बुधवार, 31 अगस्त 2011

दूसरी आजादी की पहली सुबह











हरिभूमि के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

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सोमवार, 29 अगस्त 2011

लंबी लड़ाई का आगाज करती दूसरी आजादी की पहली सुबह
















नवभारत रायपुर बिलासपुर के संपादकीय पेज पर पर प्रकाशित मेरा आलेख
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शनिवार, 27 अगस्त 2011

डॉ. महेश परिमल म.प्र. साहित्य अकादमी का प्रादेशिक दुष्यंत कुमार पुरस्कार से विभूषित




डॉ. महेश परिमल म.प्र. साहित्य अकादमी का प्रादेशिक दुष्यंत कुमार पुरस्कार से विभूषित
भोपाल। मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद द्वारा पत्रकार एवं साहित्यकार डॉ. महेश परमार परिमल को प्रादेशिक दुष्यंत कुमार पुरस्कार ने नवाजा गया। गत 25 अगस्त को आयोजित एक समारोह में प्रदेश के उच्च शिक्षा राज्य मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, प्रख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली, साहित्य अकादमी के निदेशक त्रिभुवननाथ शुक्ल एवं संस्कृति परिषद के संयुक्त सचिव श्रीराम तिवारी उपस्थित थे। डॉ. परिमल को पुरस्कार स्वरूप 31 हजार रुपए का चेक भी दिया गया। यह पुरस्कार उन्हें उनके ललित निबंधों के संग्रह ‘‘लिखो पाती प्यार भरी’’ के लिए दिया गया।
उल्लेखनीय है कि डॉ. परिमल 30 वर्षो से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। मूलत: छत्तीसगढ़ निवासी डॉ. परिमल ने भाषविज्ञान में पी-एच. डी की है। देशभर के प्रमुख समाचारपत्रों में उनके सम-सामयिक आलेखों का प्रकाशन होता रहता है। सम्प्रति वे भास्कर समूह से सम्बद्ध हैं। अपने ब्लॉग संवेदनाओं के पंख और आज का सच के माध्यम से वे अपने साथियों के साथ सतत सम्पर्क में रहते हैं।








शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

हंसों के मामले पर काले कौवे देंगे फैसला














नवभारत रायपुर- बिलासपुर के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख

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गुरुवार, 25 अगस्त 2011

बहुत कुछ हो सकता है सत्‍याग्रह से











हरिभूमि के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख


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मंगलवार, 23 अगस्त 2011

न्‍याय की प्रतिमूर्ति संतोष हेगडे










देनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख

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सोमवार, 22 अगस्त 2011

राधा की पाती कान्हा के नाम











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नईदुनिया रायपुर बिलासपुर के संपादकीय पेज पर आज जन्‍माष्‍टमी पर प्रकाशित मेरा आलेख


गुरुवार, 18 अगस्त 2011

गुस्‍साया लोकतंत्र और सहमी सरकार











दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में पेज 9 पर प्रकाशित मेरा आलेख

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बुधवार, 17 अगस्त 2011

गांधी की याद दिलाती अन्‍ना की ऑंधी












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गुरुवार, 11 अगस्त 2011

क्‍या अब नहीं होंगे एनकाउंटर ?












दैनिक हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख

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बुधवार, 10 अगस्त 2011

निर्णय करने वालों का निर्णय कौन करे?

