शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

नारी अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं तय करे

डॉ. महेश परिमल
दिल्ली में गेंगरेप की घटना के बाद युवा आक्रोश देखने के काबिल है। यह बात अभी तक समझ में नहीं आई कि गुजरात में यदि एक ढाई साल की मासूम के साथ दुष्कर्म होता है, तो उसके लिए कोई जनांदोलन नहीं होता। गुजरात ही क्यों अन्य किसी शहर में किसी युवती के साथ भी दुष्कर्म होता है, तो भी युवा आक्रोश इस तरह से सड़कों पर नहीं उतरता। आखिर दिल्ली की घटना को इतना अधिक तूल क्यों दिया जा रहा है? आधुनिक युवतियों की मानसिकता दिल्ली के गेंगरेप की घटना के कारण इतनी उहापोह आखिर क्यों? इस घटना ने नारी स्वातं˜य पर नए सिरे से विचार करने के लिए प्रेरित किया है। वैसे यह तय है कि नारी स्वातं˜य की भ्रामक कल्पना ही नारी की दुश्मन है।
पिछले साल देश भर में नारी के साथ दुष्कर्म की 24,206 घटनाएं हुई थीं। निश्चित ही इस वर्ष यह आंकड़ा उससे बड़ा होगा। सवाल यह है कि अभी तक युवाओं का यह जोश आखिर कहां था। इससे अधिक दुष्कर्म की घटनाएं तो अन्य राज्यों में भी हुई हैं। दिल्ली की घटना को नारी की गरिमा मानने वाले शायद मुम्बई की उस घटना को भूल गए हैं, जहां एक नेपाली महिला पर तीन बार दुष्कर्म किया गया। मणिपुर में भी एक महिला के साथ सामूहिक अनाचार किया गया था। आखिर इन घटनाओं पर युवा इतना अधिक उद्वेलित क्यों नहीं हुआ? इसका कारण ढूंढने के लिए हमें आधुनिक शहरी युवतियों के मानस पर एक दृष्टि डालनी होगी। दिल्ली में जिस युवती के साथ दुष्कर्म हुआ है, वह भी कॉलेज की आम माडर्न युवतियों की तरह ही है। वह भी देश की करोड़ों आम युवतियों की तरह अपने दोस्त के साथ महानगरीय स्वतंत्रता का आनंद ले रही थी। वह अपने दोस्त के साथ घूम रही थी या फिल्म देखने गई थी। इसके बाद उसके दोस्त की उपस्थिति में उसके साथ जो कुछ हुआ, यह जानकर अन्य वुवतियां बुरी तरह से घबरा गई हैं। उनमें भीतर से असुरक्षा की भावना घर कर गई है। उनमें यह भय जागा कि जो कुछ उक्त युवती के साथ हुआ, वह कभी भी उनके साथ भी हो सकता है। इसी धारणा ने शहरी युवाओं को इस जनांदोलन के लिए प्रेरित किया है। मुम्बई में यदि तीन साल की मासूम के साथ दुष्कर्म होता है, तो दिल्ली की युवतियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली में देर रात यदि किसी युवती के साथ गेंगरेप होता है, तो यह युवतियां यही समझती हैं कि हम कहां देर रात घर से बाहर निकलते हैं? मुम्बई में यदि नेपाल की युवती के साथ गेंगरेप होता है, तो यही युवतियां सोचती हैं कि वह युवती अनजाने शहर में रास्ता भूल गई होगी, इसीलिए उसके साथ ऐसा हुआ। दूसरी और दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में कई युवतियां अपने पुरुष दोस्त के साथ देर रात फिल्म देखने जाती हैं। इसके बाद दिल्ली में यदि किसी युवती के साथ गेंगरेप होता है, तो यही युवतियां स्वयं को असुरक्षित समझने लगती हैं। उन्हें यह चिंता सताने लगती है कि कहीं हमारे साथ ऐसा हो गया तो? इसीलिए इतनी युवतियां बिना किसी नेतृत्व के इस जनांदोलन में शामिल हो गई हैं।
दिल्ली की इस घटना ने कई युवतियों के पालकों को चिंता में डाल दिया है। कई पालक तो अपनी बेटियों के वार्डरोब पर नजर डालना शुरू कर दिया है कि कहीं उसके कपड़े इतने भड़काऊ तो नहीं, जिससे पुरुष आकर्षित हो। कपड़े कहीं इतने अधिक चुस्त तो नहीं, जो उसकी काया को एक्सपोज करते हों। कई पालकों ने बेटियों पर कड़ी नजर रखना शुरू कर दिया है। कई ने तो रात में उनके घर से निकलने पर ही पाबंदी लगा दी है। कई जागरूक पालकों ने बेटियों के मोबाइल पर नजर डालना शुरू कर दिया है। उसके पास कितने बांयफ्रेंड के फोन आते हैं, किससे वह मिलती-जुलती है। किसके साथ पार्टियों में जाती है। कॉलेज जाने वाली युवतियों को यह बात खटकने लगी है, इसलिए वे आंदोलन में शामिल होने के लिए सड़कोंपर उतर आई हैं। इक्कीसवीं सदी की भारतीय नारी आज 19 वीं सदी की नारियों की तुलना में स्वतंत्रता का भरपूर आनंद उठा रही हैं। नारी को स्वतंत्र होना चाहिए, इसमें कोई दो मत नहीं। इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। पर नारी स्वातं˜य के साथ उनकी सुरक्षा पर भी ध्यान देना अति आवश्यक है। जिस समाज में सभी पुरुष अपने भीतर नारी सम्मान की भावना रखते हैं, तो यह अच्छी बात है। लेकिन आज शायद कोई समाज इससे अछूता हो, जिस समाज में नारी के साथ दुष्कर्म न होता हो। आज भले ही पुरुष कितना भी अच्छे स्वभाव वाला माना जाता हो, पर समय आने पर नारी उत्पीड़न में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा ही लेता है। आज हर पुरुष ने अपने चेहरे पर एक नकाब लगा रखा है। अवसर पाते ही नकाब बदल जाता है। एक साधू पुरुष भी दुष्कर्म करने में पीछे नहीं रहता। हर पुरुष के भीतर एक राक्षस होता है, जो लाचार नारी को देखकर अपना रूप दिखा देता है। यही कारण है कि आज जब यही पुरुष नारी को स्वछंद रूप से विचरते देखता है, तो उसके भीतर का राक्षस बाहर आ जाता है। वह कभी नहीं चाहता कि एक नारी इस तरह से देर रात तक बेखौफ अपने दोस्तों के साथ घूमती रहे। पुरुष के भीतर राक्षस को जगाने का काम करते हैं युवतियों के भड़काऊ कपड़े, जिससे उसका पूरा शरीर झांकता रहता है। यदि देर रात घूमने वाली युवतियां अपने उत्तेजक कपड़ों पर एक नजर डाल दे, तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि माजरा आखिर क्या है? आखिर क्यों पुरुष उसे खा जाने वाली निगाहों से देख रहे हैं। एक युवती को यह सुरक्षित रहना है, तो सबसे पहले उसे अपने कपड़ों पर ध्यान देना चाहिए।
क्रांकिट के इस घने जंगल में शिकारी घूमते रहते हैं। जो केवल युवतियों का शिकार करते रहते हैं। इस पर यदि सरकार यह ऐलान करती है कि युवतियों को देर रात घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए अन्यथा वह हिंसक जानवरों का शिकार बन सकती हैं। इस पर यदि युवतियां यह मांग करें कि प्राणियों को हिंसा नहीं करनी चाहिए, तो यह मांग जायज कैसे हो सकती है? बैंक से जब राशि बाहर निकाली जाती है, तो सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया जाता है। घर में भी रुपए गिनते समय आसपास का ध्यान रखा जाता है। इसलिए यह व्यवस्था दी गई है कि महिला या युवती को देर रात घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, तो इसके पीछे यही भावना है कि वह सुरक्षित रहे। समाज की यह व्यवस्था नारी को गुलाम बनाने के लिए कतई नहीं है। यह व्यवस्था नारी स्वभाव की रक्षा के लिए है। सीता ने जब लक्ष्मण रेखा पार की, तभी उनका अपहरण हो पाया। आज की नारी भी अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं तय कर ले। तभी वह समाज मे सुरक्षित रह सकती है। नारी पर अत्याचार न हो, इसके लिए कानून तो अपना काम कर ही रहा है। कानून की शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाएं ही इस दिशा में ऐसे कानून की वकालत करें, जिसमें नारी की सुरक्षा की बात हो, तो शायद यह एक सकारात्मक कदम होगा। यौन अपराध कोई आज का नया अपराध नहीं है। यह भी सनातन काल से चला रहा अपराध है। इसे नेस्तनाबूद करने के लिए ऐसा कानून हो, जिससे पुरुषों में भय हो। वह एक बारगी सोचे, कि ऐसा करने पर मेरे साथ क्या-क्या हो सकता है? केवल यही एक विचार ही पुरुष को अपराध करने से रोक सकता है।
आज दिल्ली में जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उसकी तारीफ तो करनी ही होगी कि वह बिना नेतृत्व का है। लेकिन यह आंदोलन शांतिपूर्ण होता, तो सरकार भी सोचने के लिए विवश हो जाती। अन्ना हजारे का आंदोलन शांतिपूर्ण था, इसलिए सरकार झुकी। यह आंदोलन कहीं-कहीं हिंसक हो उठा है, इसलिए सरकार ने भी देर से ध्यान दिया। आंदोलन जितना अहिंसक होना, उतना ही धारदार होगा, युवाओं को यह नहीं भूलना चाहिए।
  डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

यह सूरत बदलनी चाहिए......

