मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

भैंस के आगे बीन



रामकुमार रामरिया

दूधवाला उस दिन भी उसी तरह दूध लेकर आया ,जिस तरह हमेशा लाता है। संक्षिप्त में कहें तो रोज की ही तरह नियमितरूप से दूध लेकर आया। उल्लेखनीय है कि यहां कवि दूध की विशेषता नहीं बता रहा है ,दूधवाले के आने की विशेषता बता रहा है। दूध की विशेषता तो आगे है, जहां कवि कहता है कि दूधवाला उसी तरह का दूध लेकर आया जिस तरह का दूध ,आज के यानी समकालीन दूधवाले लेकर आते हैं , जो उन दूधवालों की साख है ,उनकी पहचान है ,उनका समकालीन सौन्दर्य-बोध है। कह सकते हैं कि बिल्कुल प्रामाणिक, शुद्ध-स्वदेशी दूध.....सौ टके ,चौबीस कैरेटवाला दूध। जिसे देखकर ही दूध का दूध और पानी का पानी मुहावरा फलित हो जाता है।
चूंकि वस्तुविज्ञान के अनुसार यह प्रकरण साहित्य का कम और चूल्हे का ज्यादा था , इसलिए पत्नी ने इसे अपने हाथों में ( दूध को भी और प्रकरण को भी ) लेते हुए दूधवाले को टोका:‘‘ क्यों प्यारे भैया ! जैसे जैसे गर्मी बढ़ रही है , दूध पतला होता जा रहा है।’’
दूधवाले ने अत्यंत अविकारी और अव्ययी भाव से कहा: ‘‘ क्या करें बहिनजी ! हम लोग भी परेशान हैं। भैंस को चरने भेजते हैं तो वो जाकर दिन भर तालाब में घुसी बैठती है। कुछ खाए तो दूध गाढ़ा हो।’’
पत्नी उसकी प्रतिभा से तत्काल प्रभावित हो गई। अंदर आकर उसने टिप्पणी की:‘‘ बहुत बेशर्म भैंसवाला है........’’
यहां संबोधन और सर्वनाम का रूपांतरण देखिए साहब कि दूधवाला तथाकथित प्यारे भैया अब भैंसवाला हो गया। भावना-प्रधान रसोई का यही कमाल है कि वही गेहूं का आटा मस्त फूली हुई रोटी हो जाता है और वही आटा जली भुनी चपाती की तरह तवे पर चिपक जाता है।
मैंने मौके की नज़ाकत को समझा और चालाक बिल्ले की तरह चाय की संभावना को प्रबल करते हुए धर्मपत्नी को सहलाने की कोशिश की:‘‘ तुम भी कहां इन लोगों के मुंह लगती हो ? ये नहीं सुधरेंगे। भैंस को दुहते दुहते एकदम भैंस हो गए हैं ससुरे.....और तुमने सुना ही होगा - भैंस के आगे बीन बजाओ ,भैंस पड़ी पगुराय।’’
पत्नी मेरा लालचीपन भांपकर भुनभुनाई:‘‘ आप भी कम बीनबाज हो ? मौका भर मिले। आपकी बीन भी चाय-चाय बजाने लगती है...’’
मैं हंस पड़ा। जानता हूं कि असली पानीदार धर्मपत्नी है। चिल्लपों भी करेगी और चाय भी पिलाएगी। कहां जाएगी। पत्नी से तो किचन है। आम भारतीय पत्नी अगर कहीं है तो सिर्फ किचन में है। अस्तु ,अंततोगत्वा ( अंत तो गत्वा ) यानी ‘अंत में वो जहां जाती है’ वहां अर्थात किचन में चली गई।