डॉ. महेश परिमल
बहुत समय बाद सरकार ने अपनी सक्रियता का परिचय देते हुए यह निर्णय लिया कि अब मुकदमो के लंबित रहने का औसत समय तीन वर्ष होगा। अब तक यह समय 12 से 15 वर्ष था। सरकार का यह निर्णय तो सराहनीय है, पर निर्णय लेने वालों के स्थानों पर एक नजर डाल देती, तो समझ में आ जाता कि आखिर मामले इतने लंबित क्यों होते हैं। सरकार ही जजों के स्थानों की पूर्ति करने में देर करती है। पूरे देश में अभी भी न्यायाधीशों के सैकड़ों स्थान खाली हैं, ये स्थिति न जाने कब से है, पर सरकार ने इस ओर ध्यान दिया ही नहीं। जल्द न्याय प्रदान करने के लिए सरकार ने न्याय प्रदान एवं कानून सुधार राष्ट्रीय मिशन लागू करने को मंजूरी दे दी है। पर इससे होगा क्या? इस पर अमल कब होगा, यह भी अभी विचारणीय है। जब जज ही नहीं होंगे, तो मामले कैसे निबटाए जाएँगे, यह तो सरकार ने सोचा ही नहीं। लंबित मुकदमों को कम करने की दिशा में उठाया गया यह कदम निश्चित रूप से सराहनीय है। पर यह निर्णय लेने के पहले सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया। अभी हालत यह है कि देश के कई उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की बेहद कमी है। उनके स्थानों की पूर्ति न होने के कारण ही मुकदमे लंबित हो रहे हैं। इसकी वजह यही है कि कोई हाईकोर्ट जज बनना ही नहीं चाहता। क्योंकि एक न्यायाधीश के रूप में काम का बोझ, निश्चित वेतन और बहुत सारा सरकारी दबाव। एक जज की यही मानसिकता होती है कि इससे तो बेहतर है कि प्रेक्टिस की जाए, जिसमें कमाई ही कमाई है।
अब इलाहाबाद हाईकोर्ट की ही बात करें, यहाँ 150 जज होने चाहिए, क्योंकि केंद्र शासन के विधि विभाग ने इतने ही जजों के लिए स्थान तय किए हैं, पर यहाँ 45 प्रतिशत स्थान रिक्त हैं। इसका आशय यही हुआ कि जहाँ 150 जज होने चाहिए, वहाँ केवल 66 जज ही कार्यरत हैं। बाकी 94 अदालतें खाली हैं। आबादी की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य की जब यह स्थिति है, तो फिर बाकी राज्यों का क्या हाल होगा, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। देश की कुल 21 हाईकोर्ट ऐसी हैं, जहाँ आमतौर पर 33 से45 प्रतिशत तक जज के स्थान खाली हैं। न्यायाधीश बन सकें, ऐसे विद्वान वकील अब देश में बहुत ही कम रह गए हैं। दूसरी तरफ सरकार की इस दिशा में नीयत ही साफ नहीं है। वह जी-हुजूरी करने वाले जज चाहती है, पर ऐसे जज मिल नहीं रहे हैं। यदि देश की तमाम हाईकोर्ट को एक साथ करें, तो कुल 895 जजों के लिए स्थान तय किए गए हैंे। इसके बाद भी कई हाईकोर्ट ऐसी हैं, जहाँ काफी लंबे समय से कोटे के अनुसार जजों की नियुक्ति नहीं की गई है। एक तरफ रोज ही सैंकड़ों के हिसाब से मामले बढ़ रहे हैं, दूसरी तरफ जजों के स्थान खाली हैं। ऐसे में तुरंत न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
वैसे हमारे देश की तुलना अन्य देशों से की जाए, तो आबादी के अनुसार वहाँ जजों की संख्या कम ही है। अमेरिका-इंग्लैंड जैसे देशों में दर एक लाख नागरिकों के लिए एक जज है। यही नहीं कई देशों में तो दस लाख लोगों के लिए एकमात्र जज है। अदालतों में जजों की कमी कोई आज की बात नहीं है। वास्तव में देखा जाए, तो यह एक सोची-समझी साजिश ही है, जिसमें यह शामिल है कि हाईकोर्ट में सभी जजों के स्थानों की पूर्ति कभी न की जाए। इसके पीछे यही कारण है कि हाईकोर्ट ने कई बार लोकहित में ऐसे निर्णय सुनाए हैं, जिससे देश के नेताओं की फजीहत हुई है। इसलिए नेतोओं ने ही मिलकर यह साजिश रची की, रिटायर हुए जजों के स्थान पर नए जजों की नियुक्ति ही न की जाए, या फिर इस काम में घनघोर विलंब किया जाए। जज के पास अधिक मामले होंगे, तो वह उसी में व्यस्त हो जाएँगे। लोकहित में निर्णय देने में उनकी रुचि ही नहीं होगी। आज कुल 21 हाईकोर्ट में 291 जजों के स्थान रिक्त हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के बाद राजस्थान, गुजरात और पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में कई स्थान रिक्त हैं।
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में 35 प्रतिशत, पटना हाईकोर्ट में 27 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 26 प्रतिशत, मुम्बई हाईकोर्ट में 25 प्रतिशत और कर्नाटक में 20 प्रतिशत जजों के स्थान रिक्त हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश और मद्रास में 9-9 जज कम हैं। झारखंड और नई दिल्ली में 8-8 जज कम हैं। केरल में 7 और छत्तीसगढ़ में 6 जज कम हैं। आश्चर्यजनक रूप से जजों की इतनी सीटें खाली हैं, पर विद्वान वकील इस पद के लिए स्वयं को सुशोभित नहीं करना चाहते। उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम है कि जज बनने के बाद एक निश्चित रकम वेतन के रूप में मिलेगी, इसके अलावा काम का अत्यधिक बोझ, सही नहीं, सरकारी दबाव के बीच लगातार काम करते रहना भी एक बहुत बड़ी समस्या है। इससे तो अच्छा है कि अपनी प्रेक्टिस की जाए। सबसे निचली कोर्ट की बात की जाए, तो सबसे खराब स्थिति बिहार और गुजरात की है। जहाँ क्रमश: 389 और 361 स्थान लंबे समय से खाली पड़े हैं। उत्तर प्रदेश में 294, राजस्थान में 223 स्थान रिक्त हैं। इसके बाद जब हम अखबारों में यह पढ़ते हैं कि लाखों केस लंबित पड़े हैं, तो इसके लिए हमें सरकार को कोसना चाहिए। आखिर इन स्थानों की पूर्ति तो सरकार को ही तो करनी है। फिर सरकार अपना काम ईमानदारी से क्यों नहीं करती?
सरकार की नीयत यदि साफ होती, तो यह स्थिति ही नही आती। करीब ढाई करोड़ मामले हैं, जो न्याय की गुहार कर रहे हैं। अभी तो इतने ही मामले को सुलझाने में एक लंबा वक्त गुजर जाएगा, फिर रोज सैकड़ों नए मामले भी तो आ रहे हैं, उन्हें कौन सुलझाएगा? कुछ मामले तो ऐसे होते हैं, जिनका तुरंत निबटारा आवश्यक है। यदि जज इसी में उलझ जाएँगे, तो छोटी-छोटी बात पर होने वाले मामले भी तो बढ़ते जाएँगे। बात दरअसल यह है कि सरकार अदालतों की तीखी टिप्पणियों से बचना चाहती है, इसलिए वह हमेशा ऐसे जजों की नियुक्ति करती है, जो चाटुकारिता में विश्वास रखते हों। ऐसे जज मुश्किल से मिलते हैं, इसलिए इनकी नियुक्ति में इतना अधिक विलंब होता है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

