शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

एक दिन तलाशे नहीं मिलेंगी प्रतिभाएं!



सचिन राठौर

आज के हिंदुस्तान टाइम्स में खबर है कि दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी में एक नया ट्रेंड दिख रहा है. स्टूडेंट्स बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मोटे-मोटे प्लेसमेंट ठुकराकर अपनी रूचि के मुताबिक अपने खुद के व्यवसाय शुरू करने को प्राथमिकता दे रहे हैं. स्टूडेंट्स को लुभाने के लिए कम्पनियों की ओर से मोटी रकम का चुग्गा डाला जा रहा है, लेकिन तमाम स्टूडेंट्स ऐसे हैं जो इस चुग्गे को चुगने के लिए तैयार नहीं. वो अपने सपनों की दुनिया अपने हिसाब से बुनना चाहते हैं. वो किसी के सिस्टम में बंधकर खुद को बंधुआ नहीं बनाना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि वे नाकारा बनकर रहना चाहते हैं. लेकिन कॉर्पोरेट जगत में चल रही मोटे-मोटे पैकजों की दौड़ में वो शामिल नहीं होना चाहते. सपने उनकी आँखों में भी हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों का साथ चुना है जो उनको सबसे अच्छी तरह से समझते हैं, यानी उनके अपने दोस्त. दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी के ये नए और जवाँ इंजीनियर अपने दोस्तों संग खुद का बिजनेस शुरू करने की दिशा में कदम बढा रहे हैं. कुछ ऐसा नया काम जो परंपरागत काम से कहीं ज्यादा रोचक हो, क्रिएटिव हो और मन को सुकून देने वाला हो. जहाँ न टार्गेट का टंटा हो और न बॉस का डंडा. जिस काम को करने के बाद जीविकोपार्जन के साथ-साथ जीवन की सार्थकता भी नज़र आये.
व्यक्ति की जीविका का साधन भी कहीं न कहीं दो मौलिक सवालों से जुड़ा हुआ है कि- मैं कौन हूँ? और मैं इस धरा पर किसलिए आया हूँ? जब तक आपका काम आपके जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं करता तब तक वो काम आपको आनंद नहीं दे सकता. आप केवल मशीन की तरह उस काम को करते रहेंगे और नोटों की गड्डियां बनाते रहेंगे. जब किसी दिन थककर एकांत में बैठोगे तब अचानक कहीं से ये सवाल मन में कौंधेगा कि ये मैं कहाँ चला जा रहा हूँ? और आप इस सवाल का जवाब नहीं दे पाओगे? इस सवाल का जवाब बस यही है कि एक भीड़ चली जा रही थी और मैं भी बिना सोचे-समझे उस भीड़ में शामिल हो गया.
मैंने भी जब पत्रकारिता से जुड़ने का फैसला किया था तब कहीं न कहीं मन में यही भाव था कि पत्रकारिता आम जनमानस की बात कहने का सशक्त माध्यम है. यहाँ मैं उनकी बात उठाऊंगा जो अपनी बात कहीं नहीं उठा पाते. लेकिन पत्रकारिता के अन्दर आकर तो केवल ख़बरों की होड़ और पैसों की दौड़ दिखी. इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को फायदा पहुँचाना नहीं बल्कि अपने मालिक को फायदा पहुँचाना था. मालिक का फायदा करने में चाहे पब्लिक का फायदा हो या नुकसान उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. काम के एवज में दाम मिलने के साथ-साथ संतुष्टि मिलनी भी जरूरी होती है. दोनों में से एक भी न मिले तो मिलती है केवल फ्रस्ट्रेशन. आज के कॉर्पोरेट जगत में जिस तरह से खुद के ही तय किये हुए असंभव टार्गेट अचीव करने की होड़ मची है वो वहां के कर्मचारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है. बाजारू कॉम्पटीशन में आज नंबर एक बनने की होड़ है. इसके लिए चाहे सिद्धांतों से समझौता करना पड़े या अपने कर्मचारियों के हितों के साथ. ऐसे में खासतौर से युवा कर्मियों को घुटन महसूस होती है. जब तक वे ये सब समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
किसी को भी सच्ची संतुष्टि तभी मिल सकती है जब उसके प्रयास सच्चाई के आस-पास हों, उसकी अंदरूनी प्रतिभा के आस-पास हो और परहित के आस-पास हो. जिस काम को करने से अपने लिए धन कमाने के साथ-साथ ये भाव भी हो कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा वो काम दीर्घकालिक संतुष्टि दे सकता है. "नौकरी = न-करी" : अगर कमाने के साथ-साथ समाज को भी कुछ देना चाहते हो तो कुछ अपना काम करो, अगर नितांत सच्चाई के मार्ग पर ही चलना चाहते हो तो अपना मार्ग अलग बनाओ. क्योंकि अभी सफलता के जितने भी मार्ग हैं वे सभी झूठ से होकर गुजरते हैं.
दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी में ये जो ट्रेंड दिख रहा है वो बेहद सराहनीय है. युवाओं को अब किसी की नौकरी की दरकार नहीं, वो अपना रास्ता खुद बनायेंगे, उनमें इतना दम है कि वे खुद नौकरियों का सृजन करेंगे. जिस तरह हर जगह प्रतिभा की अनदेखी करके चाटुकारों को प्राथमिकता दी जा रही है, उसका परिणाम यही होगा कि एक दिन प्रतिभाएं तलाशे नहीं मिलेंगी, वे सब अपने अलग रास्ते पर चल रही होंगी.
सचिन राठौर

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

प्रतिभाओं को नजरअंदाज करती मध्यप्रदेश सरकार



डॉ. महेश परिमल

उपेक्षा किसी की भी हो, अच्छी बात नहीं है। उपेक्षित इंसान कभी-कभी हताश होकर अपनी क्रियाशीलता को खत्म कर देता है। पर उसके मन में हमेशा यही भाव होता है कि यहाँ यदि मेरी कला के जौहरी नहीं मिलेंगे, तो निश्चित ही वह जौहरी कहीं और होगा। कई बार जौहरी काफी देर बाद मिलते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ मध्यप्रदेश शासन के साथ। जिन विभूतियों को सरकार ने नकार दिया, उसे ही केंद्र सरकार ने नवाजा। अपने अधिकारियों की लापरवाही के कारण अनजाने में मध्यप्रदेश सरकार को एक ऐसा तमाचा पड़ा है, जिससे वह चाहे तो सबक ले सकती है। अन्यथा हमेशा की तरह अपने काहिल अधिकारियों को कोसकर अपना पल्ला झाड़ सकती है।
मेरे सामने दो खबरें ऐसी हैं, जिसमें प्रदेश सरकार की लापरवाही साफ दिखाई देती है। इसमें प्रशासनिक रूप से अक्षम अधिकारियों का दोष सबसे अधिक है, जिनके कारण राज्य की प्रतिभाओं का सम्मान करना तो दूर उन्हें याद तक नहीं किया गया। एक तरफ जहॉं प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के काफिले के सामने आकर एक दुखियारी अपनी विकलांग बेटी के लिए शासन से गुहार करती है, तो मुख्यमंत्री तुरंत ही उन्हें सहायता प्रदान करते हैं, तो दूसरी तरफ देश के जाने माने फोटोग्राफर वामन ठाकरे की बेशकीमती कृतियों को अनदेखा किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ किसी मासूम से किसी की जान बचाई, तो उसे पुरस्कृत करने के लिए भी उसके पिता को बार- बार चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। उक्त दोनों उदाहरणों में जिन्हें राज्य सरकार ने ठुकराया, उन्हें ही केंद्र सरकार पुरस्कार से नवाजने जा रही है। यह सब अधिकारियों के ढुलमुल रवैए और लापरवाही के कारण हो रहा है। प्रतिभा कभी भी सम्मान की मोहताज नहीं होती।
पद्मश्री से सम्मानित 80 वर्षीय जाने-माने कैमरा आर्टिस्ट वामन ठाकरे की जिस कला को राज्य शासन ने ठुकरा दिया, उसी को अंतत: दिल्ली ने सम्मान दिया है। उनके द्वारा खींची गईं जो नायाब तस्वीरें भारत भवन और राज्य संग्रहालय की लाल फीताशाही में उलझकर स्थान पाने से वंचित रह गईं, अब उन्हीं को नई दिल्ली के प्रतिष्ठित इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर ने स्वीकार कर लिया है। उनकी बहुमूल्य 145 तस्वीरों को पिछले सप्ताह ही सेंटर से आई टीम अपने साथ दिल्ली ले गई हैं। ये वे तस्वीरें हैं, जो श्री ठाकरे ने पिछले पांच-छह दशकों में खींची हंै। वामन ठाकरे देश के एकमात्र कैमरा आर्टिस्ट हैं, जिन्हें पद्मश्री 2007 में सम्मानित किया गया है। भोपाल के भारत भवन और राज्य संग्रहालय से निराश होकर अंतत: उन्हें देश के अन्य कला केंद्रों की ओर रुख करना पड़ा। 9 नवम्बर को ही सेंटर के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. अचल पंड्या और रिसर्च ऑफिसर एम विष्णु भोपाल आए और इन तस्वीरों को अपने साथ लेकर गए। इनमें ठाकरे द्वारा 1952 में खींचा गया पहला फोटो (शीर्षक :फीलोसॉफर) भी शामिल है। यह पहला ही फोटो पुरस्कृत हुआ था।
देश के दूसरे कैमरा आर्टिस्ट श्री ठाकरे देश के ऐसे दूसरे कैमरा आर्टिस्ट हैं, जिनकी तस्वीरों को यहां संग्रहित किया गया है। इससे पहले देश के फोटोग्राफी इतिहास के विख्यात फोटोग्राफर हैदराबाद निवासी लाला दीनदयाल द्वारा खींची गईं तस्वीरों और कांच के निगेटिव को करीब सौ साल पहले वहां संग्रहित किया गया था।
लापरवाही का दूसरा उदाहरण है, मासूम मुनीस। प्रदेश के अधिकारी बच्चों को पुरस्कृत करने के मामले में कितने लापरवाह हैं, इसका ताजा उदाहरण हैं मुनीस खान। राजधानी के अधिकारियों ने मुनीस को जिस काम के आधार पर राज्य स्तरीय महाराणा शौर्य पुरस्कार के लिए उपयुक्त नहीं माना था, उसी के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर का वीरता पुरस्कार दिया जाने वाला है। हैरानी तो इस बात की है कि जब इसकी जानकारी अधिकारियों को दी, तो भी उन्होंने अपनी गलती नहीं मानी और मुनीस को दोबारा आवेदन देने के लिए कह दिया। मुनीस ट्ठान ने अगस्त 2009 में पटरी पर बैठे एक शराबी को सामने से आ रही ट्रेन से कटने से बचाया था। इस बहादुरी के कारनामे को ऐशबाग थाने के पंचनामे और नजूल अधिकारी के परिपत्र में भी प्रमाणित किया गया। ये सारे दस्तावेज लेकर मुनीस के पिता मुश्ताक खान ने 24 अप्रैल 2010 को महाराणा प्रताप शौर्य पुरस्कार के लिए आवेदन दिया, लेकिन जिला प्रशासन ने इसे नकार दिया। इसके बाद उन्होंने कई बार जनसुनवाई में कलेक्टर को भी आवेदन दिया, लेकिन वहां से भी बस जांच के लिए कह दिया गया। वहीं दूसरी तरफ 24 अप्रैल को दिल्ली भेजा गया उनका आवेदन स्वीकार कर लिया गया है। नई दिल्ली स्थित भारतीय बाल कल्याण परिषद ने सारे दस्तावेज के आधार पर मुनीस का चयन उन 16 बच्चों में किया है, जिन्हें बापू गैधानी राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सट्ठमानित किया जाएगा। मुनीस को यह सम्मान २६ जनवरी को मिलेगा। अब जब यह मामला सामने आया है, तो संबंधित हर अधिकारी अपना पल्ला झाड़ रहा है। अब यदि मेनीस को सचमुच ही पुरस्कार प्राप्त करना है, तो उसे फिर से आवेदन करना होगा। जबकि इसके पहले उसके पिता ने आवेदन कर रखा है।
क्या है बापू गोधानी पुरस्कार: यह पुरस्कार भारत में 16 वर्ष या उससे कम उम्र के उन बहादुर बच्चों को दिया जाता है, जो सभी बाधाओं के खिलाफ बहादुरी और निस्वार्थ बलिदान की भावना से किए गए वीरतापूर्वक कार्य करते हैं। यह पुरस्कार राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार की श्रेणी में आता है।
इस तरह से उपेक्षा से आहत होकर प्रतिभाओं का पलायन होता है। दूसरे जिन्हें उनसे प्रेरणा लेनी होती है, वे भी आहत होते हैं। प्रतिभाओं के पलायन का यह भी एक कारण है। कई बार तो प्रतिभा का आकलन मोहल्ले वाले ही नहीं कर पाते हैं। वह तो अन्य संस्थाएँ जब उन्हें सम्मानित करती हैं, तब उन्हें खयाल आता है कि हमारे ही बीच एक ऐसी प्रतिभा थी, जिसकी हमने कद्र ही नहीं की। वैसे वामन ठाकरे ने जो कुछ भी किया, उसके पीछे उनका उद्देश्य यह कतई नहीं था कि उन्हें किसी प्रकार से सम्मानीत किया जाए। जब सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित कर दिया, तो फिर और कौन सा सम्मान बाकी रह जाता है? ऐसे लोग यदि प्रदेश में हैं, तो उनका सम्मान तो प्रदेश सरकार को भी करना चाहिए। लेकिन लालफीताशाही के चक्कर में कई बार कुछ ऐसा हो जाता है, जिसे नहीं होना चाहिए। यही बात मुनीस की है। जब उसने किसी की जान बचाई, तो उसका उद्देश्य यह नहीं था कि ऐसा करने से उसे पुरस्कार मिलेगा। उसने तो तत्क्षण ही यह निर्णय लिया कि इस व्यक्ति की जान बचानी चाहिए। उसकी जान बच गई, यही उसका उद्देश्य था, जो उसी समय पूरा हो गया। उसे पुरस्कार मिलना चाहिए, यह सोचना तो सामाजिक संस्थाओं और सरकार का है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

