बुधवार, 10 मार्च 2010

मुंबई की महाभारत: दुर्योधन, धृतराष्ट्र और गांधारी

नीरज नैयर
मुंबई में महाभारत का नया अध्याय शुरू हो गया है, इस बार दुर्योधन के रूप में बाल ठाकरे ने री-एंट्री मारी है। इससे पहले उनके भतीजे राज ठाकरे इस किरदार में नजर आ चुके हैं। बीच-बीच में उध्दव ठाकरे भी खुद को दुर्योध्न साबित करने की कोशिशें करते रहते हैं, ये बात अलग है कि उन्हें उतनी पब्लिसिटी नहीं मिल पाती। देखा जाए तो मुंबई एक तरह से ठाकरे परिवार की रणभूमि हो गई है, कभी चाचा-भतीजा मिलकर गैरमराठियों के साथ पांडवों जैसा बर्ताव करते हैं तो कभी आमने-सामने आकर अपनी शक्ति का अहसास कराते हैं। महाभारत में तो पांडवों के उध्दार के लिए श्रीकृष्ण मौजूद थे, मगर इस कलयुग में उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए कोई नहीं कृष्ण नहीं है। राय सरकार सबकुछ जानते हुए भी गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी है, और केंद्र सरकार ने धृतराष्ट्र का रूप अख्तियार कर लिया है। अब ऐसे में कौरवों की जीत होना स्वभाविक है, इसलिए वो हर बाजी जीतते जा रहे हैं। मुंबई की महाभारत में ताजा अध्याय शाहरुख खान के उस बयान को लेकर सुर्खियों में आया जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों के आईपीएल में न चुने जाने पर दुख जाहिर किया। वैसे ये बात सोचने वाली है कि अगर शाहरुख को इतना ही दुख था तो उन्होंने अपनी टीम के लिए पाक खिलाड़ियों को क्यों नहीं चुना, चुन लेते तो इतना सब होता ही नहीं। खैर जो नियति में लिखा है वो तो होना ही है, नियति में लिखा था कि वृध्दावस्था में पहुंच चुके बाल ठाकरे युवा दुर्योध्न का किरदार निभाएंगे सो निभा रहे हैं। सीनियर दुर्योधन को किसी शकुनी की जरूरत नहीं, वो अपने पासे खुद ही फेंकने में विश्वास रखते हैं। इसलिए उन्होंने शाहरुख के बयान के तुरंत बाद बिना कोई पल गंवाए भागवाधारी सैनिकों को उत्पात मचाने का आदेश दे डाला। हर बार की तरह सैनिकों ने कुछ कांच तोड़े, पोस्टर जलाए, नारेबाजी की और जता दिया कि कलयुग में सिर्फ कौरवों की चलती है। इस महाभारत में सबसे अनोखी और अच्छी घटना ये रही है कि गांधारी बनी राय सरकार ने पहली दफा दुर्योधन के खिलाफ कदम उठाने का प्रयास किया, लेकिन अफसोस की बात ये रही कि उसका यह कदम अच्छाई-बुराई को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन कर उठाया गया। एक फिल्म के लिए सरकार जितनी मशक्कत करती नजर आई, अगर उसका एक फीसदी भी उत्तरभारतीयों को राज के कहर से बचाने के लिए किया जाता तो निश्चित तौर पर जूनियर ठाकरे कभी दुर्योधन जैसी हैसीयत हासिल नहीं कर पाता। जिस वक्त राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों, बिहारियों को चुन-चुनकर निशाना बना रहे थे, राय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। दरअसल भतीजे को ताकतवर बनाकर कांग्रेस और एनसीपी चाचा की राजनीतिक जमीन हथियाना चाहते थी और वो काफी हद तक उसमें कामयाब भी हुए। इस बार के विधानसभा चुनाव में शिवसेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा, इस नुकसान के पीछे कांग्रेस-एनसीपी नहीं बल्कि राज ठाकरे की पार्टी मनसे रही। उसने शिवसेना के गढ़ माने जाने वाले इलाकों में सीट हासिल की। हालांकि राज को कोई यादा बड़ी सफलता नहीं मिल सकी, मगर उसने चाचा का खेल जरूर खराब कर दिया। कहा जा रहा है कि ठाकरे और