सोमवार, 30 अप्रैल 2012

मासूम हाथों की बात..



मजदूर दिवस पर विशेष
 डॉ. महेश परिमल
शमशेर की एक कविता है, ‘कब आएँगे हाथों के दिन’. आज हाथों के दिन तो हमारे करीब हों या न हों, पर मासूम हाथों के दिन अभी तक लद नहीं पाएँ हैं, वे आज भी शिवाकाशी में पटाखों से झुलसते हैं, खड़िया मिट्टी का काम करते हुए अपने हाथों को गला रहे हैं, बीड़ी बनाते हुए तम्बाखू की ज़हरीली गंध को अपने नथूनों में पाल रहे हैं या फिर नरम कालीन बनाते हुए अपने हाथों को कठोर कर रहे हैं। उनकी साँसों या तो बारुदी गंध समाई हुई है या फिर महीन रेशे के रूप में मासूम फेफड़ों पर जम रही है। आज मजदूर दिवस पर हमें यह सोचना है कि बाल मजदूर भी एक मजदूर हैं, इन्हें स्कूल में होना चाहिए, न कि होटलों-कारखानों में।
शायद आपने कभी नहीं सोचा होगा कि शिक्षक को जब भी अपनी कोई बात समझानी होती है, तब चॉक का इस्तेमाल करते हैं, दूसरी ओर कभी कहीं भी कोई खुशी का अवसर आता है, तब लोग पटाखे चलाकर अपनी खुशियाँ जाहिर करते हैं। दीप पर्व पर तो यह पूरे देश में खुले रूप में दिखाई देता है, पर क्या कभी किसी ने सोचा कि इसके पीछे कई नन्हे हाथों का कमाल है। ये वही नन्हें हाथ हैं, जिनकी आँखों में एक सपना पलता है, कुछ करने का, पढ़ने और आगे बढ़ने का, लेकिन रोटी के संघर्ष में उनकी आँखों में पलने वाले सपने धुँधले हो गए हैं। छोटी उम्र में ही अपने अभिभावकों को अपने होने की कीमत अदा करते हैं। सरकारी भाषा में इन्हें बाल श्रमिक कहा जाता है। बाल श्रमिक या बाल मज़दूर यानी 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे अपनी आजीविका चलाने के लिए स्वयं या अपने माता-पिता के साथ काम पर जाते हैं या काम करते हैं।
बाल श्रमिकों के नाम पर चाहे कितनी भी योजनाएँ बनें या कितनी भी घोषणाएँ हों, लेकिन कुछ हो नहीं पाता। हाँ सरकारी आँकड़ों पर निश्चित ही कुछ ऐसा हो जाता है, जिससे लगे कि हाँ हमारे देश में बाल श्रमिकों की संख्या में कमी आई है। लेकिन देखा जाए, तो हमारे देश में बाल श्रमिकों की संख्या सर्वाधिक है। भारत के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में साढ़े चार करोड़ से लेकर करीब ग्यारह करोड़ के बीच बाल श्रमिक हैं। इस संख्या को देखते हुए शासन द्वारा बाल श्रम को रोकने के लिए जहाँ कानूनी प्रावधान किए गए हैं, वहीं ऐसे बच्चों की शिक्षा के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराने हेतु ठोस पहल के रूप में बाल श्रमिक शालाओं की भी स्थापना की गई है। अब यह बहुत कम लोग जानते हैं कि बाल श्रमिकों के लिए प्रारंभ की गई शालाएँ कैसी चल रही हैं। जब शिक्षकों की फौज होने के बाद भी सरकारी शालाओं की स्थिति दयनीय है,तो बाल श्रमिकों के लिए स्थापित की गई शालाओं की क्या स्थिति होगी, इसे बताने की जरूरत नहीं है। होने को तो कई विभागों में एक श्रम विभाग भी है, पर वहाँ किसी श्रमिक का एक आवेदन कितने वर्षो तक फाइलों में कैद रहता है, इसे भी बताने की आवश्यकता नहीं है। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने निश्चित ही इस दिशा में कुछ ठोस कार्य किए हैं, पर उनके कार्य ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान हैं।
आखिर कहाँ खो गई हमारी संवेदनाएं? होटल में बच्चे द्वारा लाया गया पानी का गिलास टूट जाए, तो हम उसे पिटता देखते रहते हैं। ठंडे कमरों में बाल श्रमिक पर गरमा-गरम बहसें होती हैं। सरकार की योजनाएं कहीं थक-हार सिमट जाती हैं। इन्हीं मासूम चेहरों में छिपा होता है, वह दर्द, हमारा कसूर केवल इतना ही है कि हम गरीब हैं। हमारे माता-पिता मजदूर हैं, इसलिए हम भी मजदूर हैं। आखिर कब बदलेगी ये तस्वीर! 
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

फिर बोतल से निकला बोफोर्स का जिन्न

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

सबको शिक्षित करना असंभव

हरिभूमि के संपादकीय पेज पर 21 अप्रैल को प्रकाशित मेरा आलेख 


http://74.127.61.178/haribhumi/epapermain.aspx?queryed=9&eddate=4%2f21%2f2012

रविवार, 15 अप्रैल 2012

फलक-आफरीन की मौत से खत्म हुआ देश का गौरव


डॉ. महेश परिमल

दो मासूमों की एक ही कहानी। दोनांे का अपराध यही था कि वे नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थीं। दोनों ही सामाजिक विषमताओं का अत्याचार का शिकार हुई। मामला हत्या का नहीं, बल्कि उससे भी बड़ा है। देश में लचीले कानून के तहत सब कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे अपराधियों को कानून का भय नहीं है। कानून से खेलना उनकी आदत में शुमार है। जेल में जितने अपराधी हैं, उससे अधिक खतरनाक अपराधी समाज में खुले आम घूम रहे हैं। मासूम फलक और आफरीन की मौत समाज के लिए कलंक है। अपनी मौत से वे ये बता गई कि समाज में ऐसे हत्यारे भी मौजूद हैं, जो जननी को मौत के घात उतारने में देर नहीं करते।

