शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

अब समझ में आया पढ़ाई इतनी महँगी क्यों?



डॉ. महेश परिमल
आईपीएल में होने वाले विवाद का खेल खत्म हो गया हो। पर धन का खेल तो अब शुरू हुआ है। बेशुमार दौलत के नशे में लोग क्या-क्या नहीं कर सकते, यह इससे पता चलता है। अब एक दूसरा ही नाटक शुरू हो गया है। पालकों को अब पता चल रहा है कि आखिर मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई इतनी महँगी क्यों होती है? कॉलेजों को मान्यता देने के नाम पर जब संचालकों से रिश्वत के रूप में करोड़ों की रकम ली जाती हो, तो फिर यही धन विद्यार्थियों से ही तो वसूला जाएगा। शिक्षा के नाम पर पनपने वाले इस माफिया का एक नाम केतन देसाई के रूप में हमारे सामने आया है। हम इसे भी आइसबर्ग का एक छोटा सा हिस्सा कह सकते हैं। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया और ऑल इंडिया काउंसिल फार टेक्नीकल एजुकेशन भ्रष्टाचार का अखाड़ा बन गए हैं।
हमारे देश में इस तरह के कई केतन देसाई पल रहे हैं। इस केतन देसाई के यहाँ सीबीआई के छापों में अब तक 1800 करोड़ के कालेधन का पता चला है। छापे जारी हैं, ये आँकड़े तेजी से बढ़ भी रहे हैं। सवाल यह है कि सरकार ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को इतने सारे अधिकार दे कैसे दिए कि वे कॉलेजों से करोड़ों की रिश्वत लेकर उन्हें मान्यता प्रदान करें। पिछले 20 वर्षों से एक व्यक्ति एक ही पद पर रहकर भ्रष्टाचार करता रहा और सरकार को भनक तक नहीं लगी। क्या यह संभव है? इनके हौसले इतने बुलंद हैं कि यदि प्रधानमंत्री को भी अपने क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज खोलना हो, तो पहले इनकी भेंट पूजा करो, तभी कॉलेज खुल पाएगा। आखिर नई कॉलेज खोलने के लिए नियम इतने कड़े क्यों बनाए गए हैं? इतने कड़े नियमों से कोई कॉलेज खुल ही नहीं पाएगा। यदि खुलता है, तो इसका यही मतलब है कि कॉलेज संचालक ने करोड़ों की रिश्वत दी है, तभी उसकी कॉलेज को मान्यता मिल पाई है।
सीबीआई ने जिस तरह से मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष केतन देसाई की धरपकड़ की है, उसी तरह पिछले वर्ष ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्नीकल एजुकेशन के मंत्री नारायण राव की धरपकड़ की गई थी, उस समय वे हैदराबाद में इंजीनियरिंग कॉलेज के संचालकों से रिश्वत ले रहे थे। इस मामले में ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्नीकल एजुकेशन के अध्यक्ष राम अवतार यादव की मिलीभगत होने की जानकारी मिली थी। इसी तरह देश भर में आर्किटेक्चर कॉलेज को मान्यता देने वाली काउंसिल ऑफ आर्किटेक्चर भी भ्रष्टाचार के दलदल में समाई हुई है। कॉलेज संचालक इन्हें रिश्वत देते हें, फिर शिक्षा के नाम पर छात्रों को लूटते हैं। इन संस्थाओं में इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है, और इसकी जानकारी हमारे खुफिया तंत्र को नहीं है। यह आश्चर्य की बात है। इसका यही आशय है कि रिश्वत की राशि सभी संबंधित लोगों तक ईमानदारी से पहुँच रही है।
सन् 2001 में केतन देसाई के खिलाफ डॉ. हरीश भल्ला ने दिल्ली हाईकोर्ट में भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता आरोप लगाया था। इस प्रकरण में डॉ. भल्ला ने केतन देसाई पर भ्रष्टाचार और पद का दुरुपयोग का आरोप भी लगाया। भल्ला ने अपनी रिट पिटीशन में केतन देसाई के घर पड़े आयकर छापे का भी हवाला दिया, जिसमें उनकी पत्नी और बेटी के नाम अनजाने व्यक्ति द्वारा 64 लाख रुपए जमा कराए गए थे। इस आवेदन में पुणो और गाजियाबाद में मेडिकल कॉलेज को मान्यता देने के नाम पर रिश्वत लेने की बात भी कही गई थी। इसका फैसला यह आया कि केतन देसाई को अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ केतन देसाई ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। इस दौरान उन्होंने अपने किसी चहेते को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में बैठा दिया। पूरे 7 साल तक केतन देसाई परदे के पीछे से मेडिकल काउंसिल का संचालन करते रहे। 2009 में तिकड़म लड़ाकर वे पुन: उसी पद पर आरुढ़ हो गए। जब तक दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द न किया जाए, तब तक केतन देसाई किस तरह से पुन: मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष बन सकते हैं? यहाँ यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि अभी कुछ महीने पहले ही केतन देसाई वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में चुने गए।
केतन देसाई की धरपकड़ के साथ ही मेडिकल काउंसिल का भ्रष्टाचार बाहर आया है। सवाल यह है कि क्या इससे भ्रष्टाचार जड़ से खत्म होगा? अब यदि केतन देसाई के स्थान पर कोई और आ जाता है, तो क्या यह सिस्टम बदल जाएगा? यदि सिस्टम नहीं बदलता, तो फिर वहाँ उस पद पर जो भी होगा, उसे भ्रष्टाचार के लिए बाध्य होना ही पड़ेगा। मेडिकल कॉलेजों की दी जाने वाली मान्यता को लेकर जो नियम कायदे बनाए गए हैं, उसे पारदर्शी करने की आवश्यकता है। यही नहीं मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष को अंतहीन अधिकार भी न दिए जाएँ, इस पर भी अंकुश रखा जाए। यदि कॉलेज संचालक यहाँ करोड़ों की रिश्वत नहीं देंगे, तो यह आशा की जा सकती है कि मेडिकल की शिक्षा कुछ सस्ती हो जाए।
पहले के जमाने में वैद्य का बेटा अपने अनुभव के आधार पर वैद्य बन जाता था। इसकी शिक्षा के लिए उसे किसी कॉलेज में जाने की आवश्यकता भी नहीं होती थी। कुछ वर्ष पहले तक यह नियम था कि किसी डॉक्टर के साथ दस वर्ष तक काम करने वाला कंपाउंडर एक डॉक्टर के रूप में प्रेक्टिस कर सकता है। चार्टर्ड एकाउंटेंट बनाने के लिए कोई कॉलेज नहीं है, किसी भी अनुभवी चार्टर्ड के यहाँ नौकरी कर फिर चार्टर्ड एकाउंटेंट की परीक्षा देकर कोई भी चार्टर्ड एकाउंटेंट बन सकता है। तो फिर मेडिकल और इंजीनियरिंग शिक्षा को इतना अधिक जटिल क्यों बना दिया गया है? इस शिक्षा को सरल और सस्ता बनाया जाएगा, तभी मेडिकल काउंसिल और ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्नीकल एजुकेशन में होने वाले भ्रष्टाचार का अंत हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

सौंदर्य और अभिनय का अनूठा संगम: जयाप्रदा


अभिनेत्नी जयाप्रदा भारतीय सिनेमा की उन गिनी.चुनी अभिनेत्नियों में हैं .जिनमें सौंदर्य और अभिनय का अनूठा संगम देखने को मिलता है। महान फिल्मकार सत्यजीत रे जयाप्रदा के सौंदर्य और अभिनय से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने जयाप्रदा को विश्व की सुंदरतम महिलाओं में एक माना था। सत्यजीत रे उन्हें लेकर एक बांग्ला फिल्म बनाने के लिए इच्छुक थे लेकिन स्वास्थ्य खराब रहने के कारण उनकी योजना अधूरी रह गई। जया प्रदा .मूल नाम ललिता रानी. का जन्म आंध्रप्रदेश के एक छोटे से गांव राजमुंदरी में ३ अप्रैल १९६२ को एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता कृष्णा तेलुगु फिल्मों के वितरक थे। बचपन से ही जयाप्रदा का रूझान नृत्य की ओर था। उनकी मां नीलावनी ने नृत्य के प्रति उनके बढ़ते रूझान को देख लिया और उन्हें नृत्य सीखने के लिए दाखिला दिला दिया। चौदह वर्ष की उम्र में जयाप्रदा को अपने स्कूल में नृत्य कार्यक्रम पेश करने का मौका मिला . जिसे देखकर एक फिल्म निर्देशक उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी फिल्म ‘‘भूमिकोसम ‘‘में उनसे नृत्य करने की पेशकश की लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बाद में अपने माता-पिता के जोर देने पर जयाप्रदा ने फिल्म में नृत्य करना स्वीकार कर लिया। इस फिल्म के लिए जयाप्रदा को पारश्रमिक के रूप में महज १क् रूपए प्राप्त हुए लेकिन उनके तीन मिनट के नृत्य को देखकर दक्षिण भारत के कई फिल्म निर्माता -निर्देशक काफी प्रभावित हुए और उनसे अपनी फिल्मों में काम करने की पेशकश की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
वर्ष १९७६ जयाप्रदा के सिने कैरियर का महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उन्होंने के.बालचंद्रन की अंथुलेनी कथा ्के.विश्वनाथ की श्री श्री मुभा और वृहत पैमाने पर बनी एक धाíमक फिल्म ‘‘सीता
कल्याणम ‘‘में सीता की भूमिका निभाई। इन फिल्मों की सफलता के बाद जयाप्रदा दक्षिण भारत में अभिनेत्नी के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गईं। वर्ष १९७७ में जयाप्रदा के सिने कैरियर की एक और महत्वपूर्ण फिल्म ‘‘आदावी रामाडु ‘‘प्रदíशत हुई. जिसने टिकट खिड़की पर नए कीíतमान स्थापित किए। इस फिल्म में उन्होंने अभिनेता एन.टी.रामाराव के साथ काम किया और शोहरत की बुलंदियो पर जा पहुंचीं। वर्ष १९७९ में के.विश्वनाथ की ‘‘श्री श्री मुवा ‘‘ की ¨हदी में रिमेक फिल्म ‘‘सरगम ‘‘के जरिए जयाप्रदा ने ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में भी कदम रख दिया। इस फिल्म की सफलता के बाद वह रातो रात ¨हदी सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गई और अपने दमदार अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्नी के फिल्म फेयर पुरस्कार से नामांकित भी की गई। सरगम की सफलता के बाद जयाप्रदा ने लोक परलोक, टक्कर, टैक्सी ड्राइवर और प्यारा तराना जैसी कई दोयम दर्जे की फिल्मों में काम किया लेकिन इनमें से कोई फिल्म टिकट खिड़की पर सफल नहीं हुई। इस बीच जयाप्रदा ने दक्षिण भारतीय फिल्मों में काम करना जारी रखा।
वर्ष १९८२ में के.विश्वनाथ ने जयाप्रदा को अपनी फिल्म ‘‘कामचोर ‘‘के जरिए दूसरी बार ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में लांच किया। इस फिल्म की सफलता के बाद वह एक बार फिर से ¨हदी फिल्मों में
अपनी खोई हुई पहचान बनाने में कामयाब हो गई और यह साबित कर दिया कि वह अब ¨हदी बोलने में भी पूरी तरह सक्षम है। वर्ष १९८४ में जयाप्रदा के सिने कैरियर की एक और सुपरहिट फिल्म ृ ‘‘शराबी ‘‘प्रदíशत हुई। इस फिल्म में उन्हें सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का अवसर मिला। फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। इसमें उनपर फिल्मायागीत ‘‘दे दे प्यार दे ‘‘ श्रोताओं के बीच उन दिनों क्रेज बन गया था। वर्ष १९८५ में जयाप्रदा को एक बार फिर से के.विश्वनाथ की फिल्म ‘‘संजोग ‘‘में काम करने का अवसर मिला. जो उनके सिने कैरियर की एक और सुपरहिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में जयाप्रदा ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया. जो अपने बेटे की असमय मौत से अपना मानसिक संतुलन खो देती है। अपने इस किरदार को जयप्रदा ने सधे हुए अंदाज से निभाकर दर्शको का दिल जीत लिया। ¨हिंदी फिल्मों में सफल होने के बावजूद जयाप्रदा ने दक्षिण भारतीय सिनेमा से भी अपना सामंजस्य बिठाए रखा। वर्ष १९८६ में
उन्होंने फिल्म निर्माता श्रीकांत नाहटा के साथ शादी कर ली। लेकिन फिल्मों मे काम करना जारी रखा। इस दौरान उनकी घराना, ऐलाने जंग ् मजबूर और शहजादे जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईें जिनमें जया प्रदा के अभिनय के विविध रूप दर्शकों को देखने को मिले। वर्ष १९९२ में प्रदíशत फिल्म ‘‘मां ‘‘जया प्रदा के सिने कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में एक है। इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसी मां का किरदार निभाया जो अपनी असमय मौत के बाद अपने बच्चे को दुश्मनों से बचाती है। अपने इस किरदार को उन्होंने भावपूर्ण तरीके से निभाकर दर्शकों को मंत्नमुग्ध कर दिया। वर्ष १९८२ में के.विश्वनाथ ने जयाप्रदा को अपनी फिल्म ‘‘कामचोर ‘‘के जरिए दूसरी बार ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में लांच किया। फिल्म कामचोर की सफलता के बाद जयाप्रदा एक बार फिर से ¨हदी फिल्मों में अपनी खोई हुई पहचान बनाने में कामयाब हुई। फिल्म कामचोर के जरिए जयाप्रदा ने यह साबित कर दिया कि वह अब ¨हदी बोलने में भी पूरी तरह सक्षम है। वर्ष १९८४ में जयाप्रदा के सिने करियर की एक और सुपरहिट फिल्म ृ ‘‘शराबी ‘‘प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में उन्हें सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का अवसर मिला। फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। फिल्म में उनपर फिल्माया यह गीत ‘‘दे दे प्यार दे ‘‘ श्रोताओं के बीच उन दिनों क्रेज बन गया था और आज भी श्रोताओं के बीच यह गीत शिद्धत के साथ सुने जाते है। वर्ष १९८५ में जयाप्रदा को एक बार फिर से के.विश्वनाथ की फिल्म ‘‘संजोग ‘‘में काम करने का अवसर मिला जो उनके सिने करियर की एक और सुपरहिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में जया प्रदा ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया जो अपने बेटे की असमय मौत से अपना मानसिक संतुलन खो देती है। फिल्म में अपने इस किरदार को जयप्रदा ने सधे हुए अंदाज से निभाकर दर्शको का दिल जीत लिया।
हिंदी फिल्मों में सफल होने के बावजूद जयाप्रदा ने दक्षिण भारतीय सिनेमा में भी अपना सामंजस्य बिठाए रखा। वर्ष १९८६ में जयाप्रदा ने फिल्म निर्माता श्रीकांत नाहटा के साथ शादी कर ली। इसके बाद भी जयाप्रदा ने फिल्मों मे काम करना जारी रखा। इस दौरान उनकी घराना, ऐलाने जंग, मजबूर शहजादे जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई जिसमें जया प्रदा के अभिनय के विविध रूप दर्शको को देखने को मिले। वर्ष १९९२ में प्रदर्शित फिल्म ‘‘मां ‘‘जया प्रदा के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में एक है। इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसी मां के किरदार निभाया जो अपनी असमय मौत के बाद अपने बच्चे को दुश्मनों से बचाती है।अपने इस किरदार को जयाप्रदा ने भावपूर्ण तरीके से निभाकर दर्शकों को मंत्नमुग्ध कर दिया। फिल्मों में कई भूमिकाएं निभाने के बाद जयाप्रदा ने समाज सेवा के लिए राजनीति में भी भूमिका निभाई। वर्ष १९९४ में वह तेलुगु देशम पार्टी में शामिल हो गई। हालांकि बाद में वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई और वर्ष २क्क्४ में रामपुर से चुनाव लड़कर लोकसभा सदस्य बनी।
जयाप्रदा के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी अभिनेता जितेन्द्र के साथ काफी पसंद की गई।यह जोड़ी सबसे पहले वर्ष १९८३ में प्रदíशत फिल्म ‘‘मवाली ‘‘में आई। बाद में इस जोड़ी ने तोहफा मकसद, हकीकत, पाताल भैरवी, संजोग, ¨सहासन, स्वर्ग से सुंदर मजाल, ऐसा प्यार कहां, औलाद, सौतन की बेटी, थानेदार, सपनों का मंदिर, मां, खलनायिका, लव और कुश, जैसी कई फिल्मों में एक साथ काम किया। जयाप्रदा की जोड़ी सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ भीकाफी पसंद की गई। यह जोडी सबसे पहले १९८४ में प्रदíशत फिल्म ‘शराबी‘ में दिखाई दी। बाद में इस जोडी ने आखिरी रास्ता ् गंगा जमुना सरस्वती, जादूगर, आज का अजरुन, इंद्रजीत, इंसानियत ् कोहराम और खाकी जैसी फिल्मों में भी एक साथ काम करके दर्शकों का भरपूरमनोरंजन किया। जया प्रदा ने अपने तीन दशक लंबे सिने करियर में लगभग २क्क् फिल्मों में अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का दिल जीता लेकिन दुर्भाग्य से वह किसी भी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्नी के फिल्म फेयर से सम्मानित नही की गई। हालांकि सरगम १९७९, शराबी १९८४ और संजोग १९८५ के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्नी के लिए अवश्य नामांकित की गई।
जयाप्रदा ने ¨हदी फिल्मों के अलावा तेलुगु, तमिल ्मराठी, बांग्ला मलयालम और कन्नड़ फिल्मों में भी काम किया है। उनकी कुछ उल्लेखनीय फिल्में हैं. आवाज १९८४, ¨सदूर १९८७, घर घर की कहानी १९८८, घराना ऐलाने जंग,शहजादे १९८९, फरिश्ते १९९१, त्यागी १९९२ ्इंसानियत के देवता, १९९३, चौराहा १९९४, मैदाने जंग १९९५, भारत भाग्य विधाता २00२, तथास्तु २00६ .दशावतारम २00८ आदि।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

