मंगलवार, 29 मार्च 2011

कुछ ही दिनों का मेहमान होता है




दैनिक भास्‍कर के सभी सस्‍करणों में 24 मार्च को एक साथ प्रकाशित

मंगलवार, 22 मार्च 2011

कोई काम न आई सुप्रीमकोर्ट की लताड़: हसन अली जमानत पर रिहा

डॉ. महेश परिमल
आखिर देश के कानून को धता बताते हुए हसन अली खान जमानत पर रिहा हो ही गया। यह हमारी लचर कानून व्यवस्था का इस सदी का सबसे बड़ा उदाहरण है। सभी जानते हैं कि हसन अली एक अपराधी है, उसने अपराध किया है, लेकिन हम हैं कि उसके खिलाफ सुबूत इकट्ठा नहीं कर पाते। यह सच है कि संरक्षण के बिना कोई भी अपराध पनप नहीं सकता है। जितना बड़ा संरक्षण, उतना बड़ा अपराध। हसन अली के सर पर निश्चित रूप से किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती का हाथ है, इसलिए वह कानून से भी खेल जाने में देर नहीं करता। अभी तक इस देश में जितने भी घोटाले हुए हैं, सभी में राजनीतिक संरक्षण प्राप्तर रहा है। बिना इसके कोई भी असंवैधानिक काम हो ही नहीं सकता। राजनीति ने देश की जड़ों को खोखला कर दिया है। इसलिए हसन अली जैसे लोगों के सरमायादार कभी कानून के हाथ नहीं आएँगे, यह तय है। पर आखिर जनता कब तक ऐसा होते हुए देख पाएगी? कभी तो आक्रोश का ज्वालामुखी फटेगा? तब इन राजनीतिज्ञों को कौन सँभालेगा? कभी सोचा है इन्होंने? सुप्रीमकोर्ट बार-बार लताड़ रही है, पर हमारे देश के कर्णाधारों के कानों में जूँ तक नहीं रेंग रही है। कितनी मोटी खाल है? सब कुछ जानते हुए भी ये अनजान हैं। देश की इज्जत खाक में मिल रही है। लोग देश को लूटने मे किसी भी तरह से बाज नहीं आ रहे हैं। ऐसे अपराधियों के खिलाफ जो कुछ करना चाहिए, उसे होने में काफी वक्त लग जाता है। तब तक अपराधी अपने खिलाफ आने वाले सभी सुबूतों को खत्म करवा देता है। एक तरह से काम में देरी का आशय यही हुआ कि अपराधी को पूरा मौका दिया जाए, अपने खिलाफ तमाम सुबूतों को खत्म करने का। फिर कानून का सहारा देकर उसे बेदाग बरी करवा देना। शायद अब यही हो गया है कानून के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करने का एक जरिया।
एक आदमी लगातार अपराध करता रहे। उसके खिलाफ अपराध विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज होता भी रहे। इसके बाद भी वह बरसों तक आजाद घूमता रहे। ऐसा केवल हमारे देश में ही हो सकता है। जी हाँ हसन अली खान के मामले में तो यही कहा जा सकता है। स्वतंत्र भारत में ऐसा मामला अभी तक नहीं आया। सरकार कितनी भी कोशिश कर ले, यह तय है कि एक दिन हसन अली कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए विदेश भाग जाएगा। फिर उसे वापस लाने की सारी कोशिशें नाकाम हो जाएँगी। विदेश भी वह हमारे राजनीतिक आकाओं के संरक्षण में ही भागेगा। क्योकि उसका भारत में रहना ही कई चेहरों के बेनकाब होने का सबब बन सकता है। ये वे सफेदपोश चेहरे हैं कि जो हमारे लिए जाने-पहचाने हैं लेकिन अपराध की दुनिया के सरगना हैं। वे ऐसे एक नहीं अनेक हसन अली जेसे लोगों को पालते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।
आइए जानें, हसन अली का इतिहास। हसन अली हैदराबाद में तैनात रहे एक एक्साइज अफसर का बेटा है। हसन ने अपने शुरुआती दिनों में पुरानी चीजें बेचने सहित कई तरह के धंधे किए। हसन अली दावा करता है कि वह हैदराबाद के निजाम के खानदान से ताल्लुक रखता है। घुड़दौड़ के कारोबार की दुनिया से वह 1990 की शुरुआत में हैदराबाद में रहने के दौरान जुड़ा। बाद में इसी कारोबार से जुड़े रहते हुए उसने मुंबई, पुणो और अन्य शहरों की ओर रुख किया। वह रहीमा से शादी करने के बाद पुणो जाकर बस गया। देश के किसी भी कोने में कहीं भी होने वाली घुड़दौड़ में अक्सर दोनों साथ नजर आते थे। बताया जाता है कि उसने अपनी पहली पत्नी को तलाक दे दिया है, जिसके साथ वह हैदराबाद में रहता था।
5 साल पहले पड़ा था छापा
हसन अली का नाम पहली बार सुर्खियों में पांच साल पहले तब आया जब आयकर विभाग ने पुणो में कोरेगांव पार्क स्थित उसके घर पर छापा मारा। गुप्तचर एजेंसियाँ हसन अली पर एक अर्से से नजर गड़ाए बैठी थीं। एक टेलीफोन वार्ता गुप्तचर एजंसियों ने टेप की थी, जिसमें हसन अली यूनियन बैंक आफ स्विट्जरलैंड के अपने पोर्टफोलियो मैनेजर से बात कर रहा था। उस पोर्टफोलियो मैनेजर से जितनी बड़ी रकम की ट्रांसफर की बात सुनी गई, उससे टेलीफोन सुनने वाले चकरा गए। टेलीफोन वार्ता को गुप्तचर एजेंसियों की मानीटरिंग एजेंसी को सौंपा गया। अधिकारियों की समझ में नहीं आ रहा था कि हसन अली पर हाथ डाला कैसे जाए? निर्णय किया गया कि आयकर विभाग हसन अली के घर छापा मारेगा। आयकर अधिकारी जब हसन अली के घर पर छापा मारने पहुंचे तो एक मध्यमवर्गीय परिवार के मकान में 8.04 बिलियन डॉलर (करीब 38 हजार करोड़ रुपए) यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड (यूबीएस बैंक) में जमा होने के दस्तावेज मिले। आयकर विभाग के इस छापे के बाद पहली बार हसन अली का नाम सुर्खियों में आया। इसके बाद विदेशी धन के स्रोतों की जांच की अभ्यस्त एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय ने जांच शुरू की, लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हो गया कि वे हसन अली की ऐसी अंधी गली में प्रवेश कर गए हैं जिसका कोई अंत नहीं है। एक सीमा से आगे जाने के उनके सारे रास्ते बंद नजर आने लगे, क्योंकि हसन अली के बड़े-बड़े नेताओं से संबंध हैं। आयकर विभाग भी इस जांच को न तो जारी रख पा रहा था और न ही बंद कर पा रहा था। आयकर नियमावली ऐसी है कि छापे के दौरान आयकर विभाग जब कागजात जब्त करता है, तो वह तब तक फाइल बंद नहीं कर सकता जब तक कि संबंधित व्यक्ति खुद यह साबित न कर दे कि उसके यहां मिले कागज अर्थहीन हैं। अगर संबंधित व्यक्ति यह साबित नहीं सकता है तो उसके खिलाफ आयकर विभाग कार्रवाई करने के लिए बाध्य होता है। इसलिए आयकर विभाग ने हसन अली के पास से बरामद दस्तावेज के आधार पर उसके खिलाफ करीब 40 हजार करोड़ रुपए का कर बकाया होने का नोटिस जारी किया।
हसन अली के खिलाफ जांच तो 2007 से ही चल रही है, लेकिन इस मामले में तेजी पिछले सप्ताह से आई है, जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई। दूसरी तरफ, हसन अली के लिए 14 दिन की रिमांड मांग रहे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को बुधवार को अदालत की कड़ी फटकार सुननी पड़ी। ईडी ने सोमवार को हसन अली को उसके पुणो स्थित घर से हिरासत में लिया। इसके बाद उसी रात मुंबई में पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया था, तब से अब तक उसे दो बार जज तहलियानी के सामने पेश किया जा चुका है। तहलियानी ने बुधवार को प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्डरिंग (अवैध धन को वैध बनाने) की धारा-44 के तहत मामले की सुनवाई शुरू की तो ईडी की वकील नीति पुंडे अपने तकोर्ं से अदालत को सहमत नहीं कर पाईं। इस पर तहलियानी ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि आप कोई भी मामला बनाने में सक्षम नहीं हैं और चाहते हैं कि मैं आपको सुनूं। आप आरोपी की क्यों रिमांड चाहते हैं। आप अली के खिलाफ एक आरोप पुष्ट करें, मैं रिमांड दे दूंगा।