भारी पड़ सकता है वीभत्स एसएमएस भेजना







डॉ. महेश परिमल

आजकल मोबाइल के माध्यम से वीभत्स क्लिपिंग और एसएमएस-एमएमएस भेजना आसान हो गया है। थोडे समय की मस्ती के लिए ये भले ही मजाक हो, पर यह मजाब भारी पड़ सकता है। इसके लिए कानूनी रूप से सजा का भी प्रावधान है। पर अभी हमारे देश में जागरुकता की कमी के कारण ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। वीभत्स क्लिपिंग और एसएमएस की शिकार अधिकांश छात्राएँ या महिलाएँ ही होती हैं, जो लोकलाज के भय से सामने नहीं आतीं। इसलिए कई मामले दब जाते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। पुलिस इस दिशा में गंभीर हो गई है। इस मामले में दोषी पाए जाने पर पहली बार में 5 साल की जेल और एक लाख का जुर्माना और दूसरी बार में 10 साल की जेल और दो लाख का जुर्माना होगा। इसलिए अब आज के युवाओं को इस दिशा में सतर्क हो जाना चाहिए।
आज के युवा ‘सेक्सेटिंग’ से शायद वाकिफ न हो, पर यह सच है कि युवा इसके जाल में उलझते जा रहे हैं। ‘सेक्सेटिंग’ यानी सेक्स के ओवरटोन वाले एसएमएस-एमएमएस और ई मेल पिछले कुछ सालों से हमारे देश में काफी प्रचलित हो गए हैं। अमेरिका में जब इसकी शुरुआत हुई थी, तब इसमें दोषी पाए जाने वालों को कड़ी सजा होती थी। इसके बाद भी यह प्रदूषण वहाँ फैलता ही जा रहा है। इस पर अमेरिकन एकेडमी आफ पिडीयाट्रिक्स को अधिकृत रूप से ‘सेक्सेटिंग’ की व्याख्या करनी पड़ी। इस व्याख्या के अनुसार ‘सेक्सेटिंग’ यानी सेक्स से भरे संदेश सेलफोन, कंप्यूटर या फिर अन्य किसी डिजीटल माध्यम से भेजना, प्राप्त करना या फारवर्ड करना। कुछ समय पहले एक अमेरिका के एक कांग्रेसी एंथोनी वेनर ने ऑनलाइन माध्यम का इस्तेमाल करते हुए कुछ उत्तेजक चित्र 6 महिलाओं को भेजा। यह मामला इतना अधिक तूल पकड़ा कि आखिर में उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। यह समस्या लगातार बढ़ रही है, आखिर क्या है इसका कारण?
इस पर एक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वास्तव में जब मस्तिष्क में सेक्स के विचार अपना कब्जा पूरी तरह से जमा लेते हैं, तब व्यक्ति सेक्स जैसी हरकतें करना शुरू कर देता है। जिस व्यक्ति के दिमाग में हमेशा सेक्स रहता है, उसके बाद इसके अलावा कोई विकल्प होता ही नहीं। तब वे सेक्सेटिंग जैसी प्रवृत्ति के लिए आकर्षित होता है। दूसरी तरफ अश्लील संदेश भेजते समय वह एक तरह की खुशी या पॉवर का अनुभव करता है। जो लोग उसके संदेश पढ़कर दु:खी होते हैं, तो उसे और दु:खी करके वह खुशी प्राप्त करता है। यह एक विकट स्थिति है। अपनी कुंठित भावनाओं को इस तरह से व्यक्त करने वाला और दूसरों की पीड़ा से खुशी प्राप्त करने वाला व्यक्ति समाज के लिए भी घातक हो सकता है। सेक्सटिंग की इस समस्या पर शोध करने वाली एक संस्था के प्रमुख का मानना है कि मोबाइल फोन के आने से यह समस्या अब विकराल रूप धारण करने लगी है। वीभत्स संदेश पढ़-पढ़कर और बार-बार फारवर्ड करने युवाओं का नैतिक पतन हो रहा है। कई युवा जब ऐसी हरकतें करते हुए पकड़े जाते हैं, तो उन्हें शर्म नहीं आती। उन्हें पता होता है कि वे इस तरह का अपराध कर रहे हैं। इसके समाधान के लिए युवाओं का मानसिक इलाज करवाना चाहिए। घर के बुजुर्गो को इस बात का खयाल रखना होगा कि घर का युवा सदस्य कहीं वीभत्स संदेश के आदान-प्रदानके जाल में तो नहीं उलझ गया है?
सेक्सटिंग अपराध के बारे में बात करते हुए मुंबई हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करने वाले एक वकील का कहना है कि भारत देश का समावेश ऐसे देशों में होता है जहाँ सेक्सटिंग करने वाले के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है। फोन या इंटरनेट के माध्यम से अश्लील संदेश भेजने वाले व्यक्ति को लंबे समय तक जेल की सजा हो सकती है। भारतीय दंड संहिता में महिलाओं की सुरक्षा के लिए भी अनेक प्रावधान हैं। इसके तहत सेक्सटिंग के माध्यम से यदि कोई महिला इसका शिकार होती है, तो उसे खुलकर पुलिस की सहायता लेनी चाहिए। ताकि अन्य महिलाएँ भी इससे प्रेरणा ले सके। इसका दूसरा पहलू यह है कि सेक्सटिंग के मामले में अभी तक कानून ही बन पाया है, इसका सख्ती से पालन नहीं हो पा रहा है। सरकार चाहे तो इस दिशा में सक्रियता दिखाते हुए कानून को सख्त बनाए और इसे अमल में लाने के तमाम उपाय करे। इसके लिए एक ईमानदार प्रयास आवश्यक है, ताकि देश में महिलाओं की सुरक्षा हो सके। देश की महिला सांसद भी इस दिशा में रुचि लें, तो कानून के अमल में तेजी आ सकती है।
सेक्सेटिंग की रोकथाम के लिए कानून
आईटी एक्ट के तहत कानून 67 धारा के अनुसार जो व्यक्ति अश्लील या वीभत्स जानकारी प्रकाशित करता है या किसी को भेजता है, तो आरोप सिद्ध होने पर उसे 5 वर्ष की जेल और एक लाख रुपए जुर्माना हो सकता है। यदि यह अपराध वह दोबारा करता है, तो उसे दस वर्ष की जेल और दो लाख रुपए जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा पुलिस मामले को देखते हुए धारा 509 के तहत आरोपी की धरपकड़ करती है, तो उसे दो से 7 साल तक की कैद की सजा का प्रावधान कर सकती है। इसके दायरे में सामान्य व्यक्ति से लेकर सेलिब्रिटी भी आते हैं। कई बार ऐसा होता है कि सामान्य व्यक्ति के अलावा सेलिब्रिटी भी सेक्सटिंग इसका शिकार हो सकते हैं। मार्च 2008 में दिल्ली के एक बी.कॉम के छात्र ने अभिनेत्री सुष्मिता सेन को वल्गर एसएमएस भेजने के खिलाफ प्रकरण दर्ज किया था। इसके पहले फरवरी 2007 में फीलांस मीडिया पर्सन को नवोदित अभिनेत्रियों को डांसरों के वीभत्स मेसेज भेजन के आरोप में पकड़ा था। 2007 में ही अभिनेत्री नगमा ने बांद्रा पुलिस स्टेशन में एफआईआर में कहा था कि काई अनजाना व्यक्ति उसे धमकी भरे और अश्लील एसएमएस भेज रहा है। आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक इन मामलों का निबटारा नहीं हुआ है। सभी प्रकरण ट्रायल कोर्ट में हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 8 अगस्त 2011

