बुधवार, 28 जुलाई 2010

एक पत्थर तो तबियत से उछला यारों........



डॉ. महेश परिमल
हमारे आसपास ऐसे बहुत से विधायक मिल जाएँगे, जो कभी साधारण-सी नौकरी करते थे। किंतु विधायक बनने के बाद नौकरी तो दूर उन्होंने कुछ भी करने की नहीं सोची। इसके विपरीत उनके ठाट-बाट देखने लायक हैं। कई विधायक तो बड़ी-बड़ी नौकरियाँ छोड़कर विधायक और सांसद बन गए हैं। अब उन्हें ही नहीं, बल्कि उनके कई पुश्तों को नौकरी की आवश्यकता नहीं है, क्यांेकि वे काफी कुछ बटोर चुके हैं। यह एक चित्र है, लेकिन दूसरा चित्र बड़ा ही विचित्र है। राजस्थान में एक विधायक ने अपनी सीट खाली करने का फैसला किया है। धौलपुर के बसेड़ी के विधायक सुखराम कोली शिक्षक बनकर स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं।
सुखराम कोली के घर के बेडरूम में कूलर नहीं है। मनोरंजन के लिए एक छोटा सा ब्लैक एंड व्हाइट टीवी है। विधायक को आवास के रिनोवेशन के लिए लाखों रुपए मिलते हैं लेकिन सुखराम ने एक पाई भी खर्च नहीं की। 2008 में धौलपुर के बसेड़ी से पहली बार विधायक बने कोली दो साल में ही राजनीति से आजीज आ गए। उन्होंने स्कूल में शिक्षक बनने के लिए इम्तिहान भी दिया है। सुखराम कोली के मुताबिक उन्हें विधायक बनने के बाद समझ में आया कि विधानसभा में जनता की समस्याओं का समाधान नहीं होता, इसलिए उन्हें लगा कि ये पद छोड़ देना चाहिए। वे मानते हैं कि विधानसभा में जनता की समस्याओं पर कोई बात नहीं होती। एक विधायक के नाते यदि वे जनता की समस्याओं पर कुछ कहना चाहते हैं, तो उन्हें बोलने का अवसर ही नहीं दिया जाता। मात्र आधा बीघा जमीन के मालिक सुखराम कोली कहते हैं कि एक शिक्षक बन जाने के बाद यदि मैं 100 लोगों को शिक्षित कर पाऊँ, तो मेरी सबसे बड़ी सफलता होगी। विधायक रहते हुए मैं किसी का भला नहीं कर सकता। यह मेरा विश्वास है।
आज जहाँ विधायक केवल धन बटोरने के लिए ही जाने जाते हों, वहाँ सुखराम कोली एक ऐसी मिसाल के रूप में हमारे सामने आए हैं, जिन्होंने राजनीति का घिनौना चेहरा देख लिया है। सचमुच आज राजनीति का चेहरा दिनों-दिन बदरंग होता जा रहा है। ये एक ऐसी काजल की कोठरी है, जहाँ से कोई बेदाग नहीं निकल सकता। लेकिन सुखराम कोली जैसे मात्र कुछ ही लोग होंगे, जिन्हें राजनीति रास नहीं आई। सुखराम ने तो अपना मत बताकर अपना रास्ता चुन भी लिया। दूसरे रास्ते पर जाने के लिए वे प्रयासरत हैं। दूसरी ओर ऐसे अनेक विधायक इसे अच्छी तरह से समझते हैं, फिर भी इस दलदल से नहीं निकल पा रहे हैं। उन्हें सुविधाएँ रोक रहीं हैं। ऐसी सुविधाएँ भला किस नौकरी में है? कई चाहते तो होंगे, पर निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।
राजनीति का दलदल बहुत ही फिसलनभरा है। यहाँ एक कदम आगे बढ़ने के लिए दो कदम पीछे भी हटना पड़ता है। जिन संकल्पों के साथ इस क्षेत्र में प्रवेश होता है, वे धरे के धरे रह जाते हैं। सारे वादे और आश्वासन बेमानी लगने लगते हैं। विधायक-सांसद होकर जनता से दूर रहना उनकी विवशता हो जाती है। जिन समस्याओं को हल करने का वादा लेकर उन्होंने जनता का विश्वास जीता, वे समस्याएँ उन्हें अपनी समस्याओं से काफी छोटी लगने लगती हैं। बस चुनाव की घोषणा होते ही सब कुछ बदलने लगता है। फिर वही समस्याएँ विकराल रूप धारण कर लेती हैं। इनके निराकरण का संकल्प याद आने लगता है। भूले हुए वादे याद आने लगते हैं। अपने आपको एक आम आदमी माना जाने लगता है। यह अभिनय कुछ समय तक चलता हे। इसमें जिसने अच्छा अभिनय किया, उसे फिर पाँच साल का अभयदान मिल जाता है। यही सिलसिला चलता रहता है। बरसों से चल रहा है। जनता मूर्ख है, यह इसी से सिद्ध होता है। बार-बार छले जाने के बाद भी कोई आखिर कितना बेवकूफ हो सकता है, यह भारत की राजनीति से ही जाना जा सकता है।
राजनीति में कोई किसी का अपना नहीं होता। पर एक बात सच है। जब भी विधायकों-सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ने की बात आती है, सब एक हो जाते हैं। अपना वेतन-भत्ता बढ़ाने का अधिकार इन्हीं के पास है। यही तय करते हैं कि एक कर्मचारी को कितने साल में रिटायर्ड होना चाहिए। भले ही इनकी आयु कितनी भी हो। एक कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु तय करने वाले कभी स्वयं की सेवानिवृत्ति की आयु तय नहीं कर पाते। शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, फिर भी पद से चिपके रहते हैं। हाथ-पाँव काम करना बंद कर देते हैं, फिर भी न तो विधायकी छूटती है, न सांसदी। मरणोपरांत भी सुविधाएँ तो मिलती ही रहती हैं, उन्हें न सही परिवार वालों को ही सही। राजनीति के इस मोहपाश से हर कोई छूट नहीं सकता। बिना किसी जिम्मेदारी के काम के साथ इतनी सारी सुविधाएँ भला किसे रास नहीं आएँगी। प्रत्येक संस्थान में जब कर्मचारियों का वेतन बढ़ता है, तो उनकी जवाबदारी भी बढ़ जाती है। लेकिन यही एक ऐसा पद है, जिसमें जिम्मेदारी तो तय नहीं है, लेकिन वेतन-भत्तों के रूप में मिलने वाली राशि बेशुमार है। सुखराम कोली के साहस को सलाम। ताकि दूसरे भी समझ सकें, आम आदमी का दर्द। जो न समझें, उनकी बला से। रहें सुख-सुविधाओं के बीच। करते रहें देश को बरबाद। क्या फर्क पड़ता है?
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

कंदराओं से निकले नायाब 'हीरे'

निरंतर बंदूकों से बरसती गोलियों और धमाकों के बीच लाशों को अपनी आँखों से देखने वाले इन जंगली "हीरों" ने अपनी मशक्कत के बूते लक्ष्य पाकर एक उत्तम आदर्श स्थापित किया है।

शाश्वत शुक्ला
नक्सली इलाकों में हिंसक माहौल और बारूदी धमाकों के बीच जीवन-मृत्यु के नृशंस खूनी खेलों के साक्ष्य बने इन आदिवासी छात्रों ने दसवीं बोर्ड में ७० से ९५ फीसदी अंक हासिल कर नायाब मिसाल पेश की है। इन होनहार छात्रों ने विपरीत माहौल में अपने जज्बे को कायम रखते हुए, संसाधनहीन शैक्षणिक दायरे में भी अपनी लगन के बूते बुलंदियों के मुकाम पर पहुँचने में कामयाबी पाई है। निरंतर बंदूकों से बरसती गोलियों और धमाकों के बीच लाशों को अपनी आँखों से देखने वाले इन जंगली "हीरों" ने अपनी मशक्कत के बूते लक्ष्य पाकर एक उत्तम आदर्श स्थापित किया है। जंगल के हिंसक वातावरण में भी अपने मंसूबों को पा लेने वाले लगभग सवा तीन सौ बच्चों को आदिम जाति कल्याण विभाग ने एक विशेष अभियान के तहत खोज निकाला है। तत्संबंध में, सबसे अहम बात यह रही है कि इनमें से अधिकांश बच्चों ने ऐसे स्कूलों में शिक्षा हासिल की है, जिनमें विषयों के शिक्षक तक नहीं थे। नक्सली हिंसा में अपने माता-पिता को खोने वाले इन अनाथ बच्चों के साहस की जितनी सराहना की जाए, उतनी कम है। बस्तर के अंदरूनी इलाकों में इस क्षेत्र-विशेष के नक्सलियों ने इन बच्चों के कंधों से बस्ता उतारकर, बंदूकें टाँगना अपना मकसद माना, ऐसी बेजा पहल से भी स्वयं को बचाते हुए, इन होनहार बच्चों ने अपना मुकाम पा ही लिया। जबकि, क्षेत्र-विशेष के नक्सली उन्हें नक्सल-साहित्य का वाचन कराना ही अपना लक्ष्य मानते रहे हैं।
ऐसे हालात में भी छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से मुख्यमंत्री ने "प्रयास" नामक बाल शिक्षा योजना बनाकर जंगल की इन बेमिसाल प्रतिभाओं को राजधानी के एक ऐसे आशियाने के हवाले किया, जहाँ इनके रहने, पढ़ने, खाने एवं चिकित्सा जैसी सुविधाएँ देकर इन्हें तराशने की भरपूर कोशिशों को अंजाम दिया जाएगा। आदिम जाति कल्याण विभाग के सचिव ने इन होनहार "हीरों" के व्यक्तित्व, खेलकूद, मानसिक एवं शारीरिक विकास तथा योग संबंधी शिक्षा के जरिए इन्हें संवारने की पहल का खुलासा किया है। इतना ही नहीं, अपितु इंजीनियरिंग तथा मेडिकल जैसे लक्ष्य से जोड़ने की खातिर कोचिंग क्लासेस की प्रभावी शिक्षा देने का प्रयास भी किया है। राज्य सरकार ने देश की नामी-गिरामी कोचिंग एवं शिक्षण संस्थाओं के महत्व को आँकते हुए पटना की "यूरेका इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस" का चयन किया है, ताकि इन होनहार बच्चों का उम्दा एवं प्रभावशाली विकास किया जा सके । इस बात में कोई आशंका नजर नहीं आती कि बस्तर के नक्सली हिंसा जैसे विपरीत माहौल में, अपना मुकाम तय करने वाले ये बच्चे अपने भविष्य को सुखद बनाने में निश्चित तौर पर कामयाब होंगे। इस बात में भी दो मत नहीं कि आदिवासी क्षेत्र के ये बच्चे दो-तीन सालों के दरम्यान मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं एआईईईई जैसे परीक्षाओं में राष्ट्रीय शिनाख्त हासिल करने में कामयाब हो सकेंगे। जंगल के इन "हीरों" को तराशकर एक राष्ट्रीय पहचान देना राज्य सरकार की एक शालीन योजना है।
इस पर ऐसे बच्चों को बंदूक थमाने वाले नक्सलियों को भी नसीहत लेनी चाहिए। चूँकि, व्यापक परिप्रेक्ष्य को नजरअंदाज कर इन बच्चों को हिंसक और अपराधी बनाना भला कैसे उचित कदम निरूपित किया जा सकता है? इस मुद्दे पर नक्सलियों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए। चूँकि, एक तरफ तो ये लोग आदिवासियों का शोषणरहित विकास चाहते हैं तथा दूसरी तरफ वे उनके ही नौनिहालों को शिक्षा-दीक्षा से महरूम रखते हुए, उनके भविष्य को हिंसा एवं बारूदी धमाकों का कायल बनाना चाहते हैं। इस तरह की दोहरी नीति भला कैसे कामयाब मानी जाएगी?
शाश्वत शुक्ला