क्या हैं ईडी के पास सबूत
प्रवर्तन निदेशालय ने जनवरी 2007 में दायर केस इंफॉर्मेशन रिपोर्ट दी। इसमें आयकर विभाग, मुंबई के अतिरिक्त निदेशक से मिली रिपोर्ट के हवाले से बताया गया कि हसन अली, रीमा अली, फैसल अब्बास की ओर से आयकर रिटर्न जमा नहीं किया गया है, जबकि वे 8 अरब डॉलर से अधिक के लेन-देन में शामिल हैं। ईडी के पास यूबीएस, ज्यूरिख की ओर से 8 दिसंबर 2006 को हसन अली को भेजा गया पत्र है जिसमें लिखा था कि यह रकम उनके यहां जमा है और उन्हें 6 अरब डॉलर निकालने की इजाजत है। यूबीएस, ज्यूरिख के इसी खाते से पता चलता है कि चार महीने में इस खाते में जमा रकम 1.38 अरब डॉलर से अधिक और बढ़ गई। ईडी को इस बात की भी जानकारी है कि कई लाख रुपए के करीब 20 घोड़े, करोड़ों की कारें, जिनमें मर्सिडीज बेंज, एक पोर्श, हुंडई सोनाटा, ओपल एस्ट्रा, एक स्कोडा कार शामिल हैं नगद भुगतान कर हसन ने खरीदीं थीं। आयकर विभाग ने उनके यहां से भारी मात्रा में नगद और करोड़ों रु. के जेवर बरामद किए। हसन अली खान के लेन-देन भारतीय बैंकिंग कानून का गंभीर उल्लंघन हैं। सरकारी एजेंसियों के अनुसार हसन के कारोबारी कामकाज से साफ है कि उसकी मंशा काली कमाई को विदेश में जमा करने की थी। आतंकवादी गतिविधियों और इस अवैध रकम के बीच मिलीभगत की गहरी जांच की बात ईडी ने की थी। प्रवर्तन निदेशालय के पास हसन के खिलाफ इतनी जानकारी होने के बाद भी शुक्रवार को उसे जमानत मिल ही गई। निश्चित रूप से ईडी का दावा खोखला था। उसने शायद जान बूझकर हसन के खिलाफ ऐसे सुबूत ही तैयार नहीं किए, जिससे वह कानून के दायरे में आए।
अपनी काली करतूतों के कारण ही हसन अली को हैदराबाद छोड़ना पड़ा था। 2007 के मार्च महीने में हैदराबाद के कमिश्नर बलविंदर सिंह ने एक पत्र वार्ता में यह घोषणा की थी कि हसन अली के खिलाफ बैंक से धोखाधड़ी करने के दो मामले, ठगी के चार मामले और एक चिकित्सक पर तेजाब से हमला करने के केस पेंडिंग हैं। 1990 में वह स्टेट बैंक की चारमीनार शाखा के मैनेजर ने थाने में यह रिपोर्ट लिखाई थी कि हसन अली ने उनकी बैंक से गलत तरीके से 26 लाख रुपए निकाल लिए हैं। हसन अली ने यह राशि तीन बार में अपने खाते से निकाली थी। उनके सामने ही हसन अली ने जो चेक जमा किए थे, वे बाउंस हो गए थे। हसन अली ने ग्रिनलेज बैंक के साथ भी इसी तरह की ठगाई की थी। भारत के चार नागरिकों ने हसन अली से सम्पर्क किया था। हसन अली ने इन्हें रुपए को डॉलर के मनिआर्डर देने का वचन दिया था। जिसे वह पूरा नहीं कर पाया। हसन अली ने अपने पास से 60 लाख रुपए इकट्ठा कर उसके बदले में डॉलर के नकली डिमांड ड्राफ्ट दिए थे। हैदराबाद पुलिस हसन अली खान की धरपकड़ 1991और 1992 में इन मामलों में की थी। 1991 में ही वह टोरंटो भाग गया था, तब हैदराबाद पुलिस ने इंटरपोल की मदद से उसकी धरपकड़ की थी।
हसन अली खान का संबंध शस्त्रों के अंतरराष्ट्रीय सौदागर अदनान खाशोगी के साथ भी रहे हैं। खाशोगी अपने न्यूयार्क की चेज मेनहट्टन बैंक खाते से 30 करोड़ डॉलर यानी 1400 करोड़ रुपए हसन अली के ज्यूरिख की यूबीएस बैंक के खाते में ट्रांसफर किए थे। बाद में स्वीस बैंक ने हसन अली की इस राशि को फ्रीज कर दिया था। इसके बाद हसन अली के यूबीएस बैंक के खाते में 2007 में आठ अरब डॉलर मिले। आयकर अधिकारियों ने जब हसन अली के पुणो स्थित घर में छापा मारा था तक एक लेपटाप में इस खाते की विस्तार से जानकारी मिल गई थी।केंद्र सरकार के एंक्रोर्समेंट विभाग ने इस मामले की जाँच शुरू की थी। इसके बाद भी हसन अली के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। एंक्रोर्समेंट विभाग के जिन अधिकारियों ने यह जाँच शुरू की थी, उन तबादला कर दिया गया। इससे जाँच का काम ढीला पड़ गया। इससे यह स्पष्ट है कि हसन अली के पास जो धन है, वह उसका नहीं है। वह धन निश्चित रूप से किसी राजनीतिक या फिर किसी उद्योगपति का है। ये लोग अपने दो नम्बर की कमाई को हवाला के माध्यम से विदेश भेजना चाह रहे होंगे। इसके लिए हसन अली को मोहरा बनाया गया होगा। यही लोग है, जो अभी तक उसे बचा रहे हैं। जैसे ही हसन अली का संबंध खाशोगी के साथ होने की जानकारी बाहर आई, वैसे ही एंक्रोर्समेंट विभाग ने उसके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई करने को टाल दिया था। खाशोगी के संबंध चंद्रास्वामी के साथ भी थे। इन दोनों को मिलवाने में हमारे देश के राजनेताओं ने ही विशेष भूमिका निभाई थी। 2008 में हसन अली को एक नोटिस भेजा गया था, जिसमें उससे 50 हजार करोड़ रुपए आयकर जमा करने का आदेश दिया गया था। आयकर विभाग की यह कार्रवाई स्वीस बैंक में जमा आठ अरब डॉलर की राशि के संदर्भ में की गई थी।
हसन अली के बारे में यह भी जानकारी मिली है कि उसने कई साल पहले कोलकाता के काशीनाथ टापोरिया के साथ भागीदारी में धंधा किया था, इस जानकारी के आधार पर जब काशीनाथ के कोलकाता स्थित घर और कार्यालय में छापा मारा गया, तब टापोरिया ने हसन अली के साथ किसी भी तरह का संबंध होने से इंकार किया था। दिल्ली के होटल मालिक फिलीप आनंद राज के साथ भी हसन अली के साथ संबंधों की जानकारी मिली है। इस पर भी पूछताछ जारी है। एक आदमी के पास आठ अरब डॉलर की संपत्ति हो और इसकी जानकारी देश की गुप्तचर संस्थाओं को न हो, यह संभव नहीं है। हसन अली से सघन पूछताछ की जाए, तो कई चौंकाने वाले रहस्य सामने आ सकते हैं। पर क्या यह हमारे देश में संभव है? सरकार तो शायद यह नहीं चाहती कि हसन अली के तमाम संबंध बाहर आएँ। कई मामलों में सरकार की सुस्ती की गंध सुप्रीमकोर्ट को आ गई थी, इसीलिए उसने बार-बार लताड़ा और हसन अली के खिलाफ पुख्ता सुबूत तैयार करने को कहा, पर प्रवर्तन निदेशालय ऐसा नहीं कर पाया, अंतत: हसन अली को जमानत मिल ही गई। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि एक साधारण चोर पुलिस की पिटाई से मारा जाता है और राजनीति संरक्षण प्राप्त कथित घोटालेबाज, तस्कर और घोषित अपराधी जमानत पर रिहा भी हो जाता है।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 21 मार्च 2011