सरकार को न तेल दिखा, न तेल की धार



डॉ. महेश परिमल
विजय दिवस पर सरकार ने देश के नागरिकों को दिया महँगाई का तोहफा। किस तरह से मनाएँ हम विजय दिवस। सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में भारी इजाफा कर ऐसा झटका दिया है, जिससे उबरने में काफी वक्त लगेगा। सरकार को कब समझ आएगी कि एकमात्र पेट्रोल के दाम बढ़ाने से पूरी अर्थव्यवस्था किस तरह से प्रभावित होती है। आवश्यक जिंसों के दामों में बढ़ोत्तरी होगी, किराए भी बढ़ेेंग, अनाज और सब्जियों की कीमतों पर कोई लगाम नहीं रहेगी। कहाँ तो गूहमंत्री यह कह रहे थे कि दिसम्बर तक महँगाई कम हो जाएगी, वहीं इन हालात में महँगाई कम होने से तो रही।
पेट्रोल के दाम बढ़ाकर सरकार ने एक बार फिर प्रजा को महँगाई की आग में झोंक दिया है। सरकार न तो तेल देख रही है और न ही तेल की धार। घोटालों में फँसी सकरार को हम ‘निर्दयी सरकार’ की उपमा दें, तो गलत नहीं होगा। इसे सरकार की निर्दयता ही कहा जाएगा कि छह महीनों में दो बार पेट्रोल की कीमतों में इजाफा किया गया है। सरकार ने जब से इसे नियंत्रण मुक्त बनाया है, तब से इसके भाव में लगातार बढ़ोत्तरी ही हो रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि होती है, तो तुरंत ही हमारे यहाँ पेट्रोल-डीजल की कीमतों में आग लग जाती है। आखिर सरकार कर क्या रही है? यह सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। सरकार ने यह भी नहीं सोचा कि इससे महँगाई बढ़ेगी ही, साथ ही लोगों का जीना मुहाल हो जाएगा। जिस तेजी से पेट्रोल-डीजल के दाम बढें़ हैं, उस तेजी से लोगों की आय नहीं बढ़ पाई है। एक तरह से सरकार ने तेल कंपनियों को लूटने की खुली छूट दे दी है। जब भी पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें बढ़ीं है, राज्य सरकारों का मुनाफा भी बढ़ा है। फिर भी इसके दामों पर नियंत्रण नहीं किया गया है।
सरकार हमेशा इसे अंतरराष्ट्रीय बाजार के हिसाब से देखती है। जब कच्चे तेल की कीमत 28 डॉलर प्रति बैरेल हो गई थी, तब तो पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में किसी प्रकार की कटौती नहीं की गई थी। अब जब दाम बढ़ रहे हैं, तो सरकार भी विवश हो जाती है। आखिर ऐसा क्या है इस समीकरण में, जिसमें दाम बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प होता है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अच्छे अर्थशास्त्री हैं, पर क्या वे भी यह नहीं सोच पा रहे हैं कि इस तरह से महँगाई बढ़ेगी, तो फिर नागरिकों के पास क्या विकल्प रहेगा? सोचना उनके बस की बात नहीं है। तभी तो सरकार घोटाले में फँसी रह गई और उधर उनकी विदेश यात्रा भी हो गई। संसद का पूरा सत्र घोटाले की भेंट चढ़ गया। पर सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही। विपक्ष पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों को लेकर एक बार फिर भारत बंद का आह्वान करेगा, उसके बाद खामोश हो ेजाएगा। आखिर क्या होगा भारत बंद से? मजदूरों की एक दिन की रोजी-रोटी छिनी जाएगी, बस, इसके अलावा उनकी दृष्टि में कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा।
एक जुलाई को 55 रुपए 30 पैसे के दाम में मिलने वाला पेट्रोल आज 60 रुपए लीटर मिलने लगा है। 6 महीने पहले अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड की कीमत 77 डॉलर थी, आज 90 डॉलर है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तो कीमतें बढ़ती ही रहेंगी, तो क्या हम उसके हाथों में विवश रहें? क्या कोई ऐसा उपाय नहीं ढूँढा जा सकता, जिससे आम नागरिकों को राहत मिले। अक्टूबर में मुद्रास्फीति 8.58 प्रतिशत थी, जो नवम्बर में घटकर 7.48 प्रतिशत हो गई। इस हालत में सरकार तेल की कीमतों में वृद्धि कर एक तरह से आम नागरिकों को महँगाई की आग में झोंक दिया है। सरकार की यह व्यापारिक दृष्टि प्रजा को भिखारी ही बनाएगी।
एक उपाय है, यदि इस पर अमल किया जाए, तो पेट्रोल की कीमत दो रुपए कम हो सकती है। इसके लिए राज्य सरकारों को थोड़ा उदार बनना होगा। वैसे इस मूल्य वृद्धि से राज्य सरकारों के खजाने में काफी इजाफा होने वाला है। देश में डीजल-पेट्रोल पर संभवत: सबसे ज्यादा टैक्स लेने वाली मप्र सरकार पहले ही कह चुकी है कि हम इस पर टैक्स क्यों घटाएँ? इसीलिए पेट्रोल-डीजल का कारोबार हमेशा से ही हर राज्य सरकार के खजाने के लिए मुफीद रहा है। मप्र सरकार ने इस पर 28.75 फीसदी प्रति लीटर टैक्स लगा रखा है। यानी मप्र सरकार को यहां बिकने वाले पेट्रोल से प्रति लीटर लगभग 17 रुपए मिलते हैं। लाखों लीटर रोज बिकने वाले पेट्रोल से आ रही इस ‘लक्ष्मी’ का मोह मप्र के भी सिर चढ़कर बोलता है। नई मूल्य वृद्धि से करोड़ों की अतिरिक्त आय हो सकती है। उत्पाद शुल्क का एक हिस्सा और राज्य सरकार द्वारा लगाए जा रहे सभी कर ‘एड वेलोरम’ लगाए जाते हैं यानी ये कर मात्रा पर नहीं बल्कि कीमत पर लगाए जाते हैं। अगर कीमत बढ़ेगी तो कर की दर भी बढ़ेगी। विशेषज्ञ बताते हैं कि मात्रा के आधार पर कर लगाने से दाम में करीब 2 रूपए तक की गिरावट हो सकती है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

छत्तीसगढ़ में उर्दू शायरी की पहचान ‘कौसर’