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जननी हमें माफ कर देना


मनोज कुमार
भारतीय संस्कृति में स्त्री की तुलना आदिकाल से देवीस्वरूपा के रूप् में की जाती रही है किन्तु सुप्रीमकोर्ट की फटकार के बाद केन्द्र सरकार का एक नया चेहरा सामने आया है जिसमें उनका रवैया स्त्री के प्रति नकरात्मक ही नहीं, अपमानजनक है। यहां मैं उन शब्दों का उपयोग करने से परहेज करता हूं जो श्रेणी स्त्री के लिये केन्द्र सरकार ने तय की है। यह इसलिये नहीं कि
इससे किसी का बचाव होता है बल्कि मैं यह मानकर चलता हूं कि बार बार इन स्तरहीन शब्दों के उपयोग से स्त्री की प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचाने में मैं भी कहीं न कहीं शामिल हो जाऊंगा और मैं इस पाप से स्वयं को मुक्त रखना चाहता हूं। केन्द्र सरकार के इस रवैये से केवल स्त्री जाति की ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय समाज का अपमान हुआ है।
एक स्त्री मां होती है, बहन होती है, भाभी होती है, मांसी होती है और उसके रिश्ते नाना प्रकार के होते हैं जिसमें वह गंुथकर एक परिवार को आकार देती है। स्त्री गृहणी है तो उसका दायित्व और बढ़ जाता है। उसे पूरे परिवार को सम्हाल कर रखने की जवाबदारी होती है। कहना न होगा कि हर स्त्री यह जवाबदारी दबाव में नहीं बल्कि स्वयं के मन से लेती हैं। स्त्री को
परिवार की प्रथम पाठशाला कहा गया है। आप और हम जब कल बच्चे थे तो मां रूपी स्त्री ने हमारे भीतर संस्कार डाले, जीवन का पाठ पढ़ाया, नैतिक और अनैतिक की समझ पैदा की और आज उसी स्त्री को हम ऐसे शब्द दे रहे हैं। मां रूपी इसी स्त्री ने हमें धन कमाने के गुण दिये, साहस दिया और वह समझ जिसमें किसी का नुकसान न हो और वही स्त्री आज हमारे लिये दया की पात्र बन गयी है, यह बात शायद किसी के समझ में न आये।
एक स्त्री जो रिश्ते में हमारी बहन होती है और हम भाई होने के नाते उसकी अस्मत की रक्षा की जवाबदारी लेते हैं। हर रक्षाबंधन पर वह हमारी कलाई पर राखी बांध कर हमारे उत्तरदायित्व का बोध कराती है, आज उसी स्त्री के लिये हमारे मन में यह कलुषित विचार कैसे आ सकते हैं। जिसकी जवाबदारी हमने ले रखी है, उससे हम कैसे फिर सकते हैं। मुझे लगता है िकइस बार रक्षाबंधन में हर बहन की आंखों में सवाल होगा कि क्या अब भी तुम मेरी रक्षा का वचन देते हो? हर भाई कहेगा हां लेकिन उसका मन आत्मग्लानि से भरा होगा। एक स्त्री जिसे हम भाभी का संबोधन देते हैं, मां की अनुपस्थिति में वह मां की भूमिका में रहती है। क्या इन्हें हम ऐसा कुछ कहेंगे जिससे उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचे? क्या उस स्त्री को हम ऐसा कुछ कह पाएंगे जिसे हम मांसी कहते हैं अर्थात मां जैसी को? क्या हम उन सारे रिश्तों को कभी ऐसा कहने की सोच भी सकते हैं जिनके कहने पर हम हमारी नजरों में छोटा हो जाते हैं।
आखिर में। क्या हम उस स्त्री को कुछ ऐसा अप्रतिष्ठाजनक कह पाएंगे जिसे हमारी संस्कृति, हमारे वेद अर्धाग्नि कहते हैं। अर्धाग्नि का अर्थ पुरूष का आधा हिस्सा। सात फेरों में हम समाज के सामने वचन देते हैं कि एक-दूसरे के सुख और दुख में सहभागी होंगे, क्या उन्हें हम ऐसे हिकारत भरे शब्दों से नवाज सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने फटकार लगाकर स्त्री
के आत्मसम्मान और उसकी अस्मिता को सम्मान देते हुए जो भूमिका अदा की है, उससे अदालत के प्रति समाज के मन में सम्मान का भाव बढ़ा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी कोर्ट इसी तरह चिंता कर गलत कामों को निरूत्साहित करता रहेगा। फिलहाल, जो स्थितियां हैं, उसमें मैं और हम जननी से उनकी प्रतिष्ठा पर आयी आंच के लिये माफी मांगते हैं।
मनोज कुमार

बुधवार, 21 जुलाई 2010

क्या खा रहे हैं सब्जी या जहर


नीमा अस्थाना
हाय ये क्या लौकी के रस में जहर? 23 जून 2010 को यह हादसा सुशील सक्सेना 59 वर्ष काऊंसिल फार सांइटिफिक इंडस्ट्रियल रिसर्च के वैज्ञानिक व उपसचिव के साथ हुआ , लौकी का जूस पीने से श्री सक्सेना की मृत्यु हो गई कारण एंडोस्कोपी रिर्पोर्ट से पता चला। किसी डॉक्टर ने सब्जियों का रस सेवन करने की सलाह नही दी थी । टीवी पर प्रसारित बाबा रामदेव के कार्यक्रम से प्रभावित होकर सुशील सक्सेना व उनकी पत्नी नीरज चार साल से लौकी व करेले का जूस रोजाना सूबह पी रहे थे दोनो मधुमेह के मरीज थे। जूस पीने के बाद दोनो को खून की उल्टियां हुई । किसी तरह श्रीमती सक्सेना बच गई क्योंकि उन्होने जूस की केवल 150 मिली ली थी जबकि श्री सुशील सक्सेना जी ने 250 मिली की मात्रा ली थी लौकी खीरा कददु तरबुज जहरीले साबित हो सकते है यदि वे कड़वे लगे । क्योकि इसमे ट्रेटासायक्लिक ट्राइटर पिनाइड क्युकरबिटेशिन यौगिक पाया जाता है। जो सब्जियों मे कड़वाहट के लिए जिम्मेदार है।
लौकी खीरा कददु तरबुज स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। यदि कड़वी हो तो इसका सेवन जानलेवा साबित हो सकता है । वनस्पति शास्त्र में यह कुकुरबिटेसी खानदान में आती है। कुकुरबिटेसी खानदान के फल कांप्लैक्स यौगिक बनाते है। इस घटना से हमें यह समझना चाहिए कुछ भी वनस्पति पेड़ पौधे से जुड़ा हानिकारक नही हो सकता । सबसे ज्यादा कुकरबिटेसी खानदान की सब्जिया फल ज्यादा तापमान कम पानी मिटटी की कम उपजता के कारण अनेक रसायन बनाते है। कड़वे फल खाने से शरीर के सभी अंग काम करना बंद कर देते है गलत तरीके से सब्जियों के रखरखाव से जहरीले रसायन बन जाते है जिससे लीवर में सूजन, पैनक्रियाज, गाल ब्लैडर, किडनी यह रक्त मे घुल जाते है ।
आजकल शहरों में तमाम रसायानें की सहायता से संरक्षित की हुई बेमौसम की जो सब्जियां खाते है वे पथरी ,अलसर डायबिटीज, थॉयीराइड, पाइल्स आदि बीमारियों को जन्म दे सकती है । गोभी गर्मी के मौसम की सब्जी नही है लेकिन हम और आप गर्मी के मौसम में गौभी मटर की सब्जी खाते है तो गैस कब्ज और अन्य बीमारियां तो होगी ही ।
हरियाली और बढे अकार का सच : सब्जियों के खेत की सिचांई प्रदुषित जल से की जाती है जिसमें अनेकों जहरीले पदार्थ पौधौ द्वारा अवशोषित होते है जहरीले रसायनों से भरी है सब्जियां रोजाना हम 0 5 मिलीग्राम जहर ले रहे है । परवल को रंगा जा रहा है। सब्जी के आकार को जल्दी बढ़ा करने के लिए उसमें ऑक्सीटॉक्सिन का इंजेक्शन लगाया जाता है । यह प्रयोग बेल वाली सब्जियों पर सबसे ज्यादा किया जाता है इस से सब्जियों की लंबाई चौड़ाई जल्दी बढ़ जाती है और किसान ज्यादा मुनाफा कमाते है। बासी सब्जियों को मेलाथियान के घोल मे दस मिनट तक डाला जाता है। ताकि सब्जी 24 घंटे तक तक ताजा रहे। इसका प्रयोग भिंडी,गोभी, मिर्च, परवल लौकी परवल पत्ता गोभी पर किया जाता है।
भारतीय मृदाविज्ञान संस्थान नबीबाग भोपाल में वैज्ञानिक डॉ. अजय श्रीवास्तव बाजार की सब्जियां नहीं खाते वे अपने किचन हर्बल गार्डन में उगाई सब्जियां खाते है। उन्हें बाजार की किसी भी सब्जी पर भरोसा नहीं। इनका कहना है खाद्य एवं प्रशासन विभाग को स्वयं मार्केट में जा कर सब्जियों के नमुने लेने चाहिए बाजार मे क्या बिक रहा है । स्वास्थ्य अधिकारियों को भी समय समय पर सब्जियों की जांच करना चाहिए ।