पत्नी के अद्श्य होते ही पढ़ती हुई बेटी का स्वर प्रकट हो गया:‘‘पापा ! भैंस के आगे बीन क्यों बजाते हैं ? भैंस क्या हिमेश रेशमिया है जो बीन को जज करेगी ?’’
मैंने जीवन में इस सवाल की कभी उम्मीद नहीं की थी। सेकड़ों भैंसें देखी। सैकड़ों बार बीन भी बजती देखी। बीन का संबंध जहरीले सांप से है जो मीठी बीन सुनकर डोलता है। जैसे मन डोलता है।
डोलने की समानता के चलते मन भी जहरीला हो सकता है। खैर, यहां तर्कशास्त्र मुद्दा नहीं है।
इस समय मेरे सामने यह सवाल जबड़े चलाते हुए पगुरा रहा था कि ‘भैंस के आगे बीन क्यों बजायी जाती है’। यह सवाल भैंस की तरह ही भारी भरकम था ,जो उठ तो गया था मगर मुझसे बैठाए शायद नहीं बैठनेवाला था। फिर भी मैंने हमेशा की तरह हास्यास्प्रद कोशिश की और निपोरते हुए कहा: ‘‘ बेटा ! भैंस का कोई भरोसा नहीं है। संगीत से उसे लगाव होता भी है या नहीं , यह कोई नहीं जानता। जिस प्रकार प्रसिद्ध है कि ऊंट के मन का कोई नहीं जानता कि किस करबट बैठे, जिस प्रकार प्रसिद्ध है कि स्त्री के मन की ईश्वर जैसे सर्वज्ञ, नारद जैसे ऋषि और दशरथ जैसे राजा तक नहीं जानते कि वह कब क्या करे , माला किसके गले में डालें और कब क्या मांग बैठें। इसी प्रकार भैस का भरोसा नही कि वह कब क्या पसंद करे। इसलिए भैंस के आगे बीन बजाते हैं कि अगर वह बिफर गई तो बीन लेकर भागना आसान होगा। हारमोनियम लेकर भागना उससे मुश्किल है। पियानो बजाने की भूल तो करना ही नहीं चाहिए। बांसुरी अलबत्ता बजाई जा सकती है। मेरा तो मानना है कि जानवर अगर बड़ा है तो चीजें छोटी ही बजाओ। भैंस के आगे बीन बजाओ और हाथी के सामने पक्का राग गाओ। पक्के गाायन हमेशा सुरक्षित होते हैं। विपरीत परिस्थिति उत्पन्न होने पर मुंह लेकर भागना सबसे सरल है। संपेरों का गणित अलग है। वे सांप के आगे बीन बजाते हैं ,सांप मजे से डोलता रहता है। महादेव शंकर नाग को डमरू बजाकर मोहित बल्कि संमोहित कर लेते हैं और मस्त गले में डालकर घूमते रहते है। डमरू से बैल भी मोहित रहते हैं। बैल महादेव के वाहन हैं। जिनके घर बैल हैं ,मैंने देखा है कि वे उनके गले में डमरू का माडीफाइड डिमरा या डफरा लटका देते हैं। वह डमरू से मिलती जुलती आवाज निकालते रहता है और बैल कोल्हू के आसपास घूमता रहता है।’’