विश्व जल दिवस 22 मार्च 2011 पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का संदेश



साथियो,
कल विश्‍व जल दिवस है। जल की बरबादी जारी है। लोग चाहकर भी इस अपव्‍यव को रोक नहीं पा रहे हैं। इसका कारण यही है कि जल अभी भी लोगों को बिना किसी परिश्रम के बेशुमार मिल रहा है। हमारे कानून में भी ऐसा प्रावधान नहीं है कि जो जल बरबाद करता है, उसे किसी प्रकार की सजा दी जाए। इसलिए लोग भी इसका अपव्‍यव करने से नहीं चूकते। मेरा मानना है कि जब यह सिदध हो जाए कि इसने जल की बरबादी की है, तो उसे ऐसे स्‍थान पर भेज दिया जाना चाहिए, जहां जल बहुत ही मुश्किल से मिलता हो। तभी वह समझ पाएगा जल का महत्‍व आखिर क्‍या है। जल ऐसी चीज है, जिसे हम पैदा भी नहीं कर सकते। जब हम पैदा नहीं कर सकते, तो फिर हमें उसे बरबाद करने का क्‍या अधिकार है? जल की बरबादी इसी तरह होती रही तो यही जल एक न एक दिन अपना असर दिखाएगा ही, इसके लिए लोगों को तेयार रहना चाहिए।
बान की मून
संसार इस समय जहां अधिक टिकाऊ भविष्य के निर्माण में व्यस्त हैं वहीं पानी, खाद्य तथा ऊर्जा की पारस्परिक निर्भरता की चुनौतियों का सामना हमें करना पड़ रहा है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुद्ध पानी तक पहुंच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई, संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तक पहुंचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं।

एक पीढ़ी से कुछ अधिक समय में दुनिया की आबादी के 60 प्रतिशत लोग कस्बों और शहरों में रहने लगेंगे और इसमें सबसे अधिक बढ़ोतरी विकासशील संसार में शहरों के अंदर उभरी मलिन बस्तियों तथा झोपड़-पट्टियों के रूप में होगी। इस वर्ष के विश्व जल दिवस का विषय “शहरों के लिए पानी” –शहरीकरण की प्रमुख भावी चुनौतियों को उजागर करता है।

शहरीकरण के कारण अधिक सक्षम जल प्रबंधन तथा समुन्नत पेय जल और सैनिटेशन की जरूरत पड़ेगी। इसके साथ ही शहरों में अक्सर समस्याएं विकराल रूप धारण कर लेती हैं, और इस समय तो समस्याओं का हल निकालने में हमारी क्षमताएं बहुत कमजोर पड़ रही हैं।

जिन लोगों के घरों या नजदीक के किसी स्थान में पानी का नल उपलब्ध नहीं है ऐसे शहरी बाशिंदों की संख्या पिछले दस वर्षों के दौरान लगभग ग्यारह करोड़ चालीस लाख तक पहुंच गई है, और साफ-सफाई की सुविधाओं से वंचित लोगों की तादाद तेरह करोड़ 40 लाख बतायी जाती है। बीस प्रतिशत की इस बढ़ोतरी का हानिकारक असर लोगों के स्वास्थ्य और आर्थिक उत्पादकता पर पड़ा हैः लोग बीमार होने के कारण काम नहीं कर सकते।

पानी संबंधी चुनौतियां पहुंच से भी आगे बढ़ चुकी हैं। अनेक देशों में साफ-सफाई की सुविधाओं में कमी के कारण लड़कियों को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है, और पनघट से पानी लाते समय या सार्वजनिक शौचालयों को जाते या आते हुए औरतों को परेशान किया जाता है। इसके अलावा, समाज के अत्यधिक गरीब और कमजोर वर्ग के सदस्यों को अनौपचारिक विक्रेताओं से अपने घरों में पाइप की सुविधा प्राप्त अमीर लोगों के मुकाबले 20 से 100 प्रतिशत अधिक मूल्य पर पानी खरीदने पर मजबूर होना पड़ता है। यह तो बड़ा अन्याय है। रियो डि जेनेरियोन में सन 2012 में होने वाले संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास सम्मेलन में पानी का मसला उठाया जायेगा। गरीबी तथा असमानता घटाने, रोजगारों की रचना करने, तथा जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से उत्पन्न दबावों से होने वाले खतरों को कम करने के उद्देश्य से मेरा वैश्विक टिकाऊपन और यूएन-वॉटर पैनेल यह जांच कर रहा है कि पानी, ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा की समस्याओं को आपस में जोड़ने के लिए क्या रास्ते निकाले जाएं।

इस विश्व दिवस पर मैं सरकारों से अनुरोध करता हूं कि शहरी जल संकट के बारे में वे यह मानकर चलें कि पानी की किल्लत जैसी कोई समस्या नहीं है, समस्या केवल चुस्त प्रशासन, लचर नीतियों और ढीले प्रबंधन की है। आइये, हम प्रतिज्ञा करें कि निवेश की भारी कमी को दूर करेंगे, और यह संकल्प भी ले कि प्रचुरता से सम्पन्न इस संसार में 80 करोड़ से भी अधिक लोग स्वस्थ और सम्मानपूर्वक रूप से जीने के लिए अब भी शुद्ध और सुरक्षित जल एवं साफ-सफाई के लिए तरस रहे हैं।