हमें अपनी सुरक्षा स्वयं करनी होगी
1. ऐसी सब्जियां न खाये जिन्हें औद्योगिक या नाले की पानी से सींचा गया हो ।
2. अत्याधिक खादे कीटनाशक रसायनों का प्रयोग सब्जियों को जहरीला बनाता है लोगों को पेट की बीमारियां होती है ।
3. तीसरी दुनिया की यह सबसे बड़ी समस्या है जहरीले फल सब्जियां आम आदमी को बेची जाती है लोग जानते हुए भी इन्हें खरीदते है ।
4. सब्जियां खरीदते समय उनहें सूंघ ले पाऊडर या केमिकल की खूशबू आ रही हो तो सब्जी में रसायन का प्रयोग हुआ है ।
5. हरी सब्जी को हाथ से रगड़ कर देखे अगर रंग छुट रहा है तो समझ ले रंग का प्रयोग हुआ है ।
6. सब्जी पकते समय ज्यादा समय ले तो समझे यह केमिकल के प्रयोग से हो रहा है।
7. सब्जी को अच्छे से धोए काटते समय चख कर देखे कहीं कड़वी तो नही खुले में रखे यदि हल्की काली पड़ जाए तो समझ लीजिए रसायन का प्रयोग हुआ है ।
नीमा अस्थाना

शनिवार, 17 जुलाई 2010

रुपए की ब्रांडिंग की राह तलाशने जुटे ब्रांड एक्सपर्ट


रुपए के नए प्रतीक के आने के साथ ही ब्रांड विशेषज्ञ अब इसे लोकप्रिय बनाने के रास्ते तैयार करने में लग गए हैं। इन विशेषज्ञों का मानना है कि नए प्रतीक को भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए कई स्तर पर प्रचार का सहारा लेना चाहिए। इनमें तस्वीरों और वीडियो के जरिए प्रचार अभियान से लेकर सेलेब्रिटी को जोड़ने के विकल्प शामिल हैं। साथ ही विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि नोटों और सिक्कों में नए प्रतीक का इस्तेमाल कर इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है। कुछ विशेषज्ञों की राय है कि नए प्रतीक का महत्व तभी सामने आएगा जब इसे डॉलर, पौंड और यूरो की तरह कंप्यूटर के की-बोर्ड में जगह मिल जाएगी।
मेडिसन वर्ल्ड के सीएमडी सैम बलसारा का कहना है, 'रुपए के नए प्रतीक को स्थापित करने के लिए सरकार को कुछ कदम उठाने होंगे। अगर यह लोकप्रिय नहीं होगा तो इसकी स्वीकार्यता कम होगी। साथ ही नए प्रतीक को की-बोर्ड में जगह दिलाने के लिए कंप्यूटर और मोबाइल कंपनियों से भी बात करनी चाहिए, इससे नए प्रतीक की ब्रांड वैल्यू बढ़ेगी।'
फ्यूचर ब्रांड्स के सीईओ संतोष देसाई का मानना है कि लोगों को नए प्रतीक का कारण बताना सबसे पहली जरूरत है। वह कहते हैं, 'रुपए को वैश्विक मुद्रा बनाने का मकसद साफ-साफ जाहिर होना चाहिए ताकि लोग इस पर गर्व कर सकें और नए प्रतीक को स्वीकार कर सकें। नोटों और सिक्कों में नए प्रतीक को छापकर सबसे आसानी से लोगों में इसकी पहचान स्थापित की जा सकती है।'
कई विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार ने बिल्कुल सही समय पर नए प्रतीक का फैसला लिया है। मार्केटिंग कंसल्टेंसी कंपनी काउंसलेज इंडिया के मैनेजिंग पार्टनर सुहेल सेठ का कहना है, 'जब किसी चीज की फिर से ब्रांडिंग की जाती है तो आप यह संदेश देते हैं कि आप बढ़कर रहे हैं और आपमें स्थायित्व है और हमने बुरे दिनों को पीछे छोड़ दिया है। अभी तो कई देश ऐसे हैं जो वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहे हैं।' सेठ का कहना है कि नए प्रतीक की अंतरराष्ट्रीय ब्रांडिंग ग्लोबल फाइनेंशियल टर्मिनल में रुपए के प्रतीक को शामिल करा कर किया जा सकता है। वह कहते हैं, 'यूरो को अभी भी प्रमोट किया जा रहा है। हालांकि, चीन की करेंसी कभी-कभी विवाद में फंस जाती है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभी यह लोकप्रिय नहीं है। इस मामले में हम चीन से आगे बढ़ गए हैं।'
आईआईएम बंगलुरु में मार्केटिंग के प्रोफेसर एस रमेश कुमार का मानना है कि सरकार को नए प्रतीक का सांस्कृतिक पहलू तलाश करना चाहिए। वह बताते हैं, 'पनीर हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है लेकिन जब हम इसे गाय के दूध से बना उत्पाद बताते हैं तो इसकी पहचान सामने आती है। ऐसा ही रुपए के साथ किया जाना चाहिए। करेंसी नोट के साथ लोगों के जुड़ाव को ध्यान में रखते हुए ऐसा प्रयास नए प्रतीक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में मदद करेगा।'

कैसे चुने गए यूरो और डॉलर के प्रतीक चिन्ह?

दुनिया की दो सबसे लोकप्रिय करेंसी डॉलर और यूरो के प्रतीकों की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग बातें सामने आती हैं। जहां यूरो के प्रतीक चिन्ह के डिजाइन के बारे में कई तरह की बातें कही जाती हैं, वहीं डॉलर के प्रतीक के बारे में भी कई किस्से सुनने को मिलते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि डॉलर का प्रतीक चिन्ह युनाइटेड स्टेट्स के शुरुआती अंग्रेजी के अक्षरों से लिया गया है। अंग्रेजी के बड़े एस पर यू को रखा गया है और इसके बाद यू के निचले हिस्से को लटका दिया गया है और इन सबके मेलजोल से डॉलर का प्रतीक चिन्ह तैयार किया गया है।
इसके बाद स्पेनिश पेसो से जुड़ा किस्सा है और इसकी भी तीन अलग-अलग कहानियां हैं। पहली कहानी यह है कि पेसो का अंग्रेजी का पहला अक्षर पी है और इस तरह बड़े पी के ऊपर और दाहिनी ओर एस रखा गया। इसे बाद में और सरल कर पी के ऊपर हिस्से को रखा गया और इसके ऊपर एस को डाल दिया गया और इस तरह डॉलर के प्रतीक को आकार मिला।
दूसरी कहानी के मुताबिक, जानेमाने स्पेनिश पेसो सिक्कों के उलटे भाग में दो पिलर थे, जो हरक्यूलस के पिलर के संकेत थे। इसके अलावा, शब्द 'प्लस अल्ट्रा' के जरिए यह संकेत दिया गया था कि हरक्यूलस के पिलर से परे कोई जमीन नहीं है। उत्तरी अमेरिका में ब्रिटिश उपनिवेशों में इस सिक्के को पिलर डॉलर कहा जाता था। हो सकता है कि दोनों पिलर डॉलर के प्रतीक चिन्ह के दो भाग रहे हों। तीसरी कहानी यह है कि पेसो को 8 वास्तविक भागों में बांट दिया गया था।
इसे संकेतक के रूप में क्क8 या /8/ की तरह पेश किया जाता था। आखिरकार 8 पर डंडा लिखे जाने का प्रचलन हो गया। दो डंडों के साथ 8 अंग्रेजी का एस अक्षर बन गया। चूंकि दो डंडों के साथ 8 ऐसे लगता था कि मानो इसे अलग कर दिया गया है, इसलिए आखिरकार एक डंडे को हटा लिया गया। डॉलर के इस प्रतीक को अमेरिकी क्लर्क 1788 से इस्तेमाल कर रहे हैं और इसका वर्तमान प्रतीक चिन्ह प्रचलन में इसके कुछ दिनों बाद आया। हालांकि इस बारे में लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है कि यह ठीक-ठीक कब शुरू हुआ।
बहरहाल, यूरो के प्रतीक चिन्ह के शुरू होने के साल के बारे में कोई विवाद नहीं है। जी हां, यह 1995 में शुरू हुआ था। हालांकि इस बात पर विवाद अवश्य है कि इसके प्रतीक चिन्ह को आकार देने का श्रेय किसको जाता है। यूरोपीय यूनियन की वेबसाइट के मुताबिक, यूरो का प्रतीक चिन्ह ग्रीक अक्षर 'एप्सिलॉन' से प्रेरित होकर बनाया गया है। इस प्रतीक को पेश करते हुए यूरोपीय कमीशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट जैक्स सैंटर ने कहा था, 'यह चिन्ह लैटिन वर्णमाला में यूरोप के पहले अक्षर को भी दिखाता है जबकि प्रतीक के साथ चलने वाली दो समानांतर लाइनें स्थायित्व का संकेतक हैं। यूरो के प्रतीक चिन्ह को चुनने की शुरुआती प्रक्रिया में 30 डिजाइन पर विचार किया गया। इसके बाद इन डिजाइन पर पब्लिक सर्वे के बाद 10 का चुनाव किया गया। फिर इनमें से 2 को चुना गया। इसके बाद सैंटर और यूरो के चयन के लिए जिम्मेदार यूरोपीय कमिश्नर वाई टी जी सिलगाय ने यूरो का प्रतीक चिन्ह का अंतिम चयन किया।

