शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

........ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना


हर दिल अजीज संगीतकार सचिन देव बर्मन
कामधुर संगीत आज भी श्रोताओं को भाव विभोर करता है। उनके जाने के बाद भी संगीत प्रेमियों के दिल से एक ही आवाज निकलती है 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना। बालीवुड के महान संगीतकार सचिन देव बर्मन हिन्दी फिल्म संगीत के सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं प्रतिभाशाली संगीतकारों में शुमार किए जाते है। प्यासा,गाइड,बंदिनी, टैक्सी ड्राइवर, बाजी, और आराधना जैसी फिल्मों के मधुर संगीत के जरिए एस.डी.बर्मन आज भी लोगों के दिलों-दिमाग पर छाए हुए हैं । एस.डी.बर्मन ने पाश्र्वगायक किशोर कुमार को कामयाबी की शिखर पर पहुंचाने में अहम भूमिका निभायी । बर्मन दा पहले संगीतकार थे जिन्होंने किशोर कुमार की प्रतिभा को पहचाना । किशोर कुमार के साथ पहली मुलाकात का वाकया काफी दिलचस्प है ।
एक बार एस.डी.बर्मन फिल्म अभिनेता अशोक कुमार से मिलने के लिए उनके घर गए जहां उन्होंने किसी को गाते सुना। उन्होंने अशोक कुमार से पूछो कौन गा रहा है । बाद में जब उन्हें पता चला कि किशोर कुमार गा रहे है तो उन्होंने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा आपकी आवाज अच्छी है लेकिन यह सहगल से मेल खाती है, आप सहगल की नकल न करें यह बड़े कलाकारो का काम नहीं है। आप खुद अपना अलग अंदाज बनाए। इसके बाद किशोर कुमार ने गायकी का एक नया अंदाज बनाया जो उस समय के नामचीन ायकों मोहम्मद रफी, मुकेश और सहगल से काफी अलग था । पचास के दशक में कई पाश्र्वगायक फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे । इसी दौरान एस.डी.बर्मन की फिल्म 'मुनीम जी 'में किशोर कुमार को पार्श्‍वगायन का अवसर मिला। इस फिल्म के गीत 'जीवन के सफर में राही मिलते है बिछड़ जाने को 'से वह कुछ हद तक वह अपनी पहचान बनाने में सफल रहे।
इसके बाद एस.डी.बर्मन के ही संगीत निर्देशन में किशोर कुमार ने दुखी मन मेरे सुने मेरा कहना 'फं ूश 'माना जनाब ने पुकारा नहीं 'पेइंग गेस्ट 'और हम है राही प्यार के हमसे कुछ न बोलिए 'नौ दो ग्यारह जैसे सुपरहिट गाने गाकर फिल्म इंडस्ट्री में बतौर पाश्र्वगायक अपनी अलग पहचान बनायी । साठ के दशक के अंतिम वर्षो में किशोर कुमार का कैरियर बुरे दौर से गुजर रहा था उस समय भी उन्हें संगीतकार एस.डी.बर्मन का साथ मिला और फिल्म 'आराधना 'के लिए गीत गाने का मौका मिला । इस फिल्म की कामयाबी ने किशोर कुमार के सिने करियर को नयी दिशा दी और उन्हें अपने कैरियर में वह मुकाम हासिल हो गया जिसकी उन्हें बरसों से तलाश थी और वह शोहरत की बुलंदियो पर जा बैठे ।

सचिन देव बर्मन का जन्म १० अक्टूबर १९०६ में त्रिपुरा के शाही परिवार में हुआ। उनके पिता जाने-माने सितार वादक और ध्रुपद गायक थे । बचपन के दिनों से ही सचिन देव बर्मन का रूझान संगीत की ओर था और वह अपने पिता से शाीय संगीत की शिक्षा लिया करते थे। इसके साथ ही उन्होनें उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से भी शास्‍त्रीय संगीत की तालीम ली। अपने जीवन के शुरूआती दौर में सचिन बर्मन ने रेडियो से प्रसारित पूर्वोतर लोकसंगीत के कार्यक्रमो में काम किया । वर्ष १९३० तक वह लोकगायक के रूप मे अपनी पहचान बना चुके थे । बतौर गायक उन्हें वर्ष १९३३ मे प्रदॢशत फिल्म यहूदी की लड़की में गाने का मौका मिला लेकिन बाद मे उस फिल्म से उनके गाए गीत को हटा दिया गया ।
उन्होंने १९३५ मे प्रदॢशत फिल्म 'सांझेर पिदम ' में भी अपना स्वर दिया लेकिन वह पाश्र्वगायक के रप में कुछ खास पहचान नहीं बना सके । वर्ष १९४४ मे संगीतकार बनने का सपना लिए वह मुबई आ गए
जहां सबसे पहले उन्हें १९४६ मे फिलमिस्तान फिल्म 'एट डेज ' मे बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहींं बना पाए । इसके बाद १९४७ में उनके संगीत से सजी फिल्म 'दो भाई ' के पाश्र्वगायिका गीतादत्त के गाए गीत 'मेरा सुंदर सपना बीत गया ' की कामयाबी के बाद वह कुछ हद तक बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए ।
इसके कुछ समय बाद सचिन देव बर्मन को मायानगरी मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह सब कुछ छोड़कर वापस कलकत्ता चले आए । हांलाकि उनका मन वहां भी नहीं लगा और वह अपने आप को मुबई आने से रोक नही पाए । सचिन देव बर्मन ने करीब तीन दशक के सिने करियर में लगभग नब्बे फिल्मों के लिए संगीत दिया । उनके फिल्मी सफर पर नजर डालने पर पता लगता है कि उन्होने सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ ही की है। अपने जीवन के शुरुआती दौर में सचिन बर्मन ने रेडियो से प्रसारित पूर्वोतर लोकसंगीत के कार्यक्रमों में काम किया । वर्ष १९३० तक वह लोकगायक के रूप मे अपनी पहचान बना चुके थे । बतौर गायक उन्हें वर्ष १९३३ मे प्रदॢशत फिल्म यहूदी की लड़की में गाने का मौका मिला लेकिन बाद मे उस फिल्म से उनके गाए गीत को हटा दिया गया । उन्होंने १९३५ मे प्रदॢशत फिल्म 'सांझेर पिदम ' में भी अपना स्वर दिया लेकिन वह पाश्र्वगायक के रप में कुछ खास पहचान नहीं बना सके ।
वर्ष १९४४ मे संगीतकार बनने का सपना लिए वह मुबई आ गए जहां सबसे पहले उन्हें १९४६ मे फिलमिस्तान फिल्म 'एट डेज ' मे बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहींं बना पाए । इसके बाद १९४७ में उनके संगीत से सजी फिल्म 'दो भाई ' के पाश्र्वगायिका गीतादत्त के गाए गीत 'मेरा सुंदर सपना बीत गया ' की कामयाबी के बाद वह कुछ हद तक बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए । इसके कुछ समय बाद सचिन देव बर्मन को मायानगरी मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह सब कुछ छोड़कर वापस कलकत्ता चले आए ।हांलाकि उनका मन वहां भी नही लगा और वह अपने आप को मुबई आने से रोक नही पाए । सचिन देव बर्मन ने करीब तीन दशक के सिने करियर में लगभग नब्बे फिल्मों के लिए संगीत दिया । उनके फिल्मी सफर पर नजर डालने पर पता लगता है कि उन्होने सबसे ज्यादा फिल्मे गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ ही की है। संगीत निर्देशन के अलावा बर्मन दा ने कई फिल्मों के लिए गाने भी गाए। इन फिल्मों में सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा सुजाता, १९५९ ्मेरे साजन है उस पार बंदिनी, १९६३ और अल्लाह मेघ दे छाया दे गाइड, १९६५ जैसे गीत आज भी श्रोताओं को भाव विभोर करते है। जाने माने निर्माता 'निर्देशक देवानंद की फिल्मों के लिए एस.डी. बर्मन ने सदाबहार संगीत दिया और उनकी फिल्मो को सफल बनाने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। देवानंद की ज्यादातार फिल्में अपने गीत संगीत के कारण ही आज भी याद की जाती है । इन फिल्मो में खासकर बाजी, १९५१, टैक्सी ड्राइवर, १९५४, हाउस न. ४४, १९५५, फंटूश ्१९५६, कालापानी, १९५८, काला बाजार, १९६० हमदोनो, १९६१, गाइड, १९६५् ज्वैल थीफ १९६७, और प्रेम पुजारी, १९७० जैसी कई फिल्मे शामिल है । बर्मन दा के पसंदीदा निर्माता निर्देशकों में देवानंद
के अलावा विमल राय, गुरूदत्त, ऋषिकेश मुखर्जी आदि प्रमुख रहे है। एस.डी.बर्मन को दो बार फिल्म फेयर के सर्व्श्रेष्ठ संगीतकार से नवाजा गया है। एस.डी.बर्मन को सबसे पहले १९५४ मे प्रदॢशत फिल्म टैक्सी ड्राइवर के लिए सर्वŸोष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। इसके बाद वर्ष १९७३ मे प्रदॢशत फिल्म अभिमान के लिए भी वह सर्वŸोष्ठ संगीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजे गए। फिल्म मिली के संगीत 'बड़ी सूनी सूनी है 'की रिकाॄडग के दौरान एस.डी.बर्मन अचेतन अवस्था मे चले गए । हिन्दी सिने जगत को अपने बेमिसाल संगीत से सराबोर करने वाले सचिन दा ३१ अक्टूबर १९७५ को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

...........प्यास लगी है? हवा से पानी बनाइए और पी लीजिए

पीने के पानी की किल्लत दूर करने के लिए अब एक अनोखी मशीन बनाई गई है। यह मशीन हवा से पानी निकालती है। उम्मीद की जा रही है कि माइक्रोवेव के बाद
यह सबसे उपयोगी घरेलू मशीन की खोज साबित होगी।

यह मशीन उसी तकनीक पर आधारित है जिस पर डी-ह्यूमिडीफायर काम करता है। वॉटर मिल नामक नई मशीन हवा से पीने के लिए तैयार पानी तैयार कर सकती है। मशीन बनाने वाली कंपनी का कहना है कि यह विकसित देशों में न सिर्फ बोतलबंद पानी का विकल्प पेश करेगी, बल्कि रोजाना पानी की कमी से जूझ रहे लाखों लोगों के लिए भी उपयोगी साबित हो सकती है।

मशीन नमी वाली हवा को एक फिल्टर के जरिए खींच लेती है। मशीन के अंदर एक कूलिंग एलीमंट होता है। यह नम हवा को ठंडा कर देता है, जिससे कंडेंस होकर पानी की बूंदें निकलती हैं। मशीन एक दिन में 12 लीटर तक पानी बना सकती है। तूफानी मौसम में हवा में नमी बढ़ जाती है। ऐसी सूरत में वॉटर मिल ज्यादा पानी तैयार कर पाएगी।

वॉटर मिल को बनाते वक्त इस बात का ध्यान रखा गया है कि इससे पर्यावरण में प्रदूषण न फैले। मशीन के इस्तेमाल में उतनी ही बिजली की खपत होती है, जितनी आम तौर पर रोशनी के लिए तीन बल्ब जलाने में होती है। वॉटर मिल ईजाद करने वाले जॉनथन रिची ने कहा- पानी की मांग बढ़ती ही जा रही है। वॉटर डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम भरोसेमंद नहीं होने के कारण लोग इससे निजात पाना चाहते हैं।

मशीन करीब तीन फुट चौड़ी है। उम्मीद है कि जल्दी ही यह ब्रिटेन के बाजार में आ जाएगी। तब इसकी कीमत 800 पाउंड (करीब 60,000 रुपये) रहने का अनुमान है। मशीन का प्रॉडक्शन कनाडा की एलीमंट फोर नामक फर्म कर रही है। उसका अनुमान है कि मशीन से एक लीटर पानी तैयार करने में करीब 20 पेंस का खर्च आएगा। हालांकि यह मशीन उन इलाकों में कारगर नहीं है जहां सापेक्ष नमी 30 फीसदी से कम हो। लेकिन ब्रिटेन में यह 70 फीसदी से ज्यादा है, इसलिए वहां मशीन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

गौरतलब है कि पर्यावरणविदों का दावा है कि क्लाइमट चेंज के कारण 2080 तक दुनिया में आधी आबादी को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ेगा। हर पांच में से एक इंसान को सेफ ड्रिंकिंग वॉटर उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। ऐसे में इस मशीन से उम्मीद की किरण जगी है।
इसका दूसरा पहलू यह है कि इसके खतरनाक परिणाम भी सामने आऍंगे। जब नमी ही नहीं बचेगी, तब क्‍या करेंगे, उस जल को पीकर। कभी सोचा किसी ने। अभी तो सब कुछ अच्‍छा लगेगा। पर यह खतरे की घंटी है, पर्यावरण के विनाश के लिए। इसके लिए हमें अभी से सचेत होना होगा।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