बुधवार, 16 मार्च 2011

छवि साफ करने वाली जेपीसी की पेचीदगियाँ

डॉ. महेश परिमल
टेलीकॉम घोटाला हमारे देश के लिए एक ऐसा काला अध्याय है, जिससे यह साबित होता है कि अपने आसपास होने वाली अव्यवस्थाओं से किस तरह से आँख बंद की जा सकती है। बाद में इस अपनी भूल करार दिया जाए। कोई व्यक्ति बार-बार भूल करे और अपनी सफाई देता रहे, फिर भी हमें वह स्वीकार्य है। इससे अधिक दुर्दशा आखिर किसकी होगी? बस यही हाल है देश के आम नागरिकों का। अपने पसीने की कमाई को वह कर के रूप में चुकाता है, जिसे बड़े-बड़े लोग आसानी से पचा जाते हैं। इतिहास गवाह है कि आज तक देश के किसी भी नेता को आर्थिक घोटाले में इतनी बड़ी सजा नहीं हुई कि दूसरे उससे सबक ले सकें।
अब जेपीसी के गठन की बात ले ले, पिछला संसद सत्र पूरी तरह से विपक्ष की यही एकमात्र माँग की बलि चढ़ गया। इसके लिए विपक्ष से अधिक तो सत्तारुढ् दल दोषी है। जब जेपीसी की माँग माननी ही थी, तो पहले क्यों नहीं मानी गई? अब मानने से संसद सत्र के दौरान हुए करोड़ों रुपए और मानव श्रम को तो आँका ही नहीं जा सकता और न ही उसके घाटे की आपूर्ति की जा सकती है। इसके बाद भी स्थिति में किसी प्रकार का सकारात्मक अंतर आएगा, इसके लिए दावा नहीं किया जा सकता। यह सच है कि टेलीकॉम घोटाले में लिप्त कई कंपनियाँ इतनी अधिक शक्तिशाली हैं कि वह जेपीसी तो क्या, भारत सरकार को ही खरीद सकती है।
जेपीसी की माँग मानकर सरकार यह सोच रही होगी कि इस तरह से वह जनता की सहानुभूति प्राप्त कर सकती है। पर वह गलत है। सरकार ने जब जेपीसी की माँग स्वीकार की, तब भी सहानुभूति विपक्ष के साथ ही थी। हालांकि इसके बाद विपक्ष मदमस्त हाथी की तरह हो गया। वह अपनी ही पीठ थपथपा रहा है कि आखिर हमने सरकार को झुकने के लिए विवश ही कर दिया। दूसरी ओर जनता को अब समझ में आ रहा है कि उसे छला गया है।
जब से 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया है, तब से मीडिया को मानो अलादीन का चिराग ही हाथ लग गया है। वह जब चाहे इसका उपयोग, दुरुपयोग करती रही है। जब बात काफी बढ़ गई, तब सुप्रीमकोर्ट ने सीबीआई को यह आदेश देना पड़ा कि इस कांड पर जितनी जल्दी हो सके, पर्दा उठाया जाए। यह अच्छी बात है कि ए. राजा अब जेल में हैं, पर उनके अलावा अभी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो पूरी सरकार को खरीदने की फिराक में हैं। ताकि इस पूरे कांड पर पर्दा डाला जा सके। अभी एक नहीं पूरे 63 लोग सीबीआई के निशाने पर हैं। उनसे ही पता चलेगा कि आखिर इतना बड़ा कांड कैसे हो गया और कौन-कौन इसमें शामिल है? नागरिकों को अब जेपीसी की रिपोर्ट का इंतजार है।
हमारे देश की संसदीय कार्यप्रणाली में जेपीसी को किसी भी मामले की जाँच करने के लिए बहुत ही अधिक अधिकार दिए गए हैं। इस अधिकार का उपयोग करके जेपीसी सरकारी दस्तावेज में छिपे कई निजी रहस्यों को भी जान सकती है। यही नहीं, इससे संबंद्ध लोगों से बातचीत कर उनके खिलाफ भी जाँच शुरू कर सकती है। यही कारण है कि अब जेपीसी के हाथ में टेलीकॉम घोटाले से संबद्ध अनेक चौंकाने वाली जानकारियाँ मिल सकती हैं। जेपीसी की सारी कार्यवाही बहुत ही गोपनीय तरीके से चलती है। नागरिकों को तो इसकी जानकारी तक नहीं होती। कई महीनों बाद जब संसद में जेपीसी की रिपोर्ट सामने आती है, तब कुछ जानने को मिलता है। वैसे भी जेपीसी की इस रिपोर्ट में कई बातें सुरक्षा की दृष्टि से गोपनीय रखी जाती हैं। वैसे कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ अभी से इस दिशा में तेयारी कर रहीं हैं कि सूचना के अधिकार के चलते जेपीसी की मूल रिपोर्ट सबको लिए सुलभ हो।
सीबीआई ने हाल ही में सुप्रीमकोर्ट को दी गई रिपोर्ट में बताया है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में शामिल सभी 63 लोगों पर उसकी नजर है। इन 63 लोगों में भूतपूर्व संचार मंंत्री ए. राजा तो जेल में हैं। इसके अलावा टेलीफोन कंपनियों के 10 उच्चधिकारी या डायरेक्टर भी शामिल हैं। इधर केंद्र सरकार ने सुप्रीमकोर्ट से कहा है कि वह इस मामले के शीघ्र निबटारे के लिए विशेष अदालत के गठन की दिशा में सोच रही है। सच्चई यह है कि कानून के अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने एक पत्र लिखकर विशेष अदालत के लिए न्यायाधीश की नियुक्ति की प्रार्थनाकी है। स्पेक्ट्रम घोटाले में अनेक रसूखदारों की धरपकड़ होने की पूरी संभावना है। इस आशय की पूरी जानकारी नागरिकों के सामने रखी जाएगी, ऐसी आशा की जा सकती है।
किसी भी घोटाले की जाँच के लिए जब भी जेपीसी की रचना की जाती है, तब उसकी जाँच को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कई चालाकियाँ की जाती हैं। बड़े उद्योगपति तो जेपीसी के सदस्यों को अपने पाले में लेने के लिए उन्हें मोटी रिश्वत भी देते हैं। जेपीसी में ऐसे सांसदों को शामिल किया जाता है, जो भूतकाल या वर्तमान में एक या एक से अधिक उद्योगों से जुड़े होते हैं। हाल ही में कांग्रेस के मनु अभिषेक सिंघवी ने भूतकाल में टेलीकॉम कंपनियों के वकील के रूप में काम करने के कारण जेपीसी में काम करने में अपनी अनिच्छा जताई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जेपीसी में भी पर्दे के पीछे अनेक खेल खेले जाते हैं। ऐसा न हो, इसलिए जेपीसी की कार्यवाही को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। यदि नागरिकों को जाँच की प्रगति रिपोर्ट से वाकिफ न कराया जाए, तो इसमें होने वाले खेल की संभावना ही खत्म हो जाएगी।