वीरेन्द्र बहादुर सिंह

दोस्तों की शादी में सेहरा लिखते-लिखते, मौलाना लोगों की तक़रीर में पैगम्बरे इस्लाम की शान में नात लिखकर पढ़ते-पढ़ते, मटका पाटी वालों को फिल्मी धुन में गीत लिख कर देते-देते ‘कौसर’ उर्दू के नामवर शायर बन गये। उन्हें सपने में भी ये गुमान नहीं था कि उनका शेरो-सुख़न का जुनून उन्हें ऐसे मान-सम्मान से विभूषित करेगा जो उनके प्रशंसकों और उनकी कर्मभूमि राजनांदगांव के लिए गौरव की बात होगी। मौजूदा समय में ‘कौसर’ एक शायर की हैसियत से उस मुक़ाम पर हैं जहां पहुंचना लोगों का सपना होता है।
पिछले लगभग तीन दशकों से राष्ट्रीय और अंतरराष्र्ट्रीय स्तर पर ऊदरू और हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अपनी ग़ज़लों और नÊमों के कारण चर्चा में आये शायर अब्दुस्सलाम ‘कौसर’ ने अपने गुणवत्तामूलक लेखन से छत्तीसगढ़ के उर्दू अदब को राष्ट्रीय स्तर की ख्याति दिलाई है। छत्तीसगढ़ में उर्दू अदब के प्रति पर्याप्त माहौल नहीं होने के बावजूद ‘कौसर’ की ग़ज़लों और नज़्मों के लगातार प्रकाशित होने के कारण ही उर्दू के नक्शे पर छत्तीसगढ़ का नाम तेज़ी से उभर कर सामने आया है। ‘कौसर’ छत्तीसगढ़ में उर्दू शायरी की पहचान बन चुके हैं। यही कारण है कि ग़ज़लों और नज़्मों के सृजनात्मक लेखन में उत्कृष्ठ उपलब्धियां प्राप्त करने एवं उर्दू साहित्य में गुणवत्तामूलक लेखन करते हुए छत्तीसगढ़ में उर्दू भाषा का अनुकरणीय माहौल तैयार करने के लगन को देखते हुए छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने जनाब अब्दुस्सलाम ‘कौसर’ को उर्दू भाषा की सेवा के लिए ‘हाजी हसन अली सम्मान’ से विभूषित किया है। छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर 01 नवम्बर 2010 को ‘कौसर’ को राजधानी रायपुर में हाजी हसन अली सम्मान से विभूषित किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली एवं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने ‘कौसर’ को दो लाख रूपये का चेक, प्रशस्ति पत्र, शाल एवं श्रीफल भेंटकर सम्मानित किया।
अपने समकालीन शायरों में अलग पहचान रखने वाले जनाब अब्दुस्सलाम ‘कौसर’ का जन्म 09 जनवरी 1948 को रायपुर जिले के ग्राम खरोरा में हुआ। उनके पिता का नाम श्री सिद्दीक अहमद था। ‘कौसर’ के जन्म के बाद उनका परिवार संस्कारधानी राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में आकर बस गया। ‘कौसर’ ने बी.एस-सी. एवं बी.टी.सी. तथा अदीबे-कामिल तक शिक्षा प्राप्त की है। सिर्फ़ पांचवीं तक उर्दू पढ़ने के पश्चात ‘कौसर’ ने उर्दू साहित्य का गहन अध्ययन किया। उर्दू शेरो-सुख़न और अदब का ‘कौसर’ ने इतना अध्ययन किया कि उन्हें हज़ारों शेर ज़ुबानी याद हैं।
दोस्तों की शादी में सेहरा लिखते-लिखते, मौलाना लोगों की तक़रीर में पैगम्बरे इस्लाम की शान में नात लिखकर पढ़ते-पढ़ते, मटका पार्टी वालों को फिल्मी धुन में गीत लिख कर देते-देते ‘कौसर’ उर्दू के नामवर शायर बन गये। उन्हें सपने में भी ये गुमान नहीं था कि उनका शेरो-सुख़न का जुनून उन्हें ऐसे मान-सम्मान से विभूषित करेगा जो उनके प्रशंसकों और उनकी कर्मभूमि राजनांदगांव के लिए गौरव की बात होगी। मौजूदा समय में ‘कौसर’ एक शायर की हैसियत से उस मुक़ाम पर हैं जहां पहुंचना लोगों का सपना होता है। दो करोड़ दस लाख की आबादी वाले छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर में जब शेरों-सुख़न की चर्चा होती है हो ‘कौसर’ का नाम अदब, एहतेराम से लिया जाता है।
शेरों-सुख़न के विद्वान समालोचक ‘हनीफ़ नज्मी’ (हमीरपुर) ने ‘कौसर’ को ‘छत्तीसगढ़ में उर्दू ग़ज़ल की आबरू’ कहा है। छत्तीसगढ़ के उस्ताद शायर एवं वरिष्ठ पत्रकार काविश हैदरी ने स्वीकार किया है कि ‘कौसर’ एकमात्र ऐसे शायर हैं जो प्रकाशन के मामले में छत्तीसगढ़ के शायरों में सबसे आगे हैं। उनकी रचनाएं अब तक 130 पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
‘कौसर’ को ग़ज़लों के अलावा नज़्म लिखने में भी महारत हासिल है। उर्दू सहाफ़त (पत्रकारिता) के क्षेत्र में नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘शमा’ विश्वस्तर पर उर्दू साहित्य की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मान ली गई थी। ‘शमा’ का क्रेज ऐसा था कि इसमें छपने की आस में कई लेखकों और शायरों की उम्र गुज़र जाती थी। ऐसी उत्कृष्ठ गौरवशाली पत्रिका में साठ-साठ, सत्तर-सत्तर मिसरों (पक्तियों) पर लिखी गयी नौ-नौ, दस-दस बंद की नज़्में क्रमश: लाटरी का तूफ़ान, मेरे हिन्दोस्तां, हवाले का शिकंजा, नया साल, कौन रहबर है तथा कंप्यूटर प्रकाशित होने से ‘कौसर’ राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शायरों की पंक्ति में आ गये।
पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की शहादत पर ‘कौसर’ की नज़्म ‘गद्दार क मजहब’ शायरों के लिए चर्चा का विषय बन गयी थी। राजनीति के दांव पेंच को बड़ी साफ़गोई के साथ पेश करने वाली इस नज़्म की दो बंद देखें-

और कुछ लोग वफ़ादारी का परचम लेकर
मौत का जश्न सलीके से मनाने निकले
अपनी औक़ात ज़माने को दिखाने के लिए
आग नफ़रत की दुकानों में लगाने निकले


‘इंदिरा गांधी’ हो या ‘लूथर’ या कोई ‘कैनेडी’
पैदा होते हैं हर एक दौर में और मरते हैं,
क़त्ल करके इन्हें ‘कौसर’ नए अंदाज के साथ
हम सियासत का नया दौर शुरू करते हैं


बाबरी मजिस्द के विध्वंस पर उनका आक्रोश इस प्रकार फूट पड़ा-

ये मसअला नहीं है कि गद्दार कौन है
पहले ये तय करो कि वफ़ादार कौन है


शुरू से ही कुछ अच्छा कहने की ललक में ‘कौसर’ ने शेरों-सुख़न, उर्दू जबानों-अदब का डूब कर गहन अध्ययन किया है। संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उन्होंने इस्लाम ही नहीं हिन्दू और ईसाई धर्म से संबंधित साहित्य, वेद पुराण, गीता, रामचरित मानस, पौराणिक कथाओं और मान्यताओं का विशद अध्ययन किया है।
लगभग चार दशक तक शिक्षकीय पद पर कार्य करते हुए उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दी। इस दौरान गांव के परम्परागत त्यौहारों, सामाजिक मान्यताओं, लोकगीतों, लोकाचारों से उन्होंने अनुभूतिगम्य अनुभव प्राप्त किया है। व्यक्तिगत अनुभव की सूक्ष्म गहराई और गहन संवेदना ‘कौसर’ की शायरी में स्पष्ट दिखती है। सामान्य शब्द विन्यास के साथ दिल को छू लेने वाले शेर कहने से आम आदमी में भावनाओं की संप्रेषणीयता की वजह से आपका लोकप्रिय हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
‘मेराज’ फै़जाबादी, ‘मंज़र’ भोपाली, ‘शायर’ जमाली, ‘जौहर’ कानपुरी जैसे शायरों के साथ कामठी (महाराष्ट्र) के आल इंडिया मुशायरे में जब ‘कौसर’ ने यह शेर पेश किया-

इधर रौनक़ मज़ारों पर उधर महलों में सन्नाटा
शहंशाहों की हालत पर फ़क़ीरी मुस्कराती है
तो इन्हें इस शेर पर बेहद दाद मिली। मुशायरे के बाद एक छात्रा को आटोग्राफ़ देते हुए जब कौसर ने उसकी डायरी पर ये शेर लिखा तो छात्रा ने सवाल करते हुए कहा-शायर साहब महलों में सन्नाटा क्यों रहता है? कभी इस पर गौर करें। ‘कौसर’ को यह बात याद रही और काफ़ी दिनों बाद उन्होंने दिल को छू लेने वाले अंदाज़ में ये क़तआ कहा-

दासियों के क़हक़हे और इशरतों की महफिलें
इन नज़ारों में ही खोकर जिन्दगी काटा हूं मैं
चीख किसकी दब गयी और बद्दुआ किसकी लगी
याद सब कुछ है मुझे महलों का सन्नाटा हूं मैं


उर्दू शायरी की शोहरत रंगे-तग़़ज्जुल यानि श्रृंगार रस से शराबोर भावनाओं की अभिव्यक्तियों की वजह से है। मुहब्बत, नफरत, तिरस्कार, हुस्न और इश्क की नोंक-झोंक, मिलन-विरह की संवेदना, महबूब की मासूमियत आदि-आदि को शायरों ने जिस ख़ूबी से अपनी ग़ज़लों और शेरों में पिरोया है उनकी मिसाल अन्य भाषाओं की कविताओं में मिलना मुश्किल है। ‘कौसर’ की ग़ज़लों में भी नज़ाकत से भरपूर ऐसे कई शेर मिलते हैं। चंद मिसालें पेश हैं:-

कभी सपने में भी सोचा न था ये हादसा होगा
मैं तुमको भूल जाऊंगा ये मेरा फ़ैसला होगा

नजर मिलते ही वो शरमा के जब भी सर झुकाती है
मुझे उस वक्त नाज़ुक लाजवंती याद आती है

बचा-बचा के नजर आंख भर के देखते हैं
वो आईना जो कभी बन संवर के देखते हैं

नज़र बचा के गुज़रना हमें क़ुबूल मगर
निगाहें नाज़ तेरी बेरूखी पसंद नहीं


दोस्ती, मिलनसारिता, वफादारी और बेवफ़ाई पर भी उनकी क़लम चली है। दोस्ती पर उनका क़तआ और कुछ शेर देखें-
मुस्कराती आरज़ूओं का जहां समझा था मैं
ज़िन्दगी का ख़ूबसूरत कारवां समझा था मैं
दोस्ती निकली फ़क़त कांटों की ज़हरीली चुभन
दोस्ती को गुलसितां ही गुलसितां समझा था मैं

न दोस्ती न मुरौव्वत न प्यार चेहरों पर
दिखाई देती है नक़ली बहार चेहरों पर
वफ़ा की एक भी सूरत नज़र नहीं आई
निगाह उठती रही बार-बार चेहरों पर

सियासत, सामाजिक व्यवस्था, शिष्टाचार, अध्यात्म पर ‘कौसर’ की गहरी पकड़ हैं। उनकी ग़ज़लों में इस अंदाज़ के शेर बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश हुए हैं। चंद मिसालें देखें -

चमन पे हक़ है तुम्हारा, मगर ये ख्याल रहे
मैं फूल हूं मुझे आवारगी पसंद नहीं

आस्तीनों में अगर सांप न पाले होते
अपनी क़िस्मत में उजाले ही उजाले होते
हम सियासत को तिजारत नहीं समझे वरना
अपने हाथों में भी सोने के निवाले होते


अध्यात्म पर ‘कौसर’ ने कई शेर और बेहतरीन शेर कहे हैं -

सुना है उसकी गली है निजात का रस्ता
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