........वो लड़की


नीरज नैयर
हमारा समाज जिसे नारी उत्थान के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले पुरुष प्रधान कहना पसंद करते हैं, इस समाज में हमेशा से ही महिलाओं को कमजोर माना जाता है और शायद यही वजह है कि अब उन्होंने अपनी कमजोर छवि का फायदा उठाना सीख लिया है. आज न जाने कितने ऐसे मामले होंगे जहां महिलाओं के हाशिए पर पुरुष हैं, इसे विडंम्बना ही कहा जाएगा कि जहां महिलाओं की हल्की सी आह पर लोगों को हुजूम लग जाता है वहीं पुरुषों के कराहने पर भी कोई नहीं आता. फिर चाहे उसमें कितनी भी सच्चाई ही क्यों न हो. कहते हैं हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कभी न कभी, कहीं न कहीं, किसी न किसी पुरुष की बर्बादी की सूत्रधार भी महिला ही होती है. कभी-कभी हमारी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ आते है जहां पहुंचकर सबसे प्रिय लगने वालों के ख्याल से भी नफरत होने लगती है. ऐसी ही एक सच्चाई से जब मैं रू बरू हुआ तो शायद कुछ हद तक मेरी भी सोच महिलाओं के प्रति बदली. बात कुछ पुरानी है, जिस पर अब धूल की चादर चढ़ चुकी है, इस धूल को मैं न भी हटाता अगर आज मुझे वो चेहरा न दिखाई पड़ता. जिसने सदा मुस्कुराने वाले आकाश के जीवन में खामोशी भर दी. मैं उसे रोकरकर पूछना चाहता था कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया मगर किस्मत को ये मंजूर नहीं था. मैं और आकाश एक ही आफिस में काम करते थे, आकाश बहुत ही हंसमुख स्वभाव का था. शायद ही कोई ऐसा होगा जो उसे नापंसद करता हो. वो रोते हुए को पल में हंसा देता था मगर जब वो रोया तो कोई उसे हंसा नहीं पाया. मंगलवार का वो दिन में कभी नहीं भूल सकता जब सादगी और मासूमियत वाली शिखा ने हमारे दफ्तर में प्रवेश किया. वो लड़की कुछ अलग ही थी, जब सब कैंटीन में बैठे हंस रहे होते तो वो किसी कोने में गुमसुम सी सोच में डूबे रहा करती थी. उसकी आंखों को देखकर हमेशा ऐसा लगता मानो वो जन्मों के दर्द को अपने अंदर समाए हो. वह अपने आप को फाइलों में इस कदर उलझाया करती मानों किसी से भाग रही हो. उसके आफिस में होते हुए भी न होने का अहसास रहता था. सबकुछ धीरे-धीरे यूं ही चलता रहा, वो रोज आती अपना काम निपटाती और चली जाती. किसी ने कभी भी उससे कुछ पूछने का प्रयास नहीं किया, शायद कोई उसे परेशान नहीं करना चाहता था. फिर एक दिन एक पार्टी में जो कुछ भी हुआ उसने हम सभी को झकझोंर कर रख दिया. जिस पार्टी में हम पहुंचे वहां शिखा भी मौजूद थी, पार्टी में जहां सब चहक रहे थे वहीं पेड़ से टेक लगाए खड़ी शिखा के चेहरे पर मासूमी साफ झलक रही थी. आकाश से शायद उसकी ये उदासी देखी नहीं गई, वह उसके पास पहुंचकर उसका मूड ठीक करने की कोशिश करने लगा. मैं दूर खड़ा सबकुछ देख रहा था, अचानक शिखा की चीख ने वहां मौजूद हर शख्स को हिला दिया. उसकी आंखों से टपकते आंसू इस बात की गवाही दे रहे थे कि उसके दर्द का प्याला अब छलक चुका है. वह रोती जा रही थी और कहती जा रही थी कि मैं नहीं हंसना चाहती. रोते-रोते जब उसने अपनी दास्तां बयां की तो सभी की आंखों में आंसू छलक आए. उसने बताया कि उसके पिता का एक हफ्ते पहले ही देहांत हुआ, उन्हें कैंसर था. मां को भी कैंसर है और वह अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ रही है. एक छोटा भाई है जिसकी मानसिक हालत ठीक नहीं है. पल-पल अपनी मां को दम तोड़ते देखने के बाद भी भला कोईहँससकता है बताओ. उसने आकाश को हिलाते हुए पूछा. उस वक्त आकाश ही क्या हम किसी के पास कोई जवाब नहीं था. वो रात कैसे कुर्सी पर बैठे-बैठे गुजर गई पता ही नहीं चला. सुबह जब वो दफ्तर आई तो सबसे पहले उसने आकाश से माफी मांगी, मैं थोड़ा चौंका जरूर मगर दोनों को अकेला छोड़कर वहां से चला गया. उस दिन के बाद आकाश और शिखा के बीच संवाद ज्यादा होने लगा. वो आकाश को अपने घर की हर छोटी से छोटी बात बताती और आकाश मुझे. उसकी आंखें हमेशा आकाश को तलाशती रहती थीं, हम सब इस बात से खुश थे. ये सिलसिला यूं ही चलता रहा, आकाश शिखा की खुशी से शुश था और मैं उसकी खुशी से. फिर अचानक मुझे कंपनी के काम से बाहर जाना पड़ा, आकाश और शिखा दोनों मुझे स्टेशन छोडऩे आए. वैसे तो मैं चंद दिनों के लिए जा रहा था परंतु मैं इस बात से अंजान था कि आकाश से ये मेरी आखिरी मुलाकात होगी. एक हफ्ते बाद जब मैं लौट के आया तो सबकुछ पहले जैसा था मगर आकाश और शिखा की सीट खाली थी. पहले तो मैं समझा कि शायद दोनों छुट्टी मना रहे होंगे मगर जब हकीकत से मेरा सामना हुआ तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. मुझे बताया गया कि शिखा ने पूरे स्टाफ के सामने आकाश पर जो इल्जाम लगाए उसे वो बर्दाश्त नहीं कर सका. शिखा ने कहा कि मेरे पिता की सड़क हादसे में मौत हो चुकी है और मेरी मां सदमें के चलते कोमा में है. एक छोटा भाई है जो हादसे के बाद अपना मानसिक संतुलन खो बैठा है. मैं यहां अपने रिश्तेदारों के साथ रह रही हूं ताकि उसका इलाज करा सकूं. पर आकाश ने मेरा जीना मुहाल कर दिया है, वह दिन-रात मुझे फोन करता है, आफिस में भी मौका देखकर मेरे पास आ जाता है. रोज घर से दफ्तर तक मेरा पीछा करता है, मुझे सरेराह रोककर एक ही बात कहता है कि मैं तुमसे प्यार करता हूं. कभी-कभी मैं सोचती हूं कि आत्महत्या कर लूं लेकिन भाई का ख्याल मुझे ऐसा करने नहीं देता. नारी के आंसूओं में कितनी ताकत होती है यह एक बार फिर मालूम चला, मुझे सहज विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मासूम सी दिखने वाली लड़की का इतना भयानक रूप भी हो सकता है. सबकी नजर में शायद आकाश गुनहगार था मगर मैं जानता था कि सच क्या है. उस दिन पार्टी में उसने जो कहानी बताई थी वो इससे बिल्कुल अलग थी अगर आफिस वाले वहां होते तो उन्हें भी शिखा की असलीयत पता चल गई होती. मैं शिखा से पूछना चाहता था कि आखिर उसे आकाश को इतना बड़ी सजा क्यों दी. मैं उसके घर पहुंचा, मगर वहां भी मेरा शिखा नहीं उसकी एक और हकीकत से सामना हुआ. मुझे मालूम चला कि शिखा की मां तो है ही नहीं, एक बड़ा भाई और पिता हैं जो सालों से उसके साथ नहीं रहते. इसके बाद मैं सीधा आकाश के घर पहुंचा तो वहां भी ताला लगा पाया. कई दिन ऐसे ही गुजर गये, न मुझे आकाश ही मिला और न शिखा. फिर एक दिन मुझे एक पत्र मिला जिस पर भेजने वालेे का नाम और पता कुछ नहीं था. मैंने उसे खोलकर देखा तो वह आकाश का पत्र था. उसने लिखा, मेरे दोस्त अब तक शायद तुम्हें पता चल ही गया होगा, मैं ये नहीं जानता कि उसने ऐसा क्यों किया, हो सकता है उसकी भी कोई मजबूरी रही होगी. मगर मुझे बहुत ठेस पहुंची है, मैं विश्वास नहीं कर पा रहा हूं कि कोई ऐसा भी कर सकता है. मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं कि सब मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, मुझे पता है कि मेरा दोस्त मेरे साथ हैं. मैं अब उस शहर में पुरानी यादों के साथ नहीं जी सकता इसलिए मैं बहुत दूर चला आया हूं. मेरी चिंता मत करना मैं कुछ गलत नहीं करूंगा, क्योंकि मैं कायर नहीं. मैं जिऊंगा लेकिन किस मकसद के साथ नहीं कह सकता. मैं उससे बहुत प्यार करता था, हम दोनों ने शादी तारीख भी तय कर ली थी, फिर पता नहीं क्यों उसने ऐसा किया. पता नहीं क्यों. तुम्हारा आकाश. इसके बाद मैंने शिखा से मिलने की बहुत कोशिश की, पर वो घर छोड़कर कहीं और जा चुकी थी. मेरा दोस्त आज कहां हैं मैं नहीं जानता, हां कभी-कभी उसके पत्र जरूर मिल जाया करते हैं. मैंने एक दोस्त खोया, वो दोस्त जिसने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, फिर भी उसके साथ बुरा हुआ. मुझे इंतजार है तो बस उस दिन का जब मेरा दोस्त वापस आएगा लेकिन यह इंतजार खत्म होगा भी या नहीं मैं नहीं जानता.
नीरज नैयर

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

हम सब नकली दूध के सहारे


डॉ. महेश परिमल
मिलावट अब हमारे देश की राष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि देश की पहचान बनने लगा है। हर जगह, हर चीज पर मिलावट आज आम बात हो गई है। जिस चीज में कभी मिलावट की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, वही चीज आज मिलावटी मिल रही है। दाल, चावल से लेकर मसाले तक और दूध -दही से लेकर मावे तक में मिलावट जारी है। इसे रोकने की दिशा में सरकारी प्रसास भ्रमित करनेे वाले हैं। भारतीय आपराधिक दंड संहिता की धारा 272 और 273 के तहत खाने में मिलावट करने को अपराध माना गया है। आज तक मिलावट को संगीन अपराध नहीं माना गया है। भारतीय कानून के अनुसार मिलावट की चीज को न तो रखा जा सकता है और न ही मिलावटखोर को गिरफ्तार किया जा सकता है। ऐसे में कौन कानून से डरेगा?
अगर आपसे यह कहा जाए कि आप रोज जो दूध ग्रहण कर रहे हैं, वह नकली है, तो शायद विश्वास न हो। पर यह सच है कि आज शहरों में बिकने वाला 90 प्रतिशत दूध नकली है। यह भी भला कोई बात हुई कि केबल का हर महीने 300 रुपए देने में हम संकोच नहीं करते, मोबाइल का बिल 500 रुपए हो जाए, तो हमें परेशानी नहीं होती, पर दूध का दाम बढ़ जाए, तो हमें तकलीफ होने लगती है। हम बाजार से 12-16 रुपए लीटर वाला सस्ता दूध खरीदते हैं और बीमार पड़ते हैं। डॉक्टरों और दवाओं पर धन खर्च कर देंगे, पर यह देखने की कोशिश नहीं करेंगे कि जो दूध हमें ग्रहण कर रहे हैं, वह नकली तो नहीं! वास्तव में आज बाजारों में मिलने वाला 90 प्रतिशत दूध नकली है।
सचमुच आज का जीवन बहुत ही विषम हो गया है। क्या आप विश्वास करेंगे, उस स्थान की, जहाँ एक भी गाय, भैंस नहीं है, फिर भी वहाँ रोज हजारों लीटर दूध निकलता है। गुजरात के मेहसाणा में एक ऐसी ही फैक्टरी है, जहाँ हजारों लीटर दूध रोज बनता है और महानगरों में पहुँचता है। इस फैक्टरी में यूरिया, खाने का सोडा, बटर आइल और विदेशी दूध पावडर को मिलाकर दूध तैयार किया जाता है। इन लोगों ने मेहसाणा को इसलिए चुना कि यहाँ दूध की कई डेयरियाँ हैं। दूध के नाम पर यह शहर मक्का है। यह सोचने वाली बात है कि यह दूध किस तरह से स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हो सकता है? हाल ही में मुम्बई में नकली दूध के तीस टैंकर पकड़े गए। इस दूध को गटर में बहा दिया गया। आखिर किसकी शह पर लोगों के स्वास्थ्य के साथ कौन खिलवाड़ कर रहा है, यह एक शोध का विषय है। दूसरी ओर सच बात यह है कि हमारे देश में आर्थिक घपले करने वालों, रिश्वतखोरों, मिलावटखोरों, जमाखोरों पर किसी तरह के कड़े कानून की व्यवस्था नहीं है, इसलिए इन पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। आज तक उपरोक्त अपराध में किसी एक को भी कड़ी सजा हुई हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। हर स्थिति में आम आदमी मारा जाता है। इन लोगों की काली करतूतों से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला आम आदमी ही है। तमाम सरकारें आम आदमी की हिफाजत की बातें करतीं हैं, पर ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता। यह आम आदमी हर जगह असुरक्षित है।
देश में मिलावट को नियंत्रित करने के लिए जो कानून हैं, वे भ्रमित करने वाले हैं। इस पर अमल कैसे किया जाए, इसको लेकर संबंधित अधिकारियों में भी भ्रम की स्थिति है। मिलावट से बड़े पैमाने पर मौतें होने के बाद भी इसे संज्ञेय अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। जानकारी मिलने के बाद भी पुलिस इस मामले में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती। मिलावट के संबंध में कार्रवाई करने का अधिकार केवल फुड इंस्पेक्टर को ही है। मिलावटी माल का नमूना केवल वही ले सकता है। उसे जाँच के लिए भी वही भेज सकता है। मौके पर पाए जाने वाले आरोपी की गिरफ्तारी भी संभव नहीं है। इसके अलावा मिलावटी माल को जब्त भी नहीं किया जा सकता। मिलावटी भ्रष्टाचार के इस दौर में ये कानून कितने लाचार हैं, इसे सहजता से समझा जा सकता है।
हम जिसे दूध समझते हैं , वास्तव में वह फैक्टरी में विभिन्न रसायानों से बना एक सफेद रंग का पानी ही होता है, जिसे दूध के रूप में बेचा जाता है। मध्यमवर्ग को यह सस्ता दूध आसानी से 12 से 16 रुपए लीटर मिल जाता है। वे इसे सुपर दूध के नाम से जानते हैं। ये दूध हमें किस तरह से प्रभावित करता है, यह तो वे डॉक्टर ही बता पाएँगे, जिनके पास हम अक्सर जाते रहते हैं। इस दूध से शरीर में कई तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। वैसे देखा जाए, तो आज मिलावट हर जगह हो रही है। इसके लिए हमें ही सजग होना होगा। हमारी थोड़ी सी सतर्कता हमें ही नहीं हमारे परिवार को बचा सकती है। जहाँ चीज कुछ सस्ती मिल रही हो, तो उसका यह आशय कदापि नहीं है कि वह अच्छी ही हो। सस्ते का माल रास्ते में, इस कहावत को सच मान लें। जहाँ दूध 24 रुपए लीटर में भी अच्छा न मिल रहा हो, वहाँ यदि 16 रुपए लीटर मिले, तो आश्चर्य करना ही चाहिए। यदि सस्ता मिल रहा है, तो यह पता लगाने की कोशिश करें कि आखिर यह क्यों सस्ता बेच रहा है? हमारी विवेक ही हमें सही रास्ता दिखा देगा। सस्ते के चक्कर में पूरे परिवार को संकट में डालने की मूर्खता कदापि न करें।
बात केवल दूध की ही नहीं है। यह नियम दूसरी खाद्य वस्तुओं पर भी लागू होता है। सड़क किनारे बिकने वाले खाद्य पदार्थ एक बार अवश्य ही हमारा ध्यान आकर्षित करते ही हैं। कई बार इसी आकर्षण में हम अकेल न खाकर पूरे परिवार के लिए 'पैकÓ करवा लेते हैं। खरीदते समय आप यदि आसपास के वातावरण पर एक हल्की दृष्टि डाल लें, तो समझ में आ जाएगा कि ये खाद्य सामग्री कितनी प्रदूषित है। डॉक्टरों पर खर्च करने के बजाए यदि हमें अच्छी स्वास्थ्यवर्ध चीजें ग्रहण करें, तो ऐसा करके हम अपने परिवार के प्रति संवेदनशील ही बनेंगे।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

हिंदी फिल्‍मों के राजकुमार : प्रदीप कुमार


हिन्दी सिनेमा में प्रदीप कुमार को ऐसे अभिनेता के तौर पर याद किया जाता है. जिन्होंने 50 और साठ के दशक में अपने ऐतिहासिक किरदारों के जरिये दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया । पचास और साठ के दशक में फिल्मकारों को अपनी फिल्मों के लिए जब भी किसी राजा- महाराजा . या फिर राजकुमार अथवा नवाब की भूमिका की जररत होती थी वह प्रदीप कुमार को याद किया जाता था ।उनके उत्कृष्ट अभिनय से सजी अनारकली . ताजमहल. बहू बेगम और चित्रलेखा जैसी फिल्मों को दर्शक आज भी नहीं भूले हैं । पश्चिम बंगाल में चार जनवरी 1925 को ब्राह्मण परिवार में जन्में शीतल बटावली उर्फ प्रदीप कुमार बचपन से ही फिल्मों में बतौर अभिनेता काम करने का सपना देखा करते थे । अपने इस ख्वाब को पूरा करने के लिए वह अपने जीवन के शुरआती दौर में रंगमंच से जुडे । हालांकि इस बात के लिए उनके पिताजी राजी नहीं थे । वर्ष 1944 में उनकी मुलाकात निर्देशक देवकी बोस से हुई. जो एक नाटक में प्रदीप कुमार के अभिनय को देखकर काफी प्रभावित हुए।
उन्हें प्रदीप कुमार से एक उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने अपनी बंगला फिल्म अलखनंदा में उन्हें काम करने का मौका दिया ।
इस फिल्म से प्रदीप कुमार नायक के रप में अपनी पहचान बनाने में भले ही सफल नहीं हुए लेकिन एक अभिनेता के रप में उन्होंने सिने कैरियर के सफर की शुरआत कर दी । इस बीच प्रदीप कुमार ने एक और बंगला फिल्म भूली नाय में अभिनव किया । इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सिल्वर जुबली मनायी । इसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा की ओर भी अपना रख कर लिया । वर्ष 1949 में प्रदीप कुमार अपने सपने को साकार करने के लिए मुंबई आ गये और कैमरामैन धीरेन डे के सहायक के तौर पर काम करने लगे । वर्ष 1949 से 1952 तक वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे । प्रदीप कुमार को फिल्मों में नायक बनने का नशा कुछ इस कदर छाया हुआ था कि उन्होंने हिंदी और उर्दू भाषा की तालीम हासिल करनी शुर कर दी । फिल्म अलखनंदा'के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली. वह उसे स्वीकार करते चले गये । इस बीच उन्होंने ृष्णलीला. स्वामी. विष्णुप्रिया और संध्या बेलार रपकथा जैसी कई फिल्मों में अभिनव किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बाक्स आफिस पर सफल नहीं हुई ।
वर्ष 1952 में प्रदशत फिल्म ' आनंद मठ' में प्रदीप कुमार पहली बार मुख्य अभिनेता की भूमिका में दिखाई दिये । हालांकि इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर जैसे महान अभिनेता भी थे. फिर भी वह दर्शकों के बीच अपने अभिनव की छाप छोडने में कामयाब रहे ।इस फिल्म की सफलता के बाद प्रदीप कुमार बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये । वर्ष 1953 में फिल्म अनारकली में प्रदीप कुमार ने शाहजादा सलीम की भूमिका निभायी. जो दर्शकों को काफी पसंद आयी । इसके साथ ही वह ऐतिहासिक फिल्मों के लिये निर्माता. निर्देशक की पहली पसंद बन गये । वर्ष 1954 में प्रदशत फिल्म.नागिन' की सफलता के बाद प्रदीप कुमार दर्शकों के चहेते कलाकार बन गये । इस फिल्म ने बाक्स पर सफलता के नये कीतमान स्थापित किये और इसमें गीत 'मन डोले मेरा तन डोले' मेरा दिल ये पुकारे आजा' गीत श्ररोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए । नागिन और अनारकली जैसी फिल्मों से मिली कामयाबी से प्रदीप कुमार दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुये ऐसी स्थिति में पहुंच गये जहां वह फिल्म मे अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे। इस दौरान उन्हें महान निर्माता निर्देशक व्ही शांता राम की फिल्म 'सुबह का तारा ' और राजकपूर की 'जागते रहो ' में भी काम करने का मौका मिला। वर्ष 1956 प्रदीप कुमार के सिने कैरियर का सबसे अहम वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उनकी 10 फिल्में प्रदशत हुयी जिनमें श्री फरहाद, जागते रहो, दुर्गेश नंदिनी, बंधन, राजनाथ और हीर जैसी फिल्में शमिल हैं। इसके बाद प्रदीप कुमार ने एक झलक, 1957, अदालत,1958, आरती, 1962, चित्रल। खा, 1964, भींगी रात, 1965, रात और दिन, बहू बेगम, 1967 जैसी कई फिल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाकर दर्शको का भरपूर मनोरजंन किया। प्रदीप कुमार के सिने कैरियर पर नजर डालने पर पता लगता है कि पचास के दशक में उन पर फिल्माये गीत दर्शकों के बीच काफी
लोकप्रिय हुआ करते थे। उनमें से कुछ गीत ऐसे है जो आज भी श्रोताओं की पहली पसंद है। इनमें जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नही, पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी ताजमहल, न डोले तेरा तन डोल, मेरा दिल ये पुकारे आजा, तेरे द्वार खड़ा एक जोगी नागिन, दिल जो न कह सका, भींगी रात, हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक, बहू बेगम, रात और दिन दीया जले, रात और दिन जैसे नही भूलने जा कने वाले गीत शामिल है। प्रदीप कुमार की जोड़ी मीना कुमारी के साथ खूब जमी। उनकी जोड़ी वाली फिल्मों में अदले जहांगीर, बंधन, चित्रलेखा, बहू बेगम, भींगी रात, आरती और नूरजहां शामिल है। अभिनय मे एकरपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिये प्रदीप कुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं मे पेश किया। इस क्रम में वर्ष 1969 मे प्रदशत अजय विश्वास की सुपरहिट फिल्म.संबध .में उन्होंने चरित्र भूमिका निभाई और सशक्त अभिनय से दर्शको की वाहवाही लूट ली।
इसके बाद प्रदीप कुमार ने महबूब की मेहंदी 1971. समझौता 1973, दो अंजाने 1976, धरमवीर, 1977,खट्ठामीठा, 1978, क्रांति, 1981, रजिया सुल्तान,1983 दुनिया, 1984 मेरा धर्म, 1986, और वारिस, 1988जैसी कई सुपरहिट फिल्मों के जरिये दर्शको के दिल पर राज किया। हिन्दी फिल्मों के अलावा प्रदीप कुमार ने बंगला फिल्मों में भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया। इन फिल्मों में भूलीनाई, गृहदाह दासमोहन, देवी चौधरानी, राय बहादुर, संदीपन आनंद मठ जैसी फिल्में शामिल है। इसके अलावा उन्होंने कई बंगला नाटकों मे भी अभिनय किया।लगभग चार दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शको के बीच खास पहचान बनाने वाले प्रदीप कुमार 27अक्टूबर 2001 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