जजों के फैसलों से मिल सकती है, समाज को नई दिशा


डॉ. महेश परिमल
दिल्ली की एक अदालत ने शपथ लेकर झूठी गवाही देने वाले एक शख्स को अनूठी सजा सुनाई। उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई के बजाय अदालत ने उसे बतौर प्रायश्चित एक महीने तक महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर प्रतिदिन दो घंटे तक प्रार्थना करने और समाधि स्थल के आसपास की सफाई करने का आदेश दिया। कहना कठिन है कि बापू के समाधि स्थल पर प्रार्थना और सफाई इस व्यक्ति के अंतर्मन को बदल पाएगी या नहीं। फिर भी यह बेहतर प्रयोग है क्योंकि हमारे कानूनों में वर्णित सजाएं और प्रक्रियाएं तो आपराधिक प्रवृत्तियों के लोगों का हृदय परिवर्तन करने में आम तौर पर विफल रही हैं।
वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब हम देखेंगे कि एक नेता पूरे एक हफ्ते तक झोपड़पट्टियों में रहकर वहाँ रहने वालों की समस्याओं को समझ रहा है। एक मंत्री ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा कर यात्रियों की समस्याओं को समझने की कोशिश कर रहा है और एक साहूकार खेतों में हल चलाकर एक किसान की लाचारगी को समझने की कोशिश कर रहा है। यातायात का नियम तोड़ने वाला शहर के भीड़-भरे रास्तों पर साइकिल चला रहा है। वातानुकूलित कमरे में बैठने वाला अधिकारी कड़ी धूप में खेतों पर खड़े होकर किसान को काम करता हुआ देख रहा है। बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पत्नियाँ झोपड़पट्टियों में जाकर गरीबों से जीवन जीने की कला सीख रही हैं। यह दृश्य कभी आम नहीं हो सकता। बरसों लग सकते हैं, इस प्रकार के दृश्य ऑंखों के सामने आने में। पर यह संभव है। यदि हमारे देश के न्यायाधीश अपने परंपरागत निर्णयों से हटकर कुछ नई तरह की सजा देने की कोशिश करें। जल और जुर्माना, यदि तो परंपरागत सा हुई, इससे हटकर भी सजाएँ हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पहले एक खबर पढ़ने को मिली कि एक जज ने एक विधायक को सजा के बतौर गांधी साहित्य पढ़ने के लिए कहा। बहुत अच्छा लगा। इसी तरह एक हीरोइन को दिन भर एक अनाथालय में रहने की सजा दी। कितनी अच्छी बात है कि एक विधायक गांधी साहित्य पढ़े और ऐश्वर्ययुक्त हीरोइन दिन भर अनाथालय में रहे। करीब 35 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी दुश्मन। इस फिल्म में ट्रक ड्राइवर नायक से उसकी गाड़ी के नीचे आने से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, जज उसे मृतक के परिवार को पालने की सजा देते हैं। पहले तो नायक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बाद में स्थिति सामान्य हो जाती है। फिल्म के अंत में नायक जज के पाँवों पर गिरकर अपनी सजा बढ़ाने की गुहार करता है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था। कुछ ऐसी ही कोशिश आज के न्यायाधीशों को करनी चाहिए, जिससे भटके हुए समाज को एक दिशा मिले। कुछ वर्ष पूर्व ही कोलकाता हाईकोर्ट के एक जज अमिताभ लाला अदालत जा रहे थे, रास्ते में एक जुलूस, धरना या फिर रैली के कारण पूरे तीन घंटे तक फँसे रहे। यातायात अवरुद्ध हो गया था, अतएव देर से ही सही, कोर्ट पहुँचते ही उन्होंने सबसे पहला आदेश यह निकाला कि अब शहर में सोमवार से शुRवार के बीच कहीं भी कभी भी धरना, रैली, जुलूस या फिर प्रदर्शन नहीं होंगे। केवल शनिवार या रविवार को ही ऐसे कार्यRम किए जा सकते हैं, वह भी नगर निगम की अनुमति के बाद।
जज महोदय पर जब बीती, तभी उन्होंने आदेश निकाला। अगर वे आम आदमी होते, तो शायद ऐसा नहीं कर पाते। यह प्रजातंत्र है, यहाँ आम आदमी की पुकार अमूमन नहीं सुनी जाती। कहा भले ही जाता हो, पर सच्चाई इससे अलग है। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि एक आम आदमी का प्रतिनिधि विधायक या सांसद बनते ही वीआईपी कैसे हो जाता है? आम से खास होने में उसे जरा भी देर नहीं लगती। खास होते ही उसे आम आदमी की पीड़ा से कोई वास्ता नहीं होता। क्या वोट देकर वह अपने हक से भी वंचित हो जाता है? उसका प्रतिनिधि सुविधाभोगी कैसे हो जाता है?
ऐसे लोग यदि किसी प्रकार का गुनाह करते हैं, तो उनके लिए जज यह फैसला दे कि उसे लगातार एक महीने तक ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा करनी होगी या फिर सड़क से उसके गाँव तक पैदल ही जाना होगा। किसी दौलतमंद को सजा देनी हो, तो उसे दिन भर किसी झोपड़पट्टी इलाके में रहने की सजा दी जाए, खेत में हल चलाने की सजा दी जाए। इस तरह लोग आम आदमी की तमाम समस्याओं से बेहतर वाकिफ होंगे। उन्हें यह समझ में आएगा कि वास्तव में बुनियादी समस्याएँ क्या हैं?

अमिताभ लाला ने जब भुगता, तभी आम आदमी की समस्याएँ समझ में आई। इसके पहले उसी कोलकाता में न जाने कितनी बार बंद का आयोजन हुआ होगा, धरना आंदोलन हुआ होगा, इन सब में आम आदमी की क्या हालत हुई होगी, यह इसके पहले किसी ने भी समझने की कोशिश नहीं की। वैसे भी अमीरों के सारे चोचलों में बेचारे गरीब ही मारे जाते हैं, जो मजदूर रोज कमाते-खाते हैं, उनके लिए ऐसे कार्यRम भूखे रहने का संदेशा लेकर आते हैं। अनजाने में वे उपवास कर लेते हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, बहाव के साथ चलना। जो बहाव के साथ चलते हैं, उनसे किसी प्रकार के नए कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। किंतु जो बहाव के खिलाफ चलते हैं, उनसे ही एक नई दिशा की आशा की जा सकती है। कुछ ऐसा ही प्रयास पूर्व में कुछ हटकर निर्णय देते समय जजों ने किया है। अगर ये जज हिम्मत दिखाएँ, तो कई ऐसे फैसले दे सकते हैं, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। आज सारा समाज उन पर एक उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। आज भले ही न्यायतंत्र में ऊँगलियाँ उठ रही हों, जज रिश्वत लेने लगे हों, बेनाम सम्पत्ति जमा कर रहे हों, ऐसे में इन जजों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, जब वे भी एक साधारण आरोपी की तरह अदालतों में पेशी के लिए पहुँचेंगे, तब उन्हें भी समझ में आ जाएगा कि न्याय के खिलाफ जाना कितना मुश्किल होता है?
अब समाज की न्याय व्यवस्था वैसी नहीं रही, जब खून का बदला खून जैसा जंगल का कानून चलता था। लोग अब भी न्याय व्यवस्था पर विश्वास करते हैं। न्याय के प्रति उनकी आशा जागी है। कानून तोड़ने वाले अब भी कानून तोड़ रहे हैं, लेकिन जो इस बात पर विश्वास करते हैं, वे अब भी कानून के दायरे में रहकर गुज़ारा कर लेते हैं। यदि संवेदनशील जज चाहें, तो अपने फैसलों से समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। उनके ये फैसले जमीन से जुड़ाव पैदा करने में मदद करेंगे। अब यह जजों पर निर्भर करता है कि वे क्या करना चाहते हैं।
डॉ. महेश परिमल