यूनिसेफ की रिपोर्ट की अनुसार भारत में कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने का उद्योग अब बहुत ही फल-फूल गया है। इसका वार्षिक व्यापार अब 1000 करोड़ रुपए को हो गया है। देश भर के शहरों एवं कस्बों में ऐसे छोटे-छोटे क्लिनिक खुल गए हैं, जहाँ लिंग परीक्षण कर मादा भ्रूण की हत्या की जाती है। हमारे समाज में बेटी का स्थान आज भी बेटे से कमतर ही है। यह तो हाल ही में हुए जनसंख्या की गणना में सामने आया। जिसमें बताया गया है किदेश में 1000 पुरुष के एवज में स्त्रियों की संख्या 914 है। यदि भ्रूण को गर्भ में ही न मारा जाए, तो उनकी हालत फलक-आफरीन जैसी होती है। दो महीने तक मौत से जूझने वाली वह मासूम आखिर 15 मार्च कोजिंदगी की लड़ाई हार गई। ठीक उसी तरह 8 अप्रैल को पिता के अत्याचार का शिकार बनी आफरीन ने आखिर बेंगलोर की अस्पताल में कल ही दम तोड़ दिया। यह हमारा ही देश है, जहाँ वर्ष में दो बार नारी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। लोग उपवास रखकर देवी के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। यही नहीं कन्या भोज कराकर वे स्वयं को गौरवांवित महसूस करते हैं। दूसरी तरफ कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकते। शायद इसे ही कलयुग कहते हैं।

नई दिल्ली की ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल साइंसीस हास्पिटल में इसी वर्ष 18 जनवरी को दो वर्ष की मासूम फलक को घायलवस्था में भर्ती किया गया। फलक के माथे पर चोट के निशान थे, यही नहीं उसके शरीर पर कई स्थान पर दांत से काटने के भी निशान मिले। उसके गाल को दागा गया था। फलक को अस्पताल लाने वाली 16 वर्ष की एक युवती ने स्वयं को फलक की माँ बताया था। वह युवती झूठी निकली। वास्तव में फलक एक कॉलगर्ल की अवैध संतान थी। कॉलगर्ल ने अपना पाप छिपाने के लिए इस मासूम को अपने एक दलाल को दत्तक के रूप में दे दिया था। इस दलाल ने बच्ची की देखभाल का काम उक्त युवती को सौंपा था। यह युवती भी जातीय अत्याचार का शिकार हुई थी। इसी युवती ने गुस्से में फलक को दीवार पर दे मारा था। उसके बाद उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया था।  इस समय फलक के बचने की आशा बिलकुल भी नहीं थी। फिर भी डॉक्टरों ने उसे बचाने की भरपूर कोशिश की। कई ऑपरेशन किए, पर उस मासूम को बचाया नहीं जा सका। फलक की माँ को खोजने के लिए पुलिस ने जाल बिछाया, तो एक सेक्स रेकेट का पता चला। इसमें फलक की माँ जैसी न जाने कितनी कॉलगर्ल फँसकर छटपटा रही थीं। फलक का गुनाह इतना ही था कि वह नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थी। उनका जन्म यदि नर संतान के रूप में होता, तो शायद वह बच जाती।