डिग्रियां रोक नहीं पाई पक्षियों के प्रति दीवानगी


पक्षियों और प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाले जाने माने पक्षी विज्ञानी डा.सालिम अली को केवल एमएससी या पीएचडी की डिग्री के अभाव में पक्षी विज्ञानी की नौकरी से वंचित होना पड़ा था, फिर भी पक्षियों के प्रति उनकी दीवानगी कम नहीं हुई।
बर्डमैन आफ इंडिया कहलाने वाले सालिम अली उन पहले भारतीयों में थे जिन्होंने भारत में व्यवस्थित एवं चरणबद्ध तरीके से पक्षियों का सर्वेक्षण किया। टाइम पत्रिका द्वारा विश्व के 30 पर्यावरण नायकों में शामिल नासिक के मोहम्मद दिलावर ने बताया कि पक्षी मानव जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण घटक हैं और उनके नहीं रहने से पारिस्थितिकी तंत्र की एक कड़ी टूट जाएगी। उनके अनुसार डा.सालिम अली ने अपना सारा जीवन पक्षियों पर लगा दिया। यह उनका ही योगदान है कि देश में भारतीय उपमहाद्वीप के पक्षियों का एक डाटाबेस तैयार हो सका है।
दिलावर कहते हैं कि भारत में पर्यावरण संरक्षण पर जितना भी काम हो रहा है, उसमें दस फीसदी भी पक्षियों के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इससे सालिम अली का योगदान और बढ़ जाता है। दिलावर के अनुसार अली के प्राण पक्षियों में बसते थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी उनके कार्यो का पुरजोर समर्थन करती थीं।
अपनी आत्मकथा द फाल आफ ए स्पैरो में अली ने लिखा है कि मेरे लिए वन्य जीवन संरक्षण मूल प्रायोगिक उद्देश्यों के लिए है। इसका मतलब इसे वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, सौंदर्यात्मक, मनोरंजनात्मक और आर्थिक रूप में मान्यता दिलाने से है। हर साल राजस्थान के केवलादेव घना पक्षी विहार में सालिम अली साइबेरियाई सारसों के लिए जाते थे। सालिम अली को इन पक्षियों की एक-एक आदत के बारे में इतनी गहरी जानकारी थी कि वह पहले से ही बता देते थे, अब यह सारस ऐसा करेगा।
सालिम अली ने ही बताया था कि साइबेरियाई सारस मांसभक्षी नहीं होते। वह मछलियां नहीं खाते बल्कि काई खाते हैं। एक बार साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा गया कि सर्दियों में हिमालय की हजारों फुट ऊंची चोटियां पार कर पक्षी भारत आते हैं। हिमालय की ऊंचाइयों में आक्सीजन की कमी होती है और पक्षियों को उड़ान भरने में अधिक आक्सीजन की जरूरत होती है। यह कमी वह कैसे पूरी करते हैं, उन्हें दिशा ज्ञान कैसे होता है! तब सालिम अली ने जवाब दिया था कि इस सिलसिले में खोज जारी है। अभी यह विवादास्पद है।
सालिम अली कालिदास की रचना मेघदूत में कही गई इस बात पर भी विचार कर रहे थे कि हिमालय में क्रौंच जाति के पक्षी एक विशेष रास्ते से क्यों आते हैं! पक्षियों को घंटों एकटक निहारते हुए उनकी एक-एक आदत परखने-समझने के लिए सालिम अली ऐसा स्थान चुनते थे जहां से उन्हें पक्षी तो साफ नजर आए लेकिन वह पक्षी को नजर न आएं।
मुंबई के एक सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में 12 नवंबर, 1896 को दसवीं और सबसे छोटी संतान के रूप में जन्मे सालिम मोइजुद्दीन अब्दुल अली के सिर से मात्र दस साल की उम्र में ही माता-पिता का साया उठ गया था। उनके मामा ने उनका पालन-पोषण किया। बचपन में मामा की दी हुई एअरगन से सालिम अली ने एक गौरैया का शिकार किया। उन्होंने जब मामा से गौरैया के बारे में जानकारी चाही तो मामा ने उन्हें बाम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी [बीएनएचएस] जाने के लिए कहा।
बीएनएचएस के तत्कालीन सचिव डब्ल्यूएस मिलार्ड ने नन्हे सालिम को न सिर्फ गौरैया के बारे में बताया बल्कि बीएनएचएस में मसाला भर कर रखे गए मृत पक्षी भी दिखाए। नन्हे सालिम के मन में पक्षियों की रहस्यमयी दुनिया ने इतनी उत्सुकता जगाई कि उन्होंने पक्षी विज्ञान को ही अपना करिअर बना लिया। बाद में अली प्रोफेसर स्ट्रासमैन के पास पढ़ने के लिए जर्मनी गए। स्ट्रासमैन को डा.अली अपना पहला गुरु मानते हैं। देश की आजादी के बाद बीएनएचएस की कमान डा.अली के हाथ आई और उन्होंने इसका प्रबंधन किया। धन की कमी के कारण कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे बीएनएचएस को बचाने के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से गुहार लगाई। प्रकृति के आकर्षण में बंधे सालिम अली घंटों पक्षियों को निहारते उनकी एक-एक आदत को परखते। इस पक्षी प्रेमी ने कुमाऊं तराई क्षेत्र में दुर्लभ चिडि़या की प्रजाति फिन्स बया की दोबारा खोज की थी। लेकिन पहाड़ी बटेर ओफ्राइशिया सुपरसिलिओसा की खोज के लिए उनके प्रयास नाकाम रहे।
भरतपुर पक्षी विहार और साइलेंट वैली नेशनल पार्क को बचाने में भी सालिम अली की अहम भूमिका रही है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की सहायता से कोयंबतूर के अनाइकट्टी में सालिम अली सेंटर फार आर्निथोलोजी एंड नैचुरल हिस्ट्री [एसएसीओएन] की स्थापना की गई। भारत सरकार ने सालिम अली को 1958 में पद्म भूषण से और 1976 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। 1958 में वह इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के फेलो चुने गए। पक्षियों पर महत्वपूर्ण किताबें लिख चुके इस प्रकृति प्रेमी को तीन बार डाक्टरेट की मानद उपाधि दी गई। 1985 में वह राज्यसभा के लिए नामांकित हुए। अनेक विदेशी पुरस्कारों से भी उन्हें सम्मानित किया गया।
प्रोस्टेट कैंसर से लंबी लड़ाई लड़ने के बाद 27 जुलाई 1987 को 91 वर्ष की उम्र में इस पक्षी विज्ञानी ने दुनिया को विदा कह दिया। सालिम अली को पर्यावरण संरक्षण में पक्षियों के महत्व को साबित करने के लिए सदा याद किया जाएगा। उन्होंने उस क्षेत्र में काम किया जो उपेक्षित माना जाता था। पक्षियों के बारे में उनका व्यवस्थित अध्ययन और उनका डाटाबेस विश्व को एक अमूल्य देन है। देश में आज इतने सारे पक्षी विहार हैं। इसमें डा.अली का बड़ा योगदान माना जाता है।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

एक अनोखे गीतकार : साहिर लुधियानवी


मशहूर शायर साहिर लुधियानवी हिन्दी फिल्मों के ऐसे पहले गीतकार थे जिनका नाम रेडियो से प्रसारित फरमाइशी गानों में दिया गया। इससे पहले किसी गीतकार को रेडियो से प्रसारित फरमाइशी गानों में श्रोय नहीं दिया जाता था। साहिर ने इस बात का काफी विरोध किया जिसके बाद रेडियो पर प्रसारित गानों में गायक और संगीतकार के साथ-साथ गीतकार का नाम भी दिया जाने लगा। इसके अलावा वह पहले गीतकार हुऐ जिन्होंने गीतकारों के लिए रायल्टी की व्यवस्था कराई।
आठ मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना शहर में एक जमींदार परिवार में जन्मे साहिर की जिंदगी काफी संघर्षों में बीती। उनकी मां सरदार बेगम अपने पति चौधरी फजल मुहम्मद की अय्याशियों के कारण उन्हें छोड़कर चली गईं और अपने भाई के साथ रहने लगी। साहिर ने अपनी मैट्रिक तक की पढ़ाई लुधियाना के खालसा स्कूल से पूरी की। इसके बाद वह लाहौर चले गएजहां उन्होंने अपनी आगे की पढाई सरकारी कॉलेज से पूरी की। कॉलेज के कार्यक्रमों में वह अपनी गजलें और नज्में पढ़कर सुनाया करते थे जिससे उन्हें काफी शोहरत मिली। जानी मानी पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम कॉलेज में साहिर के साथ ही पढ़ती थी , जो उनकी गजलों और नज्मों की मुरीद हो गई और उनसे प्यार करने लगीं लेकिन कुछ समय के बाद ही साहिर कालेज से निष्कासित कर दिएगये। इसका कारण यह माना जाता है कि अमृता प्रीतम के पिता को साहिर और अमृता के रिश्ते पर एतराज था क्योंकि साहिर मुस्लिम थे और अमृता सिख थी ।इसकी एक वजह यह भी थी कि उन दिनो साहिर की माली हालत भी ठीक नहीं थी।
साहिर 1943 में कालेज से निष्कासित किए जाने के बाद लाहौर चले आए , जहां उन्होंने अपनी पहली उर्दू पत्रिका'तल्खियां, , लिखीं। लगभग दो वर्ष के अथक प्रयास के बाद आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और 'तल्खियां' का प्रकाशन हुआ। इस बीच उन्होंने प्रोग्रेसिव रायटर्स एसोसियेशन से जुडकर आदाबे लतीफ, शाहकार, और सेवरा जैसी कई लोकप्रिय उर्दू पत्रिकाएं निकालीं लेकिन सवेरा में उनके क्रांतिकारी विचार को देखकर पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया। इसके बाद वह 1950 में मुंबई आ गये।
साहिर ने 1950 में प्रदशत 'आजादी की राह पर 'फिल्म में अपना पहला गीत 'बदल रही है जिंदगी'लिखा लेकिन फिल्म की असफलता से वह गीतकार के रप में अपनी पहचान बनाने मे असफल रहे। वर्ष 1951 मे एस,डी,बर्मन की धुन पर फिल्म 'नौजवान 'में लिखे गीत 'ठंडी हवाएं लहरा के आए 'के बाद वह कुछ हद तक गीतकार के रप में कुछ हद तक अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये। इसके बाद एस,डी, बर्मन की धुन पर 1951 में गुरुदत्त निर्देशित पहली फिल्म 'बाजी' में उनके लिखे गीत 'तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे ' ने साहिर की बिगड़ी हुई तकदीर बना दी और वह शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुचें। इसके बाद साहिर और एस.डी.बर्मन की जोड़ी ने ये रात ये चांदनी फिर कहां, जाल 1952, जायें तो जायें कहां, टैक्सी ड्राइवर, 1954, तेरी दुनिया में जीने से बेहतर है कि मर जायें, हाउस नं, 44 और' जीवन के सफर में राही, मुनीम जी, 1955 जैसे गानों के जरिए श्रोताओं को भावविभोर कर दिया ।
साहिर और एस.डी.बर्मन की जोड़ी फिल्म 'प्यासा' के बाद अलग हो गई। इसकी मुख्य वजह यह थी कि एस.डी.बर्मन को ऐसा महसूस हाने लगा था कि श्रोताओं में साहिर के लिखे गीतों की ज्यादा प्रशंसा हो रही है, जबकि उनकी धुनों को कोई खास तवाोो नहीं दी जा रही है और सफलता का पूरा श्रोय साहिर को मिल रहा है। साहिर ने खय्याम के संगीत निर्देशन में भी कई सुपरहिट गीत लिखे। वर्ष 1958 में प्रदशत फिल्म 'फिर सुबह होगी 'के लिए पहले अभिनेता राजकपूर यह चाहते थे कि उनके पंसदीदा संगीतकार शंकर जयकिशन इसमें संगीत दें, जबकि साहिर इस बात से खुश नहीं थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि फिल्म में संगीत खय्याम का ही हो । 'वो सुबह कभी तो आयेगी 'जैसे गीतों की कामयाबी से साहिर का निर्णय सही साबित हुआ। यह गाना आज भी क्लासिक गाने के रूप में याद किया जाता है। साहिर और खय्याम की जोड़ी ने वर्ष 1976 में प्रदशत फिल्म 'कभी कभी, में भी श्रोताओं को गीत संगीत का नायाब तोहफा दिया लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के निर्माण के समय फिल्म के संगीतकार के रूप में लक्ष्मीकांत प्यारे लाल का चयन किया गया था । फिल्म कभी कभी में यशचोपड़ा पहले संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लेना चाह रहे थे। साहिर के लिखे गीत कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है 'के छंद और ताल के बारे में जब लक्ष्मीकांत 'प्यारेलाल की जोड़ी ने साहिर से पूछा तो उन्होंने अपनी तौहीन समझी और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ काम करने से इन्कार कर दिया। इसके बाद उन्होंने यश चोपड़ा को सलाह दी कि उनके गीतों के लिए संगीतकार खय्याम का चयन किया जाए। इस फिल्म और गीतों की सफलता से साहिर का निर्णय सही साबित हुआ। इसह फिल्म में उनके लिखे गीत आज भी श्रोताओं में लोकप्रिय हैं । साहिर अपनी शर्तों पर गीत लिखा करते थे। एक बार एक फिल्म निर्माता ने नौशाद के संगीत निर्देशन में उनसे से गीत लिखने की पेशकश की। साहिर को जब इस बात का पता चला कि संगीतकार नौशाद को उनसे अधिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है, तो उन्होंने निर्माता को अनुबंध समाप्त करने को कहा। उनका कहना था कि नौशाद महान संगीतकार हैं, लेकिन धुनों को शब्द ही वजनी बनाते हैं। अत: एक रुपया ही अधिक सही गीतकार को संगीतकार से अधिक पारिश्रमिक मिलना चाहिए। गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' साहिर के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई। फिल्म के प्रदर्शन के दौरान अदभुत नजारा दिखाई दिया। मुंबई के मिनर्वा टॉकीज में जब यह फिल्म दिखाई जा रही थी, तब जैसे ही ' जिन्हें ंनाज है हिंद पर वो कहां हैं ' बजा तब सभीदर्शक अपनी सीट से उठकर खड़े हो गए और गाने की समाप्ति तक ताली बजाते रहे। बाद में दर्शकों की मांग पर इसे तीन बार और दिखाया गया। फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में शायद पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था।
साहिर अपने सिने कैरियर में दो बार सर्वश्रोष्ठ गीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गये। सबसे पहले उन्हें 1963 मे प्रदशत फिल्म 'ताजमहल ' के गीत जो 'वादा किया वो निभाना पड़ेगा' के लिए सर्वश्रोष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद 1976 मे प्रदशत फिल्म कभी कभी के 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है' गीत के लिए वे सर्वश्रोष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजे गए। जाने माने निर्माता' निर्देशक बी.आर.चोपडा की फिल्मों को सफलता दिलाने में भी साहिर के गीतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। बी.आर. चोपड़ा की ज्यादातर फिल्में उनके गीतों के कारण ही याद की जाती हैं। इन फिल्मों में नया दौर 1957, धूल का फूल 1959 धर्मपुत्र, 1961, वक्त, 1965, जमीर 1975, जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं। लगभग तीन दशक तक हिन्दी सिनेमा को अपने रूमानी गीतों से सराबोर करने वाले साहिर लुधियानवी 59 वर्ष की उम्र में 25 अक्टूबर 1980 को इस दुनिया-ए- फानी को अलविदा कह गए।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

