बुधवार, 28 सितंबर 2011

बदलते रहते हैं सफलता के मापदंड

डॉ. महेश परिमल
कहा जाता है कि सफलता कभी स्थायी नहीं होती। वह एक हाथ से दूसरे हाथ पर जाती रहती है। इसलिए उसके मापदंडों में भी परिवर्तन आता रहता है। इन मापदंडों में हर दशक में एक परिवर्तन तो आता ही है। यही कारण है कि आज जो फिल्में बॉक्स ऑफिस में हिट होती हैं, उसकी कमाई के आँकड़े तो आकर्षक होते हैं, पर वे प्रभावित नहीं करते। इसकी वजह साफ है कि आज रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले लगातार घट रही है।
हाल ही में सलमान खान और करीना कपूर अभिनीत फिल्म ‘बॉडीगार्ड’ रिलीज हुई। इसकी आय को बेवजह विवाद को जन्म दिया। आज हर कोई स्वयं को सफल एक्टर स्थापित करने में लगा हुआ है। बॉडीगार्ड में सलमान, कभी आमिर खान, कभी ऋत्विक रोशन, कभी शाहरुख खान आदि स्वयं को श्रेष्ठ बताने में लगे हैं। इनकी फिल्मों से फिल्मी लाइन से जुड़े अंतिम व्यक्ति को लाभ पहुँचता हो, यह पता नहीं चलता। दूसरी ओर फिल्म उद्योग में सबसे अधिक कमाई कराने वाले कलाकारों में धर्मेद्र और अमिताभ बच्चन का नाम सबसे ऊपर है। आज फिल्म हिट होने की व्याख्या बदल गई है। एक समय था जब बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘किस्मत’ कोलकाता में लगातार तीन साल तक चलती रही। इसी तरह रमेश सिप्पी की शोले मुम्बई के मिनर्वा थिएटर में लगातार 5 साल तक चलती रही। उस समय अखबारों में यह प्रकाशित होता रहा कि फिल्म शोले की टिकटों की कालाबाजारी करने वाले टपोरी आज करोड़पति बन गए हैं। इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे, मुम्बई के मराठा मंदिर थिएटर में मेटिनी शो में 5 साल तक चलती रही। यहाँ महत्वपूर्ण मेटिनी शो है, 24 घंटे में मात्र एक ही शो। आज से 20 वर्ष पहले जो मेटिनी शो का आकषर्क था, अब वैसा नहीं रहा।
वास्तविकता यह है कि 1940 के दशक से लेकर 1980 के दशक तक किसी भी फिल्म के सुपरहिट होने का मापदंड यह होता था कि वह अमुक थिएटर में कितने ह़फ्ते चली। ऐसी फिल्मों को बनाने वाले फिल्म निर्माताओं के बारे में यह कहा जाता था कि उनके हाथ में धूल को भी सोना बनाने की कूब्बत है। मेहबूब खान, व्ही. शांताराम राजकपूर, बी.आर. चोपड़ा आदि ऐसे नाम थे, जिनकी फिल्में एक साथ आधे दर्जन थिएटर में रिलीज होती और कमोबेश सभी थिएटरों में 25 सप्ताह चलती। कई फिल्में 50 सप्ताह भी चल जाती। हमें अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, व्ही. शांताराम की ‘झनक-झनक पायल बाजे ‘ मेहबूब खां की मदर इंडिया, बी आर चोपड़ा की नया दौर, सुबोध मुखर्जी की जंगली, श्रीधर की दिल एक मंदिर, राजकपूर की संगम, देवआनंद की गाइड आदि ऐसी फिल्में थीं, जो 25 से 50 सप्ताह तक तो आराम से चलती थीं। रही बात बॉक्स ऑफिस पर धन जुटाने की, तो इन दोनों पर विचार किया जाना चाहिए। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म हिट होने के बाद जो आँकड़े दिखाए जाते हैं, वे करोड़ों के होते हैं। हमें ये राशि हतप्रभ नहीं करती, क्योंकि आज रुपए की कीमत है ही कितनी?
1950 के दशक में ब्रिटेन की रानी की तस्वीर वाले रुपए की बाजार में कीमत थी। अभिनय सम्राट दिलीप कुमार ने एक बार कहा था कि उस समय एक रुपए में करीब एक सेर शक्कर मिलती थी, तब हमें हर महीने वेतन के रूप में 500 रुपए मिलते थे। तब के 500 रुपए आज के 50 हजार रुपए से भी अधिक मूल्यवान थे। बांद्रा के सी फेज पर संगीतकार नौशाद का बंगला उस समय मात्र 12 हजार रुपए में बनकर तैयार हुआ था। आज उसी बंगले की कीमत 30 करोड़ रुपए है। आज के बॉक्स ऑफिस आँकड़े इसलिए आकर्षक नहीं लगते। वजह यही है कि आज अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपए की कीमत एकदम से घट गई है। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पहले एक फिलम को दोबारा देखा जा सकता था, अर्थात उसकी रिपीट वेल्यू भी थी, पर आज की फिल्में एक बार भी पूरी देखना मुश्किल हो जाता है, दोबारा की बात ही नहीं की जा सकती।
अभी कुछ ही दिन पहले लोगों ने ईद मनाई, तो दो मित्र आपस में बातचीत करते हुए कह रहे थे कि आज हमारी शाम बेहतर गुजरेगी, क्योंकि अमुक चैनल पर फिल्म मुगले आजम दिखाई जा रही है। पहले की फिल्मों की रिपीट वेल्यू हुआ करती थी, लोग आज भी पुरानी फिल्मों को देखने के लिए टूट पड़ते हें। आज कहीं भी मदर इंडिया लगी हो, तो भीड़ को काबू में लेना मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही अमिताभ की फिल्मों के लिए भी कहा जा सकता है। अमिताभ उस समय के अन्ना हजारे थे। उन्होंने अपनी कई फिल्मों में अव्यवस्था से लड़ने वाले योद्धा के रूप में अपने आप को पेश किया है। क्या आज मुन्ना भाई, सिंघम और बॉडीगार्ड देखने के बाद उसे फिर से देखने की इच्छा होगी? आज यदि सिंघम या बॉडीगार्ड हिट होती है, तो उसका लाभ किसे मिलता है, अधिक से अधिक हीरो को और निर्माता को। लाइटमेन या ट्राली मेन को तो कतई नहीं। लेकिन धर्मेद्र और अमिताभ की फिल्मों से फिल्म व्यवसाय से जुड़े सभी तबको को भी फिल्म के हिट होने का लाभ मिलता था। फिर चाहे वह गीतकार हो, संगीतकार हो, वितरक हो, या फिर लेखक हो। यहाँ तक कि लाइटमेन और ट्रालीमेन भी मुनाफे में रहते थे।
इस तरह से बदलते जीवन मूल्यों के साथ अब फिल्मों के हिट होने के मापदंड भी बदलने लगे हैं। अब तो एक दिन या एक सप्ताह की कमाई ही महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है। फिल्म थिएटर में कितने दिन या सप्ताह चली, यह महत्वपूर्ण नहीं है। इसलिए कलाकार भी अपनी फिल्म को हिट करने के लिए सभी शहरों में अपने गुर्गों को भेज देते हैं, जो टिकटों की कालाबाजारी कर फिल्म देखने के लिए दर्शकों को विवश कर देते हैं। फिल्मों को हिट करने का यही फंडा काम आ रहा है।
डॉ. महेश परिमल

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