IIT के इंजीनियर ने दी रुपए को नई पहचान

धर्मलिंगम उदय कुमार को गुरुवार की सुबह गुवाहाटी के लिए उड़ान भरनी थी। शुक्रवार से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गुवाहाटी के डिजाइन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर उनकी नई जॉब शुरू हो रही है। पांच साल तक औद्योगिक डिजाइन में देश में पहली पीएचडी करने के बाद आईआईटी मुंबई के कैंपस को वह अलविदा कह रहे थे। उनके फोन पर कॉल्स की बाढ़ सुबह से ही आ चुकी थी। उन्होंने रुपए का जो डिजाइन बनाया था, उसे कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। उनके डिजाइन किए गए सिंबल में देवनागरी और रोमन स्क्रिप्ट दोनों के चिन्हों का इस्तेमाल किया गया है, इससे देश की उभरती हुई अर्थव्यवस्था का पता चलता है।
यह यूनिकोड, कंप्यूटर कीबोर्ड में भी लाया जाएगा। साथ ही, एक अलग कुंजी पर इस सिंबल को जगह दी जाएगी और इसके बाद इसे पूरी दुनिया में पहचाना जाएगा। कोई डिजाइनर किसी राष्ट्र की जिंदगी में केवल एक बार ही करेंसी के प्रतीक को डिजाइन करता है। पूरे दिन उनका फोन बजता रहा। उन्होंने फ्लाइट नहीं पकड़ी। शाम को टेलीविजन स्टूडियो में ले जाने के लिए कारें उनके दरवाजे पर थीं। वह अगले दिन गुवाहाटी जाएंगे। चेन्नई में 10 अक्टूबर 1978 को पैदा हुए कुमार का परिवार तंजावुर के एक कस्बे से आता है। मंदिरों में सदियों पुरानी चित्रकारी और डिजाइनों को देखकर ही शायद उनके मन में पहली बार कला और डिजाइन के लिए विचार पैदा हुए होंगे।
चेन्नई और तंजावुर के अद्भुत मंदिरों से ही उन्हें आर्किटेक्चर पढ़ने की प्रेरणा मिली होगी। उन्होंने आर्किचेक्चर की पढ़ाई अन्ना यूनिवर्सिटी में की। इसके बाद उन्होंने आर्किचेक्चर में मास्टर की डिग्री आईआईटी मुंबई से पूरी की। जब औद्योगिक डिजाइन सेंटर मुंबई के आईआईटी कैंपस में शुरू हुआ तो उन्होंने वहां से पीएचडी शुरू की। उन्होंने तमिल स्क्रिप्ट के प्रादुर्भाव पर अपना काम शुरू किया। कुमार ने ईटी को बताया, 'मैं तमिल टाइपोग्राफी के काम को जारी रखना चाहता हूं। मुझे लगता है कि हमारे प्रतीकों पर पश्चिम का भारी प्रभाव है। मैं भारतीय स्क्रिप्ट पर और काम करना चाहता हूं।'
डिजाइन के लिए उन्होंने कोरियाई वॉन, ब्रिटेन के पौंड स्टर्लिंग, यूरो, लीरा, पेसो और दूसरी करेंसी से प्रेरणा ली। डिजाइन के लिए अवॉर्ड जीतने पर उन्होंने कहा, 'अंतरराष्ट्रीय करेंसी सिंबल की बात करें तो यह उनसे जुड़ता हुआ नजर आता है। साथ ही साथ इसमें भारतीय विशिष्टता भी है।' अंतरराष्ट्रीय करेंसी में उन्हें सबसे ज्यादा येन पसंद है क्योंकि यह देश को सबसे ज्यादा प्रकट करता है। 31 साल के इस अविवाहित ने इंफोमीडिया के साथ दो साल तक सीनियर डिजाइनर के तौर पर काम किया है।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

आखिर क्या है पॉल बाबा का सच?


फीफा वर्ल्ड का सबसे बड़ा हीरो कौन? इस सवाल का जवाब हर किसी की जबान है, जवाब है पॉल बाबा! जी हाँ इसी पॉल बाबा के चर्चे आज पूरी दुनिया में है। मीडिया तो इसका दीवाना हो चुका है। स्पेन इसे 38000 डॉलर(करीब 17 लाख 75 हजार रुपए) में खरीदने को तैयार भी है। भला एक ऑक्टोपस की कीमत इतनी अधिक हो सकती है? लेकिन जो पॉल बाबा ने किया, उसके रहस्य की ओर थोड़ा-सा भी झाँकने की कोशिश करेंगे, तो हम पाएँगे कि यह तो संभावनाओं का सिद्धांत है। नई जानकारी के अनुसार अब पॉल बाबा संन्यास ले रहे हैं। यह तो तय था, अब लोग उससे अधिक अपेक्षा रखेंगे। इस दौरान यदि कहीं कोई चूक हो गई, तो हो गया बेड़ा गर्क। वैसे भी हालेंड और जर्मनी के लोग उसे कच्च चबाने की फिराक में हैं। अब पॉल बाबा पहले की तरह बच्चों को हँसाने का काम करेंगे। देखते हैं वे बच्चों को किस तरह से हँसाते हें। कई देशों के लोगों को रुलाकर अब हँसाने का काम किया जाए, तो यह शोभा नहीं देता।
जर्मनी के एक एक्वेरियम में पल रहे ऑक्टोपस यानी पॉल बाबा की भविष्यवाणी के सामने सिंगापुर का तोता फीका पड़ गया। उसने नीदरलैंड के जीतने की भविष्यवाणी की थी। अभी कुछ दिनों में कई बाबा अवतरित हुए। पर इन सबमें हिट रहे पॉल बाबा। जो अंधविश्वासी नहीं हैं और गणित के जानकार हैं, तो वे इस पॉल बाबा के रहस्य को आसानी से समझ सकते हैं। पॉल बाबा भी वही कर रहे हैं, जो आजकल के ज्योतिषि करते हैं। मान्यतावाद को समझकर चलने वालों के लिए संभावनाओं के इस सिद्धांत को समझना आसान है। आओ एक कोशिश करके देखें और जानें कि आखिर क्या है पॉल बाबा का रहस्य?
इस ऑक्टोपस से जो करवाया जा रहा है, वह नया नहीं है। हमारे समाज में ज्योतिषियों की दुकानें भी ऐसे ही चलती हंै। असल में इसका रहस्य किसी ज्योतिष या पारलौकिक शक्ति में नहीं है, बल्कि ठेठ गणित में छिपा है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए हम पहले ऑक्टोपस द्वारा भविष्यवाणी किए जाने के तरीके का आकलन करते हैं। मैच का नतीजा जानने के लिए ऑक्टोपस के सामने दो डिब्बों में भोजन परोसा जाता है। ये दोनों डिब्बे एक-एक टीम का प्रतिनिधित्व करते हैं और उन पर संबंधित देश का चिह्न् लगा होता है। ऑक्टोपस भोजन ग्रहण करने के लिए जिस डिब्बे को खोलता है, मान लिया जाता है कि उसी की टीम जीतेगी और ज्यादातर मामलों में वही टीम जीती भी है।
इसमें विजेता टीम चुनने के तरीके का चयन ऑक्टोपस ने नहीं मनुष्य ने अपनी सहज बुद्धि से किया है। इसी में इसका राज भी छुपा है। ऑक्टोपस के सामने दो ही डिब्बे रखे जाते हैं, इसलिए जब-जब मैच फँसे, भविष्यवाणी गलत निकली। ऑक्टोपस को रोज की ही तरह ही भोजन ग्रहण करना है, इसलिए उसने हमेशा की तरह ही एक डिब्बा खोला है। उसके लिए यह भविष्यवाणी नहीं उसका रोज का काम है। इस काम में मनुष्य ने जो भविष्यवाणी निकाली है उसका रहस्य प्रायकता यानी प्रोबेबिलटी में छुपा है। जिन्होंने गणित पढ़ा है, उन्हे पियरे सिमन लाप्लास का प्रोबबिलटी का सूत्र भी पता होगा। जितने कम विकल्प होते हैं उनके सच साबित होने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है। जब आपको दो विकल्पों में से एक चुनना होता है, तो उसके सही होने की दर काफी ज्यादा एक बटा दो अर्थात दशमलव पांच है। दूसरी ओर किसी छह फलक वाले लूडो के पांसे में एक निर्धारित अंक आने की संभावना इससे काफी कम दशमलव एकछह (.16) ही रह जाती है।
अब हम देखते हैं कि यदि ऑक्टोपस के सामने तीन डिब्बे रखे जाते तो क्या उसकी वे भविष्यवाणियां भी सही साबित होतीं, जो मैच ड्रा होने या फँसने की वजह से सही नहीं हो पाईं। तीसरा डिब्बा ड्रा की भविष्यवाणी के लिए होता। अगर आप हाँ कहते हैं, तो यह सिर्फ आपकी पूर्व मान्यता है और आपका विश्वास चमत्कार पर जम गया है। लेकिन आप गलत हैं। तब गलती होने की संभावना बढ़ जाती और भविष्यवाणी सच साबित होने की संभावना दशमलव पांच से घटकर दशमलव तीन तीन पर आ जाती।
इसी चतुराई के चलते अधिक डिब्बे ऑक्टोपस के सामने नहीं रखे गए। अब विचार करें कि वल्र्डकप शुरू होने से पहले सभी 32 टीमों के डिब्बे एक साथ पॉल बाबा के आगे रखकर विजेता की भविष्यवाणी कराई जाती तो क्या होता। ऐसा नहीं था कि उस भविष्यवाणी के सच होने की संभावना नहीं थी, मगर यह काफी कम दशमलव शून्य शून्य तीन के करीब होती। पॉल बाबा तो तब भी एक ही डिब्बा खोलते मगर भविष्यवाणी गलत होने का इतना बड़ा जोखिम भला कौन उठाता?
पॉल बाबा के संरक्षकों से ज्यादा हिम्मतवाला तो वो जुआरी होता है जो ताश के 52 पत्तों पर दांव लगाता है। सोचो, उसके लिए कितनी कम संभावना होती है और फिर भी वह दाँव लगाकर जीतता है और कई बार जीतता ही चला जाता है। कभी हारता भी है और हारता ही चला जाता है। इसी तरह पॉल बाबा की भविष्यवाणियां भी कभी सच साबित होती जाएंगी और कभी गलत भी निकलेंगी। लेकिन जब गलत निकलने लगेंगी लोग उसे भूल जाएंगे। अब जब सच हैं, तो सब उसके दीवाने हैं। यही अंधविश्वास है। यही मान्यतावाद है।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

सरकार को शर्म क्यों नहीं आती?