सबसे जुदा हैं मन्ना डे की गायकी का अंदाज


हिन्दी सिने जगत में पार्श्वगायकों ने श्रोताओं के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है लेकिन इनमें सुप्रसिद्ध पार्श्‍वगायक मन्ना डे कई मायनों में सबसे अलग हैं। मन्ना डे के पाश्र्वगायन के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार कहा था कि मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। इसी तरह आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन यदि मुझसे पूछा जाये तो कहूंगा मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूं। प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म एक मई 1920 को कोलकाता में हुआ। मन्नाडे के पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे लेकिन उनका रझान संगीत की ओर था और वह इसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहते थे। मन्ना डे ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा अपने चाचा के.सी.डे से हासिल की। मन्नाडे के बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाक्या है। उस्ताद बादल खान और मन्नाडे के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे. तभी बादल खान ने मन्ना डे की आवाज सुनी और उनके चाचा से पूछा यह कौन गा रहा है। जब मन्ना डे को बुलाया गया, तो उन्होंने अपने उस्ताद से कहा बस. ऐसे ही गा लेता हूं लेकिन बादल खान ने मन्ना डे की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद वह अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मन्नाडे ४० के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को साकार करने के लिए मुंबई आ गये। वर्ष १९४३ में फिल्म तमन्ना में बतौर पाश्र्वगायक उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालांकि इससे पहले वह फिल्म रामराज्य में कोरस के रूप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है. यही एक एकमात्र फिल्म थी. जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था। मन्ना डे की प्रतिभा को पहचानने वालों में संगीतकार शंकर जयकिशन का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय है। इस जोड़ी ने मन्ना डे से अलग-अलग शैली में गीत गवाये। उन्होंने मन्ना डे से 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम जैसे रमानी गीत और केतकी गुलाब जूही जैसे शाीय राग पर आधारित गीत भी गवाए लेकिन दिलचस्प बात है कि शुरआत में मन्ना डे ने यह गीत गाने से मना कर दिया था। संगीतकार शंकर जयकिशन ने जब मन्ना डे को 'केतकी गुलाब जूही गीत गाने की पेशकश की तो पहले तो वह इस बात से घबरा गये कि भला वह महान शाीय संगीतकार भीमसेन जोशी के साथ कैसे गा पाएंगे। मन्ना डे ने सोचा कि कुछ दिनों के लिए मुंबई से दूर पुणे चला जाए। जब बात पुरानी हो जायेगी तो वह वापस मुंबई लौट आएंगे और उन्हें भीमसेन जोशी के साथ गीत नहीं गाना पडेगा लेकिन बाद में उन्होंने इसे चैंलेंज के रप में लिया और केतकी गुलाब जूहीको अमर बना दिया। वर्ष 1950 में संगीतकार एम. डी. बर्मन की फिल्म मशाल में मन्ना डे को ऊपर गगन विशाल गीत गाने का मौका मिला। फिल्म और गीत की सफलता के बाद बतौर पाश्र्वगायक वह अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये। मन्ना डे को अपने कैरियर के शुरआती दौर में अधिक प्रसिद्धि नहीं मिली। इसकी मुख्य वजह यह रही कि उनकी सधी हुई आवाज किसी गायक पर फिट नहीं बैठती थी। यही कारण है कि एक जमाने में वह हास्य अभिनेता महमूद और चरित्र अभिनेता प्राण के लिए गीत गाने को मजबूर थे। प्राण के लिए उन्होंने फिल्म उपकार में कस्मे वादे प्यार वफा. और जंजीर में यारी है ईमान मेरा यार मेरी ङ्क्षजदगी जैसे गीत गाए। उसी दौर में उन्होंने फिल्म पडोसन में हास्य अभिनेता महमूद के लिए एक चतुर नार गीत गाया तो उन्हें महमूद की आवाज समझा जाने लगा। आमतौर पर पहले माना जाता था कि मन्ना डे केवल शाीय गीत ही गा सकते हैं लेकिन बाद में उन्होंने ऐ मेरे प्यारे वतन . ओ मेरी जोहरा जबीं ये रात भीगी.भीगी . ना तो कारवां की तलाश है और ए भाई जरा देख के चलो जैसे गीत गाकर अपने आलोचकों का मुंह सदा के लिए बंद कर दिया। प्रसिद्ध गीतकार प्रेम धवन ने मन्ना डे के बारे में कहा था मन्ना डे हर रेंज में गीत गाने में सक्षम है। जब वह ऊँचा सुर लगाते है तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान उनके साथ गा रहा है जब वो नीचा सुर लगाते है तो लगता है उसमें पाताल जितनी गहराई है और यदि वह मध्यम सुर लगाते है तो लगता है उनके साथ सारी धरती झूम रही है। मन्ना डे केवल शब्दों को ही नही गाते थे.अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते है। शायद यही कारण है कि प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिये मन्ना डे का चयन किया। मन्ना डे ने अपने पांच दशक के कैरियर में लगभग 3500 गीत गाये। उनके गीतों से सजी कुछ उल्लेखनीय फिल्में है आवारा १९५१ ्दो बीघा जमीन, परिणीता 1953, बूट पालिश 1954, काबुलीवाला 1961, वक्त 1965, तीसरी कसम 1966, उपकार 1967, पड़ोसन 1968, मेरा नाम जोकर, आनंद 1970, शोर 1972, जंजीर, बॉबी 1973, अमर अकबर एंथोनी 1977, कर्ज 1980, लावारिस, क्रांति, 1981 आदि १ मन्ना डे को फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए १९७१ में पदमश्री पुरस्कार .२००५ में पदमभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिये सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक.1971 में बंगला फिल्म निशि पदमा के लिये सर्वश्रेष्‍ठ पार्श्‍वगायक और 1970 में प्रदॢशत फिल्म 'मेरा नाम जोकर के लिए फिल्म फेयर के सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किये गये। मन्नाडे के संगीत के सुरीले सफर में एक नया अध्याय जुड़ गया जब फिल्मों में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुये उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

आखिर कैसे घरों में रहते हैं अरबपति



हम असर सोचते होंगे कि बड़े लोगों का घर कितना बड़ा होता होगा? कैसे रहते होंगे वे इतने बड़े घर में? या घर में उन्हें सुकून मिलता होगा? दूर से कैसा लगता होगा, उनका घर? यदि हमें एक दिन के लिए ऐसे घर में रहने को मिल जाए, तो हम कैसा महसूस ·करेंगे? या उनका घर वाकई स्वर्ग जैसा होता होगा? इन सारी जिज्ञासाओं को शांत करने का एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है, विश्र्वास है, साथियों को यह अच्छा लगेगा।।
ये लोग सिर्फ इसलिए खास नहीं है कि वो अरबपति हैं। उनका जीने का अंदाज भी उन्हें खास बनाता है। मिसाल के तौर पर वो खास हैं क्योंकि वो खास तरह के घरों में रहते हैं। मिसाल के तौर पर स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल के घर में उसी खान के मार्बल लगे हैं जहां के मार्बल का इस्तेमाल ताजमहल को बनाने में किया गया था। वहीं दुनिया के सबसे अमीर शख्स बिल गेट्स के घर में अंडरवाटर म्यूजिक सिस्टम लगा है। ऐसे भी अरबपति हैं जिनके घर में गोल्ड प्लेटेड इनडोर पूल है तो एक अरबपति ने अपने घर में फायर ब्रिगेड का इंतजाम कर रखा है।
यहॉं रहते हैं अरबपति- लक्ष्मी मित्तल
दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सालाना लिस्ट छापने वाली मैगजीन फोर्ब्स ने लक्ष्मी मित्तल के घर के बारे में लिखा है कि उनके घर में तुर्की स्टाइल के बाथरूम हैं और 20 कारों के लिए गैरेज है। इस घर में उसी खान के संगरमरमर हैं, जहां के संगमरमर से ताजमहल बना है। लंदन के पास लक्स किंगस्टन में बना 12 बेडरूम का उनका घर दरअसल महल ही है। लक्ष्मी निवास मित्तल अरबपतियों की वर्ल्ड लिस्ट में आठवें नंबर पर हैं और उनकी जायदाद 19.3 अरब डॉलर आंकी गई है।
यहां रहते हैं अरबपति- बिल गेट्सa href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhllH3TNdQAc4eKbqphLaEXpZe7LeO3jcj5jHCU2petMThjVBvSW0IxBf_xyS9qG7qDbcwwGPFvjOYeDvkXo642Xv43AQQ7sFrhyphenhyphenMytsdLZ8qKsfne501cxKmw5WUdlTsuDViIdutZ0UYs/s1600-h/0003.jpg">
सॉफ्टवेयर की दुनिया के किंग बिल गेट्स एक बार फिर दुनिया के सबसे अमीर इंसान बन गए हैं। इस साल की फोर्ब्स लिस्ट में उन्होंने वारेन बफे को दूसरे नंबर पर धकेल किया। फोर्ब्स की जायदाद 40 अरब डॉलर आंकी गई है। फोर्ब्स के मुताबिक वाशिंगटन में उनका घर एक झील के किनारे बना है। ये घर किसी महल की तरह है, जहां की सुख-सुविधाओं की कोई तुलना नहीं है। इस घर में 60 फुट लंबा स्वीमिंग पूल है, जिसमें अंडरग्राउंड म्यूजिक सिस्टम है। इसमें 2500 स्क्वायर फुट का जिम है और 1000 स्क्वायर फुट का डायनिंग हॉल। इसमें एक साथ 24 मेहमान बैठकर भोजन कर सकते हैं।
यहां रहते हैं अरबपति- लेव लेविएव
फोर्ब्स की अमीरों की लिस्ट में लेव लेविएव काफी पीछे 468वें स्थान पर हैं। लेकिन उनका घर इस रेंक के हिसाब से काफी ऊपर है। फोर्ब्स के मुताबिक लंदन में लेविएव के घर में गोल्ड प्लेटेड स्वीमिंग पूल और घर में ही नाइट क्लब है। इस घर की कीमत है 6.5 करोड़ डॉलर और इसका नाम है पैलाडियो। ये 17,000 स्क्वायर फुट में फैला महल है। इसमें सात बेडरूम है और इसमें तमाम सुख-सुविधा का इंतजाम है।
यहां रहते हैं अरबपति-लैरी एलिसन
फोर्ब्स के मुताबिक ओरैकल के को-फाउंडर लैरी एलिसन का घर 16वीं सदी के किसी जापानी महल की याद दिलाता है। लेरी एलिसन फोर्ब्स के अरबपतियों की लिस्ट में चौथी पोजिशन पर है और उनकी जायदाद है 22.5 अरब डॉलर। उनका वुडसाइड में बने घर के बारे में कहा जाता है कि इसे बनाने में 10 करोड़ डॉलर का खर्च आया है। ये 23 एकड़ में फैला हुआ है।
यहां रहते हैं अरबपति: जॉर्ज लुकास
अरबपति फिल्ममेकर जॉर्ज लुकास का शानदार घर भी इस लिस्ट में काफी ऊपर है। इस घर के लिए अलग से अपना फायर ब्रिगेट है। घर के चारों और पांच एकड़ में ओलिव यानी जैतून के बाग हैं। इस घर में मधुमक्खियों की पूरी बस्ती है और पालतू जानवरों के लिए भी ढेर सारी जगह है। लुकास फोर्ब्स की लिस्ट में 205वें स्थान पर हैं और उनकी जायदाद है तीन अरब डॉलर।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

पर्यावरणीय संकट है अम्लीय वर्षा


स्वाति शर्मा
संपूर्ण विश्व अभी ओजोन क्षरण और ग्रीन हाउस प्रभाव के दुष्परिणाम से उबर भी नहीं पाया है, कि अम्लीय वर्षा ने पर्यावरण को संकट में डाल दिया है। यह समस्या अभी विकसित देशों में तबाही मचा रही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब यह समस्या विकासशील देशों के आगे खड़ी हो जाएगी। अम्लीय वर्षा पर्यावरण के सभी घटकों (भौतिक एवं जैविक) को खतरे में डाल देती है। जब मानव जनित dोतों से उत्सर्जित सल्फर डाई ऑक्साइड (एस ओ 2) एवं नाइट्रोजन ऑक्साइड (एन ओ 2) गैस वायुमंडल की जल वाष्प के साथ मिलकर सल्फ्यूरिक एसिड व नाइट्रिक एसिड का निर्माण करती हैं तथा यह अम्लश जल के साथ पृथ्वी के धरातल पर पहुंचता है, तो इस प्रकार की वर्षा को अम्लीय वर्षा कहते हैं। प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट करने में अम्लीय वर्षा की प्रमुख भूमिका होती है। यह वर्षा मुख्यतया कनाडा, स्वीडन, नार्वे, फिनलैंड, इंग्लैंड, नीदरलैण्ड, जर्मनी, इटली, फ्रांस, तथा यूनान जैसे विकसित देशों में विगत चार-पांच दशक से एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या बनी हुई है। इसने धारातल पर मौजूद संपूर्ण भौतिक एवं जैविक जगत को खतरे में डाल दिया है। अम्लीय वर्षा का दुष्प्रभाव एक स्थान विशेष तक ही सीमित नहीं रहता और न ही यह सल्फर डाइ ऑक्साइड तथा नाइट्रस ऑक्साइड उगलने वाले औद्योगिक एवं परिवहन dोतों के क्षेत्रों तक ही सीमित रहता है। यह dोतों से दूर अत्यधिक विस्तृत क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है, क्योंकि अम्लीय वर्षा के उत्तरदायी कारक गैसीय रूप में होते हैं, जिन्हें हवा तथा बादल दूर तक फैला देते हैं। जिससे ब्रिटेन एवं जर्मनी में स्थित कारखानों से निकली सल्फर डाइ ऑक्साइड एवं नाइट्रस ऑक्साइड के कारण नार्वे, स्वीडन तथा फिनलैण्ड में विस्तृत अम्लीय वर्षा होती है, जिसके फल स्वरूप इन देशों की अधिकांश झीलों के जैवीय समुदाय समाप्त हो चुके है, इसीलिए ऐसी झीलों को अब जैविकीय दृष्टि से मृत झील कहते हैं। अम्लीय वर्षा नामक यह पर्यावरणीय आपदा भारतवासियों को भी झेलनी पड़ सकती है। नई दिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए वैज्ञानिक अधययनों के अनुसार भारत के कुछ हिस्सों में वर्षा जल की रासायनिक प्रकृति धीरे-धीरे अम्लीयता की ओर बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार राजधानी दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश, तमिलनाडु एवं अंडमान द्वीपों में वर्षा जल की अम्लीयता लगातार बढ़ती जा रही है। भारत के प्रमुख औद्योगिक शहरों मुंबई, कोलकाता, कानपुर, नई दिल्ली, आगरा, नागपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद, जयपुर, चेन्नई एवं जमशेदपुर आदि नगरों के वायुमंडल में अम्लीय वर्षा उत्पन्न करने वाली विषाक्त सल्फरडाइ ऑक्साइड गैसों की सांद्रता काफी बढ़ गई है। एक अनुमान के अनुसार सन् 1990 में हमारा देश 4400 किलो टन सल्फर हवा में छोड़ता था, जबकि आज इसकी मात्रा बढ़ कर 7500 किलो टन के आसपास है जो सन् 2015 एवं 2020 में बढ़ कर क्रमश: 10900 किलो टन एवं 18500 किलो टन हो जाएगी। भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर व वर्ल्ड मीट्रोलॉजिकल ऑरगनाइजेशन द्वारा किए गए अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि अधिकांश भारतीय नगरों में वर्षा जल में अम्लता का स्तर सुरक्षा सीमा से अभी कम है, लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब अम्लीय वर्षा विकसित देशों की तरह भारत में भी तबाही मचाना शुरू कर देगी। भारत में भी हानिकारक गैसों की सांद्रता पर रोकथाम पूरी तरह प्रभावी नहीं हो पा रही है। अम्लीय वर्षा का पारिस्थितिक तंत्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है, जिससे इसमें रहने वाले जीव-जंतु नष्ट होने लगते हैं। कनाडा के ओन्टोरियों प्रांत में 2,50,000 झीलों में से 50,000 झीलें अम्लीय वर्षा से बुरी तरह प्रभावित हैं जिनमें से 140 झीलों को मृत घोषित कर दिया गया है। अम्लीय वर्षा का वनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इससे पत्तियों की सतह पर मोम जैसी परत नष्ट हो जाती है, साथ ही पत्तियों के स्टोमेटा बंद हो जाते हैं। कनाड़ा, यू.एस.ए. स्वीडन, नार्वे, फिनलैण्ड, जर्मनी व मधय यूरोप के कई देशों में वन संपदा को अम्लीय वर्षा से भारी क्षति हुई है।
स्वाति शर्मा