हमारे देश में बेटी को बोझ समझा जाता है। बेटा आँख का तारा होता है। बरसों पहले राजस्थान में बेटी के जन्म पर उसे दूध के बरतन में डूबोकर मार डालने की परंपरा थी।  मादा भ्रूण की हत्या इस परंपरा की अगली कड़ी है। आफरीन को उसके पिता ने ही सिगरेट से दाग-दाग कर बुरी तरह से घायल कर दिया था। वह बेटा चाहता था, बेटी उसे पसंद नहीं थी, अपनी नापसंद को उसने एक वहशी बनकर मौत के हवाले कर दिया। बेटी के जन्म पर उसने अपनी पत्नी पर अत्याचार करना नहीं छोड़ा। ऐसे वहशी नर्क में जाएँगे, पर उसके पहले क्या उसे जिंदा रहने का हक है? बेबी आफरीन की मौत के बाद अनेक संवेदनशील संदेश ट्विटर पर आने लगे। पहले ही घंटे में 500 संदेश आए। फिल्म निर्माता एवं निर्देशक करण जौहर ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी आफरीन का बाप मानवजाति के लिए कलंक है।’ मेघना गुलजार ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी फलक के बाद अब बेबी आफरीन, ईश्वर न जाने और कितनी बेटियाँ होंगी, जो अखबार की हेडलाइन पर चमकेंगी। दु:खद और शर्मनाक।’ मिनी माथुर ने तो बेबी आफरीन के पिता को फाँसी पर लटकाने की माँग करती हैं। वे कहती हैं- ‘फाँसी की सजा अपवादस्वरूप ही दी जाती है, पर कोई बाप यदि अपनी ही बेटी को सिगरेट से दागे, उसका गला दबाए, तो उसे कैसे माफ किया जा सकता है? उसे तो फाँसी पर ही लटकाया जाना चाहिए।’
हम अपने देश की संस्कृति पर गर्व करते हैं। पर क्या यह संस्कृति यही सिखाती है कि फलक और आफरीन की मौत इस तरह से हो? ये तो मासूम थीं, उनमें ईश्वर का वास था, तो क्या आज हमारी परंपरा ईश्वर को ही खत्म करने पर आमादा है? आज इस पर विचार किया जाना चाहिए कि आखिर कब तक इस तरह से मासूमों को मारा जाता रहेगा। ओछी और संकीर्ण मानसिकता के चलते आखिर कब तक मासूम अपने जीवन की बलि देती रहेंगी? मुझे तो लगता है कि बेबी आफरीन की मौत के बाद देश का गौरव भी मर गया है। हमारा समाज नारी भ्रूण के प्रति इतना आक्रामक आखिर क्यों है? ऐसे लोगों को इतनी कड़ी सजा दी जाए, जिससे और कोई किसी मासूम को मारने के पहले हजार बार सोचे। ऐसे लोगों को सजा देने में न्यायालय पूरी तरह से कठोर हो जाए, तभी समाज में एक संदेश जाएगा कि बेटी की हत्या करने पर कितनी खतरनाक सजा होती है? सजा वह जो सबक दे, सोचने के लिए विवश करे और वैसा अपराध जीवन में कभी न करने की इच्छाशक्ति पैदा करे। बेबी फलक और बेबी आफरीन सामाजिक विषमताओं की पैदाइश हैं। जो पालक लगातार बेटी पर खर्च करते हैं, उस पर उससे कोई लाभ हासिल नहीं होता, इसलिए उसे उपेक्षित करते हैं। बेटी को पढ़ा-लिखा दिया, तो उसका लाभ उसके ससुराल वालों को ही मिलेगा, पालकों को नहीं, यही मानसिकता आज बेटी को कोख में ही मार डालने की प्रवृत्ति को हवा दे रही है। बेटे से यह अपेक्षा होती है कि वह माता-पिता का सहारा बनेगा। इसलिए उसकी शिक्षा में भी भारी खर्च किया जाता है। हमारे देश में ऐसा भी समाज है, जिसमे बेटी और बेटे की थाली जो भोजन परोसा जाता है, उसमें भी भेदभाव किया जाता है। बेटा बड़ा होकर दहेज लाएगा और कमाकर भी लाएगा, लेकिन बेटी दहेज के रूप में सम्पत्ति ले जाएगी और कमाएगी भी तो ससुराल जाकर। जब तक इस तरह की मानसिकता हमारे समाज में व्याप्त है, तब तक न तो समाज आगे बढ़ सकता है और न ही देश। बेटी के जन्म पर शोक की लहर आज भी दौड़ जाती है, जबकि बेटे के जन्म पर हर्ष मनाया जाता है।
आज की बेटियों को लगता है कि वे घर में ही उपेक्षित हैं। तब वह घर में बेटा बनकर सारे काम करती है। उसका लालन-पालन भी बेटे की तरह होता है। उसे बेटे जैसे ही कपड़े पहनाए जाते हैं। कॉलेज की उच्च शिक्षा प्राप्त करती है। माता-पिता की सेवा में वह इतना अधिक डूब जाती हैं कि अपना जीवन भी होम कर देती हैं। वे शादी नहीं करतीं, क्योंकि शादी के बाद माता-पिता की देखभाल कौन करेगा? इसलिए उनकी उम्र निकल जाती है। योग्य वर नहीं मिलता। माता-पिता के न रहने पर आखिर एकाकीपन जीवन को अपना लेती हैं और घुट-घुटकर जीने को विवश हो जाती हैं। इस तरह की लड़कियों की संख्या आज समाज में लगातार बढ़ रही है। अपनी मौत से बेबी फलक और बेबी आफरीन ने समाज के सामने यह चुनौती दी है कि आखिर कब तक बेटी की उपेक्षा करोगे। यदि बेटी न होती, तो समाज में पुरुष भी नहीं होते। बेटी नहीं होगी तो बेटे के लिए दुल्हन कहाँ से लाओगे? बेटी को कोख में मारने में सहायक की भूमिका निभाने वाली माँ से भी यही सवाल कि ऐसा ही यदि उनकी माँ ने भी सोचा होता, तो क्या वे आज अपनी बेटी को मारने में सहायक हो पाती? बेटे से तो वंश चलता है, यह सच है, पर वह किस वंश का पोषक है, यह कोई बता सकता है। बेटी दो कुलों की शोभा बनती है। इसे समाज क्यों भूल जाता है। यदि बेटा ही महत्वपूर्ण है,तो आज देश में वृद्धाश्रमों की संख्या इतनी तेजी से क्यों बढ़ रही है? कौन देगा इसका जवाब? जरा वृद्धाश्रम जाकर उन बूढ़ी आँखों से एक बार पूछो तो कि आखिर बेटा उन्हें अपने घर पर क्यों नहीं रखता? क्या इसी दिन के लिए उन्होंने बेटे की कामना की थी और बेटी को कोख में मार डालने का फैसला लिया था?
डॉ. महेश परिमल

