सोमवार, 3 दिसंबर 2012

विकलांग दिवस : ये लाचार नहीं है, नजरिया बदलें

डॉ. महेश परिमल
पूरे विश्व में 3 दिसम्बर को विकलांग दिवस मनाया जाता है। पूरी दुनिया में एक अरब लोग विकलांगता के शिकार हैं। अधिकांश देशों में हर दस व्यक्तियों में से एक व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग हैं। इनमें कुछ संवेदनाविहीन व्यक्ति भी हैं। विकलांगता एक ऐसा शब्द है, जो किसी को भी शारीरिक, मानसिक और उसके बौद्धिक विकास में अवरोध पैदा करता है। ऐसे व्यक्तियों को समाज में अलग ही नजर से देखा जाता है। यह शर्म की बात है कि हम जब भी समाज के विषय में विचार करते हैं, तो सामान्य नागरिकों के बारे में ही सोचते हैं। उनकी ही जिंदगी को हमारी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं। इसमें हम विकलांगों को छोड़ देते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? कभी इस पर विचार किया आपने? ऐसा किस संविधान में लिखा है कि ये दुनिया केवल एक ही तरह के लोगों के लिए बनी है? बाकी वे लोग जो एक साधारण इंसान की तरह व्यवहार नहीं कर सकते, उन्हें अलग क्यों रखा जाता है। क्या इन लोगों के लिए यह दुनिया नहीं है। इन विकलांगों में सबसे बड़ी बात यही होती है कि ये स्वयं को कभी लाचार नहीं मानते। वे यही चाहते हैं कि उन्हें अक्षम न माना जाए। उनसे सामान्य तरह से व्यवहार किया जाए। पर क्या यह संभव है?
कभी किसी विकलांग संस्था में गए हैं आप? आप देखेंगे कि हम भले ही उन्हें विकलांग मानते हों, पर सच तो यह है कि वे स्वयं को कभी विकलांग नहीं मानते। ये अपनी छोटी सी दुनिया में ही मस्त रहते हैं। कई बार तो ये अपना प्रदर्शन एक सामान्य व्यक्ति से अधिक बेहतर करते हैं।  सरकारी ही नहीं, बल्कि निजी संस्थानों में भी ये विकलांग अपनी सेवाएं बड़ी शिद्दत से दे रहे हैं। ये अपनी ही दुनिया में इतने व्यस्त और मस्त हैं कि इन्हें हमारी आवश्यकता ही नहीं है। इनके अपने खेल होते हैं। ये साधारण इंसान के साथ ताश भी खेल सकते हैं। हम चाहकर भी इन्हें धोखा नहीं दे सकते। जो नेत्रहीन हैं, उनके पोरों में ही छिपी होती है ताकत। ईश्वर उनसे दृष्टि ले लेता है, पर स्पर्श का वह खजाना दे देता है कि जिस चीज को वे एक बार छू लें, तो वह स्पर्श वे कभी नहीं भूलते। यह हमारी कमजोरी है कि हम एक जाग्रत समाज के नागरिक होने के नाते समाज के विभिन्न वर्ग को समझने और स्वीकारने का साहस रखते हैं, पर विकलांगों के लिए यह भाव नहीं रखते। सामान्य नागरिक की तरह सभी को अधिकार दिए गए हैं, इसी तरह विकलांगों को भी कई अधिकार दिए गए हैं। फिर भी समाज में उन्हें अपना स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हमने न जाने कितने विकलांगों को अपने अधिकार के लिए जूझते देखा होगा। कोई पेंशन के लिए, कोई अपनी नौकरी बचाने के लिए, कोई अपने बच्चे की फीस के लिए और कोई अपने जीने के हक के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है। पर हम कभी आगे बढ़कर उनकी सहायता के लिए आगे नहीं आते। कई बार इन्हें बुरी तरह से दुतकारा जाता है। मानो विकलांगता इनके लिए एक श्राप हो। कोई खुद होकर विकलांग होना नहीं चाहता। इंसान हालात से मजबूर होता है। कई जन्म से विकलांग होते हैं, तो कोई दुर्घटना से । किसी को बीमारी के बाद विकलांगता आ जाती है। इसमें इनका क्या दोष? तो फिर इनके साथ सामान्य नागरिकों सा व्यवहार क्यों नहीं किया जाता?