ठंडे बस्ते में जा सकता है ‘केश फॉर नोट’ का मामला

डॉ. महेश परिमल
‘केश फॉर नोट’ मामले में जिस तरह से अमरसिंह से पूछताछ हुई है, उससे स्पष्ट है कि यह मामला भी बहुत जल्द ठंडे बस्ते में चला जाएगा। इसका सबसे बड़ा सबूत यही है कि इस मामले के एक आरोपी सुहैल हिंदुस्तानी की गिरफ्तारी के बाद दिल्ली पुलिस ने उसके हवाले से यह बताया कि इस कांड में न तो कांग्रेस का और न ही समाजवादी पार्टी के किसी नेता की मिलीभगत है। अभी तो इस मामले में पूरी जाँच ही नहीं हुई है, उस स्थिति में पुलिस का यह कहना यही दर्शाता है कि केंद्र सरकार का इरादा आखिर क्या है? अमरसिंह से जो पूछताछ हुई है, वह एक नाटक लगती है। क्योंकि अमरसिंह के जवाब ही इतने लचर हैं कि कोई मामला बनता दिखाई नहीं दे रहा है। इस मामले में किसी गुनाहगार को सजा होगी, इसकी संभावना बहुत ही कम है। इसके पीछे यही बात है कि इसके पहले भी झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में नरसिंह राव और बूटा सिंह के खिलाफ पर्याप्त सबूत होने के बाद भी वे अदालत से निर्दोष छूट गए थे। अगर अमरसिंह का मामला अधिक उछलता है, तो यह मामला भी सामने आएगा ही। इसकी नजीर पेश की जाएगी, इसलिए कांग्रेस ही इस मामले को दबाना चाहती है।
भारतीय संसद के 58 वर्ष के इतिहास में 22 जुलाई 2008 का दिन सबसे अधिक शर्मनाक दिन के रूप में अंकित हो गया, जब सांसद प्रधानमंत्री के वक्तव्य को सुनने को आतुर थे, तब भाजपा के तीन सांसद खड़े होकर जिस तरह से हॉल के बीचों-बीच आकर टेबल पर नोटों की थप्पी उछालने लगे, तब लोकसभा के स्पीकर भी कुछ समझ नहीं पाए, सांसद भी कुछ समझ नहीं पाए, यहाँ तक कि टीवी पर इसका लाइव देखने वाले करोड़ों दर्शक भी हतप्रभ रह गए। इस मामले में भाजपा के जिन सांसदों को यदि वास्तव में रिश्वत दी गई, तो इसकी रिपोर्ट वे पुलिस थाने में कर सकते थे या फिर स्पीकर के केबिन में जाकर चुपचाप मिल सकते थे। आखिर टीवी चैनल के सामने आकर इस तरह का रहस्योद्घाटन करने का मतलब क्या था? आखिर इस नाटक को करने की क्या आवश्यकता था? इसके पहले संसद में विश्वासमत प्राप्त करने के लिए साम्यवादी दल के नेता ए.बी. वर्धन ने यह आरोप लगाया था कि एक सांसद का भाव 25 करोड़ रुपए चल रहा है। मतदान की पूर्व संध्या खबर मिली थी कि एनडीए के दस सांसदों को सरकार के खिलाफ मतदान करने अथवा सदन से अनुपस्थित रहने के लिए मना लिया गया है। जब मतदान हुआ, तब भाजपा के सात सांसदों ने क्रास वोटिंग की। क्रास वोटिंग करने वाले या अनुपस्थित रहने वाले तमाम सांसदों की सीबीआई द्वारा गहन जाँच की जाती, उनकी ब्रेन टेपिंग की जाती, तो सच्चई सामने आ जाती। पर यहाँ सबसे बड़ा सवाल यही है कि स्वयं ही इस मामले को सुलझाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है, तो फिर सच्चई सामने कैसे आएगी? इस मामले में सुप्रीमकोर्ट से ही कुछ आशा है कि वह कोई चमत्कार कर दिखाए। इसकी भी संभावना कम ही है, क्योंकि चमत्कार की उम्मीद जिन जजों से की जा सकती है, उनसे से एक सेवानिवृत्त हो गए, शेष धाकड़ जज अक्टूबर तक सेवानिवृत्त हो जाएँगे, ऐसे मे कोई यह नहीं चाहेगा कि सेवानिवृत्ति के अंतिम कुछ महीनों में कुछ ऐसा न किया जाए, जिससे उनकी फजीहत हो।
भाजपा के तीन सांसदों द्वारा रिश्वत का जो आरोप लगाया गया था, वह एक संगीन मामला है। इसके सबूत भी थे। एक न्यूज चैनल ने तो इस कांड की पूरी सीडी ही बनाकर स्पीकर को दी थी। इसमें सबसे अहम सबूत एक हजार की वे करंसी नोट थीं, ये नोट किस बैंक से निकाली गई थीं, वह आसानी से जाना जा सकता था। इसके अलावा नोटों पर फिंगर प्रिंट से भी कुछ नकुछ पता लगाया जा सकता था। दिल्ली पुलिस ने इस दिशा में कोई मेहनत की, इसकी जानकारी नहीं मिल पाई है। ‘केश फॉर नोट’ कांड की तुलना झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड से की जा सकती है। इस मामले की तह में जाएँ, तो सन् 1993 में जब संसद में प्रधानमंत्री नरसिंह राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। तब झारखंड के चार सांसदों को 50-50 लाख रुपए की रिश्वत दी गई थी। रिश्वत लेने वालों में शिबू सोरेन भी थे। इन्होंने रिश्वत की इस राशि को बैंक में जमा भी किया था। जाँच एजेंसी के सामने उन्होंने यहूल भी किया था कि नरसिंह राव की तरफ से उन्हें रिश्वत दी गई है। देश की विभिनन अदालतों में यह मामला दस वर्षो तक चला, इसके बाद भी सबूत न मिलने के कारण नरसिंह राव पूरी तरह से निर्दोष साबित हुए थे।
देश की नीति को समझना हो, तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के रिश्वत कांड के इतिहास को जानना होगा। इस कांड की जाँच सीबीआई को 1995 में सौंपी गई थी। 1997 की जनवरी तक तीन चार्जशीट फाइल की गई। इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव और गृह मंत्री बूटा सिंह को भी आरोपी बनाया गया था। इस पर नरसिंह राव एवं बूटा सिंह ने सुप्रीमकोर्ट में विशेष रूप से स्पेशल लीव पिटीशन की थी कि यह कार्यवाही संसद को प्रभावित कर सकती है, इसलिए हमें धारा 105 के तहत संरक्षण दिया जाए। सुप्रीमकोर्ट ने इस पर अपना फैसला दिया कि इस धारा का लाभ रिश्वत लेने वाले को मिल सकता है, रिश्वत देने वाले को नहीं, क्योंकि रिश्वत संसद के बाहर दी गई है। नरसिंह राव की तरह अन्य राजनेताओं ने भी इस फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में रिव्यू आवेदन किया था, पर सुप्रीमकोर्ट ने आवेदन लेने से इंकार कर दिया था। आखिर 29 सितम्बर 2000 को ट्रायल कोर्ट ने अपने फैसले में नरसिंह राव और बूटा सिंह को दोषी ठहराया था। इस फैसले के खिलाफ दोनों ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की। दिल्ली हाईकोर्ट ने मार्च 2002 में नरसिंह राव और बूटा सिंह तकनीकी कारणों से निर्दोष बताया। इस प्रकार से झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में पर्याप्त सबूत होने के बाद भी रिश्वत देने वाले पूरी तरह से बच गए। बाद में शिबू सोरेन को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया।
पुलिस यदि चाहे तो ‘केश फॉर नोट’ मामले में भी आधुनिक संसाधनों का इस्तेमाल कर आरोपियों से सच उगलवा सकती है। अब्दुल करीम तेलगी जैसे लोगों से इसी तरह के अत्याधुनिक संसाधनों से ही चौंकाने वाली जानकारी मिली थी। यदि उक्त नेताओं पर भी इसी तरह के संसाधनों का इस्तेमाल किया जाए, तो सच्चई बाहर आने में देर नहीं होगी। पर इस दिशा में केंद्र सरकार ही गंभीर दिखाई नहीं दे रही है। उसकी नीयत भी साफ न होने के कारण इस मामले को दबाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। मुम्बई के एक वकील ने अमेरिका के साथ परमाणु सौदे से देश की स्वतंत्रता खतरे में आ सकती है, इस पर अदालत से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई थी। पर मुम्बई हाईकोर्ट ने इस मामले में कुछ करने से हाथ खड़े कर लिए थे। इसी तरह से जब सरकार के किसी निर्णय से देश की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता को खतरा होने लगे, तो भी हमारी अदालतें ऐसा तमाशा देखती रहेंगी, पर कर कुछ नहीं पाएँगी। ऐसा इसलिए हो गया है कि हमारे संविधान में ही ऐसा प्रावधान है। ‘केश फॉर नोट’ मामले में पिछले तीन वर्षो से परदा पड़ा हुआ था। वह तो भला हो, भूतपूर्व चुनाव आयुक्त लिंगदोह की, जिन्होंने एक जनहित याचिका में दिल्ली पुलिस की इस काहिली पर प्रश्नचिह्न उठाया। तब पुलिस हरकत में आई और ताबड़तोड़ दो आरोपियों की धरपकड़ की गई। इनमें से एक संजीव सक्सेना के बयान के अनुसार समाजवादी पार्टी के भूतपूर्व महामंत्री अमरसिंह की गिरफ्तारी की पूरी संभावना थी, पर उनकी गिरफ्तारी से कितने ही राजनेता लपेटे में आ जाते, इसलिए दिल्ली पुलिस ने अमरसिंह से पूछताछ का केवल नाटक ही किया। अब यह कहा जा रहा है कि अमरसिंह से दोबारा पूछताछ की जाएगी, पर इस पूछताछ में क्या बातें सामने आएँगी, यह देश की जनता शायद ही कभी जान पाए। जब देश में पर्याप्त सबूत के बाद भी दो बड़े लोग बच सकते हैं, तो फिर उसकी तुलना में छोटा मामला है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ‘केश फॉर नोट’ मामले में भी दोषी आसानी से छूट जाएँगे। हम भले ही लोकतांत्रिक देश का ढिंढोरा पीटने से न थकते हों, पर सच तो यह है कि कानून आज भी बलशाली हाथों का खिलौना है। ऐसे में देश की न्यायप्रियता, निष्ठा और ईमानदारी पर सवालिया निशान लग ही जाता है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 6 अगस्त 2011