डॉ. महेश परिमल
आज राजधानी का इंडिया गेट एक महासंग्राम का रण बन गया है। लोग अपने आक्रोश को शब्द देने के लिए वहां पहुंच रहे हैं। लोग चाहते हैं कि अब बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा देने का समय आ गया है। यह सजा फांसी से कम न हो, इसके भी लाखों समर्थक हैं। लाचार सरकार हमेशा की तरह लाचार ही है। एक डरी-सहमी सरकार से अपेक्षा करना बेकार है। एक ऐसी सरकार जो किसी मामले को पूरी शिद्दत के साथ लटकाती है, फिर जब उसका लाभ लेना होता है, तो जल्दबाजी में सब कुछ कर बैठती है। गुजरात चुनाव को देखते हुए कसाब को फांसी दे दी गई। पर अफजल का मामला अभी तक लटक रहा है। सरकार ही इन्हीं कारगुजारियों और नाकारापन के कारण लोग अब सड़कों पर उतर रहे हैं। लोगों का आक्रोश अब पहले से अधिक मुखर होने लगा है। इसके लिए लोग अब कानून हाथ में लेने से नहीं हिचक रहे हैं। सरकार पूरी तरह से नाकाम। वह तो आंदोलनकारियों को असामाजिक तत्व बताने से नहीं चूक रही है। हमारी न्याय प्रणाली को सशक्त बनाने के लिए जितने प्रयास हुए, वे नाकाफी थे, यह इंडिया गेट पर हुए प्रदर्शन से स्पष्ट हो जाता है।
एक डरी-सहमी सरकार कुछ नहीं कर सकती। करना चाहे भी तो नहीं कर सकती। वह अफजल के मामले को वोट के खातिर लटकाए रख सकती है। दूसरी ओर उसी वोट के खातिर कसाब को जल्दबाजी में फांसी दे सकती है। अपने हीं मंत्रियों को भ्रष्ट कहने में हिचकती है। पहले उन्हें लूट के लिए खुली छूट देती है, फिर जब वह कानून के शिंकजे में आ जाए, तो अपना पल्ला झाड़ लेती है। अपनी ही विश्वसनीय संस्था के आंकड़ों को गलत बताती है। जो सरकार के फैसलों का समर्थन करें, उन्हें उबार लेती है, जो उसका विरोध करे, उसे बड़े प्यार से निपटा भी देती है। अपनी हार को ही अपनी जीत मानती है। बार-बार हार से सबक भी नहीं सीखना चाहती। एक आभामंडल अपने आसपास बना लिया है इस सरकार ने, जो इस कैद से निकलना ही नहंीं चाहती। भ्रष्ट लोग सरकार चला रहे हैं। बलात्कारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कड़े कानून का सहारा लेने की बात तो करती है, पर फांसी का नाम तक नहीं लेती। उस संसद से क्या अपेक्षा की जाए, जिसमें 6 बलात्कारी सांसद हों। लोगों का आक्रोश ऐसे ही नहीं उमड़ पड़ा है। इसके लिए एक अंतहीन पीड़ा से गुजरती रही है, यह युवा पीढ़ी। कई मामले ऐसे हुए हैं, जिसमें बलात्कारी लम्बे चले मामले के कारण बेदाग बरी हो गए हैं। इस दौरान पीडि़ता को कितने कष्ट झेलने पड़े हैं, यह बलात्कारियों को संरक्षण देने वाली सरकार समझना नहीं चाहती।
बात आती है कि किस तरह से आखिर नारी अपनी रक्षा करे। सरकार से आशा बेकार है, इसलिए अब समय आ गया है कि हम ही कुछ करें। समय की मांग है कि हमें अपना व्यवहार बदलना होगा। दिल्ली की घटना को देखते हुए देश भर में एक तरह से आक्रोश का ज्वालामुखी फूट पड़ा है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए तरह-तरह के उपायों की जानकारी दी जा रही है। कही केंडल मार्च निकल रहा है, तो कहीं राष्ट्रपति भवन घेरा जा रहा है। कोई फास्ट ट्रेक कोर्ट की मांग कर रहा है, तो कोई दुष्कर्म करने वालों को फांसी की सजा देने की मांग कर रहा है। इन सारी मांगों को यदि मान भी लिया जाए, तो भी इसके अमल में एक लम्बा समय लगेगा। इसके बजाए यदि इस दिशा में सामाजिक स्तर पर ही कुछ किया जाए, तो वह बहुत ही जल्द अच्छे परिणाम सामने लाएगा। नीचे कुछ उपायों का जिक्र किया जा रहा है। इससे कुछ तो परिवर्तन आएगा, ऐसी आशा की जा सकती है।
हमें ही कुछ करना होगा
नारी की सुरक्षा करने की जवाबदारी मुख्य रूप से समाज की है। पुलिस तंत्र से देश की तमाम नारियों की सुरक्षा नहीं हो सकती। यह सच है। बाल अवस्था में एक बालिका की रक्षा करने की जिम्मेदारी उसके पिता की है। युवावस्था में महिला की रक्षा उसके पति को करनी चाहिए और वृद्धावस्था में नारी की रक्षा उनके पुत्रों को करनी चाहिए। यह तय हो जाना चाहिए कि घर की कोई भी महिला अपने स्वजनों के साथ ही निकले। किसी भी रूप में अकेले घर से निकले ही नहीं। नारी सम्मान क्या होता है, इसकी शिक्षा पुरुषों को दी जाए। उनके सामने माता और बहन का उदाहरण देकर यह बताया जाए कि इनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, तो समाज की अन्य नारियों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। यदि बालपन से ही नारी की रक्षा की शिक्षा मिलेगी, तो नारियों को एक भोग्या के रूप में देखने के नजरिए में बदलाव आएगा। आज जो कुछ हो रहा है, वह नारियों के प्रति आदर भाव न होने के कारण हो रहा है। नारी किसी भी रूप मे भोग्या नहीं है। आज इसी मानसिकता की जंजीरों को तोडऩा है। जब तक समाज में नारी के प्रति सम्मान का भाव नहीं जागेगा, तब तक नारी हर जगह असुरक्षित है। आज मीडिया में नारी को इस तरह से प्रदर्शित किया जाता है, जिससे पुरुष वर्ग उसे केवल भोग्या के रूप में ही देखता है। एक तरह से नारी कैमरे के सामने पुरुष को उत्तेजित करने के लिए ही आती है। भले ही वह अभिनय कर रही हो, या फिर किसी उत्पाद का विज्ञापन कर रही हो। इन प्रचार माध्यमों ने नारी की छवि ही ऐसी बना दी है कि पुरुष उसे भोग्या के सिवाय कुछ मानना ही नहीं चाहता। तो ऐसे प्रचार माध्यमों पर अंकुश लगाने की दिशा में प्रयास होने चाहिए। मॉडलिंग जैसे व्यवसाय पर तो तुरंत ही प्रतिबंध लगना चाहिए।
मानव शरीर शाकाहारी है। लेकिन आजकल शराब, मांसाहार जैसी तामसी प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले पदार्थों का प्रचलन बढ़ा है। इससे पुरुषों की वासना बेकाबू होने लगी है। फास्ट फूड और जंक फूड ने इसमें अपनी विशेष भूमिका निभाई है। विद्याथियों को बचपन से ही शाकाहार की ओर रुझान बढ़ाने की दिशा में काम होना चाहिए। आचार-विहार में संयम का पाठ शामिल होने से नारी के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आएगा। योग, ध्यान शिविर आदि से भी मन की भावनाओं को काबू में किया जा सकता है। इस दिशा में नारी को सबसे पहले सजग होना होगा कि वह किसी भी पुरुष से एकांत मे ंन मिले। फिर चाहे वह अपने पुरुष मित्र के साथ कहंी भी हो, ऑफिस में बाँस के साथ हो, एकांत विजातियों को अक्सर गलत काम के लिए प्रेरित करता है, यह बात हर नारी को समझ लेनी चाहिए। एकांत और अंधेरा ऐसे कारक हैं, जहां पुरुष अपने को काबू में नहीं रख सकता। दिल्ली की घटना रात में हुई है। इस तरह से नारी को यह समझ लेना चाहिए कि जो काम पुरुष दिन के उजाले में करने से घबराता है, उसी काम को वह रात के अंधेरे में कर गुजरता है। रात में पुरुष तो बाहर निकल सकते हैं, पर नारी का निकलना मुश्किल है, क्योंकि वह कई मामलों में पुरुषों से संघर्ष नहीं कर सकती। यदि किसी नारी के साथ रात में कुछ होता है, तो वह उसका विरोध करती है, पर उसके समर्थन में महिलाएं नहीं आती, वहां पुरुषों का ही जमावड़ा होता है। मानो रात का अंधेरा पुरुषों के लिए ही हो। पुरुषों की काम वासना को उभारने में नारी के वस्त्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रचार माध्यमों में इसका वीभत्स रूप आज भी देखा जा सकता है। कम वस्त्रों में नारी को देखकर पुरुष की सुसुप्त वासनाएं जाग उठती हैं। उस समय यदि महिला अकेली है, तो फिर उसके साथ छेड़छाड़ होना आम बात है। यदि इससे आगे बढ़कर उसके साथ कुछ और हो जाए, तो उसके लिए उसके झीने, तंग कपड़े ही दोषी माने जाएंगे। फैशन के चक्कर में आजकल महिलाएं पुरुषों को उत्तेजित करने वाले कपड़े पहनने में संकोच नहीं करतीं।
सरकार को यह करना होगा
उक्त उपाय समाज को करने चाहिए, पर सरकार को क्या करना चाहिए, यह बात भी हमें ही समझनी होगी। आज अत्याचारियों को कानून का भय नहीं है। कानून इतने कड़े होने चाहिए कि अपराध करने के पहले अपराधी कुछ सोचे। इस समय बलात्कारियों के लिए उम्रकैद का प्रावधान है, किंतु हमारी सड़ी-गली न्याय व्यवस्था के कारण अपराधियों को ेजल्द सजा नहीं मिल पाती। इसलिए उसकी हिम्मत बढ़ जाती है। सरकार को अब यह समझ लेना चाहिए कि हत्या और बलात्कार के मामले में खाप पंचायतें जो फैसले करती हैं, वह गलत नहीं है। एक बलात्कारी को यदि सरे आम कोई सजा दी जाती है, तो दूसरे बलात्कारी को इससे सबक मिलना चाहिए, सजा ऐसी होनी चाहिए। इसमें इस बात का विशेष खयाल रखना चाहिए कि आपसी सहमति से बनने वाले संबंधों को इससे परे रखा जाए। पुलिस के एफआईआर में जो रिपोर्ट लिखी जाती है, उसमें यही दर्शाया जाता है कि मामला आपसी सहमति का ही है, पर देख लिए जाने के कारण मामला अनाचार का हो गया है।  जब एक नाबालिग अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है, तो युवती के पिता द्वारा इसी तरह की रिपोर्ट लिखाई जाती है कि उसकी बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ है। इस प्रकार की झूठी रिपोर्ट लिखाने वालो ंपर भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। कई बार यह ब्लैकमेलिंग के कारण भी होता है।
अंत में यही कि प्रसार माध्यमों में इस तरह के मामलों की रिपोर्टिंग में संयम बरतना आवश्यक होता है। टीवी-अखबारों में बलात्कार की खबर को ऐसे परोसा जाता है मानो इसमें महिला का ही योगदान हो। यदि टीवी एवं अखबारों पर बलात्कार की घटनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, तो इस तरह की घटनाओं मे कमी आ सकती है। समाज में बदलाव लाने का काम हमें ही करना है। आज इंडिया गेट पर जो प्रदर्शन कर रहे हैं, क्या उनमें से किसी ने यह नहीं सोचा कि यह जब एक प्रत्याशी पर बलात्कार का आरोप है, तो वह संसद तक कैसे पहुंचा? इसी तरह हत्या के आरोपी भी हमारी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। जहां ऐसे प्रत्याशी हो, वहां मतदान का विरोध होना चाहिए। व्यवस्था पर दोष देने के पहले यह अवश्य सोचा जाए कि कहीं इसके लिए हम ही तो दोषी नहीं?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

