शनिवार, 4 दिसंबर 2010

जेपीसी से डरना आखिर जरूरी क्यों है?


डॉ. महेश परिमल
पिछले पखवाड़े से संसद ठप्प है। कोई समाधान दिखाई नहीं दे रहा है। विपक्ष अपनी जिद पर अड़ा है। सरकार अपनी ढुलमुल नीति अपनाए हुए है। सरकार को अच्छी तरह से पता है कि किसी भी हालत में विपक्ष की माँग को स्वीकार नहीं किया जा सकता। विपक्ष चाहता है कि टेलिकॉम घोटाले की जाँच संयुक्त संसदीय समिति द्वारा की जाए। पर सरकार जेपीसी से डर रही है। जेपीसी का इतिहास देखा जाए, तो यही पता चलता है कि जिसने भी जेपीसी से जाँच कराई, वह गया काम से। वह सरकार बच नहीं पाई है। फिर चाहे वे राजीव गांधी हों, या फिर नरसिम्हा राव। यही कारण है कि इस बार सरकार फूँक-फूँककर कदम रख रही है। विपक्ष है कि मानता नहीं। सरकार है कि मानना ही नहीं चाहती। संसद में रोज के हिसाब से जो करोड़ो रुपए खर्च हो रहे हैं, उसकी चिंता भी किसी को नहीं है। आखिर क्या होगा इसका अंजाम?
राजीव गांधी ने बोफोर्स मामले पर जेपीसी से जाँच कराना स्वीकार किया था। उस समय भी विपक्ष को कुछ ऐसा ही संघर्ष करना पड़ा था। उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी की हार हुई थी। इसके बाद स्टाक मार्केट कांड में नरसिम्हा राव ने भी जेपीसी की माँग स्वीकार की थी, उसके बाद वे भी चुनाव हार गए। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह जेपीसी के अध्यक्ष थे। इसीलिए वे अच्छी तरह से जानते हैं कि जेपीसी से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जेपीसी के बाद चुनाव हार गए थे।
आखिर जेपीसी में ऐसा क्या है, जिसका सामना करने में हर कोई घबराता है। वास्तविकता यह है कि जेपीसी के पास अथाह सत्ता होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह प्रधानमंत्री से भी पूछताछ कर सकती है। जेपीसी के सभी सदस्यों की संख्या सीटों के आधार पर तय होती है। पूरी तरह से राजनीति का केंद्र बिंदु होने के कारण इनकी सारी गतिविधियों की जानकारी मीडिया में आते रहती है, इससे सरकार की छवि खराब होती है। प्रधानमंत्री यह जानते हैं, इसलिए वे जेपीसी के अलावा अन्य कोई भी एजेंसी से जाँच कराने को तैयार हैं। पर विपक्ष मानने को तैयार ही नहीं है। विपक्ष को मनाने की प्रणव मुखर्जी की सारी कोशिशें भी नाकाम हो गई हैं। विपक्ष अपनी जिद छोड़ दे, उनके इस बयान को भी तरजीह नहीं दी जा सकती। क्योंकि स्पेक्ट्रम टू जी घोटाले में अभी बहुत कुछ सामने आना बाकी है।
अब बात यहाँ पर आकर अटक गई है कि यदि डॉ. मनमोहन सिंह यह मानते हैं कि उनकी सरकार पूरी तरह से निर्दोष है, तो उन्हें जेपीसी से डरना नहीं चाहिए। पर स्पेक्ट्रम घोटाले में क्या-क्या हुआ, यह भी प्रधानमंत्री अच्छी तरह से जानते हैं। इस घोटाले में वे भले ही प्रत्यक्ष रूप से न जुड़े हो, पर सच तो यह है कि कॉमनवेल्थ गेम के बाद हुए स्पेक्ट्रम घोटाले और आदर्श घोटाले में फँसने के बाद कांग्रेस ने विजिलेंस कमिoAर थॉमस की बलि देना स्वीकार कर लिया है, पर सच तो यह है कि इस छोैटी सी बलि से आखिर क्या होगा? इससे विवाद का यह दावानल शांत तो नहीं हो सकता।
