गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

छोटी उम्र में ही हो गई फॉंसी की सजा


महज १८ साल की उम्र में फाँसी चढ गए थे खुदीराम बोस खुदीराम बोस ने केवल १८ साल की उम्र में मुजफ्फ्रपुर के मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फ्केंने के ऐसे दुस्साहस को अंजाम दिया जिसके बाद देश में क्रांतिकारी घटनाओं की बाढ आ गई और जिससे तानाशाह अंग्रेज हुकूमत की पोल दुनिया के सामने खुल गई। खुदीराम की देशभक्ति क ी इस महान भावना को ब्रितानी सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकी और उन्हें फ्सांी दे दी गई।
खुदीराम बोस का जन्म तीन दिसम्बर १८८९ को मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुया था। त्रिलोक्यनाथ और लक्ष्मीप्रिया देवी की संतान खुदीराम के जन्म से पहले उनके दो भाई अकाल मृत्यृ का शिकार हो गए थे। इसलिए किसी अनहोनी से आशंकित उनके माता पिता ने एक परम्परा का पालन किया जिसके तहत खुदीराम को एक रिश्तेदार को बेच दिया गया और वापस उनकी पुनर्खरीद तीन मुठ्ठी खुदी नामक चावल से की गई। यहीं से उनका नाम खुदीराम पड़ गया। इस वजह से खुदी अपने माता पिता के काफी लाडले रहे लेकिन खुशियों का दामन यह उनसे बहुत जल्द छिन गया। जब वह केवल छह वर्ष के हुए तो उनके माता पिता का देहांत हो चुका था। उनके लालन पालन की जिम्मेदारी खुदीराम के बड़ी बहन अपरूपा देवी पर आ गई। वर्ष १९०१ में खुदीराम को तामलुक इलाके के हैमिल्टन स्कल में पढने के लिए भेज दिया गया। खुदीराम स्कूल में पढने के दौरान अपने दोस्तो को अपनी हिम्मत और हैरतअंगेज कारनामों से अक्सर हैरत में डाल देते। खुदीराम में दर्द बर्दाश्त करने की अद्भुत क्षमता थी और दोस्त प्राय: उनकी इस कुदरती ताकत का खूब इम्तहान लेते। उनकी हिम्मत के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। खुदीराम इतने साहसी थे कि विषैले सांपों को वह ऐसे पकड़ लेते जैसे कोई खिलौना हो। बाद में खुदीराम को आगे की पढाई के लिए मिदनापुर कालेजियट स्कूल भेजा गया। जल्द ही उनकी ख्याति यहां ऐसे लड़के की हो गई जो अन्याय किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता था। खुदीराम हमेशा न्याय के पक्ष में रहते और अपनी आंखों के सामने हो रहे अन्याय के विरोध में खडे हो जाते। खेलने कूदने की उस उम्र में भी खुदीराम अपना काफी वक्त समाज सेवा को देते। उस समय हैजे और कालरा से लोगों का मरना बहुत आम था। लेकिन खुदीराम स्वयं के स्वास्थ्य की परवाह किए बगैर अक्सर इन बीमारियों से ग्रस्त लोगों की तीमारदारी के लिए बेहिचक खडे हो जाते। कालेजियट में पढाई के दौरान खुदीराम को देश की गुलामी का अहसास होने लगा और उस समय शुरू हुए स्वदेशी आंदोलन के दौरान अंग्रेज ज्यादतियों से उनका मन आहत हो गया। कालेजियट में एक बार जब उनके साथ पढऩे वाले फ्णी भूषण स्वदेशी कपड़े पहन कर स्कूल आए तो कालेज के लड़कों ने उनका मजाक बनाया। इस घटना से खुदीराम बहुत नाराज हुए और उन्होंने उन लड़कों क ी खूब डांट लगाई। तब लड़के बहुत शॄमदा हुए और उन्होंने फ्णी भूषण से माफी मांगी। केवल १४ साल की उम्र में ऐसी संजीदगी के दर्शन वास्तव में बहुत दुर्लभ हैं। वर्ष १९०५ में स्वेदशी आंदोलन की आंच मिदनापुर पहुंची तो खुदीराम ने इस आंदोलन में होने वाले प्रदर्शनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। धीरे धीरे खुदीराम का झुकाव क्रांतिकारी विचारों की तरफ होने लगा और बंगाल विभाजन की घोषणा ने खुदीराम के मन में बरतानिया हुकूमत के खिलाफ नफरत भर दी। प्रतिक्रिया स्वरूप खुदीराम ने स्वदेशी आंदोलन में और जोर-शोर से भाग लेना शुरू कर दिया। सरकारी रिकार्ड गवाह हैं कि फरवरी १९०६ से दिसम्बर १९०७ तक मिदनापुर स्वेदशी आंदोलन की आग में झुलसता रहा। खुदीराम की देशसेवा में पहला दखल उनके परिवार की तरफ से आया क्योंकि उनके संरक्षक ब्रिटिश सरकार की सेवा में थे। खुदीराम ने घर छोड़ दिया और समाजसेवी एवं प्रसिद्ध वकील प्यारे लाल घोष के यहां शरण ली। मन ही मन वैराग्य ले चुके खुदीराम का संपर्क क्रांतिकारियों से बढ रहा था। खुदीराम अपने शिक्षक सत्येंंद्रनाथ बसु के क्रांतिकारी बिचारों से काफी प्रभावित थे और एक दिन खुदीराम क्रांतिकारी संगठन युगांतर में शामिल हो गए। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को कलकत्ता प्रेसीडेंसी के बदनाम मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या का काम सौंपा गया।
किंग्सफोर्ड का बाद में मुजफ्फरपुर तबादला हो गया था। खुदीराम मुजफ्फरपुर आ गए और किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी। तीस अप्रैल १९०८ की शाम जब यूरोपीय क्लब से किंग्सफोर्ड की बग्घी बाहर आ रही थी तो खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी ने अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए उस पर बम फेंक दिया। हालांकि बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं था और उसमें वकील प्रगले कैनेडी की उनकी पत्नी एवं बेटी सवार थी। बम फटने से दोनों महिलाओं की मौत हो गई। इस घटना के बाद पूरे देश में एक लहर दौड़ गई। पूरा देश खुदीराम की हिम्मत पर चकित था। इस क्रांतिकारी हमले ने देश के नौजवानों में जोश भर दिया। घटना के कुछ दिन बाद प्रफुल्ल चाकी जीवित नहीं पकड़े जाने के प्रण से आत्महत्या कर ली लेकिन पुलिस ने खुदीराम बोस को समस्तीपुर के पूसा बाजार इलाके में पकड़ लिया। बाद में इसी जगह राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय बना। जिस रेलवे स्टेशन में चाय पीते हुए खुदीराम पकड़े गए उसका नाम पहले पूसा रोड था बाद में इसका नाम खुदीराम पूसा कर दिया गया। पकड़े जाने के बाद दो महीने तक खुदीराम बोस पर मुकदमा चला। कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील नरेंद्र कुमार बसु ने बिना एक पैसा लिए खुदीराम की पैरवी की। लेकिन न्याय का ढोंग रचने वाली अंग्रेज सरकार ने एक नहीं सुनी और खुदीराम को फाँसी की सजा सुना दी गई। सन १९०८ में ग्यारह अगस्त को जब खुदीराम को फाँसी दी जा रही थी तो उनके चेहरे पर खुशी और होठों पर मुस्कान थी।
जंगे-आजादी में खुदीराम लड़े गोली से, उषा लड़ी बोली सेआजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान के अनगिनत कारनामों से भरा पड़ा है। क्रांतिकारियों की सूची में ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस का जो शहादत के बाद इतने लोकप्रिय हो गए कि नौजवान एक खास किस्म की धोती पहनने लगे जिसके किनारे पर खुदीराम लिखा होता था। कुछ इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का देशभक्त मानते हैं। खुदीराम का जन्म तीन दिसंबर, 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के घर हुआ था। खुदीराम को आजादी हासिल करने की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़कर वह स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद वह रेवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम लिखे पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते 28 फरवरी, 1906 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गए। 16 मई, 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। छह दिसंबर, 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, लेकिन इस हमले में गवर्नर बच गया। इसके बाद 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन वे भी बच निकले । खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे जिसने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल चंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड को सबक सिखाने की ठानी। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल, 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया, लेकिन गाड़ी में उस समय सेशन जज की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं कैनेडी और उसकी बेटी सवार थीं। किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं जिसका खुदीराम और प्रफुल चंद चाकी को काफी अफसोस हुआ। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। खुद को पुलिस से घिरा देख प्रफुल चंद चाकी ने खुद को गोली से उड़ा लिया जबकि खुदीराम पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 19 साल थी। देश के लिए शहादत देने के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल ने लिखा है कि बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। जादी के परवाने खुदीराम बोस की तरह एक और देश भक्त की पुण्यतिथि है। भारत छोड़ो आंदोलन के समय खुफिया कांग्रेस रेडियो चलाने के कारण पूरे देश में विख्यात हुई उषा मेहता ने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी थी और आजादी के बाद वह गांधीवादी दर्शन के अनुरूप महिलाओं के उत्थान के लिए प्रयासरत रही। उषा ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपने सहयोगियों के साथ 14 अगस्त, 1942 को सीक्रेट कांग्रेस रेडियो की शुरूआत की थी। इस रेडियो से पहला प्रसारण भी उषा की आवाज में हुआ था। यह रेडियो लगभग हर दिन अपनी जगह बदलता था ताकि अंग्रेज अधिकारी उसे पकड़ न सकें।
इस खुफिया रेडियो को डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन सहित कई प्रमुख नेताओं ने सहयोग दिया। रेडियो पर महात्मा गांधी सहित देश के प्रमुख नेताओं के रिकॉर्ड किये गये संदेश बजाये जाते थे। तीन माह तक प्रसारण के बाद आखिरकार अंग्रेज सरकार ने उषा और उनके सहयोगियों को पकड़ लिया और उन्हें जेल में डाल दिया गया। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेन्द्र कुमार के अनुसार उषा एक जुझारू स्वतंत्रता सेनानी थी जिन्होंने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वह बचपन से ही गांधीवादी विचारों से प्रभावित थी और उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये कई कार्यक्रमों में बेहद रूचि से कार्य किया। गांधीवादी सुरेन्द्र कुमार के मुताबिक आजादी के बाद उषा मेहता गांधीवादी विचारों को आगे बढ़ाने विशेषकर महिलाओं से जुड़े कार्यक्रमों में काफी सक्रिय रही। उन्हें गांधी स्मारक निधि की अध्यक्ष चुना गया और वह गांधी शांति प्रतिष्ठान की सदस्य भी थीं। 25 मार्च, 1920 को सूरत के एक गांव में जन्मी उषा का महात्मा गांधी से परिचय मात्र पांच वर्ष की उम्र में ही हो गया था। कुछ समय बाद राष्ट्रपिता ने उनके गांव के समीप एक शिविर का आयोजन किया जिससे उन्हें बापू को समझने का और मौका मिला। इसके बाद उन्होंने खादी पहनने और आजादी के आंदोलन में भाग लेने का प्रण किया। उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक डिग्री ली और कानून की पढ़ाई के दौरान वह भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी तरह से सामाजिक जीवन में उतर गई। सीक्रेट कांग्रेस रेडियो चलाने के कारण उन्हें चार साल की जेल हुई। जेल में उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। बाद में उन्हें 1946 में रिहा किया गया। आजादी के बाद उन्होंने गांधी के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों पर पीएचडी की और बंबई विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू किया। बाद में वह नागरिक शास्त्र एवं राजनीति विभाग की प्रमुख बनी। इसी के साथ वह विभिन्न गांधीवादी संस्थाओं से जुड़ी रही। भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। उषा मेहता का निधन 11 अगस्त 2000 को हुआ।

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