गुरुवार, 9 अगस्त 2012

मानसून सत्र, चिदम्बरम और चुनौतियां

डॉ. महेश परिमल
आखिर चिदम्बरम को अपना प्रिय और पसंदीदा मंत्रालय मिल गया। वित्त मंत्री का पद उन्होंने भले ही संभाल लिया हो, पर सच तो यह है, उन्हें यह पद जयललिता को नाराज करके मिला है। अब जयललिता मौके की तलाश में है, वह कभी भी सरकार को आसानी से संकट में डाल सकती है। उधर वित्त मंत्री का पद किसी कांटों के ताज से कम नहीं है। सरकार ने एफडीआई के मामले में कितने समझौते किए, पर वह अभी तक लटक रहा है। दूसरी ओर कंपनी बिल पिछले 8 साल से लगातार अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़ रहा है। महँगाई बढ़ रही है। सरकार की कोशिशें कामयाब नहीं हो पा रहीं है। वैसे भी चिदम्बरम के वित्त मंत्रालय संभालने से प्रजा में एक तरह की आर्थिक निराशा में बढ़ोत्तरी ही हुई है। कल से संसद का सत्र प्रारंभ हो रहा है। विपक्ष इस बार सरकार को घेरने की पूरी कोशिश में है। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिस पर सरकार को जवाब देना है। देखना यह है कि बिना प्रणब मुखर्जी के इस बार सरकार की नैया कैसे पार लगती है?
यह तो तय है कि इस बार संसद का मानसून सत्र निश्चित रूप से हंगामेदार होगा। एफडीआई को लाने के लिए सरकार तैयार है, किंतु घटक दल ऐसा नहीं चाहते हैं, इसलिए यह मुद्दा विवादास्पद हो सकता है। दूसरी महंगाई थमने का नाम नहीं ले रही है। वित्त मंत्री को वर्षात तक गुजरात, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा समेत अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखना है, बल्कि 17 महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को सामने रखकर आíथक रणनीति बनानी है। इसके पहले अन्ना हजारे के आंदोलन को देखते हुए विदेशी कंपनियां भारत में पूंजी निवेश करने से डर रही थीं, अब अन्ना का आंदोलन सिमट चुका है। इसलिए एक बार फिर एफडीआई के लिए रास्ता खुला दिखाई दे रहा है। इसमें सबसे बड़े बाधक तो सरकार के सहयोगी दल ही हैं। दूसरी ओर कर्ज में डूबी एयरलाइंस है। इन किस्सों से देश का आर्थिक तंत्र डांवाडोल होता जा रहा है। मुश्किल इस बात की है कि एक महीने तक प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्रालय अपने पास रखा, लेकिन वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए, जिससे लोगों को कुछ राहत मिल पाए।
इस समय वित्त मंत्री चिदम्बरम के पास सबसे बड़ी चुनौती है, 2012 के अंत में गुजरात, हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा समेत तीन अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव। इस चुनावों का मुख्य मुद्दा महंगाई हो सकता है। इसी तरह 2014 में लोकसभा चुनाव हैं, जो अभी केवल 17 महीने ही दूर हैं। तब तक महंगाई काफी ऊपर जा चुकी होगी। आवश्यक जिसंों के भाव आसमान तक पहुंच चुके होंगे। यह सभी कारक चुनाव में मतदाताओं को कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों के खिलाफ वोट डालने के लिए विवश कर सकते हैं। जिसका सीधा लाभ विपक्ष को मिलेगा, इसमें कोई शक नहीं। प्रजा आíथक मंदी और महंगाई के बोझ से त्रस्त हो चुकी है। चिदम्बरम इस दिशा में कुछ ऐसा करें, जिससे प्रजा को राहत मिले, तो प्रजा के सामने एक अच्छा संदेश जाएगा। सरकार सबसिडी की समस्या से निजात पाना चाहती है। अधूरे प्रोजेक्ट के कारण होने वाले घाटे को सरकार कम करना चाहती है। लेकिन सहयोगी दलों का पूरा सहयोग नहीं मिल पा रहा है। कृषि मंत्री शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसे घुमाते ही महंगाई कम हो जाएगी। अब चिदम्बरम से यह आशा की जा सकती है कि वे बिना जादू की छड़ी के महंगाई दूर करने का प्रयास करें।