चमन वालों ज़रा सोचो इबादत के लिए किसकी
हज़ारों साल से शबनम गुलों का मुंह धुलाती है
पतंगे, तितलियां, भंवरे ये सब किस धुन में रहते हैं
ये किसकी याद में कोयल विरह के गीत गाती है


मानसिक क्लेश, दर्द की गहन अनुभूति को ‘कौसर’ ने अपनी शायरी का ज़ेवर बनाया है। इस अंदाज़ के शेरों की संप्रेषणीयता में उनकी लेखनी का कमाल झलकता है।

न जाने कितने ज़ख्मों के दरीचे खोल देता है
टपकता है जो आंखों से लहू सब बोल देता है
जिन्हें रहना था महलों पे सरापा नाज़ की सूरत
मुक़द्दर चंद सिक्कों में उन्हें भी तोल देता है
सामाजिक विषमताओं ओर विद्रुपताओं पर भी उनके शेर दिल को छू जाते हैं।
हमारी मुफ़लिसी पर तंज़ करते हो थे मत भूलो
ख़ज़ानों की उठाकर फेंक दी है चाबियां हमने
ये दुनिया है यहां आसानियां यूं ही नहीं मिलती
बहुत दुश्वारियों से पाई हैं आसानियां हमने


उर्दू अदब में ‘कौसर’ की गहरी पकड़ है। सूफी-संतों, ऋषि-मुनियों की शालीनता ने उन्हें बेहद प्रभावित किया है। मीरा, रहीम, तुलसी और कबीर के दोहों से उन्होंने प्रेरणा ग्रहण की। मूलत: गज़ल और नज़्म लिखने वाले ‘कौसर’ से इन पंक्तियों के लेखक ने जब एक बार हिन्दी में कविता लिखने का आग्रह किया तो वे मुस्कुरा कर बात को टाल गये, लेकिन कुछ दिनों के बाद जब उन्होंने हिन्दी में ‘अमृत मंथन’ शीर्षक से लंबी कविता लिखी और वह प्रकाशित हुई तो साहित्य बिरादरी चौंक गयी। ‘अमृत मंथन’ भारतीय संस्कृति का निचोड़ हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं के माध्यम से उन्होंने प्रभावी ढंग से अपनी बात रखी। आध्यात्म पर गहरी रूचि रखने वाले ‘कौसर’ की कविता अमृत-मंथन भाग एक और दो उनके विशद अध्ययन और गहरी अनुभूति का अहसास कराती है। दो बंद गौरतलब है-

जब पंचतंत्र पढ़कर भी मन प्यासा रह जाए
जब कार्ल मार्क्‍स का दर्शन कुछ न कर पाए
जब संत कबीर की वाणी सुनकर भी समाज में
जब दंभ का दानव अट्टहास ही करता जाए
जब युवा वर्ग को चरित्र हीनता निगल रही हो
जब अनुशासन का स्वस्थ प्रशासन क्यों कर हो?


एक और बंद दृष्टब्य है -

कुरूक्षेत्र में एक ही चेहरा सामने आये
विस्मित हृदय गोरखधंधा समझ न पाये
बर्बरीक ये विंध्याचल से देख रहा है
कृष्ण ही मारे और कृष्ण ही मरता जाए
जब विध्वंस-निर्माण ब्रम्ह की लीला ठहरी
तब बुद्घि और बोधि में अनबन क्यों कर हो


हिन्दी साहित्य में संस्कारधानी राजनांदगांव का नाम राष्ट्रीय ही नहीं वरन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्घ है। मानस मर्मज्ञ डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र, साहित्य वाचस्पति डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, नई कविता के पुरोधा गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी रचनाधर्मिता से राजनांदगांव का नाम रोशन किया है। प्रकारांतर में क्रांतिकारी कवि कुंजबिहारी चौबे और डॉ. नंदूलाल चोटिया ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। हिन्दी साहित्य के साथ ही अब उर्दू साहित्य में भी निरंतर सृजनात्मक लेखन कर तथा हाजी हसन अली सम्मान से विभूषित होकर अब्दुस्सलाम कौसर ने राजनांदगांव ही नहीं समूचे छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किया है। यही वजह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की गज़ल सराई के साथ चलने वाले ‘कौसर’ का शुमार छत्तीसगढ़ के अग्रिम पंक्ति के शायरों में होता है।

वीरेन्द्र बहादुर सिंह़

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

घोटालों की भेंट चढ़ा संसद का शीतकालीन सत्र



डॉ. महेश परिमल
यह हमें अभी तक शायद पता नहीं है कि संसद की एक दिन की कार्यवाही में आम जनता का कितना खर्च होता है। हमें पता भी हो, तो शायद हम इसे गंभीरता से नहीं लेते। आखिर इस देश में इतने बड़े-बड़े कांड हो रहे हैं, उसमें जनता की मेहनत की कमाई कुछ स्वार्थी तत्वों की जेब में जा रही है। उसके अनुपात में संसद में होने वाला खर्च तो मामूली है। पर यही मामूली खर्च की राशि बताई जाए, तो 146 करोड़ रुपए होती है। यानी संसद की कार्यवाही ठप्प होने के दौरान आम जनता की जेब से 146 करोड़ रुपए ऐसे ही निकल गए। आम जनता के हाथ क्या आया? कुछ नहीं। इस राशि को यदि घोटाले की राशि में जोड़ दिया जाए, तो? कई विधेयक पारित होने से रह गए, केवल दोनों दलों की जिद के कारण। उस जिद ने कितना बड़ा नुकसान आम आदमी का किया है, इसे समझने की जरुरत किसी को नहीं है।
संसद की कार्यवाही ठप्प पड़ गई। पूरा शीतकालीन सत्र जिद की भेंट चढ़ गया। मानो इस देश में स्पेक्ट्रम घोटाल के सामने चर्चा का कोई विषय ही नहीं है। हमारे रणबाँकुरे सांसदों की एक ही रट है कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच केवल जेपीसी से ही कराई जाए। यहाँ जाँच महत्वपूर्ण न होकर जेपीसी महत्वपूर्ण हो गई है। सांसद यह अच्छी तरह से जानते हैं कि जेपीसी की माँग सरकार कभी नहीं मानेगी। इसलिए जिसे वह नहीं मान रही है, उसी के लिए जिद की जाए। ताकि मामला इसी तरह से आगे बढ़ता रहे। हमारे सांसद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि जनता की मेहनत की कमाई को किस तरह से अपव्यय होने से रोका जाए। जेपीसी से सच्चई सामने आ ही जाएगी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। उधर रतन टाटा के बयान से भाजपा को मानो साँप सूँघ गया। भाजपाई खेमा सकते में आ गया है। ऐसे में उन्हें संसद की कार्यवाही ठप्प होने पर ही फायदा है। ताकि अपनी कमजोरी को छिपाने का अवसर मिल जाए।
क्या संसद में चर्चा के लिए अन्य कोई मुद्दा ही नहीं है? कई ऐसे मुद्दे हैं,जिन पर विचार किया जाना है। पर जब संसद की कार्यवाही ही ठप्प हो, तो फिर मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं। हाशिए पर गए हुए मुद्दों की फिर चर्चा ही क्योंे की जाए? महँगाई लगातार बढ़ रही है, इस पर किस तरह से लगाम कसी जाए, यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है, लेकिन सांसद अपनी जिद में आकर महँगाई को बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं। वैसे भी उनहें महँगाई की चिंता नहीं है। उन्हें इतना कुछ मिल रहा है कि महँगाई उनके सामने नतमस्तक है। संसद की कार्यवाही ठप्प रहे, इस पर कांग्रेस का भी फायदा है। इसलिए वह भी नहीं चाहती कि संसद में आकर भाजपा उसकी और फजीहत करे। इसलिए दोनों मुख्य दल मिलकर जनता की मेहनत की कमाई को गवाँ रहे हैं। जब दोनों ही दल की सोच ऐसी हो, तो फिर आम-आदमी की पीड़ा किसी कोने में सिसकती ही रह जाती है।
राजनीति की लीला अपरम्पार है। इसे कोई नहीं समझ पाता। आम जनता के प्रतिनिधि ही आम जनता के साथ खिलवाड़ करते हैं। पाँच वर्ष में एक बार भिखारी बनकर वोट माँग लेते हैं, फिर तो वे राजा हो जाते हैं। हमारी संसद में इतने सुलझे लोग राजनीतिज्ञ हैं। फिर भी कुछ ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिससे हमारे सांसद की सोच को बदला जा सके। आखिर जनता के प्रति उनकी भी जवाबदेही है? राजनीति की गहरी सोच के पीछे आम आदमी की पीड़ा सामने होनी चाहिए। जो अब दिखाई नही देती।
संसद में इतने लम्बे गतिरोध के लिए आखिर दोषी किसे माना जाए? इसके लिए विपक्ष जितना दोषी है, तो फिर सत्तारुढ़ दल भी कम दोषी नहीं है। यह तो साफ दिख रहा है कि सत्तारुढ़ दल ने स्पेक्ट्रम घोटाले को छिपाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इसके लिए विपक्ष की कमजोरी भी सामने आई। इससे विपक्ष भी इंकार नहीं कर सकता। संसद की गरिमा उसके चलते रहने में ही है और सांसद की गरिमा उसे चलाए रखने में है। पर जब सांसद ही उसे चलाए नहीं रखना चाहते, तो फिर कैसे चल पाएगी संसद? गरिमा तार-तार हो चुकी है। कब, कौन देख पाएगा इस हारी हुई संसद को? शायद कोई नहीं!
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

