाज का दर्पण कहलाती हैं। एक फिल्म में जब एक शहीद फौजी अफसर का पिता अपने स्व. बेटे के नाम पर आबंटित पैट्रोल पंप की जमीन लेने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटता है तो एक भ्रष्ट अधिकारी उससे कहता है कि वो तो चीज क्या है। अगर आज गांधी जी भी वापस आ जाते तो बिना रिश्वत दिए अपना साबरमती आश्रम भी वापस नहीं ले पाते। उसी तारतम्य में फौज का ही एक बड़ा अफसर उसे सलाह देता है कि भलाई इसी में है कि सिस्टम के अनुसार ही काम करो, यानी ले दे कर ही काम चलाओ। ये केवल एक फिल्म के डायलाग नहीं हैं बल्कि हमारे देश में चल रही भ्रष्ट व्यवस्था को दर्शाने वाला ऐसा आईना है जिसे हम सब जानते भी हैं और मानने को मजबूर भी हैं।
एक पुरानी कहावत है कि जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो उसे कौन बचा सकता है। कुछ ऐसा ही हाल अब हमारे देश का हो रहा है। आजादी के बाद बने हमारे संविधान के निर्माताओं को संभवत: इस बात का पहले से ही संदेह था कि अंग्रेजों के द्वारा प्रशिक्षित और पोषित नौकरशाही और आने वाले जन प्रतिनिधि सत्ता का स्वाद चखने के बाद बेईमान हो सकते हैं और इस देश की व्यवस्था भ्रष्टाचार के दरिया में डूब सकती है, अत: इन पर नियंत्रण रखने के अधिकार न्यायपालिका को दे दिये लेकिन वे यह भूल गए कि काजल की कोठरी में कोई साफ रह कैसे सकता है और वही हुआ। दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार के इस फैलते दावानल से न्यायपालिका भी अपना दामन नहीं बचा सकी।
जजों की नियुक्ति और पदोन्नतियों को लेकर सरकार चलाने वालों ने ऐसा मकड़जाल फैलाया कि जज भी उसमें फंसते गए। न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है कहने पर भले ही दंड मिल सकता हो लेकिन इसे अब नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि परोक्ष रूप से ही सही, स्वयं जुडीशरी ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि कहीं न कहीं दाल में काला है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। जजों द्वारा अपनी सम्पत्ति को सार्वजनिक करने से इंकार करना। यह चोर की दाढ़ी में तिनका होने वाली बात है। अगर उन्होंने, रिश्वत बेईमानी और भ्रष्टाचार के माध्यम से पैसा नहीं कमाया है तो उसे उजागर करने में एतराज क्यों? सचाई तो यह है कि कुछ गिनती के चालाक लोगों ने पूरे देश में ऐसा सिस्टम बना दिया है कि आम आदमी अपने और अपने परिवार के जीवन यापन के लिए ही इस तरह के भंवर में फंस गया है कि उसके पास न तो इस सिस्टम से उलझने का वक्त है और न ही ताकत। आम आदमी की इस मजबूरी का पूरा फायदा इस सिस्टम के संरक्षक उठा रहे हैं। हालांकि इस समस्या को लेकर चर्चा तो आम है लेकिन इसका निदान अभी तक कोई नहीं निकाल पाया है।
(महामेधा से साभार)

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