मोदी के सामने 6 किलों के फतह की चुनौती

डॉ. महेश परिमल
आसान नहीं है किले फतह करना। इंसान अपने जीवन में किले फतह करता ही रहता है। जब भी कोई बड़ी उपलब्धि प्राप्त होती है, तो उसे किला फतह करना कहा जाता है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक नहीं, दो नहीं, पूरे 6 किलों को फतह करने की चुनौती है। सुषमा स्वराज ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए काबिल बताया है। वैसे जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने अपनी कार्यशैली से अश्वमेघ का जो घोड़ा छोड़ा है, उसे पकड़ने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। पर अभी उनके सामने कई चुनौतियां हैं, जिसे उन्हें पार करना है। इन चुनौतियों को स्वीकार तो वे कर ही चुके हैं, देखना यह है कि कितनी मजबूती से वे इस कार्य को संपादित करते हैं। उनकी सबसे बड़ी मुश्किल हाल ही में की गई 50 लाख घर बनाने की घोषणा है। इस लुभावनी घोषणा से यदि वे एक बार फिर मुख्यमंत्री पद पर काबिज हो जाते हैं, तो पूरे राज्य के बिल्डर मिल भी जाएं, तो रोज 2739 मकान नहीं बना सकते। इतने मकान रोज 5 साल तक बनाने होंगे, तब ये वादा पूरा होगा। यदि उनकी नीयत साफ होती, तो वे पिछले 12 बरसों से राज्य की हाउसिंग बोर्ड को निष्क्रिय नहीं रखते। लोग इसे एक चुनावी स्टंट मान रहे है। संभव है यही लुभावनी घोषणा उनके लिए गले की हड्डी बन जाए। इस संवेदनशील मुद्दे को पहले तो कांग्रेस ने ही पकड़ा, इसके लिए कांग्रेस द्वारा पूरे राज्य में करीब 30 लाख फार्म भी वितरित किए गए। कांग्रेस के मुद्दे को हथियाकर मोदी ने नए स्वरूप में प्रस्तुत किया है।
सुषमा स्वराज के बयान का अर्थ
गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए आईं सुषमा स्वराज ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य प्रत्याशी बताया। इससे मोदी समर्थक तो खुशी से पागल हो गए। जो व्यक्ति स्वयं ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो, वही आगे चलकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य बताए, तो यह निश्वित रूप से आश्चर्यजनक है। यदि सुषमा स्वराज की बातों पर ध्यान दिया जाए, तो यह समझ में आ जाएगा कि नरेंद्र मोदी के लिए अभी दिल्ली दूर है। अभी कई किले उन्हें फतह करने हैं। सबसे पहले तो सुषमा जी के ही बयान को समझने की कोशिश की जाए। उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह उनका निजी मत है। जब पत्रकार इस प्रकार का सवाल करते हैं, तो उसका जवाब तो देना ही पड़ता है। पत्रकार को किसी भी तरह का जवाब दिया जाए, उससे अपने हिसाब से प्रचारित-प्रसारित करने का काम आजकल जोरों से चल रहा। इसमें कमाल सवाल पूछने वाले का होता है। पत्रकार ने जब सुषमा जी से पूछा कि प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा में कौन-कौन काबिल है? तो सुषमा जी ने कह दिया कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए काबिल व्यक्ति हैं। इसके पहले प्रधानमंत्री पद के लिए जब भी किसी भाजपाई से पूछा जाता, तो वे गोल-मोल जवाब दे देते थे। सुषमा स्वराज के जवाब से यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद के एकमात्र दावेदार हैं।
सुषमा स्वराज के बयान का यह अर्थ है कि भाजपा में प्रधानमंत्री पद की रेस में जितने भी लोग हैं, उनमें एक नरेंद्र मोदी भी हैं। उन्होंने कहीं भी कुछ ऐसा नहीं कहा है कि मोदी भाजपा में प्रधानमंत्री पद के पहले नम्बर के दावेदार हैं। उन्होंने कहीं भी ऐसा नहीं कहा है कि मोदी सबसे लायक दावेदार हैं। या मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय ले लिया है। अभी की राजनैतिक स्थिति पर दृष्टि डाली जाए, तो एक अनार दर्जन बीमार जैसी स्थिति है। सभी प्रमुख दलों से एक नहीं, बल्कि कई उम्मीदवार हैं। इसे यदि नरेंद्र मोदी को सामने रखकर देखें तो उनके सामने अभी कई चुनौतियां हें। अभिमन्यु की तरह उन्हें अभी कई पड़ाव पूरे करने हैं। उनके सामने अभी चुनौतियों के 6 किले फतह करने हैं। इनमें से पहला किला है गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर काबिज रहना है। गुजरात भाजपा में इस पद के लिए उनके सामने कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है। मतलब इस किले को उन्होंने फतह कर लिया है। दूसरा किला है गुजरात में तीसरी बार चुनाव जीतकर आना है। उनके विजय बाबत किसी को शंका नहीं है। इस पड़ाव में वे जितनी अधिक सीटें प्राप्त करते हैं, उतनी सहायता उन्हें अगले पड़ाव में होगी। भाजपा को यदि 128 सीटें मिल जाती हैं, तो यह मोदी के लिए डिस्टिंकशन कहलाएगा। यदि 120 से कम सीटें मिलती हैं, तो उनहें कस्टर क्लास से संतोष करना होगा।
आरएसएस को भेदना मुश्किल
गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद तीसरे पड़ाव में उन्हें आरएसएस को भेदना होगा। आरएसएस के लिए नरेंद्र मोदी एक अनिवार्य अनिष्ट की तरह हैं। यह दिल से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहती, पर भाजपा को और अधिक सीटें चाहिए, तो नरेंद्र मोदी से अधिक लोकप्रिय नेता उनके पास नहीं है। आरएसएस ने अभी तक प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम पर अपनी मुहर नहीं लगाई है। इसके लिए अभी गुजरात चुनाव के परिणाम की राह देख रही है। चौथा पड़ाव भाजपा की नेतागीरी को चुनौती देना है। इस पड़ाव में उनके सामने आधा दर्जन गंभीर दावेदार हैं। ये सभी लोकसभा चुनाव की घोषणा हो जाए, उसके पहले नरेंद्र मोदी के आगे झुक जाएं, तो यह एक चमत्कार ही होगा। मोदी के लिए पांचवां पड़ाव पूरे देश में घूम-घूमकर भाजपा को पूर्ण बहुमत दिलाना है। इसके लिए उन्हें अपना करिश्मा गुजरात की सरहदों के पार भी करना होगा। ताकि यह साबित हो जाए कि उनका जादू केवल गुजरात ही नहीं, बल्कि देश के अन्य भागों में भी चलता है। यदि भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता, तो छठे पड़ाव में उन्हें एनडीए के साथियों को मनाना है। यह एक दुष्कर कार्य है। क्योकि इसमें सबसे बड़ी बाधा बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार हैं। नीतिश कुमार मोदी के कट्टर विरोधी हैं। यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को आगे करके चुनाव जीत लेती है, तो उससे नाता तोड़ने वालों में नीतिश ही सबसे पहले होंगे। इसके बाद नवीन पटनायक, जयललिता, येद्दियुरप्पा, ममता बनर्जी आदि को प्रसन्न करने के बाद ही मोदी एनडीए के सर्वमान्य नेता बन सकते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के पहले उन्हें अल्पसंख्यक वर्ग की सहानुभूति प्राप्त करनी होगी, इसके लिए उन्हें देश भर में सद्भावना यात्रा करनी होगी।
इतने अधिक पड़ावों से गुजरकर नरेंद्र मोदी यदि अपनी पुरानी पहचान कायम रख पाते हैं, तो यह बहुत बड़ी बात होगी। पहले पड़ाव के रूप में उनकी हाल ही की गई घोषणा है, जिसमें उन्होंने 50 लाख घर बनाने का वचन दिया है। यह वचन उन्हें अपने ही राज्य में काफी भारी पड़ेगा। वचन के अनुसार उन्हें रोज 2739 मकान बनाने होंगे। यह किसी भी तरह से संभव नहीं दिखता। इसके पहले भी चुनाव के पहले वोट बटोरने के लिए कई लोक लुभावने नारों के साथ वचन दिए गए। न तो उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी भत्ता और युवाओं को लेपटॉप दिए जा सके, न ही अन्य वादों को निभाया गया। इसलिए 50 लाख मकान बनाने की घोषणा कर एक तरह से वे फँस गए हैं। यदि उनकी नीयत साफ होती, तो अपने राज्य में वे हाउसिंग बोर्ड को निष्क्रिय होने नहीं देते। यह तो कांग्रेस का मुद्दा था, जिसे मोदी ने हथियाकर उसे नए रूप में सामने लाया है। कांग्रेस ने तो घर के लिए 30 लाख फार्म का वितरण भी कर दिया है। यदि जनता के लिए घर इतना ही महत्वपूर्ण है, तो यह घोषणा ठीक चुनाव के पहले क्यों की गई? इसके लिए तो दस वर्ष का समय उनके पास था ही। आखिर यह घोषणा इतने अधिक विलम्ब से क्यों की गई? ऐसे कई प्रश्न हैं, जिससे मोदी को जूझना है। भोली जनता को वे अब वादों से बहला नहीं सकते। अब लोग काम देखना चाहते हैं। क्या यह काम मोदी कर दिखाएंगे?
    डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