जहाँ शरीर के अंगों का मुफ्त ट्रांसप्लांट होता है



डॉ. महेश परिमल

बहुत दु:ख होता है, जब कोई बेहद अपना हमारी आँखों के सामने ही दम तोड़ देता है। उसका जाना इस बात के लिए भी अधिक अखरता है कि उसके इलाज के लिए लाखों खर्च करने के बाद हम और भी खर्च करने को तैयार थे, फिर भी हमारा अपना जिंदगी के सामने हार गया। हम उसकी हार देखते रहे। गरीबों के लिए तो यह और भी त्रासदायी है। वे खर्च करने के लिए भी सक्षम नहीं होते। हाँ अपना अंग देने के लिए अवश्य तैयार हो जाते हैं, फिर भी वे अपने को बचा नहीं पाते। ऐसे ही गरीबों के लिए एक खुशखबरी है, तमिलनाडु में ऐसे अस्पताल हैं, जहाँ लीवर और हार्ट ट्रांसप्लांट बिलकुल मुफ्त किए जाते हैं। गरीबों को तो यहाँ किसी प्रकार का धन नहीं देना पड़ता। आश्चर्य इस बात का है कि ऐसे अस्पतालों को सरकार का संरक्षण प्राप्त है।
बात शुरू से शुरू करते हैं। देश के तमाम महानगरों की तरह इन दिनों चेन्नई में भी बिल्डिंग निर्माण का कार्य युद्ध स्तर पर जारी है। इन परिस्थिातियों में एक बिल्डिंग के निर्माण के दौरान एक 23 वर्षीय युवक एक ऊँचे स्थान से गिर गया। उसे पास के एक सरकारी अस्पताल ले जाया गया। वहाँ डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। वैसे डॉक्टरों की दृष्टि में वह ब्रेनडेड था। इसलिए वह मानव समाज के लिए उपयोगी था। पर अब किया क्या जाए? यह युवक आंध्रप्रदेश से रोजी-रोटी के लिए आया था। ठेकेदार से जब उक्त मजदूर के बारे में जानने की कोशिश की गई, तो पूरी जानकारी नहीं मिल पाई। आखिर किसी तरह उस युवक के परिवार के बारे में जानकारी मिल गई। जब युवक के माता-पिता ने अपने बेटे की लाश देखी, तो वे फूट-फूटकर रोने लगे। अभी उस युवक की शादी को एक साल ही हो पाया था। डॉक्टरों ने उस परिवार को समझाया कि आपका बेटा मरकर भी जिंदा रह सकता है। यदि आप उसके अंगों को दान करने की घोषणा कर दें तो। यह सुनकर निरक्षर माता-पिता हैरान रह गए। आखिर उन्होंने तय किया कि वे अपने बेटे के सारे अंगों को दान में देंगे। उनकी स्वीकारोक्ति के बाद डॉक्टरों के एक दल ने उक्त युवक की दो आँखें, दो किडनी, हार्ट और लीवर निकाल लिए और जरूरतमंदों को दे दिए। चिकित्सकीय भाषा में इसे केडेवर ऑर्गन ट्रांसप्लांट कहते हैं।


आप माने या न मानें, पर यह सच है कि देश में सबसे अधिक मरणोपरांत अंगदान तमिलनाडु में होता है। इसके पीछे का कारण भी जानने लायक है। वंशवाद के आरोपों से घिरी करुणानिधि सरकार इस मामले में बहुत ही उदार है। अंगदान के नियम इस राज्य में अन्य राज्यों की अपेक्षा नरम हैं। अंगदान की नीतियों को इस राज्य ने खूब ही सहज बनाया है। इतना ही नहीं, इन अंगों को जरूरतमंद गरीबों को बिना एक पैसा लिए ट्रांसप्लांट की सुविधा भी इस राज्य में है। इतना ही नहीं, ट्रांसप्लांट के बाद मरीज को इम्युनोसपेसंट मेडिकेशन के रूप में पहचाने जाने वाली दवाई भी राज्य सरकार द्वारा मुफ्त में दी जाती है। पूरे राज्य मेंएक नही दो नहीं, पूरे 27 ऐसे अस्पताल हैं, जहाँ अंग ट्रांसप्लांट किए जाते हैं। इन अस्पतालों में दिन-रात इस तरह के सेवाभावी कार्य किए जा रहे हैं।
हमारे देश में सड़क दुर्घटना में रोज ही सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। ऐसे मामले में यदि तुरंत निर्णय लिए जाएँ, तो कई जिंदगियाँ बचाई जा सकती हेँ। ब्रेन डेड हाने के कुछ घंटों बाद ही इनके अंग निकालकर सुरक्षित रखे जा सकते हैँ। इस दिशा में जितना संवेदनशील तमिलनाडु है, उतना कोई अन्य राज्य नहीं। इसके अलाव इतने सुविधा सम्पन्न अस्पताल भी किसी राज्य में नहीं हैं, जहाँ अंगों का ट्रांसप्लांट मुफ्त में किया जाता हो। यही कारण है कि पिछले दो वर्षो में 110 से अधिक लोगों पर लीवर का ट्रांसप्लांट किया गया है। पूरे देश की बात करें, तो पिछले दो वर्षो में इसका आधा भी नहीं हुआ है। इसी तरह इस राज्य में 240 किडनी, 25 हार्ट का ट्रांसप्लांट किया गया है। यह एक रिकॉर्ड है।
करुणानिधि सरकार ने अक्टूबर 2008 में अंगदान का यह कार्यक्रम शुरू किया था। देश के अन्य राज्यों में तो इलाज के लिए अस्पताल पहुँचे गरीब लोगों की किडनी ही निकाले जाने की घटनाएँ होती रही हैं। तमिलनाडु भी इससे अछूता नहीं था। इसीलिए करुणानिधि सरकार ने इस दिशा में सख्त कदम उठाते हुए अंगदान की प्रक्रिया को सरल बनाया। इसके परिणामस्वरूप आज यहाँ आकर हजारों लोग जीवनदान प्राप्त कर रहे हैँ।

यहाँ की अस्पतालों का काम भी काफी रोमांचकारी है। अब तो मोबाइल और इंटरनेट के कारण कुछ ही समय में डॉक्टर विडियो कांफ्रेंस कर निर्णय ले लेते हैं। रोज वेटिंग लिस्ट अपडेट करते हैं। यही नहीं किस मरीज की ट्रांसप्लांट करने की अधिक आवश्यकता है। इसकी पूरी तैयारी की जाती है। यहाँ की सारी जानकारी वेबसाइट पर उपलब्ध की जाती है। इस शुभ कार्य में एनजीओ का भी भरपूर सहयोग प्राप्त हो रहा है। यही नहीं, यातायात पुलिस भी इस दिशा में अपना अमूल्य योगदान करती है। जैसे ही कोई दुर्घटना होती है, तो तुरंत ही पास के अस्पताल में इसकी सूचना दी जाती है। डॉक्टरों का दल तुरंत उनके संबंधियों से सम्पर्क करता है और मृत व्यक्ति के महत्वपूर्ण अंगों को निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है।
यह एक शुभ कार्य है। जिसमें केवल मृत व्यक्ति के स्वजनों के माध्यम से यह संभव हो पाता है। इसके बाद उन अंगों को उन गरीब लोगों में ट्रांसप्लांट किया जाता, जो धन खर्च करने में सक्षम नहीं होते। अन्य राज्य भी इस दिशा में सक्रिय होकर कुछ ऐसा ही करें, तो संभव है गरीबों को जीवनदान मिल जाए। साथ ही मृत परिवार के लोग भी आश्वस्त रहें कि उनका स्वजन मरकर भी अमर है। इस अहसास के साथ जीना भी एक सुकून देता है।
इसके बारे में अधिक जानकारी इस वेबसाइट से जानी जा सकती है। वेबसाइट का पता है www.dmrhs.org पता और फोन नम्बर इस प्रकार है:-
Cadaver Transplant Program,
165 A, Tower Block I, 6th Floor, [Next to Bone Bank],
Government General Hospital
Chennai – 600 003
E-Mail :
organstransplant@gmail.com
Phone :
(91)44 25305638
Fax :
(91)44 25363141

डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

देवास की गूँज दिल्ली तक सुनी जानी चाहिए


डॉ. महेश परिमल
कुछ समय से छत्तीसगढ़ में कई स्थानों पर छापे पड़े, जिसमें साधारण से सरकारी कर्मचारी के यहाँ से करोड़ों रुपए मिले। दूसरी ओर कई ऐसे स्थानों पर भी छापे के दौरान अकूत सम्पत्ति का पता चला। सरकारी धन का अपने स्वार्थ के लिए मनमाना उपयोग करने वाले ऐसे अधिकारियों के लिए देवास की अदालत का एक फैसला मिसाल पैदा कर सकता है, जिसमें एक लोक निर्माण विभाग के उपयंत्री के यहाँ छापे में 50 लाख रुपए से भी अधिक सम्पत्ति मिली। अदालत ने उस पर 5 करोड़ रुपए जुर्माना लगाया है और तीन साल की कैद की सजा सुनाई है।
भ्रष्टाचार आज हमारे देश के लिए एक ऐसा नासूर बन गया है, जो लगातार हमारी जड़ों को खाए जा रहा है। ऐसे में अदालत के फैसले ही इस अंधेरे में रोशनी की किरण बन सकते हैं। अदालत के फैसले का आज भी सम्मान होता है। भले ही आज कानून कुछ लोगों की गिरफ्त में आ गया हो, पर आम आदमी आज भी कानून पर भरोसा रखता है। ऐसे में यदि किसी भ्रष्टाचारी को दंड देना हो, तो देवास की अदालत का फैसला एक नजीर बन सकता है। आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोप में पकड़े गए उपयंत्री पर 5 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाते हुए अदालत ने जो कुछ कहा वह भी महत्वपूर्ण है। अदालत का कहना था कि भ्रष्ट लोकसेवक व व्यवसायी अपनी अनुपातहीन संपत्ति इतनी चतुराई से रखते हैं कि उन्हें पकड़ पाना लगभग असंभव हो चुका है। उनके मन में यह धारणा पक्की हो चुकी है कि उनकी अनैतिक गतिविधियों को पकड़ा नहीं जाएगा और वे चतुराई से जनता की मेहनत से कमाई संपत्ति को हड़पते रहेंगे। उन्हें ऐसा दंड दिया जाना चाहिए, जिससे उनके मन में भय पैदा हो कि जिस दिन वे पकड़े जाएंगे, उस दिन भ्रष्ट साधनों से अर्जित संपत्ति दंडित किए जाने की तारीख से मूल्य सहित उनके पास से वापस चली जाएगी।
करीब 30 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी ‘दुश्मन’। इस फिल्म में ट्रक ड्राइवर नायक से उसकी गाड़ी के नीचे आने से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, जज उसे मृतक के परिवार को पालने की सजा देते हैं। पहले तो नायक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बाद में स्थिति सामान्य हो जाती है। फिल्म के अंत में नायक जज के पाँवों पर गिरकर अपनी सज़ा बढ़ाने की गुहार करता है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था। सजा ऐसी होनी चाहिए, जिससे सजा भुगतने वाले को ऐसा लगे कि वास्तव में मैंने अपनाध किया है। यह उसी की सजा है। प्रायश्चित के इस भाव के साथ भुगती जाने वाली सजा अपना असर दिखाती है। सजा भीतर के इंसान को जगाने वाली होनी चाहिए। जो सजा हैवान को जगाए, उसे सजा नहीं कहा जा सकता। अदालतों ने कई बार जरा हटकर सजा सुनाने की कोशिश की है। एक बार एक विधायक को अदालत ने गांधी साहित्य पढऩे की सजा दी थी। एक सेलिब्रिटी को झोपड़पट्टी इलाके में एक सप्ताह बिताने की सजा दी थी। इस तरह से यदि लीक से हटकर सजा सुनाई जाए, तो उससे सजा भुगतने वाले को यह अहसास होगा कि सचमुच यह तो बहुत ही बड़ी जटिल सजा है। एक लखपति अपराधी को यदि हजार रुपए का जुर्माना कर भी दिया गया, तो उसे क्या फर्क पड़ता है। पर उसे रिक्शा चलाकर एक निश्चित आमदनी रोज अदालत में जमा करने को कहा जाए, तो यह प्रायश्चित वाली सजा होगी।
सजा पाने वाला हमेशा अपराधी नहीं होता, यह हम सब जानते हैं। पर जो जानबूझकर अपराध करते हैं, उनके लिए सजा ऐसी होनी चाहिए कि दूसरे भी उसे एक चेतावनी के रूप में लें। सोचों, वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब हम देखेंगे कि एक नेता पूरे एक हफ्ते तक झोपड़पट्टियों में रहकर वहाँ रहने वालों की समस्याओं को समझ रहा है। एक मंत्री ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा कर यात्रियों की समस्याओं को समझने की कोशिश कर रहा है और एक साहूकार खेतों में हल चलाकर एक किसान की लाचारगी को समझने की कोशिश कर रहा है। यातायात का नियम तोडऩे वाला शहर के भीड़-भरे रास्तों पर साइकिल चला रहा है। वातानुकूलित कमरे में बैठने वाला अधिकारी कड़ी धूप में खेतों पर खड़े होकर किसान को काम करता हुआ देख रहा है। बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पत्नियाँ झोपड़पट्टियों में जाकर गरीबों से जीीवन जीने की कला सीख रही हैं। यह दृश्य कभी आम नहीं हो सकता। बरसों लग सकते हैं, इस प्रकार के दृश्य आँखों के सामने आने में। पर यह संभव है। यदि हमारे देश के न्यायाधीश अपने परंपरागत निर्णयों से हटकर कुछ नई तरह की सज़ा देने की कोशिश करें। ज़ेल और जुर्माना, यदि तो परंपरागत सज़ा हुई, इससे हटकर भी सजाएँ हो सकती हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, बहाव के साथ चलना। जो बहाव के साथ चलते हैं, उनसे किसी प्रकार के नए कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। किंतु जो बहाव के खिलाफ चलते हैं, उनसे ही एक नई दिशा की आशा की जा सकती है। कुछ ऐसा ही प्रयास पूर्व में कुछ हटकर निर्णय देते समय जजों ने किया है। अगर ये जज हिम्मत दिखाएँ, तो कई ऐसे फैसले दे सकते हैं, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। आज सारा समाज उन पर एक उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। आज भले ही न्यायतंत्र में ऊँगलियाँ उठ रही हों, जज रिश्वत लेने लगे हों, बेनाम सम्पत्ति जमा कर रहे हों, ऐसे में इन जजों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, जब वे भी एक साधारण आरोपी की तरह अदालतों में पेशी के लिए पहुँचेंगे, तब उन्हें भी समझ में आ जाएगा कि न्याय के खिलाफ जाना कितना मुश्किल होता है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

