बुधवार, 6 जनवरी 2010

सम्‍मान के पीछे न भागने वाले जयदेव


आज पुण्यतिथि
हिन्दी फिल्म जगत में कई ऐसे महान संगीतकार हुए हैं जिनकी बनाई कर्णप्रिय समुधुर धुनों के लोग आज भी कायल हैं लेकिन किसी भी कीमत पर संगीत की श्रेष्‍ठता से समझौता नहीं करने की जिद के कारण वे केवल कुछ ही फिल्मों में अपनी लाजवाब धुनें दे पाए और चटपट धुनें बनाने के लिए जानी जाने वाली फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें वह श्रेय नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। ऐसे ही काबिल संगीतकारों में एक संगीतकार थे जयदेव । जयदेव वर्मा ने बेहद गिनी चुनी फिल्मों में संगीत दिया लेकिन उन्होंने जो भी धुनें बनाईं वे फिल्म चलने या नहीं चलने के बावजूद हिट रहीं। हम दोनों किनारे किनारे मुझे जीने दो दो बूंद पानी प्रेम परबत रेशमा और शेरा लैला मजनूं घरौंदा गमन आदि फिल्मों में दिए उनके लाजवाब संगीत को भला कौन भूल सकता है। जयदेव का जन्म ३ अगस्त १९१९ को लुधियाना में हुआ था । वह प्रारंभ में फिल्म स्टार बनना चाहते थे । १५ साल की उम्र में वह घर से भागकर मुम्बई तब बम्बई भी आए लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वाडिया फिल्म कंपनी की आठ फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम करने के बाद उनका मन उचाट हो गया और उन्होंने वापस लुधियाना जाकर प्रोफेसर बरकत राय से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। बाद में उन्होंने मुम्बई में भी कृष्णराव जावकर और जनार्दन जावकर से संगीत की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की। इसी दौरान पिता की बीमारी की वजह से उनका कैरियर प्रभावित हुआ। उन्हें पिता की देखभाल के लिए वापस लुधियाना जाना पड़ा। जब उनके पिता का निधन हुआ तो उनके कंधों पर अपनी बहन की देखभाल की जिम्मेदारी आ पड़ी। बहन की शादी कराने के बाद उन्होंने फिर से अपने कैरियर की तरफ ध्यान देना शुर किया और वर्ष १९४३ में उन्होंने लखनऊ में विख्यात सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खान से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। उस्ताद अली अकबर खान ने नवकेतन की फिल्म आंधियां और हमसफर में जब संगीत देने का जिम्मा संभाला तब उन्होंने जयदेव को अपना सहायक बना लिया। नवकेतन की ही टैक्सी ड्राइवर फिल्म से वह संगीतकार सचिन देव वर्मन के सहायक बन गए लेकिन उन्हें स्वतंत्र रूप से संगीत देने का जिम्मा चेतन आनन्द की फिल्म जोरू का भाई में मिला। इसके बाद उन्होंने चेतन आनन्द की एक और फिल्म अंजलि में भी संगीत दिया। हालांकि ये दोनों फिल्में कामयाब नहीं रहीं, लेकिन उनकी बनाई धुनों को काफी सराहना मिली। जयदेव का सितारा चमका नवकेतन की फिल्म हम दोनों से । इस फिल्म में उनका संगीतबद्ध हर गाना खूब लोकप्रिय हुआ फिर चाहे वह अभी न जाओ छोड़कर मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया हो या अल्लाह तेरो नाम। अल्लाह तेरो नाम की संगीत रचना इतनी मकबूल हुई कि लता मंगेशकर जब भी स्टेज पर जाती हैं तो इस भजन को गाना नहीं भूलतीं। कई स्कूलों में भी बच्चों से यह भजन गवाया जाता