डॉ. महेश परिमल
कितने शर्म की बात है कि जिन जवानों पर हम गर्व करते हैं, जिनके बल पर हम चैन की नींद सोते हैं, उनकी हालत कितनी बुरी है। देश के बाहरी और भीतरी दुश्मनों से लड़ने वाले ये जवान स्वयं कष्ट सहकर हमें निश्ंिचत कर देते हैं। पर ये भी इंसान हैं, इनकी भी भावनाएँ हैं, इन्हें भी पीड़ाओंे के समुंदर से गुजरना पड़ता है। इनका भी परिवार है, जहाँ बूढ़ी माँ, विवश पिता, शादी के लायक बहन और संतान की इच्छा रखने वाली पत्नी होगी। ये सभी सोचते हैं कि जवान जो कुछ भी कर रहे हैं, देश के लिए कर रहे हैं। उधर जवानों की हालत पर कोई आँसू बहाने वाला नहीं है। उनकी तकलीफों को जानने-समझने वाला भी कोई नहीं है। सरकार के पास घड़ियाली आँसू हैं, जिन्हें वह समय-समय पर इस्तेमाल करती है। पुराने हथियारों से हमारे ये जवान आधुनिक शस्त्रों से लैस दुश्मनों से ेलड़ते हैं। इस दौरान वे शहीद भी हो जाएँ, तो उनके शव को सही स्थान पर पहुँचाने की व्यवस्था सरकार के पास नहीं होती। आखिर सरकार कितनी विवश और लाचार क्यों होती हैं? सरकार के पास सहानुभूति जताने के लिए तमाम संसाधन हैं, लेकिन जवानों को किस हालात से गुजरना पड़ रहा है, यह जानने के लिए कोई संसाधन नहीं है। नक्सलियों से लड़ने वाले जवानों को भोजन-पानी के अलावा कई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है, ऐसा जवानों ने नहीं, बल्कि जवानों के एक शीर्षस्थ अधिकारी ने कहा है।
सीआरपीएफ की पत्रिका सीआरपीएफ समाचार में विशेष कार्यबल के महानिरीक्षक आशुतोष शुक्ला ने कहा है कि मैदान पर जवानों को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनमें लंबी दूरी तक पैदल चलना, प्रतिकूल जमीनी हालात, उच्च आर्द्रता, गर्म जलवायु, खाने के आधारभूत सामान की कमी, पानी की कमी, भारी संख्या में मच्छरों की मौजूदगी, घने जंगल और सड़कें न होने के कारण आवागमन में परेशानी मुख्य तौर पर शामिल हैं। श्री शुक्ला ने इसके अलावा जिन चुनौतियों की पहचान की है, उनमें नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले लोग, माओवादियों द्वारा विकासात्मक कार्यों के लिए उपयोग में आने वाले कोष को हथिया लेना और दो प्रदेशों की सीमाओं पर कार्य करने में आने वाली परेशानियाँ शामिल हैं।
कितने शर्म की बात है कि छत्तीसगढ़ सरकार के पास नक्सलियों की गोली के शिकार जवानों के मृत शरीर को सही स्थान पर ले जाने के लिए वाहन नहीं मिले। यही राज्य है, जहाँ ढेर सारी कारों के साथ मुख्यमंत्री का काफिला चलता है। दो-तीन एकड़ की जमीन पर मुख्यमंत्री निवास होता है। 5 एकड़ की जमीन पर राजभवन होता है। दूसरी ओर टेंट में रहकर नक्सलियों का मुकाबला करने वाले जवानों को एक बोतल पानी के लिए 5 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का कुत्ता बीमार पड़ जाता है, तो उसे इलाज के लिए विशेष विमान से जबलपुर ले जाया जा सकता है। एक मंत्री बीमार पड़ जाए, तो तुरंत ही उसके लिए विशेष विमान की व्यवस्था हो जाती है। डॉक्टरों की फौज तैयार हो जाती है। पर नक्सलियों से जूझने के लिए हमारे जवानों को बिना किसी तैयारी के भेज दिया जाता है। जवान नाहक ही मारे जाते हैं। उसके बाद भी उनका सम्मान नहीं हो पाता। परिजन उनके मृत शरीर के अंतिम दर्शन के लिए तरसते रहते हैं और सरकारी लापरवाहियों के चलते मृत शरीर भी समय पर नहीं पहुँच पाते। किस बात पर आखिर हम गर्व करें कि हमारी सरकार संवेदनशील है। विमान से बाढ़ का दृश्य देखने वाले और कारों के काफिले के साथ चलने वाले देश के कथित वीआईपी आज हमारे लिए सबसे बड़े सरदर्द बन गए हैं।
इस देश को जितना अधिक वीआईपी ने नुकसान पहुँचाया है, उतना तो किसी ने नहीं। कितने वीआईपी ऐसे हैं, जिन्होंने बस्तर के जंगलों में जवानों के साथ रात बिताई है? उनकी जीवनचर्या को दिल से महसूस किया है? उनकी पीड़ाओं को समझने की छोटी-सी भी कोशिश की है? उनके साथ भोजन कर उनके सुख-दु:ख में शामिल होने का एक छोटा-सा प्रयास किया है। सरकारी अफसर जाते तो हैं, पर रेस्ट हाउस तक ही सीमित रहते हैं। थोड़ी-सी भी असुविधा उनके लिए बहुत बड़ी पीड़ा बन जाती है। कितने अफसर हैं, जो जमीन से जुड़े हैं, जिन्हें आदिवासियों की तमाम समस्याओं की जानकारी है। उनका निराकरण कैसे किया जाए, इसके लिए उनके पास क्या उत्तम विचार हैं? जवानों को नक्सलियों के सामने भेज देना ठीक वैसा ही है, जैसे शेर के सामने बकरी को भेजना। अत्याधुनिक हथियारों से लैस नक्सलियों के सामने जंग खाई हुई आदिकाल की बंदूकें भला कहाँ तक टिक पाएँगी?
कितना आपत्तिजनक होता है वीआईपी का सफर? जब इनका काफिला चलता है, तो सारे कानून कायदों से ऊपर होकर चलता है। पुलिस के कई जवान इनकी सुरक्षा में होते हैं। इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो, इसलिए पूरे साजो-सामान के साथ इनका काफिला आगे सरकता है। इस दौरान किसी को न तो सुरक्षा जवानों की हालत पर किसी को तरस आता है और न ही उनकी पीड़ाओं पर कोई मरहम लगाता है। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उनका एक दौरा कितने के लिए त्रासदायी होता है, यह अभी तक किसी वीआईपी ने जानने की कोशिश नहीं की। ये वीआईपी शायद नहीं जानते कि समस्याओं को जानने के लिए आम आदमी बनना पड़ता है। आम आदमी बनकर ही अपनों की समस्याओं से वाकिफ हुआ जा सकता है। अपराधी को पकड़ने के लिए चुपचाप जाना पड़ता है, न कि चीखती हुई लालबत्ती गाड़ी में। ऐसे में अपराधी तो क्या उसका सुराग तक नहीं मिलेगा।
देश में जब सुरक्षा बलों की भर्ती होती है, तब उनसे तमाम प्रमाणपत्र माँगे जाते हैं, उनके शरीर का नाप लिया जाता है। उनके परिवार के लोगों की जानकारी ली जाती है। प्रशिक्षण के पहले कई परीक्षाएँ देनी होती हैं। इसके बाद गहन प्रशिक्षण का सिलसिला शुरू होता है। तब कहीं जाकर एक जवान तैयार होता है। लेकिन नक्सली बनने के लिए केवल एक ही योग्यता चाहिए, आपके भीतर पुलिस के खिलाफ कितनी ज्वाला है? इसी ज्वाला को वे लावा बनाते हैं? ताकि वह पुलिस वालों पर जब भी टूटे, लावा बनकर ही टूटे। यदि हमें नक्सलियों के खिलाफ जवान तैयार करने हैं, तो नक्सलियों द्वारा पीड़ित परिवार के सदस्यों को तैयार करना होगा। इनके भीतर की आग को बराबर जलाए रखना होगा, इनकी पूरी देखभाल करनी होगी। इस देखभाल करने में जरा भी चूक हुई कि वह नक्सलियों की शरण में चला जाएगा, फिर वहाँ उसका ऐसा ब्रेनवॉश होगा, जिससे उसे लगेगा कि उनके परिजनों को मारकर नक्सलियों ने ठीक ही किया।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि नक्सलियों के खिलाफ जिन्हें भी खड़ा करना है, पहले उसका विश्वास जीतें, फिर पूरे विश्वास के साथ उसे नक्सलियों के सामने भेजें, जवान को भी विश्वास होगा कि इस दौरान यदि मुझे कुछ हो जाता है, तो मेरे परिवार को समुचित सुविधा सरकार देगी। विश्वास की यह नन्हीं सी लौ जलती रहे, तो इसे विश्वास का सूरज बनते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 7 जुलाई 2010

संवेदना का गिरता ग्राफ


हमारी संवेदना का ग्राफ तेजी से गिरता जा रहा है। महँगाई ने हमारे दिलो दिमाग पर वह असर डाला है, जो संवेदना के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है। घटती संवेदना अत्यंत चिंता का विषय है।
परितोष चक्रवर्ती
डिटर्जेंट पावडर के एक विज्ञापन पर शायद आपका ध्यान न गया हो। विज्ञापन में एक बच्चा शादी वाले घर में हमउम्र बच्चों के साथ दौड़-भाग करता रहता है। इसी बीच वह रंगोली के ऊपर मुँह के बल गिरता है। रोनी सूरत बनाकर अपनी माँ के पास जाकर जब बताता है-"मैं गिर गया।" झट से उसकी माँ कहती है-"कोई बात नहीं पुत्तर, सिर्फ एक्सल का भाव गिर गया है।"

यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि बेटा गिर गया है, उसे कहाँ चोट आई है या नहीं आई है, इस बात का ख्याल उसकी माँ को नहीं रहता, मगर सर्फ एक्सल के भाव गिरने का ख्याल उसे आता है। अर्थात उसके गंदे कपड़ों की सफाई को लेकर मॉं चिंतित है, चोट को लेकर नहीं। यह विज्ञापन जाने-अनजाने दो बातों की ओर इंगित करता है- पहला- हमारी संवेदना का ग्राफ कितनी तेजी से घट रहा है। दूसरा-महँगाई ने हमारे दिलो-दिमाग में वह असर डाला है, जो संवेदना के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है।
घटती संवेदना को लेकर जब हम सवाल उठाते हैं तो इन दिनों नक्सल प्रभावित राज्यों में तथाकथित माओवादी और नक्सलियों द्वारा मारे गए निरीह लोग और सुरक्षाकर्मियों की संख्या पर बात अटक जाती है। मीडिया को यह चिंता ठीक उस पर विज्ञापन की तरह सताती है-कितने मरे...। यानी कि मौत की संख्या से हम ज्यादा प्रभावित हैं, लेकिन एक व्यक्ति की मौत से जुड़ी संवेदना से हमारा नाता टूट जाता है। हर राज्य में विपक्ष समस्या में भागीदार होने की जगह यह कहता फिरता है कि सत्तारूढ़ सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए। ऐसा लगता है, जैसे सत्तारूढ़ सरकार के बाद विपक्ष आते ही इस समस्या का हल चुटकियों में कर देगा।

महँगाई को लेकर आम नागरिकों के लिए राजनीतिक वलय में जो चिंता है, उसका जायजा लिया जाना चाहिए। किसी भी बात के विरोध में राजनैतिक बंद संभवतः अब एक भोथरा हथियार है। गाँधी जी की नाफरमानी वाली बात को बंद का स्वरूप दे देना कितना गलत है, यह उन लोगों से पूछा जाए जो रोज मजूर है। एक दिन का बंद उनके पेट में एक अर्द्घचन्द्राकार खाली वृत्त बनाता है, जिसे भरने की चिंता कौन करेगा? अब आंदोलनों का स्वरूप बदलना चाहिए। जिस देश में अर्थनीति पूरे जीवन को ढाँपे हुए है, वहाँ रोज की रोजी-रोटी की कीमत पर कोई आंदोलन कहाँ तक उचित है? आंदोलन के स्वरूप को बदलते हुए अब जनचेतना के लिए महिलाएँ और पुरुष समान रूप से सड़कों पर उतरें, संयमित जुलूस निकालें, पूरे देश में ऐसे ही नाराजगी को लेकर एक पखवाड़ा चुना जाए। हमारी बात लगातार केंद्र सरकार के कानों में गूँजती रहे, ऐसा कोई तरीका ढूँढ़ लेना चाहिए। पोस्टकार्ड युद्घ शुरू करना चाहिए। यह सबसे सस्ता विरोध का उपाय है।
इसी बीच जाति के आधार पर जनगणना का मुद्दा बस्तर के हिमायतियों के जबड़ों में सुपारी की तरह फँसे हुए हैं। वे चबा रहे हैं और रस ले रहे हैं। जिस बात को लेकर साधारण जनता का मत लेना चाहिए, उस बात पर ये नेता अपने-अपने खेमे में पिंग-पांग खेल रहे हैं। बंद करो यह खेल और सार्थकता की ओर मुड़ो, अन्यथा जब जनता जागती है तो रोके नहीं सकती।
परितोष चक्रवर्ती

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

साइनालिखेगी राष्ट्रीय गौरव की नई इबारत


डॉ. महेश परिमल
एक आलसी और खूब सोने वाली लड़की से भला क्या अपेक्षा की जा सकती है? क्या उसके माता-पिता यह सोच सकते हैं कि एक न एक दिन वह हमारा ही नहीं, बल्कि देश का नाम ऊँचा करेगी। लड़की के आलसपन को देखते हुए ऐसा सोचना बहुत ही मुश्किल है। पर जब लड़की को यह महसूस हो कि सोने से वह काफी कुछ गवाँ देगी, तो उसका जागना स्वाभाविक ही था। उसे जगाया माता-पिता के सपनों ने, इस सपने को उन्होंने बेटी पर लादा नहीं, बल्कि उस सपने को पूरा करने की हिम्मत दी। उसे तकलीफ न हो, इसलिए अपना घर स्टेडियम के पास ले लिया, ताकि बेटी को आने-जाने में परेशानी न हो। लंबी यात्राओं में वह सो जाया करती थी, पर माँ जागती रहती थी। माँ ने उसे जगाती। आज वह लड़की इतनी जाग गई है कि अपने जैसी साथियों के लिए प्रेरणा बन गई है। हम सब उसे साइना नेहवाल के नाम से जानते हैं।
साइना उस राज्य से है, जहाँ भ्रूण हत्याएँ सबसे अधिक होती हैं। इसी राज्य से कल्पना चावला भी थीं। साइना आज भले ही जाना-पहचाना नाम बन गया हो, पर सच तो यह है कि इस शटल गर्ल में सनसनी नहीं है। यह आज जिस मुकाम पर है, उसके पीछे उसका अदम्य साहस और धर्य है। इसने मीडिया के पीछे भागने की अपेक्षा अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार किया। यह अच्छी तरह से जानती हैं कि यही मीडिया आज उसे सर आँखों पर ले रहा है, तो कल उसे जमीन पर गिराने में भी देर नहीं करेगा। बैडमिंटन का वह खेल जिस पर किसी कैमरे की निगाह मुश्किल से जाती है, इस गुणा-भाग से बाहर है. ग्लैमर के बाजार से जुड़ा वह मायाजाल, जो टेनिस की सानिया मिर्जा को तो गढ़ता है, लेकिन बैडमिंटन को अपनी जिंदगी बनानेवाली इस लड़की से आंखें चुराता है. ये साइना नेहवाल हैं. 21 दिन में तीन खिताब जीतनेवाली साइना नेहवाल. बैडमिंटन के कोर्ट पर साइना की यह कामयाबी सीधे-सीधे तीन दशक पहले प्रकाश पादुकोण के लिजेंसी (मिथ) की याद दिलाती है. प्रकाश ने 25 दिन के दौरान फ्रेंच ओपन, डेनमार्क ओपन और उसके बाद आएल इंग्लैंड को फतह किया था. यही साइना नेहवाल अपने माता-पिता के ख्वाबों को हकीकत में तब्दील करने में जुटी है. यह हमें भारतीय आधुनिकता की पहचान के करीब ले जाती है, जहाँ हम अपनी विरासत से अलग नहीं होते, उसे लगातार आगे बढाते हैं. फिर साइना का यह ग्लैमरहीन बैडमिंटन है, जो अभी तक टेनिस की तरह अमेरिकी खेल नहीं बन पाया है. टेनिस में कोई जीतता है, तो अमेरिकी गर्व का बोध उसके साथ जुड़ जाता है. सानिया मिर्जा को मिलनेवाली कामयाबी में इसी बोध के अहसास से हम भर जाते हैं. कुछ ऐसे अहसास से कि हम ताकतवर मुल्कों के बराबर खड़े हैं. सच पूछें तो संबंधों को बनाने-सँवारने के साथ खेलों की यह भी एक बड़ी भूमिका है. यह सब कुछ इसी तरह है, जैसे राजनीति से लेकर आर्थिक मोर्चे पर हम अमेरिका और यूरोप की ओर देखते हैं. उसके बराबर खड़ा होने के ख्वाब संजोते हैं. लेकिन इसी टेनिस की तुलना में बैडमिंटन पूरी तरह से एशियाई खेल है. अगर टेनिस में अमेरिका और यूरोप का दबदबा है, तो बैडमिंटन में एशिया का. साइना की यह जीत जाहिर करती है कि इस मोर्चे पर भारत एशिया में एक बड़ी ताकत है. फिर यही साइना नेहवाल देश में गढे-गढाए एक सिस्टम से हटकर खुद अपना सिस्टम गढ रही है. वह स्कूली शिक्षा से लेकर मैनेजमेंट के क्षेत्र तक में कामयाबी हासिल कर रही लड़कियों से बेहद अलग है. उन लड़कियों को मालूम है कि अगर एक खास सिस्टम के बीच वो पूरी शिद्दत से जुटी रहें, तो अपनी मंजिल तक पहुंच जाएँगी. उन्हें बस इस सिस्टम के बने बनाए मानकों पर चलते हुए यह मंजिल हासिल हो जाएगी. लेकिन साइना ने जिंदगी के मानक खुद तय किए हैं. वह अपना रास्ता खुद गढ रही हैं. जिंदगी उनकी नियति को तय नहीं कर रही. बल्कि वो अपनी नियति को खुद तय कर रही हैं.

लोगों के मनोमस्तिष्क में साइना अधिक करीब है। सानिया को लोगों ने सर आँखों पर उठाया, पर उसने जिस तरह से अपनी शादी रचाई, जो काफी विवादास्पद भी हुई। उससे लोगों को लगा कि हमने गलत किया। कहीं न कहीं उसके प्रशंसकों को ठेस पहुँची, इसलिए लोगों ंने देर से ही सही, पर सधे कदमों से साइना को सर-आँखों बिठाया। साइना में लोग अपनापन देखते हैं। उसकी मुस्कराहट, उसकी बोलती आँखें सब-कुछ अपना-सा लगता है। अभी तक साइना को ऐसा कोई बयान भी सामने नहीं आया, जिसमें गर्वोक्ति झलकती हो। उसने जो कुछ भी कहा और किया उसमें देश शामिल था। उसकी सोच देश को लेकर है। उसकी सोच में वह भारतीय लड़कियाँ हैं, जिनमें प्रतिभा है, जिनमें हौसला है, फिर भी वे समाज के दायरे से बाहर नहीं आ पातीं। वह ऐसे लोगों के लिए ही काम करना चाहती हैं, ताकि वे भी देश का नाम रौशन कर सकें। साइना की सहजता, सरलता, बिंदासपन में भारतीयता झलकती है। विश्वास है वह अपने खेल को और अधिक सँवारेगी और भारतीयों के दिलों में राज करेगी। हर भारतीय की दुआएँ उसके साथ हैं।
अभी उन्हें नंबर एक की वर्ल्ड रैंकिंग के साथ विश्व चैंपियनशिप, कॉमनवेल्थ और ओलिंपिक जैसे टूर्नामेंट जीतने हैं। जैसी तन्मयता और एकाग्रता से वह खेल रही हैं, कामना करनी चाहिए कि वे सारे शीर्ष खिताब देर-सबेर अपनी झोली में डाल सकेंगी। तभी उनसे प्रेरणा लेकर देश की कई बेटियां अपनी-अपनी जकड़बंदियों से निकलकर राष्ट्रीय गौरव की नई कथाएं लिखने निकल पड़ेंगी।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 5 जुलाई 2010