जेपीसी की कौन-सी जानकारी घोषित की जाए या नहीं, इसके लिए हमारे देश में अभी तक कोई कानून नहीं बना। जेपीसी की रचना संसद द्वारा की जाती है और संसद के दोनों सदनों के नेता जेपीसी की कार्यवाही की देखरेख करते हैं। जेपीसी की कार्यवाही की कितनी जानकारी घोषित करनी चाहिए, इस बारे में निर्णय भी संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष ले सकते हैं। सामान्य रूप से जेपीसी की बैठक हर सप्ताह होती है। इसके बाद जेपीसी के अध्यक्ष पत्रकारा वार्ता को संबोधित करते हैं। इसमें उन्हें यह बताना होता है कि जेपीसी ने अब तक कितनी दूरी तय की है। दूसरी ओर जेपीसी के सदस्य भी न जाने कितनी गोपनीय जानकारियाँ लीक कर देते हैं। इसमें उनका निजी स्वार्थ होता है। इस तरह से जेपीसी की आड़ में क्या हो रहा होता है, यह नागरिकों का पता ही नहीं चलता। यदि जेपीसी की तमाम जानकारियों की घोषणा कर दी जाए, तो पर्दे के पीछे होने वाले खेलों पर अंकुश लग सकता है।
भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी ने हाल ही में यह आक्षेप किया है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा को बलि का बकरा बनाया गया है। सरकार असली अपराधी को संरक्षण दे रही है। गडकरी के आक्षेप के अनुसार 2-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में जो पहले आएगा, पहले आओ, पहले पाओ, का निर्णय केंद्र की केबिनेट ने लिया था। वास्तव में पहले आओ, पहले पाओ की नीति तो एनडीए के शासनकाल में तैयार की गई थी। तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। जेपीसी ने 1998 के बाद स्पेक्ट्रम के वितरण की जाँच का काम सौंपा गया था। इसमें एनडीए शासन विशेषकर स्व. प्रमोद महाजन जब दूरसंचार मंत्री थे, तब हुए घोटाले भी बाहर आने की संभावना है। इन हालात में संभव है कांग्रेस और भाजपा दोनों ही चुप्पी साध लें और जेपीसी की सारी रिपोर्ट दबा दें। इसी को ध्यान में रखते हुए सूचना का अधिकार के तहत जेपीसी की एक-एक बात को जनता के सामने रखने की माँग अरविंद केजरीवाल ने की है।
ऐसा लगता है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में शामिल तमाम दल कुछ न कुछ छिपाना चाहते हैँ। नीरा राडिया की रतन टाटा के साथ हुई बातचीत का टेप जारी हुआ, तब रतन टाटा हतप्रभ रह गए। तब इस टेप को जारी होने से अटकाने के लिए उन्होंने सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अब इस घोटाले की कई कड़िया सामने आने लगी हैं, तो टाटा के वकील हरीश साल्वे ने सुप्रीमकोर्ट से विनती की है कि इस मामले की सारी गोपनीय जानकारियों को किसी भी तरह से बाहर न आने दिया जाए। उन्हें यह आशंका है कि यदि इसी तरह गोपनीय जानकारियाँ बाहर आती रहीं, तो न जाने कितने चेहरे बेनकाब हो सकते हैं। कई संवेदनशील सूचनाएँ भी बाहर आ सकती हैं। हरीश साल्वे का इशारा निश्चित रूप से नीरा राडिया के टेप की ओर था। इस टेप में ऐसी कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ हैं, जो यदि सार्वजनिक होती हैं, तो कई सफेदपोश बाहर आ सकते हैं।
सीबीआई ने सुप्रीमकोर्ट को जानकारी दी है कि वह अभी 10 टेलीकॉम कंपनियों को सामने रखकर जाँच कर रही है। वैसे सीबीआई ने अदालत को कोई नाम नहीं सौंपा है, पर अभी तक स्वान, यूनिटेक, रिलायंस कम्युनिकेशन, टाटा टेली सर्विस, लूप, डेटाकॉम (विडियोकॉन), एस टेल, सिस्टेमा, श्याम और एस्सार जैसी बड़ी कंपनियों के स्पेक्ट्रम घोटाले में मिलीभगत पर जाँच कर रही है। इसे सभी जानते हैं। इन कंपनियों में कई ऐसी कंपनियाँ हैं, जो न केवल जेपीसी के सदस्यों बल्कि पूरी सरकार को खरीद सकती हैं। वास्तव में मनमोहन सरकार की कमजोरी के चलते ही ये कंपनियाँ इतना बड़ा घोटाला करने में सक्षम हो पाई। अपनी इज्जत बचाने के लिए ये कंपनियाँ कुछ भी कर सकती हैं। किसी भी हद तक जा सकती हैं। इस पर रोक तभी लग सकती है, जब तक जेपीसी की एक-एक बातों का खुलासा होता रहे, नागरिकों का एक गैरराजनीतिक सदस्य जेपीसी सदस्यों के कार्यो का निरीक्षण करता रहे, तो न केवल जेपीसी, बल्कि नागरिकोंे को भी अपनी धारणा बनाने में अच्छा लगेगा।
भारत में सचमुच यदि प्रजातंत्र है, तो नागरिकों से किसी बात को छिपाना नहीं चाहिए। प्रजातंत्र की अलख को जगाए रखने के लिए ही सूचना का अधिकार कानून लाया गया है। इस कानून के दायरे में सीबीआई और जेपीसी को भी लाना चाहिए। राजनेता और उद्योगपति इस देश को किस तरह से लूट रहे हैं, इसकी जानकारी देश के एक-एक नागरिकों को होनी चाहिए। प्रजा की इच्छा को सर माथे चढ़ाना ही होगा, तभी सरकार अपने को बेदाग साबित कर पाएगी। वैसे भी यह सभी जानते हैं कि जिस सरकार ने जेपीसी की रचना की, वह सरकार बच नहीं पाई है। राजीव गांधी ने बोफोर्स मामले पर जेपीसी से जाँच कराना स्वीकार किया था। उस समय भी विपक्ष को कुछ ऐसा ही संघर्ष करना पड़ा था। उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी की हार हुई थी। इसके बाद स्टाक मार्केट कांड में नरसिम्हा राव ने भी जेपीसी की माँग स्वीकार की थी, उसके बाद वे भी चुनाव हार गए। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह जेपीसी के अध्यक्ष थे। इसीलिए वे अच्छी तरह से जानते हैं कि जेपीसी से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जेपीसी के बाद चुनाव हार गए थे।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 15 मार्च 2011