मत रखियों अपनी बिटिया का नाम नीरा


-मनोज कुमार
शीर्षक पढ़ कर आपको शायद अच्छा न लगे किन्तु सच यही है। जो लोग जिम्मेदार हैं और जिन लोगों से प्रेरणा पाकर समाज उनका अनुसरण करता है वही लोग इस तरह के कर्म करेंगे तो कहना ही होगा कि मत रखियों अपनी बिटिया का नाम
नीरा। आइए इस बहाने ही सही एक बार नामकरण पर थोड़ी चर्चा हो ही जाए।भारतीय मानस हमेशा से चर्चित और प्रेरणा देने वालों के नाम पर अपने बच्चों का नामकरण करता आया है। भारतीय समाज में साक्षरता का प्रतिशत भले ही कम हो किन्तु समाज हमेशा से विवेकवान रहा है। जिस समय हर मंच पर नीरा राडिया और नीरा यादव की चर्चा हो रही है। अखबार के पन्नों और टेलीविजन के पर्दे पर उनकी बात कही और सुनी जा रही है तब संभव है कि कुछ माता-पिता इन नामों पर फिदा हो जाएं और जैसे होता आया है हर चर्चित नाम अपने बच्चों के कर दिये जाएं।
राम एक सर्वकालिक चरित्र हैं। चरित्रवान बच्चे की तमन्ना के साथ राम का नाम सदियों से लोग रखते आये हैं और लक्ष्मण को आज्ञाकारी भाई के रूप में देख कर उसका नाम भी स्नेहपूर्वक रखा गया है। भरत को भी समाज ने अनदेखा
नहीं किया और अनेक परिवारों में ऐसे नाम रखे गये। समय समय पर इतिहास में नाम दर्ज कराने वाले व्यक्तियों के नाम भी अनेक परिवारों में दर्ज हो गये। भारतीय समाज विवेकवान है इसलिये उसे राम, लक्ष्मण, भरत, सीता, पार्वती, राधा, कृष्ण नाम रखने में कभी संकोच नहीं हुआ किन्तु उसने कभी अपने बच्चे का नाम विभीषण नहीं रखा। ऐतिहासिक तथ्य है कि अपने भाई से विद्रोह कर राम की मदद करने वाले विभीषण को लोग याद करते हैं किन्तु यह नहीं भूलते कि जो अपने परिवार का नहीं हुआ, अपने भाई का नहीं हुआ वह भला हमारा कैसे हो सकता है? ऐसे में उनका नाम किसी ने अपने बच्चे का नाम नहीं बनाया। आधुनिक समाज में भी गांधी और नेहरू के नाम पर हजारों बच्चे मिल जाएंगे, इंदिरा नाम की बच्चियों की तादात भी कम नहीं होगी लेकिन कानून की परिधि से बाहर जाकर काम करने वाले फूलनदेवी, मलखानसिंह और दाउद के नाम
वाले शायद ढूंढ़ने से भी न मिले। खिलाड़ियों और फिल्मस्टार के नाम पर तो लगभग हर परिवार में एक चिराग मिल जाए।
इस सिलसिले में मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के एक परिवार की घटना का उल्लेख करना सामयिक होगा। यहां एक पिता ने सानिया मिर्जा के नाम पर अपनी लाडली का नाम रख दिया। सोचा सानिया ने जैसे देश का नाम किया है वैसा ही
उसकी बेटी भविष्य में करेगी लेकिन उसे निराशा अपनी बेटी से नहीं सानिया से हुई। सानिया ने पाकिस्तानी से ब्याह का ऐलान किया। सानिया के इस फैसले से दुखी पिता ने तत्काल अपनी बेटी का नाम बदल कर सोनिया कर दिया। पिता को
इस बात का भय रहा होगा कि उसकी बेटी एक दिन अपने देश का नाम खराब न कर दें। इसे सहज और स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानी जानी चाहिए और उस व्यक्ति के देशप्रेम को सलाम किया जाना चाहिए।
हमारे देश में इन दिनों नीरा नाम पर ग्रहण लगा हुआ है। नीरा राडिया का नाम खबर की सुर्खियों से धुंधला पड़ा ही नहीं था कि एक और नीरा के कारनामे सुर्खियों में आ गये। ये दूसरी हैं नीरा यादव। नीरा यादव उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यसचिव हैं और उन्हें जमीन घोटाले के मामले में चार साल की कैद सुनायी गयी है। समाज का मूलभूत नियम तो यह कहता है कि एक शक्तिशाली एक निरीह और जरूरतमंद को अपनी तरह शक्तिशाली बनाये किन्तु अनुभव ठीक इसके विपरीत है। नीरा राडिया और नीरा यादव सशक्त स्त्रियों के रूप में सामने आयी हैं किन्तु इन दोनों महिलाओं ने स्त्रियों की दशा सुधारने में कोई प्रयास नहीं किया। समय बतायेगा कि नीरा राडिया और नीरा यादव कितनी सही और गलत थीं लेकिन आज तो यह बात साफ है कि इनकी कमाई के एजेंडे में, लाभ देने ले लोगों की सूची में पांच गरीब और असहाय महिलाएं भी होती तो समय न सही, समाज का एक वर्ग तो इन्हें माफ कर देता। इस मामले में सच तो यही है कि सशक्त और बलशाली लोगों की कौम एक अलग होती है और निशक्त: और निर्बल लोगों की एक अलग कौम। हम उम्मीद कर सकते हैं कि बार बार नीरा का नाम आ
रहा है किन्तु जिस तरह समाज ने विभीषण जैसे नामों से परहेज किया वैसा ही कुछ भाव भी इन नामों के साथ होगा।
-मनोज कुमार

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

जेपीसी से डरना आखिर जरूरी क्यों है?