फलक-आफरीन की मौत से खत्म हुआ देश का गौरव



डॉ. महेश परिमल
दो मासूमों की एक ही कहानी। दोनांे का अपराध यही था कि वे नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थीं। दोनों ही सामाजिक विषमताओं का अत्याचार का शिकार हुई। मामला हत्या का नहीं, बल्कि उससे भी बड़ा है। देश में लचीले कानून के तहत सब कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे अपराधियों को कानून का भय नहीं है। कानून से खेलना उनकी आदत में शुमार है। जेल में जितने अपराधी हैं, उससे अधिक खतरनाक अपराधी समाज में खुले आम घूम रहे हैं। मासूम फलक और आफरीन की मौत समाज के लिए कलंक है। अपनी मौत से वे ये बता गई कि समाज में ऐसे हत्यारे भी मौजूद हैं, जो जननी को मौत के घात उतारने में देर नहीं करते।
यूनिसेफ की रिपोर्ट की अनुसार भारत में कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने का उद्योग अब बहुत ही फल-फूल गया है। इसका वार्षिक व्यापार अब 1000 करोड़ रुपए को हो गया है। देश भर के शहरों एवं कस्बों में ऐसे छोटे-छोटे क्लिनिक खुल गए हैं, जहाँ लिंग परीक्षण कर मादा भ्रूण की हत्या की जाती है। हमारे समाज में बेटी का स्थान आज भी बेटे से कमतर ही है। यह तो हाल ही में हुए जनसंख्या की गणना में सामने आया। जिसमें बताया गया है किदेश में 1000 पुरुष के एवज में स्त्रियों की संख्या 914 है। यदि भ्रूण को गर्भ में ही न मारा जाए, तो उनकी हालत फलक-आफरीन जैसी होती है। दो महीने तक मौत से जूझने वाली वह मासूम आखिर 15 मार्च कोजिंदगी की लड़ाई हार गई। ठीक उसी तरह 8 अप्रैल को पिता के अत्याचार का शिकार बनी आफरीन ने आखिर बेंगलोर की अस्पताल में कल ही दम तोड़ दिया। यह हमारा ही देश है, जहाँ वर्ष में दो बार नारी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। लोग उपवास रखकर देवी के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। यही नहीं कन्या भोज कराकर वे स्वयं को गौरवांवित महसूस करते हैं। दूसरी तरफ कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकते। शायद इसे ही कलयुग कहते हैं।
नई दिल्ली की ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल साइंसीस हास्पिटल में इसी वर्ष 18 जनवरी को दो वर्ष की मासूम फलक को घायलवस्था में भर्ती किया गया। फलक के माथे पर चोट के निशान थे, यही नहीं उसके शरीर पर कई स्थान पर दांत से काटने के भी निशान मिले। उसके गाल को दागा गया था। फलक को अस्पताल लाने वाली 16 वर्ष की एक युवती ने स्वयं को फलक की माँ बताया था। वह युवती झूठी निकली। वास्तव में फलक एक कॉलगर्ल की अवैध संतान थी। कॉलगर्ल ने अपना पाप छिपाने के लिए इस मासूम को अपने एक दलाल को दत्तक के रूप में दे दिया था। इस दलाल ने बच्ची की देखभाल का काम उक्त युवती को सौंपा था। यह युवती भी जातीय अत्याचार का शिकार हुई थी। इसी युवती ने गुस्से में फलक को दीवार पर दे मारा था। उसके बाद उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया था।  इस समय फलक के बचने की आशा बिलकुल भी नहीं थी। फिर भी डॉक्टरों ने उसे बचाने की भरपूर कोशिश की। कई ऑपरेशन किए, पर उस मासूम को बचाया नहीं जा सका। फलक की माँ को खोजने के लिए पुलिस ने जाल बिछाया, तो एक सेक्स रेकेट का पता चला। इसमें फलक की माँ जैसी न जाने कितनी कॉलगर्ल फँसकर छटपटा रही थीं। फलक का गुनाह इतना ही था कि वह नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थी। उनका जन्म यदि नर संतान के रूप में होता, तो शायद वह बच जाती।
हमारे देश में बेटी को बोझ समझा जाता है। बेटा आँख का तारा होता है। बरसों पहले राजस्थान में बेटी के जन्म पर उसे दूध के बरतन में डूबोकर मार डालने की परंपरा थी।  मादा भ्रूण की हत्या इस परंपरा की अगली कड़ी है। आफरीन को उसके पिता ने ही सिगरेट से दाग-दाग कर बुरी तरह से घायल कर दिया था। वह बेटा चाहता था, बेटी उसे पसंद नहीं थी, अपनी नापसंद को उसने एक वहशी बनकर मौत के हवाले कर दिया। बेटी के जन्म पर उसने अपनी पत्नी पर अत्याचार करना नहीं छोड़ा। ऐसे वहशी नर्क में जाएँगे, पर उसके पहले क्या उसे जिंदा रहने का हक है? बेबी आफरीन की मौत के बाद अनेक संवेदनशील संदेश ट्विटर पर आने लगे। पहले ही घंटे में 500 संदेश आए। फिल्म निर्माता एवं निर्देशक करण जौहर ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी आफरीन का बाप मानवजाति के लिए कलंक है।’ मेघना गुलजार ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी फलक के बाद अब बेबी आफरीन, ईश्वर न जाने और कितनी बेटियाँ होंगी, जो अखबार की हेडलाइन पर चमकेंगी। दु:खद और शर्मनाक।’ मिनी माथुर ने तो बेबी आफरीन के पिता को फाँसी पर लटकाने की माँग करती हैं। वे कहती हैं- ‘फाँसी की सजा अपवादस्वरूप ही दी जाती है, पर कोई बाप यदि अपनी ही बेटी को सिगरेट से दागे, उसका गला दबाए, तो उसे कैसे माफ किया जा सकता है? उसे तो फाँसी पर ही लटकाया जाना चाहिए।’