कांग्रेस का एक गुट सुशील कुमार शिंदे को गृह मंत्री और चिदम्बरम को वित्त मंत्री बनाए जाने से खुश नहीं है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कांग्रेस ने  शिंदे और चिदम्बरम को महत्वपूर्ण मंत्रालय देकर जुआ ही खेला है। निश्चित रूप से यह जुआ आगे जाकर अपना असर दिखाएगा। वैसे भी चिदम्बरम अभी तक 2 जी टेलिकाम घोटाले से उबरे नहीं है। इसके बाद भी सरकार ने अपनी मनमानी की है। चिदम्बरम कभी भी जनता की आशाओं के अनुरूप नहीं उतर पाए हैं। सरकार के सामने महंगाई कम करने और आर्थिक मंदी के असर को हल्का करने की चुनौती है। इसके लिए सरकार ने जो भी रणनीति तैयार की, वे सभी नाकामयाब साबित हुई। वैसे भी चिदम्बरम जो भी फैसले लेते हैं, तो उसका सुब्रमण्यम स्वामी उसका खुलकर विरोध करते हैं। चिदम्बरम का चुनाव संबंधी मामला तमिलनाडु की अदालत में चल रहा है। वहां की मुख्यमंत्री जयललिता उनकी कट्टर विरोधी हैं। चिदम्बरम को वित्त मंत्रालय देकर सरकार ने जयललिता को नाराज किया है। इसका खामियाजा सरकार को भुगतना ही होगा। निकट भविष्य में जयललिता अपना असली स्वरूप दिखाएंगी ही, यह तय है।
आठ साल से अटका कंपनी बिल
सौ दिनों में महंगाई कम करने का वादा करके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक बार फिर झूठे साबित हुए हैं। प्रणब दा की अनुपस्थिति में जो डॉ. मनमोहन सिंह कर सकते हैं, उसे चिदम्बरम नहीं कर सकते। यह एक सच्चई है,जिसे सरकार को स्वीकारना ही होगा। देश में आर्थिक परिवर्तन लाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह यदि चाहते, तो देश में परिवर्तन की हवा चला सकते थे। पर वित्त मंत्रालय एक महीने तक उनके पास होने के बाद भी वे कुछ नहीं कर पाए। कंपनी बिल भी 8 वर्ष से अटका पड़ा है। इस बार उसे संसद में पेश किया जाना है। इस बिल में छोटे शेयर होल्डर,कंपनियों की जवाबदारी, ट्रांसफर ऑफ सिक्योरिटी, पब्लिक डिपाजिट,पोस्टल से मतदान आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों का समावेश है। यह बिल पिछले आठ वर्षो से क्यों लटका पड़ा है, यह समझ से परे है। जहां दूसरे बिल जल्दबाजी में पारित हो जाते हैं, वहीं इस बिल को महिला बिल की तरह न जाने क्यों हर बार रोक लिया जाता है। अभी तक यह बिल 2004, 2008 और 2011 में लोकसभा में पेश किया जा चुका है।
अब वित्तमंत्री के रूप में चिदम्बरम के सामने कई चुनौतियाँ हैं। जीडीपी के सबसे बड़ी समस्या है। वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण देश में उत्पन्न डर के माहौल को दूर करना आवश्यक है। सहयोगी दलों को इस बात के लिए राजी करना भी एक चुनौती है कि एफडीआई से देश को किसी प्रकार का नुकसान नहीं होगा। चूंकि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जद यू ने अपना समर्थन दिया था, इसलिए एफडीआई को लेकर सबसे अधिक विरोध यही दल कर रहा है। इन्हें मनाना बहुत मुश्किल है। शेयर बाजार के खिलाड़ी चिदम्बरम पर अपना भरोसा जताते हैं। इसके पहले जब वे वित्त मंत्री थे, तब भी उन्होंने शेयर बाजार की तेजी को महसूस किया था। अब एक बार फिर वित्त मंत्रालय उनके हाथ में है, तो बाजार कई नकारात्मक कारकों का सामना कर रहा है। वैसे भी जब वैश्विक आर्थिक मंदी को महसूस किया जा रहा हो, तो देश के बाजारों में तात्कालिक रूप से तेजी की हवा चले, ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है। भारतीय प्रजा की दिलचस्पी शेयर बाजार की तेजी से अधिक महंगाई के कम होने की तरफ अधिक है। त्योहार के दिन करीब हैं, ऐसे में प्रजा चाहती है कि महंगाई अपना असर न दिखाए, इसे कम करना ही है। तभी वे अपने वोट का असर चुनाव में दिखा पाएंगे।
     डॉ. महेश परिमल

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