है। उनकी एक और बड़ी कामयाब फिल्म रही रेशमा और शेरा । इस फिल्म में राजस्थानी लोकधुनों पर आधारित उनका कर्णप्रिय संगीत आज भी ताजा बयार की तरह श्रोताओं को सुकून से भर देता है। जयदेव की ज्यादातर फिल्में जैसे आलाप किनारे किनारे अनकहीआदि फ्लाप रहीं लेकिन उनका संगीत हमेशा चला। जयदेव के संगीत की विशेषता थी कि वह शाीय राग रागिनियों और लोकधुनों का इस खूबसूरती से मिश्रण करते थे कि उनकी बनाई धुनें विशिष्ट बन जाती थीं। उदाहरण के लिए प्रेम परबत के गीत ये दिल और उनकी पनाहों के साए को ही लीजिए जिसमें उन्होंने पहाड़ी लोकधुन का इस्तेमाल करते हुए संतूर का इस खूबसूरती से प्रयोग किया है कि लगता है कि पहाड़ों से नदी बलखाती हुई बढ रही हो। जयदेव नई प्रतिभाओं को मौका देने में हमेशा आगे रहे। दिलराजकौर भूपेन्द्र रूना लैला पीनाज मसानी सुरेश वाडेकर आदि। नवोदित गायकों को उन्होंने प्रोत्साहित किया और अपनी फिल्मों में गायन के अनेक मौके दिए। लगभग तीन दशक के कैरियर में जयदेव ने सहायक और स्वतंत्र संगीतकार के रूप में लगभग ४५ फिल्मों में संगीत दिया। इनमें कुछ प्रमुख फिल्में हैं जोरू का भाई १९५५ समुद्री डाकू १९५६ अंजलि १९५७, हम दोनों, १९६१, किनारे किनारे, १९६३, मुझे जीने दो, १९६३, हमारे गम से मत खेलो, १९६७, सपना, १९६९, आषाढ का एक दिन, १९७१ दो बूंद पानी १९७१ एक थी रीटा १९७१ रेशमा और शेरा १९७१ संपूर्ण देव दर्शन १९७१ भारत दर्शन १९७२ भावना १९७२ मान जाइए १९७२ प्रेम परबत १९७३ आङ्क्षलगन १९७४ परिणय १९७४ एक हंस·का जोड़ा १९७५ फासला १९७६ आंदोलन १९७७ आलाप १९७७ घरौंदा १९७७ तुम्हारे लिए १९७८ दूरियां १९७९ गमन १९७९ अनकही १९८४ आदि। जयदेव ने गैर फिल्मी गीतों और गजलों को भी संगीत दिया जो काफी लोकप्रिय रहा। सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन की क्लासिक कृति मधुशाला को भी उन्होंने अपने सुरों से सजाया जिसे दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त गायक मन्नाडे ने स्वर दिया। जयदेव को उनकी उत्कृष्ट संगीत रचनाओं के लिए कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। उन्हें चार बार सुर ङ्क्षसगार संसद पुरस्कार मध्यप्रदेश सरकार का लता मंगेशकर पुरस्कार और रेशमा और शेरा गमन तथा अनकही के लिए तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल हुए। आजीवन अविवाहित रहे जयदेव का ६ जनवरी १९८७ को निधन हो गया।
अजय कुमार विश्वकर्मा

2 टिप्‍पणियां:

  1. लेख तो अच्छा है, फ़ोटो शायद गलती से खय्याम का लग गया है?

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  2. सुरेश चिपलूणकर चित्र के बारे में सही कह रहे हैं । इसका मतलब यह हुआ कि अजयजी दोनों प्रसिद्ध संगीतकारों खैय्याम और जयदेव को नहीं पहचानते ।
    जयदेव का स्मरण हुआ है तो उनके द्वारा सुर में सजाये गये हैं तथा हिन्दी चिट्ठों पर प्रस्तुत हैं :
    काहे मनवा नाचे हमरा,आलाप
    कैसे उनको पाऊं आली,आशा भोंसले,महादेवी वर्मा,जयदेव
    ठुमक ठुमक पग कुमक कुंज मद/अनकही/जयदेव
    मुझे प्यार तुमसे नहीं है/रूना लैला/जयदेव

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