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

असुरक्षित सीमाओं पर फैला आतंकवाद


डॉ. महेश परिमल
आज देश की कोई भी सीमा सुरक्षित नहीं है। उधर चीन लगातार अतिक्रमण कर रहा है, पाकिस्तान तो आजादी के बाद से ही सरदर्द बना हुआ है। बंगला देश से शरणार्थी के नाम आने वाले अपराधी अब पूरी तरह से देश पर छा गए हैं। असुरक्षित सीमाओं की ओर सरकार का ध्यान अभी गया है। लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। उधर पाकिस्तान हमारे लिए सरदर्द बना हुआ है। पहले तो उसके निशाने पर केवल भारत था, इसलिए उसने आतंकवाद को पनाह दी। आतंकवादियों को पाला। उन्हें हर तरह की सहायता की। उनकी बदौलत ही आतंकवादियों ने भारत में घुसपैठ की। यहाँ निर्दोषों की हत्या की। आगजनी कर देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया। एक बार तो ये आतंकवादी संसद की देहरी तक पहुँच गए। पिछले 62 साल से हमारा देश इसी पाकिस्तान के कारण परेशान रहा है। आज कश्मीर की जो हालत है, उसके पीछे यही पाकिस्तान है। भारत को लेकर उसके इरादे कभी नेक नहीं रहे। भारत अपनी कुछ कमजोरियों की वजह से पाकिस्तान के खिलाफ कभी मुँहतोड़ जवाब नहीं दे पाया। हर मामले में पाकिस्तान से सबल होने के बाद भी भारत ने अभी तक उस पर कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं की, यह समझ से परे है।
खैर, जैसा कि कहा गया है कि बबूल बोकर आप किसी स्वादिष्ट फल की अपेक्षा नहीं रख सकते। ठीक वही हाल आज पाकिस्तान का है। आज यह देश आतंकवाद का सरगना बन गया है। एक नहीं कई आतंकवादी संगठन वहाँ सुरक्षित हैं।इसके बाद भी वह आतंक से खुद को बचा नहीं पा रहा है। भारत में जब दीपावली मनाई जा रही थी, तब वहॉं खून की होली खेली जा इन आतंकवादियों की नजर भारत और अफगानिस्तान पर है। आज पाकिस्तान पूरी तरह से एक असुरक्षित देश बनकर रह गया है। अब हो यह रहा है कि जिन आतंकी संगठनों को उसने भारत के लिए तैयार किया था, अब वही संगठन उसके लिए खतरा बन गए हैं। पाकिस्तान के भीतर ही आतंकवाद की आग जल रही है। अफगानिस्तान से भागे अधिकांश आतंकी संगठन पाकिस्तान में ही शरण ले रहे हैं। इन संगठनों का एक सिरे से सफाया आज की जरूरत है।
पाकिस्तान का खूंखार आतंकवादी बैतुल्लाह महसूम मारा गया, इसका यह आशय कदापि नहीं है कि पाकिस्तान में शांति स्थापित हो गई है। ऐसे तो दर्जनभर खूंखार आतंकवादी पाकिस्तान में भरे हुए हैं। तहरीक-ए- तालिबान का सरगना बैतुल्लाह अपने ससुराल में पत्नी से मिलने आया था, तब अमेरिका के ड्रोन अटेक में मारा गया। पहले तो तालिबान में यह प्रचार किया गया कि बैतुल्लाह अभी जिंदा है, पर बाद में यह स्वीकार कर लिया गया कि वह अमेरिकी हमले में मारा गया है। वैसे कुछ हद तक इसका श्रेय पाकिस्तान ले रहा है, पर सभी जानते हैं कि इस संबंध में करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी किया, अमेरिकी सैनिकों ने किया। पाकिस्तान के लिए तो बैतुल्लाह जैसे अनेक मोस्ट वांटेड आतंकवादी सरदर्द बने हुए हैं।
आज अमेरिका पाकिस्तान पर यह दबाव बना रहा है कि केवल एक बैतुल्लाह से काम नहीं चलने वाला, आतंकवादियों को पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर दिया जाए। वैसे यह केवल पाकिस्तान के बस की बात नहीं है। क्योंकि इन आतंकवादियों की पहुँच काफी दूर तक है। सबसे बड़ी शह तो इन्हें पाकिस्तान से ही मिली है। अब पाकिस्तान इन आतंकवादी संगठनों के आगे कितना कड़क हो पाता है, यह सभी जानते हैं।
बैतुल्लाह मारा गया, उसके बाद उसका स्थान 28 वर्षीय हकीमुल्लाह महसूद ने ले लिया। आतंकी इसे जुल्फीकार महसूद के रूप में जानते हैं। यह आतंकी भी मोस्ट वांटेड है। बम विस्फोट की अनेक साजिशों का यह सूत्रधार रहा है। पहले तो पाकिस्तान सरकार यह मान रही थी कि यह शख्स मर गया है, पर जब उसने बंदूक नोक पर जब तहरीक-एक-तालिबान की कमान सँभाली, तब उसे होश आया। यदि इसका आपराधिक रिकॉर्ड देखा जाए, तो हकीममुल्लाह, बैतुल्लाह से भी अधिक खतरनाक है। पाकिस्तान में ऐसे कई खूंखार आतंकवादी अपने-अपने संगठन चला रहे हैं। जिसमें मौलाना फैजल्लुहा का समावेश होता है। आतंकवादी इसे मुल्लाह रेडियो के नाम से जानते हैं। इसी तरह लश्कर-ए- जंगवी का सरगना मातीउर रहमान है। यह अलकायदा की तमाम आतंकी योजनाओं को तैयार करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी तरह एक और संगठन है तहरीक-ए-तालिबान, इसका सरगना मौलवी फकीर मोहम्मद अमेरिकी सैनिकों की पकड़ से भाग गया था। कहा जाता है कि उसी तरह तहरीक-ए- पाकिस्तान का दूसरा आतंकी करी हुसैन महमूद स्यूसाइड बोम्बर का टीचर है। दक्षिण वजीरीस्तान में वह मासूमोंं को यह सिखाता है कि आत्मघाती हमला किस तरह से किया जाए। आतंकी संगठन इसे उस्ताद एफियादीन के नाम से जानता है। मतलब यह कि फियादीन हमला किस तरह से किया जाए, यह उसका प्रशिक्षण देता है। 1994 में बेनजीर भुट्टो की सरकार गिराने की जिम्मेदारी जिसे सौंपी गई थी, वही करी सैफुल्ला अख्तर अफगानिस्तान से भाग आया था।
अफगानिस्तान में जब तालिबानों का वर्चस्व था, तब तालिबान के प्रधानमंत्री मुल्लाह उमर का यह सलाहकार था। बेनजीर पर जो प्राणघातक हमला हुआ, उसके पीछे इसी खूंखार आतंकी का हाथ था, ऐसा माना जाता है। यह आतंकी इस समय वजीरीस्तान में है। इसी तरह एक और आतंकवादी है, जो पाकिस्तान में छिपा बैठा है। इसका नाम है मौलाना फजलुर रहमान खलील। ओसामा बिन लादेन के इंटरनेशनल इस्लामिक फं्रट के साथ यह जुड़ा था। सोवियत संघ के खिलाफ काफी समय से यह जिहाद चला रहा है। अगस्त 1998 में जब अल कायदा के अड्डे पर अमेरिका ने हमला किया, तब रावलपिंडी में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में इसने यह कहा था कि यदि हममें से एक आदमी भी मारा जाता है, तो हम 100 अमेरिकन को मार डालेंगे। इसके बाद तो यह महाशय अचानक कहाँ गायब हो गए, पता ही नहीं चला।
मौलाना मसूद अजहर 1994 में श्रीनगर आया था, ऐसा माना जाता है। यहाँ आकर उसने आतंकियों को प्रशिक्षण दिया था। तभी वह पकड़ा भी गया था। इसकी रिहाई के लिए इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर कंधार ले जाया गया था। उसके बाद ही सौदेबाजी हुई। इसी सौदेबाजी में उसे छोड़ दिया गया था। इसके बाद आईएसआई ने उसे पूरी तरह से सुरक्षित स्थान पर छिपा दिया था। खूुखार आतंकियों में एक और नाम है प्रोफेसर हफीज मोहम्मद सईद। मुंबई में हमले के बाद पाकिस्तान ने इसे पकड़ा तो था, पर सबूत के अभाव में उसे छोड़ दिया था। काफी समय से भारत को परेशान करने वाला एक और आतंकवादी है सईद सलाल्लुद्दीन। इसके संगठन हैजुबुल्लाह मुजाहिदीन में अधिकांश आतंकी कश्मीर के हैं। पाकिस्तान इन्हें कश्मीर की आजादी के लिए लडऩे वाले क्रांतिकारी बताता है।
पाकिस्तान में छिपे इस आतंकवादियों संगठनों में से आधे की नजर भारत पर है। शेष अफगानिस्तान में तबाही मचाना चाहते हैं। ये लोग पाकिस्तानी शासकों के भी विरोधी हैं, क्योंकि पाकिस्तान बार-बार अमेरिकी मदद माँग रहा है। इन सभी आतंकवादियों को पाकिस्तान ही पाल-पोस रहा है। इस लोगों को नेस्तनाबूत करने की हिम्मत पाकिस्तान सरकार के पास तो है ही नहीं। कई बार तो ये संगठन पाकिस्तानी सरकार पर ही हावी हो जाते हैं। इसीलिए पाकिस्तान आज पूरी तरह से अस्थिर देश बन गया है। केवल आतंकवादियों के खौफ और अमरीकी मदद से आखिर कब तक यह देश टिक पाएगा, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

सौंदर्य और अभिनय का अनूठा संगम- हेमामालिनी


आज जन्‍म दिवस
प्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना हेमा मालिनी बालीवुड की उन गिनी.चुनी अभिनेत्रियों में शामिल हैं. जिनमें सौंदर्य और अभिनय का अनूठा संगम देखने को मिलता है। लगभग चार दशक के कैरियर में उन्होंने कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया लेकिन कैरियर के शुरआती दौर में उन्हें वह दिन भी देखना पडा था. जब एक निर्माता.निर्देशक ने उन्हें यहां तक कह दिया था कि उनमें स्टार अपील नहीं है।
ड्रीमगर्ल, हेमा मालिनी ने जब फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा ही था तब एक तमिल निर्देशक श्रीधर ने उन्हें अपनी फिल्म में काम देने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि उनमें स्टार अपील नहीं है१ बाद में सत्तर के दशक में इसी निर्माता.निर्देशक ने उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए उन्हें लेकर १९७३ में, गहरी चाल, फिल्म का निर्माण किया१ हेमा मालिनी फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाने के लिए १९६८ तक संघर्ष करती रहीं लेकिन उन्हें काम नहीं मिला१ वह साल उनके सिने कैरियर का सुनहरा वर्ष साबित हुआ जब उन्हें सुप्रसिद्ध निर्माता.निर्देशकऔर अभिनेता राजकपूर की फिल्म, सपनों का सौदागर, में पहली बार नायिका के रूप में काम करने का मौका मिला। फिल्म के प्रचार के दौरान हेमा मालिनी को, ड्रीम गर्ल, के रूप में प्रचारित किया गया। बदकिस्मती से फिल्म टिकट खिडकी पर असफल साबित हुई लेकिन अभिनेत्री के रूप में हेमा मालिनी को दर्शकों ने पसंद कर लिया।
हेमा मालिनी का जन्म १६ अक्टूबर १९४८ को तमिलनाडु के आमानकुंडी में हुआ था। उनकी मां जया चक्रवर्ती फिल्म निर्माता थीं। घर में फिल्मी माहौल होने से हेमा मालिनी का झुकाव भी फिल्मों की ओर हो गया। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा चेन्नई से पूरी की । वर्ष १९६१ में हेमा मालिनी को एक लघु नाटक, पांडव वनवासम, में बतौर नर्तकी काम करने का अवसर मिला। हेमा मालिनी को पहली सफलता वर्ष १९७० में प्रदॢशत फिल्म, जॉनी मेरा नाम, से हासिल हुयी। इसमें उनके साथ अभिनेता देवानंद मुख्य भूमिका में थे। फिल्म में हेमा और देवानंद की जोड़ी को दर्शकों ने सिर आंखों पर लिया और फिल्म सुपरहिट रही। हेमा मालिनी को प्रारंभिक सफलता दिलाने में निर्माता.निर्देशक रमेश सिप्पी की फिल्मों का बड़ा योगदान रहा। उन्हें पहला बड़ा ब्रेक उनकी ही फिल्म, अंदाज, १९७१ से मिला। इसे महज संयोग कहा जायेगा कि निर्देशक के रूप में रमेश सिप्पी की यह पहली फिल्म थी। इस फिल्म में हेमा मालिनी ने राजेश खन्ना की प्रेयसी की भूमिका निभायी, जो उनकी मौत के बाद नितांत अकेली हो जाती है। अपने इस किरदार को हेमा मालिनी ने इतनी संजीदगी से निभाया कि दर्शक उस भूमिका को आज भी भूल नही पाये हैं १ वर्ष १९७२ में हेमा मालिनी को रमेश सिप्पी की ही फिल्म, सीता और गीता, में काम करने का अवसर मिला, जो उनके सिने कैरियर के लिये मील का पत्थर साबित हुयी। इस फिल्म की सफलता के बाद वह शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचीं। उन्हें इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिये सर्वŸोष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। रमेश सिप्पी निर्देशित फिल्म सीता और गीता में जुड़वा बहनों की कहानी थी, जिनमें एक बहन ग्रामीण परिवेश में पली. बढ़ी है और डरी सहमी रहती है जबकि दूसरी तेज तर्रार युवती होती है।
हेमा मालिनी के लिये यह किरदार काफी चुनौती भरा था लेकिन उन्होंने अपने सहज अभिनय से न सिर्फ इसे अमर बना दिया बल्कि भविष्य की पीढ़ी की अभिनेत्रियों के लिये इसे उदाहरण के रूप में पेश किया । बाद में इसी से प्रेरित होकर फिल्म, चालबाज, का निर्माण किया गया, जिसमें दोहरी भूमिका वाली बहनों का किरदार श्रीदेवी ने निभाया। हेमा मालिनी सीता और गीता से फिल्म इंडस्ट्री में शोहरत की बुलंदियों पर पहुंची लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के निर्माण के समय निर्देशक रमेश सिप्पी नायिका की भूमिका के लिए मुमताज का चयन करना चाहते थे लेकिन किसी कारण से वह यह फिल्म नहीं कर सकी। बाद में हेमा मालिनी को इस फिल्म में काम करने का अवसर मिला। परदे पर हेमा मालिनी की जोडी धर्मेन्द्र के साथ खूब जमी। यह फिल्मी जोंडी सबसे पहले फिल्म, श्राफत, से चर्चा में आई। वर्ष १९७५ में प्रदॢशत फिल्म शोले में धर्मेन्द्र ने वीर और हेमामालिनी ने बसंती की भूमिका में दर्शकों का भरपूर मनोंरजन किया।
हेमा और धमेन्द्र की यह जोड़ी इतनी अधिक पसंद की गई कि धर्मेन्द्र की रील लाइफ की ड्रीम गर्ल. हेमामालिनी उनके रीयल लाइफ की ड्रीम गर्ल बन गईं। बाद में इस जोड़ी ने ड्रीम गर्ल, चरस, आसपास प्रतिज्ञा, राजा जानी, रजिया सुल्तान, अली बाबा चालीस चोर, बगावत, आतंक, द बॄनग ट्रेन, चरस, दोस्त, आदि फिल्मों में एक साथ काम किया।
वर्ष १९७५ हेमा मालिनी के सिने कैरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। उस वर्ष उनकी संन्यासी, धर्मात्मा, खूशबू और प्रतिज्ञा जैसी सुपरहिट फिल्में प्रदॢशत हुई। उसी वर्ष हेमा मालिनी को अपने प्रिय निर्देशक रमेश सिप्पी की फिल्म, शोले, में काम करने का मौका मिला। इस फिल्म में अपने अल्हड़ अंदाज से हेमा मालिनी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। फिल्म में हेमा मालिनी के संवाद उन दिनों दर्शकों की जुबान पर चढ़ गये और आज भी सिने प्रेमी उन संवादों की चर्चा करते हैं। सत्तर के दशक में हेमा मालिनी पर आरोप लगने लगे कि वह केवल ग्लैमर वाले किरदार ही निभा सकती है लेकिन उन्होंने खुशबू १९७५ किनारा, १९७७ और मीरा १९७९ जैसी फिल्मों में संजीदा किरदार निभाकर अपने आलोचकों का मुंह हमेशा के लिये बंद कर दिया । इस दौरान हेमा मालिनी के सौंदर्य और अभिनयका जलवा छाया हुआ था। इसी को देखते हुये निर्माता प्रमोद चक्रवर्ती ने उन्हें लेकर फिल्म, ड्रीम गर्ल, का निर्माण तक कर दिया । वर्ष १९९० में हेमा मालिनी ने छोटे पर्दे की ओर भी रूख किया और धारावाहिक नुपूर का निर्देशन भी किया। इसके बाद वर्ष १९९२ में फिल्म अभिनेता शाहरूख खान को लेकर उन्होंने फिल्म एदिल आशना है एका निर्माण और निर्देशन किया । वर्ष १९९५ में उन्होंने छोटे पर्दे के लिये, मोहिनी, का निर्माण और निर्देशन किया।
फिल्मों में कई भूमिकाएं निभाने के बाद हेमा मालिनी ने समाज सेवा के लिए राजनीति में प्रवेश किया और भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से राज्य सभा की सदस्य बनीं। हेमा मालिनी को फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए १९९९ में फिल्मफेयर का लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड और २००३ में जी सिने का लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड दिया गया । इसके अलावा वह २००० में पद्मश्री सम्मान से भी सम्मानित की गयीं। हेमा मालिनी ने अपने चार दशक के सिने कैरयिर में लगभग १५० फिल्मों में काम किया। उनकी कुछ उल्लेखनीय फिल्में हैं, सीता और गीता, १९७२, प्रेम नगर, अमीर गरीब १९७४, शोले, १९७५ महबूबा, चरस १९७६, ड्रीम गर्ल, किनारा १९७७, त्रिशूल १९७८, मीरा १९७९, कुदरत, नसीब, क्रांति १९८०, अंधा कानून, रजिया सुल्तान १९८३, रिहाई १९८८, जमाई राजा, १९९० बागबान २००३ वीर जारा २००४ आदि ।
प्रेम कुमार