स्वार्थप्रेरित होती पांव छूने की परंपरा

डॉ. महेश परिमल
आखिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पाँव छूने वाले अधिकारी को चुनाव से दूर कर दिया गया। पूर्व भाजपाध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के जन्म दिन पर आयोजित समारोह में चुनाव अधिकारी भरत वैष्णव को सभी ने नरेंद्र मोदी के पांव छूते हुए देखा। चुनाव आयोग ने तत्काल कार्रवाई करते हुए उन्हें चुनावी कार्यो से मुक्त कर दिया। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस समारोह में उपस्थित रुसी राजदूत ने भी लालकृष्ण आडवाणी के पाँव छुए। आखिर पांव छूने में इतना अधिक आकर्षक क्यों है? कहा जाता है कि झुकती है दुनिया, झुकाने वाला चाहिए।
पहले इंसान किसी के आगे सामने वाले के व्यक्तित्व से आकर्षित होकर उनके पाँव छूता था, लेकिन अब इस कार्य में स्वार्थ शामिल हो गया है। अब यह कार्य आत्मप्रेरित न होकर स्वार्थप्रेरित हो गया है। चुनाव अधिकारी ने सोचा कि मोदी के पांव छूने से भविष्य में उनकी कृपा मिल जाएगी, पर इसके पहले ही चुनाव आयोग ने उन पर कृपा करके चुनाव कार्यो से मुक्त कर दिया। इसके पहले गुजरात विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. परिमल त्रिवेदी ने भी एक समारोह में मोदी के पाँव छूए थे। ये तो छोड़ो, एक अन्य समारोह में जब अमरेली के कलेक्टर डी.जी. झालावाड़िया को क्षेत्र के विकास कार्यो के लिए जब उन्हें एक करोड़ का चेक दिया गया, तो कलेक्टर महोदय से रहा नहीं गया, और उन्होंने मोदी का चरणस्पर्श कर लिया।
चरणस्पर्श प्रणाम करना भारतीय संस्कृति का एक भाग है। किसी के प्रति आदर भाव व्यक्त करने का इससे अच्छा दूसरा तरीका नहीं है। पहले यह सहज भाव से किया जाता था, पर अब इसमें स्वार्थ ने अपना स्थान ले यिला है। हम भले ही किसी की इज्जत न करें, पर त्योहारों के अवसर पर वही सामने आ जाए, तो हम सहर्ष उन्हें चरणस्पर्श प्रणाम कर लेते हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि आज के युवा जब किसी वयोवृद्ध को चरणस्पर्श प्रणाम नहीं करते, तो वे बुजुर्ग नाराज हो जाते हैं। चरणस्पर्श प्रणाम करने का दृश्य कई बार अपना असर दिखाता है। इस कार्य को लोग अब चापलूसी से जोउ़ने लगे हैं। निश्चित रूप से कलेक्टर या फिर चुनाव अधिकारी मुख्यमंत्री की चापलूसी करना चाहते हों, इसलिए उन्होंने मोदी को चरणस्पर्श प्रणाम किया। लेकिन उनकी यह निष्ठा कैमरे में कैद हो गई, इसलिए चुनाव अधिकारी तो कोप के भाजन बन ही गए। आम जीवन में जिनके पाँव छूए जाते हैं, तो उन्हें यह अच्छा लगता है। आडवाणी के जन्म दिवस समारोह में भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी ने न केवल आडवाणी बल्कि रुसी राजदूत एलेक्जेंडर के पाँव छुए। समारोहों में कई बार यह भी देखने में आता है कि चरणस्पर्श प्रणाम करने वाना जाक पौव छूने के लिए झुकता है, पर जिसके पांव छूए जा रहे हैं, उसे तो पता ही नहीं होता कि किसने उनके पाँव छूए। इससे कई बार पाँव छूने वाला मूर्ख साबित हो जाता है। सभा-समारोहों में ऐसे किस्से आम होते हैं, जब कोई विवादास्पद व्यक्ति भी लोगों से अपने पाँव छुआता दिखाई देता है। इससे पाँव छूने की यह परंपरा स्वार्थ में लिपटी दिखाई देने लगी है।
दक्षिण भारत में वैसे भी सेलिब्रिटी को भगवान का दर्जा दिया जाता है। इसलिए किसी कार्यक्रम में यदि जयललिता हो, तो उनके दुश्मन भी उनके पांव छूते हैं। कई बार तो शपथ ग्रहण समारोह में मंत्री शपथ लेते ही वहां उपस्थित राज्यपाल अथवा मुख्यमंत्री के पाँव छूकर आभार व्यक्त करते हैं। हरियाणा में पाँव छूना तो गौरवशाली होने का प्रतीक है। कई बार यह प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बन जाता है। यहां भी जिसने अपने वरिष्ठोंे के पांव नहीं छूए, उसे कई लोगों से अपमानित होना पड़ता है। सोनिया गांधी या फिर आडवाणी ही नहीं, बल्कि सुषमा स्वराज्य के पांव छूने वाले कई लोग हैं। मायावती के पांव छूने वाले इतने अधिक लोग हैं कि उनकी गिनती के लिए एक अलग से आयोग बिठाया जा सकता है। मायावती का आभा मंडल इतना अधिक गहरा है कि सुरक्षा अधिकारी उनके जूते भी साफ करते दिखाई देते हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि जब कोई दुश्मन पाँव छूता है, तो उसे आशीर्वाद नहीं दिया जाता। या फिर आशीर्वाद देने के बजाए उसे अनदेखा कर दिया जाता है। इससे सामने वाला समझ जाता है कि इन्हें सम्मान देकर मैंने गलत किया। भाजपाध्यक्ष यदि खुलेआम बाबा रामदेव के पाँव छूएं, तो भी वह खबर बन जाती है। लेकिन यदि किसी टीवी शो में माधुरी दीक्षित यदि सरोज खान के बार-बार पांव छूती हैं, तो लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। रियलिटी शो में तो स्पर्धक अपने जज का पांव छूना नहीं भूलते। कई बार यह भी देखने में आया है कि लोग पाँव छूने के बहाने आधा ही झुकते हैं। इस आधे झुकने में ही कई लोग आशीर्वाद की मुद्रा में आ जाते हैं, इसलिए उन्हें पूरा झुकना पड़ता है।
विद्वानों के अनुसार चरणस्पर्श प्रणाम करने और कराने वाले में से किसी एक का फायदा तो होता ही है। कई बार यह कार्य सामने वाले की अहम तुष्टि के लिए भी किया जाता है। वैसे चरणस्पर्श प्रणाम करने की यह कला बहुत कम लोगों को आती है। कुछ लोग हर समारोह में यह पुनीत कार्य करते हुए दिखाई दे जाते है। आजकल यह दिखावा अधिक हो गया है। इसमें लगातार तेजी भी आ रही है। क्योंकि चुनाव करीब हैं। पाँच साल बाद अपने क्षेत्र में जाने पर प्रत्याशी किसी गाँव या कस्बे में किसी बुजुर्ग महिला या पुरुष के पाँव छू लेता है, तो यह तस्वीर वह अखबारों या टीवी पर बताना नहीं भूलता। उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कई लोग तो प्रियंका गांधी के चरण छूने के लिए आगे आने लगे, तब प्रियंका ने जोर देते हुए कहा था कि पाँव मत छूओ, लेकिन हाथ अवश्य मिलाओ। फिरा भी लोग अपनी आदतों से बाज नहीं आते थे, मौका मिला नहीं कि छू लिया पाँव। चुनाव के समय इस तरह के नजारे आम हो जाते हैं। यह कार्य सम्पन्न होने के बाद दोनों ही गर्वोन्मत होते थे। मैने छू लिए और आखिर उसे झुका ही दिया, के भाव के साथ दोनों ही गर्व महसूस करते हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

विकलांग दिवस : ये लाचार नहीं है, नजरिया बदलें

डॉ. महेश परिमल
पूरे विश्व में 3 दिसम्बर को विकलांग दिवस मनाया जाता है। पूरी दुनिया में एक अरब लोग विकलांगता के शिकार हैं। अधिकांश देशों में हर दस व्यक्तियों में से एक व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग हैं। इनमें कुछ संवेदनाविहीन व्यक्ति भी हैं। विकलांगता एक ऐसा शब्द है, जो किसी को भी शारीरिक, मानसिक और उसके बौद्धिक विकास में अवरोध पैदा करता है। ऐसे व्यक्तियों को समाज में अलग ही नजर से देखा जाता है। यह शर्म की बात है कि हम जब भी समाज के विषय में विचार करते हैं, तो सामान्य नागरिकों के बारे में ही सोचते हैं। उनकी ही जिंदगी को हमारी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं। इसमें हम विकलांगों को छोड़ देते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? कभी इस पर विचार किया आपने? ऐसा किस संविधान में लिखा है कि ये दुनिया केवल एक ही तरह के लोगों के लिए बनी है? बाकी वे लोग जो एक साधारण इंसान की तरह व्यवहार नहीं कर सकते, उन्हें अलग क्यों रखा जाता है। क्या इन लोगों के लिए यह दुनिया नहीं है। इन विकलांगों में सबसे बड़ी बात यही होती है कि ये स्वयं को कभी लाचार नहीं मानते। वे यही चाहते हैं कि उन्हें अक्षम न माना जाए। उनसे सामान्य तरह से व्यवहार किया जाए। पर क्या यह संभव है?
कभी किसी विकलांग संस्था में गए हैं आप? आप देखेंगे कि हम भले ही उन्हें विकलांग मानते हों, पर सच तो यह है कि वे स्वयं को कभी विकलांग नहीं मानते। ये अपनी छोटी सी दुनिया में ही मस्त रहते हैं। कई बार तो ये अपना प्रदर्शन एक सामान्य व्यक्ति से अधिक बेहतर करते हैं।  सरकारी ही नहीं, बल्कि निजी संस्थानों में भी ये विकलांग अपनी सेवाएं बड़ी शिद्दत से दे रहे हैं। ये अपनी ही दुनिया में इतने व्यस्त और मस्त हैं कि इन्हें हमारी आवश्यकता ही नहीं है। इनके अपने खेल होते हैं। ये साधारण इंसान के साथ ताश भी खेल सकते हैं। हम चाहकर भी इन्हें धोखा नहीं दे सकते। जो नेत्रहीन हैं, उनके पोरों में ही छिपी होती है ताकत। ईश्वर उनसे दृष्टि ले लेता है, पर स्पर्श का वह खजाना दे देता है कि जिस चीज को वे एक बार छू लें, तो वह स्पर्श वे कभी नहीं भूलते। यह हमारी कमजोरी है कि हम एक जाग्रत समाज के नागरिक होने के नाते समाज के विभिन्न वर्ग को समझने और स्वीकारने का साहस रखते हैं, पर विकलांगों के लिए यह भाव नहीं रखते। सामान्य नागरिक की तरह सभी को अधिकार दिए गए हैं, इसी तरह विकलांगों को भी कई अधिकार दिए गए हैं। फिर भी समाज में उन्हें अपना स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हमने न जाने कितने विकलांगों को अपने अधिकार के लिए जूझते देखा होगा। कोई पेंशन के लिए, कोई अपनी नौकरी बचाने के लिए, कोई अपने बच्चे की फीस के लिए और कोई अपने जीने के हक के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है। पर हम कभी आगे बढ़कर उनकी सहायता के लिए आगे नहीं आते। कई बार इन्हें बुरी तरह से दुतकारा जाता है। मानो विकलांगता इनके लिए एक श्राप हो। कोई खुद होकर विकलांग होना नहीं चाहता। इंसान हालात से मजबूर होता है। कई जन्म से विकलांग होते हैं, तो कोई दुर्घटना से । किसी को बीमारी के बाद विकलांगता आ जाती है। इसमें इनका क्या दोष? तो फिर इनके साथ सामान्य नागरिकों सा व्यवहार क्यों नहीं किया जाता?
विश्व में न जाने कितने ही विकलांग ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपने प्रदर्शन से सामान्य लोगों को सोचने के लिए विवश कर दिया है। कई लोग एवरेस्ट की ऊंचाई को पार कर चुके हैं, तो कोई पढ़ाई में आगे बढ़ गए हैं। कई ने विज्ञान के क्षेत्र में सफलता का परचम लहराया है। समाज का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां विकलांगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। वे सक्षम हैं, पूरी तरह से सक्षम हैं, हम ही उन्हें सक्षम नहीं मान रहे हैं। इन्हें हमारी सहानुभूति नहीं चाहिए, ये चाहते हैं कि उन्हें लाचार न समझा जाए, एक सामान्य नागरिक की तरह उनसे व्यवहार किया जाए। स्टीफन होकिंग का नाम दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है। चाहे वह कोई स्कूल का छात्र हो, या फिर वैज्ञानिक। सभी इन्हें जानते हैं। उन्हें जानने का केवल एक ही कारण है कि वे विकलांग होते हुए भी आइंस्टाइन की तरह अपने व्यक्तित्व और वैज्ञानिक शोध के कारसा हमेशा चर्चा में रहे। स्टीफन हाकिंग ने ब्रह्मांड और ब्लेक होल पर नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। विज्ञान को एक साधारण से साधारण व्यक्ति तक पहुंचाने वाले हाकिंग ने एक किताब लिखी है ‘एक ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’। इस किताब की अब तक एक करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्हें विज्ञान का प्रचारक कहा जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का खिताब देकर उनका सम्मान किया है। वे स्वयं विकलांगता की व्याख्या इस प्रकार करते हैं:-
‘‘विकलांग होना बुरी बात नहीं है। मेरी बीमारी के विषय में मेरे पास अच्छे शब्द नहीं हैं। परंतु मुझे इतना समझ में आता है कि हमें कभी भी किसी की दया का पात्र नहीं बनना है। क्योंकि अन्य लोग आपसे भी अधिक खराब स्थिति में हैं। इसलिए आप जो कर सकते हो, उसे प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ो। मैं भाग्यशाली हूं कि सैद्धांतिक विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा हूं। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें विकलांगता कोई बड़ी समस्या नहीं है। अभी मैं जीवन के सातवें दशक में हूं। एमयोट्रोफिक लेटरल स्केलरोसिस (एएलएस) की बीमारी से पीड़ित हूं। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों में से सबसे अधिक समय तक जिंदा रहने वालों में से हूं। इससे भी बड़ी बात यह है कि मेरे शरीर का अधिकांश हिस्सा शिथिल हो गया है, अपनी बात कंप्यूटर के माध्यम से करता हूं। मैं स्पेस में जाने की इच्छा रखता हूं। आशा रखता हूं कि मेरा अनुभव दूसरों को भी काम में आएगा।’’
ये हैं एक विकलांग के शब्द, जो हमें आज तक प्रेरणा देते हैं। हम अपना नजरिया बदलें और देखें कि हमारे आसपास ऐसे न जाने कितने विकलांग मिल जाएंगे, जो अपनी विकलांगता को भूलकर अपनी जिंदगी का आसान बनाकर जी रहे हैं। कई बार तो इन्होंने सरकारी सहायता को भी ठुकरा दिया है। ये अपना अधिकार चाहते हैं, ये दया के पात्र नहीं है। इन्हें भी जीने का अधिकार है, इन्हें जीना का अधिकार सरकार दे या न दे, पर हम अपना नजरिया बदलकर दे सकते हैं। एक बार केवल एक बार किसी विकलांग संस्था में जाकर तो देखो, इनकी दुनिया। कितने खुश और मस्त रहते हैं। इनकी खिलखिलाहट को महसूस करो। इनकी पीड़ाओं को समझने की कोशिश करो। इन वेदना से जुड़ने की एक छोटी सी कोशिश इनके जीवन में उजास भर देगी।
डॉ. महेश परिमल