जजों के फैसलों से मिल सकती है, समाज को नई दिशा


डॉ. महेश परिमल
दिल्ली की एक अदालत ने शपथ लेकर झूठी गवाही देने वाले एक शख्स को अनूठी सजा सुनाई। उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई के बजाय अदालत ने उसे बतौर प्रायश्चित एक महीने तक महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर प्रतिदिन दो घंटे तक प्रार्थना करने और समाधि स्थल के आसपास की सफाई करने का आदेश दिया। कहना कठिन है कि बापू के समाधि स्थल पर प्रार्थना और सफाई इस व्यक्ति के अंतर्मन को बदल पाएगी या नहीं। फिर भी यह बेहतर प्रयोग है क्योंकि हमारे कानूनों में वर्णित सजाएं और प्रक्रियाएं तो आपराधिक प्रवृत्तियों के लोगों का हृदय परिवर्तन करने में आम तौर पर विफल रही हैं।
वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब हम देखेंगे कि एक नेता पूरे एक हफ्ते तक झोपड़पट्टियों में रहकर वहाँ रहने वालों की समस्याओं को समझ रहा है। एक मंत्री ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा कर यात्रियों की समस्याओं को समझने की कोशिश कर रहा है और एक साहूकार खेतों में हल चलाकर एक किसान की लाचारगी को समझने की कोशिश कर रहा है। यातायात का नियम तोड़ने वाला शहर के भीड़-भरे रास्तों पर साइकिल चला रहा है। वातानुकूलित कमरे में बैठने वाला अधिकारी कड़ी धूप में खेतों पर खड़े होकर किसान को काम करता हुआ देख रहा है। बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पत्नियाँ झोपड़पट्टियों में जाकर गरीबों से जीवन जीने की कला सीख रही हैं। यह दृश्य कभी आम नहीं हो सकता। बरसों लग सकते हैं, इस प्रकार के दृश्य ऑंखों के सामने आने में। पर यह संभव है। यदि हमारे देश के न्यायाधीश अपने परंपरागत निर्णयों से हटकर कुछ नई तरह की सजा देने की कोशिश करें। जल और जुर्माना, यदि तो परंपरागत सा हुई, इससे हटकर भी सजाएँ हो सकती हैं।
कुछ वर्ष पहले एक खबर पढ़ने को मिली कि एक जज ने एक विधायक को सजा के बतौर गांधी साहित्य पढ़ने के लिए कहा। बहुत अच्छा लगा। इसी तरह एक हीरोइन को दिन भर एक अनाथालय में रहने की सजा दी। कितनी अच्छी बात है कि एक विधायक गांधी साहित्य पढ़े और ऐश्वर्ययुक्त हीरोइन दिन भर अनाथालय में रहे। करीब 35 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी दुश्मन। इस फिल्म में ट्रक ड्राइवर नायक से उसकी गाड़ी के नीचे आने से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, जज उसे मृतक के परिवार को पालने की सजा देते हैं। पहले तो नायक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बाद में स्थिति सामान्य हो जाती है। फिल्म के अंत में नायक जज के पाँवों पर गिरकर अपनी सजा बढ़ाने की गुहार करता है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था। कुछ ऐसी ही कोशिश आज के न्यायाधीशों को करनी चाहिए, जिससे भटके हुए समाज को एक दिशा मिले। कुछ वर्ष पूर्व ही कोलकाता हाईकोर्ट के एक जज अमिताभ लाला अदालत जा रहे थे, रास्ते में एक जुलूस, धरना या फिर रैली के कारण पूरे तीन घंटे तक फँसे रहे। यातायात अवरुद्ध हो गया था, अतएव देर से ही सही, कोर्ट पहुँचते ही उन्होंने सबसे पहला आदेश यह निकाला कि अब शहर में सोमवार से शुRवार के बीच कहीं भी कभी भी धरना, रैली, जुलूस या फिर प्रदर्शन नहीं होंगे। केवल शनिवार या रविवार को ही ऐसे कार्यRम किए जा सकते हैं, वह भी नगर निगम की अनुमति के बाद।
जज महोदय पर जब बीती, तभी उन्होंने आदेश निकाला। अगर वे आम आदमी होते, तो शायद ऐसा नहीं कर पाते। यह प्रजातंत्र है, यहाँ आम आदमी की पुकार अमूमन नहीं सुनी जाती। कहा भले ही जाता हो, पर सच्चाई इससे अलग है। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि एक आम आदमी का प्रतिनिधि विधायक या सांसद बनते ही वीआईपी कैसे हो जाता है? आम से खास होने में उसे जरा भी देर नहीं लगती। खास होते ही उसे आम आदमी की पीड़ा से कोई वास्ता नहीं होता। क्या वोट देकर वह अपने हक से भी वंचित हो जाता है? उसका प्रतिनिधि सुविधाभोगी कैसे हो जाता है?
ऐसे लोग यदि किसी प्रकार का गुनाह करते हैं, तो उनके लिए जज यह फैसला दे कि उसे लगातार एक महीने तक ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा करनी होगी या फिर सड़क से उसके गाँव तक पैदल ही जाना होगा। किसी दौलतमंद को सजा देनी हो, तो उसे दिन भर किसी झोपड़पट्टी इलाके में रहने की सजा दी जाए, खेत में हल चलाने की सजा दी जाए। इस तरह लोग आम आदमी की तमाम समस्याओं से बेहतर वाकिफ होंगे। उन्हें यह समझ में आएगा कि वास्तव में बुनियादी समस्याएँ क्या हैं?
अमिताभ लाला ने जब भुगता, तभी आम आदमी की समस्याएँ समझ में आई। इसके पहले उसी कोलकाता में न जाने कितनी बार बंद का आयोजन हुआ होगा, धरना आंदोलन हुआ होगा, इन सब में आम आदमी की क्या हालत हुई होगी, यह इसके पहले किसी ने भी समझने की कोशिश नहीं की। वैसे भी अमीरों के सारे चोचलों में बेचारे गरीब ही मारे जाते हैं, जो मजदूर रोज कमाते-खाते हैं, उनके लिए ऐसे कार्यRम भूखे रहने का संदेशा लेकर आते हैं। अनजाने में वे उपवास कर लेते हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, बहाव के साथ चलना। जो बहाव के साथ चलते हैं, उनसे किसी प्रकार के नए कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। किंतु जो बहाव के खिलाफ चलते हैं, उनसे ही एक नई दिशा की आशा की जा सकती है। कुछ ऐसा ही प्रयास पूर्व में कुछ हटकर निर्णय देते समय जजों ने किया है। अगर ये जज हिम्मत दिखाएँ, तो कई ऐसे फैसले दे सकते हैं, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। आज सारा समाज उन पर एक उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। आज भले ही न्यायतंत्र में ऊँगलियाँ उठ रही हों, जज रिश्वत लेने लगे हों, बेनाम सम्पत्ति जमा कर रहे हों, ऐसे में इन जजों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, जब वे भी एक साधारण आरोपी की तरह अदालतों में पेशी के लिए पहुँचेंगे, तब उन्हें भी समझ में आ जाएगा कि न्याय के खिलाफ जाना कितना मुश्किल होता है?
अब समाज की न्याय व्यवस्था वैसी नहीं रही, जब खून का बदला खून जैसा जंगल का कानून चलता था। लोग अब भी न्याय व्यवस्था पर विश्वास करते हैं। न्याय के प्रति उनकी आशा जागी है। कानून तोड़ने वाले अब भी कानून तोड़ रहे हैं, लेकिन जो इस बात पर विश्वास करते हैं, वे अब भी कानून के दायरे में रहकर गुज़ारा कर लेते हैं। यदि संवेदनशील जज चाहें, तो अपने फैसलों से समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। उनके ये फैसले जमीन से जुड़ाव पैदा करने में मदद करेंगे। अब यह जजों पर निर्भर करता है कि वे क्या करना चाहते हैं।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

लोकजागरण के अप्रतिम आस्था थे सप्रे जी


पुण्यतिथि पर विशेष
रमेश शर्मा
समूची १९ वीं सदी को भारतीय पत्रकारिता के मानक मूल्यों के लिहाज से स्वर्णयुग मानने वालों की कमी नहीं है। उस सदी की शुरुआत में ही छत्तीसगढ़ के पेंड्रा इलाके से हिंदी पत्रकारिता की मशाल लिए लोकजागरण की राह पर चले पं. माधवराव सप्रे की आज पुण्य तिथि है। सन्‌ १९०० में उन्होंने हिंदी मासिक "छत्तीसगढ़ मित्र" के रूप में पहला अखबार निकाला। इसी पत्रिका में हिंदी की पहली कहानी "एक टोकरी भर मिट्टी" प्रकाशित की गई थी। यह समूचे इलाके में अशिक्षा और कुरीतियों के खिलाफ एक मुखर आवाज बनकर उभरा। महान समाजसेवी, प्रबुद्घ विचारक और शिखर शिक्षा नायक सप्रे जी आजादी पूर्व की उस पीढ़ी से थे, जिनके लिए कथनी और करनी में कोई भेद नहीं होता था। तब देश अंग्रेजों का गुलाम था। गुलामी की यह जंजीरें सिर्फ शासन तंत्र के पाँवों पर ही नहीं थी, बल्कि अज्ञानता, कुरीतियों और अंधविश्वासों की बेड़ियों ने भी समाज को सदियों से जकड़ रखा था। इसी दौर में सप्रे जी ने छत्तीसगढ़ को चुना और लोकजागरण के लिए खुद को झोंक दिया। जब वे दस वर्ष के थे, तब पिता का साया उठ गया। संघर्षों की आँच में वे तपे और शिक्षा के प्रकाश से स्वयं और समाज को आलोकित करते रहे। जनवरी १९०० में "छत्तीसगढ़ मित्र" के प्रथम अंक में "आत्म परिचय" देते हुए उन्होंने लिखा-"जिस मध्यप्रदेश में लोक शिक्षा का परिमाण बिल्कुल कम है और उसके विभाग(छत्तीसगढ़) में वह केवल शून्यवत है। वहाँ विद्या वृद्घि के लिए आधुनिक नूतन मार्ग निकाले जाएँ, अर्थात नई-नई शालाएँ स्थापित की जाएँ, विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता दी जाए। भाषा के सुलेखकों को उत्तेजन दिया जाए, गं्रथ प्रकाश करने वाली मंडलियाँ उपस्थित की जाएँ, प्रकाशित ग्रंथों की समालोचना करने वाली ग्रंथ परीक्षक सभाएँ बनाई जाएँ और समाचार-पत्र तथा मासिक पुस्तक प्रसिद्घ की जाएँ-यह हमारा अंतिम उद्देश्य है।" उस दौर में अखबार को ख्याति तो बहुत मिली, लेकिन तब विज्ञापन देने का रिवाज नहीं था। लागत, वितरण के भी खर्चे बढ़ने लगे। पहले वर्ष में "छत्तीसगढ़ मित्र" को १७५ रुपए और दूसरे वर्ष ११८ रुपए का घाटा उठाना पड़ा। इस क्षति के एवज में भरसक सहयोग की माँग की जाती रही। लेकिन, घाटा बरकरार रहा। लिहाजा "छत्तीसगढ़ मित्र" बंद हो गया। तब सप्रे जी ने भरे मन से लिखा-"परमात्मा के अनुग्रह से जब "छत्तीसगढ़ मित्र" स्वयं सामर्थ्यवान होगा, तब वह फिर कभी लोकसेवा के लिए जन्मधारण करेगा।" इस पत्र के बंद होने के बाद भी आगे सप्रे जी ने हिंदी ग्रंथमाला, हिंद केसरी, कर्मवीर इत्यादि का प्रकाशन किया। शिक्षा के प्रति सप्रे जी का विशेष आग्रह था। उन्होंने १९११ में रायपुर में जानकीदेवी महिला पाठशाला स्थापित की। इसके लिए वे गैर सरकारी सहयोग की दिशा में आगे बढ़े। १९१६ में उन्होंने जब लोकमान्य तिलक की "गीता" का अनुवाद किया तो उन्होंने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली। इस एक सच्चे शिक्षक के रूप में सप्रे जी ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रतिभाओं को तराशा और उनसे बिना कोई फीस लिए उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया। आज देश में महिलाओं के आरक्षण पर बहस सर्वानुमति की तरफ जाती नजर आ रही है। दूरदर्शी सप्रे जी ने आज से सौ साल पहले देख लिया था कि देश की आधी आबादी महज घूँघट निकाले चूल्हा-चौकी में पिसकर रह जाती हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर कोरे भाषण नहीं दिए, बल्कि उनके लिए शिक्षण संस्थान शुरू कराया, जिसका व्यवस्थापन उन्होंने खुद संभाला। उन्होंने "कर्मवीर" जबलपुर से निकाला और पेंड्रा से "छत्तीसगढ़ मित्र"। वे स्वयं मराठी भाषी थे, मगर हिंदी के प्रति उनकी अगाध श्रद्घाभक्ति जीवनपर्यंत कायम रही। उन्होंने मराठी के श्रेष्ठ साहित्य को हिंदी में स्वयं अनूदित किया। सादगी और त्याग की वे हमेशा मिसाल बने रहे। तपोभूमि छत्तीसगढ़ से उनको हमेशा लगाव रहा। २३ अप्रैल १९२६ को उन्होंने आखिरी साँस रायपुर में ली।
रमेश शर्मा

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

झूठ बोलना सिखा रहा है मोबाइल


सुनने में अटपटा लगे लेकिन यह सच है कि आपका मोबाइल फ ोन आपको तथा आपके बच्चे को झूठ बोलना सिखा रहा है। व्यस्त जीवन और काम के बोझ के तले दबे लोग पेशेवर जाने अनजाने झूठ बोलने की आदत का शिकार हो रहे हैं और यह सिखा रहा है उनका हरदम जेब में साथ रहने वाला छोटा सा मोबाइल फोन।
मनोचिकित्सक भी इस बात से इत्तफाक रखते हैं कि मोबाइल क्रांति ने आम आदमी की जीवन शैली को पूरी तरह बदल दिया है। इसके लाभ अनेक हैं लेकिन हानियां भी कम नहीं। समय की पाबंदी के बीच एक समय कई ग्राहकों को एक साथ निपटाने की जद्दोजहद में पेशेवर कई बार ग्राहक को संतुष्ट करने के लिहाज से झूठी जानकारी देते हैं और उनकी यह आदत कब उनकी कार्यप्रणाली में समा जाती है इसका उन्हें भी पता नहीं चलता। छत्नपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में मनोरोग विभाग के वरिष्ठ चिकित्सक प्रभात सिठोले ने कहा कि झूठ बोलने की आदत वास्तव में एक बीमारी है जिसे चिकित्सा क्षेत्न की भाषा में पैथालोजिकल लाइंग कहते हैं और इसे एंटी सोशल पर्सनालिटी की एक शाखा के रूप में जाना जाता है। डा सिठोले ने बताया कि काम के बोझ तले झूठ बोलने वाले लोग इस बात से अनजान रहते हैं कि उनकी बातों को उनका बच्च भी सुन रहा है। बच्चे जिज्ञासु होते हैं और वह घर और आसपास के बुजुर्गो से ही संस्कार लेते हैं। ऐसे में वह बड़ों की देखादेखी झूठ बोलने की आदत भी सीख सकते हैं। मनोचिकित्सक ने कहा कि अमरीका से प्रकाशित पत्निका कम्र्पैहैन्सिव टैक्सट बुक आफ साइकोथैरपी के अनुसार भारत समेत दुनिया के अधिसंख्य देशों में आमतौर पर ३क् प्रतिशत लोग झूठ बोलने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते। चिकित्सा विज्ञान में झूठ बोलने की आदत से निजात पाने का उपाय है लेकिन यह २५ वर्ष से कम उम्र के लोगों पर ही अधिक प्रभावी रहता है।इससे अधिक उम्र के लोगों क ी मानसिक क्षमता के स्थायित्व के चलते यह इलाज अधिकतर निष्प्रभावी ही साबित होता है। ऐसे लोग यदि स्वयं चाह लें तो ही उन्हें इस रोग से मुक्ति मिल सकती है। इस बारे में कानपुर के गणेश शकंर विद्यार्थी मेडिकल कालेज में मनोरोग विभाग के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर आर आर अग्निहोत्नी ने कहा कि पैथालाजिकल लाइंग का एक पहलू यह भी है कि बच्चों में पनपती ऐसी आदतों में यदि अभिभावक जल्द ध्यान नहीं देते हैं तो यह किशोरावस्था से ही अपराध के दलदल में फंस सकते हैं। अमरीका समेत कई विकसित देशों में ऐसे मरीजों के लिए करेक्शन होम होते हैं जहां बिहैवियर थैरपी के जरिए उन्हें इस समस्या से छुटकारा दिलाया जाता है जबकि देश में इस नाम को बाल सुधार गृह के नाम से जाना जाता है। झूठ बोलने से ग्रसित बच्चों के अभिभावक को कहा जाता है कि वे बच्चे के सच बोलने पर उसे प्रोत्साहन के तौर पर उपहार दें जबकि झूठ बोलने पर दंड की हिदायत दें। बच्चों को यह भी कहें कि यदि उसने झूठ बोला तो उसकी कोई भी मांग नहीं मानी जाएगी। अभिभावक को यह भी चाहिए कि वह बच्चों के सामने आपस में कभी न झगड़े अथवा झूठ का सहारा न लें। घर में अनुशासन का माहौल बनाएं। झूठ बोलने पर बच्चों को मारने पीटने की जगह कुछ समय के लिए उससे बात करना बंद कर दें।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