हम अपने देश की संस्कृति पर गर्व करते हैं। पर क्या यह संस्कृति यही सिखाती है कि फलक और आफरीन की मौत इस तरह से हो? ये तो मासूम थीं, उनमें ईश्वर का वास था, तो क्या आज हमारी परंपरा ईश्वर को ही खत्म करने पर आमादा है? आज इस पर विचार किया जाना चाहिए कि आखिर कब तक इस तरह से मासूमों को मारा जाता रहेगा। ओछी और संकीर्ण मानसिकता के चलते आखिर कब तक मासूम अपने जीवन की बलि देती रहेंगी? मुझे तो लगता है कि बेबी आफरीन की मौत के बाद देश का गौरव भी मर गया है। हमारा समाज नारी भ्रूण के प्रति इतना आक्रामक आखिर क्यों है? ऐसे लोगों को इतनी कड़ी सजा दी जाए, जिससे और कोई किसी मासूम को मारने के पहले हजार बार सोचे। ऐसे लोगों को सजा देने में न्यायालय पूरी तरह से कठोर हो जाए, तभी समाज में एक संदेश जाएगा कि बेटी की हत्या करने पर कितनी खतरनाक सजा होती है? सजा वह जो सबक दे, सोचने के लिए विवश करे और वैसा अपराध जीवन में कभी न करने की इच्छाशक्ति पैदा करे। बेबी फलक और बेबी आफरीन सामाजिक विषमताओं की पैदाइश हैं। जो पालक लगातार बेटी पर खर्च करते हैं, उस पर उससे कोई लाभ हासिल नहीं होता, इसलिए उसे उपेक्षित करते हैं। बेटी को पढ़ा-लिखा दिया, तो उसका लाभ उसके ससुराल वालों को ही मिलेगा, पालकों को नहीं, यही मानसिकता आज बेटी को कोख में ही मार डालने की प्रवृत्ति को हवा दे रही है। बेटे से यह अपेक्षा होती है कि वह माता-पिता का सहारा बनेगा। इसलिए उसकी शिक्षा में भी भारी खर्च किया जाता है। हमारे देश में ऐसा भी समाज है, जिसमे बेटी और बेटे की थाली जो भोजन परोसा जाता है, उसमें भी भेदभाव किया जाता है। बेटा बड़ा होकर दहेज लाएगा और कमाकर भी लाएगा, लेकिन बेटी दहेज के रूप में सम्पत्ति ले जाएगी और कमाएगी भी तो ससुराल जाकर। जब तक इस तरह की मानसिकता हमारे समाज में व्याप्त है, तब तक न तो समाज आगे बढ़ सकता है और न ही देश। बेटी के जन्म पर शोक की लहर आज भी दौड़ जाती है, जबकि बेटे के जन्म पर हर्ष मनाया जाता है।
आज की बेटियों को लगता है कि वे घर में ही उपेक्षित हैं। तब वह घर में बेटा बनकर सारे काम करती है। उसका लालन-पालन भी बेटे की तरह होता है। उसे बेटे जैसे ही कपड़े पहनाए जाते हैं। कॉलेज की उच्च शिक्षा प्राप्त करती है। माता-पिता की सेवा में वह इतना अधिक डूब जाती हैं कि अपना जीवन भी होम कर देती हैं। वे शादी नहीं करतीं, क्योंकि शादी के बाद माता-पिता की देखभाल कौन करेगा? इसलिए उनकी उम्र निकल जाती है। योग्य वर नहीं मिलता। माता-पिता के न रहने पर आखिर एकाकीपन जीवन को अपना लेती हैं और घुट-घुटकर जीने को विवश हो जाती हैं। इस तरह की लड़कियों की संख्या आज समाज में लगातार बढ़ रही है। अपनी मौत से बेबी फलक और बेबी आफरीन ने समाज के सामने यह चुनौती दी है कि आखिर कब तक बेटी की उपेक्षा करोगे। यदि बेटी न होती, तो समाज में पुरुष भी नहीं होते। बेटी नहीं होगी तो बेटे के लिए दुल्हन कहाँ से लाओगे? बेटी को कोख में मारने में सहायक की भूमिका निभाने वाली माँ से भी यही सवाल कि ऐसा ही यदि उनकी माँ ने भी सोचा होता, तो क्या वे आज अपनी बेटी को मारने में सहायक हो पाती? बेटे से तो वंश चलता है, यह सच है, पर वह किस वंश का पोषक है, यह कोई बता सकता है। बेटी दो कुलों की शोभा बनती है। इसे समाज क्यों भूल जाता है। यदि बेटा ही महत्वपूर्ण है,तो आज देश में वृद्धाश्रमों की संख्या इतनी तेजी से क्यों बढ़ रही है? कौन देगा इसका जवाब? जरा वृद्धाश्रम जाकर उन बूढ़ी आँखों से एक बार पूछो तो कि आखिर बेटा उन्हें अपने घर पर क्यों नहीं रखता? क्या इसी दिन के लिए उन्होंने बेटे की कामना की थी और बेटी को कोख में मार डालने का फैसला लिया था?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