समस्याओं से मुँह चुराते सांसद







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गुरुवार, 4 अगस्त 2011

हरिभूमि और नवभारत में प्रकाशित आलेख



यह आलेख लवभारत में आज संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ




यह आलेख हरिभूमि में आज संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ

बुधवार, 3 अगस्त 2011

वे मौत के वाहक नहीं रोजी-रोटी का साधन हैं




रमेश शर्मा

पत्थलगांव। राह चलते अगर कहीं हमारा पांव किसी मुलायम चीज पर पड़ जाए, तो हमें सांप होने का आभास होता है और हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। सांप का नाम लेते ही रोंगटे खडे़ हो जाते हैं। हमारे लिए तो ये मौत के वाहक हैं, पर उन मासूमों के लिए तो ये ही खतरनाक और विषैले सांप रोजी-रोटी का साधन बन गए हैं। स्कूल जाने की चाहत तो रखते हैं, पर माता-पिता का जीवन यायावर की तरह होने के कारण ये भी उनके साथ खानाबदोश जिंदगी जीते हैं। कभी यहां तो कभी वहां! सबव के इस पावन महीने में इन सांपों को दिखाकर ये मासूम अच्छी कमाई कर लेते हैं।
नागलोक के नाम से चर्चित जशपुर जिले में ग्रामीणों की मौत का कारण बनने वाले नाग यहंा पर कुछ लोगों की रोजी रोटी का सहारा भी बने हुऐ हैं। इस अचंल में बहुतायत में मिलने वाले नाग और करैत जैसे जहरीले सांपों के भय से यहंा के लोग भले ही डर कर सहम जाते हैं पर इन्ही सांपों को कुछ बच्चों ने अपने जीवन यापन का सहारा बना लिया है। नागलोक के नाम से चर्चित इस अचंल में काले नाग भले ही ग्रामवासियों के लिये मौत का पैगाम लेकर पहुंचते हैं पर सन्तोष और पारस जैसे बच्चों के लिये यही जानलेवा कहलाने वाले काले नाग रोजी रोटी का सहारा बने हुए हैं। ये बच्चे जगह जगह इन भयावह दिखने वाले काले नाग को गले में लटका कर तथा फन निकाले हुए गुस्सा वाली मुद्रा का प्रदर्शन कर दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में लगे रहते हैं।