क्यों होता है सरकारीतंत्र लचर और लाचार

डॉ. महेश परिमल
बिहार के रोहतास जिले का एक छोटा-सा गाँव, नाम है केनार। इस गाँव में 11 वर्ष पहले एक बड़ी घटना हुई। गाँव के एक रसूखदार ने एक व्यक्ति को सरेआम मार डाला, और उसकी संपत्ति अपने नाम कर ली। मृतक की विधवा के पास 7 साल के बेटे के सिवाय ओर कोई सहारा न था। अपने बेटे को लेकर वह न्याय की गुहार करने लगी। कभी प्रशासन से, कभी पुलिस से, कभी लोगों से। उसे हर जगह से दुत्कार दिया जाता। उस विधवा की सहायता के लिए कोई आगे नहीं आया। पूरे 11 वर्ष तक वह दर-दर की ठोकरें खाती रही। इस दौरान जहालत सहते हुए बेटा संदेश कुशवाहा संदेश कुशवाहा जवान हो गया। बेटे ने माँ का संघर्ष अपनी आँखों से देखा था। इसलिए उसका न्याय से विश्वास उठ गया। अंतत: उसने माओवादियों का रुख किया। उनके पास जाकर उसने आधुनिक हथियार चलाने का प्रशिक्षण लिया। कुछ ही समय बाद वह अपने साथियों की अगुवाई करने लगा। उसके दिमाग में बस यही बात थी कि किस तरह से माँ की पीड़ाओं का बदला लिया जाए। अंतत: वह दिन भी आ गया, जब उसने अपने 70 साथियों के साथ अपने गाँव पहुँचा। पूरे गाँव को घेरकर उसने पिता के हत्यारे और उसके बेटे को सबके सामने मार डाला। इस तरह से उसने अपना बदला ले लिया और अपने साथियों के बीच हीरो हो गया।
यह किसी फिल्म की कहानी नहीं है, बल्कि सत्य घटना है। अभी कुछ दिनों पहले ही यह घटना हुई। लोग दहल गए। उस रसूखदार ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसका और उसके बेटे का ऐसा हश्र होगा। प्रशासन सतर्क हो गया। पुलिस छानबीन हुई। तब पता चला कि संदेश कुशवाहा की माँ ने कई बार न्याय की गुहार की थी। पर उसे प्रशासन द्वारा न्याय नहीं मिल पाया। अब प्रशासन भले ही यह कहता रहे कि हाँ उस विधवा को न्याय नहीं दे पाई सरकार। पर अब कुछ नहीं हो सकता। यदि संदेश कुशवाहा की घटना से कुछ प्रशासन को कोई सबक लेना हो, तो यही ले सकता है कि इस तरह की और कौन-सी घटना हुई है। उससे पीडि़त कोई न्याय की गुहार तो नहीं कर रहा है। निश्चित रूप से ऐसे कई मामले होंगे। यदि उन मामलों की छानबीन की जाए, तो अनेक संदेश कुशवाहा जैसे मामले निकल आएँगे। बस अब सरकार यह ठान ले कि अब एक भी संदेश कुशवाहा को नक्सली नहीं बनने दिया जाएगा। तो भविष्य में ऐसी नृशंस घटना कभी नहीं होगा।
पर क्या यह संभव है। आज सरकारी मशीनरी की लचर और लाचार है, यह किसी से भी छिपा नहीं है। बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि जो अधिकारी बस्तर गया, वह मालामाल हो गया। जमीन-जायदाद से सम्पन्न। ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों के घर बस्तर की चीजें भी बहुतायत से मिलतीं थीं। आदिवासियों के हाथों की बनी ऐसी दुर्लभ चीजों को वे अपनों के बीच ऐसे ही बाँट दिया करते थे। पुलिस अधिकारियों की तो बात ही न पूछो, उन्हें तो मुफ्त के माल की ऐसी लत लग जाती थी कि वे कुछ भी अपने पैसे से नहीं खरीदते थे। बाद में पता चलता था कि बस्तर जाकर एक छोटा-सा पुलिस कर्मचारी भी लखपति बन जाता था। कई बार उनके काले कारनामे बाहर आते, तो पता चलता था कि उसने कई बार अपने पद का दुरुपयोग किया। बस्तर की बालाओं को वह अपने अधिकारियों के लिए पेश करता। यही हाल सरकारी अधिकारियों का होता। उनके भी काले कारनामे बाहर आते ही रहते। बस्तर जाकर वे भोग-विलास का जीवन जीते। जो मेहमान होकर उनके पास जाता, उन्हें भी बस्तर की बालाएँ पेश की जातीं। बरसों तक यह बस देखता-सुनता रहा हूँ। अब जाकर हालात में कुछ सुधार आया है।
निश्चित ही उस दौरान कई आदिवासी प्रताडि़त हुए होंगे। इन अधिकारियों ने अपने पद का दुरुपयोग तो किया ही होगा। स्पष्ट है सरकार द्वार आदिवासियों की दी जाने वाली तमाम सुविधाएँ उन तक पहुँचने के पहले ये अधिकारी ही हथिया लेते। आदिवासियों की हालत कभी नहीं बदली, अलबत्ता अधिकारियों की दशा और दिशा बदलने लगी। आज कई अधिकारी सेवानिवृत हो चुके हैं, कई खुदा को प्यारे हो गए हैं। पर उनके कारनामे किसी न किसी की जुबां से सुनने को मिल जाते हैं। जब इन भोले-भाले आदिवासियों ने देखा कि उनके गाँव में एक छोटी-सी किराने की दुकान लगाने वाला देखते ही देखते साहूकार बन बैठा, आदिवासी उससे कर्ज लेने लगे और वह उनकी जमीन, या फिर सरकार से मिलने वाले सुविधाओं का वह हकदार बन बैठा। शोषण की एक लंबी श्रृंखला बन गई। इनके खिलाफ सुनवाई भी नहीं होती। पूरा तंत्र ही भ्रष्ट हो गया था। ये शोषण से बाज नहीं आते। आदिवासियों की इसी नब्ज पर हाथ रखने का प्रयास किया, नक्सलियों ने। उन्होंने सबसे पहले तो आदिवासियों के सामने ही अत्याचार करने वाले अधिकारियों को प्रताडि़त करना शुरू किया। पुलिस अधिकारी भी इससे नहीं बचे। नक्सलियों की इस कार्रवाई से आदिवासियों को लगा कि ये हमारे मसीहा हैं। इसके बदले में नक्सलियों ने उनसे माँगा संरक्षण और पुलिस की तमाम जानकारियाँ। जिसे ये भोले-भाले आदिवासी समझ नहीं पाए। धीरे-धीरे नक्सलियों पर विश्वास बढऩे लगा। जब आदिवासियों ने देखा कि उन पर अत्याचार करने वाले अधिकारी या पुलिस कर्मचारी नक्सलियों के आगे किस तरह से लाचार दिखते हैं, तो उनके मन में भी नक्सलियों का जीवन जीने की ललक पैदा हो गई। वे भी खेल-खेल में हथियार चलाना सीखने लगे। फिर जब भी मौका पड़ा, तो इन्होंने भी अपना बदला निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर तो यह आदिवासियों के लिए एक खेल ही हो गया, जिससे उन्हें लगा कि अब ये हमारा शोषण नहीं करेंगे। अनजाने में वे नक्सलियों के शोषण का शिकार होने लगे, इसकी जानकारी उन्हें काफी समय बाद मिली। आज भी कई नक्सली क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ आदिवासी दोनों तरफ से शोषण का शिकार हो रहे हैं।
यदि नक्सलियों का समूल नाश करना है, तो सरकार को पहले उस भ्रष्ट तंत्र का सफाया करना होगा, जो नक्सली बनने के लिए विवश करता है। जिस तरह से डाकू समस्या का अंत करने के लिए पुलिसतंत्र में कायाकल्प की आवश्यकता है, ठीक उसी तरह नक्सलियों के खिलाफ माहौल बनाने के लिए आदिवासियों का विश्वास जीतना आवश्यक है। पद का दुरुपयोग करने वाले सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को चुन-चुन आदिवासियों के सामने लाकर दंड देना होगा। ताकि फिर कोई संदेश कुशवाहा न बनने पाए। अत्याचार से ही उपजती है बदले की कार्रवाई। अत्याचार कभी तो रंग लाएगा, फिर चाहे वह सरकार का हो या फिर नक्सलियों का। सरकार अत्याचार की जड़ तक पहुँचे, आदिवासियों पर विश्वास करे, तभी आदिवासी भी उन पर विश्वास करेंगे। विश्वास से ही विश्वास का जन्म होता है। जुल्म का मुसलसल सिलसिला जारी है, उसे दूर किया जाना बहुत जरुरी है। अन्यथा कई संदेश कुशवाहा पैदा होते रहेंगे और अपना बदला लेते रहेंगे।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

करोड़पति जनप्रतिनिधि या निधिप्रति?



डॉ. महेश परिमल
राज्यसभा के सांसदों ने अपनी संपत्ति जाहिर कर दी है। इसमें 100 से अधिक सांसद ऐसे हें, जिनकी संपत्ति एक करोड़ रुपए से भी अधिक हैं। महाराष्ट्र में विपक्ष सांसद के रूप में चुने गए राहुल बजाज राज्यसभा के सबसे अधिक धनवान सांसद हैं। इनकी कुल संपत्ति 300 करोड़ रुपए से भी अधिक है। इनके बाद जनता दल एस के सांसद एम ए एम रामास्वामी का नाम आता है, जिनकी संपत्ति 278 करोड़ रुपए है। इनके बाद 272 करोड़ रुपए के साथ कांग्रेस के सुब्रमणी रेड्डी हैं। सबसे अधिक सांसद कांग्रेस के हैं, जिनकी संख्या 33 है। इसके बाद भाजपा के 21 और सपा के केवल 7 सांसद ही करोड़पति हैं।
सवाल यह उठता है कि आखिर सांसदों को इतनी अधिक राशि सरकार की तरफ से मिलती ही क्यों है? आखिर ये जनप्रतिनिधि हैं, निधिप्रति नहीं। इनके पास इतनी अधिक संपत्ति आती कहाँ हैं? किस काम के लिए यह सरकार से धन प्राप्त करते हें? देश में महँगाई कितनी भी बढ़ जाए, पर इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इनकी संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है, इन पर कभी आयकर छापा भी नहीं पड़ता। जनप्रतिनिधि होने के नाम पर ये इतनी अधिक निधि के मालिक हो जाते हैं कि कई पीढ़ियाँ तर जाएँ। इन करोड़पति सांसदों और विधायकों से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे महँगाई को समझ पाएँगे? आम जनता के दु:ख-दर्द को महसूस करेंगे? कोई उनसे यह पूछने वाला नहीं है कि उनकी संपत्ति मात्र कुछ ही वर्षो में इतनी अधिक कैसे हो गई? क्या जनता का प्रतिनिधित्व करना इतना फायदेमंद सौदा है? यदि सचमुच ऐसा ही है, तो फिर देश के हर नागरिक को एक बार तो जनप्रतिनिधि बनना ही चाहिए। जब तक इस देश में आम जनता का प्रतिनिधि वीआईपी होगा, तब तक गरीब और गरीब होते रहेंगे और अमीर और अमीर?
देश की गरीब से गरीब जनता से विभिन्न करों के रूप में धन बटोरने वाली सरकार के जनप्रतिनिधि लगातार स्वार्थी बनते जा रहे हैं। उन्हें दूसरों की खुशी बर्दाश्त नहीं होती। अपना तो देख नहीं पाते, पर दूसरे जो अपनी मेहनत से प्राप्त कर रहे हैं, वह उनकी आँखों में खटक रहा है। कुछ माह पहले हमारे मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा थां कि देश की निजी कंपनियों के सीईओ को दिए जाने वाले वेतन में कटौती की जाए। इनसे भी आगे निकले कृषि मंत्री शरद पवार। वे कहते हैं कि देश में मानसून की बेरुखी के कारण अब महँगाई बढ़ती रहेगी, आम जनता को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए।
उक्त दोनों मंत्रियों के बयान कितने बचकाना हैं, यह सर्वविदित है। अब इन्हंे कौन बताए कि जरा अपने गरेबां में झाँक लेते, तो शायद ऐसा नहीं कहते। क्या कभी यह सुनने में आया कि किसी मत्री, सांसद या विधायक को धन की कमी के कारण भूखे रहना पड़ा, या फिर इलाज नहीं करवा पाए? या फिर अपनी बेटी की शादी नहीं कर पाए? जब सब पर मुसीबत आती है, तब इन पर क्यों नहीं आती? मंदी के दौर में भी इन लोगों के खर्च पर किसी प्रकार की कटौती नहीं हुई, फिर भला ये कैसे कह सकते हैं कि गरीब जनता महँगाई से निबटने के लिए तैयार रहें। क्या ये अपनी तरफ से कुछ ऐसी कोशिशें नहीं कर सकते, जिससे आम जनता को राहत मिले। दूसरी ओर यदि कंपनियाँ अपने कर्मचारियोंे के कामों से खुश होकर उन्हें यदि अच्छा वेतन देती हैं, तो हमारे मंत्री को भला क्या आपत्ति है?
नेशनल इलेक्शन वॉच के अनुसार हरियाणा के चार सबसे अमीर कांग्रेसी विधायकों के खजाने में 800 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। देश की जनता यह पूछना चाहती है कि क्या इन विधायकों पर किसी प्रकार का कानून लागू नहीं होता? उनके परिवारों को महँगाई क्यों आड़े नहीं आती? कुछ दिलचस्प बातें भी सामने आईं, जिसमें एक विधायक ने यह कहा है कि उनके पास संपत्ति के नाम पर केवल 3000 रुपए ही हैं। एक विधायक ने तो यहाँ तक कहा है कि उसके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं है? सवाल यह उठता है कि आखिर चुनाव में खर्च करने के लिए उनके पास धन कहाँ से आया? शायद ये विधायक देश की जनता को मूर्ख समझते हैं।
यदि सांसद-विधायक बनने के बाद संपत्ति इतनी तेजी से बढ़ती है, तो देश के हर नागरिक को यह अधिकार होना चाहिए कि वह 5 वर्ष तक सांसद या विधायक बने। हमारा देश इन विधायकों की संपत्ति नहीं हो सकता। ये भले ही स्वयं को भारत का भाग्य विधाता कहें, पर सच क्या है, यह जनता बहुत ही अच्छी तरह से जानती है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