सरकार की सौगात या झुनझुना

बुधवार, 28 नवंबर 2012

फिर सचिन के पीछे पड़े आलोचक




दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2012-11-28&pageno=9#id=111755925932623736_49_2012-11-28
 
फिर सचिन के पीछे पड़े आलोचक
 महेश परिमल 
इन दिनों सचिन तेंदुलकर हूट हो रहे हैं। उन पर संन्यास के लिए दबाव बन रहा है। मीडिया में इस विषय पर बहस भी शुरू हो गई है। सचिन के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। 19 मार्च 2006 में भी मुंबई के उसी वानखेड़े स्टेडियम में सचिन तेंदुलकर ने इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट में जब 21 बॉल पर मात्र एक ही रन बनाया था, तब दर्शकों ने उन्हें काफी हूट किया था। ये वही प्रशंसक थे, जो कभी सचिन की उपलब्धियों पर पलक पांवड़े बिछाकर उसका स्वागत करते थे। लेकिन थोड़ा-सा प्रदर्शन ठीक नहीं हुआ कि लोगों का नजरिया ही बदल गया। दरअसल, उच्च स्थान पर बिठाए जाने वालों पर लोगों की अपेक्षाएं बढ़ती जाती हैं। अपेक्षाएं अनंत होती हैं, वह कभी भी पूरी नहीं की जा सकतीं। इसलिए जिनका स्थान ऊंचा होता है, उन्हें इस स्थिति के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। पूरे गुजरात में श्वेत क्रांति लाने वाले डॉ. वर्गीज कुरियन का भी यही हाल हुआ। लोगों की जो अपेक्षाएं उनसे थी, वह पूरी नहीं हो पा ही थीं। इसलिए उन्हें हटना पड़ा। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके अनुभव आज भी काम आ रहे हैं। जिन्हें नागरिकों ने अपने विचार के लायक समझा, जिन्हें सम्मान के साथ एक ऊंचे स्थान पर बिठाया, जिनसे अपनी भावनाएं जोड़ी, जिनके हाथों में एक सपना दिया, वे ही जब उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो पाते, तब दिल में एक ठेस लगती है। फिर चाहे वह फिल्म का क्षेत्र हो या फिर खेल की दुनिया। सचिन तेंदुलकर के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे अपने खेल कौशल से बरसों से लोगों को लुभाते रहे हैं। उन्होंने अपने खेल के आगे अपना देश रखा। इसलिए कई कीर्तिमान उनके नाम हो गए। अब उनके लिए ऐसा समय आ गया है, जब लोगों को लगा कि उनका खेल अब अधिक निजी हो गया है। अब वे देश के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए खेल रहे हैं। बस यहीं से शुरू हो गया उपेक्षा का भाव। महान खिलाड़ी सचिन ही नहीं, बल्कि वेस्टइंडीज की ओर से खेल चुके ब्रायन लारा भी कुछ इसी तरह के दौर से गुजर चुके हैं। संभव है वे भी कहीं न कहीं हूट के शिकार हुए होंगे। लोगों के सामने अगर एक बार अच्छा कर दिया जाए तो फिर वे उसी तरह की अपेक्षाएं पाल लेते हैं। सचिन तेंदुलकर अपने खेल कैरियर के शुरुआती दिनों में लगातार लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरते रहे। कई बार तो लोगों ने उनसे शतक की उम्मीद लगाई थी तो वे उससे भी बढ़कर डेढ़ से दो सौ रन बनाए। केवल रन ही नहीं बनाए, बल्कि विकेट भी लिए। उनके सामने कई बार ऐसे दौर आए, जब बाहरी लोगों ने उन पर कटाक्ष किए। उस स्थिति का सामना उन्होंने बड़ी ही शिद्दत के साथ किया। उन्होंने कहा कुछ नहीं, अपने खेल से ही लोगों की बोलती बंद हो गई। वे कुछ नहीं बोले, उनका बल्ला बोला। पिछले कुछ पारियों में सचिन बोल्ड क्या हुए, मीडिया और खेल विशेषज्ञों ने उनको नसीहतें देनी शुरू कर दी। बड़े ओहदों पर बैठने वालों को यही सोचना चाहिए कि लोग जब सिर आंखों पर बिठाते हैं, उसे हीरो बनाते हैं तो उसे ही जीरो बनाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखते। यह भी सच है कि अनंत अपेक्षाओं को हमेशा पूरा किया भी नहीं जा सकता। इसलिए समय रहते अपने आप को दूर कर लेना चाहिए। ऐसा भी समय आएगा, जब भारतीय टीम अच्छा प्रदर्शन न कर पाए तो लोग यही कहेंगे कि इस समय यदि सचिन होते तो ऐसा नहीं होता। आज भारतीय टीम के लिए सचिन एक खिलाड़ी नहीं, बल्कि एक संबल के रूप में हैं। उनका होना ही प्रतिद्वंद्वी टीम के लिए एक चुनौती है। उनके होने से ही अन्य खिलाड़ी को भी अपना प्रदर्शन और बेहतर करने की प्रेरणा मिलती है, पर कुछ युवा खिलाडि़यों के आ जाने से लोगों का ध्यान सचिन से हटने लगा है। अब सचिन उनकी आंखों के तारे नहीं रहे। कई बार जब घर का युवा हार जाता है तो एक बुजुर्ग का हाथ उसके सिर पर आता है, आवाज आती है, बेटे तुम आगे तो बढ़ो, हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। बुजुर्ग का यही कहना ही युवा को उत्साह से लबरेज कर देता है। शायद इसीलिए लोग कहते हैं कि बुजुर्गो का आशीर्वाद लेते रहना चाहिए। गर्दिश के दिनों से हर किसी को गुजरना होता है। यही दिन होते हैं, जब लोग अपना विश्लेषण करते हैं, अपने भीतर की शक्ति को रिचार्ज करते हैं। ऊर्जा का कोई नया विकल्प तैयार करते हैं। इन्हीं दिनों की ऊर्जा को संचित किया जाए और निकला जाए नई ऊर्जा और नई स्फूर्ति के साथ। देखो पलक-पांवड़े बिछाकर लोग किस तरह से तैयार खड़े हैं। 
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 



शनिवार, 24 नवंबर 2012

बाला साहब के न होने का मतलब?