इसी रविवार को पत्थलगांव के बस स्टैण्ड पर काला नाग लेकर कुछ बच्चे भीख मांगते हुऐ दिखाई पड़े। सावन का पावन महीना होने के कारण कई श्रद्धालु इन बच्चों के हाथों में काले नाग के दर्शन कर नतमस्तक हो रहे थे। ऐसे लोगों से नाग दर्शन के एवज में दो चार रुपए.मांगकर ये बच्चे अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ में जुटे हुऐ थे।
पारस और सन्तोष नामक इन बच्चों ने बताया कि वे महासमुन्द जिले के निवासी हैं। यहंा पर वे अपने परिजनों के साथ सांप दिखाकर जीवन यापन का काम में जुटे हुए हैं। पारस ने बताया कि बचपन से इन सांपों के साथ रहने से उन्हे इनसे किसी तरह का डर नहीं लगता है। इस बच्चे ने बताया कि उसकी स्कूल जाकर पढ़ने लिखने की इच्छा होती है पर उनके माता पिता घुमन्तू जीवन व्यतीत करने के कारण उनकी पढ़ाई की इच्छा पूरी नहीं हो पाती है। अब तो सांपों के करतब दिखाने में ही पूरा समय गुजर जाता है।
सन्तोष नामक बच्चे का कहना था कि उन्हे अक्षर ज्ञान भले नहीं है पर काले नाग को कैसे वश में किया जाता है इसका बखूबी ज्ञान है। सन्तोष ने बताया कि बेहद जहरीले काले नाग को विषविहीन करने के बाद उनके माता पिता इन सांपों को उन्हे सौंप देते हैं। यदाकदा गुस्से में आकर सांप उनके शरीर पर अपने नुकीले दांत गड़ा देता है। इसके लिये वे जड़ी बूटियों का सहारा ले लेते हैं। इन बच्चों ने बताया कि जहरीले सांपों का विष निकालकर इसके खरीददारों के पास बेच दिया जाता हैं। पारस का कहना था कि सांपों का प्रदर्शन करके वे अपनी रोटी के साथ सांप के लिये ूुघ की व्यवस्था करते हैं।इन बच्चों के माता पिता भी टोकरों में सांपों को लेकर उनका प्रदर्शन के बाद जड़ी-बूटी बेचते हैं। एक गांव से दूसरे गांव की खाक छानने के बाद इन सांपों से उनकी रोटी का जुगाड़ हो जाता है। इन बच्चों का कहना था कि यहंा के लोग सुरक्षा के उपाय करें तो निश्चित ही सर्पदंश की घटनाओं में कमी आ सकती है। पारस का कहना था कि बहुत से लोग सांप को फन उठाए हुई मुद्रा में देखना पसंद करते हैं जिसके एवज में उनकी अच्छी आमदनी हो जाती है।