दरकने लगीं आस्था की दीवारें



डॉ. महेश परिमल
एक लम्बे विवाद के आद अंतत: सानिया मिर्जा शोएब मलिक की हो गईं। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि एक भारतीय युवती पाकिस्तानी बन गईं। पिछले एक पखवाड़े में इस शादी के पहले कई बवंडर आए। जिसका दोनों ने मिलकर सामना किया। पर अब हालात बदल गए हैं। इस बीच कई ऐसी खबरें आईं, जिसमें सानिया की सफलता से प्रभावित होकर जिन्होंने अपनी बेटियों का नाम सानिया रखा था, वे अब स्कूलों में यह आवेदन कर रहे हैं कि उनकी बेटी का नाम बदल दिया जाए। इसी तरह जिन्होंने अपनी संस्था का नाम सानिया के नाम पर रखा था, उन्होंने भी अपनी उसका नाम बदलकर साइना नेहवाल रख दिया है। इस तरह से सानिया को लेकर जो इज्जत देश में थी, वह विवादों के चलते दरकने लगी। आस्था का दरकना शायद इसे ही कहते हैं।
बात यह नहीं है कि सानिया ने शादी कर ली। बात यह है कि सानिया ने एक झूठे व्यक्ति से शादी की है। ‘सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला’ आएशा के मामले में शोएब ने न जाने कितने झूठ का सहारा लिया। जिसे वे शुरू से नकारते रहे, बाद में उसे ही स्वीकारा। यही नहीं अपने पिता के नाम में भी उनसे गफलत हुई। बाद में उसे अपनी भूल बताया। सानिया ने जन सनसनाते शॉट्स से अपनी धाक जमाई, उसी सनसनाते शॉट ने उसकी छवि को धूमिल कर दिया। शोएब का पाकिस्तानी होना कतई गलत नहीं है, बल्कि उनका मैच फिक्सिंग का आरोपी होना महत्वपूर्ण है। केवल झूठ ही नहीं, शादी से पहले ससुराल आकर रहना, घोषित तारीख के पहले शादी कर लेना जैसी कुछ बातें हैं, जो एकबारगी सानिया के प्रशंसकों को अचंभे मे डालती है। सुदूर गाँव में बसने वाले लोगों ने भी महसूस किया कि हिंदू होते हुए भी उन्होंने अपनी बेटी का नाम सानिया रखा, जो गलत था।
जो खिलाड़ी होते हें, उन्हें जीवन में एक बार तो ‘हू¨टग’ का सामना करना ही पड़ता है। सचिन तेंदुलकर को भी कई बार हूटिंग का सामना करना पड़ा। पर उन्होंने बिना प्रतिवाद किए अपने खेल से लोगों के दिल में जगह बना ली। तमाम विवादों के बाद भी सानिया ने अपने खेल से लोगों के दिलों में जगह बना ली थी। पर कुछ ही वर्षो में उसका खेल ढलान पर आने लगा। ऊँगली की चोट की वजह से उसका खेल प्रभावित हो रहा था। अंतत: उसने सोचा कि अब शादी कर लेनी चाहिए। सोहराब से सगाई के बाद भी लोगों को इस बात की खुशी थी कि वह आखिर रहेंगी, तो भारत में ही। इसलिए लोगों को उतना बुरा नहीं लगा। पर जब शोएब मलिक से उसकी शादी की बात चली, तो फिर कई विवादों ने उन्हें घेर लिया। इस बीच शोएब की कई गर्ल फ्रेंड सामने आ गई। आयशा का नाम तो और भी सुखिर्यों में आ गया, जिससे शोएब की शादी हुई थी। आखिरकार सानिया ने 12 अप्रैल को हैदराबाद में शोएब मलिक से शादी कर ली।
सेलिब्रिटी की शादी हो या प्यार, सभी पर सबकी नजरें रहतीं हैं। अब लोग सानिया-शोएब का दाम्पत्य जीवन लंबे समय तक टिक पाएगा या नहीं, इस पर कयास लगाने लगे हैं। कोई सानिया पर देशद्रोही होने का इल्जाम लगा रहा है तो कोई इसे भारत और पाकिस्तान के बीच एक प्रेम के पुल की नींव कह रहा है। कुछ दीवाने अपने टूटे दिले के साथ सानिया की शादी का शोक मना रहे हैं। पर सवाल यह है कि क्या ये रिश्ता टिक पाएगा? यह पहली बार नहीं है कि सरहदों के आर-पार दो दिल मिल रहे हैं। इससे पहले भी भारत और पाकिस्तान के बीच इस तरह का प्यार पनप चुका है। आज से 25 साल पहले एक पाकिस्तानी पत्रकार का दिल एक भारतीय हसीना पर आया था। उस समय पाकिस्तान में एक इंडियन के लिए वीजा पाना इतना मुश्किल नहीं था जितना कि आज।
पाकिस्तान के अधिकतर लोग मानते हैं कि सीमा पार विवाह से उनके देश और भारत और के बीच खाई पाटने में मदद मिल सकती ह,ै लेकिन उनका मानना है कि सानिया मिर्जा और शोएब मलिक की शादी ज्यादा दिन तक नहीं टिकी रहेगी। पाकिस्तान के एलीट स्कूल की सेवानिवृत प्रधानाध्यापिका आयशा अंसारी ने कहा मुझे लगता है कि शोएब मलिक और सानिया मिर्जा की जोड़ी बेमेल है, जिसमें सानिया बहुत अच्छी है। यह बुरा सौदा है। अंसारी ने दावा किया कि ऐसा मानने वाली वह अकेली नहीं हैं। उन्होंने कहा कि बहुत से पाकिस्तानियों का मानना है कि यह शादी ज्यादा दिन तक नहीं चलेगी। यह बहुत मुश्किल है। अंसारी हालांकि भारत और पाकिस्तानियों के बीच वैवाहिक संबंधों की पक्षधर हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह की शादियाँ होनी चाहिए। यह दोनों देशों के लिए अच्छा है। इससे मिथक टूटेंगे, डर दूर होगा और लोग एक-दूसरे के करीब आएँगे। अधिकतर पाकिस्तानी शादी का मामला काफी जटिल होता है। आईटी से जुड़ी सादिया खान ने कहा कि आपसी आकर्षण, शादी अच्छी बात है, लेकिन यदि शादी नहीं चल पाई तो क्या होगा?
अंसारी ने कई साल पहले भारत से यहाँ आकर पाकिस्तानी से शादी की थी। दुर्भाग्य से उनका दांपत्य जीवन अधिक दिन तक नहीं चल पाया। उनकी लड़की ने इसके बाद पाकिस्तानी के बजाय भारतीय से शादी करना उचित समझा। अंसारी को हालांकि कई साल पहले खास वीजा पर भारत में रहने की अनुमति मिल गई थी, लेकिन वह पाकिस्तान लौट आई और अब अपनी सारी जिंदगी पाकिस्तानी के तौर पर बिताना चाहती हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह की शादियों में कुछ भी गलत नहीं है। राजनीतिक स्थिति भले ही अलग है। वे उन लोगों को दोहरी नागरिकता क्यों नहीं दे देते जो शादी के लिए सीमा पार जाकर शादी करते हैं। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के मेरे कई विद्यार्थियों की शादी भी लंबे समय तक नहीं चली, इसलिए केवल भारत और पाकिस्तान के जोड़ों के बीच होने वाली शादी ही समस्या नहीं है। यह हर जगह जटिल मामला है। अंसारी का मानना है कि तीसरे देश का विकल्प यानी सानिया और शोएब के मामले में शादी के बाद दुबई में बसने के फैसले भी समस्या हल नहीं होगी। आप अपने परिवार से दूर चले जाते हो। मुझे नहीं लगता कि इससे काम बनेगा। वर्तमान परिस्थितियों में अधिकतर पाकिस्तानियों का मानना है कि सानिया और शोएब का दांपत्य जीवन लंबे समय तक चलने की संभावना कम है।
सरफराज की गुगली:- पूर्व पाकिस्तानी Rिकेटर सरफराज नवाज ने शोएब मलिक और टेनिस स्टार सानिया मिर्जा की शादी को लेकर जारी विवाद में एक और गुगली फेंकी है। सरफराज ने शोएब के चरित्र को शक के घेरे में खड़ा करते हुए उन पर मैच फिक्सर होने का संगीन आरोप लगाया है। सरफराज के मुताबिक शोएब घरेलू Rिकेट में मैच फिक्सिंग करते रहते हैं। एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल को दिए साक्षात्कार में सरफराज ने कहा कि भारत की टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा और पाकिस्तानी खिलाड़ी शोएब मलिक का निकाह सिर्फ एक बड़ा सौदा है। इसका मकसद सिर्फ पैसा है और कुछ नहीं। सरफराज का कहना है कि शोएब ने सानिया पर 18 लाख डॉलर खर्च किए हैं। कुछ ही दिनों में लोग सानिया के टेनिस मुकाबलों के फिक्स होने की खबर भी सुनेंगे। शोएब एक धोखेबाज हैं और कुछ नहीं। हैरत की बात यह है कि सरफराज के इतने संगीन आरोपों पर ना तो शोएब ने ना ही उनके किसी परिजन ने प्रतिRिया व्यक्त की है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

भैंस के आगे बीन



रामकुमार रामरिया

दूधवाला उस दिन भी उसी तरह दूध लेकर आया ,जिस तरह हमेशा लाता है। संक्षिप्त में कहें तो रोज की ही तरह नियमितरूप से दूध लेकर आया। उल्लेखनीय है कि यहां कवि दूध की विशेषता नहीं बता रहा है ,दूधवाले के आने की विशेषता बता रहा है। दूध की विशेषता तो आगे है, जहां कवि कहता है कि दूधवाला उसी तरह का दूध लेकर आया जिस तरह का दूध ,आज के यानी समकालीन दूधवाले लेकर आते हैं , जो उन दूधवालों की साख है ,उनकी पहचान है ,उनका समकालीन सौन्दर्य-बोध है। कह सकते हैं कि बिल्कुल प्रामाणिक, शुद्ध-स्वदेशी दूध.....सौ टके ,चौबीस कैरेटवाला दूध। जिसे देखकर ही दूध का दूध और पानी का पानी मुहावरा फलित हो जाता है।
चूंकि वस्तुविज्ञान के अनुसार यह प्रकरण साहित्य का कम और चूल्हे का ज्यादा था , इसलिए पत्नी ने इसे अपने हाथों में ( दूध को भी और प्रकरण को भी ) लेते हुए दूधवाले को टोका:‘‘ क्यों प्यारे भैया ! जैसे जैसे गर्मी बढ़ रही है , दूध पतला होता जा रहा है।’’
दूधवाले ने अत्यंत अविकारी और अव्ययी भाव से कहा: ‘‘ क्या करें बहिनजी ! हम लोग भी परेशान हैं। भैंस को चरने भेजते हैं तो वो जाकर दिन भर तालाब में घुसी बैठती है। कुछ खाए तो दूध गाढ़ा हो।’’
पत्नी उसकी प्रतिभा से तत्काल प्रभावित हो गई। अंदर आकर उसने टिप्पणी की:‘‘ बहुत बेशर्म भैंसवाला है........’’
यहां संबोधन और सर्वनाम का रूपांतरण देखिए साहब कि दूधवाला तथाकथित प्यारे भैया अब भैंसवाला हो गया। भावना-प्रधान रसोई का यही कमाल है कि वही गेहूं का आटा मस्त फूली हुई रोटी हो जाता है और वही आटा जली भुनी चपाती की तरह तवे पर चिपक जाता है।
मैंने मौके की नज़ाकत को समझा और चालाक बिल्ले की तरह चाय की संभावना को प्रबल करते हुए धर्मपत्नी को सहलाने की कोशिश की:‘‘ तुम भी कहां इन लोगों के मुंह लगती हो ? ये नहीं सुधरेंगे। भैंस को दुहते दुहते एकदम भैंस हो गए हैं ससुरे.....और तुमने सुना ही होगा - भैंस के आगे बीन बजाओ ,भैंस पड़ी पगुराय।’’
पत्नी मेरा लालचीपन भांपकर भुनभुनाई:‘‘ आप भी कम बीनबाज हो ? मौका भर मिले। आपकी बीन भी चाय-चाय बजाने लगती है...’’
मैं हंस पड़ा। जानता हूं कि असली पानीदार धर्मपत्नी है। चिल्लपों भी करेगी और चाय भी पिलाएगी। कहां जाएगी। पत्नी से तो किचन है। आम भारतीय पत्नी अगर कहीं है तो सिर्फ किचन में है। अस्तु ,अंततोगत्वा ( अंत तो गत्वा ) यानी ‘अंत में वो जहां जाती है’ वहां अर्थात किचन में चली गई।
पत्नी के अद्श्य होते ही पढ़ती हुई बेटी का स्वर प्रकट हो गया:‘‘पापा ! भैंस के आगे बीन क्यों बजाते हैं ? भैंस क्या हिमेश रेशमिया है जो बीन को जज करेगी ?’’
मैंने जीवन में इस सवाल की कभी उम्मीद नहीं की थी। सेकड़ों भैंसें देखी। सैकड़ों बार बीन भी बजती देखी। बीन का संबंध जहरीले सांप से है जो मीठी बीन सुनकर डोलता है। जैसे मन डोलता है।
डोलने की समानता के चलते मन भी जहरीला हो सकता है। खैर, यहां तर्कशास्त्र मुद्दा नहीं है।
इस समय मेरे सामने यह सवाल जबड़े चलाते हुए पगुरा रहा था कि ‘भैंस के आगे बीन क्यों बजायी जाती है’। यह सवाल भैंस की तरह ही भारी भरकम था ,जो उठ तो गया था मगर मुझसे बैठाए शायद नहीं बैठनेवाला था। फिर भी मैंने हमेशा की तरह हास्यास्प्रद कोशिश की और निपोरते हुए कहा: ‘‘ बेटा ! भैंस का कोई भरोसा नहीं है। संगीत से उसे लगाव होता भी है या नहीं , यह कोई नहीं जानता। जिस प्रकार प्रसिद्ध है कि ऊंट के मन का कोई नहीं जानता कि किस करबट बैठे, जिस प्रकार प्रसिद्ध है कि स्त्री के मन की ईश्वर जैसे सर्वज्ञ, नारद जैसे ऋषि और दशरथ जैसे राजा तक नहीं जानते कि वह कब क्या करे , माला किसके गले में डालें और कब क्या मांग बैठें। इसी प्रकार भैस का भरोसा नही कि वह कब क्या पसंद करे। इसलिए भैंस के आगे बीन बजाते हैं कि अगर वह बिफर गई तो बीन लेकर भागना आसान होगा। हारमोनियम लेकर भागना उससे मुश्किल है। पियानो बजाने की भूल तो करना ही नहीं चाहिए। बांसुरी अलबत्ता बजाई जा सकती है। मेरा तो मानना है कि जानवर अगर बड़ा है तो चीजें छोटी ही बजाओ। भैंस के आगे बीन बजाओ और हाथी के सामने पक्का राग गाओ। पक्के गाायन हमेशा सुरक्षित होते हैं। विपरीत परिस्थिति उत्पन्न होने पर मुंह लेकर भागना सबसे सरल है। संपेरों का गणित अलग है। वे सांप के आगे बीन बजाते हैं ,सांप मजे से डोलता रहता है। महादेव शंकर नाग को डमरू बजाकर मोहित बल्कि संमोहित कर लेते हैं और मस्त गले में डालकर घूमते रहते है। डमरू से बैल भी मोहित रहते हैं। बैल महादेव के वाहन हैं। जिनके घर बैल हैं ,मैंने देखा है कि वे उनके गले में डमरू का माडीफाइड डिमरा या डफरा लटका देते हैं। वह डमरू से मिलती जुलती आवाज निकालते रहता है और बैल कोल्हू के आसपास घूमता रहता है।’’