जॉनी, हम राजकुमार थे और राजकुमार रहेंगे


हिन्दी सिनेमा जगत में यूं तो अपने दमदार अभिनय से कई सितारो ने दर्शकों के दिलो पर राज किया लेकिन एक ऐसा भी सितारा हुआ, जिसने न सिर्फ दर्शकों के दिल पर राज किया बल्कि फिल्म इंडस्ट्री ने भी उन्हें राजकुमार माना. वह थे संवाद अदायगी के बेताज बादशाह कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार . राजकुमार का जन्म पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में ८ अक्टूबर १९२६ को एक मध्यमवर्गीय कश्मीरी ब्राrाण परिवार मे हुआ. स्नातक की पढाई पूरी करने के बाद वह मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब इंस्पेक्टर के रूप में काम करने लगे. एक दिन रात्नि गश्त के दौरान एक सिपाही ने राजकुमार से कहा हजूर आप रंग. ढंग और कद काठी में किसी हीरो से कम नहीं है. फिल्मों में यदि आप हीरो बन जाएँ तो लाखों दिलो में राज कर सकते हैं राजकुमार को सिपाही की यह बात जँच गई. राजकुमार मुंबई के जिस थाने मंे कार्यरत थे. वहां अक्सर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था. एक बार पुलिस स्टेशन में फिल्म निर्माता बलदेव दुबे कुछ जरूरी काम के लिए आए हुए थे. वह राजकुमार के बातचीत करने के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने राजकुमार से अपनी फिल्म शाही बाजार में अभिनेता के रूप में काम करने की पेशकश की. राजकुमार सिपाही की बात सुनकर पहले ही अभिनेता बनने का मन बना चुके थे. इसलिए उन्होंने तुरंत ही अपनी सब इंस्पेक्टर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और निर्माता की पेशकश स्वीकार कर ली.
शाही बाजार को बनने में काफी समय लग गया और राजकुमार को अपना जीवन यापन करना भी मुश्किल हो गया. इसलिए उन्होंने वर्ष १९५२ मे प्रदíशत फिल्म रंगीली में एक छोटी सी भूमिका स्वीकार कर ली. यह फिल्म में कब लगी और कब चली गई. यह पता ही नहीं चला. इस बीच उनकी फिल्म शाही बाजार भी प्रदíशत हुई. जो बाक्स आफिस पर औंधे मुंह गिरी. शाही बाजार की असफलता के बाद राजकुमार के तमाम रिश्तेदार यह कहने लगे कि तुम्हारा चेहरा फिल्म के लिए उपयुक्त नहीं है. वहीं कुछ लोग कहने लगे कि तुम खलनायक बन सकते हो. वर्ष १९५२ से १९५७ तक राजकुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे. रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली. वह उसे स्वीकार करते चले गए. इस बीच उन्होंने अनमोल सहारा, अवसर, घमंड , नीलमणि और कृष्ण सुदामा जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बाक्स आफिस पर सफल नहीं हुई. महबूब खान की वर्ष १९५७ मे प्रदíशत फिल्म मदर इंडिया में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए. हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्नी नíगस पर केन्द्रित थी. फिर भी वह अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे. इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फिल्म की सफलता के बाद वह अभिनेता के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए.
वर्ष १९५९ मे प्रदíशत फिल्म पैगाम में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे, लेकिन राज कुमार ने यहां भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिए दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे. इसके बाद दिल अपना और प्रीत पराई, नजराना, गोदान, दिल एक मंदिर और दूज का चांद जैसी फिल्मों मे मिली कामयाबी के जरिए वह दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गए जहां वह अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे.

वर्ष १९६५ में प्रदíशत फिल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राजकुमार ने अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली. बी.आर .चोपड़ा की १९६५ में प्रदíशत फिल्म वक्त. में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से दर्शक का ध्यान अपनी ओर आकíषत करने में सफल रहे. फिल्म में राजकुमार का बोला गया एक संवाद चिनाय सेठ. जिनके घर शीशे के बने होते हंै वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते, या चिनाय सेठ. ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं. हाथ कट जाए तो खून निकल आता है दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए. वक्त की कामयाबी से राजकुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे. इसके बाद उन्होंने हमराज, नीलकमल, मेरे हुजूर, हीर रांझा और पाकीजा. में रूमानी भूमिकाए भी स्वीकार कीं. जो उनके फिल्मी चरित्न से मेल नहीं खाती थीं. इसके बावजूद राजकुमार दर्शकों का दिल जीतने मे सफल रहे. कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकीजा’ पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फिल्म थी. इसके बावजूद राजकुमार अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे. पाकीजा में उनका बोला गया एक संवाद आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं ् इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएँगे इस कदर लोकप्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनकी आवाज की नकल करने लगे. वर्ष १९७८ में प्रदíशत फिल्म कर्मयोगी में राज कुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले. इस फिल्म मे उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं मंे अपने अभिनय की छाप छोड़ी. अभिनय में एकरपता से बचने और स्वयं को चरित्न अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए उन्होंने स्वयं को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया. इस क्रम में १९९८ में प्रदíशत फिल्म बुलंदी में वह चरित्न भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके. इस फिल्म में भी उन्होंने दर्शकों का मन मोहे रखा.
वर्ष १९९९ में प्रदíशत फिल्म सौदागर में राजकुमार के अभिनय के नए आयाम देखने को मिले . सुभाष घई की निíमत इस फिल्म में राज कुमार वर्ष १९५९ मे प्रदíशत फिल्म पैगाम के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के सामने थे और अभिनय की दुनिया के इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक था. सौदागर मे राजकुमार का बोला एक संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर ¨सह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते है मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते हैं, आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग मे गूँजता है. नब्बे के दशक मंे राजकुमार ने फिल्मों मे काम करना काफी कम कर दिया. इस दौरान उनकी तिरंगा १९९२ पुलिस और मुजरिम. इंसानियत के देवता १९९३ बेताज बादशाह १९९४ जवाब १९९५ गाड और गन जैसी फिल्में प्रदíशत हुईं. नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफी करीब है. इसीलिए अपने पुत्न पुरू राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुला लिया और कहा देखो मौत और ¨जदगी इंसान का निजी मामला होता है. मेरी मौत के बारे में मेरे मित्न चेतन आनंद के अलावा और किसी को नही बताना. मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फिल्म उद्योग को सूचित करना. अपने संजीदा अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों के दिल पर राज करने वाले महान अभिनेता राजकुमार ३ जुलाई १९९६ को इस दुनिया को अलविदा कह गए.
प्रेम कुमार

शनिवार, 3 जुलाई 2010

जुलाई, पढ़ाई, महँगाई और रुलाई

<strong>विनोदशंकर शुक्ल
इस समय तो मुझे पढ़ाई की महँगाई पर रुलाई आ रही है। एडमिशन, डोनेशन,यूनीफार्म, बेल्ट, टाई,बिल्ला, कापी, किताब, वाहन वगैरह की इतनी लम्बी फेहरिस्त है कि सुनकर चक्कर आ रहा है। अब यह सोचकर सिर पीट रहा हूँ कि मैंने औलाद पैदा करने की नादानी क्यों की?
कल एक मित्र मिल गए। इतनी जल्दी में थे, जैसे पाँच बजते ही देश का बाबूवर्ग दफ्तर छोड़ने की जल्दी में होता है। मैंने पूछा-क्या बात है धीरज भाई, बीस साल में पहली बार तुम्हें अधीर देख रहा हूँ? तुम तो ऐसे भागे जा रहे हो, जैसे बच्चे कटी पतंग के पीछे भागते हैं। धीरज भाई ने स्कूटर बंद नहीं किया, बोले-अब अपनी फजीहत कैसे बताऊँ, यार। इस समय मेरी हालत उस अंडे जैसी है, जिसे गर्म तवे पर चढ़ाकर आमलेट की शक्ल दी जा रही है। मैंने चाबी निकालकर स्कूटर बंद किया और कहा-प्यारे भाई, पेट्रोल को तो फिजूल मत जलाओ।

जानते नहीं, इसके दाम ने इस बार कितनी ऊँची छलाँग लगाई है। धीरज भाई स्कूटर से उतरते हुए बोले-जानता हूँ, भाया। मुसीबतें एक के बाद एक मुझ पर ऐसी मेहरबान हो रही हैं, जैसे आजकल किसानों पर पहले कर्ज की मजबूरी मेहरबान होती है। फिर चुका न पाने पर आत्महत्या की मजबूरी मेहरबान हो जाती है। मैंने खीजकर कहा-यार, अब मुसीबतों का खुलासा भी करोगे या उनके छाती ठोकते रहोगे? धीरज भाई बोले-जून-जुलाई का महीना बहुत भारी पड़ रहा है, दोस्त । स्कूलों का नया सेशन क्या शुरू हुआ है, अपन-जैसे मध्यवर्गीयों की जीते जी अर्थी निकल रही है। दस दिन से पब्लिक स्कूलों की खाक छान रहा हूँ। हर जगह भारी फीस और हाहाकारी डोनेशन का सामना करना पड़ रहा है। पेट्रोल के दाम बढ़ने से तो दिमाग के सारे पुर्जे ही हिल गए हैं। मैंने कहा-तुम्हारे पुर्जे ही हिले हैं, मेरे तो दिल का सारा खून सूख गया है। पेट्रोल- डीजल के भाव बढ़ने से महँगाई और बेतहाशा बढ़ेगी। आम आदमी के बजट पर तो सरकार ने जैसे एटम बम ही गिरा दिया है। धीरज भाई बोले- इस समय तो मुझे पढ़ाई की महँगाई पर रुलाई आ रही है। एडमिशन, डोनेशन,यूनीफार्म, बेल्ट, टाई,बिल्ला, कापी, किताब, वाहन वगैरह की इतनी लम्बी फेहरिस्त है कि सुनकर चक्कर आ रहा है। अब यह सोचकर सिर पीट रहा हूँ कि मैंने औलाद पैदा करने की नादानी क्यों की?