सईद भी अमेरिका की उपज



हरिभूमि के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख
http://74.127.61.178/haribhumi/epapermain.aspx

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

सवाल जिनके देने होंगे जवाब






दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख



शनिवार, 7 अप्रैल 2012

एक चुनौती हैं वी.के. सिंह

डॉ. महेश परिमल
सत्तारुढ़ दल के सामने सेना प्रमुख वी. के. सिंह एक चुनौती के रूप में उभरे हैं। सरकार को यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर सिंह के साथ किस प्रकार का सलूक किया जाए? इस मामले को दबाने के लिए सरकार ने काफी कोशिशें कीं, पर मामला जितना दबाओ, उतना ही उभरकर सामने आ रहा है। इतने समय से सरकार ने विपक्ष के तमाम आरोपों को झेल लिया, काफी हद तक उसका जवाब भी दे दिया, पर वी. के. सिंह के मामले पर वह कुछ कर नहीं पा रही है। सरकार के गृह मंत्री पी. चिदम्बरम पहले गंभीर आरोपों से घिरे, अब रक्षा मंत्री ए. के. एंटोनी भी कई विवादों में घिर गए हैं। ये दोनों सरकार के वरिष्ठ सहयोगी हैं। दस जनपथ से भी इनके संबंध बेहतर हैं। दानों ही महत्वपूर्ण पदों पर हैं। सामान्यत: नागरिकों में वी.के.सिंह को लेकर दो तरह की धारणाएँ काम कर रही हैं। एक वर्गऐसा है, जो उनका समर्थन कर रहा है, दूसरा वर्ग विरोध कर रहा है। विरोध करने वाला वर्ग यह मानता है कि इस समय यदि देश पर कोई हमला कर दे, तो बी.के.सिंह किस तरह से उसका सामना करेंगे? जब उन्हें 14 करोड़ की रिश्वत की पेशकश की गई थी, तो अब तक वे चुप क्यों बैठे रहे? यह वर्ग तो चाहता है कि उन्हें सेना से जो पदक मिले हैं, उसे वापस ले लिया जाए।
सरकार को इस बार वी.के. सिंह की तरफ से कड़ी चुनौती मिली है। अब तक सरकार अपने घटक दलों एवं विरोधियों के तेवरों को भी अपने तर्को से ठंडा कर चुकी है। पर इस बार वह बुरी तरह से फंस गई है। सरकार की कमजोरी विपक्ष के सामने पूरी तरह से सामने आ गई है। इस कमजोरी के चलते अब रक्षा मंत्री ए.के. एंटोनी के इस्तीफे की मांग उठ रही है। सरकार की पूरी कोशिश है कि मामला ठंडा पड़ जाए, इसलिए अब सरकार के संकटमोचक प्रणब मुखर्जी को मैदान में उतारा गया है। उनकी तरफ से यह पूरी कोशिश की जा रही है कि वी.के.सिंह के मामले में कोई भी मंत्री कुछ ऐसा न कहे, जिससे सरकार की मुश्किलें बढ़ जाए। इसके लिए विशेष ताकीद भी की गई है। अब तक सरकार कई मामलों का सामना किया है, पर वी.के.¨सह का मामला जरा पेचीदा होने के कारण सरकार को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि वी.के.सिंह के मामले में उसे भारी मशक्कत करनी होगी। सेनाध्यक्ष द्वारा उठाए गए सवालों को सरकार किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकती थी, इसलिए पहले तो सीबीआई को आगे कर दिया। जाँच की घोषणा कर दी। इसके पीछे उसकी मंशा यही थी कि यह संदेश जाए कि सरकार कुछ भी छिपाना नहीं चाहती। यह तो वी.के.सिंह का सौभाग्य है कि जैसे-जैसे विवाद बढ़ रहा है, वे लोकप्रिय होते जा रहे हैं। अब तक जितने भी सैन्य अधिकारी हुए हैं, उन्हें वी.के. सिंह जितनी लोकप्रियता नहीं मिली। उम्र के विवाद से हाशिए पर चले गए वी.के.सिंह ने जैसे ही यह खुलासा किया कि उन्होंने 14 करोड़ के रिश्वत की पेशकश ठुकरा दी थी, तो देश भर में सन्नाटा पसर गया। इससे बचने के लिए सरकार इधर-उधर भागते नजर आई। वी.के.सिंह को नागरिकों का भी समर्थन मिल रहा है। वैसे भी लोगों में यह आम धारणा है कि सेना के अधिकारी सम्मानीय होते हैं। देश की रक्षा के लिए वे एक पाँव पर खड़े रहते हैं। दूसरी ओर नेताओं से लोगों का विश्वास लगातार उठ रहा है। वी.के.सिंह को सेना के कई अधिकारियों का समर्थन मिल रहा है। फिर भी कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो यह चाहते हैं कि यदि वी.के.सिंह ने गलत किया है, तो उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। इसके लिए यही कहना है कि क्या रिश्वत की पेशकश ठुकराना गलत है, तो निश्चित रूप से उन पर कार्रवाई होनी चाहिए।
इस देश में ऐसा ही होता आया है। यदि नेता करोड़ों का घपला करे, तो भी उस पर आंच नहीं आती। लेकिन कोई दूसरा रिश्वत न ले, तो उस पर कार्रवाई की मांग की जाती है। इस मामले में भी ऐसा होने की पूरी संभावना है। सेनाध्श्क्ष वी.के.सिंह पर किसी भी तरह की कार्रवाई हो सकती है, पर इससे जुड़े नेताओं पर कभी किसी तरह की आँच नहीं आएगी, यह तय है। अब यह कहा जा रहा है कि आखिर सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र लीक कैसे हुआ? इस देश में पहले भी रक्षा घोटाले हुए हैं। इसमें से प्रमुख है बोफोर्स। इस मामले में दोषी किसी भी नेता या अधिकारी को सजा नहीं हो पाई। सेनाध्यक्ष सेना के जिस अधिकारी तेजिंदर सिंह पर आरोप लगाया है, उनका कहना है कि सेनाध्यक्ष एक हताश अधिकारी हैं। अब तो यह तय हो गया है कि जिसने भी सरकार के खिलाफ परचम उठाया, उसे विपक्ष के हाथों का खिलौना करार दिया जाता है। वी.के.सिंह के मामले में भी कुछ ऐसा ही होता नजर आ रहा है। जब वी.के.सिंह की उम्र का विवाद जोरों पर था, तब यह अफवाह उड़ाई गई थी कि अब उन्हें राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के लिए नामांकित किया जाएगा। आज के हालात यही हैं कि यदि सेनाध्यक्ष को बर्खास्त किया जाता है, तो सचमुच विपक्ष राष्ट्रपति पद के लिए एक सशक्त उम्मीदवार मिल जाएगा। इस पर यदि मध्यावधि चुनाव हो जाते हैं, तो कांग्रेस के सामने हार स्वीकारने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं बचता। सरकार इस बात पर डर रही है कि यदि कहीं वी.के.सिंह ने देश की सुरक्षा के प्रश्न पर कोई नया प्रक्षेपास्त्र फेंक दिया, तो क्या होगा? तय है सरकार लड़खड़ा जाएगी। इसलिए इस मामले में सरकार के सामने चुप रहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
रक्षा विभाग में जब भी किसी घोटाले की बात उठती है, तो मामला संवेदनशील हो जाता है। प्रजा भी उस दिशा में अधिक सोचने लगती है। आज जब सरकार चारों तरफ से भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है, तब वी.के.सिंह का मामला आग में घी का काम कर रहा है। जब वी.के.सिंह को बर्खास्त करने की माँग प्रबल होने लगी, तब सलाहकारों ने यह कहा कि इस कदम को तो यही कहा जाएगा कि आ बैल मुझे मार। अब यह कहा जा रहा है कि वी.के.सिंह को अवकाश पर भेज दिया जाना चाहिए। सरकार के इस कदम से सरकार को तो कोई लाभ नहीं होगा, पर छबि निश्चित रूप से खराब होगी। ऐसे में यदि वी.के.सिंह अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं और फैसला उनके पक्ष में रहा, तो सरकार की जो किरकिरी होगी, वह और भी शर्मिदगी भरी होगी। सवाल अभी तक वहीं के वहीं है कि वी.के.सिंह ने जो मुद्दा उठाया है, जो सवाल सरकार एवं रक्षा मंत्रालय से पूछे हैं, उसका क्या हुआ? सरकार को उनके सवालों का जवाब देना ही होगा।
   डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

जिसका अंतर्मन निष्‍पाप, वही ईश्‍वर का पुत्र

दैनिक भास्‍कर के सभी संस्‍करणों में प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

पिता की लघुकथा से पुत्र की पटकथा तक


बुधवार, 4 अप्रैल 2012

आईपीएल के लिए लोगों का पिघलता उत्‍साह





दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण और नवभारत के रायपुर बिलासपुर के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