बेटी ने प्रश्न किया,‘‘पापा ! भैंस तो यम अंकल का स्कूटर है न ? उन्होंने क्या बजाया होगा?’’
बेटी का जनरल नालेज देखकर मैं दंग रह गया। सचमुच ऊपर मृत्यु-विभाग के एम डी यमराज के पास भैंसों और भैंसाओं की पूरी पल्टन है। फ्रैंकली मुझे इस बारे में कुछ पता नहीं है कि उन्होंने क्या बजाकर इन्हें लुभाया है और अपना क्रेजी बनाया है। मेरे चेहरे में हवाइयां उड़ने लगी। माथे पर पसीना चुहचुहा आया। मगर अचानक देवदूत की तरह मेरी याददास्त ने मेरी रक्षा कर ली।
बचपन में एक फ़िल्म देखी थी ‘संत ज्ञानेश्वर ’। उसमें मैंने देखा था कि एक भैंसा संस्कृत के श्लोक पढ़ता है। जीवन के इस एकमात्र पुण्य ने मेरे चेहरे पर जीवन रेखा बना दी। मैंने कहा,‘‘ बेटे! ऊपर का मामला अलग है। यमराज भैंसों को इंद्र-भवन में बांध आते हैं। वहां वाद्ययंत्र अपने आप बजते हैं। दिखाई भी नहीं देते। केवल अप्सराएं नाचती हुई दिखाई देती हैं। गंदर्भ लोग गाते हैं। भैंस कोरस में शामिल हो जाती होंगी। जब संस्कृत के श्लोक पढ़ सकती है तो गाने तो गा ही सकती हैं। इसलिए बीन या तंबूरे बजाने पर आक्रमण का खतरा वहां नहीं है।’’
पता नहीं बेटी ने क्या सोचा। वह कापी में डूब गई और मैं चाय में। चाय गरम थी। उसकी भाप से मेरे ठण्डे पड़ते चेहरे पर फिर से खून लौट आया। मगर मुंह का जायका खराब हो गया। चाय में जो दूध था उसकी क्वालिटी ने चाय का कैरियर ही खराब कर दिया था। वह अपने स्वादिष्ट उत्तम चरित्र से गिर गई थी। उसके चरित्रहनन में दूधवाले प्यारे भैया का हाथ स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसकी आंख, आत्मा, ईमान और आबरू का पानी टपकटपक कर दूध में मिल गया था। फलतः दूध पानीदार होकर भी चरित्रहीन हो गया था।
अब मैं समझा ,पक्के तौर पर समझा कि ये दूधवाले भैंस के आगे क्यों बीन बजाते रहते हैं। सयाने लोगों की ‘कहबतिया’ है कि ‘भैंस के आगे बीन बजाओ , भैंस पड़ी पगुराए।’ अब तो मेरे कुन्द ज़हन में इंद चमक उठा। इंदु को गांववाले इंद कहते हैं। इंदु यानी चंद्रमा। उसकी रोशनी में मुझे भैंसवालों की टेकनोलोजी समझ में आ गई। सीधा सा ‘टेक्ट’ है कि भैंस को पगुराए रखना है ,तो बीन बजाओ। इधर बीन का बजना चलेगा उधर भैंस का पगुराना चलेगा। पगुराना यानी जुगाली करना। भैंस जिस जाति की है यानी पाश्विक जातियां , सभी ऐसा करती हंै। पहले निगल निगल कर सब खाद्य अखाद्य को अपने पेट में संग्रहित कर लेती हैं। फिर मजे से निकाल निकाल कर बैठे बैठे पगुराती रहती है। मनुष्यों की भी बहुत सी संततियां ऐसा ही करती हैं। ऐन केन प्रकारेण पहले इतना इकट्ठा कर लेती हैं कि उससे उनकी सात पुश्तें बैठे बैठे खाती रहती हैं। यह कला उन्होंने भैंस एवं उनके रिश्तेदारों से सीखी है। कहते हैं मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है। बुद्धिमान प्राणी कहीं से भी सीख ग्रहण कर लेता है। ग्रहण को भी वह सुसंस्कृत होकर संग्रहण कहता है। उसकी बुद्धि कमाल की है। उसने साहित्य की भी रचना की है। साहित्य में भी सर्वोत्तम साहित्य वही है जो जुगाली से ,पगुराने से निकलता है। फ्लाप लेखक नयी नयी पत्रिकाएं निकालते हैं ,समीक्षाएं करते हैं और पुराने से पुराने स्थापित साहित्यकार को संग्रहालय से निकाल कर छापते रहते हैं। जो जितनी बढ़िया जुगाली करता है वह उतना स्थापित होता जाता है। हर स्थापित पत्रिका अपना एक ‘जुगाली संस्करण’ या ‘पगुराना प्रकाशन’ अवश्य निकालती है।
इसी साहित्य से हमारी आधुनिक और समकालीन सभ्यता बनी। हमारी आधुनिक और समकालीन सभ्यता क्या कहती है ? जंक फूड खाओ और तेजी से आगे निकल जाओ। जंक फूड क्या है ? हां ,आप ठीक समझे। संग्रहालय रूपी फ्रीज में पड़ा ठूंस ठूंसकर भरा इंस्टेड फूड। मुंह के चाल-चलन के लिए जंक फूड ‘आधुनिक विज्ञान का वरदान’ है। जंक फूड है तो नये भोजन की तलाश और चिंता खत्म। इसे आप इंस्टेड जुगाली या एब्सट्रेक्ट पगुराना कह सकते हैं।
इसी प्रकार भैंसवाले भी भैंस को निरंतर पगुराए रखने के लिए बीन बजाते हैं। चारा की चिंता एक बीन से खत्म। एक बीन पुश्त दर पुश्त चलती है। जैसे एक ब्याहता पत्नी। ख्याल रहे, मैं यहां पत्नी कह रहा हूं ,धर्मपत्नी नहीं। पत्नी और धर्मपत्नी में उतना ही अंतर है, जितना बीन और दूरबीन में। बीन बजाने से पत्नी तुम्हारे इशारे पर नाचती है। श्रीमती महादेवी वर्मा ने कितने मधुर स्वर में गाया है - ‘‘बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं।’’ इसीप्रकार धर्मपत्नी को दूरबीन से आकाशी-स्वप्न दिखाते रहना बुद्धिमान पति की सफलता है। यही उपयोगितावाद के गूढ़ रहस्य हैं। सबको इसके लाभ मिलें इसी पवित्र भावना से इसकी यहां चर्चा की गई।
होम शांति।

रामकुमार रामरिया

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

पंचायतों के अमानुषिक निर्णय: एक विचार


डॉ. महेश परिमल
पूरा हरियाणा दहल रहा है। हिसार के कैथल जिले के गाँव कराड़ा की एक घटना के फैसले से सभी स्तब्ध हैं। मीडिया भले ही इसे ‘ऑनर कीलिंग’ की संज्ञा दे, पर सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। जहाँ जंगल का कानून चलता है। तीन साल बाद जब अदालत ने दोषियों को सजा सुनाई, तब लोगों ने न्याय के महत्व को समझा। न्याय पर आस्था बढ़ी। इसके बाद भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। दरअसल कानून के हाथ मजबूत करने वाले पाये ही खोखले होने लगे हैं। इस मुकदमे में उन पुलिस वालों पर भी कार्रवाई हुई है, जिन्होंने अपराधियों का साथ दिया या कानून की राह में बाधाएँ पैदा कीं।
प्यार हर कोई करता है। किसी का प्यार जग-जाहिर होता है, किसी का प्यार पंख लगाकर उड़ता है। प्यार के फूलों की सुगंध को फैलने से कोई रोक नहीं सकता। पर खामोश प्यार की अपनी अहमियत होती है। यह बरसों तक सुरक्षित रहता है। किसी एक के दिल में, एक उम्मीद की रोशनी की तरह। मनोज-बबली ने भी प्यार किया। अपने प्यार को एक नाम देने के लिए उन्होंने कानून का सहारा लेकर शादी भी की। उन्हें पता था कि इस शादी का परिणाम बहुत ही बुरा भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने पुलिस सुरक्षा की माँग की। उन्हें सुरक्षा मिली, पर उस पर हावी हो गया, बाहुबलियों का बल। शादी के मात्र 23 दिन बाद ही दोनों को मौत के घाट उतार दिया गया। वजह साफ थी कि पंचायत नहीं चाहती थी कि एक गोत्र में शादी हो। यही गोत्र ही उन दोनों प्रेमियों के लिए काल बना।
पंचायतीराज का सपना क्या ऐसे ही पूरा हो सकता है। इसके पहले भी हमारे देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिसे सुनकर नहीं लगता कि हमें आजाद हुए 62 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। पंचायतों को मिले अधिकारों के ऐसे दुरुपयोग की कल्पना भला किसने की थी? सवाल यह उठता है कि क्या 62 साल बाद भी हम ऐसा कानून नहीं बना पाए, जिससे खाप पंचायत जैसे अमानुषिक निर्णय पर रोक लगाई जा सके? आज जहाँ दो बालिगों के बिना शादी के साथ-साथ रहने को कानूनी मान्यता मिल गई है और दो सजातीयों के साथ-साथ रहने की माँग की जा रही है, उस जमाने में खाप पंचायत ने जिस तरह से निर्णय दिया, उससे आदिम युग की ही याद आती है। मेरे विचार से आदिम युग में भी ऐसे निर्णय नहीं होते होंगे। फिर भला यह कौन-सा युग है?
इसके पूर्व भी इसी तरह के निर्णय ने पूरे देश को शर्मसार किया है। पंचायतें जब चाहे, बाहुबलियों के वश में होकर कठोर यातनाएँ देने वाली सजा मुकर्रर करती हैं। पंचायतों में भले ही बड़े पदों पर साधारण लोग होते हों, पर फैसले की घड़ी में आज भी वहाँ बाहुबलियों का हुक्म चलता है। अपने विवेक से निर्णय देने की प्रथा अभी नहीं रही। हमें भूलना होगा अलगू चौधरी और जुम्मन शेख को। हमें यह भी भूलना होगा कि पंचों के मुख से ईश्वर बोलता है। अब ऐसी खाला भी नहीं रही, जो अलगू चौधरी से यह कह सके, बेटा क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? उस समय ईमानदार पंचों का सबसे बड़ा गहना थी। अब ईमानदारी की बात करने का मतलब ही होता है, पुराने जमाने में जीना।