डॉ. महेश परिमल
लगता है मुम्बई में इस समय यमराज ने डेरा ही डाल दिया है। दारासिंह, राजेश खन्ना, ए.के. हंगल, यशराज चोपड़ा की विदाई हो गई। प्रसिद्ध खलनायक और चरित्र अभिनेता प्राण और अभिनेता शशिकपूर अस्पताल में हैं। उधर बाल ठाकरे के अवसान से मुम्बई मानो निस्तेज हो गई है। रविवार को लोग दिन भर टीवी पर बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा एवं अंत्येष्टि का दृश्य देखते रहे। एक तरफ टीवी पर फिल्म ओ माइ गॉड आ रही थी, तो दूसरी तरफ बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा में 20 लाख लोगों का जनसैलाब देखकर लोग ओ माइ गॉड कह रहे थे। सोमवार को भी पूरी मुम्बई में बंद जैसा ही माहौल था। सभी के मुंह पर बाल ठाकरे की शानदार विदाई की ही चर्चा थी। सुबह जब अस्थि कलश लेने उद्धव ठाकरे गए, तब उनके साथ राज ठाकरे नहीं थे, इसी सभी ने नोटिस किया। लोग अब यह मानकर चल रहे हैं कि अभी ग्यारह दिनों तक दोनों भाई मौन ही रहेंगे। उसके बाद दोनों के राजनैतिक संबंध किस दिशा में जाएंगे, यह देखने में आएगा। यह दिशा शिवसेना की दुर्दशा होगी या फिर नई दिशा। इसके लिए कुछ समय तक राह देखनी होगी।
राजनैतिक सत्ता को ठोकर मारने वाले बाल ठाकरे को लोग नेता नहीं,बल्कि देवता मानते थे। विवादों से कभी नहीं डरने वाले बाल ठाकरे भले ही सत्ता का कोई सिंहासन स्वीकार न किया हो, पर वे जिस सिंहासन पर बैठे थे, वह सिंहासन लोगों को किंग बनाता था। लोग उन्हें किंग मेकर भी कहते थे। देश भर के नेता, खासकर एनडीए के नेताओं की कतारें, बॉलीवुड की हस्तियां एवं कापरेरेट क्षेत्र के अनेक गणमान्य लोग उनकी अंत्येष्टि में शामिल होकर स्वयं को गोरवान्वित समझ रहे थे। बाल ठाकरे में महाराष्ट्र को बिजनेस राज्य बना दिया। आज मुम्बई लोगों का ध्यान आकृष्ट करती है। जिस तरह से दिल्ली राजनीति के नाम से पहचानी जाती है, उसी तरह से मुम्बई बिजनेस के नाम से पहचानी जाती है। बाल ठाकरे को दी गई अंतिम विदाई एक श्रद्धाभरी विदाई थी। जिसमें सभी गमगीन थे। लोगों के मन में एक ही सवाल अब गूंजने लगा है कि इसके बाद कौन? पर जब लोगों ने उद्धव और राज को एक साथ बातचीत करते देखा, तो सभी को यही लगा कि अब दोनों भाई और करीब आ जाएंगे। यह सच है कि मुम्बई बाल ठाकरे के इशारे पर चलती थी। बाल ठाकरे की प्रसिद्धि में कांग्रेस का भी हाथ रहा है।  शिवसेना को खिलने देने में कांग्रेस का हाथ रहा है। इसकी वजह यही थी कि महाराष्ट्र ट्रेड यूनियन की पकड़ में था, कांग्रेस की शह पर बाल ठाकरे ने ऐसी चाल चली कि ट्रेड यूनियन का वर्चस्व खत्म हो गया, उसके बाद उद्योगपति राज्य के उद्योग मंत्रालय से अधिक संबंध मातोश्री से रखने लगे थे।
बाल ठाकरे लोगों की भावनाओं को समझते थे। लोगों को वे सच्चई से वाकिफ कराते थे। नागरिक क्या समझते हैं, क्या नहीं समझती, इसकी चिंता किए बिना वे अपनी बेलाग वाणी से अपने विचारों को अभिव्यक्ति दिया करते थे। वे एक ऐसे नेता थे, जिन्हें गुंडे को गुंडा कहना और सत्ता लोलुप नेताओं को दलाल कहने में कोई गुरेज नहीं था। बेलाग वाणी उनकी पहचान बन गई थी, उनके बयानों का एक राजनैतिक वजन भी होता था। उन्होंने पूरी जिंदगी कांग्रेस को वंशवाद आगे बढ़ाने के लिए कोसा, भरपूर लताड़ा भी, पर वे स्वयं भी इसी वंशवाद के पोषक रहे। पहले बेटे उद्धव ठाकरे, फिर पोते आदित्य को अपना वारिस बनाया था। उत्तर भारत के लोग उन्हें कभी नहीं भाते थे,पर अमिताभ बच्चन उन्हें मुम्बईवासी लगते। एक समय ऐसा भी था, जब नारायण राणो जैसे लोग स्वयं को बाल ठाकरे का चौथा बेटा बताते थे, वही राणो उद्धव के साथ छोटी सी तकरार में उनसे काफी दूर हो गए।  इसे एक संयोग ही कहा जाएगा कि इधर इस्लामिक आतंकवाद ने सर उठाया और उधर शिवसेना का उदय हुआ। शाहबानो विवाद और बाबरी ध्वंस जैसी घटनाओं के बाद शिवसैनिकों को एक नया प्लेटफार्म मिला। हिंदुत्व को लेकर कांग्रेस का रवैया नरम रहा, वहीं दूसरी और भाजपा का रवैया आक्रामक रहा। भाजपा की इस कट्टरता के कारण महाराष्ट्र में शिवसेना को उभरने का अवसर मिला। कुछ ही समय बाद पूरे महाराष्ट्र पर शिवसेना का ही कब्जा हो गया। आतंवादियों को प्रोत्साहन देने वाले पाकिस्तान को बाल ठाकरे बुरी तरह से लताड़ते और उससे सभी राजनैतिक संबंध तोड़ लेने की मांग करते। महाराष्ट्र केवल मराठियों के लिए ही है, अपनी इस हुंकार के बाद ही वे लोगों के हृदय सम्राट बन गए। हाल ही में जब क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने कहा था कि मैं मराठी होने के पहले भारतीय हूं, तो इसका विरोध करने में शिवसेना पीछे नहीं रही।
अब हालात बदल गए हैं, बाल ठाकरे नाम का ब्रांड अब शिवसेना के पास नहीं है, इसलिए इस पार्टी के सामने अस्तित्व का खतरा मंडराने लगा है। राजनीति से 13 साल तक दूर रहने के बाद अब शिवसेना में राजनैतिक विचारधारा का असर नहीं है। बाल ठाकरे के साथ ही अब शिवसेना के अस्त होने की चर्चा चल पड़ी है। इसका अंदाजा उद्धव ठाकरे को हो गया था। मुंबई में आयोजित म्युनिसिपल कापरेरेशन के चुनाव में उन्होंने कहा था कि अब हमारी पार्टी का मुख्य मुद्दा भावनाएं जगाने वाले नहीं होंगे, अब हम विकास की बात करेंगे। इस समय उद्धव का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता है। राज ठाकरे पहले ही अपनी पार्टी बना चुके हैं। इस परिस्थितियों में अब शिवसेना की कमान किसके हाथों में सौंपी जाए, यह आज का यक्ष प्रश्न है। राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने प्रांतवाद और मुस्लिम आतंकवाद का मुद्दा उठाकर शिवसेना का ही विकल्प बनने का प्रयास किया, किंतु उसे कोई सफलता नहीं मिली। शिवसेना में पार्टी के भीतर किसी प्रकार के चुनाव की प्रथा नहीं है। इस कारण पार्टी के कर्मठ नेता हाशिए पर चले गए हैं। छगन भुजबल, संजय निरुपम, नारायण राणो जैसे लोग इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। भाजपा से भी पार्टी के संबंध अब उतने उष्मावान नहीं रहे। आपीआई जैसी पार्टी के साथ समझौता कर शिवसेना ने दलितों का दिल जीतने की एक कोशिश की है। पर बाल ठाकरे के नहीं होने के बाद अब यह समझौता रंग लाएगा, ऐसा कहा नहीं जा सकता। इन हालात में यही कहा जा सकता है कि बाला साहब ठाकरे के न रहने पर पार्टी को मजबूती से थामकर रखने का माद्दा अब किसी में नहीं है। इतने अधिक विरोधाभासों के बाद भी बाल ठाकरे के व्यक्तित्व मे कुछ तो ऐसा था, जो उन्हें अन्य नेताओं से अलग रखता था। अपने बयान से न फिरने वाले बाल ठाकरे अपनी वाणी के बल पर लोगों के दिलों पर राज करते रहे। जाते-जाते वे यह भी बता गए कि लोग उनसे भले ही डरते भी हों, पर उनकी अंत्येष्टि में शामिल होकर लोग स्वयं को गोरवान्तित समझते रहे। उमड़ते जनसैलाब में सभी की आंखें नम थी, पर किसी चेहरे पर आक्रोश नहीं था, यह थी बाल ठाकरे की उपलब्धि!
  डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