सरकार को आखिर जवाब तो देना ही होगा। घोटाला कोई छोटा-मोटा नहीं है। अरबों के इस घोटाले के पीछे की विवशता भी सामने आनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले पर सख्त नाराज है। उसकी सख्ती के आगे सरकार कुछ न कर पाने के लिए पूरी तरह से विवश है। पर लोग तो जानना चाहते हैं कि आखिर इतना बड़ा घोैटाला हो कैसे गया? आखिर वह धन तो जनता का ही है। जनता जवाब माँगे या न माँगे, पर भाजपा को तो यह एक मुद्दा ही मिल गया। जनता की पार्टी होने का लाभ लेते हुए वह भी अब अड़ गई है। उसे मालूम है कि जेपीसी के बाद सत्ता उसके हाथ में आनी ही है। ये मौका चूक गए, तो फिर भविष्य में ऐसा मौका शायद ही मिले, जिसमें सरकार को आड़े हाथों लिया जा सके।
डा. मनमोहन सिंह ने इस देश के प्रधानमंत्री है कोई कुटिया में बैठे भागवत भजन करने वाले साधु नही कि हर बात को हरि -इच्छा पर छोड़ कर देश की सरकार चलाते रहे और अपने ईमानदार होने का सबूत देते रहे। यह किसी ईमानदारी है जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे एक अफसर को देश का मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाने के लिए मजबूर करती है ? या कैसी ईमानदारी है जो अपने ही मंत्रीमंडल के एक मंत्री यह नही कह पाती कि 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइंसेस तो बांटो मगर ज़रा यह भी ध्यान कर लो कि इसमें देश को कोई नुकसान ना हो । यह कैसी ईमानदारी है जो परमाणु दायित्व विधेयक को झटके में संसद में पारित कराने की कोशिश करती है और जब इस पर विवाद उठता है तो इस विधेयक में संशोधन कर दिया जाता है ? इस विधेयक को पारित कराते समय संसद को विश्वास दिलाया जाता है कि परमाणु हादसे होने पर मुआवजे के निपटारे के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय संधि से जुड़ने की कोई जल्दी नही है मगर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा के भारत आने से पहले ही विएना में इस संधि पर भारत हस्ताक्षर कर देता है ? क्या ईमानदारी यह होती है कि राष्ट्र मंडल खेल आयोजन के नाम पर रोज नए-नए घोटाले उजागर होते रहे और प्रधानमंत्री इनके खत्म होने के बाद एक जांच समिति का गठन कर दे ? क्या ईमानदारी यह होती है कि Rिकेट के नाम पर आईपीएल की कोच्ची टीम को खरीदने के लिए उसके ही मंत्रीमंडल का का सदस्य बीच रास्ते में ही पकड़ लिया जाए ? क्या ईमानदारी इसे कहते है कि भारी संसद में जब उसके ही मंत्रिमंडल का सदस्य 2-जी लाईसेंस घोटाले पर विपक्षी सांसदों से यह कहे कि मुझे क्यों पकड़ते हो, मैंने तो सारा काम अपने सरपरस्त प्रधानमंत्री की जानकारी में ला कर ही किया है और प्रधानमंत्री चुपचाप बैठा रहे ? हकीकत ये है कि डा.मनमोहन सिंह के रूप में कांग्रेस पार्टी के खानदानी राज को एक ऐसा मोहरा मिल गया है जो उसका उपयोग मनचाही जगह पर जैसे चाहे वैसे कर सकता है। पर जवाब तो देना ही होगा? फिर चाहे वह चुनाव हारकर ही क्यों न देना पड़े।
डॉ. महेश परिमल

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