अवसरवादी राजनीति का खुला चिट्ठा कर्नाटक-उत्तराखंड

डॉ. महेश परिमल
राजनीति में कुछ भी हो सकता है। कुछ भी चीज यहाँ स्थायी नहीं है। न तो निष्ठा और न ही ईमानदारी। चुनाव में बसपा को गाली देने वाली, सपा को गुंडा कहने वाली कांग्रेस आज दोनों ही दलों पर डोरे डाल रही है। ममता के नखरे अब सहन नहीं होते, इसलिए सपा का दामन थामने की कोशिशें हो रही हैं। उत्तराखंड में बसपा को साथ लेकर सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। उत्तराखंड के 30 विधायक भाजपा अध्यक्ष अजय भट्ट के नेतृत्व में उज्जैन में नजरबंद हैं। सभी ने महाकाल के दर्शन कर यह मनौती माँगी कि उनकी सरकार बन जाए। उधर कर्नाटक में भ्रष्टाचार के दलदल में गले तक डूबे येद्दियुरप्पा अपने समर्थक विधायकों को एक रिसोर्ट में रखकर एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। इसके लिए वे आलाकमान पर दबाव भी डाल रहे हैं। भाजपा आलाकमान ने येद्दियुरप्पा के सामने घुटने ही टेक दिए हैं। उधर उत्तराखंड में कांग्रेस अपनी जबान से पलट गई है। चुनाव के पूर्व यह कहा गया था कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री थोपा नहीं जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वहाँ सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री के रूप में थोप दिया गया। जाहिर है असंतोष तो भड़केगा ही। इसका नेतृत्व किया हरीश रावत ने। क्योंकि उन्होंने वहाँ कांग्रेस को जिताने के लिए बहुत ही मेहनत की। वे स्वयं मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। अब बहुगुणा के सामने यह चुनौती है कि अपना बहुमत किस तरह से साबित करें। कहा तो यह जा रहा है कि मामला सुलझ गया है। पर जब तक पूरी स्थिति साफ नहीं होती, कुछ कहना भी मुश्किल है।
उत्तराखंड और कर्नाटक की राजनीति में सत्ता के लिए खींचतान तेज हो गई है। यहाँ अवसरवादी राजनीति को खुले रूप में देखा जा सकता है। दोनों ही राज्यों में देश के दो मुख्य दलों का शासन है। कर्नाटक में भाजपा की नैया डोल रही है। दूसरी ओर उत्तराखंड में आंतरिक कलह सतह पर आ गया है। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को 25 मार्च को बहुमत सिद्ध करना है। यहाँ कांग्रेस ने ही असंतोष को जन्म दिया है। अब स्थिति नहीं सँभल पा रही है। यहाँ कांग्रेस ने भाजपा से केवल एक सीट ही अधिक प्राप्त की है। निर्दलीय और बसपा के साथ मिलकर कांग्रेस ने यहाँ सरकार बनाई है। सरकार बनाने में हरीश रावत को हाशिए पर रखकर जब विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया, तो रावत समर्थक विधायक असंतुष्ट हो गए। हरीश राव के पास 15 विधायक हैं। वे कांग्रेस नहीं छोड़ेंगे, इसकी तो पुष्टि करते हैं। पर दूसरी ओर अपने ही पड़ोसी और भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी से भी मुलाकात कर लेते हैं। भले ही इस मुलाकात का कोई अर्थ न निकलता हो, पर आखिर कहीं न कहीं कुछ तो है, जो उनके कदम भाजपाध्यक्ष के घर की ओर चल पड़े। इसलिए वे अब सरकार में अपने समर्थकों को बिठाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि गृह, वित्त ओर उद्योग मंत्री तो उनके हों। कांग्रेस मुश्किल में है, क्योंकि यदि हरीश रावत की माँग पूरी हो जाती है, तो विजय बहुगुणा का कद घट जाएगा।
उधर कर्नाटक में भाजपा संगठन मजबूत है। देश के दक्षिण प्रांत में पहली बार भाजपा ने जीत हासिल की है। कर्नाटक में भाजपा के दो कट्टर प्रतिस्पर्धी हैं। एक है कांग्रेस और दूसरी ओर हैं भूतपूर्व प्रधानमंत्री हरदन हल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा की जनता दल (एस)। भाजपा के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं। हाल में विधानसभा में तीन भाजपा विधायक पोर्न फिल्म देखते हुए कैमरे में कैद हो गए हैं। इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई हैं। माइंस लॉबी और येद्दियुरप्पा के बीच सांठगाँठ के कारण भाजपा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। कर्नाटक में पिछले दो वर्षो में जितने भी उपचुनाव हुए, उसमें भाजपा की ही जीत हुई है। यह भी एक सच्चई है। भाजपा के प्रतिष्ठित लोगों को संगठन में अधिक दिलचस्पी है। उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने  भ्रष्ट मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी से निकाला, तब भाजपा ने उन्हें अपने साथ शामिल कर लिया। कुशवाहा को पार्टी में लेना भाजपा को भारी पड़ा। क्योंकि कुशवाहा के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर हो गए। पूरे देश में भाजपा की फजीहत हुई। इस डर से भाजपा ने कुशवाहा को टिकट नहीं दिया। किंतु उनका उपयोग प्रचार के लिए किया। यही कारण है कि आज येद्दियुरप्पा की हिम्मत बढ़ गई। वे मुख्यमंत्री बनने के लिए छटपटा रहे हैं। भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहती, पर हालात ऐसे हैं कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के सिवाय दूसरा को चारा भी नहीं है, क्योंकि उनके समर्थक विधायकों की संख्या विरोधियों से अधिक है। भाजपा येद्दियुरप्पा को छोड़ भी दे, पर प्रजा को क्या जवाब देगी, यह कहना मुश्किल है। कर्नाटक में भाजपा जो भी कदम उठाएगी, उसका विरोध तो तय है। हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली करारी हार के कारण कर्नाटक को संभालना भी मुश्किल हो रहा है। भ्रष्टाचार के आरोप में जिन्हें मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था, आज वही मुख्यमंत्री बनने का दावा कर रहे हैं। अपने 55 विधायकों के साथ येद्दियुरप्पा आज आंखें तरेर रहे हैं। देखा जाए तो वहाँ वर्तमान मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा का काम-काज उत्तम है। किंतु समर्थक विधायकों की संख्या के कारण भाजपा उलझन में है। उधर उत्तराखंड में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, इसलिए उसे बसपा और निर्दलियों की मदद लेनी पड़ रही है। इसके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि विजय बहुगुणा बेदाग हैं। उन पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। उनके पास हालांकि बहुमत नहीं है, यहाँ आकर कांग्रेस को यह लग रहा है कि  हरीश रावत को अवसर न देकर भारी भूल हो गई है। 25 मार्च को विजय बहुगुणा विश्वास मत जीत भी जाते हैं, तो भी एक संशय रहेगा ही कि उनकी सरकार अधिक समय तक चल भी पाएगी या नहीं।