कसाब के बाद कई सवाल



आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2012-11-23&pageno=9#id=111755566932481274_49_2012-11-23
 कसाब के बाद कई सवाल
महेश परिमल
 आतंकवादी अजमल कसाब को आखिर फांसी दे दी गई, लेकिन इससे यह समझना भूल होगी कि आतंकवाद खत्म हो गया। कसाब खत्म हुआ है, आतंकवाद नहीं। अभी अफजल गुरु जिंदा है। इसके अलावा ऐसे कई आतंकवादी जिंदा हैं, जो या तो जेल में हैं या फिर अपने घर में ही जयचंद बनकर रह रहे हैं। जो जेल में हैं, उनका अंजाम तय है, पर जो घर के भीतर हैं, ऐसे लोग अधिक खतरनाक हैं। हमारे न्यायतंत्र की प्रक्रिया को देखकर ऐसा नहीं लगता कि कसाब को फांसी के बाद आतंकवादी हमारी न्याय व्यवस्था से डरेंगे। अब आतंकवादी यह अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि भारत में किसी भी प्रकार की आतंकी कार्रवाई की भी जाए तो उसका फैसला देर से होता है और उस पर अमल होने में तो और भी देर होती है। कसाब जब तक जिंदा था, तो पाकिस्तानी राजनीति का प्यादा था, लेकिन मरने के बाद वह भारतीय राजनीति का प्यादा बन गया है। संसद का शीतकालीन सत्र, गुजरात का विधासभा चुनाव, एफडीआई पर विपक्ष का हावी होना, इस बात का परिचायक है कि आखिर सरकार को यही करना था, तो चार साल तक इंतजार क्यों किया? क्या यही जल्दबाजी अफजल गुरु के लिए नहीं दर्शाई जा सकती थी? कसाब तो सर पर कफन बांधकर मरने के लिए ही आया था, उसे तो मरना ही था। पर उसे जिंदा रखने के लिए जो 30 करोड़ रुपये खर्च हुए, उसका क्या? काफी लोग जानते होंगे कि जेल में बंद आतंकवादियों पर हमारे देश का कितना धन बर्बाद हो रहा है। 26/11 के दौरान जो आतंकवादी हमारे देश में घुस आए थे, कसाब को छोड़कर सभी मारे गए थे। इन आतंकवादी की लाशें कई महीनों तक सुरक्षित रखी गई थीं, जिस पर करोड़ों रुपये खर्च हो हुए। कसाब के इलाज पर भी लाखों रुपये खर्च हुए। कहा तो यह भी जाता है कि कसाब की सुरक्षा और उसके खाने-पीने के इंतजाम में जितना धन खर्च हुआ है, उतना तो 26/11 के दौरान शहीद हुए लोगों को मुआवजे के रूप में भी नहीं मिला है। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि इस देश में वीरों से अधिक सम्मान तो आतंकवादियों-अपराधियों को मिलता है। आतंकवादियों को दी जाने वाली सुविधा के सामने सीमा पर तैनात हमारे जांबाजों को मिलने वाली सुविधा तो बहुत ही बौनी है। आखिर आतंकवादी हमारे लिए इतने अधिक महत्वपूर्ण क्यों होने लगे? अफजल की बारी कब हमें गर्व होना चाहिए शहीद नानक चंद की विधवा गंगा देवी के जज्बे पर, जिन्होंने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि अफजल गुरु को उन्हें सौंप दिया जाए। अगर सरकार में हिम्मत नहीं है तो वह उसे फांसी दे देगी। गंगा देवी पर हमें इसलिए भी गर्व करना चाहिए कि उन्होंने पति के मरणोपरांत मिलने वाला कीर्ति चक्र भी लौटा दिया। उनका कहना था कि अफजल को फांसी दिए जाने तक वे कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगी। एक शहीद की विधवा को और क्या चाहिए। लोग न्याय की गुहार करते रहते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। पर एक शहीद की विधवा यदि प्रधानमंत्री से न्याय की गुहार करे तो क्या उसे भी इस देश में न्याय नहीं मिलेगा? वर्ग भेद की राजनीति में उलझी देश की गठबंधन सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद करना ही बेकार है। शहीद की विधवाओं की गुहार संसद तक पहुंचते-पहुंचते अनसुनी रह जाती है। जहां वोट की राजनीति होती हो, वहां कुछ बेहतर हो भी नहीं सकता। शहीद नानक चंद की विधवा ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है, मनमोहन सिंह जी अगर आपकी सरकार में अफजल गुरु को फांसी देने की हिम्मत नहीं है या आपको जल्लाद नहीं मिल रहे तो यह काम आप मुझे सौंप दें। मैं शहीद की पत्नी हूं। देश के खिलाफ आंख उठाने वाले को क्या सजा दी जाए, मुझे और मेरे परिवार को मालूम है। मैं संसद के 13 नंबर गेट पर जहां मेरे पति शहीद हुए थे, वहीं अफजल को फांसी दूंगी। राठधाना गांव में अपने घर पर शहीद पति की प्रतिमा के सामने बैठी गंगा देवी ने कहा कि हमले के 11 साल बाद भी अफजल और उसके सभी साथी सुरक्षित हैं। देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है? देश के हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के दुश्मनों को देश के भीतर ही कौन शह दे रहा है? क्यों पनप रहा है आतंकवाद? हमारे ही आंगन में कौन बो रहा है आतंकवाद के बीज? देश के दुश्मनों से सीमा पर लड़ना आसान है, लेकिन देश के भीतर ही छिपे दुश्मनों से लड़ना बहुत मुश्किल है। आतंकी और भी वर्ष 2001 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहर लगने के सात साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है, जबकि 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मोहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अब तक अदालती कार्रवाई जारी है। वर्ष 2005 में छह अन्य आरोपियों समेत आरिफ को दोषी मानते हुए ट्रॉयल कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई। 2007 में हाईकोर्ट ने अन्य आरोपियों को बरी करते हुए आरिफ के खिलाफ फांसी की सजा बरकरार रखी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है। इसी तरह 2002 में गुजरात स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर 31 लोगों को मौत के घाट उतारने वाले लश्कर आतंकियों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। वर्ष 2005 में दीपावली के ठीक दो दिन पहले यानी धनतेरस पर दिल्ली के बाजारों में, 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर और उसी साल मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट करने वाले आतंकियों को सजा मिलने में अभी सालों लग सकते हैं, जबकि इन आतंकी हमलों में 300 से अधिक लोग मारे गए थे। खुफिया विभाग (आइबी) के पूर्व प्रमुख और विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक अजीत डोवाल का मानना है कि आतंकवाद से सबसे अधिक पीडि़त होने के बावजूद भारत आतंकियों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने में विफल रहा है। अजमल कसाब को जब फांसी की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई राजनीतिक शक्तियां अफजल गुरु को बचाने में लगी हुई हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं? अब तो यह भी साबित हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदेखा किया, उन सभी को पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई राजनीतिक शक्तियां अफजल गुरु को बचाने में लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला भी तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? इसे समझते हुए उधर अफजल गुरु यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फांसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी उसका एक पैंतरा है। लेकिन इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने में केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी उंगली उठ रही है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों हैं इतने लाचार हमारे राष्ट्रपति! 
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 




गुरुवार, 22 नवंबर 2012

उधर सरबजीत की फांसी तय, इधर अफजल को फांसी कब?

डॉ. महेश परिमल
अजमल कसाब को आखिर फांसी दे दी गई। इससे यह समझना भूल होगी कि आतंकवाद ही खत्म हो गया। कसाब खत्म हुआ है आतंकवाद नहीं। अभी अफजल गुरु जिंदा है। इसके अलावा ऐसे कई आतंकवादी भी जिंदा हैं, जो या तो जेल में हैं या फिर अपने घर में ही जयचंद बनकर रह रहे हैं। जो जेल में हैं, उनका अंजाम तय है, पर जो घर के भीतर हैं, ऐसे लोग अधिक खतरनाक हैं। इसे छद्म आतंकवाद की संज्ञा दी जा सकती है। बहुत ही खतरनाक होता है यह छद्म आतंकवाद। इसमें आतंकवादी अलग से दिखाई नहीं देता, वह हमारे ही बीच हमारी तरह रहकर आतंकवादी कार्य करता है। कसाब की फांसी के बाद यह तय है कि पाकिस्तान खामोश नहीं बैठेगा। उसके पास अभी सरबजीत की याचिका है, जिसे वह खारिज कर फांसी की सजा मुकर्रर कर सकता है। कसाब की प्रतिक्रिया में सरबजीत की फांसी तय है। पाकिस्तानी प्रेजिडेंट आसिफ अली जरदारी के कार्यालय की मानें तो कसाब की मौत का असर सरबजीत पर होने वाले फैसले पर पड़ सकता है। सूत्रों का मानना है कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान सरकार कसाब की मौत का बदला सरबजीत की क्षमा याचिका को खारिज कर के लेगी। आज सहायक पुलिस इंस्पेक्टर शहीद बाला साहब भोसले की आत्मा को शांति मिली होगी। उसके बेटे ने कहा है कि मुझे लगता है कि हमारी दिवाली आज शुरू हुई। मेरी मां अब चैन की नींद सो पाएंगी। जिसने मेरे बाबा को मुझसे छिन लिया, उसे सरेआम फांसी देनी चाहिए थी।
 कसाब को फांसी से भी बड़ी कोई सजा है, तो वह उसे दी जानी थी। वह एक दरिंदा था, जो लोगों को तड़पता और मरता देखकर खुश होता था। वह एहसानफरामोश था, जो भला करता है, उसी की हत्या करने में भी देर नहीं करता था। सवाल यह उठता है कि आखिर हम आतंकवादियों को क्यों पालते हैं? अफजल गुरु ही नहीं, ऐसे बीस आतंकी हमारे देश में हैं, जिनका गुनाह तो सिद्ध हो चुका है, सजा भी हो चुकी है, पर हम उन्हें सजा नहीं दे पा रहे हैं। फांसी से भी बड़ी कोई सजा हो सकती है क्या? आज हर तरफ 26/11 के आतंकी आमिर अजमल कसाब को दी दी गई फांसी की चर्चा है। इस सजा से कई सवाल और खड़े हो गए हैं। आज देश का बच्चा-बच्चा यही चाहता है कि फांसी से भी बड़ी कोई सजा है, तो वह कसाब को मिलनी चाहिए थी। क्योंकि कसाब के लिए फांसी तो बहुत ही छोटी सजा है। उसने जो अपराध किया है, वह दरिंदगी की सीमाओं को पार करता है। करोड़ों भारतीयों की भावनाओं का यदि सम्मान किया जाए, तो कसाब को सजा देने के लिए जितना समय लगा, उससे भी कम समय में उसे फांसी हो जानी चाहिए थी। कसाब को फांसी की सजा से यह संदेश जाना चाहिए कि अब भविष्य में कोई भी आतंकी अपने काम को अंजाम देने के पहले सौ बार सोचे।
कसाब को लेकर जो सबसे अधिक चिंता की बात है, वह यह कि कसाब को फांसी देने में आखिर इतना वक्त कैसे लग गया? क्या हमारी न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि देश के दुश्मन को भी सजा देने में इतना समय लगाया जाए। सच्चा न्याय तो वही होता है, जो समय पर मिले। देर से मिलने वाले न्याय का कोई महत्व नहीं होता।  संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाने में बरसों बीत गए, इसके बाद भी वह जिंदा है। उसे फांसी पर लटकाने में केंद्र सरकार सांसत में है। वह इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। जब यह बात जोर-शोर से उठी कि अफजल को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है, तो सरकार का कहना था कि अफजल गुरु के आगे फांसी की सजा पाने वाले करीब 20 लोग और भी हैं। जब अफजल की बारी आएगी, तो उसे फांसी दे दी जाएगी।
कसाब को फांसी की सजा होना यह अंत नहीं है। फिर कोई आतंकवादी ऐसी हिम्मत न कर पाए, यह कोशिश होनी चाहिए। ऐसे हमले निष्फल हो जाएं, इसकी मंशा भी सजा में होनी चाहिए। होना तो यह भी चाहिए कि अब अगर पड़ोसी देश से आतंकवादी हमारे देश में घुसते हैं, तो उन्हें इस बात का डर होना चाहिए कि यदि यहां पकड़े गए, तो वह जिंदगी मौत से भी बदतर होगी। लेकिन हमारे न्यायतंत्र की प्रRिया को देखकर ऐसा नहीं लगता कि आतंकवादी हमारी न्याय व्यवस्था से डरेंगे। अब आतंकवादी यह अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि भारत में किसी भी प्रकार की आतंकी कार्रवाई की भी जाए, तो उसका फैसला देर से होता है और उस पर अमल होने में तो और भी देर होती है। तब तक जिंदगी के पूरे मजे ले लो।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इन आतंकवादियों पर हमारे देश का कितना धन बरबाद हो रहा है। 26/11 के दौरान जो आतंकवादी हमारे देश में घुस आए थे, कसाब को छोड़कर सभी मारे गए थे। इन आतंकवादी की लाशें कई महीनों तक सुरक्षित रखी गई थीं, जिस पर  करोड़ों रुपए खर्च हो हुए। कसाब के इलाज पर भी लाखों रुपए खर्च हुए। इन लोगों पर देश का जितना धन खर्च हुआ है, उतना तो 26/11 के दौरान मारे गए लोगों को मुआवजे के रूप में नहीं मिला है।  हमे शर्म आनी चाहिए कि इस देश में वीरों से अधिक सम्मान तो आतंकवादियों को मिलता है। आतंकवादियों को दी जाने वाली सुविधा के सामने सीमा पर तैनात हमारे जांबाजों को मिलने वाली सुविधा तो बहुत ही बौनी है। आखिर आतंकवादियों हमारे लिए इतने अधिक महत्वपूर्ण क्यों होने लगे? कसाब को मौत से पहले मिली वाली तमाम सुख-सुविधाओं को देखते हुए आम युवाओं में यही संदेश जाएगा कि देश का सैनिक बनने से तो बेहतर है, आतंकवादी बनना। मौत कितनी भी भयानक हो, पर जिंदगी तो बहुत ही खुशगवार होगी। युवाओं की इसी तरह की सोच के ही कारण आज देश के युवा भटक रहे हैं। देश के लिए सबसे शर्म की बात तो तब सामने आई, जब सेना में भर्ती के लिए सरकार ने विज्ञापन प्रकाशित किए। यह विज्ञापन नहीं, देश के युवाओं में जमे हुए रक्त का हस्ताक्षर है। आज कोई युवा सेना में जाना ही नहीं चाहता। यह देश का दुर्भाग्य है। एक सैनिक जितना अपनी पूरी जिंदगी में कमाता है, उससे कई गुना तो एक नेता एक महीने में ही कमा लेता है।
शहीद की विधवा के जज्बे को सलाम!
हमें गर्व होना चाहिए शहीद नानक चंद की विधवा गंगा देवी के जज्बे पर। जिसने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि अफजल गुरु को उन्हें सौंप दे। ताकि सरकार में यदि हिम्मत नहीं है, तो वह उसे फांसी दे देगी। गंगा देवी पर हमें इसलिए भी गर्व करना चाहिए कि उसने पति के मरणोपरांत मिलने वाला कीर्ति चR भी लौटा दिया। उनका कहना था कि अफजल को फांसी दिए जाने तक वे कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगी। एक शहीद की विधवा को और क्या चाहिए। लोग न्याय की गुहार करते रहते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। पर एक शहीद की विधवा यदि प्रधानमंत्री से न्याय की गुहार करे, तो क्या उसे भी इस देश में न्याय नहीं मिलेगा? वर्ग भेद की राजनीति में उलझी देश की गठबंधन सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद करना ही बेकार है। शहीद की विधवाओं की गुहार संसद तक पहुंचते-पहुंचते अनसुनी रह जाती है। जहां वोट की राजनीति होती हो, वहां कुछ बेहतर हो भी नहीं सकता।शहीद की विधवा ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है ‘मनमोहन सिंह जी अगर आपकी सरकार में अफजल गुरु को फांसी देने की हिम्मत नहीं है, यदि आपको जल्लाद नहीं मिल रहे तो आप यह काम मुझे सौंप दें। मैं शहीद की पत्नी हूं, देश के खिलाफ आंख उठाने वाले को क्या सजा दी जाए, मुझे और मेरे परिवार को मालूम है।’ ‘मैं संसद के 13 नंबर गेट पर जहां मेरे पति शहीद हुए थे वहीं अफजल को फांसी दूंगी।’ राठधाना गांव में अपने घर पर शहीद पति की प्रतिमा के सामने बैठी गंगा देवी ने कहा कि हमले के 11 साल बाद भी अफजल और उसके सभी साथी सुरक्षित हैं। देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है?’ देश के हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के दुश्मनों को देश के भीतर ही कौन शह दे रहा हे? क्यों पनप रहा है आतंकवाद? हमारे ही आंगन में कौन बो रहा है आतंकवाद की फसल? देश के दुश्मनों से सीमा पर लड़ना आसान है, पर देश के भीतर ही छिपे दुश्मनों से लड़ना बहुत मुश्किल है।
अफजल की बारी कब?
2001 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहर लगने के 7 साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है। जबकि 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तोयबा के आतंकी मोहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अब तक अदालती कार्रवाई जारी है। 2005 में छह अन्य आरोपियों समेत आरिफ को दोषी मानते हुए ट्रायल कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई। 2007 में हाईकोर्ट ने अन्य आरोपियों को बरी करते हुए आरिफ के खिलाफ फांसी की सजा बरकरार रखी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है। इसी तरह 2002 में गुजरात स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर 31 लोगों को मौत का घाट उतारने वाले लश्कर आतंकियों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीवाली के ठीक पहले धनतेरस पर दिल्ली के बाजारों, 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर और 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट करने वाले आतंकियों को सजा मिलने में अभी सालों लग सकते हैं। जबकि इन तीन आतंकी हमले में 300 से अधिक लोग मारे गए थे। खुफिया विभाग (आईबी) के पूर्व प्रमुख व विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक एके डोभाल का मानना है कि आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित होने के बावजूद भारत आतंकियों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने में विफल रहा है।अजमल कसाब को जब फांसी की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई शक्तियां अफजल को बचाने में लगी हुई हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं? अब तो यह भी सिद्ध हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदेखा किया, उन सभी को पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई शक्तियां अफजल को बचाने में लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? इसको समझते हुए उधर अफजल यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फांसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी उसकी एक चाल हो। पर इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने मंे केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी ऊंगली उठ रही है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों है इतने  लाचार हमारे राष्ट्रपति?
डॉ. महेश परिमल