मुझे धीरज भाई से सहानुभूति हुई। मैंने कहा-भइए, पब्लिक स्कूल तो इस समय मुनाफे के भारी उद्योग हैं। उनमें और पेप्सी-कोला उद्योग में कोई फर्क नहीं है। ऊपरी चमक-दमक ज्यादा है और पढ़ाई-लिखाई माशाअल्लाह। बड़ों घरों के बिगड़े लड़कों के क्रीड़ा-स्थल हैं वे। फर्राटे से स्कूटर दौड़ाना, महँगे मोबाइल से चटर-पटर करना उनके खास शौक हैं। स्कूल के अलावा अलग से ट्यूशन के भी वे रोगी होते हैं। अपने जैसे मध्यवर्गीय के सारी कमाई तो इन पब्लिक स्कूलों के पेट में ही समा जाएगी। फिर अपना खाएँगे और पहनेंगे क्या? धीरज भाई ने सहमति में सिर हिलाए और बोले- बात तो बिलकुल सच है, पर मजबूरी है। बेटे के भविष्य का सवाल है। कर्ज लेना पड़े, पेट काटना पड़े, पर पढ़ाना तो पब्लिक स्कूल में ही पड़ेगा। वह भी अंग्रेजी माध्यम के । मेरे पड़ोसी की तनख्वाह मुझसे भी कम है पर वे बच्चे को एक बड़े कान्वेंट में पढ़ा रहे हैं। मोहल्ले में नाक का भी तो सवाल है। मैंने कहा-बिरादर, पब्लिक स्कूल क्या अनारकली हैं, जो तुम सलीम की तरह इतनी दीवानगी दिखा रहे हो? खोजने पर दो-चार अच्छे और सस्ते सरकारी स्कूल भी मिल सकते हैं।

सरकारी स्कूल का नाम सुनते ही धीरज जी ऐसे फट पड़े, जैसे रिश्वत का हिस्सा न मिलने पर थानेदार, हवलदार पर फट पड़ता है। बौखलाकर बोले-सरकारी स्कूल का तो तुम नाम ही मत लो। सरकारी और निगम के स्कूलों की शक्ल भी देखी है कुछ तुमने? उनकी पुरानी और वयोवृद्घ इमारतों की बात तो छोड़ो, नए भवनों की नींव भी इतनी कच्ची होती है कि हल्की सी आँधी से मुँह के बल गिर पड़े।

लैब ऐसे मुफलिस की खाली जेब, लायब्रेरी इतनी निकृष्ट, जैसे पी के फेंकी गई सिगरेट, मतगणना, पशुगणना, चुनाव, पोलियो जैसे गैर शिक्षकीय कामों में जुते हुए, शाम को स्कूल मवेशियों के पनाहगाह, रात शराबियों के ऐशगाह, बंधु, तुम्हें ऐसे सरकारी स्कूल भी मिल जाएँगे, जहाँ चपरासी ही शिक्षक भी है, बाबू भी और हेडमास्टर भी और सरकारी शालाओं का दोपहर का भोजन? भगवान उससे चौपायों को भी बचाए! उसमें मरे हुए मेंढक, साँप, छिपकली, चूहे ऐसे परोसे जाते हैं, जैसे भोजन के साथ चटनी, अचार, दही, पापड़ वगैरह! सरकारी स्कूल में पढ़ाने से तो अच्छा है, बच्चे को अनपढ़ ही रखकर देश सेवा यानी नेतागिरी के धंधे में डाल दिया जाए।

धीरज भाई एक साँस में इतना सब कह गए। उनके मुँह से सरकारी स्कूलों का इतना भयानक चरित्र-चित्रण सुनकर मुझसे कुछ कहते नहीं बना। उन्होंने स्कूटर स्टार्ट की और बोले-आज ठानकर निकला हूँ कि किसी न किसी पब्लिक स्कूल में बच्चे को दाखिल करा कर ही घर लाटूँगा। भले ही मकान बनाने के लिए निकाले गए प्रॉविडेंट फण्ड की आहुति चढ़ानी पड़े।

विनोदशंकर शुक्ल(लेखक व्यंग्यकार हैं।)

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

पोस्टकार्ड का जन्मदिन और गुम होते संपादक के नाम पत्र


मनोज कुमार
आज महज संयोग है कि जब मैं संपादक के नाम पत्र और पोस्टकार्ड की महत्ता पर लेख लिखने बैठा तभी पता चला कि आज एक जुलाई को पोस्टकार्ड का न केवल जन्म हुआ था बल्कि उसने अपने जन्म के सौ साल पूरे कर लिये हैं। पोस्टकार्ड हर आदमी के जीवन में बहुत मायने रखता है उसी तरह जिस तरह आज हर जेब के लिये मोबाइल फोन जरूरी हो गया है। इंटरनेट के बिना हमारा काम ही नहीं चलता है और टेलीविजन तो जैसे सांस लेने के लिये जरूरी है। इन आधुनिक तकनीकों के बावजूद पोस्टकार्ड की जरूरत कभी खत्म ही नहीं हुई। इस छोटे से कार्ड को खरीदने के लिये इस महंगाई के दौर में भी मात्र पचास पैसे खर्च करने होते हैं और इस पर कोई बिजली का खर्च नहीं होता है और न ही इसके लिये कोई कम्प्यूटर जैसी चीज की जरूरत होती है। मुझे लगता है कि पत्रकारिता में पोस्टकार्ड एक प्राथमिक कक्षा की तरह ही है जहां भावी पत्रकार अपना पहला सबक सीखते हैं। आइए इस पर थोड़ा विस्तार से बात करें। अजय शर्मा मेरे दोस्त हैं । इन दिनों एनडीटीवी में समाचार संपादक के पद पर तैनात हैं। अपने आरंभिक दिनों में हम दोनों देशबन्धु के लिये लिखते थे। वे ग्वालियर से खबरें भेजा करते थे और मैं पहले रायपुर और बाद में भोपाल में देशबन्धु मंे बतौर उपसंपादक उन्हें एडिट किया करता था। मैं दैनिक देशबन्धु से भोपाल से निकल रहे साप्ताहिक देशबन्धु में आया था। यहीं हम दोनों की मित्रता हुई। लगभग पन्द्रह बरस से ज्यादा हो गये हमारी पहचान और दोस्ती को। एक दिन मैंने उनसे आग्रह किया कि समागम के लियेे अपनी लिखी पहली खबर की यादों को तफसील से लिखें। उन्होंने मेरे आग्रह को तो माना ही बल्कि जो लिखा, उसने मुझे एकबारगी पत्रकारिता के बरक्स कुछ और
सोचने का विषय दे दिया। उन्होंने अपनी यादों में लिखा कि उनके द्वारा लिखा गया संपादक के नाम पत्र कैसे नईदुनिया में प्रकाशित हुआ और उस पत्र के कारण वे अपने शहर में अलग से पहचाने गये। यही नहीं, पत्र में लिखी गयी समस्या का भी तत्काल निदान हो गया। मैंने भी अपने आरंभिक दिनों में संपादक के नाम पत्र लिखा करता था। कभी एक कॉलम में तो कभी दो कॉलम में और कभी बहुत ही संपादित कर प्रकाशित हुआ करता था। इन प्रकाशित पत्रों को सम्हाल कर ऐसे रखते थे मानो किसी बैंक की पासबुक हो। संपादक के नाम पत्र लिखने की आदत बाद के सालों में भी बनी रही और कुछ पत्रिकाआंेे के
लेख/रिपोर्ताज पर अपनी प्रतिक्रिया छपने के लिये भेजता रहा। मजा तो यह था कि पत्रकारिता के कई साल गुजर जाने के बाद भी संपादक के नाम पत्र में अपना छपा नाम देखकर वही आनंद मिलता था, जो पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में मिलता था।
खैर, मुद्दे की बात पर आता हूं। अजय ने जब संपादक के नाम पत्र का उल्लेख किया तो मैं अखबारांे और पत्रिकाओं में तलाश करता रहा लेकिन काफी अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अब संपादक के नाम पत्र भेजने में किसी की दिलचस्पी नहीं रही। पाठक अखबारों से लगातार दूर होेते गये और उनकी प्रतिक्रिया के अभाव में पाठक और अखबार के बीच दूरी बनती जा रही है। किसी भी प्रकार का कार्य किया जाए उस पर प्रतिक्रिया आना जरूरी होता है और यही प्रतिक्रिया बताती है कि हम कितने सफल या असफल हैं और समाज हमारे बारे में क्या सोचता है। पत्रकारिता के लिये तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि आखिर हमारे लिखेे का समाज पर क्या असर हो रहा है और लोग हमारी लिखी चीजों को गंभीरता स ेले रहे हैं या नहीं, आदि-इत्यादि बातों का पता चलता है। एक समय था जब प्रतिक्रिया में सैकड़ों की तादात में पत्र आ जाते थे।
चूंकि पोस्टकार्ड का आकार छोटा होता है इसलिये इसमें लिखी गयी बातें भी सारगर्भित होती थी। थोड़े शब्दों में अधिक लिखा जाता था। संभवतः मेरे समकालीन पत्रकारों को ज्ञात होगा कि संपादक के नाम पत्र में छपी समस्या अथवा किसी मुद्दे को उभारे जाने पर शासन प्रशासन में न केवल प्रतिक्रिया होती थी। अजय शर्मा का संपादक के नाम लिखे गये पत्र में उन्होंने इसी किस्म की बात को याद किया है। आधुनिक समय में समय और स्थान की कमी होती जा रही है तब पोस्टकार्ड और भी महत्वपूर्ण हो गया है। यह केवल प्रतिक्रिया लिखने के लिये नहीं बल्कि उन नवोदित पत्रकारों को यह सीखने के लिये कि एक छोटे से पोस्टकार्ड में हम अपनी बात कितने प्रभावी ढंग से लिख सकते हैं। मैं जब कभी मीडिया के विद्यार्थियों के बीच जाता हूं तो पोस्टकार्ड ले जाना नहीं भूलता। उन्हें इसे पत्रकारिता की प्राथमिक कक्षा के रूप् में संबोधित करते हुए इसके महत्व को बताता हंू। ई-मेल और मोबाइल के जरिये बात हो रही है, एक्शन-रिएक्शन लिये दिये जा रहे हैं लेकिन इनका दस्तावेजीकरण नहीं हो पा रहा है। पोस्टकार्ड एक प्रकार का दस्तावेज हुआ करता था। पोस्टकार्ड के लिये बिजली की भी जरूरत नहीं है। एक रुपये के पेन से भी काम चल जाता है। आज पोस्टकार्ड के जन्मदिन पर पत्रकारिता में इसके महत्व को आंकने की जरूरत है।
(लेखक भोपाल से प्रकाशित मीडिया पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम के संपादक, स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। )

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