शाहरुख के बीच के विवाद में राज के कूदने के पीछे भी कांग्रेस का हाथ है। ये सोच कर ताज्‍जुब होता है कि एक राय सरकार के लिए लोगों की जान से यादा फिल्म की रिलीज महत्वपूर्ण हो सकती है। यदि सीनियर ठाकरे की जगह जूनियर ठाकरे ही दुर्योध्न की भूमिका में होते तो न तो धृतराष्ट्र अपनी आदत बदलता और न गंधारी आंखों से पट्टी हटाती। केंद्र सरकार ने भी इस बार मुंबई की महाभारत में यादा रुचि दिखाई, राहुल गांधी सीनियर दुर्योधन की धमकी को हवा में उड़ाते हुए मुंबई में जमकर घूमें। उन्होंने एटीएम से पैसे निकाले, लोकल ट्रेन में सफर किया और देशवासियों को बताने का प्रयास किया कि मुंबई सबकी है। दूसरे दिन मुल्क भर के मीडिया ने उन्हें अर्जुन की संज्ञा दे डाली, उनके ट्रेन के सफर को चक्रव्यूह तोड़ने जैसा करार दिया। मुंबई सबकी है राहुल इस बात को आसानी से कह सकते हैं, राहुल क्या एक आम आदमी भी इतनी सुरक्षा के बीच सीना चौड़ाकर दंभ से कह सकता है कि मुंबई उसकी जागीर है। क्या कांग्रेस का यह अर्जुन आम उत्तर भारतियों की तरह मुंबई जाकर इस तरह की बातें कर सकता है, शायद नहीं। शाहरुख खान को कांग्रेस का करीबी माना जाता है, और कांग्रेस इस कोशिश में भी लगी है कि बॉलिवुड के नायक को बॉक्स आफिस की जगह सियासत के अखाड़े में कैश करवाया जाए। इसलिए उनकी फिल्म को आम आदमी से यादा सुरक्षा मिलनी ही थी। राय के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण खुद इस मामले को बारीकि से देख रहे थे, फिल्म के प्रदर्शन में बाधा बनने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किए जाने की चेतावनी दी गई थी। अब ऐसे में फिल्म को धमाकेदार शुरूआत मिलना जायज है। टिकट खिड़की पर माई नेम इज खान की सफलता को मीडिया में ठाकरे की हार के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, महाभारत में दुर्योधन की हार में धृतराष्ट्र की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन कलयुग में धृतराष्ट्र और गांधारी ने मिलकर दुर्योध्न को शिकस्त दी है। इसलिए ये खबर बनती है, मगर इस खबर के बनने के पीछे की कहानी को प्रमुखता देना भी मीडिया का कर्तव्य बनता है। हर कोई ठाकरे बनाम शाहरुख की जंग के उतार-चढ़ाव को दिखाता रहा, पढ़ाता रहा लेकिन किसी ने राय और केंद्र सरकार के हृदय परिवर्तन पर फोकस करने की जरूरत नहीं समझी। यह भी खबर बननी चाहिए थी कि जो सरकार बेकसूर लोगों को प्रताड़ित होते देख सकती है, वह फिल्म के पोस्टर फड़ते क्यों नहीं देख पाई। अगर सत्ता में बैठे लोग कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने को इतनी ही तवाो देते हैं तो उन्हें राज ठाकरे को भी रोकना चाहिए था, उसे भी नकेल पहनानी चाहिए थी। यह निहायत ही शर्मनाक है राजनीतिज्ञ भोले-भाले लोगों के शव पर बैठकर राजनीति कर रहे हैं। महाभारत के इस अध्याय ने न सिर्फ धृतराष्ट्र और गांधारी बने बैठी सरकारों की असलीयत उजागर की है, बल्कि मीडिया की पथभ्रमिता पर भी प्रकाश डाला है। यह हर मायने में अच्छी बात है कि सरकार ने ठाकरे के मंसूबों को चकनाचूर कर दिया, लेकिन यह और भी अच्छी होती अगर राज के संबंध में भी ऐसे ही कदम उठाए होते। महज राजनीतिक हित साधने के लिए राज ठाकरे को खुलेआम कुछ भी करने की आजादी देना कहां तक जायज है। यह सवाल सरकार से पूछे ही जाने चाहिए।

नीरज नैयर

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