रविवार, 18 नवंबर 2012

बाल ठाकरे को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि


 नवभारत और हरिभूमि में बाल ठाकरे पर केंद्रित मेरे आलेख का लिंक

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

किसानों की परवाह किसे है


किसानों की परवाह किसे है
डॉ. महेश परिमल 
महाराष्ट्र में किसानों का आंदोलन उग्र होता जा रहा है। पुलिस से टकराव में दो किसानों की मौत भी हो चुकी है। विवाद गन्ने के समर्थन मूल्य पर है। किसानों की मांग है कि यह 3000 रुपये प्रति क्विंटल हो, लेकिन कहा तो यह जा रहा है कि शरद पवार की शक्कर लॉबी ऐसा नहीं होने दे रही है। पुणे, सोलापुर और अहमदनगर के साथ-साथ पूरे प्रदेश में किसान सड़कों पर उतर आए हैं। यह अकेले महाराष्ट्र की बात नहीं है। ऐसे हालात पूरे देश में बन रहे हैं। उत्पादों का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान आंदोलन को बाध्य हैं। किसान अपनी लागत भी नहींनिकाल पाते और मुनाफाखोर भारी मुनाफा कमाते हैं। सरकारी नीतियों के कारण त्योहारी मौसम में बाजार में गेहूं का मूल्य 1650-1800 रुपये प्रति क्विंटल पहुंचना इसका ताजा उदाहरण है। एक तरफ तो सरकारी गोदामों में 1285 रुपये कीमत से खरीदा हुआ लाखों टन गेहूं पड़ा है और दूसरी तरफ आम आदमी की रोटी महंगी हो गई है। कहीं खाद और बीज ने समस्याएं खड़ी कर रखी हैं तो कहीं जमीन अधिग्रहण के नाम पर लूट है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा सहित दिल्ली से सटे राज्यों में तो यह गंभीर संकट बन चुका है। उद्योग के नाम पर अधिगृहीत जमीनों पर ताबड़तोड़ इमारतें बन रही हैं। इन सबके बीच देश में हर महीने औसतन 70 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। 2008-2011 के बीच 3340 किसानों ने अपनी जान दी। इनमें सबसे अधिक 1862 किसान शरद पवार के गृह राज्य महाराष्ट्र के थे। आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल और पंजाब में भी कर्ज से तंग किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आए हैं। अपने उत्पादों का उचित मूल्य हासिल करके ही किसान इस संकट से उबर सकते हैं, लेकिन सरकार की नीतियों ने किसानों को चौतरफा घेर लिया है। इसके लिए सार्थक पहल की जरूरत है। उपेक्षापूर्ण नीति वर्तमान केंद्र सरकार पर भारी पड़ सकती है। सरकार उद्योगपतियों को जिस तरह से सुविधाएं दे रही है, उससे यही लगता है कि इस देश को अनाज की नहीं, उद्योगों की ज्यादा जरूरत है। सरकार की अनदेखी के कारण ही आज तक कोई स्पष्ट कृषि नीति नहीं बन पाई। यदि बनाई भी गई है, तो उस पर सख्ती से अमल नहीं हो पा रहा है। किसानों की मौत सुर्खियां तो बनती हैं, लेकिन आज तक किसी उद्योगपति ने कर्ज में डूबकर आत्महत्या की हो, ऐसी जानकारी नहीं मिली है। उद्योगों के लिए सरकार ने लाल जाजम बिछा रखे हैं, पर किसानों के लिए समय पर न तो खाद की व्यवस्था हो पाती है और न बीज की। किसान हर हाल में कष्ट झेलता रहता है। इस सरकार को उद्योगपतियों की सरकार कहना गलत नहीं होगा। आज देश में खुद को किसान नेता कहने वाले ही किसानों के शोषण में आगे हैं। इसे किसान नेताओं की विफलता ही कहा जाएगा कि वे आज तक सरकार पर स्पष्ट कृषि नीति बनाने के लिए दबाव नहीं डाल पाए। ऐसे लोग खुद को किसानों का नेता बताकर किसानों को ही धोखा दे रहे हैं। पिछले साल जब हजारों टन अनाज सड़ गया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को लताड़ लगाई थी अगर अनाज को सुरक्षित नहीं रख सकते, तो उसे गरीबों में मुफ्त में बांट दो। कोर्ट के इस रवैये से केंद्र सरकार इतनी अधिक नाखुश हुई कि उसने कोर्ट से ही कह दिया कि वह अपने सुझाव अपने तक ही सीमित रखे। आज पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में कमोबेश यही हालात हैं कि पिछले साल का ही अनाज इतना अधिक है कि इस साल के अनाज को रखने की जगह ही नहीं बची। अनाज का विपुल उत्पादन होने के बाद भी न तो किसानों को अनाज का सही दाम मिल रहा है और न ही नागरिकों को सस्ता अनाज मिल रहा है। क्या हमारे नेता अधिकारी इतने भी दूरंदेशी नहीं कि अनाज सड़े उसके पहले ही वह सही हाथों तक पहुंच जाए। हमारे पास अनाज का विपुल भंडार है, उसके बाद भी देश में भुखमरी है। तेल कंपनियों को होने वाले घाटे की चिंता सरकार को सबसे अधिक है। उनकी चिंता में शामिल होते ही सरकार पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ा देती है, पर कृषि प्रधान देश में सरकार किसानों के लिए कभी चिंतित होती है, ऐसा जान नहीं पड़ता। जब देश में गोदाम नहीं हैं, तो फिर गोदाम बनाना ही एकमात्र विकल्प है। शर्म आती है कि हम उस देश में रहते हैं, जहां अनाज तो खूब पैदा होता है, पर लोग भूख से भी तड़पते हुए अपनी जान दे देते हैं। यह सब सरकारी अव्यवस्था के कारण है। आखिर गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। करते रहें किसान आत्महत्या, इन मजबूरियों के आगे किसानों की जान बौनी है। बस तेल कंपनियों को कभी घाटा नहीं होना चाहिए। 
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Post Labels