खाप पंचायत ने जिस तरह से फैसला दिया, वह हमारे देश का पहला फैसला नहीं था, इसके पहले भी देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिससे इंसानियत की मौत हुई है:-
अगस्त 2000 को झज्जर के जोणधी में हुई पंचायत द्वारा एक बच्चे के मां-बाप बन चुके आशीष और दर्शना को भाईबहन बनने का तुगलकी फरमान सुना दिया गया। यह फरमान काफी विवादों में रहा। 2003 में जींद के रामगढ़ में दलित मीनाक्षी द्वारा गांव के सिख युवक से प्रेम विवाह करने पर उसे मौत का फतवा सुना दिया। अदालत की मदद से प्यार तो बरकरार रहा, लेकिन उन्हें मध्यप्रदेश में छिपकर जीवन बिताना पड़ा।
मतलौडा में 11 नवंबर 2008 को मेहर व सुमन को भी मौत के रूप में समाज के ठेकेदारों का शिकार होना पड़ा। इन दोनों ने भी पग्गड़धारियों के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया।
मई 2009 को मंडी अटेली के बेगपुर में गोत्र विवाद के कारण ही 21 गांवों की महापंचायत बुलाई गई, विजय की शादी राजस्थान की राणियां की ढाणी की लड़की से हुई। खोश्य गोत्र के भारी दबाव के चलते एक परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया गया।
1999 में भिवानी में देशराज व निर्मला का प्रेम पंचायती लोगों को पसंद नहीं आया। पंचायती फरमान के बावजूद उन्होंने अपना प्रेम जारी रखा। इसी कारण लोगों ने दोनों को पत्थर मारकर मौत की नींद सुला दिया। अदालत ने 21 अप्रैल 2003 को दोनों पक्षों के 27 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि दोनों पक्षों में बाद में समझौता हो गया।
जनवरी 2003 को सफीदों के गांव के लोगों ने एक प्रेमी जोड़े को पत्थरों से कुचलकर मौत के घाट उतार दिया। इस दर्दनाक मौत के बाद गांव में कई दिन तक दहशत का माहौल बना रहा और लोग सहमे रहे।
मई 2008 को करनाल के बल्ला गांव में एक ही गोत्र में विवाह करने पर जस्सा और सुनीता को मार डाला गया। हत्यारों ने इतनी बेरहमी दिखाई कि दोनों के शव काफी देर तक गली में पड़े रहे और किसी की हिम्मत न पड़ी।
20 मार्च, 1994 को झज्जर के नया गांव में मनोज और आशा के प्रेम-प्रसंगों के चलते दोनों की जघन्य हत्या कर दी गई। आवाज उठने के बावजूद कोई कार्रवाई न की गई।
12 जुलाई 2009 को सिंघवाल की सोनिया से विवाह करने वाले मटौर के वेदपाल की पीट पीट कर हत्या कर दी गई। वेदपाल के परिवार वालों के रोष जताने पर भी पुलिस खास कार्रवाई न कर पाई।
अगस्त 2009 को रोहतक के बलहम्बा गांव में अनिल और रानी की नृशंस हत्या उनके प्रेम प्रसंगों के शक के चलते कर दी गई। दोनों परिवार रोते-बिलखते रहे लेकिन हत्यारों पर कोई कार्रवाई न हो पाई।
अगस्त 2009 को झज्जर जिले के सिवाना गांव के प्रेमी युगल संदीप और मोनिया की हत्या करके शवों को खेतों में पेड़ पर लटका दिया गया। इन नृशंस हत्याओं पर गांव के लोग कई दिन सहमे रहे।
ये कुछ उदाहरण ही हैं, जिससे पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है। करनाल की अदालत ने जो निर्णय सुनाया है, उससे हमें यह नहीं सोचना है कि अब देश की कानून-व्यवस्था चुस्त हो जाएगी। लोग अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। इस विपरीत अब अपराधी और भी अधिक चालाक हो जाएँगे। कानून को उलझन में डालने वाले उपक्रम करेंगे। कानूनी की लोच खोजेंगे, इसके लिए मददगार साबित होंगे, कानूनी पेशे से ही जुड़े लोग। जिनका काम ही है, लोगों को कानून की आड़ में ही बचाना। बुराई की जड़ खाप पंचायतें हैं, जो सगोत्र शादियों को बहन-भाई की शादी मानती है और इसे अक्षम्य कहकर दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। वह इस सच की भी कोई परवाह नहीं करती कि भारत में कानून का राज है और सगोत्र शादी करना कोई अपराध नहीं है। प्रेम पर इज्जत को झूठी और सामंती अहमियत देने वाले पुरानी मानसिकता के चंद लोग पुराने अवैज्ञानिक मूल्यों पर चलाने की जिद करते हैं। ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जिससे कोई भी खाप पंचायत आगे से ऐसा दुस्साहस न कर सके। खाप पंचायतों के समर्थकों को भी उसी तरह दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए जैसे हिंसा भड़काने वालों के लिए है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

हरित क्रांति से कैंसरग्रस्त हुए पंजाबी पुत्तर


डॉ. महेश परिमल
क्या आपको पता है कि हमारे देश में एक ट्रेन ऐसी भी चलती है, जिसका नाम ‘कैंसर एक्सप्रेस’ है? सुनने में यह बात हतप्रभ करने वाली है, पर यह सच है, भले ही इस ट्रेन का नाम कुछ और हो, पर लोग उसे इसी नाम से जानते हैं। यह ट्रेन कैंसर बेल्ट से होकर गुजरती है। यह ट्रेन भटिंडा से बीकानेर तक चलती है। इसमें हर रोज कैंसर के करीब 70 यात्री सफर करते हैं। जानते हैं यह यात्री कहाँ के होते हैं? पंजाब का नाम तो सुना ही होगा आपने? इस नाम के साथ वहाँ के गबरु जवानों के चित्र आँखों के सामने आने लगते हैं। पर इसी पंजाब के गबरु जवानों को हमारे रासायनिक खादों की नजर लग गई। जिस पंजाब की धरती ने लहलहाते खेतों को अपने सीने से लगाया है, आज वही धरती शर्मसार है, क्योंकि यही धरती आज अपने रणबाँकुरों को कृशकाय रूप में देख रही है। जी हाँ, जंतुनाशकों और रासायनिक खादों का अत्यधिक उपयोग यहाँ के किसानों को कैंसरग्रस्त कर रहा है। लोग यहाँ से अपना इलाज करवाने बीकानेर स्थित ‘आचार्य तुलसी कैंसर ट्रीटमेंट एंड रिसर्च सेंटर’ आते हैं।
पूर्व में किये गये अध्ययनों के अनुसार मालवा इलाके में खेती के लिये कीटनाशकों, उर्वरकों तथा एग्रोकेमिकल्स के अंधाधुंध उपयोग के कारण मानव जीवन पर कैंसर के खतरे की पुष्टि हुई थी, और अब इन्हीं संकेतों के मद्देनज़र किये गये अध्ययन से पता चला है कि पंजाब के मालवा इलाके के पानी, मिट्टी और अन्न-सब्जियों में यूरेनियम तथा रेडॉन के तत्व पाये गये हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार आर्सेनिक, फ़्लोराइड और नाईट्रेट की उपस्थिति भी दर्ज की गई है, जिसकी वजह से हालत बद से बदतर होती जा रही है। इस इलाके के भटिण्डा जिले और इसके आसपास का इलाका ‘कॉटन बेल्ट’ के रूप में जाना जाता है, तथा राज्य के उर्वरक और कीटनाशकों की कुल खपत का 80 प्रतिशत इसी क्षेत्र में जाता है। पिछले कुछ वषों से इस इलाके में कैंसर से होने वाली मौतों तथा अत्यधिक कृषि ण के कारण किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आते रहे हैं। इस इलाके के लगभग 93 किसान औसतन प्रत्येक 2.85 लाख रुपए के कर्ज तले दबे हुए हैं। पहले किये गये अध्ययनों से अनुमान लगाया गया था कि क्षेत्र में बढ़ते कैंसर की वजह बेतहाशा उपयोग किये जा रहे एग्रोकेमिकल्स हैं, जो पानी के साथ भूजल में पैठते जाते हैं और भूजल को प्रदूषित कर देते हैं। हाल ही में कुछ अन्य शोधों से पता चला है कि भूजल के नमूनों में प्रदूषित केमिकल्स के अलावा यूरेनियम, रेडियम और रेडॉन भी पाये जा रहे हैं, जिसके कारण मामला और भी गम्भीर हो चला है।
रासायनिक खादों एवं जंतुनाशकों से पंजाब की उपजाऊ धरती आज बंजर होने लगी है। यही हाल वहाँ के किसानों का है, जो लगातार कैंसरग्रस्त होने लगे हैं। उनके शरीर पर कैंसर के बजबजाते कीड़े अपना असर दिखाने लगे हैं। कभी अपनी दिलेरी को लेकर विख्यात यहाँ के किसान शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग बन रहे हैं। इतना कुछ होने पर भी न तो पंजाब सरकार और न ही केंद्र सरकार ने इस दिशा में ध्यान दिया। रोज सैकड़ों मरीज पंजाब से बीकानेर आते हैं, इनमें से कितने स्वस्थ हो पाते हैं और कितने काल कलवित होते हैं, यह जानने की फुरसत किसी को नहीं है। पंजाब बहुत ही समृद्ध राज्य है। ऐसा माना जा सकता है, पर दबे पाँव वहाँ गरीबी अपने पैर पसार रही है। यह भी सच है। राज्य के बीस में से 11 जिले और 60 प्रतिशत आबादी मालवा अंचल के किसान कैंसर जैसी बीमारी का शिकार हो रहे हैं। अधिकांश की हालत जोगिंदर की तरह ही है। निजी अस्पतालों में लाखों रुपए खर्च करने के बाद कई लोग सरकारी अस्पताल में आकर अपना इलाज करवाने के लिए विवश हैं।

चंडीगढ़ की ‘पोस्ट ग्रेज्युएट इंस्टीटच्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च’ (पीजीआईएमईआर) द्वारा किए गए एक शोध में पता चला कि उक्त कैंसर एक्सप्रेस से रोज औसतन 70 मरीज बीकानेर जाते हैं। जहाँ से ये मरीज आते हैं, उसे क्षेत्र को कैंसर बेल्ट कहते हैं। पूरे राज्य से इसी क्षेत्र से कैंसर के मरीज बीकानेर जाते हैं। यहाँ हर साल एक लाख लोगों में से 51 लोग कैंसर के कारण मौत के मुँह में चले जाते हैं। यहाँ से आने वाले मरीजों को डॉक्टर यही सलाह देते हैं कि वे कुएँ या बोरवेल का पानी पीने के बजाए पेक किया हुआ पानी पीएँ। 1970 में आई हरित क्रांति ने किसानों को समृद्ध बना दिया। कालांतर में यही हरित क्रांति उनके लिए अभिशाप बन गई। यहाँ हरित क्रांति के दौरान उपयोग में लाई गई रासायनिक खाद और जंतुनाशक के कारण भूगर्भ जल दूषित हो गया। यह जल इतना प्रदूषित हो गया कि इसका सेवन करने वाला रोगग्रस्त हो गया।
सन् 2007 में राज्य की पर्यावरण रिपोर्ट के अनुसार पूरे पंजाब में उपयोग में लाए जाने वाले पेस्टीसाइड्स का 75 प्रतिशत तो केवल मालवा में ही खप गया। इसके दुष्परिणाम बहुत ही जल्द सामने आ गए। वास्तव में रासायनिक खाद एवं जंतुनाशकों का अधिक बेइंतहा इस्तेमाल ही आज कैंसर के रूप में सामने आया है। यहाँ एक हेक्टेयर जमीन पर 177 किलो रासायनिक खाद उपयोग में लाया जाता रहा, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर इसका उपयोग प्रति हेक्टेयर 90 किलो है। इनमें शामिल नाइट्रेट का सबसे अधिक असर बच्चों पर पड़ा है। अधिक खाद और जंतुनाशकों से केवल किसान ही सबसे अधिक प्रभावित हुए हों, ऐसा नहीं है। भटिंडा की आदेश मेडिकल कॉलेज के डॉ. जी.पी.आई. सिंह बताते हैं कि 3,500 की आबादी वाला गाँव जज्जर की महिलाओं को अधूरे महीने में ही प्रसूति हो जाती है। नवजात शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग होते हैं। ये नवजात इतने कमजोर पैदा होते हैं कि अपना सर तक नहीं सँभाल पाते हैं। इस गाँव में ऐसे 20 बच्चे हैं। अभी तक इसका सुबूत नहीं मिला है कि इन क्षेत्रों में पैदा होने वाली ऐसी संतानों की बीमारी के पीछे यही जंतुनाशक और रासायनिक खाद ही जिम्मेदार है। पर इतना तो तय है कि जंतुनाशक और कैंसर के बीच कुछ तो संबंध है।
भटिंडा की अस्पताल से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार सन् 2004-2008 के बीच खेतों में जंतुनाशकों का छिड़काव करते समय साँस के साथ शरीर में गई दवाओं से 61 लोगों की मौत हो चुकी है। यहाँ के किसानों के खून में हेप्टाक्लोर और इथिऑन जैसे रसायन पाए गए, जो कैंसर का कारण बनते हैं। यह रसायन पशुओं के चारे, सब्जियों के साथ-साथ गाय और माताओं के दूध में भी पाए जाते हैं। सबसे दु:खद बात यह है कि पंजाब में रासायनिक खाद और जंतुनाशकों से इतना कुछ होने के बाद भी किसान जैविक खाद का इस्तेमाल नहीं करना चाहते। जंतुनाशकों के साथ पर गोबर खाद का भी इस्तेमाल करने में कोताही करते हैं। इस संबंध में उनका कहना है कि गोबर खाद महँगी पड़ती है, लेकिन क्या उनके स्वास्थ्य से भी महँगी है? कैंसर के इलाज में जब लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं, कई मौतें हो जाती हैं, फिर जो हालात सामने आते हैं, वे तो इतने महँगे नहीं होते? पूरे मालवा क्षेत्र से हरियाणी गायब हो रही है, पशु-पक्षी अपना बसेरा छोड़ने लगे हैं, महिलाओं के बाल अकारण ही सफेद होने लगे हैं, यही नहीं, यहाँ के युवाओं को कोई अपनी बेटी देने को तैयार नहीं है। इसके बाद भी यदि किसान या सरकार इस दिशा में नहीं सोचते, तो फिर कौन देखेगा पंजाबी पुत्तरों को? हृष्ट-पुष्ट जवानों की पूरी कौम ही बरबाद हो रही है, आज तक रासायनिक खादों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगा। अभी कितनी मौतें और होनी हैं, बता सकता है कोई?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