बेटी ने प्रश्न किया,‘‘पापा ! भैंस तो यम अंकल का स्कूटर है न ? उन्होंने क्या बजाया होगा?’’
बेटी का जनरल नालेज देखकर मैं दंग रह गया। सचमुच ऊपर मृत्यु-विभाग के एम डी यमराज के पास भैंसों और भैंसाओं की पूरी पल्टन है। फ्रैंकली मुझे इस बारे में कुछ पता नहीं है कि उन्होंने क्या बजाकर इन्हें लुभाया है और अपना क्रेजी बनाया है। मेरे चेहरे में हवाइयां उड़ने लगी। माथे पर पसीना चुहचुहा आया। मगर अचानक देवदूत की तरह मेरी याददास्त ने मेरी रक्षा कर ली।
बचपन में एक फ़िल्म देखी थी ‘संत ज्ञानेश्वर ’। उसमें मैंने देखा था कि एक भैंसा संस्कृत के श्लोक पढ़ता है। जीवन के इस एकमात्र पुण्य ने मेरे चेहरे पर जीवन रेखा बना दी। मैंने कहा,‘‘ बेटे! ऊपर का मामला अलग है। यमराज भैंसों को इंद्र-भवन में बांध आते हैं। वहां वाद्ययंत्र अपने आप बजते हैं। दिखाई भी नहीं देते। केवल अप्सराएं नाचती हुई दिखाई देती हैं। गंदर्भ लोग गाते हैं। भैंस कोरस में शामिल हो जाती होंगी। जब संस्कृत के श्लोक पढ़ सकती है तो गाने तो गा ही सकती हैं। इसलिए बीन या तंबूरे बजाने पर आक्रमण का खतरा वहां नहीं है।’’
पता नहीं बेटी ने क्या सोचा। वह कापी में डूब गई और मैं चाय में। चाय गरम थी। उसकी भाप से मेरे ठण्डे पड़ते चेहरे पर फिर से खून लौट आया। मगर मुंह का जायका खराब हो गया। चाय में जो दूध था उसकी क्वालिटी ने चाय का कैरियर ही खराब कर दिया था। वह अपने स्वादिष्ट उत्तम चरित्र से गिर गई थी। उसके चरित्रहनन में दूधवाले प्यारे भैया का हाथ स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसकी आंख, आत्मा, ईमान और आबरू का पानी टपकटपक कर दूध में मिल गया था। फलतः दूध पानीदार होकर भी चरित्रहीन हो गया था।
अब मैं समझा ,पक्के तौर पर समझा कि ये दूधवाले भैंस के आगे क्यों बीन बजाते रहते हैं। सयाने लोगों की ‘कहबतिया’ है कि ‘भैंस के आगे बीन बजाओ , भैंस पड़ी पगुराए।’ अब तो मेरे कुन्द ज़हन में इंद चमक उठा। इंदु को गांववाले इंद कहते हैं। इंदु यानी चंद्रमा। उसकी रोशनी में मुझे भैंसवालों की टेकनोलोजी समझ में आ गई। सीधा सा ‘टेक्ट’ है कि भैंस को पगुराए रखना है ,तो बीन बजाओ। इधर बीन का बजना चलेगा उधर भैंस का पगुराना चलेगा। पगुराना यानी जुगाली करना। भैंस जिस जाति की है यानी पाश्विक जातियां , सभी ऐसा करती हंै। पहले निगल निगल कर सब खाद्य अखाद्य को अपने पेट में संग्रहित कर लेती हैं। फिर मजे से निकाल निकाल कर बैठे बैठे पगुराती रहती है। मनुष्यों की भी बहुत सी संततियां ऐसा ही करती हैं। ऐन केन प्रकारेण पहले इतना इकट्ठा कर लेती हैं कि उससे उनकी सात पुश्तें बैठे बैठे खाती रहती हैं। यह कला उन्होंने भैंस एवं उनके रिश्तेदारों से सीखी है। कहते हैं मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है। बुद्धिमान प्राणी कहीं से भी सीख ग्रहण कर लेता है। ग्रहण को भी वह सुसंस्कृत होकर संग्रहण कहता है। उसकी बुद्धि कमाल की है। उसने साहित्य की भी रचना की है। साहित्य में भी सर्वोत्तम साहित्य वही है जो जुगाली से ,पगुराने से निकलता है। फ्लाप लेखक नयी नयी पत्रिकाएं निकालते हैं ,समीक्षाएं करते हैं और पुराने से पुराने स्थापित साहित्यकार को संग्रहालय से निकाल कर छापते रहते हैं। जो जितनी बढ़िया जुगाली करता है वह उतना स्थापित होता जाता है। हर स्थापित पत्रिका अपना एक ‘जुगाली संस्करण’ या ‘पगुराना प्रकाशन’ अवश्य निकालती है।
इसी साहित्य से हमारी आधुनिक और समकालीन सभ्यता बनी। हमारी आधुनिक और समकालीन सभ्यता क्या कहती है ? जंक फूड खाओ और तेजी से आगे निकल जाओ। जंक फूड क्या है ? हां ,आप ठीक समझे। संग्रहालय रूपी फ्रीज में पड़ा ठूंस ठूंसकर भरा इंस्टेड फूड। मुंह के चाल-चलन के लिए जंक फूड ‘आधुनिक विज्ञान का वरदान’ है। जंक फूड है तो नये भोजन की तलाश और चिंता खत्म। इसे आप इंस्टेड जुगाली या एब्सट्रेक्ट पगुराना कह सकते हैं।
इसी प्रकार भैंसवाले भी भैंस को निरंतर पगुराए रखने के लिए बीन बजाते हैं। चारा की चिंता एक बीन से खत्म। एक बीन पुश्त दर पुश्त चलती है। जैसे एक ब्याहता पत्नी। ख्याल रहे, मैं यहां पत्नी कह रहा हूं ,धर्मपत्नी नहीं। पत्नी और धर्मपत्नी में उतना ही अंतर है, जितना बीन और दूरबीन में। बीन बजाने से पत्नी तुम्हारे इशारे पर नाचती है। श्रीमती महादेवी वर्मा ने कितने मधुर स्वर में गाया है - ‘‘बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं।’’ इसीप्रकार धर्मपत्नी को दूरबीन से आकाशी-स्वप्न दिखाते रहना बुद्धिमान पति की सफलता है। यही उपयोगितावाद के गूढ़ रहस्य हैं। सबको इसके लाभ मिलें इसी पवित्र भावना से इसकी यहां चर्चा की गई।
होम शांति।

रामकुमार रामरिया

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