डॉ. महेश परिमल
पिछले पखवाड़े से संसद ठप्प है। कोई समाधान दिखाई नहीं दे रहा है। विपक्ष अपनी जिद पर अड़ा है। सरकार अपनी ढुलमुल नीति अपनाए हुए है। सरकार को अच्छी तरह से पता है कि किसी भी हालत में विपक्ष की माँग को स्वीकार नहीं किया जा सकता। विपक्ष चाहता है कि टेलिकॉम घोटाले की जाँच संयुक्त संसदीय समिति द्वारा की जाए। पर सरकार जेपीसी से डर रही है। जेपीसी का इतिहास देखा जाए, तो यही पता चलता है कि जिसने भी जेपीसी से जाँच कराई, वह गया काम से। वह सरकार बच नहीं पाई है। फिर चाहे वे राजीव गांधी हों, या फिर नरसिम्हा राव। यही कारण है कि इस बार सरकार फूँक-फूँककर कदम रख रही है। विपक्ष है कि मानता नहीं। सरकार है कि मानना ही नहीं चाहती। संसद में रोज के हिसाब से जो करोड़ो रुपए खर्च हो रहे हैं, उसकी चिंता भी किसी को नहीं है। आखिर क्या होगा इसका अंजाम?
राजीव गांधी ने बोफोर्स मामले पर जेपीसी से जाँच कराना स्वीकार किया था। उस समय भी विपक्ष को कुछ ऐसा ही संघर्ष करना पड़ा था। उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी की हार हुई थी। इसके बाद स्टाक मार्केट कांड में नरसिम्हा राव ने भी जेपीसी की माँग स्वीकार की थी, उसके बाद वे भी चुनाव हार गए। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह जेपीसी के अध्यक्ष थे। इसीलिए वे अच्छी तरह से जानते हैं कि जेपीसी से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जेपीसी के बाद चुनाव हार गए थे।
आखिर जेपीसी में ऐसा क्या है, जिसका सामना करने में हर कोई घबराता है। वास्तविकता यह है कि जेपीसी के पास अथाह सत्ता होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह प्रधानमंत्री से भी पूछताछ कर सकती है। जेपीसी के सभी सदस्यों की संख्या सीटों के आधार पर तय होती है। पूरी तरह से राजनीति का केंद्र बिंदु होने के कारण इनकी सारी गतिविधियों की जानकारी मीडिया में आते रहती है, इससे सरकार की छवि खराब होती है। प्रधानमंत्री यह जानते हैं, इसलिए वे जेपीसी के अलावा अन्य कोई भी एजेंसी से जाँच कराने को तैयार हैं। पर विपक्ष मानने को तैयार ही नहीं है। विपक्ष को मनाने की प्रणव मुखर्जी की सारी कोशिशें भी नाकाम हो गई हैं। विपक्ष अपनी जिद छोड़ दे, उनके इस बयान को भी तरजीह नहीं दी जा सकती। क्योंकि स्पेक्ट्रम टू जी घोटाले में अभी बहुत कुछ सामने आना बाकी है।
अब बात यहाँ पर आकर अटक गई है कि यदि डॉ. मनमोहन सिंह यह मानते हैं कि उनकी सरकार पूरी तरह से निर्दोष है, तो उन्हें जेपीसी से डरना नहीं चाहिए। पर स्पेक्ट्रम घोटाले में क्या-क्या हुआ, यह भी प्रधानमंत्री अच्छी तरह से जानते हैं। इस घोटाले में वे भले ही प्रत्यक्ष रूप से न जुड़े हो, पर सच तो यह है कि कॉमनवेल्थ गेम के बाद हुए स्पेक्ट्रम घोटाले और आदर्श घोटाले में फँसने के बाद कांग्रेस ने विजिलेंस कमिoAर थॉमस की बलि देना स्वीकार कर लिया है, पर सच तो यह है कि इस छोैटी सी बलि से आखिर क्या होगा? इससे विवाद का यह दावानल शांत तो नहीं हो सकता।
सरकार को आखिर जवाब तो देना ही होगा। घोटाला कोई छोटा-मोटा नहीं है। अरबों के इस घोटाले के पीछे की विवशता भी सामने आनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले पर सख्त नाराज है। उसकी सख्ती के आगे सरकार कुछ न कर पाने के लिए पूरी तरह से विवश है। पर लोग तो जानना चाहते हैं कि आखिर इतना बड़ा घोैटाला हो कैसे गया? आखिर वह धन तो जनता का ही है। जनता जवाब माँगे या न माँगे, पर भाजपा को तो यह एक मुद्दा ही मिल गया। जनता की पार्टी होने का लाभ लेते हुए वह भी अब अड़ गई है। उसे मालूम है कि जेपीसी के बाद सत्ता उसके हाथ में आनी ही है। ये मौका चूक गए, तो फिर भविष्य में ऐसा मौका शायद ही मिले, जिसमें सरकार को आड़े हाथों लिया जा सके।
डा. मनमोहन सिंह ने इस देश के प्रधानमंत्री है कोई कुटिया में बैठे भागवत भजन करने वाले साधु नही कि हर बात को हरि -इच्छा पर छोड़ कर देश की सरकार चलाते रहे और अपने ईमानदार होने का सबूत देते रहे। यह किसी ईमानदारी है जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे एक अफसर को देश का मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाने के लिए मजबूर करती है ? या कैसी ईमानदारी है जो अपने ही मंत्रीमंडल के एक मंत्री यह नही कह पाती कि 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइंसेस तो बांटो मगर ज़रा यह भी ध्यान कर लो कि इसमें देश को कोई नुकसान ना हो । यह कैसी ईमानदारी है जो परमाणु दायित्व विधेयक को झटके में संसद में पारित कराने की कोशिश करती है और जब इस पर विवाद उठता है तो इस विधेयक में संशोधन कर दिया जाता है ? इस विधेयक को पारित कराते समय संसद को विश्वास दिलाया जाता है कि परमाणु हादसे होने पर मुआवजे के निपटारे के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय संधि से जुड़ने की कोई जल्दी नही है मगर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा के भारत आने से पहले ही विएना में इस संधि पर भारत हस्ताक्षर कर देता है ? क्या ईमानदारी यह होती है कि राष्ट्र मंडल खेल आयोजन के नाम पर रोज नए-नए घोटाले उजागर होते रहे और प्रधानमंत्री इनके खत्म होने के बाद एक जांच समिति का गठन कर दे ? क्या ईमानदारी यह होती है कि Rिकेट के नाम पर आईपीएल की कोच्ची टीम को खरीदने के लिए उसके ही मंत्रीमंडल का का सदस्य बीच रास्ते में ही पकड़ लिया जाए ? क्या ईमानदारी इसे कहते है कि भारी संसद में जब उसके ही मंत्रिमंडल का सदस्य 2-जी लाईसेंस घोटाले पर विपक्षी सांसदों से यह कहे कि मुझे क्यों पकड़ते हो, मैंने तो सारा काम अपने सरपरस्त प्रधानमंत्री की जानकारी में ला कर ही किया है और प्रधानमंत्री चुपचाप बैठा रहे ? हकीकत ये है कि डा.मनमोहन सिंह के रूप में कांग्रेस पार्टी के खानदानी राज को एक ऐसा मोहरा मिल गया है जो उसका उपयोग मनचाही जगह पर जैसे चाहे वैसे कर सकता है। पर जवाब तो देना ही होगा? फिर चाहे वह चुनाव हारकर ही क्यों न देना पड़े।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

मन के परेशान न होने का मंत्र~




गिरीश बख्‍शी की सामयिक मुस्‍कान

खूब खिन्न होकर
बानी बोले गजाधर
क्या घर और क्या बाहर
मेरे मन का
कही होता ही नही है
तो मन परेशान हो जाता है
यह सही है
घर मै wife से कहता हु
आज भिन्डी बनाना
तो वह परवल बना देती है
मेरे मन को भी वह
seriously नही लेती
कहो तो तमक कर
हो जाती है नाराज
अब बाहर का किस्सा सुनो
क्या हुआ आज
मेरा मन दूर तक
घूमने जाने का था
पर मिल चौक पर मिल गया रामलाल
वह मुझे घसीट कर ले गया
पिक्चर हॉल

गजाधर मुस्कराये बोले
बानी
अपने मन को यु परेशान
मत कीजिये
महानायक अमिताभ बच्चन की
बात पर आप मन से ध्यान दीजिये
उनके बाबूजी
उनसे कहा करते थे कि
"मन का हुआ तो अच्छा
और न हो तो
और भी अच्छा"

]गिरीश बक्शी
राजनांदगॉंव

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

जो जीता वहीं सिकंदर यानी अब नीतिश और सिर्फ नीतिश



मनोज कुमार

यह माना हुआ सच है कि जो जीता वही सिकंदर और इस अर्थ में इस समय नीतिश-कुमार सिकंदर बन गये हैं। बिहार में उन्होंने जो तूफानी जीत हासिल की है-उसने उन्हें भारतीय राजनीति का सिरमौर बना दिया है। भारतीय राजनीति,-खासतौर पर क्षेत्रीय दलों के लिये वे नये रोल मॉडल के रूप में उभरे हैं।-बिहार चुनाव जीतने में उन्होंने किस तरह की रणनीति अपनायी और वे उसमें-सफल रहे, इस बात की मीमांसा की जा रही है। यह तो तय है कि ऐसी जीत बिहार-में नीतिश कुमार को नहीं मिली होती तो आज उनका कोई नामलेवा नहीं होता और-लालूप्रसाद यादव सिरमौर होते। कभी यही हाल लालू प्रसाद का हुआ करता था और-उनकी लोकलुभावन शैली प्रादेशिक राजनीति की दिशा बदल दिया करती थी।---भारतीय राजनीति में, खासतौर पर प्रादेशिक राजनीति में पिछले दो दशकों में-काफी परिवर्तन देखने को मिला है। एक समय था जब समूचे दलों के लिये-प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गुजरात के नरेन्द्र मोदी रोल मॉडल बन गये
थे। उनके हिन्दुत्व का एजेंडा सबको लुभा रहा था। सत्ता के लिये हिन्दुत्व-का कार्ड सहज और सरल रास्ता था। गुजरात के बाद उत्तरप्रदेश और बिहार में-जाति का कार्ड खेला गया। नीतिश कुमार इसी रास्ते से सत्ता में आये थे और-मायावती इसी रास्ते से सत्तासीन हैं।
मोदी जिस हालात में लगातार गुजरात की सत्ता में बने रहे तो राजनीति में-उनकी अलग पहचान बन गयी किन्तु मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब भारतीय जनता-पार्टी ने दुबारा सत्ता सम्हाली तो हिन्दुत्व और जातिवाद से परे होकर-विकास का मुद्दा सामने आया। इस बार छत्तीसगढ़ के डाक्टर रमनसिंह और-मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान विकास के रोल मॉडल बन गये।-प्रादेशिक राजनीति के ये नये ब्रांड एम्बेसडर बन गये। छत्तीसगढ़ नया राज्य-है और इस लिहाज से यह माना गया कि कांग्रेस के विकास के प्रति उपेक्षा ने-उन्हें सत्ता में आने नहीं दिया किन्तु मध्यप्रदेश में भाजपा के लिये ऐसा-कोई कारण नहीं था। दस बरस के कांग्रेस के कार्यकाल में दिग्विजयसिंह के-राज में विकास को पीछे धकलने का आरोप लगा और वे सत्ता से बाहर हो गये-किन्तु भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में लौटी और आरंभ के दो बरस में दो-मुख्यमंत्री बदल दिये गये। विकास का मुद्दा तब भी हाशिये पर था और-शिवराजसिंह तीसरे मुख्यमंत्री बने। पहली बार भाजपा और मध्यप्रदेश में-गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह को लगातार तीन वर्ष काम करने का अवसर मिला। इस तीन वर्ष में शिवराजसिंह ने महिलाओं, आदिवासियों-और किसानों के लिये कुछ काम करने की कोशिश की। राज्य में पूर्व की तरह-बिजली, पानी, सड़क आदि की समस्या का कोई बड़ा हल नहीं निकला था किन्तु-शिवराजसिंह ने अपनी जीत दर्ज करा दी। लगभग यही स्थिति छत्तीसगढ़ में थी।-बावजूद के दोनों राज्यों में भाजपा को मिली जीत को विकास की जीत कहा गया।---बिहार में जो जीत नीतिश कुमार को मिली है वह मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का-दुहराव है। कल तक विश्लेषक बिहार की स्थिति को बहुत संतोषजनक नहीं बता-रहे थे और नीतिश की वापसी पर भी एकराय नहीं थे किन्तु स्थितियां बदली और-नीतिश कुमार के पक्ष में हवा बहने लगी। लालू यादव किनारे कर दिये गये।-बिहार में नीतिश कुमार की सरकार लौट आयी और एक बार फिर विश्लेषकों ने इसे-विकास की जीत कहा। वैसा ही जैसा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की-वापसी पर कहा गया था।---यह हो सकता है कि यह जीत विकास की हो किन्तु मेरा मानना है कि यह जीत-विकास की न होकर बल्कि विकास को परखने की जीत है। एक नजर से देखें तो अब-मतदाता इस बात के लिये तैयार नहीं हैं कि पांच बरस में सरकार बदल दें और-आने वाली नयी सरकार फिर से प्रदेश को प्रयोगशाला बना दें। पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं को तो थोड़ा बदला जाता है किन्तु उन योजनाओं के नाम-बदलने पर करोड़ों रुपये और वक्त जाया करते हैं। शायद इस दृष्टि से अब-मतदाता ने मन बना लिया है कि कम से कम दो कार्यकाल तो एक सरकार को मिले-ताकि उनके द्वारा पहले पांच वर्ष में आरंभ किये गये कार्याें को एक मुकाम-तो मिल सके। इन योजनाओं का परिणाम आमजनता देख सके और वह फिर तय करें कि-इस सरकार को तीसरा मौका दिया जाना चाहिए या नहीं।---इस बात को इस तर्क के साथ देखा जा सकता है कि दिल्ली की कांग्रेस सरकार-को क्यों मौका मिला? अनेक किस्म की शिकायतें और गुस्सा होने के बावजूद-कांग्रेस की जीत का यही एक कारण हो सकता है। पश्चिम बंगाल में तीन तीन-बार सरकार का चुना जाना आम आदमी के मन में सरकार के प्रति वि•ाास का होना-ही है। आगामी दो हजार तेरह में जब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और इनके-साथ जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है वहां सरकार की परीक्षा होगी।-विकास कार्याें को आम आदमी जांचेगा और तय है कि खरा नहीं उतरने पर-सरकारें बदल दी जाएंगी। मीडिया ने आम आदमी को शिक्षित कर दिया है। कंबल-और नोट बांटकर सरकारें बनाने के दिन अब लदते दिख रहे हैं। बदलाव की यह-सूरत एकाएक नहीं है। चौंसठ वर्ष की आजादी के बाद यह सूरत देखने को मिली-है। सूरत तो बदल रही है किन्तु एकाएक किसी राज्य में सरकार की जीत को रोल-मॉडल मान कर उसे दोहराने की कोशिश राजनीति दलों को भारी पड़ सकती है।
स्थितियों और परिस्थितियों पर राजनीति दलों की हार-जीत तय होती है न कि-एक राज्य की जीत पर दूसरे राज्य की जीत। बहरहाल, अभी तो जयकारा हो रही है-बिहार की और मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की।
मनोज कुमार