रमेश शर्मा पत्‍थलगॉंव

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

क्या मीडिया ने कभी कोई खूबसूरत महिला नहीं देखी



डॉ. महेश परिमल
पाकिस्तान से आई हिना रब्बानी स्वदेश लौटकर भारतीय मीडिया से खफा है। भारतीय मीडिया ने उसे एक खूबसूरत आइटम की तरह पेश किया। जिसके तमाम लटके-झटके सुर्खियाँ बन गए। सचमुच भारतीय मीडिया तो उस पर इस कदर फिदा था मानो उसने कभी कोई खूबसूरत महिला ही नहीं देखी। विशेषकर उन चैनलों पर तो कटाक्ष किया ही जा सकता है, जिससे गंभीर खबरों की उम्मीद की जाती है। हिना आई और गई, भारत में उसकी खूबसूरती की चर्चा है। लेकिन वे किसलिए यहाँ आईं थीं, भारतीय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा से क्या बातचीत हुई? हुर्रियत के नजरबंद नेता सैयद अली शाह गिलानी दिल्ली आकर हिना से किस आधार पर मिले? इस मीटिंग की व्यवस्था भारतीय अधिकारियों ने क्यों की? इसके बाद पाकिस्तान की विदेश नीतियों पर क्या बदलाव आएगा? इस तरह के सभी प्रश्न आज हवा हो गए। मीडिया रब्बानी की खूबसूरती ही नहीं, उसके पर्स, अँगूठी, कपड़े और लटके-झटके आदि में ही उलझ गया। पूरा मीडिया ही मूल मुद्दे से भटक गया। इस पर मीडिया की एक ही दलील हो सकती है कि जो दिखता है वही बिकता है। लोग तो बहुत कुछ देखना चाहते हैं, पर क्या मीडिया उसे खुले आम उसी तरह से दिखाएगा भला? वास्तव में आज मीडिया जो कुछ दिखा रहा है, तो वह दर्शकों की नहीं, बल्कि अपनी ही भूख को दर्शा रहा है।
मीडिया के साथ-साथ भारत सरकार यह भूल गई कि हिना रब्बानी खार पाकिस्तान सरकार की पसंदगी नहीं है। वह तो पाकिस्तान आर्मी द्वारा दिए गए एजेंडे को लेकर यहाँ आई थीं। अपने रूप और सौंदर्य के बल पर उसने वही किया, जो विश्वामित्र के लिए मेनका ने किया था। हमारे विदेश मंत्री भी उसके सामने घिघियाते हुए नजर आए, मानो वह हमारे बलवान मित्र राष्ट्र की प्रतिनिधि हो। उन्होंने जिस तरह से उनसे हाथ मिलाया, इसे जिस तरह से मीडिया ने दिखाया, उससे तो ऐसा लग रहा था, मानों वे उनका हाथ छोड़ना ही नहीं चाहते। हाथ मिलाने का फुटेज को ऐसे दिखाया गया, जैसे वह एक उत्सव हो। ऐसे दृश्यों को मीडिया दिन-भर में दसियों बार दिखाता है, जिससे देखकर घृणा होने लगती है। दूसरी ओर एक विदेश मंत्री में जो सख्ती और दृढ़ता होनी चहिए, वह हमारे विदेश मंत्री में कहीं भी दिखाई नहीं देती। वे भी यह भूल गए कि सामने जो खूबसूरत बला है, वह हमारे दुश्मन नंबर एक की प्रतिनिधि के रूप में है। जो पिछले 63 साल से हमें परेशान कर रहा है। कश्मीर उसका स्थायी राग है, जिसे वह समय-समय पर बजाता रहता है। दूसरी ओर, कश्मीर को भारत से अलग करने की माँग करने वाले अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी की मुलाकात में हमारा देश ही सहयोगी बन रहा है। हमारे देश के उम्रदराज नेताओं के आगे एक 34 वर्षीय पाकिस्तानी विदेश मंत्री को सामने पाना मानो एक अनोखी घटना हो गई। अब यह किस-किस को समझाएँ कि हिना की छोटी उम्र को उसकी कमजोरी न माना जाए, उससे प्रभावित होना जानलेवा हो सकता है।
हिना रब्बानी खार के सौंदर्य को अलग रखकर यह सोचा जाए कि क्या उसने पूर्व के विदेश मंत्रियों की तरह प्रभाव छोड़ा? हुर्रियत नेता से मिलने पर भाजपा ने काफी विरोध किया, पर यह विरोध केवल विरोध तक ही सीमित रहा। भारतीय मीडिया ने बहुत कुछ दिखाया। देखने वालों ने यहाँ तक देखा कि पत्रकार वार्ता में हिना पूरे आत्मविश्वास के साथ बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहती दिखाई दी। जबकि हमारे विदेश मंत्री के हाथ में एक पर्ची थी। इसका आशय यह निकल सकता है कि हिना को जो कुछ कहना था, वह पूरे आत्मविश्वास के साथ बोल गई, पर हमारे विदेश मंत्री को क्या कहना है, इसे किसी और ने तय किया था। जिसके लिए उन्हें पर्ची देखनी पड़ती थी। इसे क्या कहा जाए? हिना को देखकर लगा ही नहीं कि वह एक कर्ज से लदे गरीब देश का प्रतिनिधित्व कर रही है। ऐसा गरीब देश जो एक तरह से अमेरिका के हाथों गिरवी है। उस देश की प्रतिनिधि को हमारा मीडिया एक फैशनेबल महिला के रूप में पेश कर फैशन परेड आयोजित कर रहा है। क्या अब भारत का कोई प्रतिनिधि पाकिस्तान जाए, वहाँ जाकर वह यह माँग करे कि उसकी मुलाकात दाऊद इब्राहीम से कराओ, तो क्या पाकिस्तान सरकार इसका इंतजाम करेगी?
तीन दिन केवल तीन दिन भारत में रही, पर हम उससे यह नहीं समझ पाए कि पाकिस्तान की कूटनीति क्या है? लोगों ने यहाँ तक कटाक्ष किया है कि जब इतनी सुंदर महिला राजनीति में हो, तो फिर हमें फिल्मी अभिनेत्रियों की आवश्यकता ही नहीं है। केवल कसाब ही नहीं, दाऊद इब्राहिम, होटल ताज पर हमला, मुम्बई बम कांड, गुजरात में सिलसिलेवार बम घमाके, कश्मीर आदि अनेक मुद्दे हैं, जो पाकिस्तान के साथ अभी भी अनसुलझे हैं, इन मामलों पर कोई बात हुई हो, ऐसा लगता नहीं। अब वे स्वदेश लौट चुकी हैं, पर मीडिया के लिए अखलाक सागरी की पंक्तियाँ छोड़ गई हैं:-
एक मुद्दत हुई जब यहाँ से, कोई गुजरा था जुल्फें उड़ाए
हम आज तक उन्हीं खुशबुओं से नहाए हुए हैं..

सोमवार, 1 अगस्त 2011

जाना येद्दियुरप्पा का.. पर अब कौन?