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

सजग आँखों को बंद करने की साजिश


डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जाने का अवसर मिला। तेजी से आगे बढ़ती इस राजधानी में कई दृश्य चौंकाने वाले मिले। इन सबमें मुख्य था, फाफाडीह थाने से करीब 200 मीटर की दूरी पर छोटी रेल्वे लाइन के पास एक व्यक्ति पक्षियों की बिक्री कर रहा था। थाने के इतने करीबे पक्षियों की बिक्री! मुझे आश्चर्य हुआ। पक्षियों की बिक्री क्या अपराध नहीं है? लगातार तीन दिनों तक यह नजारा मैंने देखा। एक बार समीप ही थाने चला गया। सोचा पुलिस वालों को इस अपराध से अवगत करा दूँ। पुलिस थाने का नजारा तो अजीब-सा था। एक तो वहाँ सुनने वाला ही कोई नहीं था। जब मैं जाने लगा, तब वहाँ बैठे हवलदार ने कहा कि आप टीआई साहब से मिल लें। मैं टीआई साहब के पास पहुँचा। मैंने कहा कि थाने के इतने करीब पक्षियों की बिक्री खुलेआम हो रही है, आप लोग कुछ नहीं करते? तब टीआई ने कहा कि आपको तो वन विभाग में जाना चाहिए। यहाँ क्यों आए हैं? मैं चौंका, मैंने टीआई से पूछा- क्या पक्षियों की बिक्री अपराध नहीं है? तब टीआई ने जो जवाब दिया, वह तो और भी चौंकाने वाला था। उनका कहना था कि इस बारे में मुझे कानून पढऩा पड़ेगा और कानून पढऩे के लिए मेरे पास समय नहीं है।
छोटे-छोटे अपराधियों को पकड़कर उन्हें प्रताडि़त करने वाली पुलिस इन्हें पहले तो पकड़ लेती है, बाद में उन पर कानून की धारा लगाई जाती है। दूसरी ओर पक्षियों में खरीदी-बिक्री अपराध की श्रेणी में आता है या नहीं, इसके लिए एक टीआई को कानून पढऩा पड़ेगा। वाह क्या बात है? अगले दिन जब मैंने पक्षी बेचने वाले से पूछा कि भाई, थाने के इतने समीप बैठकर यह अपराध कर रहे हो, तुम्हें डर नहीं लगता? तब उसका जवाब तो और भी चौंकाने वाला था। थाने के पास बैठा यह अपराध कर रहा हूँ, तो इसके पीछे भी कुछ न कुछ होगा ही साहब, आप मेरा मुँह क्यों खुलवा रहे हैं? मुझे इनसे संरक्षण मिलता है, डर नहीं लगता।
मैं हैरान था। क्या मेनका गांधी की संस्था से जुड़ा कोई भी व्यक्ति रायपुर में नहीं है? रायपुर में पुलिस थाने के पास ही वन विभाग का एक कार्यालय है। निश्चित रूप से उस रास्ते से वन विभाग के कर्मचारी भी गुजरते होंगे। पर किसी को नहीं पड़ी है कि खामोश परिंदों को इस तरह से खुलेआम बेचने वाले के खिलाफ शिकायत की जाए। मुझे तो 24 सितम्बर 2009 को ही छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी बिलासपुर की घटना याद आ गई। टीआई साहब अखबार पढ़ते, तो पता चलता कि बिलासपुर में एक जागरुक नागरिक अजरुन भोजवानी ने तोते बेचने वाले एक व्यक्ति के खिलाफ शिकायत दर्ज की, तो वन और पुलिस विभाग ने मिलकर तोता शिकारी को पकड़कर उसके पास से 16 तोते जब्त कर वन अधिनियम की कार्रवाई कर जेल भेज दिया। इनके खिलाफ वन अधिनियम 1972 की धारा 2 अ, 39 अ, 50, 51, 1,2 के तहत कार्रवाई कर उसे न्यायालय में पेश किया गया।

हमारी आँखों के सामने रोज ही इतने अधिक अपराध हो रहे हैं, इसकी हमें जानकारी ही नहीं है। अपराधी भी बेखौफ हैं। उनके बेखौफ होने का कारण यही है कि जिन पर कानून को अमल में लाने की जिम्मेदारी है, वही अपराधियों का संरक्षण दे रहे हैं। कई अपराध तो ऐसे हैं, जिन पर किसी का बस नहीं है। सड़क किनारे एक पत्थर कब, कैसे एक मंदिर का रूप धारण कर लेता है, किसी को पता ही नहीं चलता। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दे रखा है कि सड़कों के किनारे किसी भी तरह की खाद्य सामग्री न बेची जाए। यदि सड़क किनारे ठेेलों पर खाद्य सामग्री बेची जा रही हो, तो बेचने वाले के खिलाफ कार्रवाई की जाए। हम इस आदेश की सरे आम धज्जियाँ उड़ती देख रहे हैं। यही हाल पायरेटेड सीडी का भी है। लेकिन हम रोज ही सड़क किनारे पायरेटेड सीडी बिकती देख रहे हैं। इस तरह से कई ऐसे दृश्य हैं, जो अब आम हो गए हैं। कभी सड़क की सफाई होती देख हम समझ जाते हैं कि कोई वीआईपी आने वाला है। वास्तव में यदि सफाई रोज हो, तो कोई नई बात सामने नहीं आती।
कुछ होने और कुछ न होने के पीछे कई कारण हैं। अव्यवस्थाओं के बीच जीने के हम आदी हो चुके हैं। कोई भी व्यवस्थित चीज आज हमें विचलित कर देती है। सुव्यवस्था के नाम पर हम विदेशों का उदाहरण ही लेते हैं। अव्यवस्था आज हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गई है। इसके बिना जीने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यात्रा करते हुए यदि टीसी हमसे बिना धन लिए ही रिजर्वेशन कर देता है, तो हमें आश्चर्य होता है। निजी अस्पताल में नर्स और डॉक्टरों का व्यवहार काफी अच्छा है, तो हमें उन पर विश्वास नहीं होता। यही हाल सरकारी दफ्तरों का है, जहाँ यदि बाबू ने हमारा काम बिना धन लिए ही कर दिया, तो हम उसे मूर्ख समझते हैं। अब तो हमारी प्रवृत्ति ही हो गई है रिश्वत देना। हम तो तैयार बैठे हैं, हमने मान ही लिया है कि आज बिना धन के कोई काम हो ही नहीं सकता। यह सब उस रोग के लक्षण हैं, जो एक देश को बीमार करने वाला है। शरीर के नाखून यदि पीले होने लगे, तो समझो, हमें पीलिया हो गया है। हर रोग के लक्षण पहले शरीर में दिखाई देते हैं, ठीक उसी तरह आज हमारे देश को लगने वाले रोग के लक्षण समाज में दिखाई दे रहे हैं। चारों ओर अव्यवस्था, रिश्वतखोरी, हरामखोरी, भ्रष्टाचार आदि भयावह रोग के लक्षण के रूप में हमारे सामने हैं। हमें इन सबसे बचना होगा। शुरुआत खुद से ही करनी होगी, तभी समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। क्या आप तैयार हैं इस परिवर्तन के लिए?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

आखिर कब रुकेगी महंगाई


सरकार ने शिक्षा एवं चिकित्सा दोनों महंगी कर रखी हैं। मकान किराया कई गुना बढ़ गया है। आवासीय समस्या से चिंतित लोगों को सरकार ने आवासीय योजनाओं के तहत झुनझुना पकड़ाया। ढंग का मकान बना पाना एक बहुत ही मुश्किल काम हो गया। पति-पत्नी दोनों कमाऊ हैं तो जुगाड़ जम भी सकता है अन्यथा समस्या विकट होती जा रही है। निजी क्षेत्रों में रोजगार जरूर हैं किंतु सुरक्षा की कहीं कोई गारंटी नहीं।महंगाई की मार ने देशवासियों की दीवाली फीकी कर दी। मंदी की मार से शायद दीपावली के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था उबर जाए। बारिश ने किसानों की चिंताएं कुछ हद तक जरूर कम कर दी। चिंता सिर्फ महंगाई को लेकर बढ़ रही है क्योंकि महंगाई सुरसा के मुंह की तरह ही बढ़ती जा रही है।आम इंसान अपनी ढीली पड़ती जेब से तंगहाल है। कृषि मंत्री शरद पवार और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अलग डरा रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी। सवाल यह उठता है कि महंगाई के अनुपात में आम इंसान की आय क्यों नहीं बढ़ पा रही हैं। छठे वेतन आयोग से लाभान्वित सरकारी नौकरशाह जरूर खुश हैं। बोनस से वंचित गैर-सरकारी क्षेत्रों में सेवारत नागरिकों की नींद हराम हो चुकी है।सरकार ने शिक्षा एवं चिकित्सा दोनों महंगी कर रखी हैं। मकान किराया कई गुना बढ़ गया है। आवासीय समस्या से चिंतित लोगों को सरकार ने आवासीय योजनाओं के तहत झुनझुना पकड़वाया। ढंग का मकान बना पाना एक बहुत ही मुश्किल काम हो गया। पति-पत्नी दोनों कमाऊ हैं तो जुगाड़ जम भी सकता है अन्यथा समस्या विकट होती जा रही है।निजी क्षेत्रों में रोजगार जरूर हैं किंतु सुरक्षा की कहीं कोई गारंटी नहीं। शासकीय नौकरी पाना स्वयं में किसी बहुत बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। नौकरी मिल नहीं रही और जिन्हें किस्मत से मिल गई है, उनके दिमाग सातवें आसमान पर हैं। विगत दो माह से हर तरफ हड़ताल ही हड़ताल तो जारी है। सभी को चाहिए कि अधिक से अधिक वेतन और अधिक से अधिक भौतिक सुख-साधन। चीनी, अनाज, दलहन और तिलहन के बढ़ते हुए दामों ने आम इंसान के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। खाने की थाली दिन-प्रतिदिन छोटी होती जा रही है और दाम बढ़ते जा रहे हैं। पांच रुपये में तो ठीक से चाय भी नहीं मिल पा रही है। अन्य वस्तुओं की तो बात ही अलग है। लोगों ने कम चीनी वाली बगैर दूध की चाय पीनी शुरू कर दी है। आखिर क्यों नहीं रूक पा रही है महंगाई। सरकार निगेटिव महंगाई के आंकड़े दिखा दिखा कर सामान्य वर्ग की हताशा बढ़ा रही है। इस महंगाई में यदि कोई खुश है तो वह सिर्फ खुदरा व्यापारी, जमाखोर, मिलावटखोर और पुलिस तंत्र। दु:खी है तो सिर्फ गरीब किसान और पढ़ा-लिखा वह वर्ग जो रोजगार से वंचित है या फिर गैर-सरकारी संस्थानों में सेवारत वह वर्ग जो विगत अनेक वर्षो से सम्मानजनक वेतन से वंचित है। शैक्षणिक संस्थानों के प्रबंधक अपनी तो तिजोरियां भर रहे हैं किंतु शिक्षक और विद्यार्थी वर्ग त्रस्त हैं। पिछले पांच वर्षो में न्यूनतम समर्थन मूल्य और थोक मूल्यों में 30 से 35 प्रतिशत का अंतर है और थोक के मुकाबले खुदरा मूल्य में 60 से 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। किसानों से आठ से दस रुपये प्रति किलो खरीदी जाने वाली धान की कीमत उपभोक्ताओं तक पहुंचते पहुंचते 25 से 30 रुपये प्रति किलो हो जा रही है। 20 से 22 रुपये प्रति किलो खरीदी जाने वाली अरहर दाल उपभोक्ताओं ने संभवत: 80 से 110 रुपये प्रति किलो पहली बार खरीदी। शुद्ध फली तेल 110 रुपये प्रति किलो तक उपभोक्ताओं ने खरीदा। चीनी के 40 रुपये प्रति किलो तक जाने के प्रबल आसार हैं। 500 के नोट की हालत 50 रुपये जैसी हो गई है। ऐसी विकट स्थिति में भी 500 से 1000 रुपये मासिक आमदनी वाले लोग गृहस्थी चला रहे हैं। किसानों को बाजार का फायदा यदि मिल पाता तो निश्चित रूप से प्रति-व्यक्ति आय में जबरदस्त इजाफा हो चुका होता। गौरतलब है कि भारत में मानसून की अनियमितता और सूखा कोई नयी बात नहीं किंतु महंगाई का जो तांडव देशवासियों ने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के राज में देखा, पहले कभी नहीं देखा।महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए सरकार गेहूं और चावल के निर्यात को नियंत्रित कर चुकी है, कर रहित चीनी को मंजूरी दे चुकी है लेकिन महंगाई है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही है। सच तो यह है कि महंगाई के मूल कारण जमाखोरी और कालाबाजारी को रोकने की सरकार ने कोई खास आवश्यकता महसूस नहीं की। विपक्ष ने भी महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने की जरूरत महसूस नहीं की। यदि ईमानदारी से जमाखोरी और मुनाफाखोरी के खिलाफ मजबूत नीतियां बनायी गई होती तो महंगाई पर अंकुश जरूर लग गया होता।कम उत्पादन को महंगाई का कारण बताकर कृषिमंत्री एवं पी.एम सरकार का बचाव करने में जरूर सफल हो गए। मानसून की अनियमितता की बात चावल के कम उत्पादन तक तो उचित लगती है, दलहन और तिलहन के लिए नहीं।विगत वर्ष जब महंगाई बढ़ी तो सरकार ने मूल्य वृद्धि का कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के बढ़ते हुए दाम बताए थे लेकिन तेल की कीमत घटने के बाद भी महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है। दुरूस्त आर्थिक नीतियों की आवश्यकता को सरकार अनदेखी कर रही है। सरकारी नीति और निवेश में कृषि की अपेक्षा, किसानों को दी जाने वाली सुविधाओं में कमी, लागत खर्च में वृद्धि, अनाज की जमाखोरी जारी है। सरकार कर क्या रही है, समझ में नहीं आ रहा है। खाद्य पदार्थो के उचित वितरण की सुव्यवस्था जरूरी है। काले धन की आजादी और वायदा बाजार को छूट देने की नीति की समीक्षा जरूरी है।
राजेन्द्र मिश्र ‘राज’

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

कभी अलविदा ना कहना


आज जन्मदिवस पर विशेष
हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ न बोलिए
जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए,