सानिया से दस सनसनाते सवाल


डॉ. महेश परिमल

सानिया, तुम्हें पाकिस्तानी भाया, पाकिस्तान क्यों नहीं?
इतने करोड़ भारतीय युवाओं में तुम्हें कोई पसंद नहीं आया?
शोएब के इंकार के बाद भी भारत के लिए खेल पाओगी?
दूसरी पत्नी बनना आखिर क्यों स्वीकार किया?
त़ुम्हारे खिलाफ माहौल अचानक कैसे बदल गया?
तुम शादी ही कर रही हो, गुनाह तो नहीं?
राष्ट्रीय घ्वज के अपमान के मामले अचानक कैसे तूल पकड़ लिया?
तुम्हारे टेनिस कोर्ट में राजनीति का प्रवेश तो नहीं हुआ ना?
क्या बाल ठाकरे गलत कह रहे हैं?
कहीं तुम पाकिस्तानियों के लिए जीती हुई ट्राफी तो नहीं?
कहते हैं मुसीबत अकेले नहीं आती। सानिया ने शादी का फैसला क्या किया, मानो भूचाल आ गया। हर कोई अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए तत्पर है। अब सानिया सो नहीं पा रही है। वह सोचने लगी है कि इतनी सारी मुश्किलें अचानक कैसे आने लगी? अपने भावी पति की सारी गर्लफ्रेंड अब तक कहाँ थीं? वे सब एक साथ कैसे नमूदार होने लगी? रही सही कसर राष्ट्रीय ध्वज के अपमान के मामले ने पूरी कर दी। अब उस मामले की पेशियाँ हैं, जो इसी माह और अगले माह होंगी। ऐसे में कैसे हो पाएगी शादी? फिर शादी होगी कहाँ, दुबई में या हैदराबाद में? इतने सारे सवाल, प्रतिद्वंद्वी के शॉट भी इतने मारक नहीं थे, उसका तो मुकाबला उसने कर लिया, पर ये कैसे शॉट हैं, जो सीधे मस्तिष्क पर प्रहार कर रहे हैं? इन सारे सवालों का जवाब एक ही है कि शोएब पाकिस्तानी हैं। पाकिस्तान से हमारे संबंध कभी बेहतर नहीं रहे। उसने भारत को हमेशा अपना कट्टर दुश्मन ही माना है। वहाँ अधिकांश नागरिक भी ऐसा ही सोचते हैं। प्यार करना कतई गुनाह नहीं है, गुनाह तो तब भी नहीं होता है, जब वह प्यार देश काल की सीमाएँ पार करने लगता है। गुनाह तब बना, जब सानिया का दिल उस देश के युवक के लिए धड़कने लगा, जो हमें हमेशा से दुश्मन मानता है। वह भी कट्टर दुश्मन।
सानिया मिर्जा के फैसले से पाकिस्तानी खुश हैं कि हमने भारत का एक सितारा अपने नाम कर लिया। काफी समय बाद उन्हें खुश होने का मौका मिला है। भला वे क्यों चूकें? इस आग में घी का काम किया है पाकिस्तानी टेनिस के प्रमुख दिलावर अब्बास के बयान ने, जिसमें उन्होंने कहा है कि सानिया को पाकिस्तान के लिए खेलना चाहिए, ताकि यहाँ की युवतियों को उससे प्रेरणा मिले। सानिया के लिए आज अपना प्यार ही सब कुछ हो गया। जिस देश ने उसे बुलंदियों तक पहुँचाया, अपना प्यार दिया, करोड़ों की दौेलत दी, पद्मश्री और अर्जुन अवार्ड से नवाजा, आज वही देश पराया होने जा रहा है। क्या देश प्रेम से बडुी कोई और चीज भी होती है? देश के लिए तो लोग क्या-क्या नहीं करते, पर सानिया ने देश की सीमाओं से दूर अपना घरौंदा बनाने का जो फैसला किया है, उससे लाखों भारतीयों को बुरा लगना स्वाभाविक है।
अब्बास साहब के बयान से विवाद बढ़ता देखकर सानिया के पापा इमरान मिर्जा ने कह दिया है कि सानिया भारत के लिए खेलेगी। यह तो विवाद को शांत करने की एक छोटी सी कोशिश है। शादी के बाद शोएब मलिक यदि सानिया से कहें कि वह पाकिस्तान के लिए खेले, तो क्या सानिया मना करेंगी? पाकिस्तान में तो मानो ईद मनाई जा रही है। उनकी खुशी का पारावार नहीं है। पाकिस्तानियों की यही सोच है कि भारत को इससे अच्छी शिकस्त नहीं दी जा सकती थी। काफी समय से भारत के खिलाफ कुछ कहने का मौका नहीं मिल पा रहा था, सानिया ने वह मौका दे दिया। वहाँ इस पूरे मामले को भारत की हार के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि सानिया ने भी कह दिया है कि वह पाकिस्तान में नहीं रहेंगी, क्योंकि वहाँ की सुरक्षा-व्यवस्था कमजोर है। इसीलिए शादी के बाद उन्होंने दुबई में रहना स्वीकार किया है। दुबई की लोकेशन देखें, तो स्पष्ट होगा कि वह लाहौर और हैदराबाद(भारत) से काफी करीब है। यदि वे दुबई में रहती हैं, तो उनकी संतान पाकिस्तानी ही होंगी। यह तय है।
प्यार के बारे में कहा जाता है कि उसे सीमाओं मे नहीं बाँधा जा सकता। प्यार कहीं भी, किसी से भी और कभी भी हो सकता है। प्यार के फूलों की सुगंध को किसी भी सीमा में कैद नहीं रखा जा सकता। प्यार के लिए तो देश की सीमा बहुत ही छोटी होती है। फिर सानिया ने तो पूरे विश्व का भ्रमण किया है। खेल के दौरान कई लोगो से मिलना हुआ। हजारों प्रशंसकों ने उसे प्रोत्साहन दिया। इसके बाद भी सानिया अपने खेल के प्रति समर्पित रही। न तो उसने कभी मुल्लाओं के फतवे की चिंता की और न ही साथी खिलाडिय़ों से उनके प्रेम प्रसंगों के चर्चे की। उसने अपना लक्ष्य निर्धारित किया और पूरे धैर्य के साथ सफलता की सीढिय़ाँ चढ़ती रहीं।
सानिया की शादी की खबर से केवल भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी मायूसी छाई है। विदेशों में रहने वाले भारतीयों में यही चर्चा है कि अब सानिया को कोई समझा नहीं सकता। वह वही करेगी, जो उसने ठान लिया है। सिडनी (ऑस्टे्रलिया)में रहने वाली सुधा शर्मा और सरोज पाठक अपने भारतीय साथियों को मेल करके अफसोस जाहिर कर रहीं हैं। उनका मानना है कि सानिया का निर्णय गलत है। उसे इस पर एक बार फिर सोचना चाहिए। खैर सानिया के पास अब सोचने का समय नहीं है। क्योंकि उसने अभी जो कुछ सोचा है, उसके दायरे में वह खुद है। उसकी सोच में पहले देश था, अब देश उसकी सोच से अलग हो गया है। अब उसे अपने भावी कैरियर की चिंता है। इस पूरे मामले को यदि इस रूप में देखा जाए, तो बेहतर होगा। क्या शादी के बाद सानिया दो देशों के बीच एम्बेसेडर के रूप में काम कर सकती हैं? अगर ऐसा होता है कि दोनों देशों के संबंध सुधरेंगे और सानिया का नाम एक बार फिर भारत के लिए गौरवशाली नाम होगा।
झूठे हैं शोएब
शोएब लगातार झूठ बोल रहे हैं। पहले उन्होंने कहा कि मैं किसी आयशा को नहीं जानता। फिर कहने लगे कि हाँ उनसे मेरा निकाह हुआ है। पर वह अवैध है। अब कह रहे हें कि आयशा वह दूसरी युवती है, उन्हें तस्वीर किसी की दिखाई और निकाह किसी से करवा दिया। निकाहनामे में शोएब के दस्तखत भी हैं। हैदराबाद में शोएब और आयशा को लोगों से साथ-साथ देखा भी है। ऐसे झूठे इंसान से सानिया शादी करके क्या प्राप्त कर लेंगी। वैसे भी कई भारतीय सेलिब्रिटी ने पाकिस्तानी से शादी की है, जो विफल रही। शादी से पहले ससुराल आकर शोएब फँस गए हैं। अब वे भारत छोड़ सकते हैं, उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई है। अब तो यह भी पता चल गया है कि बयान बदलने के लिए उन्होंने आयशा को बहुत बड़ी राशि देने का वादा किया था।
बहुत पुराना है क्रिकेट से रिश्ता सानिया का
सानिया के पिता इमरान मिर्जा भी मुंबई और हैदराबाद की ओर से क्लब क्रिकेट खेलते थे, लेकिन वह राष्ट्रीय टीम तक नहीं पहुंच पाए। लेकिन उनके परिवार में क्रिकेट का रिश्ता बहुत पुराना रहा है। एशिया में ऐसा पहली बार होगा जब एक पीढ़ी के तीन क्रिकेटर कप्तान रह चुके हों। इमरान मिर्जा की मां की बहन के बेटे और सानिया के अंकल दिवंगत गुलाम अहमद 40 और 50 के दशक में तीन टेस्ट मैचों में भारतीय टीम की अगुवाई कर चुके हैं। उन्होंने बतौर आफ स्पिनर भारतीय टीम की तरफ से 22 टेस्ट मैच खेले हैं।
सानिया के परिवार का ताल्लुक पूर्व पाकिस्तानी कप्तान आसिफ इकबाल से भी है, जो गुलाम अहमद की बहन के बेटे हैं। आसिफ 1961 में हैदराबाद से पाकिस्तान चले गए थे और उन्होंने छह बार टेस्ट क्रिकेट में पाकिस्तान की कप्तानी की जिम्मेदारी संभाली। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने ये सभी मैच भारत के खिलाफ खेले हैं। अब शोएब मलिक से शादी करते ही सानिया की पीढ़ी में एक और कप्तान शामिल हो जाएगा।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

गान से गन का मुकाबला करने वाले भूपेन हजारिका


संगीत उनका प्यार है, संगीत ही उनकी पूजा और संगीत से बंदूक का मुकाबला करना उनका मकसद। यह उस संगीतकार, फिल्मकार, गीतकार, साहित्यकार, पत्रकार और राजनेता का परिचय है, जिसे दुनिया डॉ. भूपेन हजारिका के नाम से जानती है। गायक पाल रॉबसन से गीतों को सफलतापूर्वक सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाने की शिक्षा पाने वाले हजारिका के बारे में पूत के पांव पालने में दिखने की कहावत फिट बैठती है। उन्होंने बालपन से संगीत का जो सुर छेड़ा उसे जीवन में कभी नहीं छोड़ा। दस साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला गीत लिखा और उसे गाया। शुरूआती दिनों में उनका जीविकोपार्जन संगीत से ही होता था। उन पर नौ बच्चों के लालन-पालन और उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी थी। उन्हें महान जन गायकों की अंतिम कड़ी में गिना जाता है। लेकिन वह सिर्फ संगीत से बंधे नहीं रहे बल्कि लेखन, फिल्म निर्माण और निर्देशन, राजनीति, समाज सुधार और साहित्यिक गतिविधियां भी उनके जीवन का हिस्सा हैं।
दिल्ली के गंधर्व महाविद्यालय में शास्त्रीय संगीत का गायन करने वाले ओपी राय ने हजारिका के बारे में कहा कि उन्होंने लोक संगीत को लोकप्रिय बनाया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में प्राध्यापक डॉ. जीसी पांडे ने भूपेन हजारिका की तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने संगीत को नया मुकाम दिया और संगीत की खोती आभा को नवजीवन प्रदान किया है। पांडे ने कहा कि हजारिका का संगीत पूर्वोत्तर में तो लोकप्रिय है ही देश के अन्य हिस्सों में भी उसके कद्रदान हैं। हजारिका ने 1992 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर संगीत की ताकत के बारे में कहा था, जब मैं विधायक था तब मैं अपने गान (गीत) का इस्तेमाल गन (बंदूक) के तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ करता था। उन्होंने यह साक्षात्कार असम: इट्स हेरिटेज एंड कल्चर पुस्तक के लेखक चंद्र भूषण को दिया था जिन्होंने अपनी किताब में इसे प्रकाशित भी किया है।

देश के अग्रणी निर्माता-निर्देशकों में शुमार हजारिका उन चुनिंदा शख्सियतों में हैं जिन्होंने असमी सिनेमा को भारत और विश्व मंच पर स्थापित किया। फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर अपना फिल्मी करियर शुरू करने वाले हजारिका की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह 1967 से 1972 तक निर्दलीय के तौर पर विधानसभा के लिए चुने जाते रहे। पहली बार वह असम में फिल्म स्टूडियो के निर्माण और फिल्मों से एक साल तक मनोरंजन कर हटाने के वादे पर चुनाव में विजयी हुए थे। उन्होंने अपने प्रयास से अपनी तरह का पहला राज्य स्वामित्व वाला स्टूडियो देश में बनवाया। यह गुवाहाटी में स्थापित हुआ। भूपेन दा के नाम से लोकप्रिय हजारिका सत्यजीत रे के फिल्म आंदोलन से भी जुड़े रहे। इसी आंदोलन से जुड़ाव का नतीजा रहा कि वह बड़े-बड़े फिल्मकारों को असम की ओर आकर्षित करने मे कामयाब हुए। लेखक और कवि के तौर पर उन्होंने हजारों गीत लिखे हैं और लघु कथाओं, निबंध, यात्रा वृत्तांत पर उनकी 15 प्रमुख पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पत्रकारिता भी हजारिका से अछूती नहीं रही। वह लोकप्रिय मासिक पत्रिकाओं अमर प्रतिनिधि और प्रतिध्वनि के संपादक भी रहे हैं। 1977 में पद्मश्री से सम्मानित हजारिका की तीन फिल्मों..शकुंतला, प्रतिध्वनि और लोटी गोटी को सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ है। वह कभी ऐतिहासिक फिल्में बनाने के हामी नहीं रहे बल्कि संगीत प्रधान फिल्में उनकी पसंद हैं। असम के सादिया में 1926 में पैदा हुए भूपेन हजारिका ने 1942 में गुवाहाटी से इंटर पास किया और बी.ए की शिक्षा लेने के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चले गए। वहीं उन्होंने राजनीति विज्ञान में एम.ए की उपाधि हासिल की। इसके बाद उन्होंने न्यूयार्क जाकर कोलंबिया विश्वविद्यालय से जनसंचार में पीएचडी की। हिन्दी फिल्म जगत भी हजारिका की प्रतिभा के दर्शन कर चुका है। 1986 में बनी कल्पना लाजमी निर्देशित फिल्म एक पल का निर्माण करने के साथ-साथ उन्होंने इस फिल्म की संगीत रचना भी की। डिम्पल कापडि़या को दक्ष अभिनेत्री के तौर पर स्थापित करने वाली हिन्दी फिल्म रूदाली के वह एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर और संगीत रचनाकार थे। एफ.एफ हुसैन की गजगामिनी के संगीत में भी उनका योगदान रहा।
उन्होंने 2000 में हिन्दी फिल्म दमन के लिए संगीत रचना की। उनकी संगीत रचना वाली एक अन्य फिल्म क्यों 2003 में आई। उनकी चर्चित फिल्मों में एरा बतार सुर (1956), शकुंतला (1961), प्रतिध्वनि (1967), लोटी गोटी (1967), चिक मिक बिजुरी (1969), मन प्रजापति (1978), स्वीकारोक्ति (1986), सिराज (1988), चमेली मेमसाब (1975), एक पल (1986), रूदाली (1983) शामिल हैं।

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