स़ड़ी हुई मछली और एक अकेला चना




दैनिक भास्‍कर के सभी संस्‍करणों में 15 मार्च के अंक में एक साथ

गुरुवार, 10 मार्च 2011

मौत का कारण बनते अमेरिकी डॉक्टर



डॉ. महेश परिमल
हाल ही में अमेरिका में एक किताब आई है, इस किताब ने डॉक्टरों में हलचल पैदा कर दी है। किताब के लेखक भी एक डॉक्टर ही हैं। अपनी किताब में उन्होंने न केवल डॉक्टरों, बल्कि अमेरिकी सरकार और उस पर हावी दवा कंपनियों को भी आड़े हाथों लिया है। किताब ने अमेरिकी सरकार के सामने कई सवालिया निशान लगा दिए हैं। सरकार और चिकित्सकीय पेशे से जुड़े लोग हैरत में हैं कि आखिर एक डॉक्टर भला दूसरे डॉक्टरों की पोल कैसे खोल सकता है? इस विवादास्पद किताब का नाम है डेथ बॉय प्रिस्किप्शन’, और इसके लेखक हैं डॉ. रे ट्रेण्ड। अपनी किताब में डॉ. ट्रेण्ड ने लिखा है कि अमेरिका में एलोपेथी दवाओं से हर वर्ष 90 हजार मरीजों की मौत होती है। किताब में यह आरोप लगाया गया है कि अमेरिका सरकार फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन(एफडीए) के हाथों की कठपुतली बन गई है। यही कारण है कि लोग डॉक्टरों की दवाओं को ग्रहण करने के बाद अधिक मर रहे हैं।
कुछ दिनों पहले ही यूरोपीय देशों में भारत की आयुर्वेदिक दवाओं को बदनाम करने का अभियान चलाया जा रहा है। यह अभियान विदेशी दवा कंपनियाँ चला रही हैं। भारत सरकार को इसकी जानकारी हे, वह भी विदेशी दवाओं पर देश में प्रतिबंध लगाकर इसका जवाब दे सकती है। किंतु प्रबल विरोधी और घोटालों के बीच फँसी सरकार को इस ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। इस किताब में यह दावा किया गया है कि अमेरिका में डॉक्टर के प्रिस्किप्शन के अनुसार दवा लेने के कारण हर वर्ष 20 लाख मरीज इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराए जाते हैं। इनमें से 90 हजार मरीजों की मौत हो जाती है। भारत में एलोपैथी से कितने मरीजों की मौत हर साल होती है, इसका सर्वेक्षण अभी तक नहीं कराया गया है। यदि ईमानदारी से इस दिशा में सर्वेक्षण कराया जाए, तो हमारे देश का आँकड़ा अमेरिका के आँकडुे को पार कर जाएगा, यह तय है।
डॉ. रे स्ट्रेण्ड ने इस किताब को लिखने के पहले 1998 मेंअमेरिकन मेडिकल ऐसोसिएशन जर्नल में प्रकाशित एक लेख पढ़ा, जिसमें यह बताया गया था कि डॉक्टर द्वारा लिखे गए परचे के अनुसार दवाएँ लेने के कारण अमेरिका में इतने अधिक मरीजों की मौत होती है, जो पूरे अमेरिका में होने वाली मौतों में यह चौथे नम्बर का कारण है। यदि इसमें गलत तरीके से लिखे गए प्रिस्क्रिप्शन से होने वाली मौतों को भी शामिल कर लिया जाए, तो यह आँकड़ा पूरी मौतों में से तीसरे नम्बर का कारण बन सकता है। इस लेख को पढ़ने के बाद डॉ. स्ट्रेण्ड को लगा कि एक ऐसी किताब लिखी जानी चाहिए, जिसमें इस तरह की मौतों का जिक्र हो। इन्होंने अपनी किताब में दवा कंपनियों के डॉक्टरों और अमेरिकी सरकार के फूड एवं ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन पर जरा भी विश्वास न करने की चेतावनी दी है। डॉ. का कहना है कि इंसान को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि इस तरह की दवाएँ ली ही न जाएँ। अपनी किताब में डॉ.स्ट्रेण्ड ने अमेरिकी फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि जब भी कोई नई दवा बाजार में आती है, तो उसके पहले एफडीए उस दवा को बेचने की अनुमति देती है। कई बार इसमें उससे गलती हो जाती है। दवा के साइड इफैक्ट की जानकारी न होने के कारण दवा कंपनियाँ इंसानों पर इसका प्रयोग करती हैं, कहीं यह इंसानों के लिए हानिप्रद तो नहीं? इसके बाद भी यदि किसी दवा के कारण इंसानों को हानि होती है, तो इसके लिए न तो डॉक्टरों को दोषी माना जाता है और न ही किसी अन्य को। जबकि नियम यह है कि जब भी कोई दवा हानिकारक लगे, तो डॉक्टरों का यह कर्तव्य है कि वह एफडीए को इसकी सूचना दे।
एक दवा का उदाहरण देते हुए डॉ. स्ट्रेण्ड कहते हैं कि सेल्डेन नामक एक दवा है, इसका संयोजन ऐरिथ्रोमाइसिन नाम दवाई के साथ किया जाता है। इस कारण यह दवा सर्दी, एलर्जी होने लगी, इस दवा को बाजार से पीछे खिंचने में सरकार को 12 वर्ष लग गए, इस दौरान हजारों लोग मौत के शिकार हो गए। इसी तरह बायडोल नामक दवा लेने के कारण कई लोगों की किडनी फेल हो गई, इसकी जानकारी कई साल बाद हुई। अभी दो वर्ष पहले ही इस दवा को बाजार से वापस खींचा गया है।
आज बाजार में ऐसी कई दवाएँ हैं, जिससे मानव शरीर को नुकसान हो रहा है, इसकी जानकारी हमें नहीं है। इन दवाओं के दूरगामी दुष्परिणाम की जानकारी डॉक्टरों को भी नहीं होती। कई बार ऐसा भी होता है कि अमेरिका के एफडी विभाग की सतर्कता के कारण वहाँ हानिकारक दवाएँ अमेरिकी बाजार से वापस खीेच ली जाती हैं, किंतु वही दवाएँ हमारे देश में खुलेआम बिकती हैं और दवा कंपनियाँ करोड़ों के वारे-न्यारे करती हैं। जब भावी डॉक्टर मेडिकल कॉलेज में होते हैं, तो उन्हें यह कहा जाता है कि जब भी आपके सामने कोई मरीज आता है, तो उसे तुरंत दवाएँ न दें, पहले उसकी जीवन शैली समझें, फिर उसे जीवन शैली को बदलने की सलाह दें। मान लो कोई मरीज उच्च रक्तचाप या मोटापे का शिकार है, तो डॉक्टर उसे अपनी जीवन शैली बदलने की सलाह दे, ताकि वह आराम महसूस करे। यदि उसे तुरंत दवाएँ दे दी जाएँ, तो संभव है कि उक्त दवाओं का उस पर गलत असर हो। ऐसे मरीजों के लिए कई बार डॉक्टर गैरजरुरी दवाएँ लिख देते हैं, इसके लिए दवा कंपनियों के दलाल ही दोषी हैं, जो डॉक्टरों को कई प्रकार के लुभावने गिफ्ट देकर उन्हें इस तरह की दवाएँ लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। एक अंदाज के मुताबिक फार्मास्यूटिकल कंपनी अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए एक डॉक्टर पर हर वर्ष करीब दस हजार डॉलर(चार लाख रुपए) खर्च करती है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहें, तो दवा कंपनियाँ हर डॉक्टर को हर वर्ष चार लाख रुपए रिश्वत के रूप में देती हैं।
असल में डॉ. स्ट्रेण्ड को यह किताब लिखने की आवश्यकता इसलिए आन पड़ी, क्योंकि वे स्वयं भी इस हालात से गुजर चुके थे। हुआ यूँ कि डॉ. स्ट्रेण्ड की पत्नी 20 वर्षो से क्रोनिक फटिंग(थकावट) से पीड़ित थीं। उनका इलाज अमेरिका के बड़े डॉक्टर कर रहे थे। इन सभी डॉक्टरों की दवाओं से उनकी पत्नी को कोई लाभ नहीं हुआ। दिनों-दिन उनकी हालत बिगड़ती गई। इन दवाओं का असर यह हुआ कि उनकी पत्नी को निमोनिया हो गया। बड़ी मुश्किल से वे ठीक तो हुई, पर उन्हें कमजोरी हो गई। हालत यह हो गई कि वे बिस्तर के केवल दो घंटे के लिए ही उठ पाती। आखिर दवाओं से तंग आकर डॉ. स्ट्रेण्ड ने पत्नी का इलाज स्वयं करने का निश्चय किया। वे अब पत्नी को केवल पौष्टिक आहार ही देने लगे। इसका असर 6 महीने में ही दिखने लगा। चमत्कारिक रूप में उनकी पत्नी ठीक हो गईं। बस तब से ही डॉ. स्ट्रेण्ड सोचने लगे कि आखिर डॉक्टरों द्वारा लिखी गई दवाओं का असर मरीज पर कितना भारी होता है। अपने अनुभवों से गुजरते हुए डॉ. स्ट्रेण्ड कहते हैं कि अमेरिका का एएफडी प्रशासन फार्मास्यूटिकल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है।
डॉ. स्ट्रेण्ड की किताब को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार भी देश में एलोपैथी दवाओं पर प्रतिबंध लगाकर यदि आयुर्वेदिक दवाओं को प्रोत्साहन दे, तो असमय होने वाली हजारों मौतों को रोका जा सकता है। आजकल हो यही रहा है कि कुछ लोग इलाज के अभाव में मर रहे हैं, तो कुछ लोग इलाज करवाकर मौत के आगोश में जा रहे हैं। यदि डॉक्टरों का लालच सामने न आए, तो कई मरीज ऐसे ही बच जाएँ। आखिर कब तक चलता रहेगा जिंदगी और मौत के बीच रिश्वत का यह सिलसिला?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 9 मार्च 2011

जेपीसी की पेचीदगियां




नवभारत के रायपुर, बिलासपुर संस्करण में आज 9 मार्च को प्रकाशित

सोमवार, 7 मार्च 2011

अब हममें कहाँ बचा मातृभाषा का गौरव ?