अपने गाए गीत की इन पंक्तियों को जीवन का फलसफा मानने वाले किशोर कुमार ने पाश्र्वगायिका लता मंगेशकर के साथ सैकड़ो सुपरहिट गीत गाए हैं। इसके बावजूद बहुत कम लोगों को पता है कि अपने करियर के आरंभ में ही उनकी सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर से अनबन हो गई थी और वो भी अनजाने में ।
लता मंगेशकर ने इस घटना का जिक्र कुछ इस प्रकार किया है , बांबे टॉकीज की फिल्म , जिद्दी , के गाने की रिर्काङ्क्षडग करने जाने के लिए जब वह एक लोकल ट्रेन से सफर कर रही थी तो उन्होंने पाया कि एक शख्स भी उसी ट्रेन में सफर कर रहा है। बाद में स्टूडियो स्टूडियों जाने के लिए जब उन्होने तांगा लिया तो देखा कि वह शख्स भी तांगा लेकर उसी ओर आ रहा है। जब वह बांबे टॉकीज पहुंची तो उन्होने देखा कि वह शख्स भी बांबे टॉकीज पहुंचा हुआ है। बाद में उन्हें पता चला कि वह शख्स किशोर कुमार हैं।, इसे महज संयोग ही कहा जाए कि बतौर पाश्र्व गायक किशोर कुमार ने इसी फिल्म से अपने कैरियर की शुरुआत की थी । दिलचस्प बात है कि इस फिल्म में उन्हें देवानंद के लिए गाने का मौका मिला और बाद में वह देवानंद की आवाज कहलाए।
हाल मे एक साक्षात्कार के दौरान कोकिल कंठी लता मंगेशकर ने किशोर कुमार की चर्चा करते हुए कहा कि , किशोर कुमार जहां भी होते थे वहां हंसने हंसाने का माहौल बना रहता था और उनकी उपस्थिति मात्र से माहौल खुशनुमा हो जाता था। अपने आखिरी जन्मदिन की पार्टी किशोर कुमार ने लंदन के एक होटल मे आयोजित की थी। इस पार्टी में लता मंगेशकर भी शरीक हुई थी। उस यादगार क्षण को याद करते हुए वह कहती हैं कि किशोर की बहुत याद आती है। उनकी बातों को याद कर स्वर साम्राज्ञी की आंखें नम हो उठीं थी। उन्होंने कहा कि , किशोर एक ऐसे संजीदा इंसान थे जिनकी उपस्थिति मात्र से माहौल खुशनुमा हो उठता था । अपने हंसते हंसाते रहने की प्रवृत्ति को उन्होने अपने अभिनय और गायकी मे भी शामिल किया। उनका यह अंदाज आज भी उनके चहेतों की यादों मे तरोताजा है। किशोर कुमार को अपने करियर में वह दौर भी देखना पडा जब उन्हें फिल्मों में काम नही मिला करता था तब वह स्टेज पर कार्यक्रम पेश करअपना जीवन यापन करने को मजबूर थे। बंबई .वर्तमान में मुंबई. मे ंआयोजित एक ऐसे ही एक स्टेज कार्यक्रम के दौरान संगीतकारओ.पी.नैय्यर , ने जब उनका गाना सुना तब वह भावविह्लल हो गए और कहा , महान प्रतिभाए तो अक्सर जन्म लेती रहती हैं लेकिन किशोर कुमार जैसा पाश्र्वगायक हजार वर्ष में केवल एक ही बार जन्म लेता है। उनके इस कथन का उनके साथ बैठी पाश्र्वगायिका आशा भोंसले ने भी इस बात का सर्मथन किया। वर्ष १९६९ मे निर्माता निर्देशक शक्ति सामंत की फिल्म आराधना के जरिए किशोर गायकी के दुनिया के बेताज बादशाह बने लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के आरंभ के समय इसके संगीतकार
सचिन देव वर्मन चाहते थे इसके गाने किसी एक गायक से न गवाकरदो गायकों से गवाएं जाएं। बाद मे सचिन देव वर्मन की बीमारी के कारण फिल्म आराधना में उनके पुत्र आर.डी.बर्मन ने संगीत दिया। मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू और रूप तेरा मस्ताना गाना किशोर कुमार ने गाया. जो बेहद पसंद किया गया ।रूप तेरा मस्ताना गाने के लिए किशोर कुमार को बतौर गायक अपना पहला फिल्म फेयर पुरस्कार मिला और इसके साथ ही फिल्म आराधना के जरिए वह उन ऊंचाइयों पर पहुंच गए, जिसके लिए वह सपनों के शहर मुंबई आए थे। आराधना की सफलता के बाद किशोर कुमार आर.डी.बर्मन के चहेते पाश्र्वगायक बन गए। इसके के पश्चात किशोर कुमार और आर.डी.बर्मन की जोड़ी ने कटी पतंग, बुड्ढा मिल गया, अमर प्रेम, यादों की बारात, अनामिका, आप की कसम, महबूबा, कस्मे वादे, मेरे जीवन साथी, घर, गोलमाल, हरे रामा हरे कृष्णा, सत्ते पे सत्ता, शान, शक्ति और सागर, जैसी कई सुपरहिट फिल्मो में एक साथ काम किया।
मध्यप्रदेश के खंडवा ,शहर में ४ अगस्त १९२९ को एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार में अधिवक्ता कुंजी लाल गांगुली के घर जब सबसे छोटे बालक ने जन्म लिया तो कौन जानता था कि आगे चलकर यह बालक अपने देश और परिवार का नाम रौशन करेगा। भाई बहनो में सबसे छोटे नटखट आभास कुमार गांगुली उर्फ किशोर कुमार का रूझान बचपन से ही अपने पिता के पेशे वकालत की तरफ न होकर संगीत की ओर था। के.एल.सहगल के गानो से प्रभावित किशोर कुमार उनकी ही तरह गायक बनना चाहते थे। के.एल.सहगल से मिलने की चाह लिए किशोर कुमार १८ वर्ष की उम्र मे मुंबई पहुंचे लेकिन उनसे मिलने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई। उस समय तक उनके बड़े भाई अशोक कुमार बतौर अभिनेता अपनी पहचान बना चुके थे।
अशोक कुमार चाहते थे कि किशोर नायक के रूप मे अपनी पहचान बनाए लेकिन किशोर कुमार को अदाकारी के बजाय पाश्र्व गायक बनने की चाह थी। हांलाकि उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा कभी किसी से नही ली। अशोक कुमार की बालीवुड में पहचान के कारण उन्हें बतौर अभिनेता काम मिल रहा था। अपनी इच्छा के विपरीत किशोर कुमार ने अभिनय करना जारी रखा जिसका मुख्य कारण यह था कि जिन फिल्मो में वह बतौर कलाकार काम किया करते थे उन्हे उस फिल्म में गाने का भी मौका मिल जाया करता था। किशोर कुमार की आवाज के.एल.सहगल से काफी हद तक मेल खाती थी। बतौर गायक सबसे पहले उन्हें वर्ष १९४८ में बाम्बे टाकीज की फिल्म जिद्दी में सहगल के अंदाज मे हीं अभिनेता देवानंद के लिए, मरने की दुआएं क्यूं मांगू ,.गाने का मौका मिला। वर्ष १९५१ में बतौर मुख्य अभिनेता उन्होंने फिल्म आन्दोलन से
अपने करियर की शुरुआत की लेकिन इस फिल्म से दर्शकों के बीच वे अपनी पहचान नहीं बना सके। वर्ष १९५३ मे प्रदॢशत फिल्म लड़की बतौर अभिनेता उनके कैरियर की पहली हिट फिल्म थी। इसके बाद बतौर अभिनेता भी किशोर कुमार ने अपनी फिल्मो के जरिए दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। उनकी अभिनीत कुछ फिल्मों मे नौकरी १९५४, बाप रे बाप १९५५ चलती का नाम गाड़ी, दिल्ली का ठग १९५८,् बेवकूफ १९६०, कठपुतली, ्झुमरू १९६१,बाम्बे का चोर, मनमौजी, हॉफ टिकट १९६२, बावरे नैन मिस्टर एक्स इन बाम्बे ्दूर गगन की छांव मे १९६४, प्यार किए जा १९६६् पड़ोसन, दो दूनी चार १९६८,जैसी कई सुपरहिट फिल्मे हैं जो आज भी किशोर कुमार के जीवंत अभिनय के लिए याद की जाती है।
किशोर कुमार ने १९६४ मे फिल्म ,,दूर गगन की छांव मे ,. के जरिए निर्देशन के क्षेत्र मे कदम रखने के बाद हम दो डाकू १९६७् दूर का राही ्१९७२, बढ़ती का नाम दाढ़ी, १९७४, शाबास डैडी, १९७९, दूर वादियों मे कही, १९८०, चलती का नाम ङ्क्षजदगी, १९८२, ममता की छांव मे १९८२ जैसी कई फिल्मों का निर्देशन भी किया। निर्देशन के अलावा उन्होंने कई फिल्मों मे संगीत भी दिया जिनमें झुमरू १९६१, दूर गगन की छांव में, १९६४, दूर का राही, १९७१, जमीन आसमान, १९७२, ममता की छांव मे, १९८९ फिल्मे शामिल है। बतौर निर्माता किशोर कुमार ने वर्ष १९६४ में दूर गगन की छांव में १९६४, और दूर का राही, १९७१ फिल्में भी बनाई।
किशोर कुमार को उनके गाए गीतों के लिए ८ बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। सबसे पहले उन्हे वर्ष १९६९ में आराधना फिल्म के, रूप तेरा मस्ताना, गाने के लिए सर्वŸोष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद १९७५ मे फिल्म अमानुष के गाने , दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा .१९७८ मे डॉन के गाने , खइके पान बनारस वाला .१९८० में हजार राहें मुड़ के देखीं , फिल्म थोड़ी सी बेवफाई . १९८२ में फिल्म नमक हलाल के , पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी . १९८३ मे फिल्म अगर तुम न होते के , अगर तुम न होते , १९८४ में फिल्म शराबी के , मंजिलें अपनी जगह हैं .और १९८५ में फिल्म सागर के , सागर किनारे दिल ए पुकारे , गाने के लिए भी किशोर कुमार सर्वŸोष्ठ गायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए । किशोर कुमार ने अपने सम्पूर्ण फिल्मी कैरियर मे ६०० से भी अधिक हिन्दी फिल्मों के लिए अपना स्वर दिया १ हिन्दी फिल्मों के अलावा उन्होंने बंगला, मराठी , असमी , गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी औरउडिय़ा फिल्मों में भी अपनी दिलकश आवाज के जरिए श्रोताओं को भाव विभोर किया।
हर दिल अजीज कलाकार किशोर कुमार कई बार विवादों का भी शिकार हुए। आपातकाल के दौरान दिल्ली में एक सांस्कृतिक आयोजन में उन्हें गाने का न्योता मिला, जिसके लिए किशोर कुमार ने पारिश्रमिक मांगा इसके कारण उन्हे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर गाने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया १ आपातकाल हटने के बाद पांच जनवरी १९७७ को उनका पहला गाना बजा ,दुखी मन मेरा सुनो मेरा कहना, जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना ,
यूं तो किशोर कुमार ने शशि कपूर, धर्मेन्द्र ्विनोद खन्ना, संजीव कुमार शत्रुघ्न सिन्हा, रणधीर कपूर, से लेकर ऋषि कपूर तक के लिए गाने गाए लेकिन देवानंद, अमिताभ बच्चन, और राजेश खन्ना पर किशोर कुमार की आवाज खूब जमती थी साथ ही ए तीनों सुपर स्टार भी अपनी फिल्मो के लिए किशोर कुमार द्वारा गाए जाने की मांग किया करते थे । देखा जाए तो किशोर कुमार ने कई अभिनेताओं को अपनी आवाज दी लेकिन कुछ मौकों पर मोहम्मद रफी ने उनके लिए गीत गाए थे इन गीतो में ,हमें कोई गम है तुम्हें कोई गम है मोहब्बत कर जरा नहीं डर,चले हो कहां कर के जी बेकरार, भागमभाग १९५६, मन बाबरा निस दिन जाए, रागिनी १९५८, है दास्तां तेरी ए ङ्क्षजदगी ्शरारत १९५९, आदत है सबको सलाम करना , प्यार दीवाना १९७२ , दिलचस्प बात है कि मोहम्मद रफी किशोर कुमार के लिए गाए गीतों के लिए महज एक रूपया पारिश्रमिक लिया करते थे ।
वर्ष १९८७ मे किशोर कुमार ने यह निर्णय लिया कि वह फिल्मों से संन्यास लेने के बाद वापस अपने गांव खंडवा लौट जाएंगे। वह अक्सर कहा करते थें कि , दूध जलेबी खाएंगे खंडवा में बस जाएंगे , लेकिन उनका यह सपना अधूरा ही रह गया। १३ अक्टूबर १९८७ को उन्हे दिल का दौरा पड़ा और वह इस दुनिया से विदा हो गए ।
प्रेम कुमार

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

न्‍यूयार्क में गुरुदत्‍त का स्‍मरण

भारत के मशहूर फ़िल्मकार और अभिनेता गुरूदत्त की मौत के 45 साल बाद उनके वतन से हज़ारों मील दूर न्यूयॉर्क में उनको उनकी फ़िल्मों के सहारे याद किया जा रहा है.वर्ष 1964 में 10 अक्तूबर के दिन 39 साल की उम्र में ही गुरूदत्त ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था.इस सप्ताह उनकी याद को ताज़ा करने और उन्हे श्रद्धांजलि देने के मकसद से न्यूयॉर्क के मशहूर लिंकन सेंटर में उनकी फ़िल्मों को दिखाया जा रहा है.यह पहला मौक़ा है कि जब अमरीका में गुरूदत्त की फ़िल्मों का उत्सव हो रहा है.मैनहैटन के प्रतिष्ठित लिंकन सेंटर में 'अ हार्ट ऐज़ बिग ऐज़ द वर्ल्ड' नामक इस फ़िल्मोत्सव में गुरूदत्त की आठ फ़िल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है.आइए कुछ और जाने गुरुदत्‍त्‍ के बारे में

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
प्यासा. कागज के फूल. चौदहवीं का चांद. साहिब बीबी और गुलामÓकुछ फिल्में हैं. जिनका नाम लेते ही एक ऐसे संजीदा फिल्मकार की याद ताजा हो जाती है. जिसे विषय और भावों के प्रस्तुतीकरण. गीतों के फिल्मांकन. ²श्यों में प्रकाश और छाया के अद्भुत संयोजन तथा कैमरे के इस्तेमाल की विशिष्ट शैली के लिए हमेशा सराहा जाता रहा है ।फिल्म निर्माण की हर विधा में माहिर गुरुदत्त को फिल्में बनाने का जुनून इस कदर था कि पर्याप्त समय नहीं देने के कारण उनका पारिवारिक जीवन बिखर गया । इस गम को उन्होंने शराब के प्याले में डुबोने की कोशिश की और जब उन्होंने मौत को गले लगाया तो वह बिल्कुल तन्हा थे ।
कम उम्र में ही सब कुछ हासिल कर लेने और पारिवारिक जीवन की असफलता के कारण गुरुदत्त .जीवन की निस्सारता. के गहन अहसास से भरे रहा करते थे। यह बात प्यासा. कागज के फूल और साहिब बीबी और गुलाम जैसी उनकी फिल्मों में देखी जा सकती है। गुरुदत्त की फिल्मों के कैमरामैन वी के मूॢत ने ताया था किÓचौदहवीं का चांदÓ फिल्म के लिए बडौदा में लोकेशन की तलाश करते समय उन्होंने Óप्यासाÓ के एक गीत की पंक्ति Óये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है. उन्हें सुनाई । जब मूॢत ने पूछा कि उन्होंने
अचानक यह क्यों कहा तो गुरुदत्त ने कहाÓ मुझे वैसे ही लग रहा है। देखो नÓ मुझे डायरेक्टर बनना था. डायरेक्टर बन गया. एक्टर बनना था. एक्टर बन गया. पिक्चर अच्छी बनानी थी. अच्छी बनाई। पैसा है. सब
कुछ है पर कुछ भी नहीं रहा।
जीवन की निस्सारता का भाव उनमें इतना प्रबल था कि उन्होंने तीन बार आत्महत्या का प्रयास किया। दो मौकों पर तो वह बच गए लेकिन तीसरी बार मौत ने उनका हाथ पकड ही लिया। काले रंग को बेहद पसंद करने के पीछे भी शायद जीवन को निस्सार समझने की उनका गहन भाव ही था। उनकी फिल्मों में भी किरदारों की भावाभिव्यक्ति के लिए अंधेरे का खूबसूरत इस्तेमाल किया गया है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने निराशावादी फिल्में ही बनायीं.जैसा उनके परम मित्र देवानन्द कहते हैं। उन्होंने बाजी. जाल. आर पार. मिस्टर ऐंड मिसेज ५५. सी.आई.डी. और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया . जिसमें रहस्य. रोमांच. हास्य.आदि तत्व थे। प्यासा. साहिब बीबी गुलाम और कागज के फूल जैसी जिन फिल्मों के लिए उन पर निराशावादी होने का आक्षेप लगाया जाता है. उनमें वास्तव में जर्जर सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश से उत्पन्न निराशा का स्वर देखने को मिलता है। प्यासा में उन्होंने दिखाया कि समाज रचनाकार का जीते जी सम्मान तो नहीं करता लेकिन मरने पर उसकी मूॢतयां बनवाता है और उसे सम्मानित करने का आडम्बर करता है। यह भी कि सुंदर वों में मुखौटों के पीछे कितनी विद्रूपताएं छिपी हैं जबकि जिन्हें हम पतित मानते हैं. उनमें भी ऐसे लोग मिलते हैं. जिनकी निष्कपटता. सरलता और सज्जनता की बराबरी तथाकथित सफेदपोश नहीं कर सकते। इसी तरह साहिब बीबी और गुलाम में जर्जर सामंती व्यवस्था . नारी के समर्पण की पराकाष्ठा और अनादि समय में मनुष्य की नश्वरता का माॢमक फिल्मांकन किया गया था। भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म Óकागज के फूलÓ सफलता और लोकप्रियता तथा उससे मिले एकाकीपन को खूबसूरती से चित्रित करती है। यह फिल्म दिखाती है
कि व्यक्ति को लोकप्रियता की कितनी बडी कीमत चुकानी पडती है और आखिरी में उसके हिस्से तन्हाई ही आती है। Óदेखी जमाने की यारी. बिछडे सभी बारी. बारीÓ वक्त ने किया क्या हसीं सितम. हम रहे
न हम तुम रहे न तुमÓ आदि इस फिल्म के गीत जीवन की इसी सच्चाई को बयान करते हैं।
निर्माता.निर्देशक.नृत्य निर्देशक.कहानी लेखक और अभिनेता गुरुदत्त के नाम में Óदत्तÓ लगा होने के कारण अधिकतर लोग उन्हें बंगाली मानते थे जबकि उनका जन्म कर्नाटक के दक्षिण कनारा जिले के एक पनम्बूर में चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उनका वास्तविक नाम वसंत कुमार शिवशंकर राव पादुकोण था। उनके पिता पहले एक स्कूल में हेडमास्टर थे लेकिन बाद में वह एक बैंक में काम करने लगे थे जबकि उनकी मां वसंती प्रारंभ में गृहिणी थी लेकिन बाद में वह एक स्कूल में पढाने लगीं और घर में बच्चों को ट्यूशन दिया करती थीं। उन्होंने कई लघु कथाएं भी लिखीं और कन्नड भाषा में बंगला उपन्यासों का अनुवाद भी किया।
गुरुदत्त तीन भाइयों आत्माराम. देवीदास और विजय तथा एक बहन ललिता के बीच सबसे बडे थे। निर्देशिका कल्पना लाजमी उनकी भांजी हैं। उन्होंने अपना काफी समय रिश्ते के एक मामा बालकृष्ण बी
बेनेगल के साथ बिताया. जो सिनेमा के पोस्टर बनाया करते थे। फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल इन्हीं बालकृष्ण के छोटे भाई श्रीधर बी. बेनेगल के पुत्र हैं। गुरुदत्त के पिता जब बर्मा शेल कम्पनी में प्रशासनिक क्लर्क के रूप में काम करने के लिए कलकत्ता.अब कोलकाता. चले गए तो वह भी पिता के साथ वहां गए। वहां उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई पूरी की। वहीं पर उन्होंने धाराप्रवाह बंगला भाषा बोलना सीखा। वहां की संस्कृति की छाप उनकी फिल्मों में दिखाई देती है। १९४० के दशक में गुरुदत्त जब बम्बई.अब मुम्बई. आए तो उन्होंने अपने नाम के पीछे से शिवशंकर पादुकोण हटा दिया। हालांकि गुरुदत्त पढाई में अच्छे थे
लेकिन घर में आॢथक समस्याओं के कारण वह कभी कालेज नहीं जा सके। इसके बजाय उन्होंने १९४। में सोलह साल की उम्र में प्रख्यात सितार वादक रविशंकर के बडे भाई उदय शंकर के अल्मोडा स्थित
इंडिया कल्चर सेंटर में दाखिला ले लिया और नृत्य. नाटक तथा संगीत की शिक्षा लेने लगे। उस दौरान उन्हें सालाना ७५ रपए की छात्रवृत्ति मिलती रही। १९४४ में द्वितीय विश्व युद्ध बढने पर सेंटर के बंद होने पर
वह कलकत्ता चले गए और वहां लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन आपरेटर की नौकरी करने लगे लेकिन जल्दी ही उन्होंने यह नौकरी छोड दी और १९४४ में अपने माता.पिता के पास बम्बई चले आए।
गुरुदत्त बम्बई में आने के बाद पुणे में प्रभात फिल्म कम्पनी के लिए तीन वर्ष के अनुबंध पर कोरियोग्राफर के रूप में काम करने लगे। इसी दौरान उनकी दोस्ती अभिनेता देवानन्द और रहमान से हुई। उन्होंने १९४४ मेंÓ चांदÓ फिल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका से अभिनय की शुरआत भी कर दी। १९४५ में उन्होंने लाखारानी में निर्देशक विश्राम बेडेकर के साथ निर्देशन का जिम्मा भी संभाला। इसके बाद १९४६ में गुरुदत्त ने पी एल संतोषी की फिल्मÓहम एक हैंÓके लिए सहायक निर्देशक के रूप में काम किया और नृत्य निर्देशन भी किया। १९४७ में प्रभात फिल्म कम्पनी का अनुबंध समाप्त होने के बाद वह प्रभात फिल्म कम्पनी और स्टूडियो के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बाबूराव पै के साथ बतौर स्वतंत्र सहायक निर्देशक का काम करने लगे लेकिन उसके बाद उन्हें लगभग दस महीने तक बिना काम के रहना पडा। उसी दौरान उन्होंने स्थानीय पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया के लिए अंग्रेजी में लघु कथाएं लिखनी शुर कर दीं। समझा जाता है कि उसी दौर में उन्होंने कशमकश नाम से कहानी लिखी. जिस पर उन्होंने बाद मेंÓप्यासाÓनाम से फिल्म बनाई।
जीवन के इसी दौर में उनकी दो बार शादी होते. होते रह गई। पहले वह पुणे से विजया नाम की लडकी के साथ लापता हो गए थे और दूसरी बार उनके माता. पिता ने हैदराबाद में उनकी सुवर्णा नाम की लडकी से शादी तय कर थी. जो उनकी भांजी थी। गुरुदत्त अपनी फिल्मों की क्वालिटी को लेकर किसी तरह का समझौता करना पसंद नहीं करते थे और पूर्णता में विश्वास रखते थे। इसकी एक मिसाल उनके कैमरामैन के वी मूॢत ने दी है। Óप्यासाÓ के एक सीन में गुरुदत्त को लंबा संवाद बोलना था. जिसे वह बार. बार भूल जा रहे थे लेकिन वह किसी भी तरह यह सीन पूरा करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने १०४ रीटेक दिए। मूॢत ने बताते थे Óहमने शाम पांच बजे उस सीन की शूङ्क्षटग शुरु की और रात साढे दस बजे तक भी शाट ओके नहीं हो पाया। तब मैंने उनसे कहा कि यह शाट अगले दिन लिया जा सकता है लेकिन वह अडे रहे। आखिरकार रात साढे ग्यारह बजे हमने पैक अप कर दिया और अगले दिन सुबह पहले ही टेक में शाट
ओके हो गया ।' गुरुदत्त प्रयोगधर्मी फिल्मकार थे। भारतीय फिल्म इतिहास में कई नये प्रयोगों का Ÿोय उन्हें जाता है। पहली सिनेमास्कोप फिल्मÓकागज के फूलÓ का निर्माण उन्होंने ही किया था। इसके अलावा उन्होंने चेहरे के सूक्ष्म भावों को स्पष्टता से प्रदॢशत करने के वास्ते क्लोज अप शाट के लिए ७५ एम एम के लेंस का इस्तेमाल किया। वह पहले डायरेक्टर थे. जिन्होंने अपनी फिल्मों के लिए क्लोज अप शाट
लिए।
गुरुदत्त अपने व्यावसायिक जीवन में जितने सफल रहे. पारिवारिक जीवन में वह उतने ही असफल साबित हुए। इसकी वजह से वह अपनी गायिका पत्नी गीता दत्त. मूल नाम गीता रायÓ और अपने परिवार से दूर होते चले गए। वहीदा रहमान के साथ उनके कथित प्रेम संबंध ने इन दूरियों को और बढा दिया। दोनों के बीच संदेह की दीवार खडी हो गई। हालांकि गुरुदत्त अपनी खोज वहीदा के साथ अपने रिश्ते को कला के उपासक का नाम देते रहे लेकिन गीता दत्त यह बात मानने के लिए तैयार नहीं थी। बताया जाता है कि
उन्होंने उनका पीछा करना शुर कर दिया। यह देखकर गुरुदत्त आहत हो गए और परिवार से अलग रहने लगे। अवसाद के इन क्षणों में वह जमकर शराब पीने लगे और अनिद्रा का शिकार होने पर नींद की गोलियां लेने लगे। बताया जाता है कि १० अक्टूबर १९६४ को उन्होंने शराब में नींद की कई गोलियां डालकर पी थी.जिससे उनकी मौत हो गयी। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने आत्महत्या की। सच्चाई चाहे कुछ भी हो लेकिन ३९ साल की उम्र ही गुरुदत्त सिनेमा को जो दे गए. अनेक वर्षों तक भी शायद ही कोई कर पाए।
शायर कैफी आजमी के शब्दों में उनके लिए यही कहा जा सकता हैÓ उड जा उड जा प्यासे भंवरे. रस न मिलेगा खारों में कागज के फूल जहां खिलते हैं. बैठ न उन गुलजारों में नादान तमन्ना रेती में उम्मीद की कश्ती खेती है इक हाथ से देती है दुनिया. सौ हाथों से ले लेती है।
प्रेम कुमार