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

सरकार को समर्थन देने की कीमत 1,76,000 करोड़ रुपए



ए जी, ओ जी, टू जी यानी करुणानिधि और ए. राजा

डॉ. महेश परिमल

अपने आप को भ्रष्टाचार से दूर रखने का दंभ भरने वाली कांग्रेस जितना इस दलदल से निकलने की कोशिश कर रही है, वह उतनी ही अधिक घँसती जा रही है। कॉमनवेल्थ गेम में 80,000 करोड़, आदर्श सोसायटी घोटाले में 800 करोड़ और इन आँकड़ों को पार करता हुआ 1,76,000 करोड़ का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, इन सारे रुपयों से देश के दो करोड़ गरीबों के लिए पक्के मकान बनाए जा सकते थे।

कांग्रेस भ्रष्टाचार से मुक्त होने के लिए जितने भी हाथ-पैर मार रही है, वह उतना ही अधिक उसमें उलझती जा रही है। आदर्श हाऊसिंग सोसायटी के मामले में तो उसने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि यह राज्य का मामला है। कॉमनवेल्थ गेम की तैयारी के दौरान हुए निर्माण कार्यो में हुई लापरवाही और उससे जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में सुरेश कलमाड़ी का विकेट झटककर उसने यह बताने की कोशिश अवश्य की कि वह भ्रष्टाचार को लेकर सचेत है और उसे कदापि बर्दाश्त नहीं करेगी। इस क्रम में आखिर संचार मंत्री ए. राजा की विदाई हो ही गई। किंतु उनके इस्तीफे मात्र से सरकार यह न समझे कि उसका कर्तव्य पूरा हो गया, तो यह गलत है। पूरे देश में स्पेक्ट्रम घोटाले की गूँज सुनाई दे रही है। लगातार तीन वर्ष तक यह घोटाला चलता रहा, प्रधानमंत्री की विवशता का पूरा फायदा करुणानिधि ने उठाया। डॉ. मनमोहन की अपनी सदाशयता के कारण कुछ नहीं कर पाए। उन्हें भी डर था कि इस मामले को अधिक छेड़ा गया, तो सरकार मुश्किल में पड़ जाएगी। वैसे भी सरकार पर कम दबाव नहीं थे। जयललिता ने भी अपने होने का अहसास केंद्र सरकार को करा ही दिया। जयललिता की गुगली ने ही केंद्र सरकार को सक्रिय किया। कांग्रेस ने अपनी बॉल करुणानिधि के पाले में डालकर यह समझ रही है कि उसने अपने कर्तव्य पूरा किया। करुणानिधि को मनाने के लिए कांग्रेस को खासी मशक्कत करनी पड़ी। सत्ता को बचाए रखने के लिए आखिर क्या-क्या करना पड़ता है, यह इस मामले में साफ देखा जा सकता है। ए. राजा ने जो कुछ किया, उससे कांग्रेस किसी भी रूप में अलग नहीं हो सकती। राजा ने जिस तरह से बेखौफ होकर पूरा घोटाला किया, उसके लिए कांग्रेस को आज नहीं तो कल जवाब देना ही होगा।
सवाल यह उठता है कि पिछले साल जब संसद में पूरे सुबूत के साथ ए. राजा के खिलाफ आरोप लगाए गए थे, तब भी सरकार सचेत नहीं हुई। आखिर इसका क्या कारण है? फिर अब सरकार कह रही है कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच का सवाल ही नहीं उठता। आखिर सराकर कर क्या रही है? एक के बाद एक घोटाले होते रहे, सरकार का धन रसूखदारों की जेब में जाता रहे, समर्थन के नाम पर जो चाहें कर लें, ऐसा केवल भारतीय राजनीति में ही हो सकता है। इस पूरे मामले में सरकार की नीयत साफ दिखाई नहीं दे रही है। अगर वह सचमुच भ्रष्टाचार को दूर करना चाहती है, तो उसे स्वयं से पहल करनी होगी। पूरे स्पेक्ट्रम आवंटन को ही रद्द कर दिया जाना चाहिए। फिर से निविदा बुलाई जानी चाहिए। इससे सरकार की छवि साफ ही होगी।
आखिर ए. राजा को करुणानिधि इतना अधिक प्रेम क्यों करते हैं? 1,76,000 करोड़ का घोटाला कोई छोटी-सी बात नहीं है। टेलीकॉम घोटाले में ए. राजा की मिलीभगत के मामले में जब ‘केग’ की रिपोर्ट आई,उसके पहले सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले में ढिलाई बरतने के कारण सीबीआई को लताड़ा था। उधर कांग्रेस ने आदर्श सोसायटी के मामले में बिना किसी जाँच रिपोर्ट की प्रतीक्षा किए बिना उससे इस्तीफा ले लिया, पर इस मामले में कांग्रेस ने इतना विलम्ब क्यों किया? यह एक शोध का विषय हो सकता है। ए. राजा के बारे में यह कहा जाता है कि वे तमिलनाड़ में डीएमके के दलित चेहरे हैं। अगले साल तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसमें राजा के कारण काफी वोट मिल सकते हैं। ऐसे में उनसे इस्तीफा ले लेने से करुणानिधि को एक झटका ही लगा है। उधर जयललिता और करुणानिधि की दुश्मनी जगजाहिर है। दोनों ही परस्पर नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हैं। इस बार जयललिता ने स्पष्ट कह दिया कि यदि करुणानिधि केंद्र से अपना समर्थन वापस ले लेते हैं, तो वे अपना समर्थन देने को तैयार है। ज्ञातव्य है कि दोनों के पास ही 18-18 सांसद हैं।
ए. राजा ने जिस तरह से एक मंत्री के नाते अरबों रुपए का घोटाला किया, उससे स्पष्ट है कि यह राशि उन्होंने अकेले नहीं डकारी। इसे सभी स्वीकारते हैं। तमिलनाडु में तो करुणानिधि के बिना पत्ता भी नहीं खड़क सकता, तो फिर यह राजा अकेले इतनी बड़ी राशि हजम कर ही नहीं सकते। पहली बार जब यूपीए ने दिल्ली में सरकार बनाई, तब दूरसंचार विभाग दयानिधि मारन को दिया गया था। बाद में दयानिधि की करुणानिधि में नहीं बनी, इसलिए यह पद ए. राजा को दिया गया। इसके बाद ए. राजा ने 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी धांधली करते हुए एक चालाकी यह की कि इससे संबंधित कुछ फाइलंे प्रधानमंत्री के पास भेज दीं। यही फाइलें ही कांग्रेस की चिंता का कारण हंै।
जब यह टेलीफोन कांड हुआ, तब केंद्र में यूपीए 1 की सरकार थी। इसमें ए. राजा दूरसंचार मंत्री थे। इसके बाद पिछले वर्ष ही चुनाव हुए और यूपीए 2 की सरकार बनी। इस समय यह चर्चा थी कि ए. राजा को दूरसंचार मंत्री का पद नहीं दिया जाएगा। किंतु करुणानिधि ने जिद की कि राजा को ही दूरसंचार मंत्रालय दिया जाए। प्रधानमंत्री ने सरकार को बनाए रखने के लिए आखिर करुणानिधि की जिद पूरी कर दी। इस पूरे घोटाले पर अंतिम कील ठोकने का काम किया, केग की रिपोर्ट ने। रिपोर्ट में कुल सात मामलों में ए. राजा को दोषी ठहराया गया। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि सन् 2008 में 2 जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में जो भाव तय किए गए, वे सन् 2001 में प्रवर्तमान भावों के आधार पर किए गए। इस कारण सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। यह राशि दिल्ली और तमिलनाडु के रसूखदारों में बँट गई। केग के अनुसार 2 जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में वित्त मंत्रालय और कानून मंत्रालय द्वारा ए. राजा को जो सलाह दी, उसकी पूरी तरह से अवहेलना की गई। यही नहीं दूसरसंचार विभाग ने इस संबंध में जो अपने नियम-कायदे बनाए थे, उसे भी भंग किया गया। 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए आवेदन करने की आखिरी तारीख दूरसंचार विभाग द्वारा तय की गई थी। इस तारीख में कुछ विशेष लोगों को लाभ दिलाने के लिए फेरफार किया गया। इस संबंध में जो आवेदन पहले प्राप्त हुआ है, उसे पहले आवंटन करने के नियम को भी भंग किया गया है। इस कारण बाद में जिन्होंने आवेदन किए, उन्हें काफी फायदा हुआ। इस आवंटन में पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव था। साथ ही इसके लिए केबिनेट की मंजूरी लेना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
एक नजर ए. राजा के व्यक्तित्व की एक झलक
48 वर्ष के ए. राजा कुछ समय पहले तक तमिलनाडु के एक गाँव में वकालत करते थे। दलित होना उनके लिए फायदेमंद रहा। धीरे-धीरे वे आगे बढ़ते रहे। पहले राज्य की राजनीति में सक्रिय हुए। फिर केंद्र की राजनीति में आए। इस दौरान उनकी छवि भ्रष्ट राजनीतिज्ञ की हो गई। कुछ समय पहले ही उन्होंने चेन्नई में हाईकोर्ट जज को फोन करके यह आदेश दिया कि एक मामले में उनके परिचित के पक्ष में फैसला दिया जाए।
डॉ. महेश परिमल

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