देश की राजनीति में सरकार का तख्तापलट कोई नई बात नहीं है। कर्नाटक में भाजपा के पास बहुमत है, जबकि उत्तराखंड में कांग्रेस के असंतुष्ट समीकरण बदलने की ताकत रखते हैं। कर्नाटक में यदि येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तो संभव है वहाँ भाजपा सरकार ही न रहे। आश्चर्य इस बात का है कि येद्दियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के इतने आरोपों के बाद भी उनके समर्थकों की संख्या सदानंद गौड़ा के समर्थकों से अधिक है। भाजपा की विवशता यह है कि अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में बिना येद्दियुरप्पा के जीत नहीं सकती। चुनाव जीतने के लिए येद्दियुरप्पा का सहयोग आवश्यक हैं। विधायकों की संख्या और समर्थन के कारण उन्होंने अपनी शर्म हया छोड़ दी है। वरना भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगने के बाद भी वे इतने अधिक कद्दावर कैसे हो गए? पार्टी के पास इतनी हिम्मत भी नहीं कि उन पर आरोपों के चलते उनके खिलाफ सीबीआई जाँच की सिफारिश करती। येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर विधायक दल विभाजित हो गया है। भाजपा अध्यक्ष नीतीन गडकरी मानते हैं कि लिंगायत जाति के लोगों का समर्थन प्राप्त किए बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता। उधर लालकृष्ण आडवाणी मानते हैं कि यदि येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो कांग्रेस को चुनाव में एक मुद्दा मिल जाएगा। संभव है इसी मुद्दे पर कांग्रेस जीत हासिल कर ले। गडकरी को कर्नाटक की चिंता है, जबकि आडवाणी को दिल्ली की। लोकसभा सीट उड्डीपी जहाँ से सदानंद गौड़ा ने इस्तीफा दिया था, वहाँ हाल ही हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जीत हुई है। इस लोकसभा सीट पर 7 विधानसभा सीट है, जिसमें से 6 भाजपा के पास है, उसके बाद भी भाजपा लोकसभा सीट हार गई। इस कारण सदानंद गौड़ा की ताकत घट गई। वहाँ भाजपा के प्रत्याशी को जिताने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, उसके बाद भी भाजपा प्रत्याशी जीत नहीं पाया। उड्डीपी के चुनाव में येद्दियुरप्पा प्रचार के लिए नहीं गए, इसलिए उनके समर्थकों ने भी वहाँ जाना टाल दिया। कर्नाटक के कुल 70 विधायकों में से 55 को येद्दियुरप्पा ने बेंगलोर के एक रिसोर्ट में बंधक बनाकर रखा है। इन्हीं का कमाल था कि उड्डीपी में लिंगायत समुदाय ने उनके इशारे को समझ लिया और भाजपा हार गई। भाजपा उनकी इस चाल को समझ तो गई, पर येद्दियुरप्पा के पास अपनी ताकत दिखाने का इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था।
भाजपा के लिए येदि किसी सरदर्द से कम नहीं हैं। यदि उन्हें कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो दिल्ली उसके हाथ से निकल जाएगी। क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ना चाहती है। कर्नाटक की मुख्यमंत्री की गद्दी पर यदि येद्दि आसीन होते हैं, तो पार्टी का भ्रष्टाचार विरोधी रूप बिखर जाएगा। भ्रष्टाचार को लेकर किए गए तमाम दावों की हवा ही निकल जाएगी। देश की राजनीति ही ऐसी है जो ईमानदार और निष्ठावान हैं,  उनकी छवि प्रजा के सामने अच्छी नही है। जो विशुद्ध रूप से बेईमान हैं, वे नागरिकों के सामने अच्छी छवि वाले माने जाते हैं। अब प्रजा भी यह मानने लगी है कि राजनीति में कोई भी ईमानदार नहीं है। ईमानदारी से कोई पार्षद का भी चुनाव नहीं लड़ सकता। यदि कोई बेईमानी से चुनाव जीतता है, तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मतलब साफ है कि ईमानदार वे हैं, जिन्हें बेईमानी करने का मौका नहीं मिला। राजनीति का ककहरा ही बेईमानी से शुरू होता है। इसलिए आज चारों ओर बेईमानी का ही दबदबा है। जिसके पास जितनी अधिक धन-दौलत है, वही जनता की अच्छी तरह से सेवा कर सकता है। जिन ईमानदारों के पास धन नहीं है, वे कभी भी जनता की सेवा नहीं कर सकते। बेईमानों के पास अपार धन-संपदा होती है। इसका उदाहरण भारतीय राजनीति में साफ देखा जा सकता है। अभी राज्यसभा चुनाव के लिए जिन्होंने अपनी सम्पत्ति दर्शायी है, उसी से पता चल जाता है कि पिछले 5 सालों में उनकी सम्पत्ति में कितना अधिक इजाफा हुआ है। आखिर ये सम्पत्ति कहाँ से आई, कैसे आई, यह जानने की कोई कोशिश नहीं करता। किसी ने इस दिशा में यदि थोड़ी सी भी सक्रियता दिखाई, वह हमेशा-हमेशा के लिए खामोश भी हो जाता है। देश में जनता को सूचना का अधिकार प्राप्त है, पर अपने इस अधिकार का उपयोग करने वाले न जाने कितने लोग खामोश हो गए, इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। कुछ भी हो, पर आज भारतीय राजनीति जिस चौराहे पर है, उससे तो यही लगता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ से चलने वाली राजनीति आज और अधिक आक्रामक हो गई है।
बीएस येद्दियुरप्पा
कर्नाटक विधानसभा में विपक्ष के नेता बन 1994 में पहली बड़ी जिम्मेदारी मिली। 1999 में चुनाव हारे। फिर कर्नाटक और केंद्र की राजनीति में अनंत कुमार के बढ़ते बर्चस्व के चलते 2005 में राजनीति से सन्यास लेने का विचार किया। लेकिन किस्मत पलटी। 2007 में मुख्यमंत्री बने। दक्षिण भारत में यह भाजपा की पहली सरकार थी। सात दिन बाद सरकार गिर गई। 2008 के चुनाव जीत फिर मुख्यमंत्री बने। लोकायुक्त की रिपोर्ट में अवैध खनन में शामिल पाए जाने के चलते 31 जुलाई 2011 को इस्तीफा देना पड़ा। हाईकोर्ट द्वारा लोकायुक्त की रिपोर्ट खारिज करने के बाद फिर मुख्यमंत्री बनाए जाने का दबाव बनाया। लेकिन पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने 31 मार्च को विधानसभा सत्र खत्म होने तक इंतजार करने को कहा।
डॉ. महेश परिमल

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