डॉ. महेश परिमल
हाल ही में हमारे बड़े करीब से मातृभाषा दिवस गुजरा। किसी को याद है? शायद नहीं, क्यों? हम स्वयं ही भूल चुके हैं कि हमारी मातृभाषा क्या है। भाषा के बारे में अक्सर कहा जा सकता है कि एक भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। अँगरेजी भाषा समझने और अँगरेजी भाषा पढऩे में काफी अंतर है। अँगरेजी सीखो, समझो, पर हिंदी छोड़कर नहीं।
जब हमें यह नहीं मालूम कि मातृभाषा दिवस कब आता है, तो इस बारे में हमें खास इस बात पर ध्यान देना है कि मातृभाषा को लेकर हमारे अलावा अन्य देश कितने चिंतित हैं? संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को ने सन् 1952 में यह प्रस्ताव रखा था कि विश्व के सभी देश बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दें। प्रोफेसर यशपाल समिति ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम को ध्यान मे रखते हुए 2005 में इसकी रूपरेखा बनाते हुए दृढ़ता पूर्वक कहा कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही देनी चाहिए। विश्व के जिन देशों की मातृभाषा अँगरेजी है, उनमें इंग्लैंड, अमेरिका, केनेडा, ऑस्ट्रेलिया आदि को छोड़ दिया जाए, तो यूरोप में एक भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ प्राथमिक शिक्षा अँगरेजी में दी जाती हो। ग्रीस में ग्रीक, स्पेन में स्पेनिश, नार्वे में नार्वेशियन, स्वीडन में स्वीडिश, स्वीट्जरलैंड में स्वीश भाषा में ही बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दी जाती है। यूरोप के अलावा रुस, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड आदि देशों में भी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाती है। इन देशों में सारे काम वहाँ की भाषा में ही होते हैं। इसके बाद आते हैं हम हमारे देश में। हम सभी देख रहे हैं कि हमारे यहाँ भाषा के नाम पर क्या स्थिति है?
भारतीय विचारक डॉ. जयंत नार्लीकर कहते हैं श्श्विज्ञान के क्ैिलष्ट सिद्धांत बच्चा अपनी मातृभाषा में झट से समझ सकता है, शुरू के वर्षों में अन्य भाषा में विज्ञान और गणित जैसे विषय सीखने में बच्चों की ग्रहण शक्ति कुंठित हो जाती है।्य्य इसी तरह गणितशास्त्री पी.सी.वेद्य कहते हैं कि मातृभाषा द्वारा शिक्षा प्राप्त करने से बच्चों में विचार करने की शक्ति का संपूर्ण विकास होता है। गांधीजी भी कहते थे श्श्जिस तरह से बच्चे के शरीर के लिए माँ का दूध अनिवार्य है, उसी तरह उसके मस्तिष्क के विकास के लिए मातृभाषा आवश्यक है। बच्चे की पहली पाठशाला उसकी माँ ही होती है, इसलिए बच्चे के मानसिक विकास के लिए उसकी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा लादना, यह मातृभूमि के खिलाफ अपराध है।्य्य विनोबा भावे इसे ही कुछ दूसरे अंदाज में कहते हैं कि मानव हृदय ग्रहण कर सके, ऐसी भाषा मातृभाषा ही हो सकती है। प्राथमिक शिक्षा तो उसी से दी जानी चाहिए। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि यदि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में न देकर किसी अन्य भाषा में दी जाती है, तो बच्चा निर्बाेध बन जाएगा, उसकी ग्रहणशक्ति बुरी तरह से प्रभावित हो सकती है।
आज विश्व में चारों तरफ अँगरेजी का ही बोलबाला है। कंप्यूटर, इंटरनेट और ई-कामर्स की भाषा अँगरेजी ही है। इसके बाद केंद्र सरकार का अधिकांश काम अँगरेजी में ही होता है। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के फैसले अँगरेजी में ही लिखे जाते हैं। बाद में उसका अनुवाद होता है। चारों तरफ अँगरेजियत के कारण ही आज बच्चों को शुरू से ही अँगरेेजी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। आज पालक भी यही सोचते-समझते हैं कि उनका बच्चा यदि अंगरेजी में धाराप्रवाह बोल लेता है, तो समझो उसकी शिक्षा पूरी हो गई, साथ ही उसका भविष्य सुरक्षित हो गया। उसके लिए विकास के सारे द्वार खुल गए। हमें अँगरेजी भाषा को जानना चाहिए, पर अपनी मातृभाषा को भूलकर नहीं। पहले हमें अपनी मातृभाषा को याद रखना होगा, फिर अन्य भाषा की तरफ ध्यान देना होगा। सरकार की ढिलाई के कारण आज अँगरेजी का वर्चस्व लगातार बढ़ रहा है। पालकों के मन में यह बिठा दिया गया है कि आपका बच्चा अँगरेजी नहीं जानता, तो कुछ भी नहीं जानता। वह भविष्य में कुछ नहीं कर सकता। इसलिए आज पालक भी यही सोच रहे हैं, जो सरकार सोच रही है।
फादर वालेस कहते हैं कि श्श्दूसरे को अपनाओ, पर अपनों को क्यों छोड़ रहे हो? अँगरेजी सीखो, पर हिंदी छोड़कर नहीं।्य्य वंदे मातरम् के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने मातृभाषा पर गर्व करते हुए कहा है कि श्श्मुझे न तो अँगरेजी से घृणा है और न ही अँगरेजों से। हमसे जितना संभव हो, उतनी अँगरेजी सीखनी चाहिए। उसके साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। पर जो अपना है, वह हमेशा अपना ही रहेगा। हम अपनी भावनाओं को जब तक अपनी मातृभाषा में व्यक्त नहीं करेंगे, तब तक हमारी उन्नति नहीं हो सकती।्य्य महात्मा गांधी भी कहा करते थे कि अँगरेजी आज दुनिया की भाषा बन गई है। इसका आशय यह कतई नहीं कि उस भाषा का अध्ययन शालाओं में कराया जाए। अँगरेजी भाषा का अध्ययन कॉलेजों में कराया जाना चाहिए। विद्वानों ने कहा है कि यह ध्यान रखा जाए कि अँगरेजी भाषा पढ़ाई जाए, अँगरेजी भाषा में न पढ़ाया जाए।
आज हिंदी भाषी राज्यों की हिंदी माध्यम शालाओं में ताले लटकने के दिन आ गए हैं। लोग अँगरेजी माध्यम की स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने लगे हैं। मोटी फीस ही नहीं, बल्कि चंदे के नाम पर भी भारी-भरकम राशि देने को तैयार है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि मातृभाषा की मृत्यु नागरिकों की अस्मिता की मृत्यु है। हिंदी भाषा मात्र जीवित रहे, यही पर्याप्त नहीं, पर ये और अधिक समृद्ध बने, अधिक से अधिक प्राणवान बने, यह अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी भी भाषा के साथ अन्य प्रदेशों के नागरिकों और उनकी संस्कृति से ओतप्रोत होती है। इमर्सन कहते हैं कि जब कोई भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। ऐसी परिस्थिति में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देना ही उचित है। मातृभाषा से बच्चों में संस्कार का सिंचन होता है।
अँगरेजी माध्यम की स्कूल में ही पढ़ाई करेगा, पालकों की इस इच्छा को कम करने के लिए यदि सरकार कुछ ऐसे जतन करे कि प्रारंभिक शिक्षा तो मातृभाषा में दी जाए, उच्च कक्षाओं में अँगरेजी विषय को अच्छी तरह से सिखाया जाए। ऐसा पहले होता था, पर अब नहीं होता। यदि सरकार मातृभाषा का संरक्षण करे, तो सभी अपनी मातृभाषा पर गर्व करेंगे। अभी हालत यह है कि एक हिदीभाषी यदि किसी बड़े समारोह में जाता है, तो उसे हिकारत की नजरों से देखा जाता है। मानो हिंदी भाषा सीखकर उसने कोई गुनाह किया हो। यह स्थिति बदलनी चाहिए। हमें अपने ही देश में हिंदी के प्रति गर्व करना का अवसर मिलना ही चाहिए। आज यदि कोई छात्र यह घोषणा कर दे कि मैं इस देश की राष्ट्रभाषा में चिकित्सकीय पढ़ाई करना चाहता हूँ, तो सरकार विवश हो जाएगी। चाहकर भी उसकी इच्छा को पूर्ण नहीं किया जा सकता। सरकार की यह विवशता भाषा के मामले में दृढ़ न रहने के कारण सामने आ रही है। कई एशियाई देश हैं, जहाँ अन्य भाषा की कोई भी किताब आती है, तो वह पहले उस देश की राष्ट्रभाषा में अनूदित होती है, फिर लोग उसे पढ़ पाते हैं। क्या ऐसी स्थिति हम हमारे देश में नहीं ला सकते? आवश्यकता है दृढ़ इच्छाशक्ति की। तभी कुछ हो पाएगा और हम अपनी भाषा की गरिमा को अक्षुण्ण रख पाएँगे।
डॉ. महेश परिमल