विश्व में न जाने कितने ही विकलांग ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपने प्रदर्शन से सामान्य लोगों को सोचने के लिए विवश कर दिया है। कई लोग एवरेस्ट की ऊंचाई को पार कर चुके हैं, तो कोई पढ़ाई में आगे बढ़ गए हैं। कई ने विज्ञान के क्षेत्र में सफलता का परचम लहराया है। समाज का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां विकलांगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। वे सक्षम हैं, पूरी तरह से सक्षम हैं, हम ही उन्हें सक्षम नहीं मान रहे हैं। इन्हें हमारी सहानुभूति नहीं चाहिए, ये चाहते हैं कि उन्हें लाचार न समझा जाए, एक सामान्य नागरिक की तरह उनसे व्यवहार किया जाए। स्टीफन होकिंग का नाम दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है। चाहे वह कोई स्कूल का छात्र हो, या फिर वैज्ञानिक। सभी इन्हें जानते हैं। उन्हें जानने का केवल एक ही कारण है कि वे विकलांग होते हुए भी आइंस्टाइन की तरह अपने व्यक्तित्व और वैज्ञानिक शोध के कारसा हमेशा चर्चा में रहे। स्टीफन हाकिंग ने ब्रह्मांड और ब्लेक होल पर नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। विज्ञान को एक साधारण से साधारण व्यक्ति तक पहुंचाने वाले हाकिंग ने एक किताब लिखी है ‘एक ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’। इस किताब की अब तक एक करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्हें विज्ञान का प्रचारक कहा जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का खिताब देकर उनका सम्मान किया है। वे स्वयं विकलांगता की व्याख्या इस प्रकार करते हैं:-
‘‘विकलांग होना बुरी बात नहीं है। मेरी बीमारी के विषय में मेरे पास अच्छे शब्द नहीं हैं। परंतु मुझे इतना समझ में आता है कि हमें कभी भी किसी की दया का पात्र नहीं बनना है। क्योंकि अन्य लोग आपसे भी अधिक खराब स्थिति में हैं। इसलिए आप जो कर सकते हो, उसे प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ो। मैं भाग्यशाली हूं कि सैद्धांतिक विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा हूं। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें विकलांगता कोई बड़ी समस्या नहीं है। अभी मैं जीवन के सातवें दशक में हूं। एमयोट्रोफिक लेटरल स्केलरोसिस (एएलएस) की बीमारी से पीड़ित हूं। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों में से सबसे अधिक समय तक जिंदा रहने वालों में से हूं। इससे भी बड़ी बात यह है कि मेरे शरीर का अधिकांश हिस्सा शिथिल हो गया है, अपनी बात कंप्यूटर के माध्यम से करता हूं। मैं स्पेस में जाने की इच्छा रखता हूं। आशा रखता हूं कि मेरा अनुभव दूसरों को भी काम में आएगा।’’
ये हैं एक विकलांग के शब्द, जो हमें आज तक प्रेरणा देते हैं। हम अपना नजरिया बदलें और देखें कि हमारे आसपास ऐसे न जाने कितने विकलांग मिल जाएंगे, जो अपनी विकलांगता को भूलकर अपनी जिंदगी का आसान बनाकर जी रहे हैं। कई बार तो इन्होंने सरकारी सहायता को भी ठुकरा दिया है। ये अपना अधिकार चाहते हैं, ये दया के पात्र नहीं है। इन्हें भी जीने का अधिकार है, इन्हें जीना का अधिकार सरकार दे या न दे, पर हम अपना नजरिया बदलकर दे सकते हैं। एक बार केवल एक बार किसी विकलांग संस्था में जाकर तो देखो, इनकी दुनिया। कितने खुश और मस्त रहते हैं। इनकी खिलखिलाहट को महसूस करो। इनकी पीड़ाओं को समझने की कोशिश करो। इन वेदना से जुड़ने की एक छोटी सी कोशिश इनके जीवन में उजास भर देगी।
डॉ. महेश परिमल

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