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

डॉक्टरों को बीमार करने वाला आदेश


डॉ. महेश परिमल
एक चौंकाने वाली खबर, जिससे डॉक्टर बीमार पड़ सकते हैं। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि एसेी कौन-सी खबर होगी, जिससे डॉक्टर बीमार हो जाएँगे। खबर यह है कि दवा कंपनियों ने यह तय किया है कि वह अब डॉक्टरों को विभिन्न रूपों में दी जाने वाली रिश्वत नहीं देंगी। आपका सोचना सही है कि डॉक्टर तो भगवान का दूसरा रूप है, उस पर भला कैसा अविश्वास? पर आपको बता दूं कि डॉक्टरों को फ्रीज, टीवी, एसी या अन्य महंगे सामान के अलावा बेटी की शादी के रिसेप्शन पर होने वाले खर्च, पत्नी की विदेश यात्रा और शापिंग का खर्च, इस तरह के अनेेक खर्च अब तक दवा कंपनियाँ करती ेआईं हैं। अब इन दवा कंपनियों ने यह निर्णय लिया है कि अब उनके द्वारा डॉक्टरों को किसी भी तरह से उपकृत नहीं किया जाएगा।
अमेरिका की फाइजर कंपनी को प्रतिबंधित दवाओं को बेचने के लिए डॉक्टरों को विभिन्न तरह से उपकृत करने के खिलाफ 2.3 अरब डॉलर का जुर्माना किया है। अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जो दवाएँ हानिकारक घोषित की गई थीं, वे दवाएँ डॉक्टरों के माध्यम से बेच दी गईं। इसलिए कंपनी को उक्त जुर्माना किया गया है। हमारे देश में भी अनेक मल्टीनेशनल कंपनियाँ गलत आचरण करती हैं, पर उनके खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं हो पाती। भारत मेें दवाओं का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने केंद्र सरकार को यह सूचना दी है कि अब वे भी डॉक्टरों को विभिन्न रूपों में दी जाने वाली रिश्वत पर प्रतिबंध लगाने जा रहे हैं।
भारत में कार्यरत मल्टीनेशनल ड्रग्स कंपनियाँ डॉक्टरों को उपकृत करने के लिए जिस तरह से धन खर्च करती हैं, उसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। ग्लेक्सो स्मिथक्लिन नाम की विदेशी कंपनी ने मार्केटिंग के लिए सन 2001 में पूरे 20 करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें से 90 प्रतिशत धन डॉक्टरों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिए गए हैं। फार्मा कंपनियों द्वारा मेडिकल रिपे्रजेंटेटिव की जो फौज तैयार की जाती है, उसका मुख्य काम डॉक्टरों को लुभाना ही है, डॉक्टर इनके प्रलोभन में आकर ऐसी-ऐसी दवाएँ लेने का आग्रह करते हैं, जिससे मरीज को कोई फायदा नहीं पहुँचता, फायदा केवल डॉक्टरों को ही होता है। आखिर दवा कंपनियाँ भी व्यापार करने बैठी हैं, कोई मुफ्त का माल भला क्यों देगा? डॉक्टरों को दी जाने वाली इतनी सुविधाओं के एवज में आखिर उसे भी तो कुछ चाहिए ही, इसलिए दवा कंपनियाँ डॉक्टरों पर ऐसे ही अपना धन नहीं लुटाती। वह तो अपनी दवाओं को बेचने के लिए उनका इस्तेमाल करती है।
समझ में नहीं आता कि मरीज जिसे भगवान मानकर अपनी पीड़ाएँ बताता है, ताकि वह स्वस्थ हो सके, लेकिन डॉक्टर अपना उद्देश्य भूलकर उसे ऐसी दवाएँ क्यों देता है, जिससे मरीज ठीक ही नहीं हो पाता। आखिर अपने व्यवसाय से इतना बड़ा धोखा कैसे कर लेते हैं ये डॉक्टर! दवा कंपनियों से गिफ्ट लेने के बाद वह दवा आखिर अपने प्रिस्किप्शन पर कैसे लिख देते हें ये डॉक्टर?
सरकार को हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती है कि दवाओं की कीमतों को कम कैसे किया जाए? जब सरकार ने इस बात की ओर ध्यान दिया, तो पता चला कि दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को जिस तरह से महँगे-महँगे उपहार देती हैं, आखिर उसे मरीजों की जेब से ही तो निकाला जा रहा है। कंपनी इस खर्च को निकालने के लिए दवाओं के दाम बढ़ा देती है और मध्यम वर्ग केवल हाय करके रह जाता है। दवा कंपनी को अचानक बह्म ज्ञान मिला कि यदि डॉक्टरों को उपहार आदि न दिए जाएँ, तो दवाओं की कीमत बढ़ाने की आवश्यकता ही क्यों होगी? अतएव इन कंपनियों ने तय किया कि अब डॉक्टरों की अनधिकृत सेवाएँ बंद। दूसरी एक और बात यह है कि जब डॉक्टरों को उपहारों की लत लग गई, तो ये लालची डॉक्टर दवा कंपनियों से नित नई माँग करने लगे। संभवत: इन्हीं माँगों से तंग आकर दवा कंपनियों ने यह निर्णय लिया है। इस दिशा में अब लोग भी जागरूक होने लगे हैं, वे भी दवा कंपनियों से माँग करने लगे हैं कि डॉक्टरों को गलत तरीके से दिए जाने वाले उपहार नहीं दिए जाने चाहिए। इससे मरीजों को ही नुकसान होता है।
अमेरिका की दवा बनाने वाली कंपनियों का वार्षिक मार्केटिंग बज 21 अरब डॉलर का है। इसमें से 90 प्रतिशत राशि तो केवल डॉक्टरों को लुभाने में ही खर्च होती है। ये कंपनियाँ भी दूर की सोचती हैं। डाक्टरी पढऩे वाले विद्यार्थी जब कॉलेज में होते हैं, तभी से ये कंपनियाँ उन्हें लुभाने में लग जाती हैं। जो विद्यार्थी तीसरे वर्ष में होते हैं, उनके लिए ये दवा कंपनियाँ हर सप्ताह एक कांफ्रेंस आयोजित करती हैं, इसमें उन्हें आमंत्रित करती हैं, उन्हें बेशकीमती उपहार देती हैं, तथा विभिन्न तरीके से खुश करने की कोशिश करती हैं। इस तरह से वे अपने भविष्य का एजेंट तैयार करती हैं।
अमेरिका के डॉक्टरों का एक समूह ने इस दिशा में लगातार दो वर्ष तक अध्ययन किया। इसके बाद वे एक निष्कर्ष पर पहुँचे। अपने निष्कर्षों पर उन्होंने एक पुस्तिका तैयार की। अब ये पुस्तिका अमेरिका के तमाम राज्यों तक पहुँचा दी गई है। इसमें यह सुझाव दिया गया है कि दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों को विभिन्न रूपों में दिए गए उपहारों और स्कॉलरशिप के बाद दवा के सेंपल न दे। इसके अलावा जो दवा कंपनियाँ डॉक्टरों के साथ आर्थिक संबंध रखते हैं, उन्हें किसी भी तरह का ऐसा अधिकार न दिया जाए, जिससे वे दवाओं की खरीदी कर सकें। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया सरकार ने ऐसी आचारसंहिता तैयार की है, जिसमें दवा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को अपना एजेंट बनाने के लिए जिस तरह से सेमिनार आयोजित करती हैं, उसकी जानकारी सभी नागरिकों को दी जाने चाहिए। इस निर्णय का सबसे अधिक विरोध दवा कंपनियों ने तो नहीं, पर डॉक्टरों की तरफ से हुआ। डॉक्टरों को इस बात का डर लगा कि दवा कंपनियाँ उन्हें जिस तरह से शाही सुविधाएँ दती हैं, इसकी जानकारी यदि नागरिकों को हो जाएगी, तो वे डॉक्टरों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगी।
आज के अधिकांश डॉक्टर अपने व्यवसाय में ही इतने अधिक व्यस्त होते हैं कि नई शोधों के बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं होता। यही नहीं, यदि कोई नई दवा बाजार में आई है, तो उसके गुण-दोष के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए मेडिकल जर्नल से कुछ जानकारी प्राप्त करने का भी समय नहीं होता। दवा कंपनियाँ ऐसे ही डॉक्टरों को अपना निशाना बनाती हैं। उसके एजेंट डॉक्टरों को नई दवाओं एवं इस क्षेत्र में हुए नए शोधों के बारे मेें जानकारी देते हैं। उसके बाद अपनी दवा को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए प्रिस्क्रिप्शन पर लिखने का आग्रह करते हैं। इस बीच यदि कोई सस्ती दवा बाजार में आई हो, तो डॉक्टरों को इसका पता ही नहीं चलता। न चाहते हुए भी मरीजों को महँगी दवएँा खरीदने के लिए विवश होना पड़ता है।
मुंबई की फोरम फॉर मेडिकल एथिक्स नाम की एक संस्था ने कुछ समय पहले ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया और विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से भारत की दवा कंपनियों द्वारा अपनी दवाओं को बेचने के लिए किए जाने वाले तमाम प्रयासों पर गहरा अध्ययन किया। इस दौरान 6 महीनों में इस संस्था ने करीब 100 डॉक्टरों, केमिस्टों, मेडिकल रिप्रेजेंंटेटिव्ह और फार्मा कंपनी के संचालकों का साक्षात्कार लिया। इस अध्ययन में कई चौंकाने वाली जानकारी मिली। फार्मा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को महँगे उपहार दिए जाते हैं। यही नहीं उन्हें अपना नसिँग होम खोलने के लिए आर्थिक मदद भी दी जाती है। इन मुफ्तखोर डॉक्टरों की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि वे फार्मा कंपनियों को धमकी भी देने लगे हैं कि यदि आप हमारी सहायता नहीं करेंगे, तो हम आपकी दवाओं का बहिष्कार शुरू कर देंगे। इसके अलावा कितने ही केमिस्टों ने कुछ दवा कंपनियों की दवा बेचने के लिए तगड़ी रिश्वत की माँग करने की जानकारी इस अध्ययन में दी गई है। कितने ही प्रख्यात डॉक्टरों की बेटी की शादी का रिसेप्शन खर्च भी ये दवा कंपनियाँ उठाती रहीं हैं। कुछ तो इससे आगे बढ़कर डॉक्टर की बेटी के दहेज का सामान भी व्यवस्था दवा कंपनियों ने की है। डॉक्टरों की मेडिकल कांफ्रेंस के नाम पर पत्नियों के साथ विदेश प्रवास और वहाँ की जाने वाली शापिंग का खर्च भी दवा कंपनियाँ उठाती रहीं हैं। मुंबई के एक डॉक्टर तो लेडिस बार में जाने के शौकीन थे। वे बियर बार मेें जाकर जो भी खर्च करते, वह खर्च दवा कंपनी उठाती। दव कंपनियाँ इस खर्च को मनोरंजन खर्च के रूप में चुकाती थी। इन सब खर्चों का मुआवजा आखिर गरीब जनता को ही देना पड़ता।
अमेरिका के एक राज्य द्वारा कानून का प्रावधान किया गया है कि यदि दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को किसी तरह से उपकृत करती हैं, तो इसकी जानकारी नागरिकों को दी जानी चाहिए। इसके पीछे यही उद्देश्य था कि दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों की दी जाने वाली तमाम सुविधाओं की जानकारी आम नागरिकों को भी पता चला। यदि डॉक्टर अपने पेशे के प्रति ईमानदार हैं, तो उन्हें इस पर कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। अफसोस इस बात का है कि दवा कंपनियों और डॉक्टरों की साँठगाँठ के कारण यह कानून नहीं बन पाया।
हमारे देश में भी लोगों के पास सूचना का अधिकार है। यदि नागरिकों को यह पूछने का अधिकार मिल जाए कि आखिर डॉक्टरों का दवा कंपनियों से क्या संबंध हैं, दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को किस तरह से उपकृत करती हैं। डॉक्टरों और दवा कंपनियों के बीच क्या कारक काम करते हैं। यदि कोई मरीज डॉक्टर से इस तरह के सवाल करता है, तो उसका सही जवाब मिलेगा, इसकी संभावना कहाँ तक है? क्या उपहार लेकर एक निश्चित दवा का प्रिस्क्रिप्शन लिखकर डॉक्टर अपने पेशे और मरीज के साथ न्याय कर रहा है? डॉक्टरों की दादागिरी को लेकर दवा कंपनियाँ अभी भले ही यह घोषणा कर रही हों कि वे डॉक्टरों को किसी भी तरह का उपहार नहीं देंगी। पर अपनी दवाओं के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें डॉक्टरों की आवश्यकता पड़ेगी ही, यह भी सच है। इसके लिए तो सरकार को ही आगे आकर इस दिशा में सख्त कानून बनाकर मरीजों को लाभ पहुँचाना चाहिए। पर सरकार की ढुलमुल नीति के आगे यह संभव हो पाएगा, इसमें शक है।
डॉ. महेश परिमल

Post Labels