रविवार, 6 मार्च 2011

Mahesh Parmar Parimal

अपना बैज बनाएं

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

सरकार पर बुरी तरह से हावी है तम्बाखू लॉबी


डॉ. महेश परिमल
आज हमारे पास समय नहीं है, यह सच है, पर भविष्य में समय की और भी कमी होने वाली है। हमारे पास इतना भी समय नहीं होगा कि हम अपने परिजनों की अंत्येष्टि में शामिल हो पाएँगे। क्योंकि अब महीनों सप्ताहों में नहींे, बल्कि हर रोज हमारे किसी न किसी परिजन की मौत होने वाली है। जिस तेजी से तम्बाखू से जुड़ी चीजों का सेवन बढ़ रहा हे, उससे आगामी 9 वर्षो में 13 लाख लोगों की मौत केवल इस व्यसन से होने वाली है। सोचो, आप अपने कितने परिजनों की अंत्येष्टि में श्रामिल हो पाएँगे। यह बहुत ही कड़वा सच है, इसे हम समझ रहे हैं, पर हमारी गठबंधन वाली विवश सरकार समझ ही नहीं पा रही है। सुूप्रीमकोर्ट ने आदेाश् दिया है कि पहली जून से तम्बाखू और सिगरेट के पैकेट पर डरावने चित्रों के साथ यह बताया जाए कि इससे कैंसर होता है। कोट्र्र ने इसे अनिवार्य रूप से लागू करने का फैसला दिया है। पर सरकार पर तम्बाखू लॉबी इतनी अधिक हॉवी है कि वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही है। वैसे भी सुप्रीमकोर्ट के न जाने कितने नियम-कायदों की सरेआम धज्‍जिजयां उड़ रहीं हैं, ऐसे में एक और नियम आ गया, तो क्या फर्क पड़ता है?
सुप्रीमकोर्ट के आदेश पर पहली जून से सिगरेट के पैकेट पर 40 प्रतिशत स्थान डरावने चित्रों के लिए सुरक्षित रखने और ‘तम्बाखू यानी कैंसर’ जैसी चेतावनी लिखना अनिवार्य होगा। पर हमारे देश की राजनीति पर तम्बाखू लॉबी इतनी अधिक हावी है कि सरकार चाहकर भी इस लॉबी के खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई करने से बच रही है। वैसे भी प्रधानमंत्री ने यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियाँ होती हैं। इसलिए कोई घोटाले कर सकता है, तो कोई सुप्रीमकोर्ट के आदेश की खुलेआम अवहेलना भी कर सकता है। सरकार तब भी विवश थी, आज भी विवश है।
‘सीने में तेजी का दर्द, साँस रुकने लगे और ऐसा दबाव का अनुभव होने लगे, इस पीड़ा को महसूम करना हो, तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के किसी भी अधिकारी से मिल लो, वह बताएगा कि हमारा विभाग किस तरह से तम्बाखू लॉबी के दबाव का शिकार है।’ ये अधिकारी बताते हैं कि तम्बाखू से हर वर्ष देश में 9 लाख लोग एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरते हैं। फिर भी तम्बाखू लॉबी अपने निहित स्वार्थ के कारण केवल अपना मुनाफा ही देख रही है। कितने बरस हो गए, सिगरेट के पैकेट पर डरावने चित्र और इससे होने वाली हानियों को बताने के आदेश हो चुके हैं, पर सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारे देश के कृषि मंत्री शरद पवार तम्बाखू की लत के कारण होठों का ऑपरेशन करा चुके हैं, इसके बाद भी उनके जैसे कई मंत्री हैं, जिन्हें तम्बाखू की लत है और वे इस व्यसन को छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं।
फिर भी तम्बाखू का इस्तेमाल करने वाले हमेशा यही सोचते हैं कि तम्बाखू दूसरों को भले ही नुकसान पहुँचाए, पर हमें कभी नुकसान नहीं पहुँचाएगा। उनकी यही सोच उनके परिवार वालों पर किस तरह से भारी पड़ती है, इसे शायद वे समझने को तैयार नहीं हैं। तम्बाखू लॉबी सरकार पर लगातार हॉवी होती जा रही है। तम्बाखू और सिगरेट के पैकेट पर डरावने चित्र होने चाहिए, इसके लिए सरकार भी राजी है, पर जब भी वह इस दिशा में कदम उठाती है, तम्बाखू लॉबी ऐसा करने से रोक देती है। विवश सरकार एक बार फिर मजबूर हो जाती है। इस दिशा में सरकार की सक्रियता को देखते हुए पिछले सारल तम्बाखू उत्पादकों ने अपने कारखाने बंद कर दिए। उनका मानना था कि सरकार को तम्बाखू के व्यसनी ही विवश करेंगे, हमारे कारखाने खोलने के लिए। आखिर सरकार ही झुकी। करीब 11 साल हो गए, तम्बाखू के उत्पादों पर डरावने चित्र प्रकाशित करने का आदेश हुए, पर अब पहली जून से यह आदेश अनिवार्य रूप से लागू करने की योजना है। दूसरी ओर गठबंधन सरकार की विवशताओं के चलते सुप्रीमकोर्ट का यह निर्णय कितना अमल में लाया जाएगा, इस पर संदेह के बाद ल उमड-घुमड़ रहे हैं।
सुप्रीमकोर्ट का यह आदेश तम्बाखू कंपनियाँ मानने वाली नहीं हैं। ये अच्छी तरह से जानती हैं कि हमारे राजनैतिक आका ही ऐसा होने नहीं देंगे। दूसरी ओर सुप्रीमकोर्ट ने सरकार को स्पष्ट रूप से कह दिया है कि सरकार अब इस दिशा में सक्रिय हो जाए और पहली जून से सिगरेट-तम्बाखू के पैकेट पर डरावने चित्रों के साथ यह भी लिखा जाए कि तम्बाखू से कैंसर होता है। सरकार तो यह कहने से भी नही अघाती कि हम तो इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं, पर हम पर तम्बाखू लॉबी का दबाव है। सुप्रीमकोर्ट ने स्वास्थ्य विभाग से पूछा है कि हमें यह बताया जाए कि हमारे आदेश का पालन करने की दिशा में आपने क्या कदम उठाए हैं? इसकी सारी जानकारी कोर्ट में दें।

तम्बाखू उद्योग के रसूखदार हमारे कामों में पहाड़ जैसे अवरोध उत्पन्न करते हैं, यह बताते हुए स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी अपना नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि वालंटरी हेल्थ ऐसोसिएशन ऑफ इंडिया नामक एनजीओ चलाने वाले बिनोय मैथ्यू आरटीआई के तहत इस आशय की जानकारी माँगी। तब केंद्र सरकार ने स्वीकार किया कि तम्बाखू लॉबी हम पर दबाव डालती है। यह सच है। टोबेको इंस्टीटच्यूट ऑफ इंडिया, जाफरानी, जर्दा, पान मसाला एसोसिएशन आफ इंडिया और बीड़ी मर्चेट एसोसिएशन इस मामले पर सरकार पर लगातार दबाव बनाए हुए हैं। पिछले वर्ष 9 नवम्बर को स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने संसद में कहा था कि हम तम्बाखू और सिगरेट के पैकेट पर गंभीर चेतावनी प्रकाशित करने के लिए तैयार हैं, किंतु ऐसे विज्ञापन पहले भी प्रकाशित हुए हैं, पर इसका असर नहीं होता। मैथ्यू तो साफ-साफ कहते हैं कि नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति स्वास्थ्य विभाग ही गंभीर नहीं है।, तो फिर आम आदमी कैसे गंभीर रह सकता है? स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता फैलाने में यह विभाग पूरी तरह से नाकाम साबित हुआ है।
विश्व के कई देशों में सिगरेट और तम्बाखू के पैकेट्स पर इस तरह की गंभीर चेतावनी प्रकाशित करते हुए डरावने चित्र प्रकाशित किए हैं, इसका असर भी हुआ है। इसकी बिक्री भी प्रभावित हुई है। हमारा कट्टर दुश्मन पाकिस्तान भी इस दिशा में सचेत है। वह भले ही तम्बाखू का उत्पादन हमसे अधिक करता हो, पर वहाँ भी सिगरेट-तम्बाखू के पैकेट्स पर डरावने चित्र और गंभीरत चेतावनी प्रकाशित की जाती है, इससे वहाँ के लोगों ने इसका उपयोग कम कर दिया है। यदि आँकड़ों पर ध्यान दिया जाए, तो यह तय है कि आगामी 9 वर्षो के अंदर ही तम्बाखू के सेवन से हमारे देश के 13 प्रतिशत लोग अकाल मौत के शिकार होंगे। 38.4 मिलियन लोग बीड़ी से, 13.2 लोग सिगरेट से होने वाले रोगों से मौत का शिकार होंगे। सरकार ने सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करने पर प्रतिबंध तो लगा दिया है, पर वह कितना अमल में लाया जा रहा है, इसे सभी जानते हैं। आज भी शालाओं, कॉलेजों के आसपास इस तरह की प्रतिबंधित चीजों की खुलेआम बिक्री हो रही है। सरकार कुछ कर ही नहीं पा रही है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 3 मार्च 2011

कल हो ना हो !!!

Kal kisne dekha !!
What is happening in India.

New Indian Conversion Scale :-)


100 Crore = 1 Yeddi



100 Yeddi = 1 Reddy



100 Reddy = 1 Radia





100 Radia = 1 Kalmadi





100 Kalmadi = 1 Pawar





100 Pawar = 1 Raja





100 Raja = 1 Karunanidhi





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