डॉ. महेश परिमल
येद्दियुरप्पा तो गए, पर भाजपा का टेंशन अभी कम नहीं हुआ है। ये तो शुरुआत है। क्योंकि कर्नाटक को संभालना बहुत ही मुश्किल है। चहाँ रेड्डी बंधुओं का राज चलता है। ऐसे में येदि के स्थान वर किसी ऐसे व्यक्ति को कर्नाटक की कमान देना, जिसकी छवि साफ हो। पर वो कोन होगा, यही प्रश्न भाजपा को मथ रहा है। वैसे जब बिहार में भ्रष्टाचार के आरोप में लालू प्रसाद घिर गए, तब उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती ने जब इस्तीफा दिया, तो उन्होंने अपने चहेते बाबूलाल गोर को सत्ता सौंप दी। पर येद्दियुरप्पा ने ऐसी कोई पेशकश नहीं की है कि उनके स्थान पर किसे रखा जाए। कुछ नाम अवश्य हैं, जिन पर विचार किया जा सकता है। कर्नाटक भाजपाध्यक्ष के.एस. ईश्वरप्पा, राज्यसभा सदस्य प्रभाकर कोरे, पूर्व भाजपाध्यक्ष सदानंद गोवडा आदि पर लोगों की निगाहें हैं। इनमें से ईश्वरप्पा कुरुबा जाति के अगुवा हैं, इसके साथ ही येद्दियुरप्पा के कट्टर विरोधी भी। मंत्रिमंडल को येद्दियुरप्पा के मोहपाश से मुक्त करना है, तो यही नाम सबसे ऊपर है। उसके बाद राज्यसभा सदस्य प्रभाकर कोरे का नाम आता है। वे एक सुलझे हुए शिक्षाशास्त्री हैं। दूसरी ओर येद्दियुरप्पा स्वयं सदानंद गोवडा को पसंद करते हैं। इन्हें मुख्यमंत्री बनाकर लिंगायत जाति को खुश किया जा सकता है। फिर जगदीश शेट्टार को उपमुख्यमंत्री बनाकर मंत्रिमंडल को संतुलित किया जा सकता है।
कर्नाटक में नए मुख्यमंत्री और वहाँ के हालात को परखने के लिए भाजपा कार्यसमिति ने अरुण जेटली और राजनाथ सिंह को जबावदारी सौंपी है। कार्यसमिति के सामने अनंतकुमार भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जा सकते हैं। पर उनके साथ यह मानइस पाइंट है कि वे येद्दियुरप्पा की तरह लिंगायत न होकर ब्राrाण हैं। इसके अलावा नीरा राडिया के साथ भी उनका नाम जुड़ा हुआ है। जगदीश शेट्टार अच्छे प्रत्याशी हो सकते हैं, पर वे रेड्डी बंधुओं के अधिक निकट होने के कारण उनका पत्ता भी कट सकता है। इसके अलावा विधि मंत्री सुरेश कुमार भी योग्य प्रत्याशी हो सकते हैं।
येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने का सबसे बड़ा कारण यह था कि जब पार्टी कार्यकर्ता स्वयं को पार्टी से ऊपर मानने लगता है, तो उसे बेइज्जत होकर जाना ही पड़ता पद न छोड़ने के लिए येद्दियुरप्पा ने पार्टी आलाकमान को कई तरह की धमकियाँ दी। उनके बिना कर्नाटक में भाजपा रसातल में चली जाएगी। रेड्ड्ी बंधुओं पर वे ही लगाम कस सकते हैं। एक तरह से उनका यह भयादोहन था। लेकिन आलाकमान ने तय कर रखा था कि इन्हें हटाना ही है। काफी ना-नुकुर के बाद अंतत: उन्होंने इस्तीफा दे ही दिया। भाजपा को यह काम काफी पहले ही कर देना था, इससे उसकी छवि और भी निखर गई होती। भ्रष्टाचार से लड़ने में इस उदाहरण को एक नजीर बनाकर पेश किया जा सकता था। पर देर कर दी, लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद।
वैसे भी लोकायुक्त की रिपोर्ट आने के बाद येद्दियुरप्पा का जाना तय था। क्योंकि सरकार को करोड़ों का चूना लगाने वाले और अपने खानदान को उपकृत करने के लिए उन्होंने जो पाप किए, उसे तो भुगतना ही था। दूसरी ओर पार्टी को भी लग गया कि इन्हें काफी संरक्षण दे दिया गया है, अब इन्हें सहन नहीं किया जा सकता। पार्टी चाहती,तो येद्दियुरप्पा के खिलाफ अभी सबूत नहीं मिले हैं, कहकर पल्ला झाड़ सकती थी, लेकिन उसे अपनी छवि साफ रखने के लिए येदि को दरवाजा दिखाना ही था। वैसे येदि ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया, लोकायुक्त की रिपोर्ट के आधार पर वे दोषी नहीं ठहराए जा सकते। ऐसा माना जा सकता था। इसके पहले भी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ऐसा कर चुकी हैं। लेकिन भाजपा आलाकमान को व्यक्ति से अधिक पार्टी का अनुशासन प्रिय था, इसलिए उन्होंने येदि का इस्तीफा लेने में देर नहीं की।
वैसे पार्टी की ढीली नीति के कारण ही येदि को मनमानी की पूरी छूट मिल गई। इसका नुकसान पार्टी को उठाना पड़ा। उन्हें पता था कि येदि जितने समय तक मुख्यमंत्री रहेंगे, तब तक पार्टी की छवि उज्‍जवल नहीं हो सकती। भाजपा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नैतिक अधिकार ही खो दिया था। इसलिए एक आदर्श स्थापित करने के लिए येदि की बलि लेनी ही थी। इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का रास्ता साफ हो गया। उधर मीडिया भी भाजपा को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा को बार-बार घेर रहा था। इसलिए येदि को हकालना उसकी मजबूरी भी कहा जा कसकता है। इस निर्णय से भाजपा ने दूसरा अच्छा काम यह किया कि येदि को आईना दिखा दिया। अब तक येदि स्वयं को पार्टी से ऊपर समझने लगे थे। वे ये भूल गए थे कि वे भाजपा के कारण मुख्यमंत्री हैं, न कि अपने बल पर या फिर रेड्डी बंधुओं के बल पर। वे अतिआत्मविश्वास के शिकार हो गए थे। रेड्ी बंधुओं द्वारा किए जा रहे असंवैधानिक कामों के प्रति उन्होंने अपनी आँखें ही बंद कर रखी थी। इस तरह से आसमान पर उड़ने वाले येदि को जमीन दिखानी थी, इसलिए दिखा दी। इससे दूसरे अन्य लोगों तक यह संदेश चला गया कि पार्टी व्यक्ति से बड़ी है। इसके अलावा भ्रष्टाचार को पोषित करना भी भ्रष्टाचार से कम अपराध नहीं है।
खैर, भाजपा के सामने कई प्रश्नचिह्न् हैं, जिसका सामना उसे करना है। इसे वह कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई का एक पड़ाव मान सकती है। क्योंकि येद्दियुरप्पा से इस्तीफा लेकर उसने एक नषीर तो पेश की ही है। इससे कांग्रेस की बोलती बंद हो गई है। अब भाजपा पूरे दम खम के साथ कांग्रेस का जवाब दे सकती है कि उसने एक भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्री को लोकायुक्त की रिपोर्ट आते ही हटा दिया। कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाई। केग की रिपोर्ट में कई मं˜त्रियों का पर्दाफाश हो गया था, फिर भी उन्हें पूरा संरक्षण दिया गया। कनोटक यदि अब भाजपा से छूट भी जाए, तो उसके लिए दिल्ली दूर नहीं है।
डॉ. महेश प

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